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4.1.14

हिन्दी टाइपिंग - स्वेच्छा और अपेक्षा

कम्प्यूटर के लिये इन्स्क्रिप्ट कीबोर्ड
हिन्दी टाइपिंग में हो रहे परिवर्तनों में विशेष रुचि रही है, कारण उसका शून्य से विकसित होते देखते रहना है। कम्प्यूटरों में हिन्दी टाइपिंग की सुविधा ने संभावनाओं के द्वार खोल दिये थे, हिन्दी प्रेमियों ने डिजिटल रूप में इण्टरनेट अदि में न जाने कितना लिखना प्रारम्भ कर दिया था। पहले फॉण्ट की विषमता रही, पर यूनीकोड आने से सबका लिखा सब पढ़ने में सक्षम होते गये। कई तरह के कीबोर्ड आये, अन्ततः इन्स्क्रिप्ट कीबोर्ड के स्वरूप को सीडैक ने आधिकारिक घोषित किया। यह होने के बाद भी हिन्दीजन बाराह और अन्य फोनेटिक टाइपिंग तन्त्रों को सुविधानुसार चाहते रहे। यद्यपि इन्स्क्रिप्ट में गति कहीं अधिक है पर धाराप्रवाह टाइप करने के लिये कीबोर्ड पर अक्षरों की स्थिति का अभ्यास होने में दो सप्ताह का समय लग जाता है। यही कारण है कि सम्प्रति कम्प्यूटर जगत में हिन्दी टाइपिंग इन दो धड़ों में बराबर से बटी है। भारतीय भाषाओं के संदर्भ में इन्स्क्रिप्ट की एकरूपता एक अलग पोस्ट का विषय है।

मोबाइल और टैबलेट के पदार्पण से राह और सुगम हो चली। अब यथारूप टाइप करने के लिये कीबोर्ड स्क्रीन पर ही उपस्थित है, इन्स्क्रिप्ट टाइपिंग के लिये अक्षरों की स्थिति जानने की कोई समस्या नहीं। फिर भी पता नहीं क्यों मोबाइल बनाने वाले नये नये कीपैडों के प्रयोग में क्यों लगे हुये हैं, जो न मानक हैं, जिनका न सिर पैर है, जिनका न टाइप करने वालों में अभ्यास है, जिसके पीछे न कोई तर्क या वैज्ञानिकता ही है? यदि इस तरह के प्रयोग वैकल्पिक होते तो बात अलग थी, लोग श्रेष्ठ को चुनते, शेष को छोड़ देते। पर इन विचित्र कीबोर्डों का एकमात्र की बोर्ड होना और मानक इन्स्क्रिप्ट कीबोर्डों की अनुपस्थिति हिन्दीजनों के धैर्य को सतत टटोलने जैसे विचित्र कार्य हैं।

वर्तमान में एप्पल और एण्ड्रॉयड में इन्स्क्रिप्ट कीबोर्ड को मानक मान लिया गया है। विण्डो फोन अभी भी अधर में अटके हैं, सारी वर्णमाला एक ओर से लिख कर उसे कीबोर्ड का नाम दे दिया। आश्चर्य तब और होता है कि आज से ६ वर्ष पहले विण्डो के एचटीसी फोन पर इन्स्क्रिप्ट कीबोर्ड उपयोग में लाते थे और ३ वर्ष पहले नोकिया के सी३ फोन पर भी उसी कीबोर्ड का उपयोग किया था। अब दोनों कम्पनी एक हो गयीं और मानक इन्स्क्रिप्ट कीबोर्ड को भूल गयीं। पर्याप्त समय हो चुका है और अब तक सबको यह समझ जाना चाहिये कि हिन्दी का मानक कीबोर्ड क्या है। प्रयोग भी बहुत हो चुके हैं, अब ये प्रयोग बन्द कर मानक कीबोर्ड के संवर्धन पर ध्यान दिया जाये।

स्क्रीन कीबोर्डों के लिये संवर्धन के क्या और होना चाहिये, इस पर अपेक्षाओं की सूची लम्बी है। इनमें से कई आंशिक रूप से उपस्थित भी हैं, पर उनको पूरी तरह से उपयोग करने के लिये पूरी सूची का क्रमवार होना आवश्यक है।

मोबाइल का परिवर्धित इन्स्क्रिप्ट कीबोर्ड
पहला है, नोटपैड और कीबोर्ड की स्पष्टता। इन्स्क्रिप्ट कीबोर्ड की एक पंक्ति में १३ अक्षर होते हैं, यदि ये सारे अक्षर मोबाइल  में या टैबलेट में यथारूप डाल देंगे तो चौड़ाई में अक्षरों का आकार बहुत छोटा हो जायेगा और टाइप करने में बहुत कठिनाई भी होगी। साथ ही साथ पाँच पंक्ति का मानक स्वरूप रखेंगे तो कीबोर्ड का आकार बहुत ऊँचा हो जायेगा और तब नोटपैड पर लिखने के लिये कम स्थान मिलेगा। जहाँ एप्पल के इन्स्क्रिप्ट कीबोर्ड में ४ पंक्तियाँ और एक पंक्ति में अधिकतम ११ अक्षर हैं, वहीं एण्ड्रॉयड में ४ पंक्तियाँ और एक पंक्ति में १२ अक्षर हैं। यही नहीं, एक हाथ में पकड़कर अँगूठे से टाइप करने की सुविधा के लिये मोबाइल की चौड़ाई अँगूठे की लम्बाई से अधिक नहीं होना चाहिये। बहुत बड़ी स्क्रीन के चौड़े मोबाइल मुझे संभवतः इसीलिये नहीं सुहाते और मैं अपने ३.५ इंच की स्क्रीन के आईफोन ४एस से अत्यधिक संतुष्ट हूँ। मुझे लगता है कि बहुत बड़ी स्क्रीन का फ़ोन लेने के क्रम में हम एक हाथ से टाइपिंग की सुविधा खो बैठते हैं। अँगूठे भर की लम्बाई में ११ से अधिक अक्षर बहुत छोटे लगते हैं। बताते चलें कि अंग्रेजी वर्णमाला के लिये एक पंक्ति में केवल १० अक्षर होने से उसका कीपैड कहीं अधिक स्पष्ट दिखता है।

जब कीपैड आये तो स्क्रीन में शेष स्थान यथासंभव खाली रहना चाहिये, जिससे लिखा हुया अधिक और स्पष्ट दिखायी पड़े। साथ ही साथ कीपैड और कर्सर के बीच बहुत अधिक दूरी होगी तो लेखन में असुविधा बढ़ती है। यदि कीपैड आने के पश्चात नोटपैड में कम स्थान यदि बचता भी हो तो कर्सर कीपैड के यथासंभव निकट होने से टाइप होने की असुविधा कम की जा सकती है।

बिना शिफ्ट की के टाइपिंग
स्क्रीन कीपैड में एक और सुविधा है जिससे टाइपिंग की गति बढ़ाई जा सकती है। टाइपिंग में शिफ़्ट की जितनी कम दबाई जाये, उतनी अधिक गति बढ़ जाती है। इन्स्क्रिप्ट कीपैड में आधे अक्षर शिफ़्ट की दबा कर ही आते हैं। सामान्य लेखन में शिफ़्ट की के अक्षरों का प्रयोग एक तिहाई ही है। उसे भी और कम किया जा सकता है। यदि क को तनिक अधिक देर दबाये रखें तो ख आ जाता है। यह समय शिफ़्ट की दबाने से थोड़ा कम होता है। इसी प्रकार न को दबाये रखने से हर वर्ग का पाँचवाँ अक्षर आ जाता है और आप बिना अधिक प्रयास के उसे चुन सकते हैं। इसमें न केवल गति बढ़ जाती है, वरन कई अक्षरों को ढूँढ़ने में अधिक प्रयास भी नहीं करना पड़ता है। बहुत दिनों के अभ्यास के बाद ही यह कह रहा हूँ कि इससे टाइपिंग में शिफ़्ट की न केवल हटाई जा सकती है, वरन चार के स्थान पर तीन पंक्तियों में ही हिन्दी वर्णमाला सीमित की जा सकती है। एक अँगूठे से टाइप करने में यदि सुविधा और भी प्रभावी हो जाती है, भ्रम भी कम हो जाता है और गति भी बढ़ जाती है। इस तथ्य पर तनिक और शोध करके हिन्दी टाइपिंग को और भी सुगम और गतिमय बनाया जा सकता है।

 हिन्दी टाइपिंग में अगली सुविधा है, शब्दकोष के अनुसार शब्दों का विकल्प देना। एण्ड्रॉयड फ़ोनों में जैसे ही आप टाइप करना प्रारम्भ करते हैं, कीपैड के ऊपर संभावित शब्दों के विकल्प आ जाते हैं, उनमें से एक को चुनने से टाइपिंग में लगा शेष श्रम बच जाता है। वहीं दूसरी ओर एप्पल में टाइप करते समय केवल एक ही विकल्प आता है जो कर्सर के साथ ही रहता है। यदि उस समय आपने स्पेस दबा दिया तो वह विकल्प चुन लिया जाता है। तुलनात्मक दृष्टि से यह सुविधा कम लगती है पर इसका एक विशेष पक्ष इसे अत्यधिक उपयोगी बना देता है। एप्पल का विकल्प देने वाला तन्त्र आपसे सतत ही सीखता रहता है और उसी के अनुसार विकल्प देता है। कहने का अर्थ है कि आप जितना अधिक टाइप करेंगे, विकल्प प्रस्तुत करने का तन्त्र उतना ही प्रभावी और सटीक होगा। यही नहीं, छोटी मोटी टाइपिंग की भूलें तो वह स्वतः ही ठीक कर देता है, जिससे आप चाह कर भी कोई भूल नहीं कर सकते हैं। एण्ड्रायड में ऊपर की पंक्ति में विकल्प होने से कीपैड की ऊँचाई बढ़ जाती है, जिससे टाइप करने में तनिक असुविधा होने लगती है। साथ ही साथ अधिक विकल्प की स्थिति न केवल भ्रमित करती है वरन गति भी कम कर देती है।

कीपैड को न केवल मानक शब्दकोष का ज्ञान हो, वरन आपके उपयोग के बारे में जानकारी हो। यही विस्तार व्याकरण के क्षेत्र में भी किया जा सकता है। व्याकरण के नियमों को सीखकर वह अगला संभावित शब्द या शब्द श्रंखला भी सुझा सकता है। यही नहीं स्त्रीलिंग-पुल्लिंग, एकवचन-बहुवचन आदि की वाक्य रचनाओं में की गयी सामान्य भूलों को भी पहचान कर सुधारने में वह आपकी सहायता कर सकता है। इस पक्ष पर अधिक शोध नहीं हुआ है, पर इस पर किया गया श्रम हिन्दी टाइपिंग के लिये एक मील का पत्थर सिद्ध होगा।

अगली सुविधा है, लिखा हुआ पढ़ना। कभी कभी लम्बा लेख लिखने के बाद पढ़ने की इच्छा न हो तो उसे सुन पाने की सुविधा होनी चाहिये। यद्यपि एप्पल में बोलने वाली उतनी स्पष्टता से हिन्दी नहीं बोल पाती है, पर सब समझ में आ जाता है और संपादन भी किया जा सकता है। इस सुविधा को विकसित करने के लिये वर्तनी के नियम, उच्चारण और संयुक्ताक्षर प्रमुख हो जाते है। बहुधा लम्बी कहानियों को भी इसी सुविधा का उपयोग कर मैंने सुना है। यही नहीं सुनने के क्रम में अर्धविराम और पूर्णविराम के महत्व को समझने की शक्ति विकसित हो जाती है, जो कि संवाद के लिये अत्यावश्यक है।

इसी सुविधा से सीधे जुड़ी हुयी सुविधा है, बोला हुआ लिखना। कई भाषाओं में यह सुविधा अत्यधिक विकसित है पर हिन्दी में यह अपने विकास की प्रतीक्षा कर रही है। यदि यह पूरी तरह से संभव हो सका, मोबाइल आधुनिक गणेश का अवतार धर लेंगे। इसी प्रकार हाथ का लिखा पढ़ना भी एक क्षेत्र है जिसमें अधिक कार्य की आवश्यकता है। विण्डो में अंग्रेजी भाषा के लिये इस सुविधा के उपयोग के पश्चात हिन्दी में वह अपेक्षा होना स्वाभाविक ही है। इसके अतिरिक्त एक वृहद शब्दकोष और दूसरी भाषाओं में अनुवाद की सुविधा हिन्दी के लिये आगामी और मूलभूत आवश्यकतायें हैं। हमें मानकीकरण की स्वेच्छा से वांछित अपेक्षाओं तक की लम्बी यात्रा अपने ही पैरों पर चलनी है।

24.7.13

क्लॉउड कैसा हो?

कभी प्रकृति को कार्य करते देखा है? यदि प्रकृति के कर्म-तत्व समझ लेंगे तो उन सब सिद्धान्तों को समझने में सरलता हो जायेगी जो संसाधनों को साझा उपयोग करने पर आधारित होते हैं। क्लॉउड भी एक साझा कार्यक्रम है, ज्ञान को साझा रखने का, तथ्यों और सूचनाओं को साझा रखने का।

पवन, जल, अन्न, सब के सब हमें प्रकृति से ही मिलते हैं, उन पर ही हमारा जीवन आधारित होता है। हम खाद्य सामग्री का पर्याप्त मात्रा में संग्रहण भी कर लेते हैं, जल तनिक कम और पवन बस उतनी जितनी हमारे फेफड़ों में समा पाये। फिर भी प्रकृति प्रदत्त कोई भी पदार्थ ऐसा नहीं है जो हम जीवन भर के लिये संग्रहित कर लें, यहाँ तक कि शरीर की हर कोशिका सात वर्ष में नयी हो जाती है।

प्रकृति का यह महतकर्म तीन आधारभूत सिद्धांतों पर टिका रहता है। पहला, ये संसाधन सतत उत्पन्न होते रहते हैं, चक्रीय प्रारूप में। हमें सदा नवल रूप में मिलते भी हैं। उनकी नवीनता और स्वच्छता ही हमारे जीवन को प्राणमय बनाये रहते हैं, अधिक संग्रह करने से रोकते भी रहते हैं, क्योंकि अधिक समय के लिये संग्रह करेंगे तो सब अशुद्ध हो जायेंगे, अपने मूल स्वरूप में नहीं रह पायेंगे। हमारी आवश्यकता ही प्रकृति का गुण है, प्रकृति उसे उसी प्रकार सहेज कर रखती भी है।

दूसरा, प्रकृति इन संसाधनों को हमारे निकटतम और सार्वभौमिक रखती है। पवन सर्वव्याप्त है, जल वर्षा से अधिकतम क्षेत्र में मिलता है और अन्न आसपास की धरा में उत्पन्न किया जा सकता है। ऐसा होने से सारी पृथ्वी ही रहने योग्य बनी रहती है। संसाधनों की पहुँच व्यापक है। तीसरा, प्रकृति ने अपने सारे तत्वों को आपस में इस तरह से गूँथ दिया है कि वे एक दूसरे को पोषित करते रहते हैं। किसी स्थान पर हुआ रिक्त शीघ्र ही भर जाता है, प्रकृति का प्रवाह अन्तर्निर्भरता सतत सुनिश्चित करती रहती है।

आइये, यही तीन सिद्धान्त उठा कर क्लॉउड पर अधिरोपित कर दें और देखें कि उससे क्लॉउड का क्या आकार निखरता है? ज्ञान, तथ्य और सूचनायें स्वभावतः परिवर्तनशील हैं और काल, स्थान के अनुसार अपना स्वरूप बदलती भी रहती हैं। उन्हें संग्रहित कर उन्हें उनके मूल स्वभाव से वंचित कर देते हैं हम। क्लॉउड में रहने से, न केवल उनकी नवीनतम और शुद्धता बनी रहती है, वरन उन्हें वैसा बनाये रखने में प्रयास भी कम करना पड़ता है। उदाहरण स्वरूप, यदि कोई एक रिपोर्ट सबके कम्प्यूटरों पर संग्रहित है और उसमें कोई संशोधन आते हैं तो उसे सब कम्प्यूटरों पर संशोधित करने में श्रम अधिक करना पड़ेगा, जबकि क्लॉउड पर रहने से एक संशोधन से ही तन्त्र में नवीनतम सुनिश्चित की जा सकेगी।

जब सारा ज्ञान क्लॉउड पर होगा और अद्यतन होगा तो व्यर्थ के संग्रहण की प्रवृत्ति पर रोक लगेगी। जितनी आवश्यक हो और जब आवश्यक हो, सूचना क्लॉउड पर रहेगी, उपयोग के समय प्राप्त हो जायेगी।

अभी के विघटित प्रारूप में, कोई सूचना या तथ्य अपने स्रोत से बहुत दूर तक छिन्न भिन्न सा छिटकता रहता है, उसके न जाने कितने संस्करण बन जाते हैं, उसे न जाने कितने रूपों में उपयोग में लाया जाता है। क्लॉउड के एकीकृत स्वरूप में एक सूचना अपने स्रोत से जुड़ी रहेगी, वहीं से क्लॉउड में स्थान पायेगी और कैसे भी उपयोग में आये, क्लॉउड में अपने निर्धारित पते से जानी जायेगी। इस प्रकार न केवल सूचनाओं की शुद्धता और पवित्रता बनी रहेगी वरन उसे अपने उद्गम के सम्मान का श्रेय भी मिलता रहेगा। क्लॉउड आपका वृहद माध्यम हो जायेगा, सबके लिये ही, बिलकुल प्रकृति के स्वरूप की तरह।

प्रकृति का प्रथम सिद्धान्त अपनाते ही भविष्य का भय तो दूर हो जायेगा पर तब क्लॉउड को प्रकृति की सार्वभौमिकता व उपलब्धता का दूसरा सिद्धान्त शब्दशः अपनाना होगा क्योंकि भविष्य की अनिश्चितता का भय ही संग्रहण करने के लिये उकसाता है। क्लॉउड हमारे जितना अधिक निकट बना रहेगा, उस पर विश्वास उतना ही अधिक बढ़ेगा। हर प्रकार की सूचना पलत झपकते ही उपलब्ध रहेगी। लगेगा कि आप ज्ञान के अदृश्य तेजपुंज से घिरे हुये सुरक्षित और संरक्षित से चल रहे हैं। पहले हम लोग अपने कम्प्यूटर और मोबाइल पर कई गाने लादे हुये चलते थे, अब तो जो भी इच्छा होती है, वही इण्टरनेट से सुन लेते हैं, सब का सब क्लॉउड पर उपस्थित है। हाँ, यह कार्य उतना सरल नहीं है जितना क्लॉउड बनाना। माध्यम स्थापित कर सकने का कर्म कठिनतम है, इण्टरनेट की सतत उपलब्धता प्रकृति के सिद्धान्तों की तरह हो जाये तो क्लॉउड प्रकृतिमना हो जाये।

अभी के समय में क्लॉउड की सूचना में कोई परिवर्तन करना हो तो पूरी की पूरी फाइल बदलनी होती है जिससे इण्टरनेट की आवश्यकता अधिक मात्रा में होती है। यदि परिवर्तनमात्र को ही क्लॉउड तक लाने और ले जाने की तकनीक सिद्धहस्त कर ली जाये तो माध्यम की उपलब्धता और अधिक होने लगेगी। अभी एक व्यक्ति के न जाने कितने खाते होते हैं। यदि एक व्यक्ति इण्टरनेट पर एक ही परिचय से व्यक्त हो और उसका दुहराव भिन्न प्रकारों से न हो तो इण्टरनेट पर होने वाला अनावश्यक यातायात कम किया जा सकता है। इससे न केवल इण्टरनेट की गति बढ़ेगी वरन उपलब्धता भी सुनिश्चित हो जायेगी।

तीसरा सिद्धान्त जो कि प्रकृति के प्रवाह का है, उसके लिये क्लॉउड को अपना बुद्धितन्त्र विकसित करना होगा। रिक्त को पढ़ना, उसका अनुमान लगाना और यथानुसार उस रिक्त को भरना प्रकृति के प्रवाह के आवश्यक अंग हैं। क्लॉउड केवल सूचनाओं का भंडार न बन जाये, उसको सुव्यस्थित क्रम में विकसित किया जाता रहे, यह प्रक्रिया क्लॉउड में प्राण लेकर आयेगी। हम तब क्लॉउड के प्रति उतने ही निश्चिन्त हो पायेगे, जितने प्रकृति के प्रति अभी हैं, वर्तमान पर पूर्ण आश्रित और भविष्यभय से पूर्ण मुक्त। आपका क्लॉउड क्या आकार लेना चाह रहा है? हम सबका आकाश तो एक ही है।

20.7.13

क्लॉउड क्या है?

यह एक यक्ष प्रश्न है। इसलिये नहीं कि सब लोग इसके बारे में जानना चाहते हैं, इसलिये भी नहीं कि यह प्रश्न कठिन है, इसलिये भी नहीं कि यह आधुनिक यन्त्रों में उपयोग में आ रहा है, इसलिये भी नहीं कि सारी बड़ी कम्पनियाँ इस पर अरबों डॉलर व्यय कर रही हैं, वरन इसलिये क्योंकि इस विषय की सही समझ और इस प्रश्न के सही उत्तर इण्टरनेट आधारित हमारे जीवन को अप्रत्याशित रूप से प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं।

देखा जाये तो इण्टरनेट क्लॉउड ही है, सूचनायें इण्टरनेट पर विद्यमान हैं, हम जब चाहें अपने मोबाइल, कम्प्यूटर या लैपटॉप से उसे देख सकते हैं, उपयोग में ला सकते हैं। मेरी सारी पोस्टें और उन पर की गयी टिप्पणियाँ मेरे ब्लॉग के पते पर सहज ही सुलभ है, जो चाहे, जब चाहे, उन्हें वहाँ पर जाकर देख सकता है। इस स्थिति में मेरे और मेरे पाठकों के लिये क्लॉउड का क्या महत्व? एक कम्प्यूटर हो, उस पर एक वेब ब्राउज़र हो, इण्टरनेट आ रहा हो, कोई कुछ भी पढ़ना चाहे, पढ़ लेगा। सूचनायें किसी न किसी कम्प्यूटर पर विद्यमान हैं, सूचनायें इण्टरनेट के माध्यम से सारे कम्प्यूटरों से जुड़ी हैं, तब क्लॉउड की क्या आवश्यकता?

जो भी सूचना का स्रोत है, वह अपने अधिकार क्षेत्र में आने वाली सूचनायें परिवर्तित और परिवर्धित कर सकता है। जो सूचना का उपयोगकर्ता है, वह तदानुसार उसे अपने कार्य में ला सकता है। यहाँ तक तो इण्टरनेट की समझ क्लॉउड के मर्म के बाहर ही रहती है। जटिलता जब इसके पार जाती है तब क्लॉउड का सिद्धान्त आकार लेने लगता है।

अब सबके पास इण्टरनेट पर डालने के लिये सूचनायें तो रहती हैं, पर उसे रखने के लिये स्रोत या सर्वर नहीं रहता है। इस प्रकार स्रोत की संख्या सर्वरों की संख्या से कहीं अधिक हो जाती है, स्रोत अपनी सूचना रखने के लिये सुरक्षित ठिकाना ढूंढ़ने लगते हैं, यहाँ से क्लॉउड के सिद्धान्त के बीज पड़ते हैं। ऐसी वेब सेवायें आपकी सूचना को क्लॉउड के माध्यम से पहले ग्रहण करती हैं, कहीं और सुरक्षित रखती हैं और वेब साइटों के माध्यम से व्यक्त भी करती हैं। समान्यतः इन सेवाओं के लिये कुछ शुल्क लिया जाता है। तब तक क्लॉउड का आकार सीमित रहता था।

ब्लॉगर, वर्डप्रेस जैसी निशुल्क ब्लॉग सेवाओं ने लाखों को अभिव्यक्ति का वरदान दे दिया, सबके अपने ब्लॉग उनके सर्वर में अपना स्थान पाये पड़े रहते हैं। यद्यपि आपको इण्टरनेट के माध्यम से उन्हें संपादित करने का अधिकार होता है, आपका लेखन क्लॉउड में रहता है। धीरे धीरे सूचनाओं का आकार और बढ़ा, क्लॉउड का आकार बढ़ा। फेसबुक जैसी सोशल नेटवर्किंग ने सूचनाओं के इस आदानप्रदान में भूचाल सा ला दिया। न जाने कितनी ऐसी सूचनायें जो आप वेब पर रखना चाहते हैं, लोगों से बाटना चाहते हैं, आपके द्वारा बनाये हुये क्लॉउड में पहुँच जाती हैं।

यही नहीं, जब हर सूचना एक विशेष प्रकार के फाइल के ढाँचे में रखी जाती है, तो उस प्रकार के फाइलों को चला पाने वाले प्रोग्राम क्लॉउड में होने आवश्यक हैं, जिससे उन्हें उसी रूप में संपादित और व्यक्त किया जा सके। अब सूचनायें और प्रोग्राम क्लॉउड पर उपस्थित रहने से क्लॉउड की जटिलता और व्यापकता बढ़ जाती है। बात यहीं पर समाप्त हो गयी होती तो संभवतः क्लॉउड उतना कठिन विषय न होता।

क्लॉउ़ड को सदा क्रियाशील बनाये रखने के लिये इण्टरनेट का होना आवश्यक है। इण्टरनेट हम समय और हर स्थान पर नहीं होता है, पर सूचनायें तो कहीं पर और कभी भी उत्पन्न होती रहती हैं। उन्हें एकत्र करने वाले यन्त्रों न उन्हें सम्हालकर रखने की क्षमता हो वरन वे प्रोग्राम भी हों जिनके माध्यम से वे देखी जा सकें। ऑफलाइन या इण्टरनेट न रहने पर भी उन सूचनाओं को संपादित करने की सुविधा क्लॉउड तन्त्र की आवश्यकता है। यही नहीं इण्टरनेट से जुड़ने पर, वही सूचनायें क्लॉउड में स्वतः पहुँच जायें, इसकी भी सुनिश्चितता क्लॉउड को सशक्त बनाती है।

देखा जाये तो क्लॉउड पर पड़ी आपकी सूचनाओं की प्रति आपको रखने की आवश्यकता नहीं है, पर इण्टरनेट न होने की दशा में आप अपनी सूचनाओं से वंचित न हो जायें, उसके लिये उसकी प्रति आपके सभी यन्त्रों में होनी आवश्यक है। यह होने से ही आपको ऑफलाइन संपादन की सुविधा मिल पाती है।

उदाहरण स्वरूप देखा जाये तो यह पोस्ट मैं अपने आईपैड मिनी पर लिख रहा हूँ, थोड़ी देर में मैं अपने वाहन से कहीं और जाऊँगा, वहाँ मेरे पास मोबाइल ही रहेगा, कुछ भाग मुझे मोबाइल पर लिखना पड़ेगा। वहाँ से घर आऊँगा तो बिटिया मेरे आईपैड मिनी पर कोई गेम खेल रही होगी, तब मुझे शेष पोस्ट मैकबुक एयर में लिखनी पड़ेगी। सौभाग्य से क्लॉउड के माध्यम से मेरा लेखन सारे यन्त्रों में अद्यतन रहता है। जहाँ पर इण्टरनेट नहीं भी रहता है, वहाँ पर भी संपादन का कार्य ऑफलाइन हो जाता है, और इण्टरनेट आते ही सेकेण्डों में अद्यतन हो जाता है। क्लॉउड को सही अर्थों में ऐसे ही परिभाषित और अनुशासित होना चाहिये।

देखा जाये तो सभी अग्रणी कम्पनियाँ इसी दिशा में कार्य कर भी रहीं है, वे यह भी सुनिश्चित कर रही हैं कि इस प्रक्रिया में घर्षण कम से कम हो। पर मेरा स्वप्न क्लॉउड के माध्यम से उस लक्ष्य को पाना है, जो हमारी सारी सूचनाओं के रखरखाव और आदानप्रदान को सरलतम बना दे। जब क्लॉउड सरलतम हो जायेगा तो उसका प्रारूप कैसा होना चाहिये, इसको अगली पोस्ट पर प्रस्तुत करूँगा।

19.6.13

जो है, सो है

अपने मित्र आलोक की फेसबुक पर बदले चित्र पर ध्यान गया, उसमें कुछ लिखा हुआ था। आलोक प्रमुखतः चित्रकार हैं और उसके सारे चित्रों में कुछ न कुछ गूढ़ता छिपी होती है, अर्थभरी कलात्मकता छिपी रहती है। आलोक बहुत अच्छे फोटोग्राफर भी हैं और उनकी मूक फोटो बहुत कुछ कहती हैं। आलोक को पढ़ते पढ़ते दार्शनिकता में डुबकी लगाने में भी रुचि है, उनसे किसी भी विषय पर बात करना एक अनुभव है, हर बार कुछ न कुछ सीखने को मिल जाता है।

चित्र में उनके रेत पर चलते हुये पैर का धुँधला दृश्य था, उनके ही पैर का होगा क्योंकि आलोक गोवा में रहते हैं। उस पर लिखा था, Whatever is could not be otherwise - Eckhart Tolle. अर्थ है, जो है, वह उससे इतर संभव नहीं था। या कहें कि जो है, वह उसके अतिरिक्त कुछ और हो भी नहीं सकता था। पर इसे पढ़ते ही मेरे मन मे जो शब्द आये, वे थे, 'जो है, सो है'।

जो है, सो है। बड़े दार्शनिक शब्द हैं ये। समय, व्यक्ति और स्थान की तुलनात्मक जकड़न से सहसा मुक्त करते शब्द हैं ये। न पहले सा समय आ सकता है, न हम औरों से ही बन सकते हैं और न ही हम किसी समय किसी और स्थान पर ही हो सकते हैं। यदि ऐसा होता तो वैसा हो जाता, यदि ऐसा न होता तो वैसा न हो पाता। ऐसे ही न जाने कितने मानसिक व्यायाम करते रहते हैं, हम सभी। ऐसा लगता है कि औरों की तुलना में सदा ही स्वयं को स्थापित करने के आधार ढूढ़ते रहते हैं हम। न जाने कितना समय व्यर्थ होता है इसमें, न जाने कितनी ऊर्जा बह जाती है इस चिंतन में। उस सभी विवशताओं से मुक्ति देता है, यह वाक्य। जो है, सो है।

एक्हार्ट टॉल के लेखन में आध्यात्मिकता की पर्याप्त उपस्थिति रहती है। उनकी लिखी पॉवर ऑफ नाउ नामक पुस्तक आप में से कइयों ने पढ़ी भी होगी। वर्तमान में जीने की चाह का ही रूपान्तरण है, उनकी यह पुस्तक। मन में एकत्र स्मृतियों और आगत के भय में झूलते वर्तमान को मुक्त कराते हैं, इस पुस्तक के चिन्तन पथ। अभी के मूलमन्त्र में जीवन जी लेने का भाव सहसा हर क्षण को उपयोगी बना देता है, जैसा उस क्षण का अस्तित्व है।

मन बड़ा कचोटता है, असंतुष्ट रहता है। कोई कारण नहीं, फिर भी अशान्त और व्यग्र सा घूमता है। कोई कारण पूछे तो बस तुलना भरे तर्क बतलाने लगता है। समय, व्यक्ति और स्थान की तुलना के तर्क। ऐसे तर्क जो कभी रहे ही नहीं। ऐसे जीवन से तुलना, जो हम कभी जिये ही नहीं। क्योंकि हम तो सदा वही रहे, एक अनोखे, जो हैं, सो हैं।

हम पहले जैसे प्रसन्न नहीं हैं, या भविष्य में अभी जैसे दुखी नहीं रहना चाहते हैं, यही तुलना हमें ले डूबती है। क्या लाभ उस समय को सोचने का जिसे हम भूतकाल कहते हैं और जिसे हम बदल नहीं सकते हैं। क्या लाभ उस समय को सोचने का जो आया ही नहीं और जिसकी चिन्ता में हम भयनिमग्न रहते हैं। मन हमें सदा ही तुलना को बाध्य करता रहता है और हम हैं कि उन्हीं मायावी तरंगों में आड़ोलित होते रहते हैं, अस्थिर से, आधारहीन से। वर्तमान ही है जिसे जीना प्रस्तुत कर्म है और हम इसी से ही भागते रहते हैं।

मन हमें या तो भूतकाल में या भविष्य में रखता है, वर्तमान में रहना उसके बस का नहीं। यदि मन वर्तमान में रहना सीख जायेगा तो वह स्थिर हो जायेगा, उसकी गति कम हो जायेगी, उसका आयाम कम हो जायेगा। किसी चंचल व्यक्तित्व को भला यह कैसे स्वीकार होगा कि उसकी गति कम हो जाये या उसके आयाम सिकुड़ जायें।

जब समय की विमा से हम बाहर आते हैं और वर्तमान में रुकते हैं, तब भी मन नहीं मानता है। किसी और स्थान से तुलना करना प्रारम्भ कर देता है, सोचने लगता है कि संभवतः किसी और स्थान में हमारा सुख छिपा है, यहाँ की तुलना में अच्छा विस्तार छिपा है। हमारा मन तब यहाँ न होकर वहाँ पहुँच जाता है और तुलना करने के अपने कर्म में जुट जाता है। यदि उस स्थान से किसी तरह सप्रयास आप वापस आ जायें, तो तुलना अन्य व्यक्तियों से प्रारम्भ हो जाती है।

मन अपनी उथल पुथल छोड़ नहीं सकता है, उसे साथी चाहिये अपने आनन्द में, हमें भी साथ ले डूबता है। मन को उछलना कूदना तो आता है, पीड़ा झेलना उसने कभी सीखा ही नहीं। मन छोटी से भी छोटी पीड़ा हम लोगों को सौंप देता है और चुपचाप खिसक लेता है।

पता नहीं, आलोक की तर्करेखा भी मेरी तर्करेखा से मिलती है या नहीं, कभी पूछा भी नहीं। पर एक स्थान से चले यात्री कुछ समय पश्चात पुनः एक स्थान पर आकर मिल जायें तो पथ का प्रश्न गौड़ हो जाता है। चित्र में एक पथ दिख रहा है, एक पग दिख रहा है, वर्तमान की दिशा का निर्देशित वाक्य दिख रहा है, यह सब देख मुझे तो यही लगता है कि आलोक मेरे पथ पर ही है। वह तनिक आगे होगा, मैं तनिक पीछे। वह तनिक गतिशील होगा, मैं तनिक मंथर।

यह चित्र एक और बात स्पष्ट रूप से बता रहा है, इसमें न पथ का भविष्य दिख रहा है, न पथ का भूतकाल, बस पथ दिख रहा है, बस पग दिख रहा है। सब के सब वर्तमान की ओर इंगित करते हुये। आप भी बस अभी की सोचिये, यहीं की सोचिये, अपने बारे में सोचिये। मैं तो कहूँगा कि सोचिये ही नहीं, सोचना आपको बहा कर ले जायेगा, आगे या पीछे। आप बस रहिये, वर्तमान में, जो है, सो है।

23.3.13

चलो, ज्ञान लूट आयें

शिक्षा जब सुविधाभोगी हो जाये और बड़े नगरों से बाहर न निकलना चाहे, तब सब क्या करेंगे? वही करेंगे जो हममें से बहुत लोग करते आये है। हम भी बड़े नगर पहुँच जायेंगे, वहीं रहेंगे, वहीं पढ़ेंगे और नौकरी लेकर आसपास ही बस जायेंगे। थोड़े सम्पन्न लोग तो बस अपने बच्चों की अच्छी पढ़ाई के लिये नगर में आ बसते हैं। अध्यापकों को भी सुविधा हो जाती है, वहीं पढ़ा लेते हैं, ट्यूशन देते हैं और जीवन बिता देते हैं। यही प्रक्रिया कई दशक चली होगी और आज स्थिति यह है कि किसी भी राज्य में एक या दो नगर ही शिक्षा के केन्द्र बन गये हैं, शेष स्थानों पर शैक्षणिक सूखा पड़ा है। विकास की तरह ही शिक्षा भी सुविधा में बैठी हुयी है।

इस तथ्य से मेरा कोई व्यक्तिगत झगड़ा नहीं है। हो भी क्यों, हम भी शिक्षा के इसी सुविधापूर्ण मार्ग से आये हैं। अच्छी बात तो यह है कि हर राज्य में कम से कम दो नगर तो ऐसे हैं, ज़ीरो बटे सन्नाटा तो नहीं है। समस्या पर यह है कि इन शैक्षणिक नगरों के अतिरिक्त भी देश का विस्तार है। सब नगर की ओर पलायन नहीं कर सकते हैं, कई कारण रहते है जो शिक्षा से अधिक महत्वपूर्ण हैं। हर छोटे स्थान पर सरकारी प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालय हैं, कुछ ग़ैर सरकारी भी हैं। शिक्षक भी हैं, पर सदा ही इस जुगत में रहते हैं कि विकास के आसपास ही रहा जाये, वहाँ संभावनायें अधिक रहती हैं। कुल मिला कर कहा जाये विद्यालय होने पर भी स्तर अच्छा नहीं है, शिक्षक होने पर भी पूरो मनोयोग से अध्यापन नहीं होता है।

समस्या गहरी तो है पर स्पष्ट है। यदि कुछ अस्पष्ट है तो वह है छात्रों का भविष्य और समस्या का हल।अध्यापकों का महत्व बहुत गहरा होता है हमारे भविष्य पथ पर। बहुधा देखा गया है कि जिस विषय के समर्पित अध्यापक मिल जाते हैं, उस विषय के प्रति एक नैसर्गिक आकर्षण उत्पन्न हो जाता है और वही विषय साथ बना रहता है, प्रतियोगी परीक्षाओं में भी। शिक्षा के प्रति घोर अनिक्षा विद्यालय के वातावरण पर निर्भर करती है। कभी कभी विषय विशेष के प्रति घोर वितृष्णा का भाव उस विषय से संबद्ध अध्यापक व पाठन शैली से आता है। कई बार लगता है कि यदि वह विषय अच्छे से पढाया गया होता तो संभवतः उसमें भी अच्छा किया जा सकता था।

आज भी आप अपने चारों ओर गिनती कर के देख लें, हर १०० सफल व्यक्तियों में अधिकांश छोटे और मध्यम नगरों से ही होंगे, हो सकता है कि कुछ वर्षों के लिये वे शैक्षणिक नगरों में भी रहे हों। जो विशेष बात उन सब में उपस्थित होगी, वह है कोई न कोई ऐसा व्यक्ति जिसने शिक्षा के प्रति न केवल प्रोत्साहित किया वरन जिज्ञासा को सतत जलाये रखा। वह व्यक्ति अध्यापक के रूप में हो सकता है, अभिभावक के रूप में हो सकता है, शुभचिन्तक के रूप में हो सकता है। पर यह तथ्य भी उतना ही सच है कि छोटे नगर में जो पौधे पनप नहीं पाये, उसके पीछे शिक्षा व्यवस्था का निर्मम उपहास छिपा है, चाहे वह विद्यालय में न्यूनतम सुविधाओं का आभाव हो या अध्यापकों की अन्यमनस्कता।

क्या इसका अर्थ यह हुआ कि शिक्षा और विकास के केन्द्रीकरण में छोटे नगरों और दूरस्थ गाँवों का भविष्य शून्य है? हमारे और आपके मन में निराशा के भाव जग सकते हैं, पर सुगाता मित्रा जी इससे सहमत नहीं हैं। सुगाता मित्रा जी पिछले १४ वर्षों से शिक्षा में नये प्रयोग करने के लिये जाने जाते हैं और उन्हें वर्ष २०१२ के लिये टेड की ओर से सर्वश्रेष्ठ वार्ता का पुरस्कार भी मिला है। शिक्षाविद होते हुये भी बड़ी ही सरलता से प्रयोगों में माध्यम से निष्कर्षों पर पहुँचना और उसे उतनी ही सहजता से प्रस्तुत कर देना, यह उनके हस्ताक्षर हैं।

१९९९ में उनकी प्रयोगधर्मिता प्रारम्भ हुयी, यह समझने के लिये कि जहाँ पर अध्यापक नहीं हैं, क्या वहाँ पर भी शिक्षा पैर पसार सकती है। विकास की धार को छोटे नगरों की ओर मोड़ना एक महत कार्य है और कई दशकों की योजना और क्रियान्वयन के बाद ही वह संभव है। तो क्या अध्यापकों के बिना भी ज्ञानयज्ञ चल सकता है? यदि हाँ तो उसका स्वरूप क्या होगा? ऐसे ही एक क्षेत्र में उनके द्वारा किया गया पहला प्रयोग बड़ा ही सफल रहा।

प्रयोग बड़ा ही सरल था, नाम था 'होल इन द वाल'। खिड़की पर एक कम्प्यूटर, माउस के स्थान पर एक छोटा सा ट्रैक पैड, सतत बिजली व इण्टरनेट। कोई अध्यापक नहीं, कोई रोकने वाला नहीं, कोई टोकने वाला नहीं, जिसको सीखना हो कभी भी आकर सीख सकता है। दो माह बाद बच्चों की योग्यता पुनः परखी जाती है, उनके अन्दर आयी प्रगति लगभग उतनी ही होती है जितनी किसी अच्छे विद्यालय में पढ़ने वाले बच्चे की। सुगाता मित्रा जी का उत्साह तनिक और बढ़ा, प्रयोग का क्षेत्र भाषा सीखने के लिये रखा और वह भी तमिलनाडु के धुर ग्रामीण परिवेश में। न केवल बच्चे अंग्रेजी सीख गये, वरन अंग्रेजों से अधिक अंग्रेजियत की शैली में सीख गये। यही नहीं बायोटेकनोलॉजी जैसे दुरुह विषय पर भी बिना किसी वाह्य सहायता के कामचलाऊ ज्ञान प्राप्त कर लिया बच्चों ने। बच्चों ने स्वयं ही वह सब कर दिखाया जिसका पूरा श्रेय हम शिक्षा व्यवस्था को दे बैठते हैं।

ज्ञान कहाँ से आया, जिज्ञासा से, स्रोत से, समूह में आदान-प्रदान से, देखकर सीखने से। निश्चय ही सारे के सारे कारक रहे होंगे और साथ में उन्मुक्त वातावरण भी रहा होगा, जहाँ कोई परीक्षा का भय नहीं, नौकरी पाने की विवशता नहीं, कोई प्रत्याशा नहीं, कोई शुल्क नहीं, बस ज्ञान बिखरा पड़ा है, जितना लूट सको लूट लो।

तो क्या अध्यापक की आवश्यकता ही नहीं है? सुगाता मित्रा जी किसी प्रसिद्ध लेखक का उद्धरण देते हैं, कि यदि कोई अध्यापक मशीन से विस्थापित हो सकता है तो उसे हो जाना चाहिये। बड़े गहरे अर्थ हैं इस वाक्य के। उसे तनिक ठिठक कर समझना होगा। ज्ञान सहज उपलब्ध हो, बच्चे में जिज्ञासा हो, तो ज्ञानार्जन बड़ा ही सरल है। सामाजिक परिवेश में देखें तो न जाने कितना कुछ बच्चा देखकर ही सीखता है। जो वह जानना चाहता है, गूगल पर देखकर खोज ही लेगा। तब अध्यापक का क्या कार्य है और वह कहाँ से प्रारम्भ होता है और उसकी अनुपस्थिति में वह कार्य कोई और कर सकता है?

प्रयोग जितने प्रभावी हैं, निष्कर्ष उतने ही स्पष्ट। पहला, जहाँ पर अध्यापक नहीं भी हैं, वहाँ भी निराश होने की आवश्यकता नहीं है, इस प्रकार की व्यवस्था से ज्ञान का प्रवाह अबाधित चल सकता है। दूसरा, अध्यापक के आभाव में गाँव का कोई बड़ा और समझदार व्यक्ति जिज्ञासा, उत्साह और सामूहिक भागीदारी का वातावरण बनाकर ज्ञानार्जन की प्रक्रिया बनाये रख सकता है। तीसरा, माना ज्ञानार्जन का कार्य बिना अध्यापक चल सकता है, पर जो दिशादर्शन और नये क्षेत्रों को बच्चों से परिचित कराने का कार्य है, उस विमा को हर अध्यापक को बनाये रखना है। ज्ञान की तृष्णा अपने लिये माध्यमों के बादल ढूढ़ ही लेगी, अध्यापक को तो स्वाती नक्षत्र की बूँद बनकर अपनी महत्ता बनाये रखनी होगी।

तो भले ही विकास के शैक्षणिक विस्तार में हमारा क्षेत्र न आता हो, पर हमें सीखने से कोई नहीं रोक पायेगा, देर सबेर कोई सिखाने वाला आ जायेगा, 'होल इन द वाल' के रूप में।

20.3.13

गूगलम् - इदं न मम्

पिछला सप्ताह गूगल के नाम रहा। वैसे तो गूगल का मान कम न था हमारे जीवन में, कई रूपों में उपयोग करते हैं और आगे भी संभवतः करते ही रहेंगे। जीमेल, रीडर और ब्लॉगर, इन तीनों उत्पाद के सहारे इण्टरनेट के समाचार रखते हैं और जितनी संभव हो, उपस्थिति भी बनाये रखते हैं। सब सहज ही चल रहा था, जीवन अपनी लय में मगन था, पर पिछले सप्ताह के घटनाक्रम ने पहली बार इस बात का बलात अनुभव कराया है कि गूगल कितना प्रभाव रखता है, हम सबके जीवन में। यदि गूगल तनिक व्यवसायीमना हो जाये तो हम सबकी क्या दुर्गति हो सकती है, इसकी अनुभूति पहली बार ही हुयी।

एक दिन सुबह उठा तो देखा कि गूगल रीडर में एक सूचना थी कि १ जुलाई २०१३ से गूगल रीडर की सेवायें बन्द हो जायेंगी। मन धक से रह गया, दो विचार आये, पहला कि अब मेरा क्या होगा और दूसरा कि गूगल ने ऐसा क्यों किया? गूगल के बारे में तो बाद में भी सोचा जा सकता था, पर अपने लगभग ६०० से भी अधिक फीड्स की चिन्ता होने लगी कि अब कैसे पढ़ने को मिलेगा ब्लॉगजगत का लेखन। जितने भी ब्लॉगों पर टिप्पणियाँ करता हूँ और जिन पर नहीं कर पाता हूँ, सारे गूगल रीडर के द्वारा ही पढ़ता हूँ। सुविधानुसार पढने के लिये एक अलग स्थान रहता है। जब समय रहता है, मोबाइल में भी पढ़ कर टिप्पणी दे देता हूँ। साथ ही साथ ईमेल में सब्स्क्राइब न करने से ईमेल भी खाली रहता है। गूगल की इस घोषणा से लगा कि कहीं कुछ ढह रहा है और दोषी गूगलजी हैं। थोड़ा विचार और किया तो पाया कि तथ्य कुछ और ही थे। गूगल की कार्यपद्धति तनिक स्पष्ट रूप से समझनी होगी और वे तथ्य भी जानने होंगे जिसके कारण ये सेवायें बन्द हो रही हैं।

जब गूगल ने अक्टूबर १२ में फीडबर्नर की एपीआई बन्द कर दी तो उससे संबंधित गूगर रीडर में होने वाले प्रचार भी बन्द हो गये थे। उसके पहले गूगल रीडर की हर फीड के पहले या बाद में विषय से संबंधित कोई न कोई प्रचार रहता था। प्रचार से होने वाली आय ही गूगल रीडर को जीवित रखे थी। ५ माह पहले प्रचार बन्द हो गये तो संकेत मिल गया था कि अब गूगल रीडर भी बन्द होने वाला है। प्रचार का व्यवधान भले ही हमारा ध्यान बँटाता है पर वही रीडर का प्राण भी था। संभवतः गूगल रीडर के लिये वह मॉडल आर्थिक रूप से हानिप्रद हो, पर गूगल खोज, जीमेल, यूट्यूब और ब्लॉगर में होने वाले प्रचार ही गूगल की आय को साधन हैं। प्रचार उद्योग में माध्यम की पहुँच और उपभोक्ता से संबंधित जानकारी सर्वाधिक महत्वपूर्ण होती है और दोनों ही गूगल के पास अधिकतम मात्रा में है भी।

तो क्या इसका अर्थ यह हुआ कि जितनी भी निशुल्क सेवायें चल रही हैं, उनका भी अन्त गूगलरीडर की तरह हो सकता है। पाठक वर्ग के लिये ब्लॉगर और जीमेल ही मुख्य सेवायें हैं और उन पर विचार आवश्यक है। इस तथ्य को समझना होगा कि गूगल परमार्थ में तो कार्य कर नहीं रहा है, उसका पूरा आधार सीधे प्रचार के आर्थिक पक्ष पर टिका है या उन उपभोक्ता संबंधी सूचनाओं पर टिका है जो आपने निशुल्क सेवा लेते समय गूगल को बता दी है। अब उसे किसी सेवा में उतना प्रचार न मिलता हो या आपके बारे में और आपकी स्पष्ट अभिरुचियों के बारे में सारी सूचनायें उन्हें प्राप्त हो गयी हों तो संभव है कि भविष्य में कोई निशुल्क सेवा समाप्त भी हो जाये। एण्ड्रॉयड और गूगल ग्लास जैसे क्षेत्र, जहाँ पर अधिक धन है और अधिक बौद्धिक क्षमताओं की आवश्यकता है, गूगल के लिये अधिक महत्वपूर्ण होते जा रहे हैं। ऐसे और कई क्षेत्रों का सशक्तीकरण निशुल्क सेवाओं को बन्द करके भी किया जा सकता है।

तो क्या भविष्य है, हम सबके लिये। हमें निशुल्क सेवाओं ने कभी सोचने के लिये बाध्य ही नहीं किया था अब तक। पहले गूगल रीडर के किये जाने वाले कार्यों और उपस्थित विकल्पों को समझ लें। हमें यदि कोई ऐसी साइट या ब्लॉग अच्छा लगता है तो हम चाहते हैं कि उसमें होने वाले बदलाव हमें सूचित किये जायें। यह सूचना या तो ईमेल के माध्यम से पायी जा सकती है या फीड रीडर के माध्यम से। फीडबर्नर जैसी सेवाओं के माध्यम से किसी भी साइट या ब्लॉग में होने वाले बदलाव को जाना जाता है और उन्हें एक जगह एकत्र किया जाता है। ऐसा ही संकलन का कार्य गूगल रीडर कर रहा था, अन्यथा अपने ६०० ब्लॉगों में होने वाले बदलावों के लिये ६०० साइट पर जाकर देखना पड़े तो वह किसी के लिये भी संभव नहीं है।

किसी भी ब्लॉग को इस विधि से पढ़ने के लिये हमें दो सेवाओं की आवश्यकता पड़ती है, फीड का पता लगाने के लिये फीडबर्नर जैसी सेवायें और संकलन कर पढ़ने के लिये गूगल रीडर जैसी सेवायें। याद रहे कि फीडबर्नर भी गूगल के अधिकार में है और बहुत संभव है कि भविष्य में उसकी भी सेवायें बन्द हो जायें। यदि विकल्प ढूढ़ना है तो अभी से ही दोनों का विकल्प ढूढ़ना चाहिये, न कि केवल गूगल रीडर का। जो लोग इस सुविधा में पड़े हैं कि हमारे पास तो ईमेल आ जाता है, उन्हें भी सोचना होगा। संभव है कि भविष्य में कुछ और पैसा बचाने के लिये हर ब्लॉग से संबंधित सैकड़ों निशुल्क ईमेल करने से भी गूगल मना कर दे। तब हम पूर्ण रूप से असहाय होंगे और हिन्दी के विकास के स्वप्न, जो हम बड़ी मात्रा में पाल चुके हैं, उन पर भी व्यवहारिक चिन्तन का समय आ जायेगा। अभी कई अलग प्रतीत होने वाली सेवायें गूगल रीडर के संकलन को ही नये रूप में प्रस्तुत करती आयीं हैं, गूगल रीडर बन्द होने के बाद क्या वे स्वतन्त्र रूप से कार्य कर पायेंगी यह तथ्य भी विकल्पों पर निर्णय लेने के समय उपयोगी होगा।

संभव है कि अभी कोई उपाय मिल जाये जो कुछ वर्ष हमें और खींच ले। प्रवाह रुक जाने का विचार भी पीड़ा में तिक्त होगा, उस पर सोचना भी नहीं है, उत्तर तो निकालने ही होंगे। यह भी हो सकता है कि आने वाली सेवायें सशुल्क भी हो जायें, फिर भी एक निर्भरता तो बनी ही रहेगी गूगल और अन्य तन्त्रों पर। क्यों न हिन्दी के लिये हम एक ऐसा स्थानीय आधार निर्माण करें जो हमारी आवश्यकताओं को निभाने में सक्षम हो, जिसके तले न केवल सारे ब्लॉग आ जायें वरन हिन्दी के और पक्ष भी पल्लवित हों। कविताकोष, गद्यकोष, शब्दकोष आदि के साथ एक विस्तृत आधार मिले। कठिनाईयों में ही संभावनाओं के बीज बसते हैं। प्रयास करें, भले ही उसकी सेवायें सशुल्क हो। भविष्य में धन उतना ही व्यय होगा पर हिन्दी के विकास के लिये हमें कभी औरों का मुँह न ताकना पड़ेगा। सोचिये आप भी, हम भी तीन माह के लिये सोचते हैं। विकल्पों पर प्रयोग कर रहे हैं, निष्कर्ष अवश्य बतायेंगे।

10.11.12

शिक्षा - व्यर्थ संभावनायें

जिस समय सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी कर रहे थे, एक आशंका सी रहती थी कि होगा कि नहीं, यदि होगा तो कितने वर्षों में। तैयारी करने वाले प्रतिभागियों में जिससे भी मिलते थे, एक उत्सुकता रहती थी, यह जानने की कि कौन कितने वर्षों से तैयारी कर रहा है? तैयारी का कुछ भाग दिल्ली में और कुछ इलाहाबाद में किया था, आपको यह तथ्य जानकर आश्चर्य होगा कि कुछ लोग १० वर्षों से तैयारी कर रहे थे। एक अजब सी आशावादिता व्याप्त थी वातावरण में कि आने वाला वर्ष सुखद निष्कर्ष लेकर आयेगा, पिछले वर्षों के श्रम में बस कुछ और जोड़ दें इस बार, थोड़ा भाग्य साथ दे दे इस बार, कुछ पढ़ा हुआ आ जाये इस बार।

एक नशे की गोली ही है कि ८-१० साल तक कुछ सूझता नहीं है। कई लोग इस तथ्य को शीघ्र समझ लेते हैं और कोई अन्य मार्ग ढूढ़ने लगते हैं, पर देश की शीर्षस्थ सेवाओं में पहुँचने का स्वप्न ऐसा है कि प्रतियोगी १० वर्ष स्वप्न में ही बिता डालते हैं। लाखों लोग परीक्षा देते हैं और उसमें से चार पाँच सौ ही लिये जाते हैं। जिनके चार प्रयास हो जाते हैं, वे प्रादेशिक सेवाओं की तैयारी में लग जाते हैं क्योंकि उसमें प्रयास अधिक मिलते हैं, उसके बाद कुछ और सीमित विकल्प, अन्त में सब तरह के ज्ञान में संतृप्त युवक अपनी प्रौढ़ता के प्रवेश होते होते कोई अध्यापन का कार्य कर लेते हैं और अपनी आर्थिक स्थिति गृहस्थी चलाने योग्य बना लेते हैं।

मेरा उद्देश्य न तो सिविल सेवाओं की महत्ता को दर्शाना है, न ही कोई करुण कथा सुना संवेदनायें विकसित करनी है और न ही लाखों युवाओं के व्यर्थ हुये वर्षों के बारे में कोई आँकड़े रखने है। सक्षम और मेधायुक्त युवाशक्ति का इस तरह व्यर्थ हो जाना करोड़ों करोड़ के घोटाले से कम नहीं और जिसका पूरा ठीकरा नौकरीपरक शिक्षा व्यवस्था पर ही फूटता है। किसी एक पर दोष नहीं मढ़ा जा सकता है और देखा जाये तो सब के सब दोषी। १० वर्षों के संघर्ष में लुप्त हुयी संभावनायें, इसकी तैयारी के प्रति उद्दात्त आकर्षण, अन्य क्षेत्रों में विकास न हो पाना, अपने उद्यम लगाने वालों की कमी और न जाने कितने ऐसे प्रश्न हैं जिनके उत्तर सबको ढूढ़ने हैं।

संघर्ष आवश्यक है, उतना जिससे क्षमतायें विकसित हों, उतना जिससे विकास हो, स्वस्थ प्रतियोगिता हो। संघर्ष इतना अधिक भी न हो जितना मुगलिया सल्तनत में था, पुत्रों में जो जीता वह राजा, जो हारा वह या तो कालकोठरी में या ईश्वर के पास। संघर्ष इतना कम भी न हो कि सब सुविधा बैठे बैठे ही मिल जाये, धनाड्य परिवारों की नकारा संततियों की तरह।

यह तो अच्छा हुआ कि सिविल सेवाओं के समकक्ष और कई क्षेत्र खुल गये, जैसे आईटी और प्रबन्धन, डॉक्टर और इन्जीनियर पहले से ही थे, जिन्हें देश में स्थिरता और मान नहीं मिला वे विदेश चले गये। अब संभवतः लोग दस वर्ष प्रतीक्षा नहीं करते होंगे, सिविल सेवाओं के लिये और यह भी संभव है कि बहुत लोग वैकल्पिक व्यवस्था करके ही सिविल सेवाओं की तैयारी करते होंगे। विकल्पों के विस्तार से व्यर्थ हुयी ऊर्जा निश्चय ही कम हुयी होगी पर अभी भी लाखों वर्ष जो हर वर्ष व्यर्थ होते हैं, उसका निदान नहीं हैं।

कहते हैं कि कोई प्रयास व्यर्थ नहीं जाता है, हर प्रयास में मनुष्य कुछ न कुछ सीखता ही है। सीखने के स्तर तक तो संघर्ष करके पढ़ना अच्छा है पर ८-१० वर्ष तक वही पाठ्यक्रम इस आस में पढ़ते रहना कि अगली बार भाग्य साथ देगा, समय को व्यर्थ करने से अधिक कुछ भी नहीं।

बिन्दु स्पष्ट है। एक ओर संभावनाओं का जल स्थिर है, अपने बहे जाने की राह देख रहा है, वहीं दूसरी ओर मैदानों में सूखा पड़ा है। कितने ही क्षेत्र ऐसे हैं जिनमें आवश्यकता है ऊर्जावान युवाओं की, जो आकर कुछ नया कर जायें, संभावनाओं का जल वहाँ पहुँचे तो वहाँ भी ऐश्वर्य लहलहा उठे। कितने ही क्षेत्र ऐसे हैं जहाँ गुणवत्ता शापित है, अन्य देश लाभान्वित हो रहे हैं, हमारे देश के बाजार पर अधिकार करते जा रहे हैं, वहाँ हमारी युवा ऊर्जा क्यों नहीं पहुँच पाती है। शिक्षा का ही क्षेत्र ले लीजिये जहाँ स्तरीय अध्यापकों की नितान्त आवश्यकता है, पर वहाँ पर भी इतना कम पैसा मिलता है कि व्यक्ति एक सम्मानित जीवन यापन के बारे में सोच ही नहीं सकता है। नवीन उद्यम, नवीन तकनीक, सब के सब क्षेत्र ऐसे हैं जिनमें हम अपने पैर पसार ही नहीं पा रहे हैं, ललचाये से शेष विश्व की ओर निहारने में लगे रहते हैं।

दूसरी ओर संभावनाओं को जल बस उन्हीं क्षेत्रों में बहना चाहता है जो पहले से ही सिंचित हैं। असिंचित क्षेत्रों में जाने से जल का अस्तित्व मिट जाने का भय होता है। भले ही कितना ही जल अपनी लम्बी यात्रा के पश्चात खारे सागर में जाकर समा जाये पर उसका उपयोग हम शेष धरा को सिंचित करने में नहीं कर पाते हैं।

दोष किस पर मढ़ें, अभिभावकों को भी दोष नहीं दे सकते, जो मार्ग कभी बने ही नहीं उन पर वे अपने बच्चों को चलने के लिये कैसे कह दें? कुछ तो हो आश्वस्त होने के लिये। शिक्षा पद्धति भी क्या करे, उसका ध्यान ज्ञान से अधिक इस बात पर लगा रहता है कि प्रतियोगी परीक्षाओं के योग्य बच्चे कैसे बने? रट रटकर प्रतियोगी परीक्षाओं में उगल देने वाले युवाओं से भी क्या आशा करें कि वे नव-उद्यम का मोल समझें, उस नव-उद्यम का जिसके बारे में उन्हें कभी तैयार ही नहीं किया गया है।

एक ओर सारे जगत की चमक है और शेष जगत अँधियारा। क्या कोई उपाय है जिसमें कुछ भी प्रयास व्यर्थ न जायें, प्राप्त शिक्षा व्यर्थ न जाये, झूठी आशा में निकल गये इतने वर्ष व्यर्थ न जायें? क्या आधारभूत ढांचा निर्माण हो जिसमें देश की युवा ऊर्जा सहज बहे और समुचित बहे, सारे असिंचित क्षेत्र सिंचित हों। व्यर्थ संभावनायें, बाढ़ के जल के समान अस्थिरता ला सकती हैं और यह मूल्य उन प्रयासों में लगे मूल्य से कहीं अधिक होगा जो जो इन व्यर्थ हो रही संभावनाओं को एक स्थायी दिशा देने में लगेगा।

11.7.12

पानी का व्यापार

सावन आया है, ग्रीष्म की पूर्ण तपन के बाद। कितनी घनी प्रतीक्षा, हर दिन की आस, कि आज बरसें शीतल फुहारें, कि आज टूटे तपन की श्रृंखला। पानी बरस रहा है, कहते हैं कि कम बरस रहा है, कारण पता नहीं, संभवतः मानसून का जोर कम चल रहा है। पता नहीं इस बार पर्याप्त रहेगा कि नहीं, पता नहीं कि इस बार फसल अच्छी होगी कि नहीं? फसल कम अच्छी हुयी तो अन्न की आपूर्ति कम होगी, माँग बनी रहेगी क्योंकि जनसंख्या की फसल तो किसी भी वर्ष विफल हुयी ही नहीं है। माँग और आपूर्ति का भारी अन्तर मँहगाई बढ़ायेगा, और तपन बढ़ेगी, ग्रीष्म की तपन से भी तपी, सावन पुनः प्रतीक्षित रहेगा।

बड़ा जटिल संबंध है, तपन का सावन से, सावन का जल से, जल का जन से और जन का तपन से। त्राहि त्राहि मच उठती है जब सावन रूठता है, हम असहाय बैठ जाते हैं, अर्थव्यवस्था के मानक असहाय बैठ जाते हैं, गरीबों के चूल्हे असहाय बैठ जाते हैं। बड़ा ही गहरा संबंध है, सावन की बूँदों में और हमारे आँखों और पसीने की बूँदों में। सावन की बूँदें या तो सागर को भरती हैं या पृथ्वी के गर्भ के जल स्रोत को, एक खारा एक मीठा। एक सीधा सा सिद्धान्त तय मान कर चलिये, आप सावन की बूँदों को जितना खारापन देते हैं, सावन की बूँदें आपको उतना ही खारापन वापस करती हैं, पसीने के रूप में, आँसू के रूप में। आप सावन की बूँदों को जितना मीठापन देंगे या कहें जितना उसे पृथ्वी के गर्भ में जाने देंगे, उतनी ही मिठास आपके जीवन में भी आयेगी।

पानी का चक्र बड़ा ही सरल और सुलझा है, पृथ्वी से जितना जल वाष्पित होता है, वह सारा जल पृथ्वी पर ही कहीं न कहीं जाकर बरस जाता है, आसमान अपने पास कुछ नहीं रखता है। ९० प्रतिशत से अधिक वाष्पन सागर से होता है, शेष दस प्रतिशत पृथ्वी के पेड़ पौधों, झील नदियों आदि से होता है। कुल वाष्पन का लगभग ७७ प्रतिशत सागर पर ही बरस जाता है, शेष २३ प्रतिशत हवाओं के माध्यम से जमीन पर बरसता है। यह बरसा हुआ जल पर्वतों पर बर्फ के रूप में, पृथ्वी के अन्दर भूगर्भ जल के रूप में, झीलों और तालाबों के रूप में एकत्र होता है, शेष नदियों की धाराओं के माध्यम से पुनः सागर में मिल जाता है। बर्फ के रूप में एकत्र जल भी नदियों को वर्ष भर पानी देता रहता है और अन्ततः सागर में मिल जाता है।

कुल मिलाकर हाथ में रहता है, भूगर्भ जल, झीलों का जल और नदियों का जल। नदियों के आसपास का सारा जल नदियों में ही आकर मिलता है। नदियों का जलग्रहण क्षेत्र बड़ा होता है और उसमें साधारणतया कोई झील आदि नहीं होती है। नदियों के दोनों ओर ४-५ किमी तक के क्षेत्र का भूगर्भ जल नदियों के द्वारा ही भरा जाता रहता है। यदि नदियाँ सूखेंगी या उनमें कम पानी रहेगा तो भूगर्भजल उतना ही नीचे चला जायेगा। झीलों और तालों का जलग्रहण क्षेत्र अधिक बड़ा नहीं होता है पर वह भौगोलिक रूप से अपने आसपास के क्षेत्रों की तुलना में सबसे नीचे होती हैं। झीलें भी भूगर्भजल को सतत भरती रहती हैं। जब बरसात में नदियों का जल बह जाता है, जब उपयोग में लाते लाते झील और ताल भी सूख जाते हैं, तब हमारे पास भूगर्भ जल का ही आश्रय होता है। यदि कहा जाये तो भूगर्भजल हमारे गाढ़े समय के लिये का जल है।

भूगर्भजल की उपलब्धता लगभग उतनी ही है जितने पृथ्वी के उपर जमे हुये हिमखण्ड, यही हमारी जमापूँजी है। सावन का जल आता है, बह जाता है, हम प्रयास कर उसे पूरा नहीं समेट पाते हैं। बाँध बनाते हैं, नहर निकालते हैं, खेतों को पहुँचाते हैं, फिर भी पर्याप्त नहीं पड़ पाता है वह सबके लिये, उन क्षेत्रों के लिये भी नहीं जो नदी के आसपास हैं। झीलें भरती हैं, कुछ महीनों में उनका भी जल स्तर नीचे आ जाता है, दैनिक उपयोग और सतत वाष्पन उन्हें भी सुखा देता है। तब शेष रहता है भूगर्भजल, जो कि पृथ्वी के अन्दर सदियों से एकत्र हो रहा है, जो कुँओं के माध्यम से हम तक आता है।

एक व्यापारी क्या करता है? जो संसाधन सबसे पहले उपस्थित रहते हैं और पहले विलुप्त होने वाले होते हैं, उनका समुचित उपयोग करता है, एक योग्य व्यापारी। जो संसाधन गाढ़े समय में काम आते हैं, उन्हें सोने की तरह सम्हाल कर रखता है और विपत्ति के समय ही उपयोग में लाता है। हर बार वह अपना संचय बढ़ाता रहता है औऱ अपने व्यापार का विस्तार भी करता रहता है।

हमें क्या हो गया है? जिन नदियों में जल बहना था, जिनका उपयोग पानी पीने और दैनिक आवश्यकताओं में अधिक करना था, वो आज सूख रही हैं। सारी की सारी मुख्य नदियाँ कृशकाय सी दिखती हैं, पता नहीं उनका जल कहाँ सोख लिया जाता है? जिन नहरों से जुड़कर खेती को पानी मिलता था, उन नहरों में इतनी मिट्टी जम गयी है कि वहाँ बच्चे क्रिकेट खेलते हैं। वर्षा के समय जल का प्रवाह हमसे सम्हाले नहीं सम्हलता है और सारा का सारा जल सागर में समा जाता है। नदियों के सूखने से आपपास के भूगर्भजल का स्तर सैकड़ों फीट नीचे चला गया है। यदि उन नदियों में कुछ बहता है तो वह शहरों और फैक्ट्रियों का मल बहता है, ऐसा कूड़ा कि देखकर मन पीड़ा से भर उठता है। जल के प्रवाह को हमने क्या से क्या कर दिया, इस प्रश्न का उत्तर अपनी संततियों को देना कठिन हो गया है हमें।

यदि झीलें ही बची रहती तब भी यत्र तत्र पानी एकत्र होकर भूगर्भजल को भरता रहता और अन्य कार्यों में भी उपयोग में आता। बंगलोर में कभी ४५० झीलें हुआ करती थीं, जनसंख्या के दवाब ने नगर के अन्दर भूमि के मूल्य अधाधुंध बढ़ा दिये और भूमि माफियाओं ने झीलें सुखा कर उस पर कब्जा करना प्रारम्भ कर दिया। अब ६०-७० ही झीलें शेष बची हैं और वे भी अपनी मृत्यु की प्रतीक्षा में हैं। झीलें जो पूरे नगर के जल आवश्यकता पूरी करने में सक्षम थीं, आज अपने लिये भी जल नहीं जुटा पा रही हैं। नगर को कावेरी नदी का जल दिया जा रहा है, वह भी लगभग १०० किमी पंप करके। हर वर्ष झीलों में जल न आने से भूगर्भजल का स्तर १०० फीट से ५०० फीट तक जा चुका है। जिस नगर में पहले कहीं पानी भरता नहीं था, उस नगर को हर वर्षा के बाद सड़कों पर कीचड़ के अंबार सहने पड़ते हैं।

हर छोटे बड़े नगर की यही कहानी है, भूगर्भजल को हम प्राथमिक स्रोत मानकर बैठे हैं और पंप लगाकर अधाधुंध दोहन कर रहे हैं। जिन स्रोतों से उनमें पानी जाना था, उन्हें विधिवत सुखा रहे हैं और वर्षा की हर बूँद का संरक्षण जो हमारा कर्तव्य था, उसे व्यर्थ ही बह जाने दे रहे हैं।

यह कैसा पानी का व्यापार है? पानी की जो संस्कृति पनप रही है, उसे देखकर तो लगता है कि पानी भी उपभोग की वस्तु बन गयी है, जब तक उलीच सकें उलीच लें, आने वालों के लिये कुछ न छोड़ें। प्रकृति ने सदा ही कृपा बरसायी है, हमने उसे लूट में बदल दिया है। नदियाँ और जल के स्रोत जो हमारे आराध्य थे, इसलिये नहीं कि उनमें किसी देवी का वास है, इसलिये क्योंकि जल हमारे लिये जीवन का पर्याय है और जीवनदायिनी सदा ही आराध्य होती है।

पानी के व्यापार में हम हर बार प्रकृति के साथ छल करते हैं, अधिक रख लेते हैं, कम देते हैं, मूल्य न समझ व्यर्थ कर देते हैं। कभी प्रकृति ने छल किया तो हमारी सभ्यता जल के लिये युद्ध करते करते समाप्त हो जायेगी और हम पानी के व्यापार में सब लुटा बैठेंगे।

4.7.12

रूठ गया निष्कर्ष दिशा से

कठिन परिश्रम की घड़ियाँ हैं,
नहीं कहीं कोई पथ दिखलाता।
घुप्प अँधेरों के चौराहे,
नहीं जानता, एक प्राकृतिक,
या भ्रम-इंगित कृत्रिम व्यवस्था।
कुछ भी हो लगता ऐसा है,
रूठ गया निष्कर्ष दिशा से,
या फिर सर धर हाथ बैठता,
गृहस्वामी गृह लुट जाने पर।
प्राणहीन हो गयी व्यवस्था,
जीवन है अब कहाँ उपस्थित,
कब औषधि उपचार करेगी?

शोषण-धारा बहे अनवरत,
कहीं मानसिक, कहीं आर्थिक,
दृढ़ इच्छा का नाविक बनकर,
चलें विरुद्ध बहें धारा के।
यदि विचार भी उठता मन में,
सोचो एक पल व्यग्रहीन हो,
नौकायें सब डूब रही हैं,
जो धारा के संग नहीं हैं
डूबे प्राणी, चीख प्रभावी,
असहायों का शैशव क्रन्दन,
भयाक्रान्त जन पर भविष्य में,
फिर यह गलती ना दोहरायें।

विषय दुःखप्रद, किन्तु बन रहे,
नित्य निरन्तर प्राणहीन जन,
धारा के अनुरूप बह रहे,
शंकित मन में, निज भविष्य प्रति।
सत्य यही है, फैल रही है,
कह दो कैसे बनी व्यवस्था?
कौन लाये संजीवनि औषधि,
लखन क्रोध से मूर्छित लेटा।
कब तक फैली चाटुकारिता,
मध्यम सुर में राग गढ़ेगी
स्याही चादर ओढ़ बिचारे,
सूर्योदय सब राह तक रहे

शक्तिहीन जन, प्राणहीन मन,
मर्यादा परिभाषित करने,
तत्पर मन से जुटे हुये सब,
आश्रय पाते थके हुये जन,
परिभाषित इस मर्यादा में,
जीवन जीभर जी लेने की,
आवश्यकता जानेगे कब,
कृत्रिम व्यवस्था में अपना भी,
समुचित योगदान अर्पित कर,
किन्नर सेना मन ही मन में,
बढ़ते बढ़ते हर जीवन में,
स्वप्न-दिवा सी फैल गयी है।

11.1.12

ऐसी सजनी हो

आँखों ही आँखों में मन के, भाव समझकर पढ़ जाती हो,
हृद की अन्तरतम सीमा में, सहज उतरकर बढ़ जाती हो ।
भावों में सागर लहरों सी, सतत बहे, मधुमय रमणी हो,
हो संजीवनि, नवजीवन सी, संग रहे, ऐसी सजनी हो ।।१।।

अरुण किरण सी, नभ-नगरी में, बन जाये स्फूर्ति चपलता,
डुला रही अपने आँचल से, बन पवनों का शीतल झोंका ।
धीरे धीरे नयन समाये, अलसायी, मादक रजनी हो,
हो संजीवनि, नवजीवन सी, संग रहे, ऐसी सजनी हो ।।२।।

मन के अध्यायों में सब था, किन्तु तुम्हारा नाम नहीं था,
तत्पर, आतुर, प्रेमपूर्ण वह, मदमाता अभिराम नहीं था ।
आ जाये, ऐश्वर्य दिखाये, सकल ओर मन मोह रमी हो,
हो संजीवनि, नवजीवन सी, संग रहे, ऐसी सजनी हो ।।३।।

(बस इतना जान लीजिये कि विवाह के बहुत पहले लिखी थी, यह आसभरी कविता)

14.12.11

हमारे पारितन्त्र

शब्दकोष में अंग्रेजी के एक शब्द ईकोसिस्टम का हिन्दी में यही निकटतम शाब्दिक अर्थ मिला। यह कई अवयवों के ऐसे समूह को परिभाषित करता है जो एक दूसरे के प्रेरक व पूरक होते हैं। मूलतः जैविक तन्त्रों के लिये प्रयोग में आया यह शब्द अन्य क्षेत्रों में भी उन्हीं अर्थों को प्रतिबिम्बित करता है। किसी भी पारितन्त्र में एक प्रमुख चरित्र होता है, जिसके द्वारा वह पहचाना जाता है। जंगल हो या जल, शरीर हो या घर, नगर हो या विश्व, सब के सब कुछ तन्तुओं से जुड़े रहते हैं और एक दूसरे को सामूहिक आधार प्रदान करते हैं। बहुधा तो उसके अवयवों का महत्व पता नहीं चलता है पर किसी एक अवयव की अनुपस्थिति जब अपने कुप्रभाव छोड़ने लगती है तब उसका पूरा योगदान समझ में आता है हम सबको। किसी एक पारितन्त्र में सारे बिल्लियों को मार देने से जब प्लेग फैलने लगा तब लगा कि उनका रहना भी आवश्यक है।

इसी प्रकार पारितन्त्र में किसी नये अवयव का आगमन भी अस्थिरता उत्पन्न करता है। समय बीतने के साथ या तो वह उसमें ढल जाता है या उसका स्वरूप बदल देता है। इसी प्रकार विकास के कई चरणों से होता हुआ उसका एक सर्वथा नया स्वरूप दिखायी पड़ता है। न केवल भौतिक जगत में वरन विचारों के क्षेत्र में भी पारितन्त्रों की उपस्थिति का अवलोकन उनके बारे में हमारी समझ बढ़ा जाता है। विचारधारायें विचारों का पारितन्त्र स्थापित करती हैं। साम्यवाद हो या पूँजीवाद, भारतीय संस्कृति हो या पाश्चात्य दर्शन, सबके अपने पारितन्त्र हैं। उनमें वही विचार पोषित और पल्लवित होते हैं जो औरों के प्रेरक होते हैं या पूरक। विरोधी स्वर या तो दब जाते हैं या पारितन्त्रों की टूट का कारण बनते हैं। जो भी निष्कर्ष हो, जब तक एक स्थिरता नहीं आ जाती है तब तक संक्रमण होता रहता है इनमें।

किसी क्षेत्र में कोई बदलाव लाने के लिये उसके पारितन्त्र के हर अवयव के बारे में विचार करना आवश्यक है। बिना सोचे समझे बदलाव कर देने से उसके परिणाम दूरगामी होते हैं। पॉलीथिन का प्रयोग प्रारम्भ करने के पहले किसी ने नहीं सोचा था कि एक दिन यह गहरी समस्यायें उत्पन्न कर देगा। पर्यावरण के बारे में मची वर्तमान बमचक, पारितन्त्रों की अधूरी समझ का परिणाम ही है।

आज के समय में हम भारतीयों की स्थिति सबसे अधिक गड्डमड्ड है। कोई एक पारितन्त्र है ही नहीं, बचपन संस्कारों में बीतता है, सभी परिवार अपने बच्चों को घर में संस्कृति का सबसे उत्कृष्ट पक्ष सिखाते हैं, शिक्षापद्धति की प्राथमिकतायें दूसरी हैं, समाज में फैली राजनीति पोषित भिन्नतायें तीसरा ही संदेश देती हैं, वैश्विक होड़ में जीवन का चौथा रंग दिखायी देता है, स्वयं की विचार प्रक्रिया इन सब पंथों की खिचड़ी बन जाती है। प्राच्य से पाश्चात्य तक की यह यात्रा एक पारितन्त्र से दूसरे में कूदते कूदते बीतती है। जीवन की ऊर्जा कब कहाँ क्षय हो जाती है, हिसाब ही नहीं है। कह सकते हैं कि काल संक्रमण का है पर कोई निष्कर्ष दिखता ही नहीं है, न जाने कौन सी नस्ल तैयार होने वाली है, हम भारतीयों की।

ऐसे संक्रमण में कुछ सार्थक उत्पादकता देने वाले विरले ही कहलायेंगे। देश, समाज और परिवार के ध्वस्तप्राय पारितन्त्र कब ठीक होंगे और कैसे ठीक होंगे? कब व्यक्ति, परिवार, समाज, दल, प्रदेश एक दूसरे के प्रेरक व पूरक बनेंगे? भले ही कई परिवार अपना अस्तित्व अक्षुण्ण बनाये रखें पर उनके पारितन्त्र को हर स्तर पर बल मिलता रहेगा, इसकी संभावना बहुत ही कम है।

निश्चय मानिये कि आने वाली पीढ़ियों के पास पंख तो होंगे, पर उड़ानें भरने के लिये मुक्त गगन नहीं। क्या हमारे पारितन्त्र उस आकाश को बाधित करते हैं? ऊर्जा का एक अथाह स्रोत भी चाहिये लम्बी उड़ाने भरने के लिये, एक बार पुनः देख लें कि हमारी पद्धतियाँ उन्हें ऊर्जा देती हैं या उड़ने के पहले ही थका देती हैं? न जाने किन आशंकाओं से बाधित है, हमारी भविष्य की परिकल्पना? जटिलतायें रच लेना सरल हैं, समस्याओं को जस का तस छोड़ दीजिये, नासूर बन जायेंगी। सरलता की संरचना स्वेदबिन्दु चाहती है, मेधा की आहुति चाहती है, निश्चयात्मकता चाहती है निर्णयों में, सब के सब अनवरत।

क्या आने वाली पीढ़ियों को हम वह सब दे पा रहे हैं, क्या हमारे पारितन्त्र स्वस्थ हैं, क्या हमारे पारितन्त्र सबल हैं?

25.6.11

दो प्रश्न

भविष्य में क्या बनना है, इस विषय में हर एक के मन में कोई न कोई विचार होता है। बचपन में वह चित्र अस्थिर और स्थूल होता है, जो भी प्रभावित कर ले गया, वैसा ही बनने का ठान लेता है बाल मन। अवस्था बढ़ने से भटकाव भी कम होता है, जीवन में पाये अनुभव के साथ धीरे धीरे उसका स्वरूप और दृढ़ होता जाता है, उसका स्वरूप और परिवर्धित होता जाता है। एक समय के बाद बहुत लोग इस बारे में विचार करना बन्द कर देते हैं और जीवन में जो भी मिलता है, उसे अनमने या शान्त मन से स्वीकार कर लेते हैं। धुँधला सा उद्भव हुआ भविष्य-चिन्तन का यह विचार सहज ही शरीर ढलते ढलते अस्त हो जाता है।

कौन सा यह समय है जब यह विचार अपने चरम पर होता है? कहना कठिन है पर उत्साह से यह पल्लवित होता रहता है। उत्साह भी बड़ा अनूठा व्यक्तित्व है, जब तक इच्छित वस्तु नहीं है तब तक ऊर्जा के उत्कर्ष पर नाचता है पर जैसे ही वह वस्तु मिल जाती है, साँप जैसा किसी बिल में विलीन हो जाता है। उत्साह का स्तर बनाये रखने के लिये ध्येय ऐसा चुनना पड़ेगा जो यदि जीवनपर्यन्त नहीं तो कम से कम कुछ दशक तो साथ रहे।

पता नहीं पर कई आगन्तुकों का चेहरा ही देखकर उनके बारे में जो विचार बन जाता है, बहुधा सच ही रहता है। उत्साह चेहरे पर टपकता है, रहा सहा बातों में दिख जाता है। जीवन को यथारूप स्वीकार कर चुके व्यक्तित्वों से बातचीत का आनन्द न्यूनतम हो जाता है, अब या तो उनका उपदेश आपकी ओर बहेगा या आपका उत्साह उनके चिकने घड़े पर पड़ेगा।

मुझे बच्चों से बतियाने में आनन्द आता है, समकक्षों से बात करना अच्छा लगता है, बड़ों से सदा कुछ सीखने की लालसा रहती है। पर युवाओं से बात करना जब भी प्रारम्भ करता हूँ, मुझे प्रश्न पूछने की व्यग्रता होने लगती है। अपने प्रत्येक प्रश्न से उनका व्यक्तित्व नापने का प्रयास करता हूँ। युवाओं को भी प्रश्नों के उत्तर देना खलता नहीं है क्योंकि वही प्रश्नोत्तरी संभवतः उनके मन में भी चलती रहती है। आगत भविष्य के बारे में निर्णय लेने का वही सर्वाधिक उपयुक्त समय होता है।

मुझे दो ही प्रश्न पूछने होते हैं, पहला कि आप जीवन में क्या बनना चाहते हैं, दूसरा कि ऐसा क्यों? दोनों प्रश्न एक साथ सुनकर युवा सम्भल जाते हैं और सोच समझकर उत्तर देना प्रारम्भ करते हैं। उत्तर कई और प्रश्नों को जन्म दे जाता है, जीवन के बारे में प्रश्नों का क्रम, जीवन को पूरा खोल कर रख देता है। चिन्तनशील युवाओं से इन दो प्रश्नों के आधार पर बड़ी सार्थक चर्चायें हुयी हैं। व्यक्तित्व की गहराई जानने के लिये यही दो प्रश्न पर्याप्त मानता हूँ। वह प्रभावित युवा होगा या प्रभावशाली युवा होगा, इस बारे में बहुत कुछ सही सही ज्ञात हो जाता है।

जब तक इन दो प्रश्नों को उत्तर देने की ललक मन में बनी रहती है, उत्साह अपने चरम पर रहता है।

आप स्वयं से यह प्रश्न पूछना प्रारम्भ करें, आपको थकने में कितना समय लगता है, यह आपके शेष मानसिक-जीवन के बारे में आपको बता देगा। यदि प्रश्नों की ललकार आपको उद्वेलित करती है तो मान लीजिये कि आपका सूर्य अपने चरम पर है।

मैं नित स्वयं से यही दो प्रश्न पूछता हूँ, मेरा उत्तर नित ही कुछ न कुछ गुणवत्ता जोड़ लेता है, जीवन सरल होने लगता है पर उत्तर थकता नहीं है, वह आगे भी न थके अतः जीवन कुछ व्यर्थ का भार छोड़ देना चाहता है। एक दिन उसे शून्य सा हल्का होकर अनन्त आकाश में अपना बसेरा ढूढ़ लेना है।

आप भी वही दो प्रश्न स्वयं से पूछिये। 

15.6.11

लिखें या टाइप करें

इस विषय में कोई संशय नहीं कि लिखित साहित्य ने पूरे विश्व की मानसिक चेतना का स्तर ऊपर उठाने में एक महत योगदान दिया है। सुनकर याद रखने के क्रम की परिणति कालान्तर में भ्रामक हो जाती है और बहुत कुछ परम्परा के वाहक पर भी निर्भर करती है। व्यासजी ने भी यह तथ्य समझा और स्मृति-ज्ञान को लिखित साहित्य बनाने के लिये गणेशजी को आमन्त्रित किया। व्यासजी के विचारों की गति गणेशजी के द्रुतलेखन की गति से कहीं अधिक थी अतः प्रथम लेखन का यह कार्य बिना व्यवधान सम्पन्न हुआ।

व्यासजी और गणेशजी का सम्मिलित प्रयत्न हम सब नित्य करते हैं, विचार करते हैं और लिखते हैं। जब तक टाइप मशीनों व छापाखानों का निर्माण नहीं हुआ था, हस्तलिखित प्रतियाँ ही बटती थीं। कुछ वर्ष पहले तक न्यायालयों में निर्णयों की लिखित-प्रति देने का गणेशीय कर्म नकलबाबू ही करते रहे। अब हाथ का लिखा, प्रशासनिक आदेशों, परीक्षा पुस्तिकाओं, प्रेमपत्रों और शिक्षा माध्यमों तक ही रह गया है, कम्प्यूटर और आई टी हस्तलेखन लीलने को तत्पर बैठे हैं।

ज्ञान-क्रांति ने पुस्तकों का बड़ा अम्बार खड़ा कर दिया है, जिसको जैसा विषय मिला, पुस्तक लिख डाली गयी। इस महायज्ञ में पेड़ों की आहुतियाँ डालते रहने से पर्यावरण पर भय के बादल उमड़ने लगे हैं। अब समय आ गया है कि हमें अपनी व्यवस्थायें बदलनी होंगी, कागज के स्थान पर कम्प्यूटर का प्रयोग करना होगा।

भ्रष्टाचार के दलदल में आकण्ठ डूबी सरकारी फाइलों का कम्प्यूटरीकरण करने में निहित स्वार्थों का विरोध तो झेलना ही पड़ेगा, साथ ही साथ एक और समस्या आयेगी, लिखें या टाइप करें। यही समस्या विद्यालयों में भी आयेगी जब हम बच्चों को एक लैपटॉप देने का प्रयास करेंगे, लिखें या टाइप करें। बहुधा कई संवादों को तुरन्त ही लिखना होगा, तब भी समस्या आयेगी, लिखें या टाइप करें। यदि हमें भविष्य की ओर बढ़ने का सार्थक प्रयास करना है तो इस प्रश्न को सुलझाना होगा, लिखें या टाइप करें।

हस्तलेखन प्राकृतिक है, टाइप करने के लिये बड़े उपक्रम जुटाने होते हैं। एक कलम हाथ में हो तो आप लिखना प्रारम्भ कर सकते हैं कभी भी, टाइपिंग के लिये एक कीबोर्ड हो उस भाषा का, उस पर अभ्यास हो जिससे गति बन सके। सबकी शिक्षा हाथ में कलम लेकर प्रारम्भ हुयी है और इतना कुछ कम्प्यूटर पर टाइप कर लेने के बाद भी सुविधा लेखन में ही होती है। हर दृष्टि से लेखन टाइपिंग से अधिक सरल और सहज है। तब क्या हम सब पुराने युग में लौट चलें? नहीं, अपितु भविष्य को अपने अनुकूल बनायें। हस्तलेखन और आधुनिक तकनीक का संमिश्रण करें तो ही आगत भविष्य की राह सहज हो पायेगी।

टैबलेट कम्प्यूटरों का पदार्पण एक संकेत है। धीरे धीरे भौतिक कीबोर्ड और माउस का स्थान आभासी कीबोर्ड ले रहा है। ऊँगलियों और डिजिटल पेन के माध्यम से आप स्क्रीन पर ही अपना कार्य कर सकते हैं। इसमें लगायी जाने वाली गोरिल्ला स्क्रीन अन्य स्क्रीनों से अधिक सुदृढ़ होती है और बार बार उपयोग में लाये जाने पर भी अपनी कार्य-क्षमता नहीं खोती है। कम्प्यूटर पर अपने हाथ से लिखा पढ़ने का आनन्द ही कुछ और है। कुछ दिन पहले ही एक टचपैड के माध्यम से कुछ चित्र बनायें है और हाथ से लिखा भी है।

ऐसा नहीं है कि आपका हस्तलेखन कम्प्यूटर पहचान नहीं सकता है। अंग्रेजी सहित कई भाषाओं में यह तकनीक विकसित कर ली गयी है और आशा है कि हिन्दी के लिये भी यह तकनीक शीघ्र ही आ जायेगी। ऐसा होने पर आप जो भी लिखेंगे, जिस भाषा में लिखेंगे, वह यूनीकोड में परिवर्तित हो जायेगा। अब आप जब चाहें उसे उपयोग में ला सकते हैं, ब्लॉग के लिये, ईमेल के लिये, छापने के लिये, संग्रह के लिये।

जब स्लेट की आकार की टैबलेट हर हाथों में होंगे और साथ में होंगे लिखने के लिये डिजिटल पेन, जब इन माध्यमों से हम अपने व्यक्तिगत और व्यावसायिक कार्य निष्पादित कर सकेंगे, तब कहीं आधुनिकतम तकनीक और प्राचीनतम विधा का मेल हो पायेगा, तब कहीं हमें प्राकृतिक वातावरण मिल पायेगा, अपने ज्ञान के विस्तार का। बचपन में जिस तरह लिखना सीखा था, वही अभिव्यक्ति का माध्यम बना रहेगा, जीवनपर्यन्त।