28.9.11

हे विधाता !

सुबह परिचालन के मानक सुदृढ़ थे, आवश्यक जानकारी प्राप्त कर व समुचित दिशा निर्देश देकर जब कार्यालय पहुँचा तो मन बड़ा ही हल्का था, मंडल भी हल्का था और गतिमय भी। तभी एक परिचित वरिष्ठ अधिकारी का फोन आया और जो समाचार मिला, उसे सुनने के बाद पूरा शरीर शिथिल पड़ गया, ऐसा लगा कि कान में खौलता लौह उड़ेल दिया गया। पल भर पहले का हल्कापन जड़ता में परिवर्तित हो गया, पैरों में बँधा विधि का पाथर पूरे अस्तित्व को विषाद की गहराई में खींच ले गया, बस एक आह ही निकल पायी, हे विधाता!

हिमांशु मोहनजी के असामयिक देहावसान का समाचार विधि के अन्याय के प्रति इतना क्षोभ उत्पन्न कर गया कि ज्ञान, निस्सारता, तर्क आदि शब्द असह्य से प्रतीत होने लगे। जीवन है, नहीं तो सब घटाटोप, अंधमय, शून्य, रिक्त, लुप्त। सुख-दुख का द्वन्द्व तो सहन हो जाता है, पर जीवन-मरण का द्वन्द्व तो छल है ईश्वर का, सहसा सब निर्द्वन्द्व, सब निस्तेज, सब निष्प्रयोज्य, सब निरर्थ।

जिसने कभी किसी के हृदय को पीड़ा न दी हो, जिसका हृदय शान्त और स्थिर हो, जिसका सानिध्य आपका हृदय उल्लास से भर दे, उसे हृदयाघात? कहाँ का न्याय है यह, हे भगवन्? क्या दूसरे की पीड़ा हल्का करने का दण्ड दे गये उन्हें। यही न, कि क्या अधिकार था उन्हें कलियुग में सतयुगी स्वांग रचाने का, सदाशयता फैलाने का, क्या उन सबकी सम्मिलित पीड़ा दे दी उन्हें, हृदय में?   

स्तब्ध हूँ, दुखी हूँ और बहुत खिन्न भी। जब से पता चला है, किसी कार्य में मन नहीं लग रहा है। जिस चेहरे पर छिटकी प्रसन्नता सारे अवसाद वाष्पित कर उड़ा देती थी, विश्वास ही नहीं हो रहा है कि वह चेहरा शान्त हो गया है। अब क्या वह स्मित मुस्कान फिर न दिखेगी जो मेरी इलाहाबाद की असहज यात्राओं में एक आस रेख बन चमकती रहती थी? अब इलाहाबाद की यात्रा के हर उन दो घंटों में कौन सी रिक्तता ढोये घूमूँगा जिसमें कभी उन्मुक्त हँसी, नीबू की चाय, छोटे समोसे और ढेर सा स्नेह भरा रहता था।

९ वर्ष अग्रज होने का तथ्य, उनके सहज और मित्रवत स्नेह के सम्मुख भयवश कभी नहीं आया। जब भी मिला, लगा कि सब कुछ छोड़ बस मेरी ही राह तक रहे हैं, मेरी समस्याओं से पहले से ही अवगत हैं और उसी के निवारण के लिये आज कार्यालय भी आये हैं। इतनी आत्मीयता कि अविश्वसनीय लगे, मेरे लिये ही नहीं, सबके साथ। जब सब परिचित यही विचार संचारित करने लगें तो संभवतः ईश्वर को भी अधिक कठिनाई नहीं हुयी हो, हिमांशुजी को अपना आत्मीय सहचर बनाने में। तब पहले ही आगाह कर देना था कि अधिक प्रेम घातक है।  

सहृदय की साहित्य में रुचि स्वाभाविक है। गज़ल से अप्रतिम प्रेम, प्रकृति का स्फूर्त सानिध्य, इतिहास अवलोकन का सारल्य, कलात्मक सृजनीयता, तकनीक प्रदत्त नवीनता, शब्दों और अर्थों की लुकाछिपी सुलझाती बौद्धिकता और उस पर से व्यक्तित्व की तरलता। भैया, स्वयं को धरा के योग्य बनाये रखना था, ईश्वर को भी बहाना न मिलता, हमारा स्वार्थ भी रह जाता।

दुख आज विशेष रूप लेकर आया है, मन के भाव छिपाने के लिये चेहरे पर गाढ़ी कालिमा पोत कर आया है, उसे आज कुछ भी नहीं दीखता है, अम्मा की पीड़ा भी नहीं, परिवार की स्तब्धता भी नहीं, मित्रों की पुकार भी नहीं। प्रकृति खड़ी संग में निर्दय स्वर बाँच रही है।

आपने गज़ल में रुचि जगायी थी, मार्गदर्शन किया था, आपकी पोस्ट पर की टिप्पणी स्मृति-स्वरूप अर्पित है।   

आपने तो चादरें फ़ाका-ए-मस्ती ओढ़ ली,
हमसे बोले ढूढ़ लाओ कुछ लकीरें आग की।

24.9.11

शब्द जो थपेड़े से थे

शब्दों का बल नापा नहीं जा सकता है, पर जब उनका प्रभाव दिखता है तो अनुमान हो जाता है कि शब्द तीर से चुभते हैं, हृदय में लगते हैं, भावों को प्रेरित करते हैं, अस्तित्व उद्वेलित करते हैं। कुछ शब्दों में अथाह शक्ति थी, उन्होने इतिहास की दिशा बदल दी। पिता का वचन और राम चौदह वर्ष के वनवास स्वीकार कर लेते हैं, पत्नी की झिड़की और तुलसीदास राम का चरित्र गढ़ने में जीवन बिता देते हैं, सौतेली माँ की वक्र टिप्पणी और ध्रुव विश्व में अपना स्थायी स्थान ढूढ़ने निकल जाते हैं। शब्दों का मान रखने के लिये के लिये वीरों ने राजपाट तो दूर, अपना रक्त भी बहा दिया है। शरणागत की रक्षा के लिये अपना सब कुछ स्वाहा करने के उदाहरणों से हमारा इतिहास भरा पड़ा है।

वैसे तो कितना कुछ हम बोलते रहते हैं, सुनते रहते हैं, बातें आयी गयी हो जाती हैं। शब्दों की उसी भीड़ में कब कौन सा वाक्य आपको झंकृत कर देन जाने कौन सा वाक्य कब आप पर प्रभाव डाल दे, चुभ जाये या जीवन की दिशा बदल दे, आपको भान नहीं रहता है। वह कौन सी मनःस्थिति होती है जिस पर शब्द प्रभावकारी हो जाते हैं? भारतीय जनमानस वैसे तो सहने के लिये विख्यात है, हम न जाने कितनी बातें पचा जाते हैं पर कब शब्दों के प्रवाह हमें बहा ले जाये, इस पर बड़ी अनिश्चितता है।

जिन घरों में नित्य टोका टाकी होती है वहाँ के बच्चे इस प्रकार के शब्द-प्रहारों के प्रति प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर लेते हैं, धीरे धीरे संवेदनशीलता कुंठित होने लगती है, किसी का कुछ कहना बहुत अधिक प्रेरित या उद्वेलित नहीं करता है उन्हें। समस्या तब आती है जब आपको पहली बार कुछ सुनने को मिलता है, आपकी संवेदनशीलता पर पहली चोट पड़ती है। याद कीजिये, आप सबके जीवन में वह क्षण आया होगा जब शब्दों ने अपनी वाक-ऊर्जा से कई गुना कंपन आपके शरीर में उत्पन्न किया होगा, आप हिल गये होंगे, आप बहुत कुछ सोचने लगे होंगे। ऐसे अवसर प्रकृति सबको देती है, भले ही कोई विद्यालय गया हो या न गया हो, जीवन की पाठशाला में कोई निरक्षर नहीं है, ऐसी परिस्थितियों और घटनाओं के माध्यम से सबकी समुचित शिक्षा और परीक्षा चलती रहती है। संवेदनशीलता यही है कि हम सदा ही सीखने और उसे व्यक्त करने को तत्पर रहें।

संवेदनशीलता यदि कुछ नयापन लाती है तो दुःख भी लाती है। जिन पर भावों का आश्रय टिका होता है, जिनसे अभिलाषाओं के सूत्र बँधे होते हैं, जिनसे आपको उत्तरों की प्रतीक्षा रहती है, उनसे यदि कुछ कठोर सा लगने वाला शब्द आपको सुनायी देता है तो आपको संभावनाओं के सारे कपाट बंद से दिखते हैं। कई अतिभावुक जन इसे सहन नहीं कर पाते हैं और बहुधा अप्रिय कर बैठते हैं। जो शब्दों का मर्म समझते हैं उनके लिये एक कपाट का बन्द होना उन प्रयत्नों का प्रारम्भ है जिसके द्वारा जीवन के उजले पक्ष खुलते जाते हैं।

भाग्यशाली हैं हम सब भाई बहन कि घर में सदा ही निर्णय लेने का अधिकार मिला है, स्वतन्त्र विचारशैली व जीवनशैली को सम्मान मिला है, माता-पिता का स्नेह-कवच सदा ही पल्लवित करता रहा है। यही कारण था कि लड़कपन तक एक हल्कापन और स्वच्छन्दता जीवनशैली में रची बसी रही। हाईस्कूल में सामान्य से अंक देख बस पिता ने यही कहा कि यदि इतनी सुविधा उन्हें मिली होती तो उनका प्रदेश में कोई स्थान आया होता। ये शब्द पूरे अस्तित्व को झंकृत कर गये, आने वाले वर्षों की दिशा निर्धारित कर गये। इण्टरमीडियेट में बोर्ड में स्थान आ गया, आईआईटी में पढ़ने का अवसर मिल गया, सिविल सेवा में चयन हो गया, जीवन में स्थायित्व भी आ गया, पर 25 वर्ष बाद भी वे शब्द स्मृति पटल पर स्पष्ट अंकित हैं।

न उसके पहले पिता ने कभी कुछ कहा था, न उसके बाद पिता ने अभी तक कुछ कहा, पर वे शब्द तो निश्चय ही थपेड़े से थे, अपने बल से आपका प्रवाह बदलने में सक्षम।

21.9.11

क्या हुआ तेरा वादा ?

पुस्तकें बड़ी प्रिय हैं, जब भी कभी बाहर जाता हूँ दो पुस्तकें अवश्य रख लेता हूँ। पढ़ने का समय हो न हो, यात्रा कितनी भी छोटी हो, एक संबल बना रहता है कि यदि विश्राम के क्षण मिले तो पुस्तक खोल कर पढ़ी जा सकती है। बहुत बार पुस्तक पढ़ने का अवसर मिल जाता है पर शेष समय पुस्तकें ढोकर ही अपना ज्ञान बढ़ाते रहते हैं। पुस्तक साथ रहती है तो एक संतुष्टि बनी रहती है कि सहयात्री यदि मुँह बनाये बैठे रहे तो समय काटना कठिन नहीं होगा, यद्यपि बहुत कम ऐसा हुआ है कि शेष पाँच सहयात्री ठूँठ निकले हों। अन्ततः कुछ ही न पढ़कर पुस्तकें सुरक्षित वापस आ जाती हैं। पुस्तकस्था तु या विद्या का श्लोक पढ़ा था पर सारा ज्ञान पुस्तक में लिये घूमते रहते हैं और ज्ञानी होने का मानसिक अनुभव भी करते हैं।

पहले समय अधिक रहता था, पुस्तके पढ़ने और समाप्त करने का समय मिल जाता था। मुझे अभी भी याद है कि कई पुस्तकें मैने एक बार में ही बैठ कर समाप्त की हैं। जिस लेखक की कोई पुस्तक अच्छी लगती थी, उसकी सारी पुस्तकें पढ़ डालने का उपक्रम अपने निष्कर्ष तक चलता रहता था। कभी भी किसी विषय पर रोचक शैली में लिखा कुछ भी अच्छा लगने लगता है, सब क्षेत्रों में कुछ न कुछ आता है पर किसी क्षेत्र विशेष में शोधार्थ समय बहाने की उत्सुकता संवरण करता रहता हूँ। किसी पुस्तक को मेरे द्वारा पुनः पढ़वा पाने का श्रेय बस कुछ गिने चुने लेखकों को ही जाता है।

उपरिलिखित बाध्यताओं के कारण घर में पुस्तकों का अम्बार सजा है। श्रीमती जी को भी यह अभिरुचि भा गयी है, पर उनके विषय अलग होने के कारण एक नयी अल्मारी लेनी पड़ गयी है। पुस्तकें पढ़ने की गति से पुस्तकें खरीदी भी जानी चाहिये नहीं तो समय में व मस्तिष्क में निर्वात सा उत्पन्न होने लगता है। धीरे धीरे पुस्तकें घर आने लगीं, जब कभी भी मॉल जाना होता था, कुछ भी लाने के लिये, पर वापस आते समय हाथ में एक दो पुस्तकें आ ही जाती हैं। अल्मारी भरने लगती हैं, पढ़ी हुयी पुस्तकें उस पर सजने लगती हैं, आते जाते जब पढ़ी हुयी पुस्तकों पर दृष्टि पड़ती है तो अपने अर्जित ज्ञान पर विश्वास बढ़ने लगता है, किसी ने सच ही कहा है कि जिस घर में पुस्तकें रहती हैं उस घर का आत्मविश्वास बढ़ा रहता है।

आजकल अन्य कार्यों में व्यस्तता बढ़ जाने के कारण पुस्तकें घर तो आ रही हैं, पढ़ी नहीं जा पा रही हैं। अब अल्मारी के पास से निकलते समय कुछ अनपहचाने चेहरे मुलकते हैं तो ठिठक कर वहीं रुक जाता हूँ क्षण भर के लिये। कई बार ऐसे ही हो गया तो अगली बार उनसे मुँह चुराने लगा। घर यदि बड़े नगरों की तरह कई रास्तों का होता तो राह बदल कर निकल जाते, यहाँ तो नित्य भेंट की संभावना बनी रहती है।

जब एक दिन न रहा गया तो लगभग १२ अनपढ़ी पुस्तकों को समेटा, मेज पर सामने रख कर बहुत देर तक देखता रहा, गहरी साँसे ली और निश्चय किया कि आने वाले ६ महीनों में इन्हें पढ़ा जायेगा, अर्थात १५ दिन में एक। स्मृति बनी रहे, अतः १२ पुस्तकों को मेज पर रख दिया गया। जहाँ एक ओर आपकी शिथिलता को तो प्रकृति सहयोग करती है वहीं दूसरी ओर आपके विश्वास को परखने बैठ जाती है। जो नहीं होना था, हो गया, व्यस्तता अधिक बढ़ गयी और शरीर ढीला पड़ कर अपना ही राग अलापने लगा, या तो कार्य होता था या फिर शयन। कोल्हू के बैल सम अनुभव करने लगा।

कई दिन से मेज पर बैठा ही नहीं, कि कहीं पुस्तकें दिख न जायें, सोफे पर ही बैठकर ब्लॉगिंग आदि का कार्य कर लेता था। आज याद नहीं रहा और किसी कार्यवश मेज के पास पहुँच गया। सारी पुस्तकें एक स्वर में बोल उठीं….

 क्या हुआ तेरा वादा ?




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@ संतोष त्रिवेदी, @ डॉ0 ज़ाकिर अली ‘रजनीश’ , @ Rahul Singh, @ Dr. shyam gupta
संभवतः अनपढ़ी पुस्तकों में हिन्दी की पुस्तक न पाना आप लोगों को निराश कर गया और यह अवधारणा दे गया कि मेरा पुस्तकीय प्रेम अंग्रेजी में ही सिमटा हुआ है। हिन्दी पुस्तकें बहुत पढ़ता हूँ और खरीदने के बाद अतिशीघ्र पढ़ लेता हूँ, इसीलिये कोई हिन्दी पुस्तक बची नहीं थी। यह तथ्य ध्यान दिलाकर आपने मेरा सुख बढ़ाया है।

17.9.11

अहा, लैपटॉप

पिछला एक माह उहापोह में बीता, कारण था नये लैपटॉप का चुनाव। पिछला लैपटॉप 5 वर्ष का होने को था और आधुनिक तकनीक में अपनी गति और भार की दृष्टि से मेरी यथा संभव सहायता कर रहा था। इतने दिन साथ घूमते घूमते थकान का अनुभव कर रहा था पर घर में शान्ति से बैठ सेवायें देने पर सहमत था। जिस यन्त्र पर हाथ सधा हुआ था, जिसके बारे में एक एक तथ्य ज्ञात था, जो मेरी सारी सूचनाओं को वर्षों को सहेजे हुये था, उसे छोड़ कुछ और अपनाना मेरे लिये कठिन था।

मेरे लिये कई निर्णय लेना आवश्यक था। 5 वर्ष पहले तक परिस्थितियाँ भिन्न थीं, लैपटॉप से अपेक्षायें भिन्न थीं, कई महत्वपूर्ण तत्व आकार ले रहे थे, तकनीकी क्षमतायें वर्तमान की आधी थीं, इण्टरनेट मोबाइल का प्रयोग विस्फोटित होने को तैयार बैठा था। उस समय जो मॉडल लिया था, वह अपने आप में सक्षम था, समयानुसार था, बाजार में अग्रणी था। उसकी पूर्ण क्षमताओं के उपयोग ने बहुत कुछ सिखाया है। जब भी जीवन को अधिक व्यवस्थित करने का समय आया या कम समय में अधिक निचोड़ने की आवश्यकता हुयी, लैपटॉप ने एक समर्थ सहयोगी की भूमिका निभायी है।

आधुनिक संदर्भों में लैपटॉप के चयन के लिये जिन बिन्दुओं पर निर्णय लेने थे उसे निर्धारित करने के लिये मुझे पिछले 5 वर्षों में हुये बदलाव को समझना आवश्यक हो गया। फैशन, सुन्दरता या आकार से प्रभावित होकर एक ऐसे लैपटॉप का चुनाव करना था जो आपके जीवन का अभिन्न अंग हो, आपकी कार्यशैली से सहज मेल खाता हो। अपनी रुचियों पर आधारित कार्यों को सरल और व्यवस्थित कर सकना, यही एकल उद्देश्य था चयन प्रक्रिया का। तीन महत्वपूर्ण बदलाव हुये, पहला ब्लॉग क्षेत्र में पदार्पण और नियमित लेखन, दूसरा कार्यक्षेत्र में गुरुतर दायित्व और निर्णय प्रक्रिया, तीसरा बच्चों के ज्ञानार्जन की तीव्रता में पिता का सहयोग। स्वाध्याय और जीवन का सरलीकरण पहले की ही तरह उपस्थित थे।

पहला था स्क्रीन का आकार, स्क्रीन का बड़ा होना अधिक बैटरी माँगता है, स्क्रीन का छोटा होना आँखों पर दबाव डालता है। बड़ी स्क्रीन में फिल्में देखने का सुख है तो छोटी स्क्रीन में लैपटॉप को कहीं भी ले जाने की सहजता। मध्यममार्ग अपनाकर 12-13 इंच की स्क्रीन निश्चित की गयी।

अगला निर्णय था, टैबलेट या नियमित कीबोर्ड। स्क्रीन पर वर्चुअल कीबोर्ड सदा ही एक विकल्प था पर अधिक टाईपिंग की स्थिति में स्क्रीन पर टाईप करना अनुपयुक्त और थका देने वाला था। आईपैड एचपी टचस्मार्ट की स्क्रीनों पर एक घंटे का समय बिताने के बाद नियमित कीबोर्ड अधिक सहज लगे। जहाँ अन्य टैबलेटों के ओएस कम क्षमता से युक्त थे वहीं विन्डोज के टैबलेट अपने नवजात स्वरूप में थे।

प्रॉसेसर की गति और क्षमता में आये परिवर्तन ने हम सबको अभिभूत किया है, संभवतः हमारी आवश्यकताओं से अधिक। भविष्य का ध्यान रखकर भी आई-5 और 4 जीबी रैम ही पर्याप्त लगा।

मेरी हार्ड डिस्क कभी भी 30 जीबी से अधिक भरी नहीं रही, कारण फिल्मों और गीतों के लिये 500 जीबी की वाह्य हार्ड डिस्क का होना। यदि कम हार्ड डिस्क में अच्छा लैपटॉप मिल सकता था तो उसका स्वागत था।

बैटरी का समय महत्वपूर्ण था, एक बार में कम से कम चार घंटे की बैटरी आवश्यक थी मेरे लिये। बड़ी बैटरी लैपटॉप का भार बढ़ाती हैं, छोटी बैटरी आपकी चिन्ता। 

इन सीमाओं में इण्टरनेट पर माह भर का शोध करने के पश्चात कई मॉल में जाकर उनका भौतिक अनुभव लिया।

पूरे घटनाक्रम में नाटकीय मोड़ तब आया जब एप्पल के शोरूम में नया मैकबुक एयर देखा। प्रेम विवाह नहीं किया अतः पहली दृष्टि  का प्रेम क्या होता था, ज्ञात नहीं था। इसे देखकर मन में जो भाव उमड़े उनका वर्णन कर पाना मेरे लिये संभव नहीं है, पर इतनी छोटी आकृति में उपरिलिखित क्षमतायें भर पाना एक चमत्कार से कम नहीं है। स्टीव जॉब को इस कार्य के लिये नमन।

यह मत पूछियेगा कि एप्पल के इस मँहगे मॉडल के लिये अतिरिक्त धन की पीड़ा आपसे कैसे सहन हुयी? श्रीमतीजी के वक्र नेत्रों की चिन्ता करते हुये मैं अपने नवोदित प्यार पर अतिरिक्त 15000 खर्च कर आया, प्यार किया तो डरना क्या? अब प्यार का पागलपन तो देखिये, 22 वर्षों के विण्डो के संचित ज्ञान को छोड़ मैं मैक ओएस सीखने बैठा हूँ, आशा है सारे नखरे सह लूँगा। 

आप बस एक चित्र देख लीजिये। आपको चेता रहा हूँ आपका मन डोल जाये तो दोष  दीजियेगा। 


14.9.11

पूर्वपक्ष, प्रतिपक्ष और संश्लेषण

पढ़ा था, यदि घर्षण नहीं होता तो आगे बढ़ना असंभव होता, पुस्तक में उदाहरण बर्फ में चलने का दिया गया था, बर्फीले स्थानों पर नहीं गया अतः घर में ही साबुन के घोल को जमीन पर फैला कर प्रयोग कर लिया। स्थूल वस्तुओं पर किया प्रयोग तो एक बार में सिद्ध हो गया था, पर वही सिद्धान्त बौद्धिकता के विकास में भी समुचित लागू होता है, यह समझने में दो दशक और लग गये।

विचारों के क्षेत्र में प्रयोग करने की सबसे बड़ी बाधा है, दृष्टा और दृश्य का एक हो जाना। जब विचार स्वयं ही प्रयोग में उलझे हों तो यह कौन देखेगा कि बौद्धिकता बढ़ रही है, कि नहीं। इस विलम्ब के लिये दोषी वर्तमान शिक्षापद्धति भी है, जहाँ पर तथ्यों का प्रवाह एक ही दिशा में होता, आप याद करते जाईये, कोई प्रश्न नहीं, कोई घर्षण नहीं। यह सत्य तभी उद्घाटित होगा जब आप स्वतन्त्र चिन्तन प्रारम्भ करेंगे, तथ्यों को मौलिक सत्यों से तौलना प्रारम्भ करेंगे, मौलिक सत्यों को अनुभव से जीना प्रारम्भ करेंगे। बहुधा परम्पराओं में भी कोई न कोई ज्ञान तत्व छिपा होता है, उसका ज्ञान आपके जीवन में उन परम्पराओं को स्थायी कर देता है, पर उसके लिये प्रश्न आवश्यक है।

स्वस्थ लोकतन्त्र में विचारों का प्रवाह स्वतन्त्र होता है और वह समाज की समग्र बौद्धिकता के विकास में सहायक भी होता है। ठीक उसी प्रकार किसी भी सभ्यता में लोकतन्त्र की मात्रा कितनी रही, इसका ज्ञान वहाँ की बौद्धिक सम्पदा से पता चल जाता है। जीवन तो निरंकुश साम्राज्यों में भी रहा है पर इतिहास ने सदा उन्हें अंधयुगों की संज्ञा दी है।

बौद्धिकता के क्षेत्र में घर्षण का अर्थ है कि जो विचार प्रचलन में है, उसमें असंगतता का उद्भव। प्रचलित विचार पूर्वपक्ष कहलाता है, असंगति प्रतिपक्ष कहलाती है, विवेचना तब आवश्यक हो जाती है और जो निष्कर्ष निकलता है वह संश्लेषण कहलाता है। संश्लेषित विचार कालान्तर में प्रचलित हो जाता है और आगामी घर्षण के लिये पूर्वपक्ष बन जाता है। यह प्रक्रिया चलती रहती है, ज्ञान आगे बढ़ता रहता है, ठीक वैसे ही जैसे आप पैदल आगे बढ़ते हैं जहाँ घर्षण आपके पैरों और जमीन के बीच होता है।

समाज में जड़ता तब आ जाती है जब पूर्वपक्ष और प्रतिपक्ष को स्थायी मानने का हठ होने लगता है, लोग इसे अपनी अपनी परम्पराओं पर आक्षेप के रूप में लेने लगते हैं। जब तक पूर्वपक्ष और प्रतिपक्ष का संश्लेषण नहीं होगा, अंधयुग बना रहेगा, लोग प्रतीकों पर लड़ते रहेंगे, सत्य अपनी प्यास लिये तड़पता रहेगा। साम्य स्थायी नहीं है, साम्य को जड़ न माना जाये, चरैवेति का उद्घोष शास्त्रों ने पैदल चलने या जीवन जीने के लिये तो नहीं ही किया होगा, संभवतः वह ज्ञान के बढ़ने का उद्घोष हो।

उपनिषद पहले पढ़े नहीं थे, सामर्थ्य के परे लगते थे, थोड़ा साहस हुआ तो देखा, सुखद आश्चर्य हुआ। उपनिषदों का प्रारूप ज्ञान के उद्भव का प्रारूप है, पूर्वपक्ष, प्रतिपक्ष और संश्लेषण।

शंकालु दृष्टि प्रश्न उठाने तक ही सीमित है, ज्ञान का प्रकाश संश्लेषण में है।

10.9.11

तरणताल में ध्यानस्थ

तैरना एक स्वस्थ और समुचित व्यायाम है, शरीर के सभी अंगों के लिये। यदि विकल्प हो और समय कम हो तो नियमित आधे घंटे तैरना ही पर्याप्त है शरीर के लिये। पानी में खेलना एक स्वस्थ और पूर्ण मनोरंजन है, मेरे बच्चे कहीं भी जलराशि या तरणताल देखते हैं तो छप छप करने के लिये तैयार हो जाते हैं, घंटों खेलते हैं पर उन्हें पता ही नहीं चलता है, अगले दिन भले ही नाक बहाते उठें। सूरज की गर्मी और दिनभर की थकान मिटाने के लिये एक स्वस्थ साधन है, तरणताल में नहाना। गर्मियों में एक प्रतीक्षा रहती है, शाम आने की, तरणताल में सारी ऊष्मा मिटा देने की। कोई भी कारण हो, तैरना आये न आये, आकर्षण बना रहता है, तरणताल, झील, नदी या ताल के प्रति।

उपर्युक्त कारणों के अतिरिक्त, एक और कारण है मेरे लिये। पानी के अन्दर उतरते ही अस्तित्व में एक अजब सा परिवर्तन आने लगता है, एक अजब सी ध्यानस्थ अवस्था आने लगती है। माध्यम का प्रभाव मनःस्थिति पर पड़ता हो या हो सकता है कि पिछले जन्मों में किसी जलचर का जीवन बिताया हो मैंने। मुझे पानी में उतराना भाता है, बहुत लम्बे समय के लिये, बिना अधिक प्रयास किये हुये निष्क्रिय पड़े रहने का मन करता है। मन्थर गति से ब्रेस्टस्ट्रोक करने से बिना अधिक ऊर्जा गँवाये बहुत अधिक समय के लिये पानी में रहा जा सकता है। लगभग दस मिनट के बाद शरीर और साँसें संयत होने लगते हैं, एक लय आने लगती है, उसके बाद घंटे भर और किया जा सकता है यह अभ्यास।

प्रारम्भिक दिनों में एक व्यग्रता रहती थी तैरने में, कि किस तरह जलराशि पार की जाये। तब न व्यायाम हो पाता था, न ही मनोरंजन, होती थी तो मात्र थकान। तब एक बड़े अनुभवी और दार्शनिक प्रशिक्षक ने यह तथ्य बताया कि जलराशि शीघ्रतम पार कर लेने से तैरना नहीं सीखा जा सकता है, तैरना चाहते हो तो पानी में लम्बे समय के लिये रहना सीखो, पानी से प्रेम करो, पानी के साथ तदात्म्य स्थापित करो। शारीरिक सामर्थ्य(स्टैमना) बढ़ाने और पानी के अन्दर साँसों में स्थिरता लाने के लिये प्रारम्भ किया गया यह अभ्यास धीरे धीरे ध्यान की ऐसी अवस्था में ले जाने लगा जिसमें अपने अस्तित्व के बारे में नयी गहराई सामने आने लगी। इस विधि में शरीर हर समय पानी के अन्दर ही रहता है, बस न्यूनतम प्रयास से केवल सर दो-तीन पल के लिये बाहर आता है, वह भी साँस भर लेने के लिये। पानी के माध्यम में लगभग पूरा समय रहने से जो विशेष अनुभव होता है उसका वर्णन कर पाना कठिन है, तन और मन में जलमय तरलता और शीतलता अधिकार कर लेती है। पता नहीं इसे क्या नाम दें, जल-योग ही कह सकते हैं।

कभी कभी इस अवस्था को जीवन में ढूढ़ने का प्रयास करता हूँ। समय बिताना हो या समय में रमना हो, समय बिताने की व्यग्रता हो या समय में रम जाने का आनन्द, जीवन भारसम बिता दिया जाये या एक एक पल से तदात्म्य स्थापित हो, जीवन से सम्बन्ध सतही हो या गहराई में उतर कर देखा जाये इसका रंग? यदि व्यग्रता से जीने का प्रयास करेंगे तो वैसी ही थकान होगी जैसे कि तैरते समय पूरे शरीर को पानी के बाहर रखने के प्रयास में होती है। साँस लेने के लिये पूरे शरीर को नहीं, केवल सर को बाहर निकालने की आवश्यकता है। जिस प्रकार डूबने का भय हमें ढंग से तैरने नहीं देता है, उसी प्रकार मरने का भय हमें ढंग से जीने नहीं देता है।

तैरने का आनन्द उठाना है तो ढंग से तैरना सीखना होगा। जीवन का आनन्द उठाना है तो ढंग से जीना सीखना होगा।

7.9.11

हिन्दी उत्थान और सहजता

घर में 'सब' चैनल के कार्यक्रम अधिक चलते हैं, हल्के फुल्के रहते हैं, परिवार के साथ बैठ कर देखे जा सकते हैं, बच्चों को भी सुहाते हैं, भारतीय परिवेश की सामान्य जीवनशैली पर आधारित होते हैं, स्वस्थ मनोरंजन प्रदान करते हैं और कृत्रिमता से कोसों दूर होते हैं। मनोरंजन का अर्थ ही है कि आपके मन के कोमल भावों को गुदगुदाया जाये, कभी किसी परिस्थिति द्वारा, कभी किसी चरित्र के हाव भाव द्वारा, कभी किसी उहापोह से, कभी हास्य से, कभी बलवती आशाओं से, कभी क्षणिक निराशाओं से।

हो सकता है कि कभी हास्य का कोई रूप आपको थोड़ा हीन लगे पर संदर्भों के प्रवाह में वह भी मनोरंजन बनकर बह जाता हो, बिना कोई विशेष क्षोभ उत्पन्न किये हुये। ऐसा ही कुछ मुझे भी खटकता है, सामान्य हास्य नहीं लगता है। कुछ धारावाहिकों में एक ऐसा चरित्र दिखाया जाता है जो बड़ी संस्कृतनिष्ठ हिन्दी बोलता है, छोटी बातों को भारी भरकम शब्दों से व्यक्त करता है, औरों को वह समझ में नहीं आता है, तब कोई समझदार सा लगने वाला चरित्र उसे सरल हिन्दी या अंग्रेजी में बता देता है, अन्य हँस देते हैं। आपके सामने वह हास्य और विनोद समझ कर परोस दिया जाता है।

धीरे धीरे यह धारणा बनायी जा रही है कि हिन्दी एक ऐसी भाषा है जो संवाद और संप्रेषण योग्य नहीं है, जो वैज्ञानिक नहीं है, जो आधुनिक नहीं हैं। किसी तार्किक आधार की अनुपस्थिति में भी यह हल्का सा लगने वाला परिहास ही उस धारणा को स्थायी रूप देने लगता है। 

सरल भव, सहज भव
अति उत्साही हिन्दी-बुद्धिजीवियों को अपने संश्लिष्ट ज्ञान से हिन्दी को पीड़ा पहुँचाते हुये देखता हूँ, सरल से शब्दों को क्लिष्टता के आवरण से ढाँकते हुये देखता हूँ, शब्दों के अन्दर ही क्रियात्मकता और इतिहास ठूँस देने का प्रयास करते हुये देखता हूँ। उपर्युक्त कारणों से जब हिन्दी का मजाक उड़ाया जाता है, तो क्रोध भी आता है और दुख भी होता है। क्रिकेट और रेलगाड़ी जैसे सरल शब्दों पर किये गये अनुप्रयोग इस मूढ़ता के जीवन्त उदाहरण हैं, समझ में नहीं आता है कि वे भाषा का भला कर रहे हैं या उपहास कर रहे हैं। आप ही बताईये कि 'माइक्रोसॉफ्ट' को हिन्दी में 'अतिनरम' क्यों लिखा जाये?

अगली बार इस तरह की मूढ़ता सुने तो विरोध अवश्य करे और प्रयास कर उन्हें सही शब्द भी बतायें। जो अवधारणायें नयी हैं, उनसे सम्बद्ध शब्द अन्य भाषाओं से लेते रहना चाहिये, उन अवधारणाओं के स्थानीय विकास के लिये। अंग्रेजी भी तो न जाने कितनी भाषाओं के शब्दों से भरी पड़ी है। बिना हलचल भाषाओं को भी स्वास्थ्य प्राप्त ही नहीं हो सकता, सजा कर रख दीजिये किसी जीवित प्राणी कोकुछ ही दिनों में कृशकाय हो जायेगा। हम अपनी माँदों से बाहर निकलेंप्रयोगों के खेल खेलेंनये शब्दों के खेल खेलेंसरलता आयेगी भाषा में, जनप्रियता आयेगी भाषा में, संभवतः वही भाषा का स्वास्थ्य भी होगा।

यह भी उचित नहीं होगा कि जिसका जैसा मन हो वह हिन्दी में अनुप्रयोग करे और हिन्दी में जो शब्द प्रचलित है उन्हें भी अन्य भाषाओं से बदल दे। अपनी तिजोरी देखने के पहले औरों से भीख माँगने की आदत, जो कई अन्य क्षेत्रों में है, हिन्दी में न लायी जाये। जिस देश में 12% जन भी अंग्रेजी नहीं समझते हैं, उन्हें नये अंग्रेजी शब्द याद कराने से अधिक सरल होगा उपस्थित हिन्दी शब्दों को अधिक उपयोग में लाना। जब अन्य भारतीय भाषाओं में उन शब्दों का प्रयोग हो रहा हो तो अंग्रेजी शब्द आयातित करना बौद्धिक भ्रष्टाचार सा लगता है। कई तथाकथित प्रबुद्ध हिन्दी समाचार पत्र इस प्रवृत्ति के पोषक बने हुये हैं।

हो सकता है कि हिन्दी उत्थान पर यह पोस्ट आपको उपदेशात्मक लगे, हिन्दी जैसे व्यक्तिगत विषयों पर टीका टिप्पणी करने जैसी लगे, क्रोध भी आये, पर इस पर विचार अवश्य हो कि क्या हिन्दी भाषा इस प्रकार के हास्य का विषय हो सकती है?

चित्र साभार - lalitdotcom.blogspot.com

3.9.11

पानीदार कहाँ है पानी?

पानी का साथ बचपन से प्रिय है, तैरने में विशेष रुचि है। कारण कोई विशेष नहीं, बस जहाँ जन्म हुआ और प्रारम्भिक जीवन बीता उस नगर हमीरपुर में दो नदियों का संगम है, यमुना और बेतवा। यमुना, रेतीले तट, गतिमान प्रवाह, पानी का रंग साफ। बेतवा, बालू के तट, मध्यम प्रवाह, पानी का रंग हरा।

तैरने के लिये बेतवा ही उपयुक्त थी, वहीं पर ही तैरना सीखा। गर्मियों की छुट्टियों में नित्य घंटों पानी में पड़े रहना, नदी पार जाकर ककड़ी, तरबूज आदि खाना, दोपहर को जीभर सोना और सायं घर की छत से बेतवा को बहते हुये देखना, सूर्यास्त के समय बेतवा सौन्दर्य का प्रतिमान हो जाती थी। बेतवा के साथ जुड़ी आनन्द की हिलोरें बचपन की मधुरिम स्मृतियाँ हैं। बचपन के घनिष्ठ मित्र सी लगती है बेतवा।

यमुना के रेतीले तटों पर पूर्ण शक्ति लगा सवेग दौड़ लगाना, फिर थक कर किनारे पर डरी डरी सी हल्की सी डुबकी। यमुना के गतिमान प्रवाह और उसकी शास्त्रवर्णित पवित्रता के लिये सदा ही आदर रहा मन में। संगम पर लगने वाले मेलों, धार्मिक स्नानों व अन्य अनुष्ठानों के समय मिला यमुना का मातृवत स्नेह आज भी स्मृतियों की सुरेख खींच जाता है।

मूल यमुना और उसकी पवित्रता तो दिल्लीवाले ही पी जाते हैं। अपने आकार को अपने आँसुओं से सप्रयास बनाये रखती यमुना, कान्हा के साथ बिताये दिनों को याद कर अपने अस्तित्व में और ढह जाती है, ताजमहल से भी आँख बचाकर चुपचाप निकल जाती है। यदि चंबल और बेतवा राह में न मिलती तो जलराशि के अभाव में यमुना प्रयाग में गंगा से भेंट करने की आस कब की छोड़ चुकी होती, त्रिवेणी की दूसरी नदी भी लुप्त हो गयी होती।

कुछ वर्ष पहले तक तो बेतवा का प्रवाह स्थिर था। बालू की खुदाई तटों से ही कर ली जाती थी, बाढ़ आने पर पुनः और बालू आ जाती थी, वर्षों यही क्रम चलता था, नदी का स्वरूप भी बचा रहता था और विकास को अपना अर्घ्य भी मिल जाता था। आज विकास की बाढ़ में बालू का दोहन अपने चरम पर पहुँच गया है, जहाँ पहले मजदूर ही बालू का लदान करते थे, अब बड़ी बड़ी मशीनों से नदी के तट उखाड़े जाने लगे। विकास की प्यास और बढ़ी, मशीनें नदी के भीतर घुस आयीं, जो मिला सब निकाल लिया, बेतवा सहमी सी एक पतली सी धारा बन बहती रही। वेत्रवती(बेतवा) आज असहाय सी बहती है, एक नाले जैसी, देखकर मन क्षुब्ध हो जाता है।

इस विषय पर भावनात्मक हूँ, मेरे बचपन के प्रतीकों का विनाश करने पर तुला है यह विकास। कुछ दिन पहले घर गया था, यमुना तट पर खड़ा खड़ा अपनी आँखों से उसका खारापन बढ़ाता रहा। यमुना, काश वृन्दावन की अन्य जलराशियों की तरह कान्हा ने तुम्हें भी खारा कर दिया होता, स्रोत से ही, कम से कम तुम्हारा स्वरूप तो बचा रहता। बेतवा, काश तुम्हारी बालू में भवनों को स्थायित्व देने वाला लौह-तत्व न होता, तुम्हारी भेंट ही तुम्हारे स्वरूप को ले डूबी।

हमीरपुर बुन्देलखण्ड में है, कहीं पढ़ा था बुन्देलखण्ड के विषय में,

बुन्देलों की सुनो कहानी, बुन्देलों की बानी में,
पानीदार यहाँ का पानी, आग यहाँ के पानी में।

अब न वह कहानी रही, न पानी रहा, न उस पानी में जीवन की आग रही और न ही रही वह पानीदारी।