शिक्षा जब सुविधाभोगी हो जाये और बड़े नगरों से बाहर न निकलना चाहे, तब सब क्या करेंगे? वही करेंगे जो हममें से बहुत लोग करते आये है। हम भी बड़े नगर पहुँच जायेंगे, वहीं रहेंगे, वहीं पढ़ेंगे और नौकरी लेकर आसपास ही बस जायेंगे। थोड़े सम्पन्न लोग तो बस अपने बच्चों की अच्छी पढ़ाई के लिये नगर में आ बसते हैं। अध्यापकों को भी सुविधा हो जाती है, वहीं पढ़ा लेते हैं, ट्यूशन देते हैं और जीवन बिता देते हैं। यही प्रक्रिया कई दशक चली होगी और आज स्थिति यह है कि किसी भी राज्य में एक या दो नगर ही शिक्षा के केन्द्र बन गये हैं, शेष स्थानों पर शैक्षणिक सूखा पड़ा है। विकास की तरह ही शिक्षा भी सुविधा में बैठी हुयी है।
इस तथ्य से मेरा कोई व्यक्तिगत झगड़ा नहीं है। हो भी क्यों, हम भी शिक्षा के इसी सुविधापूर्ण मार्ग से आये हैं। अच्छी बात तो यह है कि हर राज्य में कम से कम दो नगर तो ऐसे हैं, ज़ीरो बटे सन्नाटा तो नहीं है। समस्या पर यह है कि इन शैक्षणिक नगरों के अतिरिक्त भी देश का विस्तार है। सब नगर की ओर पलायन नहीं कर सकते हैं, कई कारण रहते है जो शिक्षा से अधिक महत्वपूर्ण हैं। हर छोटे स्थान पर सरकारी प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालय हैं, कुछ ग़ैर सरकारी भी हैं। शिक्षक भी हैं, पर सदा ही इस जुगत में रहते हैं कि विकास के आसपास ही रहा जाये, वहाँ संभावनायें अधिक रहती हैं। कुल मिला कर कहा जाये विद्यालय होने पर भी स्तर अच्छा नहीं है, शिक्षक होने पर भी पूरो मनोयोग से अध्यापन नहीं होता है।
समस्या गहरी तो है पर स्पष्ट है। यदि कुछ अस्पष्ट है तो वह है छात्रों का भविष्य और समस्या का हल।अध्यापकों का महत्व बहुत गहरा होता है हमारे भविष्य पथ पर। बहुधा देखा गया है कि जिस विषय के समर्पित अध्यापक मिल जाते हैं, उस विषय के प्रति एक नैसर्गिक आकर्षण उत्पन्न हो जाता है और वही विषय साथ बना रहता है, प्रतियोगी परीक्षाओं में भी। शिक्षा के प्रति घोर अनिक्षा विद्यालय के वातावरण पर निर्भर करती है। कभी कभी विषय विशेष के प्रति घोर वितृष्णा का भाव उस विषय से संबद्ध अध्यापक व पाठन शैली से आता है। कई बार लगता है कि यदि वह विषय अच्छे से पढाया गया होता तो संभवतः उसमें भी अच्छा किया जा सकता था।
आज भी आप अपने चारों ओर गिनती कर के देख लें, हर १०० सफल व्यक्तियों में अधिकांश छोटे और मध्यम नगरों से ही होंगे, हो सकता है कि कुछ वर्षों के लिये वे शैक्षणिक नगरों में भी रहे हों। जो विशेष बात उन सब में उपस्थित होगी, वह है कोई न कोई ऐसा व्यक्ति जिसने शिक्षा के प्रति न केवल प्रोत्साहित किया वरन जिज्ञासा को सतत जलाये रखा। वह व्यक्ति अध्यापक के रूप में हो सकता है, अभिभावक के रूप में हो सकता है, शुभचिन्तक के रूप में हो सकता है। पर यह तथ्य भी उतना ही सच है कि छोटे नगर में जो पौधे पनप नहीं पाये, उसके पीछे शिक्षा व्यवस्था का निर्मम उपहास छिपा है, चाहे वह विद्यालय में न्यूनतम सुविधाओं का आभाव हो या अध्यापकों की अन्यमनस्कता।
क्या इसका अर्थ यह हुआ कि शिक्षा और विकास के केन्द्रीकरण में छोटे नगरों और दूरस्थ गाँवों का भविष्य शून्य है? हमारे और आपके मन में निराशा के भाव जग सकते हैं, पर सुगाता मित्रा जी इससे सहमत नहीं हैं। सुगाता मित्रा जी पिछले १४ वर्षों से शिक्षा में नये प्रयोग करने के लिये जाने जाते हैं और उन्हें वर्ष २०१२ के लिये टेड की ओर से सर्वश्रेष्ठ वार्ता का पुरस्कार भी मिला है। शिक्षाविद होते हुये भी बड़ी ही सरलता से प्रयोगों में माध्यम से निष्कर्षों पर पहुँचना और उसे उतनी ही सहजता से प्रस्तुत कर देना, यह उनके हस्ताक्षर हैं।
१९९९ में उनकी प्रयोगधर्मिता प्रारम्भ हुयी, यह समझने के लिये कि जहाँ पर अध्यापक नहीं हैं, क्या वहाँ पर भी शिक्षा पैर पसार सकती है। विकास की धार को छोटे नगरों की ओर मोड़ना एक महत कार्य है और कई दशकों की योजना और क्रियान्वयन के बाद ही वह संभव है। तो क्या अध्यापकों के बिना भी ज्ञानयज्ञ चल सकता है? यदि हाँ तो उसका स्वरूप क्या होगा? ऐसे ही एक क्षेत्र में उनके द्वारा किया गया पहला प्रयोग बड़ा ही सफल रहा।
प्रयोग बड़ा ही सरल था, नाम था 'होल इन द वाल'। खिड़की पर एक कम्प्यूटर, माउस के स्थान पर एक छोटा सा ट्रैक पैड, सतत बिजली व इण्टरनेट। कोई अध्यापक नहीं, कोई रोकने वाला नहीं, कोई टोकने वाला नहीं, जिसको सीखना हो कभी भी आकर सीख सकता है। दो माह बाद बच्चों की योग्यता पुनः परखी जाती है, उनके अन्दर आयी प्रगति लगभग उतनी ही होती है जितनी किसी अच्छे विद्यालय में पढ़ने वाले बच्चे की। सुगाता मित्रा जी का उत्साह तनिक और बढ़ा, प्रयोग का क्षेत्र भाषा सीखने के लिये रखा और वह भी तमिलनाडु के धुर ग्रामीण परिवेश में। न केवल बच्चे अंग्रेजी सीख गये, वरन अंग्रेजों से अधिक अंग्रेजियत की शैली में सीख गये। यही नहीं बायोटेकनोलॉजी जैसे दुरुह विषय पर भी बिना किसी वाह्य सहायता के कामचलाऊ ज्ञान प्राप्त कर लिया बच्चों ने। बच्चों ने स्वयं ही वह सब कर दिखाया जिसका पूरा श्रेय हम शिक्षा व्यवस्था को दे बैठते हैं।
ज्ञान कहाँ से आया, जिज्ञासा से, स्रोत से, समूह में आदान-प्रदान से, देखकर सीखने से। निश्चय ही सारे के सारे कारक रहे होंगे और साथ में उन्मुक्त वातावरण भी रहा होगा, जहाँ कोई परीक्षा का भय नहीं, नौकरी पाने की विवशता नहीं, कोई प्रत्याशा नहीं, कोई शुल्क नहीं, बस ज्ञान बिखरा पड़ा है, जितना लूट सको लूट लो।
तो क्या अध्यापक की आवश्यकता ही नहीं है? सुगाता मित्रा जी किसी प्रसिद्ध लेखक का उद्धरण देते हैं, कि यदि कोई अध्यापक मशीन से विस्थापित हो सकता है तो उसे हो जाना चाहिये। बड़े गहरे अर्थ हैं इस वाक्य के। उसे तनिक ठिठक कर समझना होगा। ज्ञान सहज उपलब्ध हो, बच्चे में जिज्ञासा हो, तो ज्ञानार्जन बड़ा ही सरल है। सामाजिक परिवेश में देखें तो न जाने कितना कुछ बच्चा देखकर ही सीखता है। जो वह जानना चाहता है, गूगल पर देखकर खोज ही लेगा। तब अध्यापक का क्या कार्य है और वह कहाँ से प्रारम्भ होता है और उसकी अनुपस्थिति में वह कार्य कोई और कर सकता है?
प्रयोग जितने प्रभावी हैं, निष्कर्ष उतने ही स्पष्ट। पहला, जहाँ पर अध्यापक नहीं भी हैं, वहाँ भी निराश होने की आवश्यकता नहीं है, इस प्रकार की व्यवस्था से ज्ञान का प्रवाह अबाधित चल सकता है। दूसरा, अध्यापक के आभाव में गाँव का कोई बड़ा और समझदार व्यक्ति जिज्ञासा, उत्साह और सामूहिक भागीदारी का वातावरण बनाकर ज्ञानार्जन की प्रक्रिया बनाये रख सकता है। तीसरा, माना ज्ञानार्जन का कार्य बिना अध्यापक चल सकता है, पर जो दिशादर्शन और नये क्षेत्रों को बच्चों से परिचित कराने का कार्य है, उस विमा को हर अध्यापक को बनाये रखना है। ज्ञान की तृष्णा अपने लिये माध्यमों के बादल ढूढ़ ही लेगी, अध्यापक को तो स्वाती नक्षत्र की बूँद बनकर अपनी महत्ता बनाये रखनी होगी।
तो भले ही विकास के शैक्षणिक विस्तार में हमारा क्षेत्र न आता हो, पर हमें सीखने से कोई नहीं रोक पायेगा, देर सबेर कोई सिखाने वाला आ जायेगा, 'होल इन द वाल' के रूप में।
समस्या गहरी तो है पर स्पष्ट है। यदि कुछ अस्पष्ट है तो वह है छात्रों का भविष्य और समस्या का हल।अध्यापकों का महत्व बहुत गहरा होता है हमारे भविष्य पथ पर। बहुधा देखा गया है कि जिस विषय के समर्पित अध्यापक मिल जाते हैं, उस विषय के प्रति एक नैसर्गिक आकर्षण उत्पन्न हो जाता है और वही विषय साथ बना रहता है, प्रतियोगी परीक्षाओं में भी। शिक्षा के प्रति घोर अनिक्षा विद्यालय के वातावरण पर निर्भर करती है। कभी कभी विषय विशेष के प्रति घोर वितृष्णा का भाव उस विषय से संबद्ध अध्यापक व पाठन शैली से आता है। कई बार लगता है कि यदि वह विषय अच्छे से पढाया गया होता तो संभवतः उसमें भी अच्छा किया जा सकता था।
आज भी आप अपने चारों ओर गिनती कर के देख लें, हर १०० सफल व्यक्तियों में अधिकांश छोटे और मध्यम नगरों से ही होंगे, हो सकता है कि कुछ वर्षों के लिये वे शैक्षणिक नगरों में भी रहे हों। जो विशेष बात उन सब में उपस्थित होगी, वह है कोई न कोई ऐसा व्यक्ति जिसने शिक्षा के प्रति न केवल प्रोत्साहित किया वरन जिज्ञासा को सतत जलाये रखा। वह व्यक्ति अध्यापक के रूप में हो सकता है, अभिभावक के रूप में हो सकता है, शुभचिन्तक के रूप में हो सकता है। पर यह तथ्य भी उतना ही सच है कि छोटे नगर में जो पौधे पनप नहीं पाये, उसके पीछे शिक्षा व्यवस्था का निर्मम उपहास छिपा है, चाहे वह विद्यालय में न्यूनतम सुविधाओं का आभाव हो या अध्यापकों की अन्यमनस्कता।
१९९९ में उनकी प्रयोगधर्मिता प्रारम्भ हुयी, यह समझने के लिये कि जहाँ पर अध्यापक नहीं हैं, क्या वहाँ पर भी शिक्षा पैर पसार सकती है। विकास की धार को छोटे नगरों की ओर मोड़ना एक महत कार्य है और कई दशकों की योजना और क्रियान्वयन के बाद ही वह संभव है। तो क्या अध्यापकों के बिना भी ज्ञानयज्ञ चल सकता है? यदि हाँ तो उसका स्वरूप क्या होगा? ऐसे ही एक क्षेत्र में उनके द्वारा किया गया पहला प्रयोग बड़ा ही सफल रहा।
ज्ञान कहाँ से आया, जिज्ञासा से, स्रोत से, समूह में आदान-प्रदान से, देखकर सीखने से। निश्चय ही सारे के सारे कारक रहे होंगे और साथ में उन्मुक्त वातावरण भी रहा होगा, जहाँ कोई परीक्षा का भय नहीं, नौकरी पाने की विवशता नहीं, कोई प्रत्याशा नहीं, कोई शुल्क नहीं, बस ज्ञान बिखरा पड़ा है, जितना लूट सको लूट लो।
तो क्या अध्यापक की आवश्यकता ही नहीं है? सुगाता मित्रा जी किसी प्रसिद्ध लेखक का उद्धरण देते हैं, कि यदि कोई अध्यापक मशीन से विस्थापित हो सकता है तो उसे हो जाना चाहिये। बड़े गहरे अर्थ हैं इस वाक्य के। उसे तनिक ठिठक कर समझना होगा। ज्ञान सहज उपलब्ध हो, बच्चे में जिज्ञासा हो, तो ज्ञानार्जन बड़ा ही सरल है। सामाजिक परिवेश में देखें तो न जाने कितना कुछ बच्चा देखकर ही सीखता है। जो वह जानना चाहता है, गूगल पर देखकर खोज ही लेगा। तब अध्यापक का क्या कार्य है और वह कहाँ से प्रारम्भ होता है और उसकी अनुपस्थिति में वह कार्य कोई और कर सकता है?
प्रयोग जितने प्रभावी हैं, निष्कर्ष उतने ही स्पष्ट। पहला, जहाँ पर अध्यापक नहीं भी हैं, वहाँ भी निराश होने की आवश्यकता नहीं है, इस प्रकार की व्यवस्था से ज्ञान का प्रवाह अबाधित चल सकता है। दूसरा, अध्यापक के आभाव में गाँव का कोई बड़ा और समझदार व्यक्ति जिज्ञासा, उत्साह और सामूहिक भागीदारी का वातावरण बनाकर ज्ञानार्जन की प्रक्रिया बनाये रख सकता है। तीसरा, माना ज्ञानार्जन का कार्य बिना अध्यापक चल सकता है, पर जो दिशादर्शन और नये क्षेत्रों को बच्चों से परिचित कराने का कार्य है, उस विमा को हर अध्यापक को बनाये रखना है। ज्ञान की तृष्णा अपने लिये माध्यमों के बादल ढूढ़ ही लेगी, अध्यापक को तो स्वाती नक्षत्र की बूँद बनकर अपनी महत्ता बनाये रखनी होगी।
तो भले ही विकास के शैक्षणिक विस्तार में हमारा क्षेत्र न आता हो, पर हमें सीखने से कोई नहीं रोक पायेगा, देर सबेर कोई सिखाने वाला आ जायेगा, 'होल इन द वाल' के रूप में।