24.12.17

शक्ति बिना उत्सव सब फीके

रस की चाह प्रबल, घट रीते,
शक्ति बिना उत्सव सब फीके।

सबने चाहा, एक व्यवस्था, सुदृढ़ अवस्था, संस्थापित हो,
सबने चाहा, स्वार्थ मुक्त जन, संवेदित मन, अनुनादित हो,
सबने चाहा, जी लें जी भर, हृदय पूर्ण भर, अह्लादित हों,
सबने चाहा, सर्व सुरक्षा,  शुभतर इच्छा, आच्छादित हो।

चाह सभी की फलित नहीं क्यों,
रचित कल्पना छलित रही क्यों,
सबका सुख बिसराया किसने,
दर्शन निम्न सुझाया किसने,
दर्शक मूढ़ित, मूक रहे क्यों,
जगचित्रण विद्रूप सहे क्यों,
क्यों प्रत्युत्तर भय में बीते,
शक्ति बिना उत्सव सब फीके।

मदमत गज, रज पथ उड़ती है, 
अंधड़ गढ़ लघुता बढ़ती है,
दिनकर प्रखर, धरा वंचित है,
रक्त लालिमा नभ रंजित है,
जब तक न स्थापित बलवत,
तब तक न्याय रहेगा तमवत,
सत्य त्यक्त, असमंजस जीते,
शक्ति बिना उत्सव सब फीके।

शक्ति शान्ति स्थापित कर दे,
और व्यवस्था में बल भर दे,
किन्तु स्वयं स्वच्छन्द बनी पर,
न बिखेर दे संयोजित घर,
शक्ति साधनी आवश्यक हो,
तड़ित तरंगा बाँध सके जो,
तब सम्हले आकार मही के,
शक्ति बिना उत्सव सब फीके।

एक शक्ति पसरी शासन की,
एक शक्ति संचित जनमन की,
एक क्षरित, दूजी उच्श्रंखल,
डटी नहीं यदि, दोनों निष्फल,
निष्कंटकता पनप न पाये,
साझा प्रायोजन बन जाये,
साम्य प्रयुक्ता सृजन सभी के,
शक्ति बिना उत्सव सब फीके।

शक्तिदत्त अधिकार अभीप्सित,
जन प्रबद्ध आकार प्रतीक्षित, 
जीवन धारा सतत प्रवाहित,
एक व्यवस्था, सर्व समाहित,
बन ऊर्जा जन-तन-मन भरती,
सूर्य सभी का, सबकी धरती,
रस वांछित पायें सब हिय के,
शक्ति बिना उत्सव सब फीके।

28.1.17

सबके अपने युद्ध अकेले

सबके अपने युद्ध अकेले,
और स्वयं ही 
लड़ने पड़ते, 
सहने पड़ते, 
कहने पड़ते,
करने पड़ते,
वह सब कुछ भी,
जो न चाहे कभी अन्यथा।

कल कल जल भी जीवट होकर,
ठेल ठेल कर, काट काट कर,
पाषाणों को सतत, निरन्तर,
तटबन्धों को तार तार कर,
अपनी गति में, अपनी मति में,
जूझा भिड़ता,  निर्मम क्षति में,
लय अपनी वह पा लेता है, मार्ग हुये जब रूद्ध अकेले,
सबके अपने युद्ध अकेले।

प्रस्तुत सब सुविधायें सम्मुख, 
प्राप्य परिधिगत, आकंठित सुख,
फिर भी लगता छूटा छूटा,
नहीं व्यवस्थित, टूटा टूटा,
प्रश्नों के निर्बाध सृजन में
भीतर बाहर बीहड़ वन में,
उत्तर के उत्कर्ष ढूँढते, फिरते रहते बुद्ध अकेले।
सबके अपने युद्ध अकेले।

क्या जाने, क्या चुभ जाये मन,
किन अंगों से फूटे क्रंदन,
चित्त धरा क्या, मन की ठानी,
रिस रिस बहती कौन कहानी,
सामर्थ्यों को लाँघे जाता,
लघुता को अभिमान दिलाता,
बीस बरस तक पत्थर तोड़े, दशरथ माँझी क्रुद्ध अकेले।
सबके अपने युद्ध अकेले।

कहने को तो जगत वृहद है,
परिचित पंथी, साथ सुखद है,
दिन ढलता जब, रात अवतरित,
भाषा निर्बल, शब्द संकुचित,
मन के संग रहना पड़ता है,
अपने को सहना पड़ता है,
काम क्रोध ईर्ष्या मद नद में , होना सबको शुद्ध अकेले।
सबके अपने युद्ध अकेले।