28.8.10

21 दिवसीय महाभारत

21 दिन पहले मानसिक ढलान को ठहरा देने का वचन किया था, स्वयं से। वह वचन भी नित दिये जाने वाले प्रवचनों की तरह ही प्रभावहीन निकल गया होता यदि उसमें रॉबिन शर्मा की 21 दिवसीय सुधारात्मक अवधि का उल्लेख न होता। जिस समय 21 दिन वाले नियम का उल्लेख कर रहा था, खटका उसी समय लगा था कि कहीं अपनी गर्दन टाँग रहा हूँ। पहली टिप्पणी से ही पोस्ट का फँसात्मक पहलू उभर उभर कर सामने नाचने लगा। सायं होते होते पूरी तरह से लगने लगा कि प्रवीणजी आप नप चुके हैं, अब या तो 21 दिन बाद अपने वचन पालन न करने का क्षोभ सह लें या परिश्रम कर ससम्मान निकल लें। ब्लॉगजगत तो इसे भूल न पायेगा और पोस्ट तो लिखनी ही पड़ेगी। झूठ बोलना हो नहीं पायेगा क्योंकि वह आने वाली पोस्टों के हर शब्द को कचोटता रहेगा। निश्चय किया कि एक सार्थक प्रयास तो किया ही जा सकता है।

लगभग तीन वर्ष पहले जब रॉबिन शर्मा को पढ़ना प्रारम्भ किया था, उनकी सरल शैली व प्रभावी संदेश-सम्प्रेषण पर मुग्ध था। भारतीय संस्कृति के आधार पर विश्व के प्रखरतम साहित्य को कहानी का रूप प्रदान कर प्रस्तुत कर सकना कोई सरल कार्य नहीं। उनके नायकों के द्वारा शीर्ष पर पहुँचकर भी आध्यात्मिक निर्वात का अनुभव पुस्तकों को प्रथम पृष्ठ से ही रुचिकर बना देता है। युद्धक्षेत्र की जैसी स्थितियों में ज्ञान देने की प्रथा हमारी संस्कृति में पुरानी है। ऐसा ज्ञान समझ में भी बहुत आता है क्योंकि सुख में तो ज्ञान पाने का समय किसी के पास होता ही नहीं है।

उनकी सारी पुस्तकें पढ़ डालीं, विशुद्ध ज्ञान के रूप में। शरीर को तनिक भी पीड़ा देने की बात पर पृष्ठ पलटते पलटते स्वयं के ऊपर एक ऋण सा लगने लगा था। जब 21 दिन पहले स्वयं को घिरा पाया तो रॉबिन शर्मा के ऋण को अपने कर्म से उतारने का भार मेरे निश्चय को गुरुतर बना गया।

रणभेरियाँ बज चुकी थीं। मेरा रण द्वापरयुगीन महाभारत से 3 दिन अधिक का था। न सारथी कृष्ण, न धर्मराज युधिष्ठिर और न ही मेरा अर्जुन समान प्रशिक्षण। सम्मुख क्रूरतम शत्रु, मेरा मन। गीता के दो श्लोकों में इस शत्रु के बारे में जानकर कुछ और विश्लेषण करना शेष नहीं रह गया था। उपाय एक ही था, अभ्यास। हर कार्य उत्साह से करने का अभ्यास, हर कार्य नियमित करने का अभ्यास।

इस अवधि में नियमित शारीरिक श्रम किया। बैडमिन्टन कोर्ट में प्रकाश पादुकोन जैसा खेल न दिखा पाने की झुँझलाहट में मैकनरो जैसा स्वयं पर किया गया क्रोध मेरी आयु भले ही न कम कर पाया हो पर 21 दिनों में मेरे खेल के स्तर को उत्तरोत्तर बढ़ाता गया। बच्चों को अधिकाधिक समय देने से दिल तो सच में बच्चा जैसा अनुभव करने लगा। बिल्लियाँ और कुत्ते मेरे बदलाव से प्रसन्न होने के भाव अपनी मुद्राओं से व्यक्त करने में सक्षम दिखे। तीन फिल्में देखीं और एक पुस्तक पढ़ी। कार्यालय में प्रकल्पों को गति दी और दोनों बच्चों के विद्यालय गया अभिभावक बैठकों में भाग लेने।

दो घटनायें जो मानसिक ढलान को रोक देने की प्रक्रिया में अग्रणी रहीं, मात्र भाग्यवश ही इस अवधि में टकरा गयीं। पहली थी फूलों की प्रदर्शनी जिसमें सपरिवार जाकर मन प्रफुल्लित हो उठा और उनके सौन्दर्य व भाव सम्प्रेषण में कई दिनों तक अटका रहा। मन को सार्थक रूप से उलझा देने से उसके ऋणात्मक पहलू का उभरना कम होने लगता है और वह आपके आनन्द में मगन रहता है। दूसरी थी स्टेज पर जाकर तीन गाने गाने की घटना। वे गाने थे, फूलों के रंग से, ओ हंसिनी और किसी की मुस्कराहटों पे हो निसार। गाना भले ही इंडियन आईडियल की तरह न गाया हो पर गाया पूरे मन से।

निर्णय कर लिया था कि एक एक दिन पूरा जीना है उत्साह के साथ। और जिया भी।

विजयोत्सव मनाने का समय नहीं है पर इतना आत्मविश्वास अवश्य आ गया है कि मानसिक ढलान पूर्णतया रोका जा सकता है।

धन्यवाद, खूँटी पर टाँगने वाले ब्लॉगर-शुभचिन्तकों को और रॉबिन भाई को।

जय हो। 

25.8.10

आपकी भी मूर्खता छटपटाती है?

बचपन में विद्वता का विलोम पढ़ा था, मूर्खता। ज्यों ज्यों अनुभव के घट भरता गया तो लगा कि शब्दकोष यदि अनुभव के आधार पर लिखा जाता तो संभवतः मूर्खता शब्द का इतना अवमूल्यन न होता। यह एक स्वनामधन्य शब्द है और एक गुण के रूप में आधुनिक समाज में विकसित हुआ है। मैं जानता हूँ, "शब्दों का सफर" मेरी खोज को महत्व नहीं देगा। मैं उद्गम और स्थान विशेष से सम्बन्ध ढूढ़ने से अधिक इस शब्द को जी लेने का पक्षधर हूँ। आशा ही नहीं वरन पूर्ण विश्वास है आप भी इस शब्द को हृदयांगम करने के पश्चात ही इसके उपकारी पक्ष को समझ पायेंगे।

अनेक परिस्थितियों में मूर्खता के अश्वमेघ यज्ञ होते देख मेरे अन्दर की मूर्खता ने विद्रोह कर दिया। कहने लगी कि लोकतन्त्र में सबको अपनी बात कहने का अधिकार है। आप हर बार विद्वता का सहारा लेकर अपने आप को सिद्ध करने में लगे रहते हैं और मुँह लटकाये घर चले आते हैं। संविधान के अनुच्छेद 14 का मान न रख पायें तो, मन बदलने के ही नाते मुझे भी एक अवसर प्रदान करें।

इतना आत्मविश्वास देख तो बहुत दिनों तक यह निश्चय नहीं कर पाया कि मूर्खता को विकलांगता की श्रेणी में रखा जाये या क्षमता की श्रेणी में। स्वार्थवश और सफलता की प्यास में डूबा मैं भी ढीला पड़ गया और मूर्खता को जीवनमंचन में स्थान प्रदान कर दिया। इतने दिनों के सयानेपन का हैंगओवर हटाने के लिये मूर्खता ने ही 6 सरल सूत्र सुझाये।

1. किसी के दुख को देखकर बुद्ध बने रहिये। मुख में विकार का अर्थ होगा कि आप विद्यता को भुला नहीं पा रहे हैं।

2. जब तक पूछा न जाये, स्वतःस्फूर्त प्रश्नों के उत्तर न दें। पूछने पर भी, समझने का समुचित प्रयास करते हुये से तब तक प्रतीत होते रहिये जब तक प्रश्नकर्ता स्वयं ही उत्तर न दे बैठे।

3. विश्व के ज्ञान का प्रवाह अपने ओर बहने दें। निर्लिप्त जो स्वतः ही धँस जाये, उसके अतिरिक्त कुछ भी लोभ न करें।

4. उत्साह सबका बढ़ायें, बिना ज्ञान दिये। ज्ञान देने में विद्वता और उत्साह न बढ़ाने में विरोध प्रकट होता है। विरोध भी विद्वता का दूसरा सिरा है।

5. न्यूनतम जितना करने से जब तक रोटी मिलती रहती है, खाते रहें।

6. जीवन के लक्ष्यों को अलक्ष कर दें। ये आपको शान्ति से बैठने नहीं देंगे।

अभ्यास से क्या संभव नहीं और जब मैंने स्वयं अनुभव कर जानने का निश्चय किया तो मूर्खता के अभ्यास का कष्ट भी सह लिया। वर्षों से अर्जित ज्ञान और अनुभव को एक काजल की डिबिया में बन्दकर सुरक्षित रख दिया था। आनन्द की अनुभूति इन सूत्रों के अनुपालन से बढ़ती गयी। मूर्खत्व की खोज में परमहंसीय जीवन हो गया आदि और अन्त से परे। कर्मठ प्राणी माया के पाश में छटपटाते दिखे।

ब्रम्हा की तरह ही एक प्रश्न मेरे मन में भी उठा कि हे भगवन मैं इस सुख में डूब गया तो सृष्टि कैसे चलेगी?

आकाशवाणी होती है,

बालक ! अपने मूर्खत्व की रक्षा कर।

और

बने रहो पगला,

काम करेगा अगला।

....

....

उठिये, उठिये, इण्टरसिटी से चलना है।

(हुँह, यह उमर है सपना देखने की। इतना मुस्कराते तो पहले कभी नहीं देखा। बच के रहना, सुबह का सपना सच हो जाता है। हो जाये तो?) चेहरा देख कर ऐसा लगा कि श्रीमती जी ने यही सोचा होगा।

मैं चला स्टेशन का निरीक्षण करने। आप एक डुबकी तो मारिये।

21.8.10

मेरे प्रिय - मोबाइल और हिन्दी

मोबाइल फोन शहीद होने की अनेक विधियों में एक और जोड़ने का न तो मेरा उद्देश्य था और न ही उसे पैटेन्ट कराने का मन है। मनुष्यों के साथ रहते रहते मोबाइल फोन भी जन्म-मृत्यु के चक्र से बिना भयभीत हुये अपने कर्म में रत रहते हैं। हमारे तीन वर्षों के दिन-रात के साथी को, जिन्हे श्रीमतीजी सौत के नाम से भी बुलाती थीं और जो बिल गेट्स के विन्डो-मोबाइल परिवार से थे, सदैव ही इस बात का गर्व रहेगा कि उन्होने अपने प्राण हमारे हाथों में कर्मरत हो त्यागे, न कि फैशन की दौड़ में हारने के बाद किन्ही पुरानी अल्मारियों में त्यक्तमना हो। आइये स्मृति में दो मिनट का मौन रख लें।

बैडमिन्टन में पूर्णतया श्रम-निमग्न होने के पश्चात कोर्ट से बाहर आता हूँ, फोन बजते हैं, वार्तालाप में डूब जाने के समय पता ही नहीं चलता है कि कान के ऊपर बालों से टपकती स्वेद की बूँदें फोन के मेमोरी स्लॉट से अन्दर जा रही हैं। दो मिनट के बाद वार्तालाप सहसा रुद्ध होने पर जब तक भूल का भान होता, स्वेद का खारापन मोबाइल फोन की चेतना को लील चुका था। यद्यपि अभी उन्हें चेतना में लाने का श्रम चल रहा है पर आशायें अतिक्षीण हैं।

प्रियतम मोबाइल के जाने का दुख, मोबाइल न होने से विश्व से सम्पर्क टूट जाने का दुख और शीघ्र ही नया मोबाइल लेने में आने वाले आर्थिक भार का दुख, तीनों ही दुख मेरे स्वेद में घुलमिल कर टपक रहे थे। आँसू नहीं थे पर घर आकर बिटिया ने बोल ही दिया कि खेल में हार जाने से रोना नहीं चाहिये।

ऐसे अवसरों की कल्पना थी और घर में एक अतिरिक्त मोबाइल रहता था पर अपनों पर होने वाली आसक्ति और विश्वास में हम बाकी आधार छोड़ इतना आगे निकल आते हैं कि हमें अतिरिक्ततायें भार लगने लगती हैं। पिछले माह भाई को वह मोबाइल दे हम भी भारमुक्त हो गये थे।

रात्रि के 9 बजे दो जन मॉल पहुँचते हैं, सेल्समानव भी अचम्भित क्योंकि मोबाइल हड़बड़ी में खरीदने की वस्तु नहीं। बड़ा ही योग्य युवक। पूछा किस रेन्ज में और किन विशेषताओं के साथ? हमने डायलॉग मारा कि रेन्ज की समस्या नहीं पर उसमें हिन्दी कीबोर्ड होना चाहिये। श्रीमती जी मन में यह सोचकर मुस्करा रहीं थी कि निकट भविष्य में उनका डायलॉग भी कुछ ऐसा ही होने वाला है। रेन्ज की समस्या नहीं पर उसमें डायमण्ड होना चाहिये।

मोबाइल पर लिये निर्णय पर बहस कुछ ऐसी थी।
  1. विन्डो मोबाइल के पुराने मॉडल लेने का प्रश्न नहीं। विन्डो फोन 7 आने में देर है पर उसमें भारतीय भाषाओं के कीबोर्ड का प्रावधान नहीं है। आइरॉन केवल विण्डो मोबाइल 6.1 तक ही हिन्दी कीबोर्ड उपलब्ध कराते हैं।
  2. आईफोन ने 37 भाषाओं के कीबोर्ड दिये हैं पर भारतीय भाषाओं को इस लायक न समझ कर भारत का दम्भयुक्त उपहास किया है।
  3. एन्ड्रायड फोन नये हैं। गूगल ने जो प्रयास सभी भाषाओं को साथ लेकर चलने में किये हैं, उन्हें इन फोनों में आते आते समय लगेगा।
  4. सिम्बियानयुक्त नोकिया के फोनों में भी हिन्दी कीबोर्ड के दर्शन नहीं हुये। मैं ट्रान्सइटरेशन के पक्ष में नहीं हूँ।

हम लगभग निराश हो चले थे कि आज का चौथा दुख मोबाइल में हिन्दीहीन हो जाने का होगा, तभी सेल्समानव को एक मॉडल याद आया LG GS290। उसमें उन्होने हिन्दी अंग्रेजी शब्दकोष देखा था। उस मॉडल को जब हमने परखा तो उसमें हिन्दी कीबोर्ड उपस्थित था, यूनीकोड से युक्त।

मेरे चारों दुख वाष्पित हो गये और आँखों में आह्लाद का नीर उमड़ आया। आह्लाद उस समय और खिल गया जब उसका मूल्य 6000 ही पाया। हिन्दी कीबोर्ड के लिये 30000 के खर्चे का मन बना चुके हम, लगभग 24000 की बचत पर आनन्दित थे। अब इस पूरे घटनाक्रम को आप दैवयोग न कहेंगे तो क्या कहेंगे?

पर क्रोध की एक रेखा मन में बनी है अब तक।

मोबाइल जगत के धुरन्धर, भारतीय भाषाओं की दम्भयुक्त उपेक्षा कर रहे हैं और हम अपने सॉफ्टवेयरीय दास्यभाव में फूले नहीं समा रहे हैं। भारत एक भाषाप्रधान देश है तो क्या एक भी भारतीय लाल नहीं है जो इस सुविधा को विकसित कर सके? क्या सरकारों में इतना दम नहीं कि मना कर दे मोबाइल बेचने वालों को जब तक उनमें सारी भारतीय भाषाओं के लिये स्थान न हो? क्या हम अपनी भाषा को रोमन में लिख लिख कर अपने भाषा प्रेम का प्रदर्शन करते रहेंगे। कीबोर्ड के अभाव में यदि हम रोमन में लिख रहे हैं तो क्या यह अभाव हमारे देश की बौद्धिक सम्पदाओं के अनुरूप है?

मुझे उस दिन की प्रतीक्षा है जब हम अपनी विन्डो में बैठ अपना एप्पल खायेंगे।

18.8.10

सर तो बिजी है

सरकार व नौकरशाही का प्रतीक है लाल बत्ती। कार्यालयों के बाहर लगी दिख जाती है। सामान्य व असामान्य मानसिकता के बीच की रेखा। इसके प्रमुखतः दो उपयोग हैं, पहला दूरी बनाने में और दूसरा स्वयं को व्यस्त बताने में। मेरे लिये इसका उपयोग तीसरा है। वाणिज्य विभाग में होने के कारण जनता व उनके प्रतिनिधियों से सीधा सम्पर्क रहता है। लगातार लोगों के आते रहने से फाईलें निपटाने का समय नहीं मिल पाता है। सप्ताह में एक दिन तीन घंटों के लिये इस ऐतिहासिक सुविधा का उपयोग फाईलों से दूरियाँ मिटाने के लिये होता है।

द्वारपाल महोदय आदेश पाकर सतर्क हो बैठ जाते हैं। उन तीन घंटों के लिये उनके हाथों में सारे अधिकार सिमट जाते हैं। आगन्तुक कोई भी हो, उत्तर एक ही मिलता है।

"सर तो बिजी है।"

यदि द्वारपाल महोदय को आप यह मनवा सके कि आप यदि अभी नहीं मिले तो बहुत बड़ा अनर्थ होने वाला है, तभी आपका नाम स्लिप में लिखकर अन्दर पहुँचाया जायेगा। नहीं तो आप कितनी भी अंग्रेजी बोल लें, उनको हिलाना असम्भव। बस एक ही उत्तर।

"सर तो बिजी है।"

एक दिन बाहर से कुछ बहस के स्वर सुनायी पड़े। एक लड़की जिद पकड़कर बैठी थी कि उसे अभी मिलना है। दस मिनट तक ध्यान बँटता रहा तो फाईल बन्द कर उन्हें अन्दर बुला लिया। लड़की उत्तर पूर्व से थी व बंगलोर में अध्ययनरत थी। घर में पिता का स्वास्थ्य ठीक नहीं था और उन्हें उसी दिन गुवाहटी जाना था। पहले उन्हें पानी पिलवाया और उसके बाद एक इन्स्पेक्टर महोदय को बुला त्वरित सहायता कर दी गयी।

तनावमुक्त और अभिभूत हो उन्होने धन्यवाद तो दिया ही पर यह भी कहा कि आपने इतनी शिष्टता से सहायता की पर आपका द्वारपाल तो आने ही नहीं दे रहा था। उसको हटा दीजिये, आपकी छवि खराब कर रहा है। मैंने द्वारपाल के व्यवहार के लिये क्षमा माँग ली और कहा गलती मेरी ही है क्योंकि आदेश मेरा ही था। लड़की ने बताया कि वह भी सिविल सेवा की तैयारी कर रही है और उसमें सफल होने के बारे में मेरे अनुभव भी जानने चाहे। कार्य का क्रम टूट ही चुका था तो मैं भी एक भावी अधिकारी का भविष्य बनाने में लग गया। समय का पता नहीं चला और लाल बत्ती जलती रही।

द्वारपाल बाहर तने बैठे रहे। कई और लोग आये पर अब उनका उत्तर थोड़ा बदल चुका था।

"सर तो अबी बहोत बिजी है। अन्दर एक मैडम भी है।"

पता नहीं द्वारपाल महोदय लड़की से झगड़े का बदला ले रहे थे या हमारी छवि में चार चाँद लगा रहे थे।

14.8.10

फूलों का मुस्कराना

जब भी भावों को व्यक्त करने के लिये माध्यमों की बात होती है, फूलों का स्थान वनस्पति जगत से निकल कर मानवीय आलम्बनों की प्रथम पंक्ति में आ जाता है। प्रकृति के अंगों में रंगों की विविधता लिये एक यही उपमान है, शेष सभी या तो श्वेत-श्याम हैं या एकरंगी हैं। फिल्मों में भी जब कभी दर्शकों को भावों की प्रगाढ़ता सम्प्रेषित करनी हो तो फूलों का टकराना, हिल डुल कर सिहर उठना, कली का खिलना आदि क्रियायें दिखाकर निर्देशकगण अपनी अभिव्यक्ति की पराकाष्ठा पा जाते हैं। कोई देवालय में, कोई कोट में, कोई गजरे में, कोई पुष्पगुच्छ में और कोई कलाईयों में लपेट कर फूलों के माध्यम से अपने भावों को एक उच्च संवादी-स्वर दे देते हैं। प्रेमीगण रात भर न सो पाने की उलझन, विचारों की व्यग्रता, मन व्यक्त न कर पाने की विवशता और भविष्य की अनिश्चितता आदि के सारे भाव फूलों में समेटकर कह देना चाहते हैं। भावों से संतृप्त फूलों के गाढ़े रंगों को समझ सकने में भी दूसरे पक्ष से आज तक कभी कोई भूल होते नहीं देखी है हमने।

अब भावों की भाषा को सरल बनाते रंग बिरंगे संवाहकों को कोई कैसे केवल सौन्दर्यबोध की श्रेणी में ही रख देने की भूल कर सकता है। फूल पा कर भाव समझ लेना आपकी योग्यता भले न हो पर भाव न समझ पाना मूर्खता व संकट-आमन्त्रण की श्रेणी में अवश्य आ जायेगा। एक बार जब सुबह उठने पर अपने सिरहाने पर रखे गुलदस्ते पर कुछ फूल रखे पाये तो बड़ा अच्छा लगा। हम बिना भाव पढ़े सौन्दर्यबोध में खो गये। दिनभर के रूक्ष पारिवारिक वातावरण में सायं होते होते अपनी भूल समझ में आ गयी। बंगलोर आने के बाद घर मे हुये पहले फूल के बारे में अपने हर्षोद्गार व्यक्त न करना घातक हो सकता था, इसका अनुमान लग गया हमें। दिनभर मानसिक उत्पात के बाद उत्पन्न हुयी बिगड़ी स्थिति को अन्ततः फूलों ने ही सम्हाला हमारे लिये। यदि विश्वास न हो तो आप भी प्रयोग कर के देख लें।

बंगलोर की जलवायु बड़ी मदिर बनी रहती है, वर्षभर। यहाँ के विकास में, जनमानस के स्वभाव में और कार्य का माहौल बनाये रखने के अतिरिक्त फूलों के उत्पादन में भी इसी जलवायु का महत योगदान है। संसार भर में पाये जाने वाले सभी फूलों का उत्पादन कर उनके निर्यात के माध्यम से यहाँ की अर्थव्यवस्था को एक सुदृढ़ भाग प्रदान करता है यहाँ का फूल-व्यवसाय। यहाँ की संस्कृति में फूलों का उपयोग हर प्रकार के धार्मिक व सामाजिक अनुष्ठानों में बहुतायत से होता है। महिलाओं के सौन्दर्य प्रसाधन का अभिन्न अंग है, फूलों का गजरा।

यहाँ के जीवन में फूलों की सर्वमान्य उपस्थिति का एक उच्चारण है यहाँ पर होने वाली वार्षिक पुष्प प्रदर्शनी। पूरे देश से आये फूलों का अप्रतिम व सुन्दरतम प्रदर्शन। गत रविवार हमारे सौभाग्य की कड़ी में एक और अध्याय जुड़ गया जब सपरिवार इस प्रदर्शनी को देखने का अवसर मिला। सुबह शीघ्र पहुँचने से बिना अधिक प्रतीक्षा किये देखने को मिल गया क्योंकि वापस आते समय सैकड़ों की संख्या में नगरवासी टिकटार्थ खड़े थे। मन के कोमल भावों की सुन्दरतम अभिव्यक्ति के वाहकों की प्रदर्शनी न केवल दृष्टि के लिये अमृतवत थी वरन भीनी भीनी सुगन्ध मन को दूसरे लोकों में ले जाने में सक्षम प्रतीत हो रही थी।

मन पूर्णतृप्त था, उपकार फूलों का, जीवन के रंगों में घुल जाते रंग,भावों को कहते अपनों के संग।

आप प्रदर्शनी में दिखाये कुछ दृश्य देखें और अगली बार जब भी कोई फूल दिखे, उसमें छुपाये और सहेजे भावों को पढ़ने का यत्न अवश्य करें।

11.8.10

मेरे देश का मानचित्र कौन बनायेगा

बड़े घर की समस्या यह है कि सबको अपने अपने कमरे चाहिये होते हैं। मुझे तो पहली बार अपना कमरा आईआईटी के तीसरे वर्ष में जाकर मिला था अतः मेरा अनुभव इस समस्या के बारे में कम ही था। पृथु और देवला अभी तक एक कमरे मे ही थे। देवला की सहेलियों की गुड़िया-प्राधान्य बातों से व्यथित हो, पृथु ने अलग कमरे की माँग रख दी। एक अतिरिक्त कमरा था, अतः दे दिया गया।

पृथु को अलग कमरा क्या मिला, देवला ने विद्रोह कर दिया। जिन सुविधाओं पर अब तक दोनों का साझा अधिकार था, उनमें से कुछ के लिये अब उसे चिचौरी करनी पड़ सकती थी। अब घर में सबसे अधिक मुखर वही है, तर्क दे तर्क, पीछे पड़ी रही। पहले तो हम टालते रहे। उसके बाद तथ्यों में उलझाने का प्रयास किया। बातचीत तो कितनी भी लम्बी खींची जा सकती है। हम लोगों के टालमटोलू रवैये से उकता कर वह कागज और पेन लायी, घर का मानचित्र बनाया और सबके कमरे पुनः निर्धारित कर दिये। मुझे सबसे बड़ा विरोधी मान सबसे छोटा और कम सुविधाओं वाला कमरा दिया गया। अब इस विषय पर कमेटी व सब कमेटी बनाये बिना ही हमें ऐसा समाधान निकालना पड़ा जिससे समस्या अन्ततः हल हो गयी। इस विषय में मेरा अनुभव भी थोड़ा और बढ़ गया।

मेरा देश भी बड़ा है, सबके अपने अपने कमरे हैं। अब घर के हर कमरे में यदि एक दरवाज़ा बना दिया जाये बाहर जाने के लिये तो घर का स्वरूप कैसा होगा। कश्मीर अपना दरवाज़ा खोलकर बैठा है, उत्तरपूर्व अपना दरवाज़ा खोलकर बैठा है। सूराख और सेंधें तो दसियों लगी हैं। घर के अन्दर कमरों में बैठे लोगों ने अपना स्वातन्त्र्य घोषित कर दिया है। नक्सल अपना मानचित्र बनाये बैठे हैं। मुम्बई के मानचित्र को कोई अपना बता चुका है। कोई जाति विशेष, धर्म विशेष के कमरों का प्रतिनिधि बना बैठा है देश के सबसे बड़े कमरे में। देश को कब्जा कर लेने की प्रक्रिया चल रही है, देश के मानचित्र में अपने प्रभुत्व की रेखायें खींच रहे हैं कुछ ठेकेदार, यह भी नहीं जान पा रहे हैं कि अब उससे रक्त की धार बहने लगी है। देश की चीत्कार नहीं सुन पा रहे हैं, संभव है कि उसकी मृत्यु का संकेत भी न समझ पायें ये रक्तपिपासु।
 
इतनी ढेर सारी क्षेत्रीय समस्यायें देख कर तो लगता है कि समस्यायें भी मदिरा की भाँति होती हैं। जितनी पुरानी, उतना नशे में डूबी। यदि तुरन्त सुलझ गयीं तो क्या आनन्द? सारा देश इसी नशे में आकण्ठ डूबा है।

मेरे घर का छोटा सा विवाद, बिटिया की सुलझाने की इच्छा व दृढ़विश्वास, समाधान एक मानचित्र के रूप में आ गया।

मेरे घर का मानचित्र तो बिटिया बना लाई, मेरे देश का मानचित्र कौन बनायेगा?

आह्वान है उनसे जिनके हाथ में कुछ लिख देने की क्षमता है, आह्वान है उनसे जिनकी वाणी का प्रभाव अंगुलिमालीय मानसिकतायें बदल सकता है, आह्वान है उनसे जो इतिहास के पन्नों में न खो जाने की चाह रखते हैं, आह्वान है उनसे जिनकी दृष्टि देश का खण्डित स्वरूप देखकर पथरा जाती है और आह्वान है उनसे जो मूक दर्शक हैं इस अलगाववादी तांडव के। आप सब में देश का मानचित्र बना देने और उसे सबके अस्तित्व में बसा देने की क्षमता है।

का चुप साधि रहा बलवाना।
   
मेरा विश्वास है कि मेरा नैराश्य मेरी मृत्यु तक जीवित नहीं रहेगा क्योंकि यदि मेरी बिटिया में घर का मानचित्र बनाकर मेरे सम्मुख रख देने का साहस है तो वह और उसके सरीखे अनेक बच्चे कल हमारे हाथों से निर्णय का अधिकार छीनकर देश का मानचित्र भी बना देंगे।

7.8.10

अब बढ़ना बन्द

ज्ञानी कहते हैं कि जीवन में शारीरिक ढलान बाद में आता है, उससे सम्बन्धित मानसिक ढलान पहले ही प्रारम्भ हो जाता है। किसी क्रिकेटर को 35 वर्ष कि उम्र में सन्यास लेते हुये देखते है और मानसिक रूप से उसके साथ स्वयं भी सन्यास ले लेते हैं। ऐसा लगता है कि हमारा शरीर भी अन्तर्राष्ट्रीय मानकों के लिये ही बना था और अब उसका कोई उपयोग नहीं। घर में एक दो बड़े निर्णय लेकर स्वयं को प्रबुद्ध समझने लगते हैं और मानसिक गुरुता में खेलना या व्यायाम कम कर देते हैं। एक दो समस्यायें आ जायें तो आयु तीव्रतम बढ़ जाती है और स्वयं को प्रौढ़ मानने लगते हैं, खेलना बन्द। यदि बच्चे बड़े होने लगें तो लगता है कि हम वृद्ध हो गये और अब बच्चों के खेलने के दिन हैं, अब परमार्थ कर लिया जायें, पुनः खेलना बन्द। कोई कार्य में व्यस्त, कोई धनोपार्जन में व्यस्त, व्यस्तता हुयी और शारीरिक श्रम बन्द।


इन सारी विचारधाराओं से ओतप्रोत पिछले एक दो वर्षों से हम भी शारीरिक श्रम से बहुत कन्नी काटते रहे। बीच बीच में कभी कोई क्रिकेट मैच, थोड़ा बैडमिन्टन, पर्यटन-श्रम और मॉल में घुमाई होती रही। भला हो फुटबॉल के वर्ल्डकप का, एक दिन कॉलोनी में खेलते खेलते पेट शरीर से अलग प्रतीत होने लगा। लगने लगा कि पेट साथ मे दौड़ना ही नहीं चाहता है। केवल 10 वर्ष पहले तक पूरे 90 मिनट तक फुटबाल खेल सकने का दम्भ स्वाहा हो गया। उस समय आवश्यक कार्य का बहाना बना कर निकल तो लिये पर स्वभाववश स्वयं से भागना कठिन हो गया। लगने लगा कि यह ढलान अब रोकना ही पड़ेगा।


आज के युग में सुविधा पाये शरीर को हिलाना सबसे बड़ा कार्य है। इस समय मन भी शरीर के साथ जड़ता झोंकने लगा। एक प्राण, दो दो शत्रु। एक साथ दो शत्रुओं से निपटना कठिन लगा तो निश्चय किया गया कि पहले बड़े शत्रु को निपटाते हैं, छोटा तो अपने आप दुबक लेगा। अन्तःकरण ने निश्चय की हुंकार भरी कि आज से मानसिक ढलान बन्द।

अब बढ़ना बन्द।

सुबह जल्दी उठे। घर में ही पिजरें में बन्द सिंह की भाँति चहलकदमी की। सबको लगा कि अब सुबह सुबह कैसा तनाव? उन्हें क्या ज्ञात कि 'चंचलं हि मनः कृष्णः' की ख्याति प्राप्त योद्धा को जीतने का प्रयास चल रहा है। वाणिज्यिक आँकड़ों को भी आज के दिन ही गड़बड़ होना था। फोन से ही सिहांत्मक गर्जना हुयी तो पर्यवेक्षकों को सधे सधाये तन्तु हिलते दिखे। थोड़ी देर में 'दिल तो बच्चा है जी' का गाना रिपीट में लगा ब्लॉगीय झील में उतर गये। जब 8-10 बार बजने के बाद पर्याप्त मानसिक आयु कम हो गयी तो ही अन्य क्रियाकलाप प्रारम्भ किये। मन को इस रगड़ीय स्थिति में कढ़ीले लिये जा रहे थे पर सायं होते होते शरीर नौटंकी करने लगा। सायं को खेलने गये जिससे पुनः हल्का अनुभव होने लगा। रात को शान्त-क्लांत निद्रा-उर में सिमट गये।

एक बार रॉबिन शर्मा को कहते सुना था कि 21 दिन पर्याप्त होते हैं किसी नयी आदत को डालने में और स्वयं को उसके अनुसार ढालने में। अभी कुछ दिन ही हुये हैं गति पकड़े पर निश्चय 21 दिन का नहीं वरन जीवन पर्यन्त का है।

अब बढ़ना बन्द।

मन के हारे हार है, मन के जीते जीत। मन को साधने से शरीर सधने लगता है। शरीर को स्वस्थ रखने के लिये इसको बहुत प्यार से सम्हाल कर रखने की आवश्यकता नहीं है संभवतः। अंगों का स्वभाव है श्रम। स्वभाव में जीने से सब आनन्द में रहते हैं, स्वस्थ भी रहते हैं। स्वस्थ शरीर का पुष्ट भौतिकता के अतिरिक्त उच्च बौद्धिक व आध्यात्मिक स्तर बनाये रखने में बड़ा योगदान है। 

अब अगले कई वर्षों तक मेरी आयु न पूछियेगा। मैं 37 ही बताऊँगा।

क्योंकि, अब बढ़ना बन्द।

4.8.10

मॉल और माइक्रोसॉफ्ट

तब पढ़ाई हो, यह कारण रहता था  पिता जी के साथ बाजार न जाने का। अब लड़ाई न हो, इस कारण से बाजार जाना पड़ता है। हमारी भागने की प्रवृत्ति हमको घेर के वहाँ पर ले आती है जहाँ पर कोई विकल्प नहीं रहता और अन्ततः वही कार्य करने पड़ते हैं, जिनसे हम सदैव भागते रहते हैं।

हम जैसे प्रशिक्षार्थियों के लिये मॉल खुल जाने से यह कार्य अब उतना कष्टप्रद नहीं रह गया है। बाज़ारों के धूल-धक्कड़ से दूर मॉल का शीतल वातावरण व मनपसन्द वस्तुयें चुन पाने की सुविधा हम सबको सुहाती भी है। अब बच्चों का भविष्य हमारे वर्तमान की तरह न हो इसलिये उन्हें भी साथ ले लिया जाता है। मॉल में देवला ट्रॉली पकड़ती हैं और पृथु लिस्ट से सामान बता कर उसमें डालते रहते हैं। हमारा कार्य शंकाओं का समाधान करना होता है, कारण सहित। पारिश्रमिक कितना दिया गया, यह तब पता लगता है जब घर आकर लिस्ट के बाहर के सामानों का जोड़ होता है। कुछ दिनों में दोनों  इतने योग्य हो जायेंगे कि स्वयं जाकर ही खरीददारी कर आया करेंगे। बाल श्रम नहीं है, यह उनकी तैयारी है आगामी जीवन के लिये।

मॉल में बिलिंग यन्त्रवत सी लगती है। एक लड़का 'बार कोडिंग मशीन' के सम्मुख सामान दिखाता और आगे बढ़ा देता। 2000 का बिल बनाने में 30 सेकेण्ड समय लगा होगा। किसी गणितीय भूल की संभावना नहीं और समय की बचत भी।

इस पूरे प्रकरण में बस एक बात खटकी। मुझे अनायास ही अपने विद्यालय के एक मित्र अनुराग की याद आ गयी, वह अभी माइक्रोसॉफ्ट में है।

अनुराग की गणितीय गणना करने की क्षमता हम सबसे कहीं अधिक थी। कारण था बचपन में उसका अपने पिता जी की दुकान में बहुधा अकेले बैठना। छोटे कस्बे में छोटा व्यवसाय था। कोई कैलकुलेटर नहीं, कोई कम्प्यूटर नहीं, सब गणना मानसिक। भूल का अर्थ था हानि। वही क्षमता उसे पहले आई आई टी तक लायी और अन्ततः माइक्रोसॉफ्ट तक ले गयी।

मॉल संस्कृति जिस गति से फैल रही है, लगता है कि कुछ ही समय में सारे के सारे छोटे व्यवसायों और व्यवसायियों को सुरसावत निगल जायेगी। मॉल में लगी भीड़ इसका प्रमाण मात्र है। सीधे उत्पादन से उपभोक्ता तक सामान लाने की पूरी प्रक्रिया कम्प्यूटरों पर बिछी हुयी है। उद्देश्य लागत न्यूनतम करना है।

अब छोटे व्यवसाय नहीं रहेंगे तो कई और अनुराग उन दुकानों में कैसे बैठेंगे? कैसे उनकी गणितीय क्षमता पल्लवित हो सकेगी? माइक्रोसॉफ्ट को तब कैसे उतने योग्य मस्तिष्क मिल पायेंगे?

बिलिंग के 25 काउण्टरों में मुझे एक भी अनुराग नहीं दिखा, दिखा तो एक अर्थव्यवस्था का वह चेहरा जिसे न छोटी दुकानों की आवश्यकता है और न उसमें बैठने वालों अनुरागों की। मुझे यह भी दिखा कि भारत अपनी जिस बौद्धिक और मानसिक क्षमता पर इतना इतराता है, उनका भी मूल्य कम कर देंगे बाजार-व्यवस्था के समर्थक। अब मुहल्ले में आर्थिक समस्याग्रस्त लोगों को उधार कौन देगा? अब माइक्रोसॉफ्ट को अनुराग कौन देगा? हम जैसे विद्यार्थियों को ईर्ष्या करने के लिये अनुराग कौन देगा?

कई अनुराग खो गये हैं इन्ही मॉलों में। किसी को भी, किसी भी मॉल में, कभी भी यदि अनुराग दिखे तो मुझे बता दें। मुझे तो बस मेरा अनुराग वापस चाहिये।