26.4.15

आस कैसी

सोचता हूँ सहज होकर,
भावना से रहित होकर,
अपेक्षित संसार से क्या ?
हेतु किस मैं जी रहा हूँ ?

भले ही समझाऊँ कितना,
पर हृदय में प्रश्न उठता,
किन सुखों की आस में फिर,
वेदना-विष पी रहा हूँ ?

19.4.15

जीवन और मैं

समय का भण्डार जीवन,
कर्म का आगार जीवन,
व्यक्तियों की विविधता में,
बुद्धि का व्यापार जीवन ।

समय की निर्बाध तृष्णा,
काटती रहती बराबर,
शान्त होती मनस द्वारा,
कर्म का आधार पाकर ।

समय के निर्वाह का यह बोझ नित बढता गया,
मैं विकल्पों में उलझता कर्मक्रम चुनता गया,
नहीं कोई दिशा पायी, न कोई उद्देश्य लक्षित,
पथ भ्रमित एक जीवनी का जाल सा बुनता गया ।

उन प्रयत्नों का अधिक, उपयोग लेकिन कुछ नहीं था,
समय का निर्वाह केवल, सार संचित कुछ नहीं था,
इस निरर्थक सूत्र को तुम, जीवनी से व्यक्त कर दो,
व्यर्थ इस व्यापार में पर, लब्ध मुझको कुछ नहीं था ।

12.4.15

उलझी लट सुलझा दो

मन की उलझी लट सुलझा दो,
मेरे प्यारे प्रेम सरोवर ।
लुप्त दृष्टि से पथ, दिखला दो,
स्वप्नशील दर्शन झिंझोड़कर ।।१।।

ढूढ़ा था, वह लुप्त हो गया,
जागृत था, वह सुप्त हो गया ।
मार्ग विचारों को दिखला दो,
मन की उलझी लट सुलझा दो ।।२।।

कागज पर कुछ रेखायें थीं,
मूर्ति उभरने को उत्सुक थी ।
बना अधूरा चित्र बना दो,
मन की उलझी लट सुलझा दो ।।३।।

समय बिताने जीवन बीता,
कक्ष अनुभवों का था रीता ।
प्रश्नों के उत्तर बतला दो,
मन की उलझी लट सुलझा दो ।।४।।

मेरे प्यारे प्रेम सरोवर,
अनुयायी पर कृपा-हस्त धर ।
प्रेम, दया के दीप जला दो,
मन की उलझी लट सुलझा दो ।।५।।

5.4.15

रात्रि विरहणा, दिन भरमाये

जगता हूँ, मन खो जाता है,
तुम्हे ढूढ़ने को जाता है ।
सोऊँ, नींद नहीं आ पाती,
तेरे स्वप्नों में खो जाती ।
ध्यान कहीं भी लग न पाये,
रात्रि विरहणा, दिन भरमाये ।।१।।

जीवन स्थिर, आते हैं क्षण,
बह जाते, कुछ नहीं नियन्त्रण ।
जीवन निष्क्रिय, सुप्त चेतना,
उठती बारम्बार वेदना ।
कहीं कोई आश्रय पा जाये,
रात्रि विरहणा, दिन भरमाये ।।२।।

क्यों पीड़ा, यह ज्ञात मुझे है,
तेरा जाना याद मुझे है ।
किन्तु नहीं जब तक तुम आती,
दिखती नहीं ज्ञान की बाती ।
तेरी यादों में छिप जाये,
रात्रि विरहणा, दिन भरमाये ।।३।।

था स्वतन्त्र, फिर क्यों मेरा मन,
तुम पर अन्तहीन अवलम्बन ।
कैसे प्रबल प्रगाढ़ हुआ था,
तुमसे अंगीकार हुआ था ।
उत्तर तुम बिन कौन बताये,
रात्रि विरहणा, दिन भरमाये ।।४।।