23.3.13

चलो, ज्ञान लूट आयें

शिक्षा जब सुविधाभोगी हो जाये और बड़े नगरों से बाहर न निकलना चाहे, तब सब क्या करेंगे? वही करेंगे जो हममें से बहुत लोग करते आये है। हम भी बड़े नगर पहुँच जायेंगे, वहीं रहेंगे, वहीं पढ़ेंगे और नौकरी लेकर आसपास ही बस जायेंगे। थोड़े सम्पन्न लोग तो बस अपने बच्चों की अच्छी पढ़ाई के लिये नगर में आ बसते हैं। अध्यापकों को भी सुविधा हो जाती है, वहीं पढ़ा लेते हैं, ट्यूशन देते हैं और जीवन बिता देते हैं। यही प्रक्रिया कई दशक चली होगी और आज स्थिति यह है कि किसी भी राज्य में एक या दो नगर ही शिक्षा के केन्द्र बन गये हैं, शेष स्थानों पर शैक्षणिक सूखा पड़ा है। विकास की तरह ही शिक्षा भी सुविधा में बैठी हुयी है।

इस तथ्य से मेरा कोई व्यक्तिगत झगड़ा नहीं है। हो भी क्यों, हम भी शिक्षा के इसी सुविधापूर्ण मार्ग से आये हैं। अच्छी बात तो यह है कि हर राज्य में कम से कम दो नगर तो ऐसे हैं, ज़ीरो बटे सन्नाटा तो नहीं है। समस्या पर यह है कि इन शैक्षणिक नगरों के अतिरिक्त भी देश का विस्तार है। सब नगर की ओर पलायन नहीं कर सकते हैं, कई कारण रहते है जो शिक्षा से अधिक महत्वपूर्ण हैं। हर छोटे स्थान पर सरकारी प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालय हैं, कुछ ग़ैर सरकारी भी हैं। शिक्षक भी हैं, पर सदा ही इस जुगत में रहते हैं कि विकास के आसपास ही रहा जाये, वहाँ संभावनायें अधिक रहती हैं। कुल मिला कर कहा जाये विद्यालय होने पर भी स्तर अच्छा नहीं है, शिक्षक होने पर भी पूरो मनोयोग से अध्यापन नहीं होता है।

समस्या गहरी तो है पर स्पष्ट है। यदि कुछ अस्पष्ट है तो वह है छात्रों का भविष्य और समस्या का हल।अध्यापकों का महत्व बहुत गहरा होता है हमारे भविष्य पथ पर। बहुधा देखा गया है कि जिस विषय के समर्पित अध्यापक मिल जाते हैं, उस विषय के प्रति एक नैसर्गिक आकर्षण उत्पन्न हो जाता है और वही विषय साथ बना रहता है, प्रतियोगी परीक्षाओं में भी। शिक्षा के प्रति घोर अनिक्षा विद्यालय के वातावरण पर निर्भर करती है। कभी कभी विषय विशेष के प्रति घोर वितृष्णा का भाव उस विषय से संबद्ध अध्यापक व पाठन शैली से आता है। कई बार लगता है कि यदि वह विषय अच्छे से पढाया गया होता तो संभवतः उसमें भी अच्छा किया जा सकता था।

आज भी आप अपने चारों ओर गिनती कर के देख लें, हर १०० सफल व्यक्तियों में अधिकांश छोटे और मध्यम नगरों से ही होंगे, हो सकता है कि कुछ वर्षों के लिये वे शैक्षणिक नगरों में भी रहे हों। जो विशेष बात उन सब में उपस्थित होगी, वह है कोई न कोई ऐसा व्यक्ति जिसने शिक्षा के प्रति न केवल प्रोत्साहित किया वरन जिज्ञासा को सतत जलाये रखा। वह व्यक्ति अध्यापक के रूप में हो सकता है, अभिभावक के रूप में हो सकता है, शुभचिन्तक के रूप में हो सकता है। पर यह तथ्य भी उतना ही सच है कि छोटे नगर में जो पौधे पनप नहीं पाये, उसके पीछे शिक्षा व्यवस्था का निर्मम उपहास छिपा है, चाहे वह विद्यालय में न्यूनतम सुविधाओं का आभाव हो या अध्यापकों की अन्यमनस्कता।

क्या इसका अर्थ यह हुआ कि शिक्षा और विकास के केन्द्रीकरण में छोटे नगरों और दूरस्थ गाँवों का भविष्य शून्य है? हमारे और आपके मन में निराशा के भाव जग सकते हैं, पर सुगाता मित्रा जी इससे सहमत नहीं हैं। सुगाता मित्रा जी पिछले १४ वर्षों से शिक्षा में नये प्रयोग करने के लिये जाने जाते हैं और उन्हें वर्ष २०१२ के लिये टेड की ओर से सर्वश्रेष्ठ वार्ता का पुरस्कार भी मिला है। शिक्षाविद होते हुये भी बड़ी ही सरलता से प्रयोगों में माध्यम से निष्कर्षों पर पहुँचना और उसे उतनी ही सहजता से प्रस्तुत कर देना, यह उनके हस्ताक्षर हैं।

१९९९ में उनकी प्रयोगधर्मिता प्रारम्भ हुयी, यह समझने के लिये कि जहाँ पर अध्यापक नहीं हैं, क्या वहाँ पर भी शिक्षा पैर पसार सकती है। विकास की धार को छोटे नगरों की ओर मोड़ना एक महत कार्य है और कई दशकों की योजना और क्रियान्वयन के बाद ही वह संभव है। तो क्या अध्यापकों के बिना भी ज्ञानयज्ञ चल सकता है? यदि हाँ तो उसका स्वरूप क्या होगा? ऐसे ही एक क्षेत्र में उनके द्वारा किया गया पहला प्रयोग बड़ा ही सफल रहा।

प्रयोग बड़ा ही सरल था, नाम था 'होल इन द वाल'। खिड़की पर एक कम्प्यूटर, माउस के स्थान पर एक छोटा सा ट्रैक पैड, सतत बिजली व इण्टरनेट। कोई अध्यापक नहीं, कोई रोकने वाला नहीं, कोई टोकने वाला नहीं, जिसको सीखना हो कभी भी आकर सीख सकता है। दो माह बाद बच्चों की योग्यता पुनः परखी जाती है, उनके अन्दर आयी प्रगति लगभग उतनी ही होती है जितनी किसी अच्छे विद्यालय में पढ़ने वाले बच्चे की। सुगाता मित्रा जी का उत्साह तनिक और बढ़ा, प्रयोग का क्षेत्र भाषा सीखने के लिये रखा और वह भी तमिलनाडु के धुर ग्रामीण परिवेश में। न केवल बच्चे अंग्रेजी सीख गये, वरन अंग्रेजों से अधिक अंग्रेजियत की शैली में सीख गये। यही नहीं बायोटेकनोलॉजी जैसे दुरुह विषय पर भी बिना किसी वाह्य सहायता के कामचलाऊ ज्ञान प्राप्त कर लिया बच्चों ने। बच्चों ने स्वयं ही वह सब कर दिखाया जिसका पूरा श्रेय हम शिक्षा व्यवस्था को दे बैठते हैं।

ज्ञान कहाँ से आया, जिज्ञासा से, स्रोत से, समूह में आदान-प्रदान से, देखकर सीखने से। निश्चय ही सारे के सारे कारक रहे होंगे और साथ में उन्मुक्त वातावरण भी रहा होगा, जहाँ कोई परीक्षा का भय नहीं, नौकरी पाने की विवशता नहीं, कोई प्रत्याशा नहीं, कोई शुल्क नहीं, बस ज्ञान बिखरा पड़ा है, जितना लूट सको लूट लो।

तो क्या अध्यापक की आवश्यकता ही नहीं है? सुगाता मित्रा जी किसी प्रसिद्ध लेखक का उद्धरण देते हैं, कि यदि कोई अध्यापक मशीन से विस्थापित हो सकता है तो उसे हो जाना चाहिये। बड़े गहरे अर्थ हैं इस वाक्य के। उसे तनिक ठिठक कर समझना होगा। ज्ञान सहज उपलब्ध हो, बच्चे में जिज्ञासा हो, तो ज्ञानार्जन बड़ा ही सरल है। सामाजिक परिवेश में देखें तो न जाने कितना कुछ बच्चा देखकर ही सीखता है। जो वह जानना चाहता है, गूगल पर देखकर खोज ही लेगा। तब अध्यापक का क्या कार्य है और वह कहाँ से प्रारम्भ होता है और उसकी अनुपस्थिति में वह कार्य कोई और कर सकता है?

प्रयोग जितने प्रभावी हैं, निष्कर्ष उतने ही स्पष्ट। पहला, जहाँ पर अध्यापक नहीं भी हैं, वहाँ भी निराश होने की आवश्यकता नहीं है, इस प्रकार की व्यवस्था से ज्ञान का प्रवाह अबाधित चल सकता है। दूसरा, अध्यापक के आभाव में गाँव का कोई बड़ा और समझदार व्यक्ति जिज्ञासा, उत्साह और सामूहिक भागीदारी का वातावरण बनाकर ज्ञानार्जन की प्रक्रिया बनाये रख सकता है। तीसरा, माना ज्ञानार्जन का कार्य बिना अध्यापक चल सकता है, पर जो दिशादर्शन और नये क्षेत्रों को बच्चों से परिचित कराने का कार्य है, उस विमा को हर अध्यापक को बनाये रखना है। ज्ञान की तृष्णा अपने लिये माध्यमों के बादल ढूढ़ ही लेगी, अध्यापक को तो स्वाती नक्षत्र की बूँद बनकर अपनी महत्ता बनाये रखनी होगी।

तो भले ही विकास के शैक्षणिक विस्तार में हमारा क्षेत्र न आता हो, पर हमें सीखने से कोई नहीं रोक पायेगा, देर सबेर कोई सिखाने वाला आ जायेगा, 'होल इन द वाल' के रूप में।

56 comments:

  1. प्रवीण जी, हमने तो बहुत पहले से सोच रखा है कि पचास पूरे करके किसी सुदूर ग्रामीण क्षेत्र में पलायन कर जायेंगे और ..। देखिये, सोचा हुआ पूरा कर पाते हैं या नहीं।

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    1. कभी हमने भी यही सोंचा था ..

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    2. दो दोस्तों ने बीस का नकली नकली नोट बनाया... परन्तु सही से बन नहीं पाया ... एक ने राय दी कि चलो गाँव में, भोले लोग है - पन्द्रह रूपए में चला आयेंगे.

      गाँव पहुँच कर एक दुकानदार से सात रुपये का सौदा लिया - और वही नकली नोट चस्पा दिया.

      दुकानदार घूरकर कभी नोट को देखता और कभी दोनों दोस्तों को..
      एक दोस्त बोला, रख लो मित्र सरकार ने पन्द्रह रूपये का नया नोट निकला है.:)


      दूकानदार ने नोट गल्ले के हवाले किया और बदले में दस रूपये जैसा नोट उनको वापिस लौटा दिया...
      अब हैरान होने की उनकी बारी थी,

      ग्रामीण दुकानदार ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया .... सरकार ने आठ रूपये का नया नोट भी निकला है. :):):)

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  2. समयसिद्ध तरीके में समय के साथ अचानक कुछ नहीं बदल सकता, नवाचार की संभावना अवश्‍य होती है, लेकिन वह अक्‍सर व्‍यक्तिनिष्‍ठ होती है.

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  3. स्वतः देखकर ज्ञानार्जन होता ही है, और शहरों की तरफ पलायन इस कारण भी है,कि गाँवों का परिदृश्य सीमित होता है,वहीं शहरों का फलक विस्तृत.जानकारियों के स्रोत भी अधिक.बाकि ज्ञान संग्रह करना महत्वपूर्ण नहीं है महत्व इस बात का है कि कैसे रूचियाँ स्थापित की जाय,उन्हें कल्याणकारी दिशा दी जाय और अभिवृद्ध की जाय.

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  4. हमारे प्रदेश के शिवपुरी जिले में भी यह प्रयोग हुआ था जहां के परिणाम भी आपके बताये अनुसार ही रहे थे, बहुत सारवान आलेख, शुभकामनाएं.

    रामराम.

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  5. ज्ञानार्जन की सरल सहज विधि से बेहतर क्या हो सकता है..... बच्चों के विकास का सर्वश्रेष्ठ माध्यम ऐसे ही निकल सकता है.... एक सार्थक और विचारणीय लेख

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  6. ज्ञान की तृष्णा अपने लिये माध्यमों के बादल ढूढ़ ही लेगी, अध्यापक को तो स्वाती नक्षत्र की बूँद बनकर अपनी महत्ता बनाये रखनी होगी।

    बहुत सार्थक आलेख .....कुछ संचित अभिरुचि हमारे अंदर जन्मजात होती हैं और उन्हें पूर्ण करने की ज्ञान पिपासा हमें कोई न कोई राह दिखा ही देती है .....प्रबलता हमारे भीतर ही होती है ....हम चाहें तो रास्ते मिल ही जाते हैं ...!!

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  7. बस ज्ञान बिखरा पड़ा है,जितना लूट सको लूट लो,बस उसे सही दिशा मिल जाये,सुन्दर लेख।

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  8. आज के समय में लोगों के शिक्षा के लिए कुछ भी कर सकते हैं। बहुत ही सार्थक लेख प्रस्तुत किया है आपने।

    नये लेख : विश्व जल दिवस (World Water Day)
    विश्व वानिकी दिवस
    "विश्व गौरैया दिवस" पर विशेष।

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    1. आज के समय में लोगों शिक्षा के लिए कुछ भी कर सकते हैं। यह पढ़ा जाये।

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  9. ...ज्ञान को सही ढंग से समेटना भी ज्ञान है !

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  10. शिक्षा के क्षेत्र में नए नए प्रयोग हो रहे हैं सब में कुछ न कुछ आशाजनक नतीजा निकल रहा है परन्तु पूर्ण सफलता किसी में भी नहीं मिला, जिस से शिक्षक की जरुरत ही न रहे.आधुनिक युग में कंप्यूटर और रोबोट दोनों का सम्मिलित प्रोयोग शायद आगे चलकर समस्या का समाधान निकल सके.आशा करना चाहिए.
    विचारणीय लेख
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  11. उत्तम जानकारी देता लेख .... ज्ञान प्राप्त करना आज के समय में काफी सहज है फिर भी अध्यापकों की अपनी महत्ता है ।

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  12. "... कि यदि कोई अध्यापक मशीन से विस्थापित हो सकता है तो उसे हो जाना चाहिये।... "
    अजी, हमने अपना (और मेरे जैसे हजारों लाखों होंगे!) कंप्यूटिंग ज्ञान किसी अध्यापक से सीखा नहीं - मशीनों और किताबों से स्वयं सीखा है. इस लिहाज से तो यह स्थापित, पुष्ट तथ्य है.

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  13. बहुत बढिया जानकारी देता आलेख

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  14. A nice description

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  15. प्रवीण जी आपके इस लेख की लिंक मैं टीचर्स ऑफ इंडिया पोर्टल पर लगाना चाहता हूं। कृपया अनुमति दें।

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    1. आप अवश्य लगायें, मुझे बहुत अच्छा लगेगा।

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    2. शुक्रिया प्रवीण जी। मैंने टीचर्स ऑफ इण्डिया पोर्टल में चर्चा खण्‍ड में आपके लेख की लिंक लगाई है।

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  16. आपकी आशा उचित है, परन्‍तु होल इन द वॉल जैसे फॉर्मूले से आधुनिक ज्ञान ही मिल पाएगा। बच्‍चों को सामाजिकता सिखाने के लिए (सुविज्ञ) अध्‍यापक, अभिभावक और समाज की जरुरत हमेशा रहेगी।

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  17. Anonymous23/3/13 14:54

    Bahut sunder lekh Pravin ji,main aapka blog regular padhti hoon bas comment aaj kar rahi hoon,

    aaplke articles ka content bahut rich hota hai ......Congrats

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  18. आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (24-03-2013) के चर्चा मंच 1193 पर भी होगी. सूचनार्थ

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  19. सोच तो अच्छी है,क्या कभी ये फार्मूला अपने देश में लागू हो सकेगा,,,

    होली की हार्दिक शुभकामनायें!
    Recent post: रंगों के दोहे ,

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  20. बेहतरीन आलेख. वर्षों पहले इस प्रयोग के बारे में पढा था. आपसे सहमत.

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  21. समय के साथ कुछ नए प्रयोग तो करते रहने होंगे ,इस दिशा में ।
    आपके ऐसे लेख अवश्य कुछ नया करने को प्रेरित भी करते रहेंगे ,सभी को ।

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  22. सुगाता मित्रा के इस नवाचारी प्रयोग पर कभी मैंने भी लिखा था -मगर एक श्रेष्ठ शिक्षक को प्रौद्योगिकी कभी विस्थापित नहीं कर सकती मगर गोबर गणेशों से निश्चय ही प्रौद्योगिकी बेहतर है !

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  23. बढ़िया शख्शियत से मिलवाया बढ़िया फलसफा समझाया जहां चाह वहां राह ....सीखने की जन्मजात प्रवृत्ति लिए है बालक ...फिर पायलट लेस विमान और कारें हो सकतीं हैं तो शिक्षक विहीन शिक्षा क्यों नहीं हो सकती भारत जैसे विशाल देश का काम काज एक चुप्पा रोबो संभाले हुए है .गरज ये कुछ भी हो सकता है .

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  24. एकलव्य ने धनुर विद्या किस्से सीखी ?

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  25. सुन्दर विचारोत्तेजक आलेख |होली की शुभकामनाएँ |

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  26. वाह! बहुत ख़ूब! होली की हार्दिक शुभकामनाएं!

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  27. यदि कोई अध्यापक मशीन से विस्थापित हो सकता है तो उसे हो जाना चाहिये।
    वास्तव में शिक्षक का कोई विकल्प नहीं है .अच्छा शिक्षक मशीनों से आगे सोचता है ! मशीनें सैद्धांतिक दृष्टि से ज्ञान फैला सकती है , मगर प्रैक्टिकल तो शिक्षक के जरिये ही होगा .

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  28. अपने गाँव में कुछ ऐसा ही मैं भी करना चाहता हूँ, प्लान तो पूरा है देखिये शायद इस अक्टूबर से प्रारंभ भी कर दूं, मैं भी शिक्षा में बहुत से प्रयोग करता रहता हूँ :)

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  29. प्रतिभाएं कहीं भी हो सकती हैं, इन्‍हें महानगरों की आवश्‍यकता नहीं है।

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  30. सुगता मित्रा जी के इस अभिनव प्रयोग के बारे में जान कर बहुत अच्छा लगा । गूगल जिंदाबाद । अब सुदूर ग्रामीण बच्चों के शिक्षा का भविष्य उज्वल है । फिर भी शिक्षक का अपना महत्व हे यदि वह सही माने में शिक्षक हो तो ।

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  31. ज्ञान देने वाला ओर ग्रहण करने वाला ... दोनों का ही प्रयास जरूरी है इस ज्ञानगंगा से मोती निकालने के लिए ... ओर प्रतिभा किसी स्थान ओर वेश की थाती नहीं होती ...

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  32. बहुत सारगर्भित आलेख |

    सीखने वाले को किसी अध्यापक की जरुरत नहीं जिज्ञासा हो तो कोई कार्य सीखा जा सकता है|

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  33. अलबत्ता कोटा (राजस्थान )इस मामले में अपना अपूर्व स्थान बनये हुए है .कोटा के किस्से आपने सुने होंगें .

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  34. इस मामले में हरियाणा आगे है यहाँ सभी नगर मझौले दर्जे के हैं अनेक नगर शिक्षा केंद्र बने हुए हैं .सब का अपना वैशिष्ठ्य है क्या रोहतक -हिसार -यमुनानगर -कुरुक्षेत्र और क्या अब सिरसा .कोचिंग सेंटर्स का एक बड़ा हब बना हुआ है हरियाणा .

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  35. बढिया जानकारी
    सार्थक लेख
    होली मुबारक

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  36. ज्ञान पाने के लिए सब से पहले जिज्ञासा और इच्छा का होना ज़रुरी है,उसके बाद मार्ग खुद ब खुद बनते चलते जाते हैं.
    ज्ञान अर्जन में किसी ने किसी मौके पर अध्यापक की आवश्यकता भी पड़ती है और पड़ती रहेगी.

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  37. आप दिल से लिखते हैं इसलिए आपकी बातें दिल को छू जाती हैं।

    होली की हार्दिक शुभकामनाएं। पर ध्‍यान रहे, बदरंग न हो होली।

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  38. शिक्षा के क्षेत्र में नए प्रयोग तो हो रहे हैं लेकिन उसका केन्द्रीकरण शहरों में ही हो रहा है. आज शिक्षा को नए तकनीक जैसे e-learning, e-book तो प्रयोग हो रहे हैं लेकिन क्या वह देश के सबसे अंतिम छात्र को नसीब हो पाएगा? विचारणीय है. ज्ञान आज क्रय विक्रय जैसा ही कुछ बनता जा रहा है.

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  39. mn ko prbhavit karane wala lekh padh kr mja aa gya chintan ko sahi disha mili .....sadar aabhar Pandey ji ...holi pr hardik shubh kamnayen .

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  40. प्राथमिक शिक्षा के बाद यह प्रयोग अति उत्तम है ।

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  41. sunder jankari deta lekh .
    dhnyavad
    rachana

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  42. बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
    आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि-
    आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल बुधवार के चर्चा मंच पर भी होगी!
    सूचनार्थ...सादर!
    --
    आपको रंगों के पावनपर्व होली की हार्दिक शुभकामनाएँ!

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  43. होली की हार्दिक शुभकामनाएँ!

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  44. बहुत बढ़िया प्रेरक प्रस्तुति ...
    आपको होली की हार्दिक शुभकामनाएँ!

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  45. Quite a remarkable initiative. If we want to do something, nothing can stop us. We have to be little innovative.

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  46. जिज्ञासा और इच्छा अपना मार्ग बना ही लेते है. बहुत सुन्दर लेख ....होली की हार्दिक शुभकामनाएं

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  47. ज्ञान सहज उपलब्ध हो, बच्चे में जिज्ञासा हो, तो ज्ञानार्जन बड़ा ही सरल है।
    ....बिल्कुल सार्थक कथन..आवश्यकता है साधन उपलब्ध कराने की...होली की हार्दिक शुभकामनायें!

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  48. होली की हार्दिक शुभकामनायें!!!

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  49. प्रयोग और प्रयोगकर्ता दोनो अभिनन्दनीय हैं.शिक्षा को सीमित घेरों से मुक्त कर के ही समाज-कल्याण की आशा की जा सकती है!

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  50. प्रवीन जी,
    आपका परिचय,अपने जो अपना चित्र पोस्ट
    किया है,उसी से पूरा मिल जाता है,क्योंकि
    चेहरा ही दर्पन है आस्तित्व का,
    फिर भी—’तकनीक से----ऊर्जा बनाए रखती है’
    में,संपूर्ण समाया गया,जैसे सागर में मोती.

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