29.3.15

दुख-पतझड़

जीवन पथ पर एक सुखद भोर, ले आई पवन मलयज, शीतल,
अनुभव की स्मृति छोड़ गयी, एक भाव सहज, मधुमय, चंचल ।
निश्चय ही मन के भावों में, सावन के झोंके आये हैं ।
अब तक सारे दुख के पतझड़, पर हमने कहाँ बितायें हैं ।।१।।

जीवन पाये निश्चिन्त शयन, लोरी गाकर सुख चला गया,
उद्विग्न विचारों की ज्वाला, स्पर्श किया और बुझा गया ।
निसन्देह आगन्तुक ने, कई राग सुरीले गाये हैं ।
अब तक सारे दुख के पतझड़, पर हमने कहाँ बितायें हैं ।।२।।

मन बसती अनुभूति सुखद है, क्लान्त हृदय को शान्ति मिली,
तम शासित व्यवहार पराजित, मन में सुख की धूप खिली ।
माना उत्सव की वेला है, कुछ स्वप्न सलोने भाये हैं ।
अब तक सारे दुख के पतझड़, पर हमने कहाँ बितायें हैं ।।३।।

कर्म सफल, मन में लहरों का, सुखद ज्वार उठ जाता है,
अति लघुजीवी हैं सुख समस्त, फिर भी जीवन बल पाता है ।
हम जीवन के गलियारों में, ऐसी ही आस लगायें हैं ।
क्या अन्तर, दुख के पतझड़, यदि हमने नहीं बितायें हैं ।।४।।

हम सुख पाते या दुख पाते, पर विजय काल की होती है,
सच मानो अपनी कर्म-तरी, उसके ही निर्णय ढोती है ।
हमने पर कठिन परिस्थिति में भी जीवन-दीप जलाये हैं ।
सह लेंगे सारे दुख-पतझड़, जो हमने नहीं बितायें हैं ।।५।।

22.3.15

आशान्वित मन

आशाओं से संचारित मन,
करने की कुछ चाह हृदय में ।
स्वप्नों से कुछ दूर अवस्थित,
अब जीवन को पाया हमने ।।१।।

स्थिर है मन संकल्पों में,
लगा विकल्पों का भ्रम छटने ।
वर्षों से श्रमहीन रही जो,
संचित शक्ति उमड़ती मन में ।।२।।

बुद्धि व्यवस्थित और लगा है,
चिन्तन का विस्तार सिमटने ।
विविध विचारों की लड़ियाँ भी,
आज संकलित होती क्रम में ।।३।।

आज कल्पना प्रखर, मुखर है,
रोषित हृदय लगा है रमने ।
आज व्यन्जना पूर्ण रूप से,
कह जाती जो आता मन में ।।४।।

जीवन-दर्शन ज्ञात हो गया,
बहना छूट गया मद-नद में ।
आओ प्रभु स्थान ग्रहण हो,
आमन्त्रित मन के आँगन में ।।५।।

15.3.15

आये तुम

स्वप्न देखने का जीवन में, साहस तो कर बैठे थे ।
आये तुम, पीछे पीछे, देखो स्वप्न और आ जायेंगे ।।१।।

कठिन परिस्थियों में भी, एक किरण दिखी थी आशा की ।
आये तुम, अब हम कष्टों को भी आँख दिखाते जायेंगे ।।२।।

भीड़ भरे आहातों के एक कोने में चुपचाप खड़े ।
आये तुम, मन की बात आज दीवारों से चिल्लायेंगे ।।३।।

सुन्दरतम की बाट जोहते, अब तक जगते रहते थे हम ।
आये तुम, लाये गोद सुखद, हम चुपके से सो जायेंगे ।।४।।

8.3.15

तुम ही

जहाँ देखूँ, दीखता आकार तेरा,
स्वप्न चुप है, कल्पनायें अनमनी हैं ।।१।।

पा रहा हूँ प्रेम, साराबोर होकर,
आज पुलकित रोम, मन में सनसनी है ।।२।।

खिंचा है मन और तुझ पर ही टिका है,
पूछता आकर्ष, मुझमें क्या कमी है ।।३।।

हृदय-तह तक भरा है बस प्रेम तेरा,
जीवनी अनुराग-दलदल में सनी है ।।४।।

अभी तक सुख दे रहा स्पर्श तेरा,
करूँ कुछ भी, तुम्ही में आत्मा रमी है ।।५।।

खोजता हर वाक्य में सौन्दर्य तेरा,
उमड़ती जो याद, अब कविता बनी है ।।६।।

1.3.15

जीवन-सार

नहीं पुष्प में पला, नहीं झरनों की झर झर ज्ञात मुझे,
नहीं कभी भी भाग्य रहा जो सुख सुविधायें आकर दे ।
इच्छायें थी सीमित, सिमटी, मन-दीवारों में पली बढ़ीं,
आशायें शत, आये बसन्त, अस्तित्व-अग्नि शीतल कर दे ।।१।।

शीतल, मन्द बयार हृदय में ठिठुरन लेकर आती है,
तारों की टिमटिम, धुन्धों में जा, चुपके से छिप जाती है ।
रिमझिम वर्षा की बूँदों ने, प्लावित बाँधों को तोड़ दिया,
लहरों की कलकल ना भाती, रह रहकर शोर मचाती है ।।२।।

फिर भी जीवन में कुछ तो है, हम थकने से रह जाते हैं,
भावनायें बहती, हृद धड़के, स्वप्न दिशा दे जाते हैं,
नहीं विजय यदि प्राप्त, हृदय में नीरवता सी छाये क्यों,
संग्रामों में हारे क्षण भी, हौले से थपकाते हैं ।।३ ।।