28.9.13

अभिव्यक्ति का आकार - ब्लॉग, फेसबुक व ट्विटर

सूत्र - व्यसन या विवशता
अष्टाध्यायी के पृष्ठ पलट रहा था, आश्चर्य कर रहा था कि कैसे इतने छोटे छोटे सूत्रों में पाणिनी ने सारा व्याकरण संकलित कर दिया है। प्रत्येक सूत्र अपने आप में पूर्ण और पूर्णतया अपने स्थान पर। व्याकरण ही नहीं, ज्ञान के लगभग सभी अंग, उपांग सूत्रबद्ध हैं, योगसूत्र, ब्रह्मसूत्र, भक्तिसूत्र, कामसूत्र। श्लोक ले लें, सुभाषित ले लें, दोहे आदि, सब के सब अपने में सिद्ध और सक्षम, व्यक्त करने में समर्थ।

यद्यपि मैं ट्विटर में नहीं हूँ, पर यदि हमारे आदि सृजनकर्ता अपने समय में ट्विटर का उपयोग करते तो उनका प्रत्येक ट्वीट महत्वपूर्ण होता, किसी एक सिद्धान्त के सारे पक्ष व्यक्त करने में।

ज्ञान को संक्षिप्त में कह देना ज्ञानियों का व्यसन था या विवशता? व्यर्थता की परतें हटाने के बाद जो शेष रहता है, वह ज्ञान का मौलिक स्वरूप होता है। ज्ञान को उसके मौलिक स्वरूप में रखना ज्ञानियों का व्यसन था। उस समय लेखन सीमित था, लेखपत्र संरक्षित नहीं रखे जा सकते थे, सुनकर याद रख लेने की परंपरा थी। ज्ञान को इस परिवेश में संरक्षित रखने के लिये उन्हें संक्षिप्ततम रखना ज्ञानियों की विवशता थी।

आइये, तीनों माध्यमों का इस परिप्रेक्ष्य में विश्लेषण करते हैं। विमा आकार की है, सृजन की है, अस्तित्व के काल की हैं।

ट्विटर अभिव्यक्ति का लघुत्तम माध्यम है, आकार में और अस्तित्व के काल में। फेसबुक अभिव्यक्ति का मध्यम माध्यम है, आकार में और अस्तित्व के काल में। ब्लॉग अभिव्यक्ति का वृहद पटल है, आकार में और अस्तित्व के काल में। आपने देखा कि मैंने सृजन की विमा के आधार पर वर्गीकरण नहीं किया है, उसका एक कारण है।

अभिव्यक्ति तथ्यात्मक हो सकती है, सृजनात्मक हो सकती है, विश्लेषणात्मक भी हो सकती है। तथ्यों का आकार बड़ा नहीं होता है, यदि उसमें विश्लेषण न जुड़ा हो। समाचारों को देखिये, यदि विश्लेषण या राय हटा दी जाये तो समाचार पत्र अपने से दसवीं आकार में आ जायेंगे। तथ्यों में सृजनात्मकता नहीं होती है, तथ्य सपाट होते हैं। विश्लेषण या सृजन तर्क श्रंखला या विचार तरंगों के संग चलता है और बहुधा आकार में फैलने लगता है। बहुत कुछ वैदिक संदर्भ ग्रन्थों जैसा।

सृजन पर सदा फैलता ही नहीं रहता है, उसके कुछ निष्कर्ष होते हैं, उसके कुछ सूत्र होते हैं। आदि ऋषियों ने जो सूत्र रूप में ज्ञान प्रस्तुत किया, वह सृजन की पराकाष्ठा थी, ज्ञान का पूर्ण संश्लेषण था। आकार ट्वीट का पर अस्तित्व का काल अनन्त। प्रक्रिया वृहद, आकार में भी, आधार में भी।

वर्तमान ट्वीट जगत अभिव्यक्ति का माध्यम तो है, पर उसमें अपनी कहनी अधिक होती है, सुननी कम। राजनेताओं, अभिनेताओं व अन्य प्रसिद्धात्माओं की गतिविधि को जानने का अच्छा माध्यम है ट्वीट। किसी घटना पर अपने त्वरित और क्षणिक विचार व्यक्त कर निकल लेने का माध्यम है ट्वीट। विचार एकत्र हो जाते है, कोई शोध करे तो उसमें तत्व भी निकाला जा सकता है, पर उसके लिये न किसी के अन्दर धैर्य ही होगा और न ही सामर्थ्य। आजकल किसी विषय पर कितने लोग अनुसरण कर रहे हैं, इसकी भी संख्या जानने का माध्यम है ट्विटर।

हम जिस ट्वीट्स को देख रहे हैं और जिसकी बात कर रहे हैं, वह तथ्य का स्वरूप है, प्राथमिक है, सृजन और विश्लेषण में न्यून है। हमारे पूर्वज ट्वीट के स्वरूप में जिस ज्ञान को हमें दे गये हैं, उसमें सृजन और विश्लेषण अधिकतम है।

मैं 'शून्य से शून्य तक' के सिद्धान्त का मानने वाला हूँ और वही सिद्धान्त यहाँ पर भी सटीक बैठता है। जन्म से मृत्यु तक का मार्ग शून्य से शून्य तक रहता है। सारी प्रकृति इस सिद्धान्त पर चलती है, उद्भव होता है, विकास होता है और अन्त हो जाता है। उद्भव से अन्त तक या कहें शून्य से शून्य तक की इस यात्रा में हर वस्तु अपना आकार गढ़ती है, अपना काल निर्धारित करती है। अभिव्यक्ति भी उनमें से एक है। एक विचार जन्म लेता है, आकार पाता है, विस्तार पाता है, संश्लेषित होता है, निष्कर्ष रूप धरता है और सिद्धान्त के रूप में अभिव्यक्ति क्षेत्र से विलीन हो जाता है। यदि इस सिद्धान्त के आधार पर चर्चा करें तो ट्वीट उतनी निष्प्रभ नहीं लगेंगी।

एक सूत्र जो रहा समाहित
समाचारों की मात्र तथ्यात्मक फुटकर निकाल दी जाये और साहित्य की दृष्टि से देखा जाये कि अभिव्यक्ति के माध्यमों का क्या मोल है? अभिव्यक्ति का प्रारम्भ तथ्यात्मक ट्वीट से हो सकता है, कई तथ्य मिलकर विचारों का झुरमुट बनता है जो फेसबुक की पोस्ट का आकार ले सकता है। ऐसे कई फेसबुकीय अभिव्यक्तियाँ विश्लेषणात्मक सृजनात्मकता के माध्यम से एक ब्लॉग के रूप में संघनित की जा सकती हैं, संप्रेषण को सुपाच्य रखने के लिये ब्लॉग के आकार में विस्तारित की जा सकती हैं। कोई संदर्भ ग्रन्थ लिखने की सामर्थ्य हो तो अभिव्यक्ति का आकार और भी बढ़ाया जा सकता है, संबद्ध विषयों को उससे जोड़ा जा सकता है।

अभिव्यक्ति का कार्य पर अपना विस्तार पाकर समाप्त नहीं हो जाता है। ज्ञान के निष्कर्षों को और मथना होता है, शाब्दिक कोलाहल के परे मर्म तक पहुँचना होता है। मर्म जब मथते मथते गाढ़ा हो जाये तो फेसबुकीय आकार में कहा जा सकता है। इस प्रक्रिया में बढ़ते बढ़ते जब मर्म में सत्य या सिद्धान्त दिखने लगे तो वह सूत्र रूप में संघनित हो जाता है। ज्ञान की पराकाष्ठा और आकार ट्वीट का। विचार से प्रारम्भ हुये एक ट्वीट से, सिद्धान्त तक विकसित हुये एक ट्वीट तक।

अभिव्यक्ति के रहस्य को माध्यमों में खोजना और उसे भिन्न कोष्ठकों में बाँट देना, अभिव्यक्ति की सततता और एकलयता के साथ अन्याय है। सृजनात्मकता अपना आकार भी ढूँढ लेती है, अपना आधार भी। तीनों माध्यम न भिन्न हैं, न एक दूसरे के प्रेरक हैं, न एक दूसरे के पूरक हैं। तीनों ही अभिव्यक्ति की तीन शारीरिक अवस्थायें हैं जो शून्य से शून्य तक पहुँच जाती है, जो प्रकृति की गति पर चली जाती है।

(हिन्दी अन्तरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय वर्धा में 'ब्लॉग, फेसबुक व ट्विटर' के विषय पर व्यक्त मत)

25.9.13

मेरे लिये विद्यालय

मेरा विद्यालय
आज २५ वर्ष बाद उसी विशालकक्ष में खड़ा हूँ, जहाँ पर आचार्यों के उद्बोधनों ने सदा ही आगे बढ़ने को प्रेरित किया था। उसी विशालकक्ष में खड़ा हूँ, जहाँ पर अतुलित बलधामं, हेमशैलाभदेहं अंजनिपुत्र से नित कर्मरत रहने की शक्ति माँगता था। उसी विशालकक्ष में खड़ा हूँ, जहाँ अधंकार से प्रकाश की ओर बढ़ने के मन्त्रों का जाप हमारे गुणसूत्रों में पिरोया गया था। उसी विशालकक्ष में खड़ा हूँ, जिसमें आदरणीया बूजी के त्याग और स्नेह के स्पंद गूँजते थे और जिनकी स्नेहिल दृष्टि आज भी बच्चों को आशीर्वाद से पोषित करती है। उसी विशालकक्ष में खड़ा हूँ, जहाँ हम नित एकत्र होते थे, दिन के आकार को समेटने के लिये, भविष्य के विस्तार को समेटने के लिये, ज्ञान के आगार को समेटने के लिये।

२५ वर्ष बीत गये हैं यहाँ से गये हुये, पर स्मृतियों में आज भी एक एक दृश्य स्पष्ट दिखता है। २५ वर्ष के कालखण्ड में स्मृतियों बिसरा जाती हैं, उनका स्थान न जाने कितने नये घटनाक्रम ले लेते हैं, न जाने कितने नये व्यक्तित्व ले लेते हैं। पता नहीं क्या बात है यहाँ की स्मृतियों में कि वे हृदय से जाने का नाम ही नहीं लेती हैं। मेरे लिये स्मृतियों के रंग औरों की तुलना में कहीं गाढ़े हैं, मैंने सात वर्ष का समय यहाँ के छात्रावास में व्यतीत किया है। मेरी स्मृति में सुबह पाँच बजे उठने से लेकर रात दस बजे सोने तक के हज़ारों अनुभव एक स्थायी स्थान बना चुके हैं।

मेरा बेटा पृथु १३ वर्ष का है और बिटिया देवला १० वर्ष की। उनको सदा ही अपना काम करने के लिये उकसाता रहता हूँ। बहुधा वे कहना नहीं टालते हैं, विशेषकर इस तथ्य को जानने के बाद कि छात्रावास में मैं अपना सारा कार्य स्वयं ही करता था, कपड़े धोने से लेकर, कमरे में झाड़ू लगाने तक। स्वयं को ही नियत करना होता था कि कितना पढ़ना है, कब पढ़ना है और कैसे पढ़ना है? स्वयं को ही यह विचारना होता था कि व्यक्तित्वों से भरी भीड़ के इस विश्व में आपका नियत स्थान क्या है, और उस स्थान तक पहुँचने के लिये आपको क्या साधना आवश्यक है? स्वावलम्बन और अपने निर्णय स्वयं लेने के प्रथम बीज इसी विद्यालय के परिवेश की देन है।

अनुभव बहुत कुछ सिखाता है, कभी वह शिक्षा व्यवस्थित और मध्यम गति में होती है, कभी समय के थपेड़े आपको विचलित कर जाते हैं। हर अनुभव के बाद आप उसका विश्लेषण करते हैं, भले ही पेन पेपर लेकर न करते हों या कम्प्यूटर पर कोई एक्सेल शीट न तैयार करते हों, पर मन में विश्लेषण इस बात का अवश्य होता है कि उस अनुभव में हुयी आपकी क्षति, लाभ, आपकी स्थिरता और सीखने योग्य बातें क्या क्या रहीं? कौन सी वह दृढ़ता थी जिसने आपको सहारा दिया, कौन सी वे बातें थी जिन्होंने आपको निराशा के तम में जाने से बचाया, कौन सी वे बातें थीं जो सदा आपको उछाह देती रहीं? मुझे हर बार इस बात की संतुष्टि रहती है कि उन सभी विश्लेषणों के उजले पक्षों के स्रोत इसी विद्यालय से उद्गमित होते हैं। मेरी कृतज्ञता आनन्दित हो जाती है, मेरा यहाँ बिताया हुआ एक एक वर्ष अपनी सार्थकता के गीत गाने लगता है, मेरा विद्यालय मेरे जीवन का आधार स्तम्भ बन कर खड़ा हो जाता है़, मेरा विद्यालय मेरे जीवन के शेष मार्ग का प्रकाश स्तम्भ बन खड़ा हो जाता है।

आज उसी कृतज्ञता का उत्सव मनाने के लिये हम सभी मित्र एकत्रित हैं। हम सबके बच्चे अभी उसी आयु के होंगे जिस आयु में हम पहली बार इस विद्यालय में आये थे। उनकी गतिविधियों में हमें अपना विद्यालय याद आता है, उनकी गतिविधियों में हमें हमारा वह समय याद आता है जो हमने यहाँ पर आकर साथ साथ बिताया था। सब कहते हैं कि मैं ४१ वर्ष का हो गया हूँ, पर अभी भी १० वर्ष का एक छोटा बच्चा मन में बसा हुआ है। वह बच्चा जो उत्साह से भरा है, वह बच्चा जो स्वप्न देखना जानता है, वह बच्चा जिसे किसी बात का भय नहीं है, वह बच्चा जिसे प्रकृति के साथ रहना अच्छा लगता है, वह बच्चा जिसमें मन में कोई भेद नहीं, वह बच्चा जो निश्छल है, जो निर्मल है, जो प्रवाहयुक्त है, जो चिन्तामुक्त है। हम सभी मित्र अपने अन्दर रह रहे उसी बच्चे को उसके विद्यालय घुमाने लाये हैं, यह हम सबके लिये उसी कृतज्ञता का उत्सव है।

कुछ तो बात रही होगी हम सबके भाग्यों में कि हमें यह परिवेश मिला। हो सकता है कि यहाँ पर उतनी सुविधायें न मिली हों जो आज कल के नगरीय विद्यालयों में हमारे बच्चों को उपलब्ध रहती हैं, हो सकता है कि यहाँ पर अंग्रेजी बोलना और समझना न सीख पाने से विश्वपटल से जुड़ने में प्रारम्भिक कठिनाई आयी हो, हो सकता है कि कुछ विषय अस्पष्ट रह गये हों, हो सकता है कि प्रतियोगी परीक्षाओं का आधार यहाँ निर्मित न हो पाया हो। यह सब होने के बाद भी जो आत्मीयता, जो गुरुत्व, जो विश्वास, जो गाम्भीर्य हमें मिला है वह तब कहीं और संभव भी नहीं था, और न अब वर्तमान में कहीं दिखायी पड़ता है। मेरे लिये वही एक धरोहर है। जो व्यक्तित्व यहाँ से विकसित होकर निकलता है, वह एक ठोस ढाँचा होता है, वह अपने शेष सभी रिक्त भरने में सक्षम होता है।

जीवन विशिष्ट है, जीवन विविधता से भरा है, हम सभी मित्र विविध क्षेत्रों में अपना योगदान दे रहे हैं। प्रकृति ने सबको भिन्न कार्य दिया है, सबको भिन्न स्थान दिया है। वही हमारा मान है, वही हमारा प्राकृतिक साम्य है, वही हमारा वैशिष्टय है। किसी भी प्रकार की तुलना इस वैशिष्टय का अपमान है। हम जब इस शरीर में दो जीवन नहीं जी सकते हैं तो दूसरे से अन्यथा प्रभावित होकर अपने अन्दर रिक्तता का भाव क्यों लायें? अपने व्यक्तित्व, परिवार, परिवेश में जो भी सुन्दर परिवर्तन संभव हैं, उसका सुखद आधार बनें। यह विद्यालय भी विशिष्ट है, जैसा है, वैसा ही प्रिय है, इसके मूलभूत गुण ही इसकी आत्मा है, यदि कुछ बदलाव आवश्यक लगें तो वे केवल वाह्य ही होगें। वैशिष्टय बचा रहेगा, प्रकृति प्रसन्न बनी रहेगी।

जन्म के समय हम शून्य होते है, मृत्यु के समय हम पुनः शून्य हो जाते हैं। बीच का कालखण्ड जिसे हम जीवन कहते हैं, एक आरोह और अवरोह का संमिश्रण है। आरोह मर्यादापूर्ण और अवरोह गरिमा युक्त। एक पीढ़ी दूसरे का स्थान लेती है और उसे आने वाली पीढ़ियों को सौंप देती है। अग्रजों का स्थान लेने में मर्यादा बनी रहे और अनुजों को स्थान देने में गरिमा। अग्रजों के अनुभवों से हम सीखते हैं, अनुजों को स्वयं से सीखने देते हैं। यही क्रम चलता रहता है, प्रकृति बढ़ती रहती है। आज जो बच्चे इस विद्यालय मे पढ़ रहे हैं, वे भी २५ वर्ष बाद आयेंगे और इसी विशालकक्ष में अपने विद्यालय को और उससे ग्रहण किये गये तत्वों को याद करेंगे।

शून्य से शून्य की इस यात्रा में जुटाया हुआ हर तत्व किसी न किसी के उपयोग का होता है। यदि हम उसे सीने से चिपकाये बैठे रहे तो सब व्यर्थ हो जायेगा। हम सब संभवतः उस आयुक्षेत्र में प्रवेश कर चुके हैं कि हमें अपनी उपयोगितानुसार अपने परिवेश को अपने संग्रहणीय तत्व वापस करने हैं। वही हमारा योगदान है। जीवन को उसके निष्कर्ष में पहुँचाने के क्रम में जीवन भारहीन हो जाना चाहता है। अर्जित ज्ञान, अनुभव, विवेक, सामाजिकता, धन, श्रम, सब का सब समाज के ही कार्य आना होता है। यह वह समय है जब हमें विवेकशीलता से यह विचार करना प्रारम्भ कर देना चाहिये कि हमारे योगदान का स्वरूप क्या रहेगा। कोई अपने शब्दों से परिवेश में प्राण भरेगा, कोई अपने शौर्य से उसका नेतृत्व करेगा, कोई आधारभूत संरचनायें तैयार करने में अपना योगदान देगा, कोई अपने समाज में व्याप्त समस्याओं से दो दो हाथ करेगा। करना सभी को है। शून्य से शून्य तक की यात्रा आरोह के शिखर छुयेगी, आने वाली पीढ़ी को अपने कर्मों से अनुप्राणित करेगी और अन्ततः उन्हें अपना स्थान सौंप कर गरिमा के साथ अवरोह पर निकल पड़ेगी।

आचार्यों का आशीर्वाद रहा है हम पर, जो भी हम बन सके। आशीर्वाद की वह तेजस्वी ऊर्जा ही हमारा विश्वास है, हमारा अभिमान है। हमारे कर्म उन्हें भी ऐसे अभिमान से भर सकें, वही हमारी गुरुदक्षिणा है। ईश्वर हम सबको इतनी शक्ति दे और हमारी उपलब्धियाँ को उत्कृष्टता दे, जिससे हम अपने गुरुजनों का मस्तक ऊँचा और सीना चौड़ा रख सकें।

(पं. दीनदयाल विद्यालय में, २५ वर्षों बाद पुनर्मिलन समारोह में व्यक्त मन के उद्गार)

21.9.13

साइकिल, टेण्ट और सूखे मेवे

नीरज की वर्तमान में की गयी साइकिल यात्रा के दो अन्य साथी भी थे, उनका अपना टेण्ट और बैग में पड़े सूखे मेवे। इन दोनों के सहारे उन्होने तो बहुत साहसी यात्रा सम्पादित कर ली, पर कम जीवट लोगों में इनका क्या प्रभाव पड़ता है, यह एक मननीय प्रश्न है।

जब यातायात के साधन अधिक नहीं थे, यात्रायें पैदल होती थीं। यात्रायें सीमित थी, व्यापार आधारित थीं, धर्म आधारित थीं, ज्ञान आधारित थीं। लोग पढ़ने जाते थे, बनारस, तक्षशिला, नालन्दा। चार धाम की तीर्थ यात्रा पर जाते थे। यही नहीं, जितने भी इतिहास पुरुष हुये हैं, सबने ही यात्रायें की, बड़ी बड़ी। राम की पैदल यात्रा ४००० किमी से कम नहीं थी, कृष्ण भी १५०० किमी चले, शंकराचार्य तो ७००० किमी के ऊपर चले। मार्ग, साधन और भोजन आदि की व्यापक व्यवस्था थी, हर समय उपलब्धता थी। जब कभी भी नियत मार्ग से भिन्न गाँवों तक की यात्रा होती थी, अतिथि देवो भव का भाव प्रधान रहता होगा। लोग थोड़ा बहुत भोजन लेकर चलना अवश्य चलते थे पर शेष की अनिश्चितता तो फिर भी नहीं रहती थी।

कितना अच्छा वातावरण था तब पर्यटन या देश भ्रमण के लिये। लोग घूमते भी थे, कहीं भी पहुँचे तो रहने के लिये आश्रय और खाने के लिये भोजन। अतिथि को कभी ऐसा लगता ही नहीं था कि वह कहीं और आ गया है। तब घुमक्कड़ी का महत्व था, लोग मिलते रहते थे, ज्ञान फैलता रहता था। तीर्थ स्थान आधारित पर्यटन था, धर्मशाला, छायादार वृक्ष और आतिथ्य।

अब हमें न वैसा समय मिलेगा और न ही वैसा विश्वास। अब तो साथ में टेण्ट लेकर चलना पड़ेगा, यदि कहीं सोने की व्यवस्था न मिले। अब साथ में साइकिल भी रखनी पड़ेगी, यदि नगर के बाहर कहीं सुरक्षित स्थान पर रहना पड़े। अब साथ में थोड़ा बहुत खाना, सूखे मेवे, बिस्कुट आदि भी लेकर चलना होगा, यदि कहीं कोई आतिथ्य भी न मिले।

रेलवे के माध्यम से मुख्य दूरी तय करने के बाद स्थानीय दूरियाँ साइकिल से निपटायी जा सकती हैं। यदि पर्यटन स्थल के में ही साइकिल किराये पर मिल जाये तो १०० किमी की परिधि में सारे क्षेत्र घूमे जा सकते हैं, ५० किमी प्रतिदिन के औसत से। रेलवे के मानचित्र में रेलवे लाइन के दोनों ओर १०० किमी पट्टी में पर्यटन योग्य अधिकतम भूभाग मिल जायेगा, जो एक रात टेण्ट में और शेष ट्रेन में बिता कर पूरा घूमा जा सकता है।

कहीं भी मंगल हो जायेगा
अपने एक रेलवे के मित्र से बात कर रहा था, विषय था रेलवे की पटरियों के किनारों के क्षेत्रों में बिखरा प्राकृतिक सौन्दर्य। हम दोनों साथ में किसी कार्यवश बंगलोर से ७० किमी उत्तर में गये थे। एक ओर पहाड़ी, दूसरी ओर मैदान, मैदान में झील। अपना कार्य समाप्त करने के बाद हम दोनों अपनी शारीरिक क्षमता परखने के लिये पहाड़ी पर बहुत ऊपर चढ़ते चले गये। ऊपर से जो दृश्य दिखा, जो शीतल हवा का आनन्द मिला, वह अतुलनीय था। बहुत देर तक बस ऐसे ही बैठे रहे और प्रकृति के सौन्दर्य को आँकते और फाँकते रहे। बात चली कि हम कितने दूर तक घूमने जाते हैं, पैसा व्यय करते हैं, अच्छा लगता है, संतुष्टि भी मिलती है, पर रेलवे के पटरियों के किनारे सौन्दर्य के सागर बिखरे पड़े हैं, उन्हें कैसे उलीचा जाये। जिस खंड में भी आप निकल जायें, नगर की सीमायें समाप्त होते ही आनन्द की सीमायें प्रारम्भ हो जाती हैं।

तब क्यों न पटरियों के किनारे किनारे चल कर ही सारे देश को देखा जाये? हमारे मित्र उत्साह में बोल उठे। विचार अभिभूत कर देने वाला था, कोई कठिनता नहीं थी, दिन भर २५-३० किमी की पैदल यात्रा, सुन्दर और मनोहारी स्थानों का दर्शन, स्टेशन पहुँच कर भोजन आदि, पैसेन्जर ट्रेन द्वारा सुविधाजनक स्टेशन पर पहुँच कर रात्रि का विश्राम, अगले दिन पुनः वही क्रम। यदि टेण्ट और साइकिल आदि ले लिया तो और भी सुविधा। रेलवे स्टेशन के मार्ग में सहजता इसलिये भी लगी कि यह एक परिचित तन्त्र है और किसी भी पटरी से ७-८ किमी की परिधि में कोई पहचान का है।

क्या इस तरह ही पर्यटन गाँवों का पूरा संजाल हम नहीं बना सकते हैं, जिनका आधार बना कर सारे देश को इस तरह के पैदल और साइकिल के माध्यमों से जोड़ा जा सकता है। यदि बड़े नगर और उनके साधन हमारी आर्थिक पहुँच के बाहर हों तो उसकी परिधि में बसे गाँवों में पर्यटन गाँवों की संभावनायें खोजी जा सकती हैं। यदि स्थानीय यातायात के साधन मँहगे हों तो साइकिल जैसे सुलभ और स्वास्थ्यवर्धक साधनों से पर्यटन किया जा सकता है। तनिक कल्पना कीजिये कि कितना आनन्द आयेगा, जब पटरियों के किनारे, जंगलों के बीच, झरनों के नीचे, पहाड़ियों के बीच से, सागर के सामने होते हुये सारे देश का अनुभव करेंगे हमारे युवा। पर्यटन तब न केवल मनोरंजन के माध्यम से मानसिक स्वास्थ्य प्रदान करेगा वरन हमारे बौद्धिक और सांस्कृतिक एकता के आधार भी निर्माण करेगा।

पर्यटन के ऊपर मेरी सोच भले ही अभी व्यावहारिक न लगे पर इस प्रकार ही इसे विकसित करने से पर्यटन न केवल सर्वसुलभ हो जायेगा वरन अपने परिवेश में सारे देश को जोड़ लेगा। अभी पर्यटन में लगे व्यय को देखता हूँ तो लगता है कि पर्यटन भी सबकी पहुँच के बाहर होता जा रहा है, एक सुविधा होता जा रहा है। जिनके पास धन है, वे पर्यटन का आनन्द उठा पाते हैं, वे ही प्रारम्भ से अन्त तक सारे साधन व्यवस्थित रूप से साध पाते हैं। आज भले ही सुझाव व्यावहारिक न लगें, पर यदि पर्यटन को जनमानस के व्यवहार में उतारना है तो उसे सबकी पहुँच में लाना होगा।

ट्रेन की यात्रा, एक फोल्डेबल साइकिल, एक टेण्ट और सूखे मेवे। साथ में कुछ मित्र, थोड़ी जीवटता, माटी से जुड़ी मानसिकता, गले तक भरा उत्साह और पूरा देश नाप लेने का समय। बस इतना कुछ तो ही चाहिये हमें। यदि फिर भी स्वयं पर विश्वास न आये तो बार बार नीरज का ब्लॉग पढ़ते रहिये।

चित्र साभार - thereandbackagain-hendrikcyclessouth.blogspot.com

18.9.13

एप्पल - एक और दिशा निर्धारण

नया स्वरूप
जैसा कि पुरानी पोस्ट में संभावना व्यक्त की थी, एप्पल ने आईफ़ोन के दो मॉडल उतारे, पॉलीकार्बोनेट काया का आईफ़ोन 5सी व धातुकाया का आईफ़ोन 5एस। बहुत अच्छा किया कि इन दोनों में ही उसने अपने मुख्य मानक नहीं बदले, चार इंच की स्क्रीन रखी, ११२ ग्राम का भार और ३२६ पीपीआई की स्क्रीन स्पष्टता भी। बड़ी स्क्रीन व बढ़ी स्पष्टता के लिये बड़ा कोलाहल था, पर ये दोनों बैटरी निचोड़ने में अधिक और उपयोगिता में कम सिद्ध होने वाले थे, अतः इन्हें न बदल कर एप्पल ने अपना सशक्त पक्ष बनाये रखा है। जैसा सोचा था, बैटरी की क्षमता बिना भार बढ़ाये लगभग १० प्रतिशत बढ़ी है, पर उसकी तुलना में उससे बैटरी का समय नहीं बढ़ा है। यह अतिरिक्त बैटरी क्षमता, मोबाइल का समय न बढ़ा कर कहीं और सार्थक उपयोग में लायी गयी है, आइये उसके महत्व को समझते हैं।

एप्पल ने मुख्यतः तीन क्षेत्रों में बदलाव किये हैं। प्रोसेसर, कैमरा और सुरक्षा। अपनी छवि और नेतृत्व के अनुसार ये तीनों तकनीकी बदलाव मोबाइल क्षेत्र में सर्वप्रथम हैं, शेष अन्य मोबाइल बनाने वालों के लिये अनुकरणीय। अभी केवल आईफ़ोन से संबद्ध घोषणायें हुयी हैं पर इसके तन्तु आने वाले अन्य उत्पादों में भी झंकृत होते रहेंगे।

जो प्रोसेसर नये आईफोनों में आयेगा, वह ए७(A7) होगा। एक बात बताते चलें कि प्रोसेसर मोबाइल या कम्प्यूटर की आत्मा होता है और जो भी गणनायें या कार्य होते हैं, वह प्रोसेसर के माध्यम से ही होते हैं। यह जानना भी रोचक है कि जो भी प्रोसेसर होते हैं उन्हें एप्पल स्वयं ही डिजायन करता है और इस तरह से करता है कि हार्डवेयर और सॉफ़्टवेयर में समन्वय सम्पूर्ण रहे। इसकी विशेषता यह है कि यह ६४ बिट है। ६४ बिट तनिक तकनीकी शब्द है और जब मैंने अपना लैपटॉप को पुनः प्रतिष्ठित किया था, इस शब्द को समझाया था। आपको असुविधा न हो अतः पुनः इसे समझा देता हूँ।

हर प्रोसेसर में एक मेमोरी होती है जो सामान्य मेमोरी से भिन्न होती है। इस मेमोरी को रैम(RAM) कहते हैं। इसका प्रयोग भिन्न प्रोग्रामों को चलाने के लिये एक अस्थायी क्षेत्र की तरह से किया जाता है। जब कोई प्रोग्राम चलता है तो अपने को सुचारु रूप से चलाने के लिये वह रैम से ही मेमोरी छेंक लेता है। जब एक साथ कई प्रोग्राम चलते हैं तो सबके हिस्से की सम्मिलित मेमोरी कुल रैम से अधिक नहीं होनी चाहिये। यदि ऐसा होता है तो प्रोग्रामों के बीच होड़ मचेगी। तब या तो कुछ प्रोग्राम नहीं चलेगें, या चलेंगे तो धीरे चलेंगे। सरल प्रोग्राम कम रैम लेते हैं, वीडियो गेम जैसे प्रोग्राम या गणना प्रधान प्रोग्राम कहीं अधिक मेमोरी लेते हैं।

कितना कुछ है मुझमें
३२ बिट के प्रोसेसरों की रैम २ की ३२ घातों तक होती है और ४जीबी के पार नहीं जा पाती है। ६४ बिट के प्रोसेसरों में रैम १६ ईबी तक बढ़ाई जा सकती है। कहने का आशय यह कि प्रोग्रामों के लिये कई गुना अधिक मेमोरी उपस्थित रहेगी। इस बढ़ी हुयी मेमोरी का लाभ और अधिक उन्नत प्रोग्राम बनाने के लिये किया जा सकता है और वही एप्पल का उद्देश्य भी है। ६४ बिट के प्रोसेसर मुख्यतः लैपटॉप में लगाये जाते हैं, मोबाइलों में इसका प्रयोग प्रारम्भ कर एप्पल मोबाइल, टैबलेट और लैपटॉप के बीच के अन्तर की मिटाने पर उद्धत है। अपनी स्क्रीन के आकार के कारण मोबाइल भले ही लैपटॉप का स्थान न ले पाये, पर टैबलेट निश्चय ही लैपटॉप की समाप्ति के अन्तिम गीत गाने लगेंगे।

मोबाइल और टैबलेट में ६४ बिट का प्रोसेसर लाकर एप्पल ने पहल कर अपना आशय स्पष्ट कर दिया है, प्रतियोगियों के पास अब और कोई विकल्प नहीं है, सिवाय इसके कि वे भी अनुसरण करें। चित्रों और ग्रॉफिक्स के लिये भी एप्पल उच्चतम वर्तमान मानक लेकर आया है। यही नहीं ए७ के साथ में एक और उपप्रोसेसर एम७ भी होगा, जो मोबाइल से मापी जा सकने वाली शरीर की गतियों की गणना करेगा और वह भी मुख्य प्रोसेसर की ऊर्जा व्यर्थ किये बिना। यह उपप्रोसेसर स्वास्थ्य, चिकित्सा मनोरंजन आदि के क्षेत्रों में बनाये जाने वाले प्रोग्रामों के लिये आधारभूत संरचना तैयार करेगा। निश्चय ही यह मानवता के लिये अत्यन्त लाभदायक रहेग और इस क्षेत्र में सृजनात्मकता के वृहद विस्तार खोलेगा।

६४ बिट ए७ प्रोसेसर का एक व्यवसायिक कारण भी है। अभी तक एप्पल अपने मैक कम्प्यूटरों पर इन्टेल प्रोसेसर उपयोग में ला रहा है। इस विकास के बाद आने वाले मैकबुक एयर में यदि ए७ प्रोसेसर आ जाये तो कोई आश्चर्य नहीं होगा। जहाँ एक ओर इन्टेल प्रोसेसर अधिक बैटरी खाता है, वरन आकार में बड़ा भी है। साथ ही साथ बाह्य निर्भरता के कारण मैकबुक के हार्डवेयर और सॉफ़्टवेयर पक्ष में अधिक समन्वय की संभावना नहीं मिल पायी है। भविष्य के संकेत माने तो आने वाले समय में मैकबुक का आकार घटेगा, मूल्य कम होगा, भार कम होगा, सॉफ़्टवेयर अधिक उत्पादक होंगे और सबसे महत्वपूर्ण यह होगा कि बैटरी का समय २४ घंटे तक हो सकता है। इसे लेकर न केवल एप्पल उत्साहित है वरन तकनीकविदों में भी सुखद भविष्य की आशा का संचार है।

एप्पल ने आईओएस६ (iOS6) से ही लैपटॉप व मोबाइल के ओएस की दूरियाँ कम करना प्रारम्भ कर दिया था। आईओएस७ से यह कार्य और आगे बढ़ने वाला है जिससे लैपटॉप व मोबाइल में किये गये कार्य में कोई भिन्नता न हो और उपयोगकर्ता का अनुभव एक सा ही रहे।

यद्यपि कैमरे का मेगापिक्सल ८ ही रखा गया गया है, पर चित्रों की गुणवत्ता के क्षेत्र में तीन प्रमुख उन्नत विकास किये गये हैं। पहला लेन्स का आकार बढ़ाया गया है जिससे दृश्यों से सेन्सरों पर अधिक प्रकाश पहुँचे और चित्रों की गुणवत्ता बढ़े। दूसरा सेन्सरों का आकार लगभग २० प्रतिशत बढ़ा दिया है जिससे वे अधिक फोटॉन्स ग्रहण कर सके और स्पष्ट चित्र बन सकें। तीसरा फ़्लैश के प्रकाश का रंग वातावरण के रंग जैसा हो जाये जिससे दृश्यों की यथार्थता चित्रों में आये, न कि कोई तीसरा और भिन्न रंग। इसके अतिरिक्त सामर्थ्यशाली प्रोसेसर का लाभ उठाते हुये, एक साथ कई चित्र, उनका त्वरित संपादन और उन्नत निष्कर्ष, जिससे आप एक सिद्धहस्त फ़ोटोग्राफ़र की तरह चित्र खींच सकें।

सुरक्षा के क्षेत्र में फ़िंगरप्रिंट को मोबाइल खोलने व धनविनिमय का माध्यम बना देने से मोबाइल पहले से कहीं सुरक्षित हो चले हैं। अब कोई आपका मोबाइल नहीं चुरा पायेगा क्योंकि किसी चोर के लिये वह मोबाइल कभी खुलेगा ही नहीं। फ़िंगरप्रिंट से संबंधित तथ्य कहीं और न संरक्षित रह कर प्रोसेसर के अन्दर संरक्षित रहेंगे। इससे मोबाइल सुरक्षा की दीवार और भी ऊँची हो जायेगी और मोबाइल चोरी होना एक पुरानी कहानी सा हो जायेगा।

अपनी छवि के अनुसार एप्पल ने तकनीक के तीन अध्याय खोल दिये हैं। इस बार भी उपयोगकर्ताओं के सतही माँगों के बाजार को नकारते हुये, तकनीक पर स्वयं को केन्द्रित रखा है। १० सितम्बर को हुयी घोषणायें आने वाले कई वर्षों की दिशा निर्धारण की क्षमता रखती हैं, पूरे मोबाइल, टैबलेट और लैपटॉप के क्षेत्र के लिये।

14.9.13

पर्यटन - स्थानीय पक्ष

एक बार आपकी यात्रा पूरी होती है तो अगली चिन्ता होती है, रुकने की। किसी स्थान में ठहरने का उद्देश्य तीन बातों के लिये होता है, पहला स्नानादि के लिये, दूसरा विश्रामादि के लिये और तीसरा अपना सामान रखने के लिये। नीरज बहुधा अपनी यात्राओं में ये पहले दो कार्य टाल जाते हैं और यदि सामान अधिक हो तो तीसरे के लिये क्लॉक रूम का सहारा लेते हैं। सही भी है, जब दिन भर पर्यटन में ही व्यतीत करना हो तो होटल आदि में व्यय क्यों? जब दो घंटे से अधिक भी उस स्थान पर नहीं बिताना है, तो दिन भर के लिये उसे क्यों आरक्षित करना और दिन भर का किराया क्यों देना? एक दिन में घूमे जा सकने वाले स्थानों में सुबह की ट्रेन से आकर सायं की ट्रेन से जाया जा सकता है। अब प्रश्न दो हैं, कहाँ तैयार हों और थोड़ा थक जाने की स्थिति में कहाँ िवश्राम करें?

अपने १७ वर्षों के रेलवे कार्यकाल में मैंने कई जीवटों को देखा है। सुबह नित्यक्रिया ट्रेन में ही, गंतव्य में उतर कर ट्रेन में पानी भरने वाले पाइपों में स्नान, रेलवे प्लेटफार्मों में विश्राम, क्लॉक रूम में सामान, लीजिये बच गया होटल का अपव्यय। तनिक और सकुचाये लोग प्रतीक्षालयों में स्नानादि करते हैं और वहीं पर विश्राम भी। झाँसी या राउरकेला के स्टेशनों पर सुबह के तीन बजे आप चले जाइये, आपको स्टेशनों में पाँव धरने का स्थान नहीं मिलेगा, सुबह की ट्रेनों से कहीं जाने वाला सारा जनमानस रेलवे के प्लेटफ़ार्मों पर ही रात से आकर सो जाता है। इसमें बहुधा लोग अपनी जीविका के लिये जाने वाले निर्धनजन होते हैं, पर बहुत से घुमक्कड़ों के लिये इस प्रकार की घुमक्कड़ी कोई आश्चर्य की बात नहीं है?

आप में बहुतों को ज्ञात होगा कि रेलवे में वातानुकूलित प्रथम श्रेणी के कोच के चार बॉथरूमों में एक में स्नान की व्यवस्था भी रहती है। मैंने कई बार उसका उपयोग किया भी है, अत्यधिक सुविधाजनक है वह। हाँ, उतने आनन्द से तो नहीं नहा सकते हैं जितने घर में या नदी में नहाते हैं पर शुचिता की दृष्टि से बहुत उपयोगी सुविधा है। यदि पूरी तरह से तैयार होकर ही निकला जाये तो गंतव्य में न जाने कितना समय बचाया जा सकता है। कई बार ऐसे ही समय बचाया है। अभी कुछ दिन पहले एक सलाह मिली थी कि यदि रेलवे अन्य कोचों में इसी तरह स्नान की व्यवस्था कर दे तो न जाने कितना समय बचाया जा सकता है, चाहे तो इसके लिये पैसा भी लिया जा सकता है। यदि यह व्यवस्था की जा सके तो प्रातः शीघ्र ट्रेन पहुँचाने की आवश्यकता कम हो जायेगी, किसी स्थान पर पहुँचने वाली ट्रेनों के लिये सुबह ५ बजे से ११ बजे तक का सुविधाजनक कालखण्ड मिल जायेगा। यदि यह भी संभव न हो सके तो स्टेशन में ही बस तैयार होने के लिये सुविधा की व्यवस्था कर दी जाये, बस १ घंटे के लिये, शुल्क सहित। वह एक होटल के व्यय से बहुत कम पड़ेगा। घुमक्कड़ों और घुमक्कड़ी के लिये इससे अधिक बचत का कोई साधन तब हो ही नहीं सकता।

इस तरह का मितव्ययी साधन होने के बाद भी बहुतों को भागादौड़ी में आनन्द नहीं आता है। किसी स्थान पर पहुँचने के बाद थोड़ा सुस्ताना अनिवार्य हो जाता है। उन पर्यटकों के लिये भी रेलवे स्टेशन से कहीं दूर पर होटल में जाकर ठहरना तनिक कष्टकर हो जाता है। कई लोगों को यदि रेलवे स्टेशनों के रिटायरिंग रूम में रहने को मिल जाये, तो वे दूर जाकर रहना नहीं चाहते। स्टेशन पर स्थानीय यातायात के सारे साधन रहते हैं, भोजन की व्यवस्था रहती है, इस दृष्टि से देखा जाये तो किसी भी होटल की तुलना में रेलवे के रिटायरिंग रूम अधिक सुविधाजनक हैं। लोगों ने दो और सुविधायें मुझे बतायीं, जिन पर सामान्यतः रेलवे में कार्य करने वालों का ध्यान नहीं जाता है। पहली यह कि रात में कभी भी ट्रेन पहुँच जाये, उतर कर सीधे विश्राम किया जा सकता है, रात में नींद में अधिक व्यवधान नहीं पड़ता है। दूसरा यह कि किसी ट्रेन को पकड़ने के लिये प्लेटफार्म पर बहुत पहले से नहीं आना पड़ता है, समय की बचत होती है और किसी भी समय ट्रेन हो, पर्यटन की सततता बनी रहती है।

होटल में जाने से यात्रा के स्तरों की संख्या बढ़ जाती है। किन्हीं भी दो स्तरों के बीच में समय व्यर्थ होता है, धन व्यय होता है और अनिश्चितता भी बनी रहती है। बैंगलोर का ही उदाहरण लें। रात्रि में ८ बजे के बाद ऑटो का किराया दुगना हो जाता है, इस कारण से रात्रि में जाने वाली ट्रेनों के यात्री सायं से ही स्टेशन पर आकर जम जाते हैं, इसमें बहुत समय व्यर्थ हो जाता है। वैसे मैनें कई युवाओं को अपना लैपटॉप खोल कर कार्य करते हुये देखा है, पर जिस निश्चिन्तता से वह रिटायरिंग रूम में कार्य कर सकते हैं, भरी भीड़ में कर पाना संभव नहीं है। यद्यपि रेलवे में इस प्रकार के यात्रियों के लिये एयरपोर्ट जैसे आधुनिक सुविधाओं से युक्त प्रतीक्षालय बहुत उपयोगी सिद्ध हो रहे हैं, पर फिर भी रिटायरिंग रूम से अधिक सुविधाजनक कुछ और नहीं पाया है। जहाँ कहीं भी सरकारी विश्रामगृह की सुविधा नहीं रहती है, मैं भी रिटायरिंग रूम में ही रुकता हूँ।

जब भी हम यात्रा की योजना बनाते हैं, सदा ही ऐसी ट्रेनें ढूँढते हैं जो सायं ६ से ९ के बीच चले और सुबह ५ से ८ बजे के बीच पहुँच जाये। उस समय हम उन ट्रेनों को छोड़ देते हैं जो या तो रात में चलती हैं या रात में पहुँचती हैं। कारण बस यही रहता है कि इतनी रात में स्टेशन से उतर कर कहाँ जायेंगे? यदि थोड़ा ध्यान दिया जाये और स्टेशन पर अल्पकालिक या दिन भर रहने की व्यवस्था मिल रही हो तो उन ट्रेनों में भी यात्रा असुविधाजनक नहीं रहेगी। तब सुविधाजनक दिखने वाली ट्रेनों की भीड़ ऐसी ट्रेनों में भी आरक्षण ढूँढने का प्रयास करेगी। स्टेशनों पर गतिविधि का कालखण्ड बढ़ेगा, व्यस्त समय की भीड़ नियन्त्रित होगी, उतने ही रेलवे संसाधनों में अधिक लोग यात्रा कर सकेंगे।

जो यात्रियों की सुविधाजनक मानसिकता होती है, उसी के अनुसार रेलवे अपनी समय सारिणी भी बनाती है। प्रथम दृष्ट्या, उन ट्रेनों के प्रस्ताव पर विचार तक नहीं होता है जो देर रात को चलें या देर रात को पहुँचें। ऐसा होने से सारा का सारा दबाव सुबह और सायं की ट्रेनों में पड़ने लगता है और बहुधा ही संसाधनों के अभाव में नयी ट्रेन का प्रारम्भ हो ही नहीं पाता है। यदि स्टेशन स्थिति रिटायरिंग रूमों को यात्रा का एक अभिन्न अंग मान कर योजना बनायी जायेगी तो रात्रि में न केवल ट्रेनों का संचालन किया जा सकेगा वरन व्यस्त समय के अतिरिक्त और लोगों को ट्रेन सुविधा का लाभ दिया जा सकेगा। ट्रेनें वैसे तो २४ घंटों दौड़ती हैं पर वाह्य परिवेश से असमयीय संपर्क के कारण रात के समय का उपयोग बड़े स्टेशनों पर नहीं कर पाती हैं। रिटायरिंग रूम की व्यवस्थायें व्यर्थ जा रहे समय के संसाधन का सदुपयोग कर सकती है और न केवल पर्यटकों को सुविधा वरन रेलवे की आय में भी वृद्धि कर सकती है।

कुछ छोटी सुविधायें स्टेशनों की व्यस्तता को विस्तारित कर अधिक ट्रेनों और यात्रियों को रेलवे तन्त्र में समाहित करती है और ही साथ यात्रियों और पर्यटकों को कहीं अधिक सुविधाजनक अनुभव भी प्रदान करती हैं। बंगलोर का अनुभव पुनः लेता हूँ, यहाँ पर रात्रि के ५ घंटे पूरा सन्नाटा रहता है,वहीं दूसरी ओर सुबह और सायं के समय ट्रेनों और यात्रियों के लिये प्लेटफार्मों का अभाव हो जाता है। जिस प्रकार से बंगलोर के लिये ट्रेनें चलाने के लिये माँग है, उसकी दृष्टि से देर सबेर रेलवे इन छोटी छोटी सुविधाओं को बड़े स्तर पर जुटाने का प्रयत्न करने वाला है, अधिक को समाहित करने हेतु, अधिक सुविधा हेतु और अधिक आय हेतु। इस प्रक्रिया में पर्यटन भी लाभान्वित पक्षों में उभरेगा।

आइये अब स्थानीय साधनों के बारे में चर्चा करते हैं। एक उदाहरण मैं अपने मित्रों को बहुधा देता हूँ। किसी साधारण श्रेणी से दिल्ली जाने वाले कि लिये, जिसके पास थोड़ा सामान भी है, पूरी यात्रा में उसका धन किस तरह से व्यय होता है? लगभग १० किमी की दूरी से ऑटो से आने में २०० रुपये, क़ुली को २०० रुपये और दिल्ली तक का टिकट भी २०० रुपये। एक आश्चर्य का भाव आता है सुनने वालों में, पर यह शब्दों सत्य है। हमारे पर्यटनीय बजट का बड़ा भाग स्थानीय साधनों पर न्योछावर हो जाता है। नीरज जैसी घुमक्कड़ी के लिये इतना धन स्थानीय साधनों में व्यर्थ कर पाना सबके लिये संभव नहीं। कोई न कोई साधन तो ढूँढना ही पड़ेगा जिससे देश के विस्तार का पूरक भाग मापा जा सके। मेरी दृष्टि में वह साइकिल है।

पिछली पोस्टों में मैंने अपने एक वरिष्ठ अधिकारी के बारे में बताया था जो ट्रेन में भी अपनी मोटरसाइकिल लेकर चलते थे। मैं उन वरिष्ठ अधिकारी की तरह मोटर साइकिल से तो नहीं चल पाऊँगा, किन्तु साइकिल साथ में ले जाने का विचार सदा ही मन में रहा है। साइकिल भी बहुत बड़ी नहीं। यदि साइकिलों के बारे में तनिक शोध करें इण्टरनेट पर तो १२ किलो तक की साइकिलें आती हैं जो अपनी सीट के नीचे मोड़ कर रखी जा सकती है। किसी भी स्थान पर पहुँच कर उसे सरलता से खोला जा सकता है और स्थानीय स्थल ही नहीं वरन ६०-७० किमी के पर्यटन बिन्दु नापे जा सकते हैं।

मुझे यूरोप के वे नगर बहुत अच्छे लगते हैं, जहाँ पर साइकिल का उपयोग प्रमुखता से किया जाता है और उसे समुचित प्रोत्साहन भी मिलता है। गूगल बाबा आपको ऐसे नगरों की सूची पकड़ा देंगे। जिस प्रकार से प्रदूषण और यातायात से कण्ठ और पंथ अवरूद्ध होता है, भविष्य साइकिलों का आने वाला है। जितना संसाधन और प्रदूषण इस क़दम से बढ़ सकता है, उसे देखते हुये वहाँ के प्रशासन ने निशुल्क साइकिलों की व्यवस्था कर रखी है। भारतीय नगरों में तो निशुल्क साइकिलें बहुत दूर की सोच हैं, पर घुमक्कड़ी के लिये हल्की व उन्नत साइकिलें वरदान हैं।

जब हम रेलवे स्टेशनों से निकल कर पर्यटकीय अन्तस्थल में बढ़ चुके हैं, साइकिल, टेण्ट और आतिथ्य की विमायें प्रमुख हो जाती हैं। अगली पोस्ट पर इन तीनों पर चर्चा।

11.9.13

पर्यटन - रेल अपेक्षायें

रेलवे और पर्यटन पर कहीं भी विचार विमर्श होता है तो कई बाते हैं जो सदा ही सुनने को मिलती हैं। बहुधा बहुत अधिक सुनना पड़ता है, कभी सुझाव के रूप में, कभी उलाहना के रूप में, कभी शिकायत के रूप में, कभी उग्र तर्क के रूप में। सुनना कभी भी हानि नहीं करता है, यदि आप उसे हृदय तक न ले जायें। सुनना आपको भले ही व्यक्तिगत रूप से कचोटे पर एक संस्था को सुनने से लाभ ही होता है। जब भी मैं सुनता हूँ, एक संस्था के सदस्य के रूप में सुनता हूँ, ग्रहणीय सुझाव मस्तिष्क में वहन करता हूँ, क्रोध मन से सहन करता हूँ।

उन बातों में जो सार निकलता है, वह इस प्रकार का ही रहता है। सबसे पहली समस्या तो आरक्षण की, उसके बाद टिकट मिलने में व्यर्थ हुआ समय, सुविधाओं का अभाव, व्यवस्थाओं की कमी और संवेदनाओं का अभाव। अपेक्षाओं और प्रयासों में दूरी है, किसी तरह आवश्यकताओं तक ही प्रयास पहुँच पा रहे हैं, वह भी न्यूनतम आवश्यकताओं तक। प्रस्तुत पोस्ट में अन्य विषयों पर विस्तृत चर्चा न कर पर्यटन से संबंधित पक्ष ही उठाऊँगा। जितना संभव हो सके, चर्चा को आदर्शवादी स्थितियों से न जोड़कर व्यवहारिक ही रखूँगा।

इस बार की मुक्तकण्ठ से और त्वरित प्रशंसा होती है कि रेलवे में यात्रा करने से कभी भी जेब पर अधिक भार नहीं पड़ता है औऱ कम पैसों में एक जनसुलभ साधन दे पा रही है, भारतीय रेल। पर आरक्षित सीटों की उपलब्धता की कमी ही एकमात्र ऐसा कारक है जो बहुधा कृत्रिम माँग बढ़ाकर दलालों को अधिक धन उगाहने का अवसर दे देता है। बात सच है और अनुभव पक्ष कठिनाइयों से भरा रहता है।

वर्ष में तीन या चार ऐसे अवसर आते हैं, जब यात्रा सर्वाधिक होती है। उस समय सबको अवकाश मिलता है, बच्चों के विद्यालयों में भी तभी छुट्टी मिलती है, उसी समय सबको घर जाने की और घूमने जाने की सूझती है। यद्यपि उस समय रेलवे के सारे कोच सेवा में लगे होते हैं, फिर भी माँग बनी रहती है, बढ़ी रहती है। स्वाभाविक भी है, जब सारा देश घूमने पर उतर आयेगा तो संसाधन भी कम पड़ जायेंगे। किसी भी तन्त्र की योजना उसके अधिकतम भार के लिये नहीं बनाई जा सकती, यदि ऐसा होगा तो शेष समय संसाधन व्यर्थ पड़े रहेंगे।

इन तीन या चार अवसरों को छोड़ दिया जाये तो अधिकांश मार्गों में आरक्षण की उपलब्धता कोई समस्या नहीं है। यदि पर्यटन को वर्ष में अन्य समय के लिये भी किया जाये तो न केवल पर्यटकों को सुविधा रहेगी वरन रेलवे वर्ष में अधिक लोगों को सेवा दे पायेगी, अपनी व्यर्थ जा रही क्षमता का समुचित उपयोग कर पायेगी। जो सिद्धान्त रेलवे के लिये सच है, वही पर्यटन के अन्य अंगो के लिये भी सटीक बैठेगा। होटल हो, स्थानीय साधन हो, मनोरंजन के अंग हों, सबको ही पर्यटन का काल खंड बढ़ने से लाभ होगा।

यद्यपि जब किसी पर्यटन स्थल पर भीड़ होती है तो मन को वहाँ आने की और अपने निर्णय को सही ठहराने की संतुष्टि होती है, पर अधिक भीड़ में पर्यटन स्थल अपना आनन्द छिपा लेता है, पूर्ण प्रकट नहीं कर पाता है। यदि समुद्र तट में अधिक लोग हैं तो जहाँ प्रारम्भ में अच्छा लगेगा, वहीं बाद में एकान्त में समुद्र की लहरों को न देख पाने का दुख भी रह जायेगा। कई व्यवसायी परिवारों को जानता हूँ, जो अपने पर्यटन की योजना ऐसे समय में ही बनाते हैं जब भीड़ न हो। रेलवे में आरक्षण मिलता है, होटल सस्ते में मिल जाते हैं, खेल खिलाने वाले राह तकते रहते हैं और पूरे परिवार को पर्यटन का पूर्ण आनन्द भी आता है। नीरज भी ऐसे ही समय में पर्यटन पर निकलते है, अभी वह अकेले हैं, पर मुझे पूरा विश्वास है कि परिवार के साथ होने पर भी वह इस सिद्धान्त को नहीं छोड़ेंगे।

अधिक नहीं, बस विद्यालय और कार्यालयों की ओर से पर्यटन के महत्व और इस सिद्धान्त को समझा जाये। ५ दिन की छुट्टी और दो सप्ताहान्त मिला कर ९ दिन का पर्यटन अवकाश का अवसर मिलना चाहिये, जिससे लोग सपरिवार पर्यटन पर जा सकें, बिना किसी समस्या के, वर्ष में किसी भी समय। विद्यालयों की ओर से सामूहिक यात्रा भी वर्ष के कम व्यस्त माहों में करनी चाहिये, हो सके तो हर कक्षा के लिये अलग माह में। देश जानने के लिये और ज्ञान बढ़ाने की दृष्टि से हर विद्यालय के लिये ९ दिवसीय पर्यटन अनिवार्य हो, और न केवल अनिवार्य हो, वरन उसका शैक्षणिक विभाग व मन्त्रालय उसमें अपना अनुदान दें, कम से कम ८० प्रतिशत। इससे विद्यार्थियों को एक वर्ष में पर्यटन के दो अवसर मिलेंगे, एक बार मित्रों के साथ, एक बार परिवार के साथ। उस पर्यटनीय अनुभव में उन्हें आनन्द भी आयेगा और साथ ही साथ रेलवे की आय में वृद्धि भी होगी।

तनिक सोचिये, यदि हम व्यस्त समय की विवशताओं को मात देकर किसी अन्य समय में घूमने की योजना बना सकें तो रेलवे के पास एक सीट क्या, पूरे के पूरे कोच की उपलब्धता रहेगी। तनिक सोचिये, तब कितना आनन्द आयेगा, जब सारे मित्र एक पूरे कोच में आनन्द मनाते, गीत गाते, साथ में खेल खेलते पर्यटन का प्रारम्भ और अन्त करेंगे। यह अनुभव पर्यटन को एक अविस्मरणीय स्थिति पर ले जायेगा। व्यस्त समय की समस्यायें, अन्य समय का आनन्द भी बन सकती हैं।

रेलवे यात्रा के समय अच्छा व स्वास्थ्यकारी भोजन एक बड़ा प्रश्न रहता है और बहुधा रुष्ट चर्चाओं का केन्द्र भी। लम्बी यात्राओं में यह प्रश्न और भी महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि चार या पाँच बार भोजन आदि करना होता है। कुछ के लिये भोजन अधिक चटपटा, कुछ के लिये अधिक फीका, कुछ के लिये स्वाद रहित, कुछ के लिये अपौष्टिक, कुछ के लिये शुचिता और स्वच्छता से न बना। मुझे कम मसाले का सादा भोजन अच्छा लगता है, मिर्च तो जैसे भय उत्पन्न कर देती हो। लगभग हर बार ही भोजन की पूरी थाली में चावल और दही में संतोष करना पड़ जाता है क्योंकि पैन्ट्रीकारों के रसोइयों को बिना चटपटा खाना बनाये अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने का मार्ग नहीं मिलता है। अपने सहयात्रियों को भी देखता हूँ, यद्यपि छुट्टी के भाव में सभी रहते हैं पर उल्टा सीधा खाकर कोई भी अपना स्वास्थ्य बिगाड़ना नहीं चाहता है। यात्रा में एक ही स्थान पर तैयार हुआ खाना सबको अच्छा लगेगा, इस बात की प्रायिकता बहुत ही कम है। स्वाद और स्वास्थ्य के मानक में हर एक की भोजनीय अभिरुचि भिन्न है।

जिस भोजन में आप स्वाद या स्वास्थ्य ढूंढ़ते हैं, उसी भोजन में व्यवसायी अपना आर्थिक लाभ भी ढूँढता है। यद्यपि भोजन की मात्रा आदि सब निर्धारित होता है, पर अधिक आर्थिक लाभ निचोड़ लेने की मानसिकता गुणवत्ता से समझौता करवा देती है। वहाँ भोजन बाँटने का अधिकार एक ठेकेदार के ही पास है, विवशता का यथा संभव आर्थिक लाभ लेने की प्रवृत्ति इतनी सरलता से जाने वाली नहीं। शिकायतों के निस्तारण में भोजन के स्वाद, स्वास्थ्य और गुणवत्ता संबंधी मानक असिद्ध ही रह जाते हैं।

अधिकांश यात्री कम से कम एक समय का भोजन और एक समय का नाश्ता अपने साथ लेकर चलते हैं। घर का खाना ट्रेन यात्रा में अच्छा लगता है। मैँ भी यही करता हूँ। रेलयात्रा में ही क्यों वरन हवाईयात्रा में लोग अपने घर से लाये पराँठे और अचार खाते हैं। देश के हर क्षेत्र में यात्रा करने वालों के पास अपने अपने व्यंजन हैं जो दो तीन दिन से अधिक संरक्षित किये जा सकते हैं। बिहार में लिट्टी चोखा, उत्तर भारत में सत्तू, राजस्थान और गुजरात में तो दसियों ऐसे व्यंजन हैं, जो स्वादिष्ट हैं, पौष्टिक हैं और संरक्षित भी किये जा सकते हैं। उन्हें यात्रा में ले जाने से बाहर के खाने पर निर्भरता बहुत कम रहेगी। इसके अतिरिक्त रेलवे को भी यह चाहिये कि ट्रेनों में प्रस्तावित भोजन की सूची में उन ही व्यंजनों को ही रखा जाये, जो न केवल बनाने में सरल हों वरन स्वाद और स्वास्थ्य की दृष्टि से उत्तम हों। यही नहीं, मोबाइल या इण्टरनेट आधारित साधन भी विकसित किये जा सकते हैं, जिससे बाहर के भी भोजन बनाने वालों को किसी ट्रेन में भोजन आपूर्ति की सुविधा मिल सके। इन उपायों से पर्यटन का अनुभव पक्ष और भी सुखद व रुचिकर होगा।

नीरज अपने साथ कुछ बिस्कुट आदि सदा लेकर चलते हैं, यदि कहीं भोजन न मिले तो उस पर आश्रित रह लिया जाये। व्यवसायियों के लिये भी पर्यटन-व्यंजन एक संभावनाओं का क्षेत्र है। एक पूरी की पूरी फ़ूड चेन बनायी जा सकती है, इसके ऊपर। आप चिन्तन में जुटिये, अगली पोस्ट में स्टेशनों पर उन सुविधाओं की चर्चा जो पर्यटन के स्थानीय पक्षों को सुदृढ़ करने में सक्षम हैं।

7.9.13

अगला एप्पल कैसा हो

जब कभी भी एप्पल का नया उत्पाद आने वाला होता है, अपेक्षाओं की एक लम्बी सूची बन जाती है। हो भी क्यों न, किसी भी क्षेत्र में नायकों से यह आशा अवश्य रहती है कि तकनीक के अग्रतम शोधों के निष्कर्ष हमारे हाथों में होंगे। हर बार बात घूम फिर के तीन चार मानकों पर ठहर जाती है। उन्हीं के आधार पर बहसें होती हैं, बहसें क्या विधिवत युद्ध होते हैं, दो तीन मुख्य पाले रहते हैं। अब १० सितम्बर को निष्कर्ष चाहे जो निकले, पर उत्पाद आने के एक माह पहले से ज्ञानचक्षु इतने खुलने लगते हैं कि मन करता है कि एक शोधपत्र ही लिख डालें। शोधपत्र तो नहीं पर उन मानकों की चर्चा अवश्य होनी चाहिये, जो हम सबको समझ में आते हैं और हमारे उपयोग को प्रभावित भी करते हैं।

डेक्सटॉप, लैपटॉप, टैबलेट और मोबाइल, यही चार प्रमुख श्रेणियाँ हैं। डेक्सटॉप अब बीते समय की चीज़ होने वाली है और उसका उपयोग सीमित और विशिष्ट रह गया है। उसमें तकनीकी विकास तो हो रहा है पर वह चर्चा का विशेष बिन्दु नहीं। लैपटॉप में मैकबुक एयर ने पहले ही हल्केपन और बैटरी समय के सशक्त मानक स्थापित कर दिये है और शेष लैपटॉप निर्माता उसी का अनुसरण कर रहे हैं। दो साल पहले एक किलो का मैकबुक एयर लिया था, अभी तक उस मूल्य में उतना हल्का और उतनी अधिक बैटरी समय का कोई और लैपटॉप नहीं दिखा है।

संघर्ष केवल दो श्रेणियों में रह जाता है, टैबलेट और मोबाइल। अपेक्षाओं के बादल इन्हीं दो के ऊपर सर्वाधिक मँडराते हैं। आईपैड मिनी आने के बाद आईपैड पर उत्सुकता कम हो चली है। बहस आईपैड मिनी और आईफ़ोन के नये मॉडलों पर केन्द्रित हो चुकी है। तकनीक की श्रेष्ठता वैसे भी छोटे आकार में अधिक क्षमता भरने की होती है। इस पोस्ट में उन क्षमताओं और उनके तकनीकी पक्ष पर ही चर्चा सीमित रहेगी।

एप्पल के उत्पाद गुणवत्ता के साथ ही साथ अपने अधिक मूल्य के लिये भी जाने जाते हैं, लोग चाहकर भी उन्हें नहीं ख़रीद पाते हैं, यही उसकी आलोचना और प्रतियोगी उत्पादों की ओर मुड़ जाने का प्राथमिक आधार है। खोजीं पत्रकार बताते हैं कि एप्पल इस बार आईफ़ोन ५सी के नाम से नया मॉडल लाने वाला है जिसकी काया प्लास्टिक की होगी। एप्पल अपनी गुणवत्ता की छवि को कितना खोयेगा, क़ीमत कितनी कम करेगा और किन किन मानकों पर समझौता करेगा, इस बारे में ढेरों संभावनायें व्यक्त की जा रही हैं। आईफ़ोन इस क़दम से कितनी पहुँच बढ़ा पायेगा, यह १० सितम्बर को ही पता चलेगा, पर श्रेष्ठता के अन्य मानकों पर एप्पल अपने आप को कितना सिद्ध करता है यह उसकी विशिष्ट तकनीकी क्षमताओं को प्रदर्शित करेगा। पहले आईफ़ोन और फिर आईपैड मिनी का विश्लेषण करते हैं।

४ इंच की स्क्रीन, ११२ ग्राम भार, ३२६ पीपीआई की स्क्रीन स्पष्टता और लगभग ८ घंटे की बैटरी पर पहुँचने के बाद आईफ़ोन ५ के मॉडल में कुछ अधिक जोड़ पाने की संभावना नहीं दिखती है। प्रतियोगिता में सैमसंग का गैलैक्सी एस४ (५ इंच की स्क्रीन, १३० ग्राम भार, ४४१ पीपीआई और १६ घंटे की बैटरी) है और एचटीसी वन(४.७ इंच की स्क्रीन, १४३ ग्राम भार, ४६९ पीपीआई और १२ घंटे की बैटरी) है। जहाँ दोनो प्रतियोगी स्क्रीन की आकार, स्पष्टता और बैटरी में श्रेष्ठ हैं, वहीं उनका आकार और भार भी बढ़ा हुआ है। प्रश्न यह है कि एप्पल को अपने प्रतियोगियों की नक़ल करनी चाहिये या अपने मानक स्वयं नियत करने चाहिये, विशेषकर उन क्षेत्रों में जिसमें वह सशक्त है।

यदि स्क्रीन का आकार बड़ा होगा तो अधिक बैटरी खायेगी, यदि स्पष्टता अधिक होगी तब भी अधिक बैटरी का उपयोग होगा। अधिक बैटरी के लिये न केवल भार बढ़ेगा वरन आकार भी बढ़ेगा। यदि स्क्रीन का आकार और पीपीआई आवश्यकतानुसार निर्धारित कर दें तो मोबाइल का भार न्यूनतम किया जा सकता है। तीनों फ़ोन उठाकर देखे हैं, उपयोग की सहजता में आईफ़ोन५ का कोई प्रतियोगी नहीं। उसे एक हाथ से न केवल पकड़ सकते हैं वरन अँगूठे से टाइप भी कर सकते हैं। साथ ही वह पतला इतना है कि कहीं पर भी सरलता से समा जाता है।

मुझे नहीं लगता है कि एप्पल अपने प्रतियोगियों की नक़ल करने में अपने इस सशक्त पक्ष को खोना चाहेगी। स्क्रीन के आकार में ४ इंच के ऊपर जाने में कोई विशेष लाभ नहीं दिखता है, बड़े आकार के फ़ोन न केवल भद्दे लगते हैं वरन अनुभव में भी कुछ लाभ नहीं देते हैं। फ़ोन के प्राथमिक कार्यों के अतिरिक्त वेब के पेज बड़े देखने में, गेम खेलने में और वीडियो देखने में ही बड़ी स्क्रीन का उपयोग है। शेष सारे कार्य ४ इंच की स्क्रीन से भलीभाँति सम्पादित होते हैं। २८७ पीपीआई की स्पष्टता जिसे रेटिना डिस्प्ले भी कहते हैं, उसके ऊपर की स्पष्टता को आँख अन्तर नहीं कर पाती है। मुझे नहीं लगता है कि आईफ़ोन को वर्तमान ३२६ पीपीआई से ऊपर ले जाने का कोई भी प्रयास होगा।

अब शेष रहे भार और बैटरी, एप्पल अपनी तकनीकी शोधों और श्रेष्ठता का उपयोग या तो आईफ़ोन का भार कम करने में या बैटरी बढ़ाने में करेगा। वह जो भी करेगा और जितना करेगा, अपने प्रतियोगियों से उतनी बढ़त बना लेगा।

चार क्षेत्र हैं, जिनमें किये गये तकनीकी शोध एप्पल को लाभ पहुँचा सकते हैं। पहला है स्क्रीन की मोटाई और कम करना, दूसरा है नये तरह की बैटरी की तकनीक लेकर आना, तीसरा है प्रोसेसर और रेडियो एन्टेना की ऊर्जा की खपत कम करना और चौथा है सॉफ़्टवेयर को सरलीकृत कर व्यर्थ होने वाला समय और ऊर्जा बचाना। चारों का उपयोग कर भार कम किया जा सकता है और बैटरी का समय बढ़ाया जा सकता है। इन शोधों से न केवल आईफ़ोन लाभान्वित होगा वरन आईपैड मिनी भी अपने प्रतियोगियों से आगे निकलेगा।

आईपैड मिनी का प्रमुख प्रतियोगी नेक्सस७ है। ७.९ इंच की स्क्रीन, ३०८ ग्राम भार, १६५ पीपीआई और १२ घंटे की बैटरी पर आईपैड मिनी के पास अपनी स्क्रीन की स्पष्टता बढ़ाने का अवसर भी है। मुझे डर है कि कहीं पीपीआई बढ़ाने के व्यग्रता में एप्पल अपने तकनीकी लाभ न गँवा बैठे। बड़े आकार की स्क्रीनों में स्पष्टता अधिक महत्व नहीं रखती है और एप्पल को सारा तकनीकी लाभ इसी पर न्योछावर नहीं कर देना चाहिये। मैं पिछले आठ माह से आईपैडमिनी उपयोग में ला रहा हूँ, सारा कार्य इसी में करता हूँ, पर कभी ऐसा लगा नहीं कि इसमें स्पष्टता बढ़ाने की कोई आवश्यकता है। यहाँ पर भी एप्पल का प्रयास भार कम करने का और बैटरी समय बढ़ाने का होना चाहिये।

१० सितम्बर पर न केवल मेरी वरन एप्पल के प्रतियोगियों की पूर्ण दृष्टि रहेगी। जो भी निष्कर्ष हों, लाभ उपभोक्ता का होगा। मानकों की एक स्वस्थ प्रतियोगिता में, तकनीक का विकास ही होता है, नहीं तो किसने सोचा था कि अपने प्रथम कम्प्यूटर पूर्वज से लाख गुना छोटा और लाख गुना अधिक शक्तिशाली मोबाइल हमारी पीढ़ी को देखने को मिलेगा। आइये १० सितम्बर की प्रतीक्षा करते है।

4.9.13

पर्यटन - आनन्द का कार्य

हमारी श्रीमतीजी को पर्यटन संबंधी पुस्तकें और आलेख पढ़ने में रुचि है। बड़े ही संक्षिप्त अन्तरालों में उनकी रुचि, रह रहकर अनुभव में बदल जाना चाहती है। न जाने कितने स्थानों के बारे में हम से कह चुकी हैं और हम हैं कि एक को भी मना नहीं किया है। वर्तमान में देखा जाये तो हमारे अगले दो वर्षों के सप्ताहान्त, छुट्टियाँ आदि सब आरक्षित हैं। यदि इतनी छुट्टी मिल सकती और व्यवस्था बन सकती तो, उनकी सारी आशायें पूरी कर देता। फिर भी हार नहीं मानता हूँ, सरकारी नौकरी में पूरा देश घूम चुका हूँ, ईश्वर की ऐसी ही कृपा रही तो श्रीमतीजी की घूमने जाने वाले स्थानों पर भी देश की सेवा का अवसर मिलेगा। नौकरी और पर्यटन साथ साथ चलते रहेंगे, न श्रीमती जी रूठेंगी, न हम व्यथित होंगे, पता नहीं कौन सा वादा कब पूरा हो जाये।

आप ऐसी दार्शनिकता झाड़ कर कुछ सप्ताहान्त तो टाल सकते हैं, सारे सप्ताहान्त उदरस्थ नहीं कर सकते, सो घूमने जाना पड़ जाता है। पहले तो वरिष्ठों से छुट्टी माँगने के लिये कुछ विशेष कार्य करना पड़ जाता है, योग्यता सिद्ध करनी पड़ जाती है। कई बार तो अन्य अवसरों पर इसीलिये शब्द नहीं फूटते हैं कि कहीं छुट्टी के लिये मना न हो जाये। जिस दिन छुट्टी स्वीकृत हो जाती है, उस दिन मन मुदित हो नाचने का करता है, जैसे अपनी श्रीमतीजी के लिये कोई हीरे का हार ले आये हों। उसके बाद की तैयारी और भी श्रमसाध्य रहती है। बच्चों को समझाना पड़ता है कि कैसे किसी विशेष स्थान पर जाना वीडियो गेम खेलने से कहीं अच्छा है। पिछली यात्रा में की गयी भूलों को न दुहराने का वचन देना पड़ता है। साथ ही साथ रेलवे की सीटों पर उन्हें नीचे सोने देने का आश्वासन भी देना पड़ता है।

यदि पर्यटन स्थान पर रेलवे की व्यवस्था है तो ठहरना रेलवे के ठिकानों पर ही होता है। अपने विभाग की कृपा से आने जाने का आरक्षण मिल ही जाता है। वहाँ पर स्थानीय साधनों की व्यवस्था और अन्य स्थानों पर ठहरने की व्यवस्था में संपर्क सूत्र खड़खड़ाने पड़ते हैं। ७ राज्यों पर रह चुकने के कारण यह प्रसाद बहुधा मिल जाता है। कई बार व्यवस्थायें बहुत अच्छी मिलती हैं, तो कई बार काम चल जाता है। उसके बाद गूगल महाराज की कृपा से मानचित्र आदि समझे जाते हैं, स्थानीय भ्रमण की योजना का सूत्र रखा जाता है, मित्रों से बातचीत होती है, यात्रा संबंधी ब्लॉग पढ़े जाते हैं, तब कहीं जाकर पर्यटन की अस्पष्ट ही सही, एक छवि बन जाती है।

एक बात बीच में स्पष्ट कर दूँ कि इस श्रंखला में नीरज का परिप्रेक्ष्य अविवाहित घुमक्कड़ी का है, मेरे पीछे एक पूरी श्रीमतीजी और दो प्यारे पर जिज्ञासु बच्चे हैं। मेरा परिप्रेक्ष्य निश्चय ही भिन्न होगा, क्योंकि मेरे लिये व्यवस्थाओं का न हो पाना विवशताओं को जन्म देने जैसा हो सकता है। मेरा अनुभव पर्यटन के पक्ष को उतना न कह पायेगा जितना मेरा पर्यटन अनुभव पक्ष को कह जायेगा। सच कहूँ तो इच्छा मेरी भी करती है कि मैं भी अपने पर्यटन के वृत्तान्त लिखूँ और आप सबको बताऊँ, पर उनका स्वरूप उतना गहरापन लिये हुये नहीं होगा जितना नीरज का होता है। मेरे यात्रावृत्तान्तों की कहानी बहुत कुछ सब चैनल के धारावाहिक जैसी ही हो जायेगी, चलना कम होगा, हँसी अधिक आयेगी।

रेलवे स्टेशन के निकट घर होने के कारण, पर्यटन यात्रायें रेलवे स्टेशन से ही प्रारम्भ होती हैं। मेरे साथ बच्चों को भी रेलवे बहुत भाता है। पृथु को ट्रेन में पुस्तक पढ़ना और वीडियो गेम खेलना अच्छा लगता है तो देवला को बतियाना और पहेली आदि से खेल खेलना। श्रीमतीजी को बच्चों से जूझने से बचने और आगामी यात्रा के लिये ऊर्जा संचयन की दृष्टि से सोना अच्छा लगता है और मुझे सबकी बातें मानना। रात आने पर समान के निकट रहने के कारण मुझे नीचे की सीट मिल जाती है पर इस विशेष लाभ के लिये मुझे सबके बिस्तर भी लगाने पड़ते हैं। जो भी गणित लगता हो, जो भी सन्धि प्रस्ताव पारित होते हों, पर शेष तीन सीटों के लिये कभी किसी को विशेष श्रम नहीं करना पड़ता है।

रेलवे में समान्यतः नींद अच्छी आती है, साथ ही साथ भूख भी खुलकर लगती है। हो भी क्यों न, कोई इतनी देर डुलायेगा तो लोरी जैसा लगेगा, नींद आ जायेगी। साथ ही लगातार हिलते डुलते रहने से खाना भी पच जाता है, इसीलिये भूख भी खुलकर लगती है। बच्चों को भी अपनी पसन्द का चटपटा खाने का अवसर मिल जाता है। पर्यटन में बहुधा खानपान में नियन्त्रण नहीं रह पाता है, पर मैं नियमतः कम ही खाता हूँ, अधिक खाने से पर्यटन का उत्साह कम पड़ने लगता है और सोने की इच्छा प्रबल हो जाती है। हाँ, यदि गोवा जैसे किसी स्थान में शारीरिक और मानसिक विश्राम के लिये जाते हैं तो दोपहर में पर्याप्त भोजन कर सोने में बहुत आनन्द आता है।

श्रीमतीजी को पर्यटन में प्राकृतिक दृश्य भाते हैं, मुझे ऐतिहासिक पक्ष और अनुभव और बच्चों को वहाँ की कहानियाँ। इन तीनों में संतुलन बिठाने के लिये पहले तो श्रीमतीजी के साथ प्राकृतिक दृश्यों की फोटो उतारना पड़ती है फिर वहाँ के बारे में पहले से पढ़कर कहानी सुनाना पड़ती है। इन दोनों में मुझे ऐतिहासिक पक्ष का और सौन्दर्यपक्ष का समुचित अनुभव हो जाता है। बस यही ध्यान देना पड़ता है कि एक को साधने के कार्य में दूसरा क्रोधित न हो जाये। ऐसा नहीं कि मैं सदा उन तीनों पर व्यस्त रहता हूँ, जब कभी वे आपस में व्यस्त होते हैं मैं शान्ति से पर्यटन का आनन्द ले लेता हूँ।

कपड़े थोड़े अधिक लेकर चलते हैं कि बीच यात्रा में धोने नहीं पड़ें। यही कारण रहता है कि सामान अधिक हो जाता है। बच्चे समझदार हो गये हैं, सामान उठाने और ले जाने में हाथ बँटाते हैं और यदि ट्रेन देर रात में हो, तो जगकर चल भी लेते हैं। उनके बचपन में यह सारा कार्य मुझे ही करना पड़ता था। हाँ, मेरी तरह उन्हें भी प्रतीक्षा करना बहुत अखरता है।

परिवार के साथ बहुत अधिक दिन बाहर रहना संभव नहीं होता है। स्थान परिवर्तन का अनुभव पूर्ण होते ही मानसिक थकान घिरने लगती है और अपना घर याद आने लगता है। अधिक दिनों के पर्यटनीय अनुभव के लिये, रोचकता के विशिष्ट प्रयास करने पड़ते हैं। विकल्प उपस्थित होने की स्थिति में कई बार परिवार से पूछ पूछ ही आगे बढ़ना अच्छा होता है। तब लगता है कि पर्यटन यात्रा की बागडोर उन्हें सौंप दी गयी है और पर्यटन में रुचि बनाये रखना उनका उत्तरदायित्व है।

हमारे लिये पर्यटन एक विशुद्ध पर्यटनीय अनुभव न होकर प्रबन्धन का व्यक्तिगत अनुभव जैसा हो जाता है। नीरज के ब्लॉग पढ़ने के बाद लगता है कि हम तो कुछ घूम ही नहीं पाये, केवल परिवार को घुमाने में लगे रहे। अकेले होने पर कितना घूम पाता, कहना बहुत कठिन है। विवाह के पहले भी अकेले घूमना कभी हुआ ही नहीं, मित्रगण न केवल कार्यक्रम बनाते रहे वरन उसे साधते भी रहे। तब भी मिलजुल कर घूमे, आज भी मिलजुल कर ही घूम रहे हैं, तब निश्चिन्त होकर, अब परिवार को निश्चिन्त कर के।

जो भी हो, घर वापस आने में एक उपलब्धि की अनुभूति होती है, आनन्द के कार्य की।