रघुबीरजी के लिये कूड़े के ढेर का प्रकरण अन्ततः एक चिरकालिक शान्ति लाया, यद्यपि इसके लिये उन्हें नगर निगम के अधिकारी के साथ मिलकर सारा भ्रम दूर करना पड़ा। अपने प्रयासों से रघुबीरजी एक जागरूक नागरिक के रूप में पहचान बना चुके थे, लोगों को उन पर विश्वास बढ़ चला था और पर्यावरण संबंधी किसी भी नये विषय में पहल करने के लिये अधिकृत थे।
मानसून अतृप्त धरा को संतृप्त कर के चला गया, कृतज्ञ धरती ने भी फल फूल दिये, धनधान्य दिया। जीवजगत की जठराग्नि प्रचंड ठंड में अपने पूरे आयाम में रहती है, प्रकृति जब खाने को देती है तो भूख भी देती है। शरीर को जीवन रस मिलता रहता है, स्वास्थ्य बढ़ने लगता है, मन भी प्रसन्न हो जाता है। शरीर और प्रकृति का बसन्त साथ साथ ही आ जाता है। रघुबीरजी प्रकृति के इस चक्रीय कालखण्ड को सानन्द बिता रहे थे, अपने व्यक्तिगत और व्यावसायिक कार्य निपटा रहे थे, तभी पतझड़ आ पहुँचा।
प्राकृतिक परिवेश में प्रकृति के कार्य स्पष्ट रूप से दिखायी नहीं पड़ते हैं, स्वतः हो जाते हैं, पता ही नहीं चलते हैं। प्राकृतिक परिवेश की अनुपस्थिति हमें प्राकृतिक प्रक्रियायें समझने को विवश कर देती है। पतझड़ गावों में भी आता है, पेड़ों से पत्ते झड़ते हैं, धरती से पोषित पत्ते धीरे धीरे धरती में विलीन हो जाते हैं, खाद बनकर, आगामी पत्तों को पोषित करने के लिये। नगरों में यह संभव नहीं हो पाता है, एक तो पेड़ ही कम हो चले हैं। दूसरा जब पत्ते झड़कर कांक्रीट या रोड पर गिरते हैं तो अपना निर्वाण बाधित सा पाने लगते हैं। नगरीय जीवन का यह पक्ष एक नयी समस्या लाता है, पत्तों को समेटने की समस्या और यदि उन्हें तुरन्त न समेटा जाये तो वह कूड़े के रूप में नगर में बिखर जाते हैं, यत्र तत्र सर्वत्र।
नगरनिगम होता ही है, नगरीकरण से उत्पन्न समस्याओं का निवारण करने के लिये। एक तन्त्र ही है कोई मन्त्र नहीं कि सारे कार्य पलक झपकाते ही कर डाले। कहने को तो पतझड़ के समय पत्ते समेट कर ले जाने का कार्य नियमित रूप से होना चाहिये, नगरनिगम साप्ताहिक ही कर दे तब भी कृतज्ञ बने रहना चाहिये। नगरनिगम की उदासीनता ने रघुबीरजी के पड़ोसियों को एक नयी विधि अपनाने को विवश कर दिया। आसपास की सोसाइटियों के कुछ उत्साही युवकों ने सफाई कर्मचारियों द्वारा एकत्र इन पत्तों को आग लगा देने का उपाय निकाल लिया। दिन के समय सड़कों पर आवागमन बना रहता है अतः लोगों ने रात में सुलगाने का क्रम बना लिया।
आत्मिक उन्नति और प्राणों में आयाम बनाये रखने के लिये रघुबीरजी अपनी बालकनी में प्राणायाम करते हैं, सुबह सुबह की शुद्ध ऑक्सीजन पूरे शरीर को ऊर्जामय कर देती है। पिछले दो दिनों से प्राणायाम निष्प्रभावी हो रहा था, कारण था फेफड़ों में पहुँची धुँयें की पर्याप्त मात्रा। गन्ध और दृष्टि से समझने का प्रयास किया तो कारण स्पष्ट समझ में आ गया। लगभग सौ मीटर की दूरी पर पत्तों की आग रात भर से सुलग रही थी। धुयें का यह गुबार धीरे धीरे स्मृति में घनीभूत होने लगा। ऐसा नहीं कि यह पतझड़ की ही समस्या थी, धुयें के दो और स्रोत रघुबीरजी को याद आ गये।
जाड़ों के समय भी उसी ओर से सुबह सुबह कुछ सुलगने की गंध आती थी। यद्यपि उस समय बालकनी में प्राणायाम न करने से वह धुआँ रघुबीर जी को अधिक प्रभावित नहीं करता था, पर परिवेश में जले टायर और प्लास्टिक की गंध से वातावरण बुरी तरह से प्रदूषित हो जाता था। उसका कारण भी उन्हें समझ आ गया था, आसपास की सोसाइटियों और एटीएम के चौकीदारों को रात में तापने के लिये जो भी मिल जाये, उसे सुलगाने की आदत थी। अब जीवन किसे प्रिय नहीं होता पर जब विकल्प ठंड या प्रदूषण में से किसी एक से मरने का हो, तो सब प्रदूषण करने बैठ जायेंगे, इस पर कोई आश्चर्य भी नहीं होना चाहिये।
यदि ६ ऋतुओं में केवल दो ही धूम्रदोष से ग्रसित होतीं तो भी एक संतोष किया जा सकता था, भाग्य का खेल मानकर भूला जा सकता था। एक और धुयें की गन्ध थी जो मानसून के महीनों को छोड़ वर्ष पर्यन्त आती थी, और वह भी रात में। धीरे धीरे उसका भी कारण खोजा रघुबीरजी ने। वह घर से निकले कूड़े को सफाई के ठेकेदारों के द्वारा वहीं पर एकत्र कर जला देने के कारण आती थी, यद्यपि नगरनिगम के ठेके में ठेकेदारों को धन उस कूड़े को नगर की सीमाओं से बाहर फेकने का मिलता होगा। लोभवश ठेकेदार स्थानीय निवासियों को सड़ा सा धुआँ पिला रहे थे, वह भी लगभग नियमित।
समस्यायें गम्भीर थीं, स्वयं के प्राणायाम के अतिरिक्त, प्रकृति के प्राणों की रक्षा का दायित्व था रघुबीरजी पर। जैसा कि अंदेशा था, कार्यकारिणी में यह समस्या रखते हुये ही उसे सुलझाने का उत्तरदायित्व रघुबीरजी को सौंप दिया गया। आसपड़ोस के पत्रकार और युवा भी रघुबीरजी के साथ संभावित सफलता में शामिल होने के लिये उत्साहित हो गये। वायु को शुद्ध रखना आवश्यक था, रघुबीरजी ने पुनः गहरी साँस भरी और मन को तैयार कर लिया, एक महत कार्य के लिये....
मानसून अतृप्त धरा को संतृप्त कर के चला गया, कृतज्ञ धरती ने भी फल फूल दिये, धनधान्य दिया। जीवजगत की जठराग्नि प्रचंड ठंड में अपने पूरे आयाम में रहती है, प्रकृति जब खाने को देती है तो भूख भी देती है। शरीर को जीवन रस मिलता रहता है, स्वास्थ्य बढ़ने लगता है, मन भी प्रसन्न हो जाता है। शरीर और प्रकृति का बसन्त साथ साथ ही आ जाता है। रघुबीरजी प्रकृति के इस चक्रीय कालखण्ड को सानन्द बिता रहे थे, अपने व्यक्तिगत और व्यावसायिक कार्य निपटा रहे थे, तभी पतझड़ आ पहुँचा।
प्राकृतिक परिवेश में प्रकृति के कार्य स्पष्ट रूप से दिखायी नहीं पड़ते हैं, स्वतः हो जाते हैं, पता ही नहीं चलते हैं। प्राकृतिक परिवेश की अनुपस्थिति हमें प्राकृतिक प्रक्रियायें समझने को विवश कर देती है। पतझड़ गावों में भी आता है, पेड़ों से पत्ते झड़ते हैं, धरती से पोषित पत्ते धीरे धीरे धरती में विलीन हो जाते हैं, खाद बनकर, आगामी पत्तों को पोषित करने के लिये। नगरों में यह संभव नहीं हो पाता है, एक तो पेड़ ही कम हो चले हैं। दूसरा जब पत्ते झड़कर कांक्रीट या रोड पर गिरते हैं तो अपना निर्वाण बाधित सा पाने लगते हैं। नगरीय जीवन का यह पक्ष एक नयी समस्या लाता है, पत्तों को समेटने की समस्या और यदि उन्हें तुरन्त न समेटा जाये तो वह कूड़े के रूप में नगर में बिखर जाते हैं, यत्र तत्र सर्वत्र।
नगरनिगम होता ही है, नगरीकरण से उत्पन्न समस्याओं का निवारण करने के लिये। एक तन्त्र ही है कोई मन्त्र नहीं कि सारे कार्य पलक झपकाते ही कर डाले। कहने को तो पतझड़ के समय पत्ते समेट कर ले जाने का कार्य नियमित रूप से होना चाहिये, नगरनिगम साप्ताहिक ही कर दे तब भी कृतज्ञ बने रहना चाहिये। नगरनिगम की उदासीनता ने रघुबीरजी के पड़ोसियों को एक नयी विधि अपनाने को विवश कर दिया। आसपास की सोसाइटियों के कुछ उत्साही युवकों ने सफाई कर्मचारियों द्वारा एकत्र इन पत्तों को आग लगा देने का उपाय निकाल लिया। दिन के समय सड़कों पर आवागमन बना रहता है अतः लोगों ने रात में सुलगाने का क्रम बना लिया।
जाड़ों के समय भी उसी ओर से सुबह सुबह कुछ सुलगने की गंध आती थी। यद्यपि उस समय बालकनी में प्राणायाम न करने से वह धुआँ रघुबीर जी को अधिक प्रभावित नहीं करता था, पर परिवेश में जले टायर और प्लास्टिक की गंध से वातावरण बुरी तरह से प्रदूषित हो जाता था। उसका कारण भी उन्हें समझ आ गया था, आसपास की सोसाइटियों और एटीएम के चौकीदारों को रात में तापने के लिये जो भी मिल जाये, उसे सुलगाने की आदत थी। अब जीवन किसे प्रिय नहीं होता पर जब विकल्प ठंड या प्रदूषण में से किसी एक से मरने का हो, तो सब प्रदूषण करने बैठ जायेंगे, इस पर कोई आश्चर्य भी नहीं होना चाहिये।
यदि ६ ऋतुओं में केवल दो ही धूम्रदोष से ग्रसित होतीं तो भी एक संतोष किया जा सकता था, भाग्य का खेल मानकर भूला जा सकता था। एक और धुयें की गन्ध थी जो मानसून के महीनों को छोड़ वर्ष पर्यन्त आती थी, और वह भी रात में। धीरे धीरे उसका भी कारण खोजा रघुबीरजी ने। वह घर से निकले कूड़े को सफाई के ठेकेदारों के द्वारा वहीं पर एकत्र कर जला देने के कारण आती थी, यद्यपि नगरनिगम के ठेके में ठेकेदारों को धन उस कूड़े को नगर की सीमाओं से बाहर फेकने का मिलता होगा। लोभवश ठेकेदार स्थानीय निवासियों को सड़ा सा धुआँ पिला रहे थे, वह भी लगभग नियमित।