29.10.11

दीवाली और घर की सफाई

दीवाली के पहले की एक परम्परा होती है, घर की साफ़ सफाई। घर में जितना भी पुराना सामान होता है, वह या तो बाँट दिया जाता है या फेंक दिया जाता है। वर्षा ऋतु की उमस और सीलन घर की दीवारों और कपड़ों में भी घुस जाती है। उन्हें बाहर निकालकर पुनः व्यवस्थित कर लेना स्वास्थ्य की दृष्टि से भी बहुत आवश्यक है। जाड़े के आरम्भ में एक बार रजाई-गद्दों और ऊनी कपड़ों को धूप दिखा लेने से जाड़ों से दो दो हाथ करने का संबल भी मिल जाता है। पुराने कपड़ों को छोड़ने का सीधा सा अर्थ है नयों को सिलवाना। नयेपन का प्रतीक है, दीवाली का आगमन।

बचपन से यही क्रम हर बार देखा। इस प्रक्रिया के बाद, घर के वातावरण में आया हल्कापन सदा ही अगली बार के उत्साह का कारण बना रहा। विवाहोपरान्त नयी गृहस्थी में भी वार्षिक नवीनीकरण से ऊर्जा मिलती रही। अभी तक तो सबका सामान व्यवस्थित रखने में स्वयं ही जूझना पड़ता था, सामान मुख्यतः व्यक्तिगत और सबके साझा उपयोग का, साथ में बच्चों का भी थोड़ा बहुत। श्रीमतीजी का सामान व्यवस्थित करने की न तो क्षमता है और न ही अनुमति। इस बार हमने बच्चों को भी इस प्रक्रिया में सक्रिय भाग लेने को कहा, उन्हे अपने सामान के बारे में निर्णय लेने को भी कहा। बच्चों को अपने सामान की उपयोगिता समझने व उसे सहेजने का गुण विकसित होते देखना किसी भी पिता के लिये गर्व का विषय है।

दोनों बच्चों के अपने अलग कमरे हैं। दोनों को बस इतना कहा गया कि कोई भी वस्तु, कपड़ा या खिलौना, जो आप उपयोग में नहीं लाते हैं, आप उन्हें अपने कमरे से हटा दें, वह इकठ्ठा कर घर में काम करने वालों को बाँट दिया जायेगा। उसके पहले उदाहरण स्वरूप मैंने अपना व्यक्तिगत सामान लगभग २५% कम करते हुये शेष सबको एक अल्मारी में समेट दिया। साझा उपयोग के सामान, फर्नीचर व पुराने पड़ गये इलेक्ट्रॉनिक सामानों को निर्ममता से दैनिक उपयोग से हटा दिया। अपने कमरे में जमीन पर ही बिस्तर बिछा कर सोने से एक बेड को विश्राम मिल गया। ऊर्जा सोखने वाले डेस्कटॉप को हटा वहाँ अपना पुराना लैपटॉप रख दिया। एक अतिरिक्त सोफे को भी ड्रॉइंग-कक्ष से विदा दे गैराज भेज दिया गया।

अपने कक्ष व ड्राइंग-कक्ष में इस प्रकार व्यवस्थित किये न्यूनतम सामान से वातावरण में जो ऊर्जा व हल्कापन उत्पन्न हुआ, उसका प्रभाव बच्चों पर पड़ना स्वाभाविक था। उन्हें यह लगा कि कम से कम सामान में रहने का आनन्द अधिकतम है। अधिक खिलौनों का मोह निश्चय ही उनपर बना रहता यदि न्यूनतम सामान का आनन्द उन्होने न देखा होता। आवश्यक दिशानिर्देश देकर हम तो कार्यालय चले गये, लौटकर जो दृश्य हमने देखा, उसे देखकर सारा अस्तित्व गदगद हो उठा।

एक दिन के अन्दर ही दोनों के कमरे अनावश्यक व अतिरिक्त सामानों से मुक्ति पा चुके थे। पुराने के मोह और भविष्य की चिन्ता से कहीं दूर वर्तमान में जीने का संदेश ऊर्जस्वित कर रहे थे दोनों कमरे। न्यूनतम में रह लेने का उनका विश्वास, उनके स्वयं निर्णय लेने के विश्वास के साथ बैठा निश्चिन्त दिख रहा था। उनके द्वारा त्यक्त सामानों से उठाकर कुछ सामान मुझे स्वयं उनके कमरे में वापस रखना पड़ा।

पुराने सामानों को सहेज कर रख लेने का मोह, संभवतः वह आगे कभी काम आ जाये, या उससे कोई याद जुड़ी हो, साथ ही भविष्य के लिये सुदृढ़ आधार बनाने की दिशा में घर में ठूँस लिये गये सामान, दोनों के बीच हमारा वर्तमान निरीह सा खड़ा रहता है। वर्तमान का सुख अटका रहता है, अस्तित्व के इसी भारीपन में। मेरे लिये यही क्या कम है कि बच्चों में यह समझ विकसित हो रही है कि उनके लिये क्या आवश्यक है, क्या नहीं? हल्केपन के आनन्द के सामने त्यक्त व अनुपयोगी सामानों का क्या मूल्य, संभवतः उन्हें अपना उचित स्वामी मिल ही जायेगा।

घर आयी इस नवप्राप्त ऊर्जा में दीवाली के दियों का प्रकाश जगमगा उठा है। हर वर्ष के क्रम को इस वर्ष एक विशेष सम्मान मिला है, मेरे घर में दीवाली इस बार सफल हुयी है। बस एक कमरा अभी भी भण्डारवत है, श्रीमतीजी का, पर हम तीनों का दबाव उस पर बना रहेगा, अगली दीवाली तक।

26.10.11

बैटरी

बैटरी का अधिक व्यय एक प्रमुख कारण रहा मैक में विण्डो न लोड करने का, बात २५% अपव्यय की हो तो संभवतः आप भी वही निर्णय लेंगे। यह निर्णय न केवल मैक सीखने के लिये विवश कर गया वरन बैटरी की कार्यप्रणाली सम्बन्धी उत्सुकता को भी बढ़ा गया। ऐसा भी क्या कारण है कि दो भिन्न संरचनाओं में बैटरी का व्यय इतना अधिक हो जाता है?

एक मित्र ने बहुत पहले एक सलाह दी थी कि बैटरी की पूरी कार्यक्षमता के दोहन के लिये बैटरी-चक्र १००% पर रखिये। कहने का आशय यह कि पूरी चार्ज बैटरी को पूरी डिस्चार्ज होने के पहले चार्ज न करें। इससे बैटरी न केवल एक चक्र में अधिक चलती है वरन उसका जीवनकाल भी बढ़ जाता है। संभवतः इसका कारण हर बैटरी की डिजाइन में नियत चार्जिंग-चक्रों का होना हो। अभी तक यथासंभव इस सलाह को माना है और परिणाम भी आशानुरूप रहे हैं। इसी सलाह पर पिछले ३० दिनों से अपनी मैकबुक एयर को भी कसे हुये हूँ और इसी कारण ५ घंटे की घोषित क्षमता की तुलना में ७ घंटे की बैटरी की उपलब्धता बनी हुयी है।

मेरी मैकबुक एयर में ३५ वॉट-ऑवर की बैटरी लगी है, चलती है ६ घंटे, अर्थात लगभग ६ वॉट प्रतिघंटा का व्यय। पुराने लैपटॉप तोशीबा में ९०  वॉट-ऑवर की बैटरी थी, चलती थी ५ घंटे, अर्थात १८ वॉट प्रतिघंटा का व्यय। डेक्सटॉप में यही व्यय ९० वॉट प्रतिघंटा व मोबाइल में १ वॉट प्रतिघंटा के आसपास रहता है। यदि ईमेल देखने व कमेन्ट मॉडरेट करने में आप अपने डेक्सटॉप के स्थान पर मोबाइल का प्रयोग करते हैं तो आप न केवल अपना समय बचा रहे हैं वरन बिजली की महाबचत भी कर रहे हैं। अपने ब्लैकबेरी पर यथासंभव कार्य कर मैं अपने हिस्से को कार्बन क्रेडिट हथिया लेता हूँ। लेखन, पठन व ब्लॉग संबंधी कार्य मोबाइल पर असहज हैं अतः उसके लिये लैपटॉप ही उपयोग में लाता हूँ, डेक्सटॉप का उपयोग पिछले ५ वर्षों से नहीं किया है। जहाँ एक ओर बड़ी स्क्रीन, चमकदार स्क्रीन, वीडियो और ऑडियो कार्यक्रम, वीडियो-गेम आदि ऊर्जा-शोषक हैं वहीं दूसरी ओर लेखन, ब्लॉग, पठन आदि ऊर्जा-संरक्षक हैं। यूपीएस तो डेक्सटॉप में प्रयुक्त ऊर्जा के बराबर की ऊर्जा व्यर्थ कर देता है, बैटरी उसकी तुलना में कहीं अधिक ऊर्जा-संरक्षण करती है।

मोबाइल, लैपटॉप व डेक्सटॉप का अन्तर तो समझ में आता है पर उसी कार्यप्रारूप के लिये विण्डो लैपटॉप पर मैकबुक एयर की तुलना में बैटरी का तीन गुना व्यय क्यों? जब दो दिनों में यह दूसरा प्रश्न मुँह बाये खड़ा हो गया तो उत्सुकता शान्त करने के लिये बैटरी की ऊर्जा के प्रवाह का अध्ययन आवश्यक हो गया। विण्डो लैपटॉप पर धौकनी जैसे गर्म हवा फेकते पंखों की व्यग्रता और मैकबुक एयर की शीतल काया के भेद का रहस्य इसी अध्ययन में छिपा था।

तेज गति के प्रॉसेसर अधिक ऊर्जा चूसते हैं वहीं कम गति के प्रॉसेसर आपका धैर्य। कार्यानुसार दोनों का संतुलन कर सामान्य कार्य के लिये आई-३ से ऊपर जाने की आवश्यकता नहीं है, भविष्य के लिये भी आई-५ युक्त मेरा मैकबुक एयर पर्याप्त है। एसएसडी हार्डड्राइव में परंपरागत घूमने वाली हार्डड्राइव की तुलना में नगण्य ऊर्जा लगती है। किसी भी फाइल ढूढ़ने में परंपरागत हार्डड्राइव को जहाँ अपनी चकरी रह रहकर घुमानी पड़ती है वहीं एसएसडी हार्डड्राइव में यह कार्य डिजिटल विधि से हो जाता है, यह मैकबुक एयर की तकनीक का उनन्त पक्ष है।

आपके लैपटॉप पर नेपथ्य में सैकड़ों प्रक्रियायें स्वतः चलती रहती हैं, संभवतः इस आशा में कि आप उनका उपयोग करेंगे। आपकी जानकारी में हों न हों, आपके उपयोग में आयें न आयें, पर ये प्रक्रियायें ऊर्जा बहाती रहती हैं। यदि ओएस इन पर ध्यान नहीं दे पाता है तो व्यर्थ ही आपकी बैटरी कम हो जायेगी। मैक ओएस में ऐसी प्रक्रियाओं को तुरन्त ही शान्त कर देने का अद्भुत समावेश है। ऐसे में बची उर्जा उन प्रक्रियाओं को पुनः प्रारम्भ करने में लगी ऊर्जा से बहुत अधिक है क्योंकि एसएसडी हार्डड्राइव में प्रक्रिया प्रारम्भ करने में नगण्य ऊर्जा लगती है।

मैक में विण्डो चलाने में व्यय अतिरिक्त ऊर्जा का कारण हार्डवेयर और ओएस के बीच के संबंधों में छिपा है। ये संबंध ड्राइवरों के द्वारा स्थापित होते हैं। हार्डवेयर और ओएस के बीच सामञ्जस्य बना रहने से ड्राइवरों को कम भागदौड़ करनी पड़ती है। मैक मशीन में विण्डो ठूसने से इन ड्राइवरों का कार्य व धमाचौकड़ी कई गुना बढ़ जाती है जो अन्ततः २५% अधिक ऊर्जा व्यय का कारण भी बनती है। 

कमरे में अंधकार है, स्क्रीन पर न्यूनतम चमक, बैकलिट कीबोर्ड का उपयोग, घर में शेष परिवार निद्रामय हैं, मैकबुक में शेष प्रक्रियायें भी सो रही हैं, बस जगे हैं, मैं, मेरी मैकबुक, बहते विचार, अधूरा आलेख, आपकी प्रतीक्षा और बैटरी। 

22.10.11

मैक या विण्डो - वैवाहिक परिप्रेक्ष्य

कहते हैं यदि व्यक्ति तुलना न करे तो समाज संतुष्ट हो जायेगा और चारों ओर प्रसन्नता बरसेगी। पड़ोसी के पास कुछ होने का सुख आपके लिये कुछ खोने सा हो जाता है। औरों का सौन्दर्य, धन, ऐश्वर्य आदि तुलना के सूत्रों से आपको भी प्रभावित करने लगते हैं। आप बचने का कितना प्रयास कर लें पर यह प्रवृत्ति आपकी प्रकृति का आवश्यक अंग है, बहुत सा ज्ञान हमारी तुलना कर लेने की क्षमता के कारण ही स्पष्ट होता है।

हमारे लिये मैकबुक एयर पर कार्य सीखना, पहली नज़र के प्यार के बाद आये वैवाहिक जीवन को निभाने जैसा था। प्रेम-विवाह को विजयोत्सव मान चुके युगल अपने वैवाहिक जीवन व मेरी स्थिति में बड़ी भारी समानता देख पा रहे होंगे। सम्बन्धों को निभाने और कम्प्यूटर से कुछ सार्थक निकाल पाने में लगी ऊर्जा के सामने प्रथम अह्लाद बहुधा वाष्पित हो जाता है। कितनी बार विण्डो की तरह कीबोर्ड दबा कर मैक से अपनी मंशा समझ पाने की आस लगाये रहे, विवाह में भी बहुधा ऐसा ही होता है। मैक सीखने की पूरी प्रक्रिया में हमें विण्डो ठीक वैसे ही याद आया जैसे किसी घोर विवाहित को विवाह के पहले के दिनों की स्वच्छन्दता याद आती है।

देखिये, तुलना मैक व विण्डो की करना चाह रहा था, वैवाहिक जीवन सरसराता हुआ बीच में घुस आया। तुलना में वही पक्ष उभरकर आते हैं जो बहुत अधिक लोगों को बहुत अधिक मात्रा में प्रभावित करते हैं। किसी बसी बसायी शान्तिमय स्थिरता को छोड़कर नये प्रयोग करने बैठ जाना, स्वच्छन्द जीवन छोड़ विवाह कर लेने जैसा ही लगता है।

जैसे वैवाहिक जीवन में कई बार लगता है कि काश पुराना, जाना पहचाना एकाकी जीवन वापस मिल पाता, मैक सीखते समय वैसा ही अनुभव विण्डो में लौट जाने के बारे में हो रहा था। अनिश्चित उज्जवल भविष्य की तुलना में परिचित भूतकाल अच्छा लगता है। निर्णय लिये जा चुके थे, उन्हे निभाना शेष था।

बीच का एक रास्ता दृष्टि में था, मैकबुक एयर में ही विण्डो चलाना। बहुत लोग ऐसा करते हैं, प्रचलन में तीन विधियाँ हैं, तीनों के अपने अलग सिद्धान्त हैं, अलग लाभ हैं, अलग सीमायें हैं। कृपया इनको वैवाहिक जीवन से जोड़कर मत देखियेगा। फिर भी आप नहीं मानते हैं और आपको बुद्धत्व प्राप्त हो जाता है तो उसका श्रेय मुझे मत दीजियेगा, मैं आने वाली पीढ़ियों के ताने सह न पाऊँगा।

पहला है, बूटकैम्प के माध्यम से मेमोरी विभक्त कर देना, एक में मैक चलेगा एक में विण्डो, पर एक समय में एक। एक कम्प्यूटर में दो ओएस, उनके अपने प्रोग्राम, एक उपयोग में तो एक निरर्थ। ठीक वैसे ही जैसे कुछ घरों में दो पृथक जीवन चलते हैं, दोनों अपने में स्वतन्त्र। जब जिसकी चल जाये, कभी किसी का पलड़ा भारी, कभी किसी का।

दूसरा है, वीएमवेयर(वर्चुअल मशीन) के माध्यम से, मैक में ही एक प्रोग्राम कई ओएस के वातावरण बना देता है, आप विण्डो सहित चाहें जितने ओएस चलायें उसपर। ठीक वैसे ही जैसे कोई रहे आपके घर में पर करे अपने मन की। ऐसे घरों में अपनी जीवनशैली से सर्वथा भिन्न जीवनशैलियों को जीने का स्वतन्त्रता रहती है।

तीसरा है, पैरेलल के माध्यम से विण्डो को मैक के स्वरूप में ढाल लिया जाता है और विण्डो के लिये एक समानान्तर डेक्सटॉप निर्मित हो जाता है। ठीक वैसे ही जैसे अपने पुराने स्वच्छन्द जीवन को नयी वैवाहिक परिस्थितियों के अनुसार ढाल लेना।

दो विचारधाराओं को एक दूसरे में ठूसने के प्रयास में जो होता है, भला कम्प्यूटर उससे कैसे अछूता रह सकता है। मैक में विण्डो चलाने की दो हानियाँ हैं, पहला लगभग २५जीबी हार्ड डिस्क का बेकार हो जाना और दूसरा २५% कम बैटरी का चलना। कारण स्पष्ट है, कम्प्यूटर में भी और वैवाहिक जीवन में भी, सहजीवन में विकल्पीय विचारधारायें संसाधन भी व्यर्थ करती हैं और ऊर्जा भी।

आप बताईये मैं क्या करूँ, पहली नज़र के प्यार के सारे नखरे सह लूँ और मैक सीखकर उसकी पूर्ण क्षमता से कार्य करूँ या फिर पुराने और जाने पहचाने विण्डो को मैक में ठूँस कर मैक की क्षमता २५% कम कर दूँ?

देखिये लेख भी खिंच गया, वैवाहिक जीवन की तरह।

19.10.11

आनन्द मनाओ हिन्दी री

पिछला एक माह परिवर्तन का माह रहा है मेरे लिये, स्वनिर्मित आवरणों से बाहर आकर कुछ नया स्वीकार करने का समय। स्थिरता की अकुलाहट परिवर्तन का संकेत है पर बिना चरम पर पहुँचे उस अकुलाहट में वह शक्ति नहीं होती जो परिवर्तन को स्थिर रख सके, अगली अकुलाहट तक। मन संतुष्ट नहीं रहता है, सदा ही परिवर्तनशील, सदा उसकी सुनेगे तो भटक जायेंगे, अकुलाहट तक तो रुकना होगा। विकल्प की उपस्थिति, उसकी आवश्यकता और उसे स्वयं में समाहित कर पाने की क्षमता परिवर्तन के संकेत हैं, यदि वे संकेत मिलने लगें तो आवरण हटा कर बाहर आया जा सकता है।

एक माह पहले मैक पर जाने के बाद से समय बड़ा गतिशील रहा है, पहले मेरे लिये, फिर एप्पल के लिये और अब हिन्दी के लिये। नये परिवेश को समझने के साथ साथ प्रशासनिक व साहित्यिक गतिशीलता बनाये रखना कहीं अधिक ऊर्जा माँगती है। आत्मीयों का प्रयाण, पहले हिमांशुजी, फिर स्टीव जॉब, मन को विचलित और दृष्टि को दार्शनिक रखने वाली घटनायें थीं। नये एप्पल आईफोन के साथ में आईओएस५ और आईक्लाउड का आगमन नयी संभावनाओं से पूर्ण था, पिछला सप्ताह उन संभावनाओं को खोजने और उस पर आधारित कार्यशैली की रूपरेखा बनाने में निकल गया।

ऐसा नहीं है कि एप्पल हर कार्य को सबसे पहले कर लेने हड़बड़ी में रहता हो, यद्यपि कई नयी तकनीकों व उत्पादों का श्रेय उसे जाता है। जिस बात के लिये उसे निश्चयात्मक श्रेय मिलना चाहिये, वह है उसकी अनुकरणीय गुणवत्ता और उत्पादों को सरलतम और गहनतम बना देने का विश्वास। मैकिन्टॉस, आईपॉड, आईफोन, आईपैड, मैकबुकएयर, सब के सब अपने क्षेत्रों के अनुकरणीय मानक हैं। आईओएस५ और आईक्लाउड के माध्यम से वही कार्य क्लॉउड कम्प्यूटिंग के क्षेत्र में भी किया गया है। आईओएस५ में अन्य तत्वों के अतिरिक्त आईक्लाउड ऐसा तत्व है जो क्लॉउड कम्प्यूटिंग के आगामी मानक तय करेगा।

क्लॉउड कम्प्यूटिंग अपनी सूचनाओं और प्रोग्रामों को इण्टरनेट पर रखने व वहीं से सम्पादित करने का नाम है। मूलतः दो लाभ हैं इसके, पहला तो आपकी सूचनायें सुरक्षित रहती हैं, इण्टरनेट पर जो कि आप कहीं से भी देख सकते हैं और साझा कर सकते हैं। दूसरा लाभ उन लोगों के लिये है जो मोबाइल और कम्प्यूटर, दोनों पर सहजता से कार्य करते हैं और उन्हें दोनों के ही बीच एक सततता की आवश्यकता होती है। कई स्थूल विधियाँ हैं, या तो आप याद रखें कि कहाँ पर क्या सहेजा है और उसे हर बार विभक्तता से प्रारम्भ करें, या आप अपना सारा कार्य बस इण्टरनेट पर ही निपटायें, या एक पेन ड्राइव के माध्यम से अपनी सूचनायें स्थानान्तरित करते रहें। उपरोक्त विधियाँ आपका कार्य तो कर देंगी पर अनावश्यक ऊर्जा भी निचोड़ लेंगी।

अब आईक्लाउड की सूक्ष्म प्रक्रिया देखिये, मैं अपने आईपॉड में एक अनुस्मारक लगाता हूँ, वाहन में, कार्यालय आते समय। कार्यालय आकर बैठकों में व्यस्त हो जाता हूँ, आकर लैपटॉप पर देखता हूँ, तो वही अनुस्मारक उपस्थित रहता है उसमें। सायं बैठकर बारिश में कविता की कुछ पंक्तियाँ लिखता हूँ लैपटॉप पर, अगली सुबह एयरपोर्ट जाते समय झमाझम होती बारिश में आधी पंक्तियों को पूरी करने की प्रेरणा मिलती है, आईपॉड पर स्वतः आ चुकी कविता पर लिखना प्रारम्भ कर देता हूँ। जितनी सूक्ष्मता से सततता बनी रहती है, उतनी ही विधि की गुणवत्ता होती है। प्रयोग कर के देखा, एक अनुस्मारक को मोबाइल से लैपटॉप पर पहुँचने में केवल १६ सेकण्ड लगे, अविश्वसनीय!

आईक्लाउड मेरे लिये संभवतः अर्धोपयोगी ही रहता यदि आईओएस५ में हिन्दी न आती। हिन्दी कीबोर्ड, अन्तर्निहित शब्दकोष और आईक्लाउड ने मेरी मैकबुक एयर और मेरे आईपॉड में न केवल प्रेरणात्मक ऊर्जा भर दी वरन उनको सृजनात्मकता से अन्तर्बद्ध कर दिया है। अब न कभी कोई विचार छूट पायेगा कहीं, कोई प्रयास न व्यर्थ जायेगा कहीं, बनी रहेगी उत्पादक सततता सभी अवयवों के बीच। आपने यदि अब तक अनुमान लगा लिया हो कि यह नया आईफोन खरीदने की बौद्धिक प्रस्तावना बनायी जा रही है, तो आप मेधा अब तक गतिशील है।

आईफोन की उमड़ती इच्छाओं के अब चाहें जो भी निष्कर्ष हों, पर हिन्दी लेखन के लिये निसन्देह एक उत्सवीय क्षण आया है, वह भी इतनी प्रतीक्षा के पश्चात, भरपूर प्रसन्न होने के लिये, मुदित हो मगन होने के लिये।

आनन्द मनाओ हिन्दी री..

15.10.11

मेरी बिटिया पढ़ा करो

माना तुमको गुड्डे गुड़िया पुस्तक से प्रिय लगते हैं,
माना अनुशासन के अक्षर अनमन दूर छिटकते हैं,
माना आवश्यक और प्यारी लगे सहेली की बातें,
माना मन में कुलबुल करती बकबक शब्दों की पातें,
पर पढ़ने के आग्रह सम्मुख, प्रश्न न कोई खड़ा करो,
मेरी बिटिया पढ़ा करो।१। 

विद्यालय जाना बचपन का एक दुखद निष्कर्ष सही,
रट लेने की पाठन शैली लिये कोई आकर्ष नहीं,
उच्छृंखल मंगल में कैसे भाये सध सधकर चलना,
बाहर झमझम बारिश, सूखे शब्दों से जीवन छलना,
पर भविष्य को रखकर मन में, वर्तमान से लड़ा करो,
मेरी बिटिया पढ़ा करो।२।

बालमना हो, बहुत खिलौने तुमको भी तो भाते हैं,
मन में दृढ़ हो जम जाते हैं, सर्वोपरि हो जाते हैं,
पढ़ने का आग्रह मेरा यदि, तो तुम राग वही छेड़ो,
केवल अपनी बातें मनवाने को दोष तुरत मढ़ दो, 
आज नहीं तो कल आयेंगे, हठ पर न तुम अड़ा करो,
मेरी बिटिया पढ़ा करो।३।

नहीं अगर कुछ हृदय उतरता, झरझर आँसू बहते क्यों,
बस प्रयास कर लो जीभर के, ‘न होगा यह’ कहते क्यों,
देखो सब धीरे उतरेगा, प्रकृति नियम से वृक्ष बढ़े,
बीजरूप से महाकाय बन, नभ छूते हैं खड़े खड़े,
बस कॉपी में सुन्दर लेखन, हीरे मोती जड़ा करो,
मेरी बिटिया पढ़ा करो।४।

शब्द शब्द से वाक्य बनेंगे, वाक्य तथ्य पहचानेंगे,
तथ्य संग यदि, निश्चय तब हम जग को अच्छा जानेंगे,
ज्ञान बढ़े, विज्ञान बढ़े, तब आधारों पर निर्णय हो,
दृष्टि वृहद, संचार सुहृद, तब क्षुब्ध विषादों का क्षय हो,
आनन्दों का आश्रय होगा, शब्दों से नित जुड़ा करो,
मेरी बिटिया पढ़ा करो।५।

है अधिकार पूर्ण हम सब पर, घर में जो है तेरा है,
एक समस्या, आठ हाथ हैं, संरक्षा का घेरा है,
सबका बढ़ना सब पर निर्भर, यह विश्वास अडिग रखना,
संसाधन कम पड़ते रहते, मन का धैर्य नहीं तजना,
छोटे छोटे अधिकारों पर, भैया से मत लड़ा करो,
मेरी बिटिया पढ़ा करो।६।

यही एक गुण भेंट करूँगा, और तुम्हें क्या दे सकता,
जितना संभव होगा, घर की जीवन नैया खे सकता,
एक सुखद बस दृश्य, खड़ी तुम दृढ़ हो अपने पैरों पर,
सुख दुख तो आयें जायेंगे, रहो संतुलित लहरों पर, 
निर्बन्धा हो, खुला विश्व-नभ, पंख लगा लो, उड़ा करो,
मेरी बिटिया पढ़ा करो।७।

क्या बनना है, निर्भर तुम पर, स्वप्न तुम्हे चुन लाने हैं,
मन की अभिलाषा पर तुमको अपने कर्म चढ़ाने हैं,
साथ रहूँगा, साथ चलूँगा, पर निर्भरता मान्य नहीं,
राह कठिनतम आये, आये, तुम भी हो सामान्य नहीं,
तुम सब करने में सक्षम हो, स्वप्न हृदय का बड़ा करो,
मेरी बिटिया पढ़ा करो।८।

है पितृत्व का बोध हृदय में, ध्यान तुम्हारा रखना है,
मिला दैव उपहार, पालना सृष्टि श्रेष्ठ संरचना है,
रीति यही मैं रीत रहूँ, लेकिन तू जिस घर भी जाये,
प्रेम हृदय में संचित जितना, उस घर जाकर बरसाये,
मेरे मन में, यह दृढ़निश्चय, नित-नित थोड़ा बड़ा करो,
मेरी बिटिया पढ़ा करो।९।

12.10.11

मैकपूर्ण अनुभव का एक माह

पिछली पोस्ट में मैकबुक एयर की विस्तृत समीक्षा नहीं कर पाया था, कारण था उसकी कार्यप्रणाली को समझने में लगने वाला समय। अपनी आवश्यकतानुसार सही लैपटॉप पा जाने के बाद उस पर कार्य करना अभी शेष था। दो विकल्प थे, पहला पुराने लैपटॉप पर कार्य करते करते नये के बारे में धीरे धीरे ज्ञान बढ़ाना, दूसरा था सारा कार्य नये में स्थानान्तरित कर पूर्णरूपेण कार्य प्रारम्भ कर देना। यद्यपि मुझे मैकबुक में विण्डो चलाने की तीन विधियाँ ज्ञात थीं पर मैक पर बिना प्रयास करे उसे छोड़ देना मुझे स्वीकार नहीं था। एक शुभचिन्तक ने भी कम से कम एक माह मैक उपयोग करने के पश्चात ही कोई निर्णय लेने को कहा था। मैने मैकपूर्ण अनुभव का एक माह जीने का निश्चय किया।

सर्वप्रथम कार्य था, अपने सारे सम्पर्क, बैठक, कार्य व नोट का मोबाइल व मैक के बीच समन्वय करना। ब्लैकबेरी के डेक्सटॉप मैनेजर के माध्यम से वह कार्य कुछ ही मिनटों में हो गया। विण्डो के आउटलुक के स्थान पर मैक में तीन प्रोग्राम होते हैं, मेल, एड्रेस बुक व आईकैल। मेरा मोबाइल अब दो लैपटॉपों के बीच का समन्वय सूत्र भी है।

दूसरा था ब्रॉउज़र का चुनाव, सफारी में थोड़ा कार्य कर के देखा, क्रोम जितना सहज नहीं लगा। अन्ततः क्रोम डाउनलोड कर लिया, सारे बुकमार्क्स आदि के सहित। देवनागरी इन्स्क्रिप्ट लेआउट मैक में है, कीबोर्ड पर दो कारणों से स्टीकर नहीं लगाये, पहला अभ्यास और दूसरा कीबोर्ड का बैकलिट होना। मैं पिछले कई दिनों से आपके ब्लॉग पर टिप्पणियाँ मेरे मैक से ही बरस रही हैं, उसमें से अधिकांशतः बच्चों के सोने के बाद रात के अँधेरे में बैकलिट कीबोर्ड के माध्यम से टाइप की गयी हैं।

तीसरा था अपने समस्त लेखन को वननोट के समकक्ष किसी प्रोग्राम में सहेजना। इण्टरनेट पर चार सम्भावितों में ग्राउलीनोट्स लगभग वननोट जैसा ही था। वननोट से सभी लेखों को वर्ड्स में बदल कर मैक पर ले गया। नये रूप में उन्हें व्यवस्थित करने का कार्य लगभग आधा दिन खा गया। पिछली चार पोस्टें ग्राउलीनोट्स में ही लिखी गयी हैं। यद्यपि ऑफिस सूट का अधिक उपयोग नहीं करता हूँ पर किसी संभावित आवश्यकता के लिये ओपेन ऑफिस डाउनलोड कर लिया है।

एक टैबलेट पैड का उपयोग पुराने लैपटॉप के साथ करता था, मुक्त हाथ से लिखने व चित्रों पर आड़ी तिरछी रेखायें बनाने के लिये। अपने भावों को शब्दों के अतिरिक्त रेखाओं से व्यक्त करने के लिये वह मैक में अनिवार्य था मेरे लिये। निर्माता की साइट पर गया, उस मॉडल से सम्बद्ध मैक पर चलने वाला ड्राइवर डाउनलोड किया और इन्स्टॉल कर दिया। ६x८ इंच का पैड मैकबुक की स्क्रीन के ही आकार का है। टैबलेट पैड दोनों बच्चों को बहुत सुहाता है, बहुधा ही चित्र बनाने के लिये उसका अधिग्रहण होता रहता है, किसी प्रकार मैने भी आवारगी में बह रहे विचारों को मुक्त हस्त से व्यक्त कर दिया।

११.६ इंच की स्क्रीन में शब्द मोती से स्पष्ट दिखते हैं, फोन्ट का आकार बढ़ाना, पृष्ठों पर तीव्र भ्रमण व अन्य स्थान पर पहुँचने का कार्य उन्नत ट्रैकपैड की सहायता से आशातीत सहज हो जाता है। ४ जीबी रैम व १२८ जीबी सॉलिड स्टेट हार्डड्राईव में फाइलें व प्रोग्राम पलक झपकते ही प्रस्तुत हो जाते हैं। १ किलो के सर्वाधिक पतले लैपटॉप को कहीं भी रखकर ले जाने व कहीं भी खोलकर उस पर लिखने की सुविधा किसी सुखद अनुभव का स्थायी हो जाना है।

बैटरी एक सुखद आश्चर्य रही मेरे लिये। जब लेखन करता हूँ तो वाई फाई बन्द कर देता हूँ। विशुद्ध लेखन में ६ घंटे व विशुद्ध इण्टरनेटीय भ्रमण में ४ः३० घंटे का समय उत्पाद पर दी गयी समय सीमा से कहीं अधिक था। बैटरी को पुनः पूरा चार्ज करने में मात्र १ः३० घंटे का ही समय लगता है। इस उत्कर्ष मानक को पाने के लिये मैक ने कई महत्वपूर्ण सफल प्रयोग किये हैं जिसका शोध एक अलग पोस्ट में लिखूँगा। यह शोध भविष्य में एक अवरोध रूप में खड़ा रहेगा, विण्डो में वापस लौटने के विचारों के सम्मुख।

अभी तक की यात्रा तो संतुष्टिपूर्ण है, पूरे निष्कर्षों पर पहुँचने तक अनुप्रयोग होते रहेंगे, मैकपूर्ण अनुभव का माह प्रवाहमय बना रहेगा।

8.10.11

मैकपुरुष का प्रयाण

स्टीव जॉब्स का निधन हो गया, एक युग का सहसा अन्त हो गया। कम्प्यूटर व मोबाइल के क्षेत्र में आधुनिकतम तकनीकों की समग्र परिकल्पना के वाहकों में उनका नाम अग्रतम है। प्रॉसेसर की चिप डिजाइन, हार्डड्राइव का चयन, वाह्य संरचना, उन्नत धातुतत्वों का प्रयोग, ओएस का स्वरूप, प्रोग्रामों की गुणवत्ता, उपयोगकर्ताओं की सुविधा, सतत क्रमिक उन्नतीकरण, नये उत्पाद का प्रस्तुतीकरण, विपणन नीति, बाजार की समझ, तकनीक की क्षमता, इन सभी क्षेत्रों में समग्रता से नायकत्व को निभाने वाले युगपुरुष थे स्टीव जॉब्स।

किसी की क्षमता उसकी कथनी से नहीं वरन करनी से जानी जाती है। आईफोन, आईपैड, मैकबुक जैसे एप्पल के उत्पाद हों या टॉय स्टोरी जैसी पिक्सार की फिल्में, स्टीव जॉब्स ने सदा ही अपने प्रतिद्वन्दियों को, अनमने ही सही, पर अपना अनुकरण करने को बाध्य कर दिया। यदि उत्पादों की गुणवत्ता न देखी होती तो संभवतः उनके जीवन के बारे में जानने का प्रयास भी न करता। उनके जीवन के बारे में पढ़कर उस प्रखरता को समझना सरल हो गया जो उनकी हर रचना में स्पष्ट रूप से झलकती है।

लगभग छह वर्ष पूर्व, स्टैनफोर्ड में नवस्नातकों को दिये अपने संदेश में स्टीव जॉब्स ने मृत्यु की दार्शनिकता पर आधारित जीवन का सिद्धान्त समझाया था, तर्कसंगत, व्यवहारिक व आनन्ददायी। पश्चिमी सभ्यता व युवावस्था के उन्माद के आवरण में भले ही वह दर्शन छात्रों के हृदय में न उतरा हो पर स्वयं स्टीव जॉब्स का जीवन उस दर्शन का साक्षात प्रमाण रहा है। इतिहास में वह दर्शन परीक्षित के उस निर्णय में भी दिखा था जब शेष बचे सात दिनों को उन्होंने जीवन का सत्य समझने व्यतीत किया पर आधुनिक युग में उसे अभिव्यक्त करने और ढंग से निभाने का श्रेय निसंदेह स्टीव जॉब्स को जायेगा।

मृत्यु जीवन के मौलिक परिवर्तन का एकमेव कारक है। जब एक दिन मृत्यु की लहर सब बहाकर ले जाने वाली है तो भय किसका और किससे? जब भय नहीं तो औरों की मानसिक संरचनाओं में अपना जीवन तिरोहित कर देने की मूढ़ता हम क्यों करें? अपना जीवन अपनी शर्तों पर जीने का आनन्द मृत्यु तक ही है आपके पास, वह भला क्यों गवाँया जाये। वह नित्य दर्पण के सामने खड़े होकर सोचते थे कि यदि आज उनका अन्तिम दिन हो तो वह किन कार्यों को प्राथमिकता देंगे और किन व्यर्थ कार्यों को तिलांजलि। उनका मृत्यु-दर्शन-जनित यह चिन्तन ५-१०-२०११ को सत्य तो हो गया पर उसके पहले उन्होने जीवन अपने अनुसार जिया, पूर्ण जिया, उनके द्वारा किये कर्म और प्राप्त की गयी महानता इसका साक्षात प्रमाण है।

जिस युगपुरुष को हर दिन पूर्ण जीवन जी लेने का भान हो, जिसके निर्णय और कर्म उसके मन की बात सुनते हों, जिसके हृदय में विश्व-तकनीक की दिशा को निर्धारित करते रहने की संतुष्टि हो, जिसका अनुकरण कर पाने का सपना लिये लाखों युवा अपने जीवन की योजना बनाते हों, जिसका धन और यश उसके कर्म की उपलब्धि रही हो, उसके स्वयं के लिये भले ही मृत्यु उतनी पीड़ासित न हो पर परिवार, मित्र, कम्पनी के सहयोगी, प्रशंसक तो सदा ही उनके द्वारा रिक्त स्थान निहारते रहेंगे। ५६ वर्ष का जीवन भले ही युग न कहा जाये पर उनका कृतित्व उन्हें युगपुरुष की श्रेणी में स्थापित करता है।

दो वर्ष पहले मेरा ब्लॉग जगत में आना और दूसरी पोस्ट में ही उनके इस दर्शन के बारे में चर्चा करना एक संयोग मात्र नहीं था। इस संदेश को सुनकर, उस पर बिना मनन किये न रह सका। जीवन की सीमितता में मन को भाने वाली सब चीजों को कर लेने की व्यग्रता से नित्य परिचित होता था, लेखन भी उसमें एक था। जहाँ एक ओर स्टीव जॉब का यह संदेश प्रेरणा था वहीं ज्ञानदत्तजी का उत्साहवर्धन एक दैवीय संकेत। इन सबका सम्मिलित प्रभाव ही था कि अस्पष्ट और छुटपुट लेखन छोड़, लघु स्वरूप में ही सही, पर नियमित लेखन प्रारम्भ किया। हर पोस्ट अपनी अन्तिम पोस्ट मान उस पर अपना प्रयास व सृजन छिड़कना चाहता हूँ। पिछले दो वर्षों में समय की गुणवत्ता और जीवन के सरलीकरण के माध्यम से आये सार्थक बदलावों में जिस लेखनकर्म ने मेरी सहायता की है, उसका श्रेय स्टीव जॉब्स को ही है।

यदि मैकबुक एयर जैसी  बनावट की सरलता, सौन्दर्यपूर्ण स्थायित्व, सृजनात्मक कलात्मकता, प्रक्रियागत एकाग्रता व व्यवहारिक उपयोगिता अपने जीवन में  सप्रयास उतार पाया तो उसका भी श्रेय स्टीव जॉब्स को ही जायेगा।

नमन मैकपुरुष, नमन युगपुरुष।

5.10.11

मधुरं मधुरं, स्मृति मधुरं

कल देवेन्द्रजी के ब्लॉग पर एक पोस्ट पढ़ी, पढ़ते ही चेहरे पर एक स्मित सी मुस्कान खिंच आई। विषय था गृहणियों के बारे में और प्रसंग था उनकी एक २५ वर्ष पुरानी सहपाठी का। होनहार छात्रा होने के बाद भी उन्होने कोई नौकरी न करते हुये एक गृहणी के दायित्व को स्वीकार किया और उसे सफलतापूर्वक निभाया भी। पता नहीं वह त्याग था या सही निर्णय पर हमने वह आलेख अपनी श्रीमतीजी को पढ़ाकर उनका अपराधबोध व अपने मन का बोझ कम कर लिया। 

देवेन्द्रजी के लिये, २५ वर्ष पुरानी स्मृति में उतराते हुये अपनी मित्र के लिये निर्णयों को सही ठहराना तो ठीक था पर विषय से हटकर उनकी सुन्दरता का जो उल्लेख वे अनायास ही कर बैठे, वह उनके मन में अब भी शेष मधुर स्मृतियों की उपस्थिति का संकेत दे गया। आदर्शों की गंगा में यह मधुर लहर भी चुपचाप सरक गयी होती पर अपनी श्रीमतीजी को वह आलेख पढ़ाने की प्रक्रिया में वह लहर पुनः उत्श्रंखल सी लहराती दिख गयी। इस तथ्य पर उनकी प्रतिक्रिया जानने के लिये जब उन्हें फोन किया तो मुझे लग रहा था कि स्मृतियों की मधुरता पर उन्हें छेड़ने वाला मैं पहला व्यक्ति हूँ, पर उनके उत्तर से पता लगा कि उनकी श्रीमतीजी इस विषय को लेकर उन पर अर्थपूर्ण कटाक्ष पहले ही कर चुकी हैं। 

इस पूरी घटना से भारतीय विवाहों के बारे में दो तथ्य तो स्पष्ट हो गये। पहला यह कि विवाह के कितने भी वर्ष हो जायें, विवाह पूर्व की स्मृतियाँ हृदय के गहनतम कक्षों में सुरक्षित पड़ी रहती हैं और सुखद संयोग आते ही चुपके से व्यक्त हो जाती हैं। न जाने किन तत्वों से बनती हैं स्मृतियाँ कि २५ वर्ष के बाद भी बिल्कुल वैसी ही संरक्षित रहती हैं, कोमल, मधुर, शीतल। कई ऐसी ही स्मृतियाँ विवाह के भार तले जीवनपर्यन्त दबी रहती हैं। दूसरा यह कि विवाह के कितने ही वर्ष हो जायें पर भारतीय गृहणियों को सदा ही यह खटका लगा रहता है कि उनके पतिदेव की पुरानी मधुर स्मृतियों में न जाने कौन से अमृत-बीज छिपे हों जो कालान्तर में उनके पतिदेव के अन्दर एक २५ वर्ष पुराने व्यक्तित्व का निर्माण कर बैठें। 

इतने सजग पहरे के बीच बहुत पति अपने उद्गारों को मन में ही दबाये रहते हैं और यदि कभी भूलवश वह उद्गार निकल जायें तो संशयात्मक प्रश्नों की बौछार झेलते रहते हैं। अब जब इतना सुरक्षात्मक वातावरण हो तो भारतीय विवाह क्यों न स्थायी रहेंगे। भारतीय पति भी सुरक्षित हैं, उनकी चंचलता भी और भारत का भविष्य भी। 

‘न मुझे कोई और न तुझे कहीं ठौर’ के ब्रह्मवाक्य में बँधे सुरक्षित भारतीय विवाहों में अब उन मधुर स्मृतियों का क्या होगा, जो जाने अनजाने विवाह के पहले इकठ्ठी हो चुकी हैं, उन कविताओं का क्या होगा जो उन भावों पर लिखी जा चुकी हैं? क्या उनको कभी अभिव्यक्ति की मुक्ति मिल पायेगी? मेरा उद्देश्य किसी को भड़काना नहीं है, विशेषकर विश्व की आधी आबादी को, पर एक कविमना होने के कारण इतनी मधुरता को व्यर्थ भी नहीं जाने दे सकता।

देवेन्द्रजी सरलमना हैं, भाभीजी उतनी ही सुहृदय, घर में एक सोंधा सा सुरभिमय खुलापन है, निश्चय ही यह हल्का और विनोदपूर्ण अवलोकन एक सुखतरंग ही लाया होगा। पर आप बतायें कि वो लोग क्या करें जो इन मधुर स्मृतियों में गहरे दबे हैं? क्या हम भारतीय इतने उदारमना हो पायेंगे जो  भूतकाल की छाया से वर्तमान को अलग रख सकें? 

प्रेम तो उदारता में और पल्लवित होता है।

1.10.11

प्रयोग की वस्तु

एक अवलोकन सदा ही अचम्भित करता है। जब किसी भी वाद को उसके उद्गम से तुलना करने बैठता हूँ तो दोनों के बीच में भ्रान्ति की चौड़ी खाई दिखायी पड़ती हैं। अन्तर ठीक वैसा ही दिखता है जैसा गंगोत्री और गंगासागर के गंगाजल के बीच होता है। गंगा का नाम ही, अपने जल में वह धार्मिक पवित्रता बनाये रखता है, अन्त तक। कालान्तर में नाम और उसके अर्थ के बीच का अन्तर गहराने लगता है। अर्थ जब श्रेष्ठता धारण नहीं कर सकता है तो नाम का प्रयोग प्रारम्भ हो जाता है, धीरे धीरे वह प्रयोग की वस्तु बन जाती है।

ऐसे ही कई नाम हैं जिनका हम आज भी साधिकार बलात प्रयोग कर रहे हैं। आपकी कल्पना कुछ विवादित विषयों की ओर मुड़े, उसके पहले ही मैं कबीर का उदाहरण देना चाहता हूँ। कबीर के दोहे यद्यपि हिन्दी साहित्य के प्राथमिक प्रसंगों में आते हैं, हिन्दी विकास के प्रथम अर्पणों से सुशोभित हैं, पर मेरे लिये वे सत्य, सरलता और साहस के उत्कर्ष के प्रतीक हैं। इतनी निर्भयता से सत्य कहना और वह भी मौलिक सरलता से, यह कबीर का हस्ताक्षर है, यही कबीर का वास्तविक अर्थ है। सत्य पंथनिरपेक्ष होता है, निर्भयता सत्तानिरपेक्ष होती है और सरलता व्यक्तिनिरपेक्ष। ऐसी घटनायें जनमानस को प्रभावित करती हैं, बहुत लोग उनके अनुयायी बन गये, कबीरपंथ चल पड़ा। जिन गुणों के लिये यह ऐतिहासिक उभार जाना जाता है, वे कभी पुनः सम्मुख आये ही नहीं। नाम आज भी जीवित है, पर शिथिल है, अपने अनुनायियों के अर्थों को ढोने में।

कोई दूसरा कबीर आता तो कबीर की निर्भयता, सरलता व सत्यसाधना को सार्थकता मिल जाती। जिन हस्ताक्षरों को हर व्यक्तित्व पर होना था, उन्हें ऐतिहासिक और साहित्यिक बना कर छोड़ दिया गया है, एक प्रयोग की वस्तु बनाकर। इस दुर्दशा का कारण भी कबीर बता गये हैं, मरम न कोउ जाना। यही मर्म समझना है, नहीं तो कालान्तर में कितने ही श्रेष्ठ सिद्धान्तों व उससे सम्बद्ध नामों को हम प्रयोग की वस्तु बना देंगे।

महापुरुषों के नाम से परे उनके मर्म को समझना होगा। बिना मर्म समझे महापुरुषों के नाम का महिमामंडन और उनका अपने व्यक्तिगत स्वार्थों के लिये समुचित बटवारा। पता नहीं कि हम उनके बताये हुये मार्ग पर चलना चाह रहे हैं या उनके नामों को सीढ़ी की तरह प्रयोग कर ऊपर बढ़ना चाह रहे हैं। यदि कहीं वे ऊपर बैठे हमारे कर्मों को देख रहे होंगे तो निश्चय ही अपने नाम का प्रयोग देख विक्षुब्ध हो गये होंगे। उनके अपने जीवनों में भी सिद्धान्त सर्वोपरि थे, आज भी हैं और आगे भी रहेंगे।

नाम का स्वार्थ-प्रयोग भक्तिमार्गियों के लिये एक अक्षम्य अपराध है क्योंकि उनके लिये ईश्वर के नाम और स्वरूप में कोई भेद ही नहीं होता है। स्वरूप का निर्माण गुणों से होता है, अन्ततः गुण ही मर्म हैं शेष स्वार्थ का पोषण है। नाम-स्वरूप-गुण के प्रति व्यक्त श्रद्धा को एक प्रतीक का रूप दे दिया जाता है, प्रतीकों पर स्वार्थों के आवरण चढ़ा दिये जाते हैं, कालान्तर में आवरण प्रतीक से अधिक महत्व ग्रहण कर लेते हैं, आवरणों की जय जयकार होने लगती है, आवरण मलिन हो जाते हैं, नाम प्रयोग में बना रहता है।

गांधी की खादी प्रतीक बन गयी कोई उससे शरीर सुशोभित करता है, कोई उसे सर में धरता है, कोई उससे जूते भी साफ कर लेता है। सत्य कटु है पर गांधी प्रयोग की वस्तु हो गये हैं वर्तमान में।

आवरणों को हटायें, महापुरुषों का मर्म समझें, उन्हें स्वार्थवश प्रयोग की वस्तु न बनायें, आपको उनकी छटपटाहट देखनी ही होगी, अपनी स्वार्थ कारा से उन्हें मुक्ति दे दें।