30.9.21

राम का निर्णय (सीता)


लक्ष्मण आगे कुछ नहीं कहते हैं, तर्क का उद्देश्य निर्णय के सभी विकल्पों के पक्षों को सामने लाना था। सब जानकर और सब सुनकर राम ने अपना निर्णय नहीं बदला था। लक्ष्मण निर्णय का मान करते हैं। लक्ष्मण का क्रोध तो शान्त हो गया था पर शोक स्वाभाविक था। मन क्षुब्ध था पर राम का निर्णय अब उनका भी था।


राम माँ कौशल्या के पास जाकर उन्हें पुनः सान्त्वना देते हैं और वन जाने की अनुमति माँगते हैं। अपने राम के लिये माँ अपने शोक से सयत्न बाहर आती है और भारी मन से वनगमन की अनुमति देती है। जो सामग्री अभिषेक के लिये रखी थी, उसी को उपयोग में लाकर विधिपूर्वक स्वस्तिवाचन कर्म करती है।


माँ का स्वर तनिक रुद्ध है पर मन्त्रों का गाम्भीर्य वातावरण को स्थिर करने लगता है। अन्तरिक्ष, पृथिवी, जल, औषधि, वनस्पति, दिशा, काल, देव, ब्रह्मा, सबको आह्वान करता शान्ति पाठ कौशल्या के मन को निश्चिन्त नहीं कर पा रहा था। पुत्र के कल्याण की जो कामना वनगमन से रोक रही थी अब वही कामना सभी देवों से प्रार्थना कर रही थी कि राम जहाँ जायें, सब देव उनकी रक्षा करें। वन से, वृक्ष से, वन्य जीवों से, नदियों से, सबसे अपने राम की रक्षा के मन्त्र उच्चार रही थी माता। सबसे आह्वान कर चुकने के बाद माता पुत्र को निहारने लगती है। आँसू झर झर बह रहे हैं। स्वस्तिकर्म का समापन पुत्र की परिक्रमा कर समाप्त करती है माँ। पुत्र के चारों ओर अपनी शक्ति का घेरा स्थापित करती है माँ। अन्ततः हृदय से लगा लेती है अपने राम को। एक क्षण रुकते हैं राम, माँ की आज्ञा पाने की अनुकूलता है और माँ की पीड़ा का शोक भी, दोनों का अनुभव होता है राम को। राम झुककर प्रणाम करते हैं, बार बार माँ के चरणों का स्पर्श करते हैं और लक्ष्मण के साथ महल के बाहर निकल जाते हैं।


मार्ग के प्रतीक्षा कर रहे जनसमुदाय की मनःस्थिति भ्रमित थी। राम वन जा रहे हैं, यह कुछ को ज्ञात था, कईयों को यह तथ्य ज्ञान नहीं था, कुछ को ज्ञात हो रहा था, यह दुखद समाचार नगरवासियों में फैल रहा था। राम के मुख की शान्ति यथावत थी, वह चाह कर भी प्रसन्नमना हो अभिवादन स्वीकार नहीं कर पा रहे थे। एक तो वनगमन की शीघ्रता, पिता दशरथ और माँ कौशल्या के शोकसंतप्त चेहरे की छवि, लक्ष्मण का क्रोध और सीता की संभावित स्थिति और अनिश्चितता, इन सबके तात्कालिक प्रभाव से राम अपनी सर्वप्रियता के अभिवादन का यथायोग्य उत्तर नहीं दे पा रहे थे। साथ ही माँ कैकेयी के महल से निकलते ही उन्होंने युवराज पद मानसिक रूप से त्याग दिया था अतः जनसमुदाय के उस रूप में किये गये उल्लास पर सप्रयास ध्यान नहीं दे रहे थे। यथासंभव स्वयं को संयतकर प्रजा के बीच से निकलते हुये राम सीता के महल पहुँचते हैं।


सीता को राम के वनगमन प्रकरण का समाचार ज्ञात नहीं था। वह सकल सामयिक कर्तव्यों का पालनकर, सारे देवताओं की अर्चना कर प्रसन्नचित्त मन से अपने प्रिय राम की प्रतीक्षा कर रही थीं। अन्तःपुर में पहले से उपस्थित जनसमुदाय की दृष्टि से स्वयं को छिपाते हुये राम महल में प्रवेश करते हैं, उस समय लज्जा से उनका मुख झुका हुआ था। राम की यह छवि सीता के हृदय में कम्प उत्पन्न कर देती है। वह सहसा खड़ी हो जाती हैं और चिन्ता से इस प्रकार व्याकुल अपने पति को निहारने लगती हैं।


राम सीता के सम्मुख पहुँचने पर अपना मानसिक वेग रोक नहीं पाते हैं और उनका शोक सकल अंगों से प्रकट हो जाता है। सीता पति की दशा समझ जाती है। राम के मुखमण्डल पर सतत दमकती कान्ति को अनुपस्थित पा सीता अनर्थ की आशंका से अश्रु-प्लावित हो जाती है। शुभ लक्षणों की अनुपस्थिति को इंगित करते हुये अपने प्रिय राम से इसका कारण पूछती है। मन के भावों और वेगों को बिना छिपाये राम व्यग्र हो सीता को बताते हैं। सीते, आज पिताजी मुझे वन भेज रहे हैं। राम सीता को प्रातः से घट रहे प्रकरण की पृष्ठभूमि बताते हैं। पिता की प्रतिज्ञा के पालन हेतु वनगमन के औचित्य पर चर्चा न करते हुये सीता को इस कालखण्ड हेतु आवश्यक मंत्रणा देना प्रारम्भ करते हैं।


जहाँ राम सारे कथन यह मानकर कर रहे थे कि वह स्वयं ही वन जा रहे हैं, वहीं सीता शोक और आश्चर्य से राम को देखे जा रही थी। किस विषय की शीघ्रता है कि बिना कुछ बात किये इस कालखण्ड में सीता के क्या कर्तव्य उचित होंगे, क्या नहीं, राम कहे ही जा रहे हैं। सीते धैर्य धारण करना, सीते भरत को राजा का मान देना, भरत के समक्ष मेरी प्रशंसा मत करना, माँ कौशल्या और पिताजी की सेवा करना, किसी को कोई मानसिक कष्ट मत देना, धर्म का आचरण करना।


सीता हतप्रभ थी और पति की व्याकुलता पर आर्द्र भी। पति की दशा पर मन में शोक था और उनके स्वयं ही सब निर्णय लिये जाने पर क्रोध भी। पति ने वनगमन का निर्णय पिता की प्रतिज्ञा के पालन हेतु ले लिया। वह उनका अधिकार क्षेत्र था और परिस्थितियाँ देखते हुये इतना समय भी नहीं था कि निर्णय प्रक्रिया में पत्नी को सम्मिलित किया जाता। पर राम अब स्वयं ही जाने का प्रलाप किये जा रहे हैं, यह अधिकार उन्हें किसने दिया? माना, पति के रूप में पत्नी का योगक्षेम उनके हाथों में है और उस संदर्भ में उपदेश उचित भी हैं। पर अकेले ही वन जाने का निर्णय सीता को स्वीकार नहीं है। सीता राम के प्रवाह को रोकती नहीं है अपितु उस समय को अपने संवाद व्यवस्थित करने में लगाती है। राम अपनी बात समाप्त करते हैं तब सीता तात्कालिक शोक भुला कर स्पष्ट कुपित स्वरों में राम से कहती है। 


हे नरश्रेष्ठ, आप मुझे अत्यन्त लघु या ओछा समझ कर किस प्रकार बात कर रहे हैं? आपकी यह बातें सुनकर मुझे हँसी आ रही है। आप जो कह रहे हैं, वह धर्म के जानने वालों के योग्य नहीं है और न ही आप जैसे राजकुमार के योग्य है। आर्यपुत्र, सभी सम्बन्धी, माता, पिता, भाई, पुत्र आदि जीवन में अपने अपने भाग्य के अनुसार जीवन निर्वाह करते हैं। केवल पत्नी ही अपने पति के भाग्य का अनुसरण करती है। केवल इसी कारणमात्र से मुझे आपके साथ वन जाने की अनुमति प्राप्त हो जाती है। यदि आप वन में प्रस्थान करने का निर्णय कर चुके हैं तो मैं कुश और काँटों को कुचलती आपके आगे आगे चलूँगी। यदि आपको मेरे इस निर्णय से ईर्ष्या हो कि कैसे एक स्त्री वन जाने का साहस कर रही है या आपको रोष हो कि कैसे मेरी पत्नी मेरी आज्ञा का पालन नहीं कर रही है तो इन दोनों ही भावों को अपने मन से दूर कर दीजिये और जिस प्रकार पीने से बचा शेष जल भी यात्रा में साथ रखा जाता है, मुझे भी अपने साथ ले चलिये। मैंने कोई भी ऐसा पाप या अपराध नहीं किया है कि आप मुझे यहाँ त्याग दें।


मेरे लिये जीवन की सभी सुख सुविधायें तभी तक कुछ मूल्य रखती है जब आप उनमें सम्मिलित हों। किस सम्बन्धी से मुझे किस प्रकार का व्यवहार करना है, इस विषय ने मेरे माता पिता ने मुझे हर प्रकार से शिक्षा दी है, इस विषय में इस समय मुझे आपके उपदेश की आवश्यकता नहीं है। मैं आपके साथ वन अवश्य चलूँगी।


राम का शोक सहसा वाष्पित हो चला था। मन के द्रवित भाव पत्नी सीता के स्पष्ट और सपाट कथन सुनकर स्थिर हो गये थे। माँ कैकेयी के कुटिल वचन, दशरथ का मौन, माँ कौशल्या की दैन्यता और लक्ष्मण का क्रोध, उन सबके भावों से दग्ध होने के बाद सीता के ये वचन उद्विग्नता को सहसा विश्राम दे देते हैं। पत्नी की प्रेमपूरित रूप की परिकल्पना की परिधि में यह गुणश्रेष्ठता संभवतः छिपी रह जाती। सीता ने एक बार भी किसी पर प्रश्न नहीं उठाया, एक बार भी रुकने के लिये नहीं कहा और एक बार भी इस बारे में आशंका व्यक्त नहीं की। साथ ही जब सीता को अपने न जाने की बात पता लगी तो जिस तीक्ष्णता और तीव्रता से उसका विरोध किया, वह देखकर राम के मन में सीता के लिये गर्व की अनुभूति हो आयी।


गर्वानुभूति के वह क्षण वनजीवन की कठिनाइयों से पुनः विचलित हो उठे। सीता अपना मन्तव्य स्पष्ट कर चुकी थी।

28.9.21

राम का निर्णय (पुरुषार्थ)


लक्ष्मण भावों के द्वन्द्व में थे। राज्याभिषेक में विघ्न उपस्थित होने से उन्हें दुःख था पर भैया राम की धर्म के प्रति दृढ़ता देख कर उन्हें आत्मिक प्रसन्नता भी थी। राम के स्नेह और आश्वासनपूरित संस्पर्श से उनका मन शान्त हुआ था पर इस प्रकरण में दैव की सर्वकारणता की व्याख्या से उन्हें क्रोध भी आ रहा था।


दैव से लक्ष्मण को सदा ही विशेष आपत्ति रही है। दैव को स्वीकार करने और उसे ही ओढ़कर बैठे रहने वाले मनुष्य उन्हें आलसी और अकर्मठ लगते थे। जहाँ एक ओर भैया राम ने पिताकी अन्यायपूर्णता को दैव के आवरण में लपेट दिया था, वहीं दूसरी ओर अपने निर्णय को धर्म के निरूपण में व्याख्यायित किया था। दोनों के मापदण्ड समान क्यों नहीं?


उस समय राम के लिये लक्ष्मण के मनःस्थिति को यथारूप समझना कठिन नहीं था। मध्य भाल तक चढ़ी हुयी भौहें, लम्बी साँसें भरना, हाथी की सूँड की भाँति दायें हाथ को हिलाना, ग्रीवा को सब ओर डुलाना और भैया के प्रति तिर्यक नेत्र कर देखना। राम जानते थे कि दैव का जो जो शब्द उन्होंने बोला है, यह सब उसी की प्रतिक्रिया है, उसी के अनियन्त्रित स्फुरण हैं। अपनी सामर्थ्य पर अत्यधिक विश्वास करने वाले दैव को नहीं मानते हैं और न ही किञ्चित मान देते हैं। राम जानते थे कि लक्ष्मण दैववाद का प्रबलता से खण्डन करेंगे। आशानुरूप तनिक रोषपूर्ण स्वर में लक्ष्मण बोलना प्रारम्भ करते हैं।


भैया आपको लगता है कि यदि आप पिता की आज्ञा का उल्लंघन कर वन नहीं जायेंगे तो धर्म के विरोध का प्रसङ्ग होगा। इस प्रसङ्ग से संभवतः प्रजा के मन में यह धारणा बैठ जाये कि जो धर्मानुरूप पिता की आज्ञा का पालन नहीं करता है वह राजा बनने पर धर्मानुसार राज्य का पालन कैसे करेगा? आपको यह भी लगता है कि यदि आप पिता की आज्ञा का उल्लंघन करेंगे तो अन्य भी आपका अनुकरण कर ऐसा ही करना प्रारम्भ कर देंगे और कालान्तर में धर्म की यह अवहेलना व्यवस्था के विनाश का कारण बनेगी। इसी कारण आपके मन में वन जाने के प्रति एक शीघ्रता और उतावलापन दिख रहा है। ये दोनों शंकायें सर्वथा अनुचित और भ्रममूूलक है। इसका तात्कालिक साक्ष्य और प्रमाण आपके दैव वाले कथन से पुष्ट हो रहा है। आप जैसा क्षत्रियवीरशिरोमणि यदि दैव जैसी असमर्थ और तुच्छ वस्तु को प्रबल बताने लगे तो वह भ्रम की पराकाष्ठा ही कही जायेगी।


भैया, यह तथ्य मेरी समझ से परे है कि असमर्थ पुरुषों द्वारा अपनाये जाने योग्य और पौरुष के समक्ष निष्प्रभ खड़े “दैव” की आप साधारण मनुष्य के समान स्तुति और प्रशंसा क्यों कर रहे हैं? भैया, मुझे समझ नहीं आता कि आपको उन दोनों पापियों पर संदेह क्यों नहीं होता है? संसार में कितने ही ऐसे पापासक्त मनुष्य हैं जो दूसरों को ठगने के लिये धर्म का सहारा लेते हैं। क्या यह व्यवहारिक तथ्य आप से छिपा है? वे दोनों शठ धर्म के आवरण में ही आप जैसे सच्चरित्र पुरुष का परित्याग करना चाहते हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो भरत के राज्याभिषेक का निर्णय बहुत पहले ही दोनों ने ले लिया होता। षड्यन्त्रवश यह निर्णय आपको राजपाट से दूर रखने के लिये उन दोनों ने सामूहिक रूप से लिया है।


भैया, आप मुझे क्षमा करें पर अग्रज के रहते अनुज का राज्याभिषेक घोर लोकविरुद्ध कार्य है और मुझे सहन नहीं है। साथ ही पिता के जिस वचन के कारण आप मोह और दुविधा में पड़े हैं, उस धर्म का मैं पक्षपाती नहीं हूँ और उसका घोर विरोध करता हूँ। आप कैकेयी के वश में रहने वाले पिता के अधर्मपूर्ण और निन्दित वचन का पालन कैसे करेंगे? ऐसे कपट और पाखण्डपूर्ण धर्म के प्रति आपकी जो प्रवृत्ति और आसक्ति है, वह मेरे और प्रजा की दृष्टि में हेय है, त्याज्य है। आप कैसे कामानुरक्त और पुत्र का अहित करने वाले के वचनों को महत्व दे सकते हैं? 


यदि आप माता पिता के इस विचार को दैव की प्रेरणा का फल मानते हैं तो आपको उसकी उपेक्षा कर देनी चाहिये। कायर ही दैव की उपासना करता है। सारा विश्व जिनके पराक्रम से प्रेरित होता है और इस कारण समुचित आदर देता है, वे दैव को तनिक भी महत्व नहीं देते हैं। दैव को जीतने में समर्थ पुरुष कार्य में बाधा आने पर शिथिल नहीं बैठ जाता है। 


आज सब देखेंगे कि दैव और पुरुषार्थ में कौन बलवान है। जिन्होंने दैव से आपके राज्याभिषेक को नष्ट होते देखा है, वे आज मेरे पुरुषार्थ द्वारा उसी दैव का विनाश देखेंगे। वीर अपना दैव स्वयं ही लिखते हैं। मदत्त गजराज की तरह सब पर अपना आतंक स्थापित करने वाले दैव को मैं वापस जाने पर विवश कर दूँगा और जो भी मेरे मार्ग में आयेगा उसे मेरा असह्य ताप सहना होगा।


भैया, आपको वन तो जाना है, पर अभी नहीं। सहस्रों वर्षों के शासन के बाद और वृद्ध होने पर। वन तो पिता को जाना था। वन जाने की बात तो दूर, वह तो वानप्रस्थ में भी एकाग्र नहीं हैं। मेरी दो भुजायें केवल शोभा के लिये या चन्दन का लेप लगाने के लिये नहीं हैं। आपके अभिषेक की जो सामग्री आयी है, आप उससे अपना राज्याभिषेक होने दीजिये, शेष को सम्हालने का दायित्व आप मुझ पर छोड़ दीजिये।


लक्ष्मण का क्रोध शब्दों में अनवरत बह रहा था। राम के हित सबका संहार कर देने का भाव प्रचण्ड हो बह रहा था। सामने किसी अन्य के ठहर पाने की स्थिति नहीं थी। माँ कौशल्या हतप्रभ हो लक्ष्मण को देखे जा रही थी। राम धीरे से पुनः एक हाथ लक्ष्मण के कन्धे पर रखते हैं। लक्ष्मण का क्रोध पिघलने लगता है, शब्दाग्नि के साथ ऊष्ण अश्रु झरने लगते हैं। राम लक्ष्मण की खींचकर वक्ष से लगा लेते हैं। राम क्या उत्तर देंगे? सारा संवाद तो लक्ष्मण के अश्रु ही कहे जा रहे थे। राम जानते थे कि लक्ष्मण का क्रोध इस प्रकार बह जाना आवश्यक है।


राम का संस्पर्श पा लक्ष्मण स्थिर हो जाते हैं। शब्द रुक जाते हैं। बायीं बाँह से लक्ष्मण को भींच कर राम अपने दायें हाथ से लक्ष्मण के अश्रु पोंछते हैं। तर्क के काल का पूर्णतः अवसान हो चला था। अब निर्णय को स्वीकार करने का समय था। राम अत्यन्त शान्त स्वर में कहते हैं।


हे सौम्य, हे प्रिय, मुझे तुम माता-पिता के आज्ञा पालन में दृढ़तापूर्वक स्थित समझो। यही सत्पुरुषों का मार्ग है। राम के इसी निर्णय वाक्य में लक्ष्मण के सारे संवाद विश्राम पा जाते हैं।

25.9.21

जय कोटि जनों की अभिलाषा


(जब जब जनाधिकारों का हनन होता है, मन चीत्कार कर उठता है। आज पड़ोस में पुनः वही हो रहा है जो ३२ वर्ष पूर्व चीन के थियानमेन चौक पर हुआ था। तब के व्यक्त युवामन के उद्गार आज भी प्रासंगिक हैं।)

 

भड़काओ लोकतन्त्र ज्वाला, यह सारा राज्य तुम्हारा है ।

यह धरती क्या, यह अम्बर क्या, सारा ब्रम्हाण्ड तुम्हारा है ।।१।।

बस एक अकेले माओ के, तुम दास न यारों अब होना ।

अपने सिद्धान्त बना डालो, तुम अपनी नैया खुद खेना ।।२।।

 

युग परिवर्तित, जग परिवर्तित, ये नीति क्यों स्थिर रह जायें ।

आओ सूखा सा वृक्ष गिरा, एक उत्तम पौध लगा जायें ।।३।।

सरिता बहती, बहता समीर, चलना युग शाश्वत धर्म सदा ।

स्थिर तडाग में, रुकी वायु में नहीं जीवनी शक्ति सदा ।।४।।

 

है परिवर्तन जीवन लक्षण, सिद्धान्त काल से सत्यापित ।

फिर नीति क्यों शाश्वत माने हम, जिस पर है जीवन आधारित ।।५।।

भेड़चाल में नहीं चलो, तुम अपनी राह स्वयं खोजो ।

मस्तिष्क तुम्हारे साथ सदा, अपने सिद्धान्त स्वयं सोचो ।।६।।

 

हो मानवता से परिपूर्णित, स्वछन्द रूप से कार्य करो ।

जिसमें तेरे ही भाव जगें, एक ऐसा गढ़ तैयार करो ।।७।।

शासक का जीना प्रजा हेतु, यह राजधर्म की परिभाषा ।

उस पर निर्भर सारा समाज, जय कोटि जनों की अभिलाषा ।।८।।

 

रे चीन देश के राजाओं, निज देश दमन क्यों कर डाला ।

राजधर्म की सत्यनिष्ठता को तुमने झुठला डाला  ।।९।।

सारा समाज विपरीत खड़ा, जब लोकतन्त्र को पाने में ।

लेकिन तुमने कुछ सुनी नहीं, बस अपना रौब जमाने में ।।१०।।

 

तुमने आवाज सुनी होती, इन मानवता के कानों से ।

माओ का चश्मा आँख लगा पर तूने की मनमाने से ।११।। 

पराधीन हो मन से भी, यह तुमने आज दिखा डाला ।

वर्षों की मेहनत का रूपक, निज जीवन वृक्ष सुखा डाला ।।१२।।

 

तुमने चलवाये टैंक तोप, जनता बिल्कुल असहाय खड़ी ।

तुमने मरवाये मानव क्यों, करवायी भूल नितान्त बड़ी ।।१३।।

जिसको तुम दाबोगे जितना, वह द्विगुण वेग से फूटेगा ।

जो आज बनी है चिन्गारी, वह ज्वाला बनकर फूटेगा ।।१४।।

 

अत्युत्तम आज यही होगा, फूँको नवजीवन नातों में ।

तज देश ग्रहण सन्यास करो, अब लोकतन्त्र के हाथों में ।।१५।।

जीवन की खोयी निष्ठा को, तुम फिर से आज जिला डालो ।

तुम राष्ट्र बगीचे में सुन्दर से, मानव पुष्प खिला डालो ।।१६।।


23.9.21

राम का निर्णय(दैवयोग)


धर्मकेन्द्रित निर्णय प्रक्रिया राम के व्यक्तित्व का सशक्त हस्ताक्षर रही है। इस तथ्य को माँ कौशल्या भी जानती थी और लक्ष्मण भी। राम को धर्म की सीमित व्याख्या में उलझाना असम्भव था। राम तो धर्म के उदात्त परिप्रेक्ष्य और मौलिक सिद्धान्तों से अपने निर्णयों को बल प्रदान करते थे।


जैसे ही राम ने अपना अभिप्राय स्पष्ट किया, लक्ष्मण को यह समझ आ गया कि राम क्षात्रधर्म की सीमित व्याख्या को स्वीकार नहीं करेंगे। राज्य हस्तगत कर सुदृढ़ धर्म के द्वारा अपने कर्तव्यों का निर्वहन राम के विकल्पों में नहीं था। राम धर्म की “धारण करने वाली” परिभाषा पर अपना निर्णय आधारित कर रहे थे। किसी भी विषय में नियम, उपनियम, कर्तव्य, परम्परा आदि मूल सिद्धान्त से बड़े नहीं हो सकते। जहाँ दो कर्तव्यों में संशय हो, विकल्प हो वहाँ मूल सिद्धान्त का अनुप्रयोग ही निष्कर्ष देता है।


राम ने सत्य को धर्म के मूल सिद्धान्त के रूप में चुना था। सहजीवन का आधार ही सत्य है। बिना सत्य के वह आधार ही नहीं बनता है जिस पर जन एक दूसरे पर विश्वास कर सकें। तब नियमों, राजाज्ञाओं, आश्वासनों, घोषणाओं आदि का क्या मोल, जब उनके पालन का दृढ़ विश्वास ही न हो। जब व्यक्ति के वचनों का ही मोल न हो तब उस व्यक्ति का क्या मोल? अवसरवादिता यदि सर चढ़कर बोलेगी तो कौन निर्बल की रक्षा करेगा, कौन दुखी को आश्रय देगा, कौन समाज की उथल पुथल को स्थायित्व देगा?


लक्ष्मण अग्रज के भावों को जानते थे और यह भी जानते थे राम के निर्णय कभी भावनात्मक नहीं होते हैं। राम का पिता दशरथ से स्नेह है, उनके प्रति आदर है, पर यह निर्णय राम ने धर्म के मूल “सत्य” के सिद्धान्त पर लिया है।


कर्मफल में प्रदत्त परिस्थिति में धर्म, अर्थ और काम तीनों का ही समावेश होता है। जिस परिस्थिति में कैकेयी का चिन्तन तमप्रेरित था और लक्ष्मण रजस मनोवृत्ति से सोच रहे थे उसी परिस्थिति में राम सात्विकता से विचार कर रहे थे। एक ही परिस्थिति में धर्म, अर्थ और काम की प्रवृत्तियाँ क्रमशः राम, लक्ष्मण और कैकेयी में दृष्टव्य थीं। निर्णय प्रक्रिया के विकल्पों के बारे में राम ने अपना मत स्पष्ट कर दिया था। यदि निर्णय के विकल्पों में धर्म का लेशमात्र भी उपस्थिति नहीं है तो वह राम के लिये त्याज्य है। निर्णयों के चयनित विकल्प वही हो सकते हैं जिसमें धर्म, अर्थ और काम, तीनों ही हों। उन शेष विकल्पों में राम अर्थकेन्द्रित और कामकेन्द्रित विकल्पों से अधिक महत्व धर्मकेन्द्रित विकल्पों को देते हैं। उस पर भी धर्म के विभिन्न स्तरों पर उनका आश्रय धर्म के मौलिक सिद्धान्तों पर रहता है। यहाँ सत्य सर्वाधिक महत्वपूर्ण था।


लक्ष्मण राम का मन्तव्य जानते थे और यह भी जानते थे कि समाज की संरचना धर्म के इन्हीं सिद्धान्तों पर दृढ़ टिकी रह सकती है। राम ने धर्म, अर्थ और काम की इस समावेशी व्याख्या में भार्या का उदाहरण दिया था। भार्या धर्म, अर्थ, और काम, तीनों ही रूप में रहती है। अतिथि सत्कार, पोषण, पाचन आदि व्यवस्थाओं में वह अर्धांगिनी बन धर्म के पालन में सहायक होती है। माँ के रूप में परिवार के पालन और संचलन में वह अर्थ के पालन में कर्तव्य निभाती है। प्रेयसी रूप में वह पति के साथ परस्पर काम भी साधती है। अन्य दोनों का समावेश होने पर भी यह एक धर्मकेन्द्रित व्यवस्था है। अन्य मानवीय समाजों की कामकेन्द्रित और अर्थकेन्द्रित व्यवस्थाओं में कहाँ ऐसी समावेशी प्रवृत्ति देखी जाती है जो सबको जोड़कर चल सके, सबको धारण कर वढ़ सके, धर्म रूप में प्रस्तुत हो सके।


यद्यपि लक्ष्मण राम का अभिप्राय समझ गये थे पर उनका मूल प्रश्न अभी तक अनुत्तरित था। लक्ष्मण की आँखों में अभी तक प्रश्न थे। माँ कौशल्या निराशा में डूब विलाप कर रही थी पर लक्ष्मण अपना उत्तर पाने की प्रतीक्षा में स्थिर खड़े थे। उनके भाव राम के निर्णय को तो स्वीकार कर चुके थे पर दशरथ और कैकेयी के निर्णय को स्वीकार नहीं कर पा रहे थे।


राम समझ जाते हैं कि लक्ष्मण संतुष्ट नहीं हैं। न चाह कर उन्हें उस विषय पर आना ही होगा। पर उसके पहले लक्ष्मण को सान्त्वना देनी होगी। राम के प्रति हो रहे अन्याय से लक्ष्मण एक विशेष अमर्ष से भरे हुये थे। क्रोध से उनके नेत्र और नाक फैल रहे थे। धर्म की व्याख्या करने पर भी और अपना अभिप्राय समझाने पर भी उन्हें यह निर्णय स्वीकार नहीं हो रहा था। राम आगे बढ़ते हैं, दोनों हाथों से लक्ष्मण के कन्धे पकड़ कर सस्नेह कहते हैं। अनुज, धैर्य धरो, मन के शोक और क्रोध को दूर करो, चित्त से अपमान के भावना को निकाल दो। कोई भी ऐसा कार्य मत करो जिससे मेरे वनगमन में बाधा उत्पन्न हो।


अनुज, मैं नहीं चाहता कि माँ कैकेयी के मन में कोई भी ऐसी शंका न रह जाये जिससे उनको शोक हो। पिताजी भी सदा सत्यवादी रहे हैं और परलोक के प्रति भयग्रस्त रहे हैं। मैं नहीं चाहता कि मेरे अयोध्या में अधिक समय रहने से उनकी सत्यप्रतिष्ठा में कोई आँच आये।


लक्ष्मण, तुम्हारा कथन सत्य है। मुझे याद नहीं पड़ता कि मैंने कभी किसी माँ के प्रति या पिताजी के प्रति कोई छोटा सा भी अपराध किया हो। मुझे यह भी याद नहीं है कि आज तक पिताजी ने कभी भी मुझे प्रसन्न होकर न देखा हो। मेरी माँ कैकेयी का मेरे प्रति स्नेह सदा ही भरत से भी अधिक रहा है। उन्होंने तो हर बार बढ़कर अपने राम को मान दिया है, अपने राम के वचनों को मान दिया है।


आज सब भिन्न है लक्ष्मण। जो माँ कैकेयी सदा ही ऐश्वर्य में रही, उत्तम स्वभाव और श्रेष्ठ गुणों से युक्त उदारमना रही, आज वही एक साधारण स्त्री की भाँति अपने अधिकारों के लिये पिता को शोकसंतप्त कर रही है, कटुवचन बोलकर पिता का हृदय विदीर्ण कर रही है। जिसके ममत्व में मेरा मन आनन्दित होता था वही माँ मुझसे आज कुटिलता और कठोरता से बात कर रही है। पिताजी जो कभी मुझे देखकर बिना प्रसन्न हुये रह नहीं पाते थे और मेरे तनिक से दुख में विह्वल हो जाते थे, वह मुझसे बात तक नहीं कर रहे हैं। यही तो दैव है लक्ष्मण।


मेरे अनुसार माँ कैकेयी का यह विपरीत व्यवहार और मुझे वन भेजकर पीड़ा देने का विचार दैव का ही विधान है। जिसके विषय में कभी कुछ सोचा न गया हो, वही दैव का विधान है। प्राणियों और देवताओं में कोई भी ऐसा नहीं है जो दैव के विधान को मिटा सके। अतः उसी की प्रेरणा से मेरे राज्याभिषेक और माँ कैकेयी की बुद्धि में यह विपरीत व्यवहार हुआ है।


दैव का पता तो कर्मफल प्राप्त होने पर ही चलता है, उससे अन्यत्र उसका पता ही नहीं चलता है। उस दैव से कौन युद्ध कर सकता है? जिसका कोई कारण समझ में न आये, समझो दैव के कारण है। उग्र तपस्वी ऋषि भी दैव के कारण अपने तीव्र नियमों को छोड़ देते हैं, काम क्रोध से विवश हो मर्यादा से भ्रष्ट हो जाते हैं। अतः प्रिय लक्ष्मण, इस तर्क पर मन स्थिर करो और दुखी न हो।


मेरे लिये शोक न करो। मेरे लिये राज्य और वनवास, दोनों ही समान है। अपितु विशेष विचार करने पर वनवास अधिक अभ्युदयकारी प्रतीत होता है। लक्ष्मण मेरे राज्याभिषेक में जो विघ्न आया है, उसमें न माँ कैकेयी कारण हैं और न ही पिताजी कारण हैं। तुम तो दैव और उसके अद्भुत प्रभाव को जानते ही हो, बस वही कारण है। यह कहकर राम शान्त हो गये।


लक्ष्मण अभी भी क्रोध में थे पर राम के संस्पर्श से सहज हो गये थे। राम का सहजता से माँ कैकेयी और पिता दशरथ को दोषमुक्त करने का भाव लक्ष्मण को और भी उद्वेलित कर रहा था। सबका अन्याय अपने ऊपर लेने के राम के यह भाव और उनकी अपार सहनशीलता लक्ष्मण को व्यथित कर देती थी। लक्ष्मण यह तथ्य जानते थे कि राम अद्भुत वीर है फिर भी उनका क्षत्रियोचित व्यवहार न करना लक्ष्मण को विचित्र लगता था।


लक्ष्मण का बात अभी समाप्त नहीं हुयी थी।

21.9.21

राम का निर्णय(धर्म अर्थ काम)


लक्ष्मण के तर्कों और राज्य अधिग्रहण करने के उत्साहपूर्ण वचनों से माँ कौशल्या के शोक में कुछ कमी आयी थी। राम को कुछ न बोलते देख माँ की आशा बढ़ी कि संभवतः राम इन तर्कों का संज्ञान लेंगे। उस संवाद की दिशा को अपनी सहमति सी प्रदान करती हुयी माँ कौशल्या बोली।


पुत्र राम, लक्ष्मण के वचनों में जो भी करणीय हो, आप करें। यह कह कर माँ कौशल्या ने लक्ष्मण की संवाददिशा को अपनी समर्थन दे दिया था। माँ का मन पुत्र से तर्क में जीतना नहीं चाहता था पर पुत्र अयोध्या में रह जाये, इसके लिये कोई भी प्रयास छोड़ना भी नहीं चाहता था। माँ का मन भावनाओं के सहस्रों ज्वारों में अपने तटों के पाने की अदम्य इच्छाशक्ति लिये टिका था, जूझ रहा था। माँ कौशल्या व्यक्तिगत स्तर पर लक्ष्मण के प्रश्नों से तो सहमत थी। धर्म, कुल और पिता के तथाकथित कर्तव्य, इन तीनों को असिद्ध कर लक्ष्मण ने कौशल्या का मन तनिक स्फुरित अवश्य कर दिया था पर राज्य के बलात अधिग्रहण और हिंसा के उपायों के प्रति माँ की अनुकूलता नहीं थी। लक्ष्मण संवाद के प्रथम भाग को ग्रहण कर अब राम कोई निर्णय लें या अपना निर्णय संशोधित करें, जो भी करें पर वन न जायें।


“जो भी करणीय हो, आप करें” बोलकर माँ के नेत्र अश्रुपूरित हो गये। जहाँ माँ कौशल्या के शब्द राम को विकल्प दे रहे थे, माँ कौशल्या के अश्रु उन विकल्पों को संकुचित कर रहे थे, एक स्पष्ट सा संदेश दे रहे थे कि राम वन न जायें।


भैया राम पर निर्णय छोड़ने वाले, बड़ी माँ कौशल्या के वचनों ने लक्ष्मण के क्रोध से ज्वलित हृदय को तनिक सान्त्वना दी थी। मन के उद्गार तो व्यवस्थित होकर निकलना प्रारम्भ हुये थे पर संवाद समाप्त होते होते पूर्णतया अव्यवस्थित और आग्नेय हो चुके थे। लक्ष्मण के क्रोध की परिधि बहुधा लक्ष्मण को ही लाँघ जाती थी पर आज तक ऐसा कभी नहीं हुआ कि वह राम को आहत कर पायी हो। राम की उदारता और दीर्घमना सहजता लक्ष्मण के क्रोध को हर बार सोख लेती थी। लक्ष्मण के क्रोध को शान्त करना और समझाना राम के लिये नया नहीं था। लक्ष्मण का क्रोध व्यक्तिगत न होकर अपने प्रिय अग्रज राम के प्रति हुये अन्याय पर लक्षित था। व्यक्तिगत लाभ या कष्ट के लिये लक्ष्मण ने कभी क्रोध किया ही नहीं। कष्ट सहने में लक्ष्मण को कोई बाधा नहीं थी पर अन्याय और अधर्म के प्रति वह ज्वलन्त उल्कापिण्ड के भाँति व्यक्त होते थे।


राम के मन में स्पष्ट था कि कहाँ से उत्तर प्रारम्भ करना है। सबसे पहले लक्ष्मण को यह संकेत देना है कि वह अन्ततः माँ कौशल्या का दुख बढ़ाने का कार्य कर रहे हैं। माँ एक बार राम के उत्तर से शोकमना ही सही पर संतुष्ट हो बैठ गयी थी। उस पर एक आशा जगाना जो कि निर्णयों के प्रवाह में और काल के करालता में जी नहीं पायेगी। एक ऐसी आशा जगाना जो फलित न होकर माँ को अधिक दुख दे जायेगी, अधिक शोकसंतप्त कर जायेगी। राम लक्ष्मण को बताना चाह रहे थे कि आशायें वही जगाना चाहिये जिनमें तनिक संभावना हो। पुनर्जागृत अतृप्त आशायें दुख को और भी बढ़ा जाती हैं। दूसरा कार्य था, लक्ष्मण के क्रोध को शान्त करना। तीसरा कार्य था माँ को पुनः पूर्व अवस्था में वापस लाना जिसमें वह राम के वनगमन को मानसिक रूप से स्वीकार कर चुकी थी। चौथा और सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्य था धर्म की समुचित व्याख्या कर उठ रहे तर्कों को समुचित विश्राम देना था।


एक कार्य और था जिस पर राम अनिश्चित थे और उत्तर नहीं देना चाह रहे थे। वह था पिता पर लक्ष्मण के द्वारा लगाये आक्षेपों पर कोई चर्चा। पिता जैसे भी थे, राम के पिता थे। यद्यपि उन्होंने कोई स्पष्ट आज्ञा नहीं दी थी पर पिता की प्रतिज्ञा राम के लिये आज्ञापत्रक थी। राम के लिये कारणों में जाने की कोई आवश्यकता ही नहीं थी। उनकी विवशता भी वहन करने में राम को लेशमात्र का संकोच नहीं था। वह आज पिता के कर्तव्यों की न तो विवेचना करेंगे और उनके द्वारा लिये निर्णय का चारित्रिक विश्लेषण। आज यदि कोई पक्ष स्पष्ट करना आवश्यक है, तो वह है एक पुत्र के कर्तव्यों की विवेचना।


राम पहले लक्ष्मण को लक्ष्य कर कहते हैं। लक्ष्मण, मेरे प्रति जो तुम्हारा उत्तम स्नेह है, मैं वह जानता हूँ। साथ ही तुम्हारे अदम्य पराक्रम, धैर्य और दुर्धर्ष तेज का भी मुझे ज्ञान है। मेरी माँ के हृदय में जो अतुल दुख हो रहा है, वह सत्य और शम के बारे में मेरे अभिप्राय को न समझने के कारण से है। यद्यपि राम माँ कौशल्या के दुख के कारणों पर संवाद अवलम्बित कर रहे थे पर परोक्ष से उनका उद्देश्य लक्ष्मण के तर्कों को धर्म के आधार पर सुव्यवस्थित करने का था। साथ ही आशा की एक किरण जो लक्ष्मण ने दिखायी थी उसको यथाशीघ्र रुद्ध करने के लिये धर्म की पुनर्व्याख्या राम के लिये आवश्यक थी।


लक्ष्मण, संसार में धर्म ही श्रेष्ठ है। उसमें सबको धारण करने की शक्ति है। सत्य उस धारणा की प्रतिष्ठा है। यदि सत्य नहीं रहेगा तो अविश्वास बढ़ेगा। अविश्वास सहजीवन के मूल को नष्ट कर देगा। इस कारण से मुझे पिता के वचनों का सत्य स्वीकार करना है। पिता के वचनों को सत्य करना मेरे लिये धर्म का सर्वोत्कृष्ट कृत्य है। पिता की निर्णय प्रक्रिया और प्रस्तुत चारित्रिक दुर्बलताओं को तनिक भी स्पर्श न करते हुये राम धर्म आधारित अपने कर्तव्यों पर संवाद केन्द्रित कर रहे थे।


अतः लक्ष्मण, केवल क्षात्र धर्म पर आश्रित मति छोड़ो और वृहद धर्म के पालन में मेरा अनुसरण करो। मेरा अभिप्राय समझने के स्थान पर तुम माँ के साथ मुझे भी पीड़ा दे रहे हो। पराक्रमी अनुज, मुझे इस दुःख में मत डालो।


फल रूप में हमारे सम्मुख जो भी कर्म उपस्थित होते हैं, उसमें धर्म, अर्थ और काम तीनों का ही समावेश रहता है। उसमें धर्म के फल को प्रमुख मानकर शेष दो को भी साथ लेना चाहिये। जिस कर्म में धर्म, अर्थ और काम तीनों का समावेश न हो, उसे नहीं करना चाहिये। जिससे धर्म की सिद्धि हो, उसी का आरम्भ करना चाहिये। धर्मरहित हो केवल अर्थपरायण करने वाला सबके द्वेष का पात्र और केवल काम में अत्यन्त आसक्त होने वाला सबकी निन्दा का पात्र बनता है। पिता माननीय हैं। उन्होंने क्रोध से, हर्ष से या काम से भी प्रेरित होकर भी यदि किसी कार्य को करने की आज्ञा दें तो हमें धर्म समझ कर उसका पालन करना चाहिये।


राम अपना अभिप्राय स्पष्ट कर चुके थे। आशा क्षीण हो रही थी, माँ कौशल्या का विलाप बढ़ रहा था पर लक्ष्मण सहमत नहीं दिख रहे थे। उनके पूरे प्रश्नों का उत्तर राम ने नहीं दिया था। पिता व उनकी निर्णय प्रक्रिया पर उठे प्रश्नों पर राम मौन थे।

18.9.21

विकल्प तोड़ता है

 

अन्दर से उठता हुआ धूम्र, घुटता मन, बढ़ती शेष आस,

नवशमित भ्रमितवत अर्धचित्त, अन्तरमन की उन्मुक्त प्यास ।

इंगित करती जीवन रेखा, क्रमरहित, रुद्ध, हत वाणी को,

कुंठित मन से अभिशप्त रहे जीवन की करुण कहानी को ।।१।।

 

मनतंतु तभी से व्यथित हुये, जब आदर्शों की मार हुयी,

एक शांत मंद स्थिर मन में, संयम वीणा झंकार हुयी ।

पाने अपनाने नवजीवन, सारा संचितक्रम टूट गया,

इन नदियों में बहते बहते, जीवन मुझसे ही छूट गया ।।२।।

 

दो पक्ष बना अपने मन में, शंकाओं से संग्राम किया,

अपने तर्कों से लड़ लड़कर, अपना जीवन क्षयमान किया ।

दिनकर सी दिव्य ज्योति चाही, पर प्राप्त रहा एक हृदय दग्ध,

था अभिलासित नभ का विचरण, बैठा शापित बन विहग बद्ध ।।३।।


16.9.21

राम का निर्णय (पीड़ा)


माँ कौशल्या को लक्ष्य कर दिये गये तर्कों से लक्ष्मण ने धर्म और कुल के रक्षक के रूप में दशरथ पर प्रश्न उठा दिया था। लक्ष्मण के लिये पिता की न्यायप्रियता संशयात्मक सिद्ध कर अब उसका कारण देना आवश्यक हो गया था। दशरथ सदा ही धर्म और कुल की प्रतिष्ठा के वाहक रहे हैं और उन्होंने कभी भी जन सामान्य को इसका अवसर नहीं दिया है कि उनके लिये हुये निर्णयों में कोई न्यूनता दिखा सके। सभा में आये किसी प्रश्न पर सबकी मन्त्रणा सुनकर और अन्त में गुरु वशिष्ठ से धर्म की गूढ़ व्याख्या समाहित कर निर्णय लेने के क्रम ने दशरथ की छवि एक सुदृढ़ धर्मपालक के रूप में स्थापित कर दी थी। संभवतः प्रक्रिया का प्रभाव था कि धर्मशास्त्रों में वर्णित समस्त पक्ष निर्णय लेने में विश्लेषित किये जाते थे। राम को युवराज बनाने का निर्णय भी दशरथ ने इसी प्रकार लिया था, सभा के सभी मन्त्रियों ने और और गुरु वशिष्ठ ने उसका समर्थन किया था।


राजा बद्ध होता है उन आधारों पर जिन पर आधारित प्रशासन व्यवस्था की सहमति उसने अपनी प्रजा से की होती है। राज्य के संचलन और राजधर्म के निर्वहन का आधार उदात्त वैदिक सिद्धान्त रहे हैं जिसमें सबको समाहित कर लेने की मन्त्र सर्वत्र विद्यमान हैं। जन, पशु, वनस्पति, सबके प्रति तो न्याय के सूत्र संकलित हैं शास्त्रों में। इस बारे में बहुधा संशय नहीं रहता है यदि फिर भी कोई विषम परिस्थिति सामने आती थी तो पूर्ववर्ती राजाओं द्वारा लिये गये निर्णय एक संदर्भ के रूप में कार्य करते थे। सहत्रों वर्षों से प्रशासनिक और सामाजिक स्मृति में सतत संचित उन्हीं निर्णयों को कुल परम्परा का नाम दिया गया है। कुल परम्परा राज्य के लिये थी, परिवारों के लिये थी, गुरुकुलों के लिये थी। कुल परम्परा एक बौद्धिक धरोहर थी जो जीवन के मानदण्डों को तनिक भी गिरने नहीं देती थी।


लक्ष्मण को ज्ञात था कि व्यक्ति से बड़ा समाज, समाज से बड़ा राज्य होता है। व्यक्ति के रूप में लिये निर्णय यदि राज्य को प्रभावित करें तो वह दिशा और दशा अनर्थकारी हो जायेगी। राजा के रूप में लिये निर्णय यदि धर्म और कुल दोनों का ही अहित करें तो उनका औचित्य प्रश्न आमन्त्रित करता है। राम को युवराज बनाने का निर्णय प्रशासनिक प्रक्रिया से लिया गया था, उसमें सारे संबद्ध पक्षों से चर्चा की गयी थी। वहीं दूसरी ओर राम को वन भेजने का निर्णय पूर्णतया व्यक्तिगत था, वहाँ राजा दशरथ ने किसी से विमर्श क्यों नहीं किया?


लक्ष्मण कैकेयी के वरों के प्रति दशरथ के मौन समर्थन को एक व्यक्ति के रूप में लिया हुआ निर्णय मान रहे थे। इस परिप्रेक्ष्य में राजा दशरथ की विवशता और बाध्यता सर्वविदित थी। कोई उस अप्रिय सत्य को व्यक्त कर राजपरिवार का वातावरण भारी नहीं करना चाहता था। सब यही चाहते थे कि राजा की मानसिक विवशताओं का दुष्प्रभाव सीमित रहे। आज सहसा वह मानसिक दुर्बलता अपनी मर्यादा लाँघ कर राम पर, राज्य पर, धर्म पर और कुल के मान पर चढ़ी आ रही है। अब यह आवश्यक हो गया है कि उस सत्य को कहा जाये।


आज तो सत्य का दिन ही कहा जायेगा, कैकेयी का सत्य प्रकट हुआ, दशरथ की विवशता का सत्य प्रकट हुआ और अभी कुछ क्षण पहले माँ कौशल्या ने भी राजपरिवार में चली आ रही प्रतिस्पर्धात्मक वेदनीय स्थितियों का सत्य प्रकट हुआ। यद्यपि बड़ी माँ ने इस बारे में अधिक कुछ नहीं कहा पर सत्य तो प्रकट हो ही गया आज, कहाँ छिप सका। प्रबल वेदना के क्षणों में यह विशेष सामर्थ्य होती है कि वे सत्य को पिघला कर सामने ला देते हैं। लक्ष्मण ने भी मन में वर्षों से रखे सत्य को स्पष्ट रूप से व्यक्त करने का निश्चय किया। लक्ष्मण जानते थे उनके द्वारा व्यक्त सत्य माँ कौशल्या के प्रति भी संवेदना प्रकट करेगा। भैया राम से पिता की निंदा या दोष-कथन करना अमर्यादित होगा। माँ से ही पिता के दोषों को कहा जा सकता है। यह विचार कर और बड़ी माँ को ही लक्ष्य कर लक्ष्मण ने पुनः कहना प्रारम्भ किया।


बड़ी माँ, एक राजा के रूप में न सही पर एक पिता के रूप में पुत्र की रक्षा का दायित्व भी तो महाराज का है। पुत्र के साथ अन्याय हो और पिता उसका प्रतिकार न कर पाये, यह व्यक्तित्व की विवशता को दिखाता है। कौन सी ऐसी महत्वपूर्ण बात है जिसके कारण पिता अपने पुत्र को योगक्षेम सुनिश्चित नहीं कर पा रहे हैं। पुत्र जो उनका प्रिय है, आज्ञाकारी है, सुशील है, सौम्य है, विनम्र है, मर्यादित है, उसकी भी रक्षा न कर पाने की विवशता क्यों है पिताजी को। 


बड़ी माँ, पिताजी कर्तव्य-अकर्तव्य का बोध खो बैठे हैं। एक तो वह वृद्ध हैं और उस पर भी विषयों ने उन्हें अपने वश में कर लिया है। इस स्थिति में माँ कैकेयी उनसे कुछ भी करा सकती है। यह निर्णय तो उस अविवेकी अवस्था का प्रारम्भ भर है। आगे क्या अनर्थ होने वाला है इसकी कल्पना करना कठिन है।


लक्ष्मण का सपाट और स्पष्ट रूप से पिता को कामी और स्त्रीवशी कहने से पहले से ही शोक डूबा परिवेश और भी स्तब्ध हो गया। इस विषय पर लक्ष्मण कुछ और भी कहना चाह रहे थे पर वह उन्हें आवश्यक नहीं लगा। सत्य यही था पर घोर अप्रिय होने के कारण माँ कौशल्या निश्चय रूप से आहत हुयी थी। मर्यादा लाँघ कर दूसरी ओर खड़े लक्ष्मण के लिये अप्रिय सत्य की पीड़ा को और बढ़ाना अनावश्यक लगा। आगे क्या करना है उस कर्म को सुनिश्चित कर लक्ष्मण राम से प्रार्थना की।  


भैया, प्रतिज्ञा की बात या वन जाने की बात किसी और को ज्ञात नहीं है। राज्य की बागडोर अपने हाथों में ले लो। इस विषय में जो भी भरत का पक्ष लेगा, मैं उसका वध कर दूँगा, वह भले ही पिताजी ही क्यों न हों। 


लक्ष्मण क्रोध में थे, युद्ध की स्थिति में पिताजी को भी मार डालने तक को तैयार हो जाने की मनःस्थिति सामान्य नहीं थी। लक्ष्मण के भीतर का दुख विस्फोटित हो चुका था। राम को अब कुछ कहना आवश्यक था।

14.9.21

राम का निर्णय(मूल प्रश्न)


लक्ष्मण के पास अपनी बात प्रारम्भ करने के लिये दो विकल्प थे। पहला था राम से अपने स्नेह का आधार लेकर उनसे प्रार्थना करना कि राम वन न जायें। इस विकल्प में समस्या यह थी कि राम निर्णय ले चुके थे। माँ कौशल्या की स्पष्ट आज्ञा को भी आदरपूर्वक मना कर चुके थे, अपनी नितान्त अक्षमता दिखा चुके थे। धर्म, कुल और पिता के मान की विवशता का तर्क माँ को आश्वस्त न कर सका था, फिर भी माँ कौशल्या ने राम के वनगमन के निर्णय को भारी मन से स्वीकार कर लिया था। सामान्य परिस्थितियों में राम अपने अनुज की मंत्रणा का मान रखते हैं और यदि निर्णय नहीं लिया हो या निष्कर्षों में अधिक अन्तर नहीं हो तो स्वीकार भी कर लेते हैं।


आज परिस्थितियाँ भिन्न थीं। अनुज के रूप में किये अनुनय विनय के प्रयासों के फलित होने की संभावना शून्य ही थी। समझने के लिये मन का मृदुल होना आवश्यक था किन्तु राम अपने कठोर निर्णय से हृदय को वज्रवत किये बैठे थे। उसे भेद पाना या उसका प्रयत्न भी कर पाना लक्ष्मण के सामर्थ्य के बाहर था। साथ ही अनुनय विनय में समय अधिक लगने की संभावना थी। राम को अभी सीता के पास जाना है, उनके पास लम्बी मंत्रणा का समय तो कदापि नहीं है। जो भी कहना होगा लक्ष्मण को कठोर आवरण भेदने के लिये कहना होगा, सब अल्प समय में कहना होगा।


धर्म, कुल और पिता के मान पर राम के तर्कों पर माँ कौशल्या ने तो कुछ नहीं कहा पर लक्ष्मण को उन तर्कों में असंगतियाँ ही दिखीं। लक्ष्मण को इनको ही खण्डित करने में अपना दूसरा विकल्प दिखा। न्याय की परम्परा है कि तर्क को तर्क से ही खण्डित करना होता है। यद्यपि तथ्य कठोर होने वाले थे, व्यक्तिगत रूप से आहत करने वाले थे। पर मात्र इस कारण से ही उनको हृदय में ही रखकर व्यक्त न किया जाये, अब इसका समय नहीं था। मर्यादा तनिक भंग हो भी जाये पर सत्य तो उद्भाषित होना ही चाहिये। लक्ष्मण ने निश्चय किया कि उन्हें निर्णय की प्रक्रिया पर भी प्रश्न उठाने होंगे।


लक्ष्मण बोलना प्रारम्भ करते हैं। राम तो पहले ही लक्ष्मण के शब्दों की प्रतीक्षा कर रहे थे, माँ कौशल्या भी आशान्वित हुयी कि संभवतः लक्ष्मण अपने अग्रज को समझा पायें। पिछले कुछ वर्षों में राम के साथ यदि कोई सर्वाधिक रहा है तो वह लक्ष्मण है। पिछले कुछ वर्षों में राम किसी पर सर्वाधिक विश्वास करते हैं तो वह लक्ष्मण है। लक्ष्मण राम को अपना आदर्श मानते हैं और सारी आज्ञाओं का अक्षरशः पालन करते हैं। राम भी लक्ष्मण को मान देते हैं और अपनी निर्णय प्रक्रियाओं में सम्मिलित करते हैं। माँ कौशल्या आशान्वित थी कि लक्ष्मण राम के मन की भाषा जानते हैं और उसी भाषा में राम को समझाने में सक्षम भी हो सकेगें। सहसा विचार श्रृंखला के भारीपन में माँ कौशल्या डूबने लगी, सोचने लगी कि पता नहीं क्या निष्कर्ष होगा, राम मानेंगे कि नहीं, राम अपना निर्णय बदलेंगे कि नहीं। अनिश्चितता के क्षणों से माँ कौशल्या सहसा बाहर आती है। सारी संभावनायें भुला कर, सारा विश्लेषण भुलाकर बस यह मनाती है कि किसी तरह लक्ष्मण राम को मना ले। ईश्वर लक्ष्मण को सारा वाककौशल प्रदान करे।


लक्ष्मण तनिक ठिठकते हैं, तर्कों को संवाद में संयोजित करने के क्रम में उनके मन में एक प्रश्न उठ खड़ा होता है। उहाप्रेरित मानसिक पूर्वाभ्यास इस प्रकार के दोषों को संवाद के पहले ही सामने ले आता है। वह अपने पिता के अन्यायपूर्ण आचरण पर प्रश्न करने वाले थे। संभवतः वह संवाद भ्राता राम को असहनीय होता और क्रोध उत्पन्न करता जो कि परवर्ती संवादों को भी निष्प्रभ कर सकता था। दूसरा पक्ष यह भी था कि भ्राता राम से माँ कौशल्या के सामने उनके पति की निंदा करना अनुचित लग रहा था। साथ ही उनके तर्क माँ कौशल्या को राम के द्वारा कहे धर्म, कुल और पिता के मान पर ही आधारित थे। यद्यपि बड़ी माँ विलाप करके शान्त हो गयी थीं पर तर्क तो उनको ही करने थे। किसी के वार्तालाप को इस प्रकार हस्तगत कर लेना अशोभनीय समझा जाता था। सहसा लक्ष्मण को कौंधता है कि क्यों न बड़ी माँ के सम्मुख ही अपनी बात रखूँ। बड़ी माँ को उनके तर्कों का बल मिलेगा और उनके तर्कों को बड़ी माँ की वरिष्ठता का सहारा। संभवतः भैया राम तब मान जायें। लक्ष्मण तब स्वर संयत कर कहते हैं।


बड़ी माँ, भ्राता राम का क्या अपराध है जो उन्हें इस प्रकार देश से निकाला जा रहा है? किस अधिकार से राम को वनवास दिया जा रहा है?  संवाद का प्रारम्भ मूल प्रश्न उठा रहा था और माँ कौशल्या से उठा रहा था। यहाँ लक्ष्मण मर्यादा का पालन भी कर रहे थे और अपनी कठोर बात का आधार भी तैयार कर रहे थे। लक्ष्मण आगे कहते हैं। आर्य राम सर्वप्रिय हैं, अयोध्या की प्रजा उनको हृदय से स्वीकार करती है और अत्यन्त प्रफुल्लित है कि राम सिंहासनारूढ़ हो रहे हैं। प्रजा को ज्ञात नहीं है कि उनकी आशाओं पर कुठाराघात करने के कारक कोई और नहीं वरन उनके ही राजा दशरथ हैं। 


नगर से निष्कासित करने का दण्ड तो उन अपराधियों और अधमों को दिया जाता है जो सर्वजन के लिये अहितकर हों और जिनके सुधरने की लेशमात्र भी आशा न हो। राजा स्वयं जानते हैं कि साधारणजन को भी यह दण्ड नहीं दिया जा सकता है। जब इस प्रकार का दण्ड किसी नगरवासी को नहीं दिया जा सकता तो राम को क्यों वनवास दिया जा रहा है? राम के प्रति अन्याय और प्रजा की आंकाक्षा के माध्यम से लक्ष्मण धीरे धीरे दशरथ की ओर लक्ष्य कर रहे थे। यह निर्णय धर्म के किस पक्ष से न्यायसंगत है। इसमें किसका हित हो रहा है?


रघुकुल में प्रतिज्ञा का महत्व है, दिये गये वचनों का महत्व है। कुल परम्परा के निर्वहन के लिये हम सदा ही दृढ़संकल्पित रहते हैं। राजा दशरथ ने कल ही तो प्रजा को वचन दिया था कि राम को युवराज बनायेंगे। आज वह वचन तोड़ा जा रहा है और उसे तोड़ने में जिन वचनों का आधार लिया जा रहा है, वे नितान्त व्यक्तिगत थे। राजा दशरथ ने अपनी प्राणरक्षा के लिये उन वरों को देने का वचन दिया था। उन वरों का आधार कृतज्ञता थी, उनका महत्व तात्कालिक था, न कि अवसरवादिता पर केन्द्रित। प्रजा को दिये वचन सार्वजनिक हैं, सबके हित में हैं, उनका महत्व और तात्कालिकता कैकेयी को दिये वचन से कहीं अधिक है। लक्ष्मण निर्णय लेने को प्रमुख आधार को ही आधारहीन कर रहे थे।


बड़ी माँ, कुल परम्परा तो यह भी है कि सदा ही अग्रज पुत्र युवराज बनते हैं। एक व्यक्तिगत वचन को कुल की प्रतिज्ञा मान कर शताब्दियों से चली आ रही और सबके द्वारा स्वीकार्य अक्षुण्ण कुल परम्परा की अवहेलना क्यों? यद्यपि लक्ष्मण दशरथ को ही लक्ष्य कर रहे थे पर अभी तक उनके व्यक्तिगत आचरण पर नहीं आये थे। किसी के निर्णय की आलोचना उतना आहत नहीं करती है जितनी किसी निर्णयकर्ता की आलोचना कर जाती है।


माँ कौशल्या लक्ष्मण के तर्कों से बल पा रही थी, शान्त खड़े राम समझ रहे थे कि लक्ष्मण आगे क्या कहेंगे?

11.9.21

जीवन-प्रश्न


भवन, भव्यता, निद्रासुख में,

व्यञ्जन का हो स्वादातुर मैं,

और मदों से पूर्ण जीवनी,

कामातुर यदि बहलाऊँगा ।

लज्जित खुद के न्याय क्षेत्र में,

पशु-विकसित मैं कहलाऊँगा ।।

 

देखो सब उस पथ जाते हैं ।

जाते हैं, सब खो जाते हैं ।।

 

अपनी जीवन-धारा को मैं,

सबके संग में क्यों बहने दूँ ।

व्यर्थ करूँ जीवन विशिष्ट क्यों ?

 

और जागरण के नादों में,

मूल्य कहाँ इन स्वप्नों का है ।

निश्चय मानो जीवन अपना,

उत्तर गहरे प्रश्नों का है ।।

9.9.21

राम का निर्णय (लक्ष्मण)

 

माँ कौशल्या आगे कुछ न कह सकी। पुत्र और पति, दोनों ही अपने निर्णयों के प्रति सदा ही दृढ़ रहे हैं। रघुकुल की परम्परा सामान्य मानवीय भावों से बढ़कर एक विशाल दुर्ग का रूप ले चुकी थी, उसके पार जाना अब रघुकुलमणियों के लिये भी असंभव है। सब अपने व्यक्तिगत उदाहरणों से उसकी ऊँचाई बढ़ाने में लगे हैं। राम के वन जाने का दुख अत्यन्त असह्य था। माँ राम को भी जानती थी। कठिन निर्णय ले चुके राम को आज मानसिक समर्थन की आवश्यकता थी। पुत्र से विरह का दुख सह लेगी पर माँ राम में दैन्यता के भाव नहीं आने देगी। माँ कौशल्या समाज के सम्मुख राम को दृढ़ देखना चाहती थी, किसी भी दीनता से परे। तदन्तर राम की उपेक्षा न करते हुये माँ कौशल्या कक्ष में ही एक शून्य ढूढ़कर शोकमना तकने लगती हैं।


लक्ष्मण के मन में विचारों का बवंडर हिलोरें ले रहा था। मर्यादा के अनुपालन में लक्ष्मण ने कभी कोई शिथिलता नहीं दिखायी है पर जब समय आया है और अनुमति दी गयी है तो मन के भाव स्पष्टता और समुचित प्रबलता से प्रकट किये हैं। आज प्रातः से लक्ष्मण शान्त थे, बस राम को रघुकुल पर आया संकट सम्हालते देख रहे थे। राम ने वन जाने का निर्णय ले लिया, माँ कैकेयी को सुना दिया, माँ कौशल्या को भी आश्वस्त कर दिया, पर अपने अनुज लक्ष्मण का पक्ष तो सुना ही नहीं। पहले भी किसी विशेष निर्णय को लेने से पूर्व राम लक्ष्मण के विचार अवश्य जान लेते थे, कभी कोई छूटा हुआ व्यवहारिक पक्ष जानने के लिये या कभी लक्ष्मण को उस विषय में शिक्षित करने के लिये या कभी  लक्ष्मण को समझाने के क्रम में अपनी निर्णय प्रक्रिया पुनर्वलोकित करने के लिये। आज का निर्णय भैया ने बिना कुछ कहे ले लिया, संभवतः वह इस निर्णय के अथाह भार से अपने अनुज को मुक्त रखना चाह रहे हों।


लक्ष्मण के पास कहने के लिये बहुत कुछ था। लक्ष्मण बचपन से ही राम के निकट रहे हैं, उन्हें भैया का स्नेहिल भाव खींच ले जाता है। राम के निर्णयों को उन्होंने निकटता से देखा है। देखा ही नहीं वरन लक्ष्मण ने उनसे बहुत कुछ सीखा भी है। राम के निर्णय सदा ही जन सामान्य से भिन्न रहे हैं। राम को कभी तात्कालिकता से बिद्ध नहीं देखा था, एक संयत दीर्घकालिक परिप्रेक्ष्य राम के निर्णयों का वैशिष्ट्य रहा है। न्याय, दर्शन, धर्म, नीति और सामाजिकता का अद्भुत संमिश्रण रही है, राम की निर्णय प्रक्रिया। बचपन में भी जीतती हुयी क्रीड़ा में सहज भाव से जानबूझ कर हार जाने की भैया राम की प्रवृत्ति लक्ष्मण को अचंभित कर जाती थी। खेल होता ही इसीलिये है कि उसमें जीता जाये और उस प्रसन्नता का उत्सव मनाया जाये। पर राम के उत्सव उस जीत हार की सीमित व्याख्या से बहुत बड़े रहे हैं। राम के लिये खेल के उत्साह से भी अधिक सम्बन्धों की ऊष्मा महत्वपूर्ण रही है, अपने अनुजों के प्रति स्नेह का भाव प्रखर रहा है। 


आज के निर्णय में भी लक्ष्मण को बचपन के ही राम दिख रहे हैं, भरत से राज्य को हार कर सम्बन्धों को बचाते हुये। आज के निर्णय में लक्ष्मण को न न्याय दिख रहा है, न धर्म दिख रहा है, न नीति दिख रही है और न ही सामाजिकता। लक्ष्मण का मन था कि माँ कैकेयी के सामने ही उनकी कुटिलता को अपने तर्कों से तार तार कर दें। लक्ष्मण वहीं पर ही अपने पिता को भी धिक्कारना चाहते थे। राम ने एक क्षण भी संवाद को अपने नियन्त्रण से बाहर जाने ही नहीं दिया, किसी और को, विशेषकर लक्ष्मण को अवसर ही नहीं दिया कि वह कुछ कह सकें।


अपने निर्णय को इतने स्पष्ट रूप से दोनों माताओं से सम्मुख घोषित कर राम ने लक्ष्मण के कार्य को अत्यन्त कठिन कर दिया था। लक्ष्मण मन में सतत सोच रहे थे कि किस प्रकार से वह अपने तर्कों को संयोजित करे जिससे वे भैया राम को निर्णय वापस लेने के लिये प्रभावित कर सके। राम के जो तर्क लक्ष्मण सुन चुके थे उनसे भिन्न और गहरे तर्क लक्ष्मण को प्रस्तुत करने थे। इस बात की संभावना कम थी कि राम अपना निर्णय बदलेंगे पर लक्ष्मण अपनी बात कहने से स्वयं को आज रोकेंगे नहीं।


माँ कौशल्या के शोक में गहरी श्वास लेकर निश्चेष्ट शान्त बैठ जाने के पश्चात कक्ष में स्तब्धता छा गयी। संभवतः यही अवसर था लक्ष्मण के पास राम से अपनी बात कहने का। लक्ष्मण राम को ओर अनुमति हेतु निहारते हैं, राम समझ जाते हैं कि अब लक्ष्मण को अधिक रोक पाना संभव नहीं होगा। राम को इस बात का अनुमान अवश्य था कि लक्ष्मण के तर्क प्रबल होंगे, उनमें व्यवहारिकता और मनोविज्ञान भरा होगा, आवेश के भी अंश होंगे, पर सब कह लेने के पश्चात लक्ष्मण करेंगे वही जो राम समझायेंगे। राम यह मानते थे कि निर्णय लेते समय मन की बात कहना उचित है, सभी पक्ष उजागर करना आवश्यक है। किन्तु जब एक बार सारे विकल्पों को तौल कर निर्णय ले दिया जाता है तो सभी को अपने सुझाये विकल्प के प्रति अनुराग तज कर उसे स्वीकार करना चाहिये, भयवश नहीं, नीतिवश। लक्षमण के संशय आधारभूत रहते हैं। लक्ष्मण के दृष्टिकोण तनिक भिन्न अवश्य रहते हैं पर एक बार धर्म की दिशा पा जाने के बाद स्वयं को परिवर्धित कर सकने की सामर्थ्य भी रखते हैं।


सदा ही राम को लगता था कि लक्ष्मण के प्रश्न, लघु संशय और व्यवहारिक दृष्टिकोण उनके निर्णय की गुणवत्ता बढ़ा जाते हैं। आज क्या संवाद होगा और उसका निर्णय पर कितना प्रभाव पड़ सकेगा, इस बात का पूर्वानुमान होने के बाद भी लक्ष्मण को अपनी बात दृढ़ता से रखने का अवसर देना चाहते थे राम। अपने निर्णयों में लक्ष्मण का आधार राम को सदा ही आवश्यक लगा है और उसकी आवश्यकता कहीं अधिक थी।


राम संकेत देते हैं, लक्ष्मण आगे बढ़कर राम के चरण पकड़ लेते हैं। इस प्रकार चरण गहना स्पर्शमात्र के भाव से कहीं अधिक संघनित संप्रेषण था। दो भाव स्पष्ट थे। पहला, राम के कठिन निर्णय के प्रति भाई की संवेदना। दूसरा, इस निर्णय के संदर्भ में कठोर और स्पष्ट वचन बोलने की अनुमति। लक्ष्मण राम के निर्णय को उचित नहीं मान रहे थे पर लिये गये निर्णय की महानता के प्रति भीतर से द्रवित भी थे।


राम लक्ष्मण को उठाकर गले से लगा लेते हैं। लक्ष्मण गाम्भीर्य में पूर्णतया डूबे थे और नहीं चाहते थे कि अश्रु उनकी तर्क श्रृंखला को अव्यवस्थित कर दें। राम के स्पंद लक्ष्मण को आश्वासन दे रहे थे, अपनी बात स्पष्ट रखने के लिये। राम के स्पंद यह विश्वास दे रहे थे कि आज कठोरतम बातें भी सहर्ष सुनी जायेंगी। राम के स्पंद लक्ष्मण की ऊर्जा बढ़ा रहे थे।