29.5.21

हम काल कला से छले गये


गिरिजेशजी का जाना हृदय विदीर्ण कर गया, 

एक अद्भुत व्यक्तित्व चला गया, 

एक अश्रुपूरित शब्दांजलि......


हम काल कला से छले गये,

गिरिजेश! कहाँ तुम चले गये?


गहरे रहस्य, उद्भट प्रकथ्य,

सुर शब्दों में, संनिहित सत्य,

करना था कितना और व्यक्त,

सब कुछ पसार कर चले गये?

हम काल कला से छले गये ।।१।।


श्रम डूबे सब वांछित प्रयत्न,

मेधा से ढूढ़े अलख रत्न,

साझे, साधे अनगिनत यत्न,

सब कुछ बिसार कर चले गये?

हम काल कला से छले गये ।।२।।


दस वर्ष अधिक सम्बन्ध रहा,

संवाद सतत निर्द्वन्द्व बहा,

सोचा जो भी स्पष्ट कहा,

सब कुछ उतार कर चले गये?

हम काल कला से छले गये ।।३।।


संस्कृत संस्कृति के रहे प्राण

प्रस्तुत उत्तर, विस्तृत प्रमाण,

आगत प्रज्ञा, संशय प्रयाण,

सब कुछ विचार कर चले गये?

हम काल कला से छले गये ।।४।।


अलसाया चिठ्ठा रहे भुक्त,

हत मघा, करेगा कौन मुक्त,

कविता के सुन्दर स्रोत सुप्त,

सब पर प्रहार कर चले गये?

हम काल कला से छले गये ।।५।।


बाऊ बैठे, मनु उर्मि शान्त,

सब रामायण के पात्र क्लान्त,

शत शोकमग्न तिब्बत नितान्त,

सबको निहार कर चले गये?

हम काल कला से छले गये ।।६।।


माता बिन बीता एक माह,

मन पिता मन्त्र बहता प्रवाह,

क्यों लिये विकट स्मृति उछाह,

यह जगत पार कर चले गये?

हम काल कला से छले गये ।।७।।


जब रहे सनातन कालपथिक,

किसकी बाधा, क्यों हृदय व्यथित,

रुक जाते थोड़ा और तनिक,

जग तार तार कर चले गये?

हम काल कला से छले गये ।।८।।


27.5.21

बाँह की पीड़ा - उच्चारण

 

पीड़ा के क्षणों में, जब मन अपने मन की नहीं कर पाता है, तब क्या संवाद चलता है? पीड़ा के क्षणों का उच्चारण क्या होता है? स्वर आर्त होते हैं, करुणा होती है, क्रोध आता है या अस्तित्व निशान्त हो जाता है। अनमना सा लगता है, किसी एक विषय में ध्यान नहीं लगता है, रह रह कर सारा ध्यान पीड़ा के स्थान पर पहुँच जाता है, पीड़ा के कारण एक के बाद एक सामने आने लगते हैं, लगता है तब कि काश यह न करते या वह न करते, प्रायश्चित के स्वर फूटने लगते हैं।


बाँह की पीड़ा के कालखण्ड में चिन्तन बहुत हुआ। कारण स्पष्ट था। रात्रि में जब निद्रा नहीं आती थी, बाँह, कन्धे, गर्दन या पीठ में कहीं भी पीड़ा होती थी तो उठ बैठना ही पीड़ा कम करने का एकमात्र उपाय लगता था। इस स्थिति में बाँह सीधी लटकती थी और पीड़ा की तीव्रता कम हो जाती थी। एक बार निद्रा उचट जाये तो पुनः आ पाना सरल नहीं होता था, या तो सिकाई करनी पड़ती थी, या स्वयं हाथ से दाबना पड़ता था, या पीड़ानिवारक जेल लगाना पड़ता था और किसी से कुछ लाभ न होता था तो पीड़ानिवारक औषधि लेकर सोने का प्रयास करना होता था। कई बार इस प्रयास में हर बार घंटे भर के ऊपर का जागरण हो जाता था, कभी कभी रात्रि में दो बार भी। इसके अतिरिक्त ४ बजे के बाद कभी भी निद्रा टूटी तो पुनः सोने का प्रयत्न न करते हुये दिनचर्या प्रारम्भ कर दी जाती थी। रात्रि में पीड़ा को अर्पित हुये निद्रासमय की क्षतिपूर्ति दिन में करने का प्रयास रहता था पर इस पूरे प्रकरण में गाढ़ी निद्रा एक स्वप्न ही रही।


रात्रि की स्तब्धता में जब शरीर हाहाकार कर रहा हो तो मन चिन्तन में डूब ही जाता है। पहला चिन्तन तो पीड़ा  यथासंभव कम करने के उपायों पर होता था। दूसरा उन द्वितीयक कष्टों पर होता था जो कम निद्रा के कारण आयी थकान के कारण होने वाले थे। तीसरा चिन्तन वापस उन संभावित कारणों पर होता था जिनके कारण यह हृदयविदारक स्थिति में शरीर पड़ा हुआ है। हर संभावित कारण का कोई न कोई उपाय भी मन में आता था। उसकी पुनरावृत्ति न हो अतः मन हर कारण के सुधार की प्रतिज्ञा कर बैठता था। सुधारवादी विचारों का प्लावन भविष्य की इतनी सुन्दर छवि बनाने लगता है कि उसमें वर्तमान की पीड़ा कुछ क्षणों के लिये विस्मृत सी हो जाती है। न केवल कारण सुधारने की प्रतिज्ञा होती है वरन उससे भी आगे जाकर मन न जाने क्या क्या कर लेना चाहता है। पीड़ा के क्षणों में मन जितना सुधारशील हो जाता है, यदि सामान्य क्षणों में उसका शतांश भी हो जाये तो अधिकांश कष्ट हमारे पास ही न पहुँचे।


चौथा चिन्तन उन विचारों पर टिकता है जिनसे पीड़ा भुलायी जा सके। इसे चिन्तन शब्द से परिभाषित करना उचित नहीं होगा क्योंकि यह मन से ही मन को भरमाने के उपाय पूछने जैसा है। कुछ रोचक सा देखना या सोचना। यह पक्ष प्रायः असफल ही रहा, यदि सफल हुआ भी तो अत्यल्प समय के लिये। पाँचवाँ चिन्तन उस भविष्य पर होता है जब आप मान बैठते हैं आपका सर्वाधिक अहित होने वाला है। स्वजनित मानसिक पीड़ा शारीरिक पीड़ा को कुछ समय के लिये तो भुलाने में सहयोग तो करती है पर जैसे ही विचार अवसान पाता है, कृत्रिमता का आवरण हटता है, शारीरिक पीड़ा वापस लौट आती है।


छठा चिन्तन उन वर्तमान दृश्यों पर दृष्टिपात करके होता है जब आप सारे आयातित विचार त्याग कर अपने वर्तमान में आ जाते हैं। जो दिखता है उसी पर सोचना प्रारम्भ कर देते हैं। कमरे की छत पर भागती हुयी छिपकली, मच्छरदानी के बाहर प्रयासरत संगीतमय मच्छर, बाहर टहलते समय झींगुर के बोलने का स्पष्ट नाद या पेड़ों के पत्ते खड़खड़ाने के स्वर। दो तीन फिल्मों में देखा था कि जेल की अंधकोठरी किस प्रकार किसी कीड़े या चूहे से खेलकर अपने वर्तमान पर अधिरोपित कर नायक एक और वर्तमान ढूढ़ लेता है। अपनी स्थिति देखकर कुछ वैसी ही भावना मन में घर कर गयी, बस अंधकोठरी के स्थान पर एक पीड़ा की कोठरी थी। रात्रि में अंधकार की गहनता मापना भी ऐसे चिन्तन का एक स्वरूप हो सकता है। रात्रि के दो तीन बजे तब किसी अन्य वस्तु से भय भी नहीं लगता है, पीड़ा ऐसी निर्भयता उत्पन्न कर देती है।


सातवाँ चिन्तन आर्त भाव से युक्त होता है। आर्तनाद अपने आराध्य के प्रति होता है। प्रार्थना पीड़ा से निवारण की, प्रार्थना उस शक्ति के उपयोग की जो आपके आराध्य के पास है, प्रार्थना उस प्रकृति को संयत करने की जिसने आपके शरीर में या जीवन में उत्पात मचा रखा है। आर्तनाद करने कोई व्यक्ति उसी के पास जाता है जो सक्षम हो और सुदृद भी, शरणागत हो और भक्तवत्सल भी। न्यायप्रियता से कहीं अधिक एक विशेषकृपा की चाह रहती है इस भाव में। गीता में श्रीकृष्ण ने स्पष्ट कहा गया है, चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन। आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ। मुझे अच्छा कर्म करने वाले चार विधाओं में भजते हैं, आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी और ज्ञानी। पीड़ा कैसे भी हो, आपको आपके आराध्य के पास ले जाती है। पीड़ा आपको सामान्य जीवनक्रम से परे कुछ सोचने को विवश करती है। पीड़ा आपको वह समय देती है जब आप अपने भविष्य को भूत की भूलों से विलग कर सकें। पीड़ा का अनुभव आपके जीवन के दिशा बदलने में सक्षम होता है।


कहते हैं कि कोई घटना जीवन को पूरी तरह बदल देती है। विशेषता उस घटना में नहीं वरन उस प्रभाव में होती है जो आप पर पड़ता है, आपके शरीर पर पड़ता है, आपकी मनस्थिति पर पड़ता है। पीड़ा सहसा कोई पक्ष उजागर कर आपके चिन्तनपथ को झकझोर जाती है। गाँधी को अपमान की पीड़ा हुयी, बुद्ध को जीवन में व्याप्त कष्ट पीड़ा दे गये, दशरथ माँझी को पत्नी के देहावसान में उभरी एक विवशता पीड़ा दे गयी। कब क्या आपको हिला जाये, क्या आपके जीवन को नये पथ की ओर मोड़ जाये? पीड़ा आपके जीवन को दो भिन्न भागों में विभक्त देती है, बहुधा आपके कल्याण के लिये। पीड़ा भले ही किसी ने आप पर सहृदयता के उद्देश्य से न थोपी हो पर पीड़ा अन्ततः आपका भला कर के ही जाती है, अयस्क को कनक बना कर जाती है।


ऐसा नहीं है कि पीड़ा पहली बार हुयी और ज्ञान चक्षु खुल गये, ऐसा भी नहीं है कि पीड़ा इतने लम्बे समय के लिये पहली बार हुयी है, पर पहली बार ऐसा हुआ है कि पीड़ा के पक्षों को देखने का प्रयास किया है, पीड़ा के अन्दर झाँकने का प्रयास किया है। पीड़ा का यह अनुभव मेरे लिये पूर्णरूपेण वैयक्तिक अवश्य था पर पीड़ा का व्यक्त स्वरूप हर ओर दिखायी पड़ता है। मेरे मन और मस्तिष्क में स्थायी रूप से बिराजे तुलसीदास को भी एक बार बाँह की पीड़ा हुयी थी। उसका स्वरूप और उच्चारण अगले ब्लाग में।



25.5.21

बाँह की पीड़ा - निवारण


संभावित कारणों के विश्लेषण के बाद निवारण का कार्य चिकित्सीय परामर्श से ही होना था। स्वयं उपचार कर पाने की न तो योग्यता थी और न ही समय। दो सप्ताह की आंशिक प्रयोगधर्मिता के बाद भी पीड़ा बनी हुयी थी, न केवल बनी हुयी थी अपितु बढ़ गयी थी। स्वास्थ्य को लेकर लघु प्रयोग सब ही करते रहते हैं, कभी कुछ बदल कर देखा, कुछ नया लेकर देखा, कुछ दिनचर्या बदली, कुछ रुचियों को तिलांजलि दी। अब प्रयोगों का समय नहीं रहा था, तात्कालिकता प्रबल हो चुकी थी। 


बहुधा मन यह कामना करता है कि चिकित्सक के यहाँ न जाना पड़े, लघुविकार स्वतः ही ठीक हो जायें, न जाने के पहले सारे उपाय कर लेता है, आपको भी समझाता है, अनावश्यक समझ कर टालने का प्रयत्न करता है। कभी कभी यह भय भी रहता है कि छोटे से और स्वतः ठीक होने वाले विकार के लिये चिकित्सक भारीभरकम उपचार बता देगा। न केवल शारीरिक और मानसिक दृष्टि से वरन आर्थिक दृष्टि से भी भारी रहेगा। इस कारण से जहाँ तक खींचा जा सकता है, चिकित्सक के यहाँ जाना टाला जाता है। कई बार ऐसे निर्णय, दीर्घसूत्रता या आलस्य हानिकारक हो जाता है। बिलासपुर में एक बार छोटी सी फुंसी को स्वतः ही ठीक होने देने की वीरता के अभिमान में पता ही नहीं चला कि कब उसमे संक्रमण हो गया, निष्कर्ष अत्यधिक पीड़ा और स्वयं के प्रमाद पर क्रोध।


इस घटनाक्रम में पीड़ा सहने के बाद भी कुछ दिनों का आलस्य हो गया। करोनाजनित असामान्य परिस्थितियों के कारण इस दीर्घसूत्रता को और बल मिला। जब कठोर चेतावनी मिली तब निढाल होकर चिकित्सक भाई से परामर्श लिया। समर्पण की इस स्थिति में मन स्वीकार कर लेता है कि जो भी बताया जायेगा, शब्दशः पालन किया जायेगा, चाहे जितने भी टेस्ट हो, चाहे जितनी भी औषधि हों। एक प्रवृत्ति जो कई वर्षों में दृढ़ होती गयी है कि ऐलोपैथिक औषधियाँ जितनी कम लेनी पड़ें उतना ही अच्छा। पता नहीं क्या कारण रहा पर वर्षों से प्राकृतिक विधि से शरीर प्रफुल्लित रहा और अधिक समस्यायें उत्पन्न नहीं की। एक स्वस्थ जीवनशैली रहे, व्यायाम और प्राणायाम किया जाये और भोजनादि में आयुर्वेद का सिद्धान्त पिरोया हो तो शरीर पुष्ट और मन सन्तुष्ट रहता है। पीड़ा के अतिरिक्त, वर्तमान परिस्थिति एक और विशेष कारण से सामान्य नहीं रही अतः समर्पण कर बैठे।


प्राकृतिक रूप से स्वतः स्वस्थ होने में एक तत्व जो सदा ही उपयोगी रहा है, वह है समुचित निद्रा। समुचित निद्रा हो जाये तो विकार क्षीण हो ही जाता है। छोटे मोटे कष्ट हों तो प्रथम अवसर मिलते ही सो जाते हैं, उठने के बाद या तो कष्ट चला जाता है या सहनीय हो जाता है। लघुविकार कालान्तर में बढ़कर बड़े न हो जायें, उसमें भी समुचित निद्रा संकेत के रूप में कार्य करती है। यदि आपको भरपूर निद्रा आ रही है तो शरीर स्वस्थ है। असहजता, तनाव, चिन्ता, विकार आदि रोगों के प्रथम लक्षण सबसे पहले निद्रा पर दुष्प्रभाव डालते हैं। समुचित निद्रा का मानक वह स्फूर्ति है जो उठने के बाद आती है, वह इस बात का द्योतक है कि शरीर के सब तन्त्र सुचारु रूप से चल रहे हैं। अधिक निद्रा आलस्य और कम निद्रा थकान लाती है। यदि समुचित व्यायाम, भोजन, चिन्तन और मानसिक प्रसन्नता नहीं होगी, समुचित नींद आना संभव ही नहीं है। यह सिद्धान्त मेरे लिये समग्रता से कार्य करता है।


बाँह की पीड़ा ने मेरे इस ब्रह्मास्त्र को मुझसे छीन लिया था। रात्रि में ७ घंटे के स्थान पर ४ घंटे से अधिक की नींद नहीं हो पा रही थी, वह भी कम से कम ३ भागों में। निद्रा की कमी को दिन में पूरा करने का प्रयास किया, पीड़ानिवारक जेल लगाकर निद्रा में कुछ मिनट बढ़ाये, सिकाई के लिये हीटिंगपैड लगाकर सोये, पर कोई विशेष लाभ नहीं हुआ और दो तीन दिन में ही शरीर अस्तव्यस्त होने लगा। जब पीड़ानिवारक औषधि लेकर सोने का प्रयास किया तो उठने पर भारी और मन्द अनुभव हुआ, लगा कि सुधार होने के स्थान पर कष्ट बढ़ता ही जा रहा है। 


निद्रा ही नहीं, अन्य कार्य भी बन्द हो गये। टहलना बन्द क्योंकि झूलती बाँह के साथ पीड़ा भी लहराती थी। सूर्यनमस्कार और तीरन्दाजी भी बन्द। यहाँ तक कि प्राणायाम भी इसलिये बन्द हो गया क्यांकि साँस लेने में फेफड़े फूलने से पीड़ा गहरा जाती थी। स्नान करते समय शरीर मलने में कष्ट, साबुन लगना बन्द, किसी तरह शावर का पानी शरीर में डालकर बाहर आ जाते थे। जो गतिविधियाँ जीवन में महत्व भी नहीं रखती थीं और स्वतः होती रहती थीं, वे सब भी करने में महत प्रयास करने पड़ रहे थे। सो पाने के लिये तकियों को बाँह पर पड़ने वाले दबाव को कम करने के प्रयास में व्यवस्थित सजाना पड़ता था। ऐसे ही एक दिन सजाते समय श्रीमतीजी बोलीं कि इतना तो राजा अपने सिंहासन भी नहीं सजाते हैं। उस दिन लगा कि थक हार कर बिस्तर पर निढाल गिरते ही नींद आने का सुख विश्व का सबसे बड़ा सुख है।


लेटने से अधिक बैठने में और बैठने से अधिक स्थिर खड़े रहने में सहज लग रहा था। मन जितना हो सकता था, अस्थिर था। कोई सार्थक कार्य करने योग्य मन की न तो सामर्थ्य थी और न इच्छा। पीड़ा से मन का ध्यान हटाने के लिये कुछ वेबसीरीज भी देखी पर अन्ततः पीड़ा ही प्रधान रही। कहीं पढ़ा था कि पीड़ा तो मानसिक होती है, मन में ही अनुभव होती है, यदि मन अभ्यास कर ले तो अनुभव नहीं होगी। प्रयास किया और अपनी मूढ़ता पर ढंग से हँसा भी। पीड़ा जैसा सत्य का प्रत्यक्ष कुछ भी नहीं होता है, पूर्ण ध्यास्थ हो मन वहीं लगा रहता है।


पाँच दिन की औषधि और संलग्न प्रताड़ना के बाद देव प्रसन्न हुये और पीड़ा तनिक सहनीय हुयी। प्राणायाम प्रारम्भ कर दिया है, प्रातः थोड़ा टहलना भी हो जाता है, सम्यक रूप से बिना करवटों से सो रहा हूँ, भोजन संतुलित ले रहा हूँ, नींद की मात्रा और गुणवत्ता बढ़ रही है, साथ में लेखन भी कर पा रहा हूँ। ईश्वर शीघ्र ही दिनचर्या के शेष अंगों को भी मुझसे जोड़ देंगे, यही प्रार्थना है।


पीड़ा के समय मन क्या संवाद करता है, क्या आर्त स्वर फूटते हैं, सुधार के क्या शपथ धरी जाती हैं, जानेगे पीड़ा के उच्चारण में, अगले ब्लाग में।

22.5.21

दायित्वबोध

 

निभाने थे दायित्व, सर पर खड़े हो,

हर पल मुझे क्यों धिक्कारते हो ।

कटुता की बेड़ी में मुझको जकड़ कर,

संशय की कारा में क्यों डालते हो ।।१।।

 

विवादों के घेरे में जीवन खड़ा कर,

विषादों के रथ पर चला जा रहा हूँ ।

है निष्फल अभी पूछना प्रश्न मुझसे,

हूँ निष्क्रिय, स्वयं से छिपा जा रहा हूँ ।।२।।


रहे अन्य कारण, विवशता प्रखर थी

नहीं कर सका, जो संजोया हृदय ने।

बड़ी चाह, ऊर्जा प्रयासों में ढाली,

नहीं स्वप्न वैसा पिरोया समय ने ।।३।।


नहीं आज वैसा जो चाहा कभी था,

नहीं आज मन में अथक तीक्ष्णता है।

प्रस्तर बड़े और जूझी विकट पर,

धारा विपथगा, अपरिचित कथा है ।।४।।


रहूँ भुक्त कब तक, मुझे मुक्त होना,

खड़ा बद्ध कब से, स्वयं पाश डाले।

पुनः ऊर्ध्व आता, पुनः डूबता हूँ,

मुझे इस भँवर से कोई तो निकाले ।।५।।


20.5.21

बाँह की पीड़ा - शेष कारण

 

टीका, हृदय और रीढ़ की हड्डी में पीड़ा का संभावित स्रोत न प्राप्त होने से शेष कारण बाँहों के जोड़ और संबंधित माँसपेशियाँ ही रह गयीं। दोनों में ही खिचाव से नस प्रभावित हो सकती थी।


पाँचवाँ संभावित कारण किसी जोड़ में नस के दबने का था। बाँह और कंधे का जोड़ अभी तक के जीवन में सर्वाधिक चोटग्रस्त और प्रभावित अंग रहा है। दो बार फुटबाल खेलते समय बाँया कंधा उखड़ चुका है, वह पीड़ा असहनीय होती थी। अगले दो तीन दिन तक खेल पाना तब संभव नहीं होता था। कालान्तर में वही जोड़ आईआईटी के तरणताल में गहरे जाते समय उखड़ गया था। जो तैरना जानते हैं वे समझ सकते हैं कि लगभग २० फिट गहराई से ऊपर आने में दोनों हाथों के पूरे प्रयोग से स्वयं को ऊपर की ओर खींचना सा होता है। एक हाथ कर्महीन, असहनीय पीड़ा और थोड़ी सी ही साँस, किसी तरह से एक हाथ से ही सारी शक्ति लगा कर ऊपर आना हुआ। उस अनुभव की वेदना अभी तक याद है। उस घटना को तो वैसे तीस वर्ष होने को आये हैं पर संभावना नकारी नहीं जा सकती है कि पुनः वही जोड़ पीड़ा दे रहा हो। संभव हो कि अपने स्थान से तनिक च्युत हो नस को दबा रहा हो।


छठवाँ संभावित कारण कंधे आदि की माँसपेशियों के खिंचने का था। पिछले ६ माह से नित्य सुबह तीरन्दाजी का अभ्यास कर रहे हैं, लगभग ५० मीटर की दूरी से १०० से अधिक तीर प्रतिदिन। तीरन्दाजी में बाँयीं बाँह से धनुष पकड़ना होता है और दायें से प्रत्यन्चा और तीर। तीर छोड़ने के पहले लक्ष्य पर साधते समय दोनों हाथों पर अधिकतम दबाव आता है, बाँये भाग में दाँये की अपेक्षा कहीं अधिक दवाब आता है। प्रारम्भ में बाँयी बाँह में कभी कभी हल्की सी थकान अनुभव अवश्य हुयी थी पर पिछले २ माह से अभ्यास अच्छा हो चला था। साथ ही टीका लगने के बाद से अभ्यास बन्द भी था। अतः पीड़ा के समय प्रयोग में न आने से इस कारण की संभावना भी कम थी।


सातवाँ संभावित कारण अनुचित भंगिमा में सोने का था। पहली बार यह पीड़ा सोते ही समय हुयी थी अतः इस कारण की संभावना कहीं अधिक थी। कहते हैं कि भोजन के तुरन्त पश्चात बाँयी करवट लेटना चाहिये अन्यथा सीधा पीठ के बल। हाथ भी सहज स्थिति में रहने चाहिये। वैसे तो पूरा पता नहीं चलता पर उठने समय जो स्थिति होती है, उससे अनुमान लगाया जा सकता है कि सोते समय शरीर सारी भंगिमाओं से होकर निकलता है। कई बार उठते समय कोई बाँह सुन्न सी हो जाती है। पता नहीं कि यह वर्तमान पीड़ा का कारण था पर यह तो निश्चित है कि भविष्य में उचित ढंग से न सोने से स्वास्थ्य संबंधी समस्यायें आ सकती हैं। शरीर की भंगिमा के अतिरिक्त बिस्तर की कठोरता और तकिये की ऊँचाई भी महत्वपूर्ण है। इन दोनों विषयों पर भी अब भविष्य में सावधान रहने का मन बना लिया है।


आठवाँ संभावित कारण अपने श्वान को सुबह और सायं टहलाने का था। हमारे श्वानजी सेंटबर्नाड प्रजाति के हैं और महाकाय हैं। वैसे तो अनुशासन में रहते हैं पर कुछ रुचिकर दिख जाये या गन्ध आये तो सहसा उत्सुक हो जाते हैं। उनका पट्टा बहुधा बाँये हाथ में ही रहता है, कभी वह आगे रहते हैं तो कभी पीछे। आगे तो फिर भी उनके ऊपर दृष्टि रहती है पर पीछे रहते समय यदि उनकी उत्सुकता प्रबल हो चली तो वह सहसा मुड़ जाते हैं। ऐसी परिस्थितियों में कई बार हाथ में झटका पड़ा है। डाँटने पर प्यारा सा मुँह तो बना लेते हैं पर यह प्रवृत्ति छोड़ने को तत्पर नहीं दिखते हैं। टीका लगने के कारण उनको टहलाने का कार्य हमारी बिटिया कर रही थी अतः इसका भी पीड़ा का कारण होने की संभावना कम ही थी।


नवें संभावित कारण पर हमारी बिटिया ने हमारा ध्यान आकर्षित कराया। उनके अनुसार हम पानी बहुत कम पीते हैं और यह स्वास्थ्य के लिये हानिकारक है। जिस समय पहली पीड़ा हुयी, उस समय नवदुर्गा का व्रत भी चल रहा था। आहार की मात्रा न्यून थी, अन्नादि भी निषेध था। ऐसी स्थितियों में जल का सेवन अधिक करना चाहिये। लाकडाउन जैसी स्थितियों में घर से बाहर निकलना न के बराबर था और जीवनशैली शिथिल थी। बिटिया को लगता है कि हमने जल का सेवन कम किया जिससे माँसपेशियों में जल की मात्रा कम हुयी और उनमें सिकुड़न हुयी। मुझे जल और माँसपेशियों का यह संबंध ज्ञात नहीं था तो बिटिया ने बताया कि बाडीबिल्डर प्रतियोगिता के पहले पानी पीना बन्द कर देते हैं जिससे उनकी माँसपेशियाँ और सिकुड़ जाती हैं और स्पष्ट होकर उभरती हैं। कभी कभी पानी की अधिक कमी हो जाने से माँसपेशियों में क्रैम्प पड़ जाते हैं और अत्यधिक पीड़ा होती है। यह सुनकर बिटिया पर गर्व हुआ और स्वयं पर संशय। इसका प्रभाव यह पड़ा कि एक बोतल में पानी भर कर हमारी मेज पर रख दिया गया और निर्देश दिया गया कि पानी बीच बीच में पीते रहिये। इसका पीड़ा के निवारण पर अनुकूल प्रभाव पड़ा। जब प्यास अधिक लगती थी तो पीड़ा भड़कती थी और जब उचित मात्रा में जल पीते थे तो पीड़ा तनिक कम हो जाती थी।


दसवाँ और अन्तिम संभावित कारण आयुर्वेद के सिद्धान्तों पर आधारित था। आयुर्वेद कहता है कि सारी पीड़ाओं का मूल वात का भड़कना है। शरीर को कफ आधार देता है, पित्त ऊर्जा और वात गति। संयमित वात जहाँ एक ओर शरीर की सारी प्रक्रियाओं को संचालित करता है वहीं अनियन्त्रित वात विध्वंस करता है। तन्त्रिकातन्त्र सहित अन्य तन्त्र पाँच प्रकार की वायु के आधार पर विश्लेषित किये गये हैं। पीड़ा अपना स्थान बदल रही थी, गर्दन से लेकर कुहनी तक परिमाण में बदल रही थी। दिन और रात में, २ से ६ के बीच, जिस समय वात का समय होता है, उसी समय पीड़ा प्रारम्भ भी हुयी थी और उसी समय पीड़ा अपने अधिकतम बिन्दु पर पहुँच भी रही थी। शरीर में किसी और कारण से वात बढ़ने पर पीड़ा बढ़ रही थी और इसके विपरीत वातनाशक उपायों से पीड़ा कम हो रही थी।


दसवाँ संभावित कारण अपने आप में प्राथमिक कारण नहीं था। इसमें कई कारणों का संश्लेषण होता हुआ दिख रहा था। पहला कारण वातवर्धक था। टीका लगने से शरीर एण्टीबाडीज बढ़ती हैं। इस प्रक्रिया में पहले तापमान बढ़ता है उसके बाद वात। अधिक पानी पीना और ज्वर उतारते रहना आवश्यक होता है। शरीर में ऐठन होना भी इसी का परिचायक है। इस कार्य के लिये शरीर को अधिक ऊर्जा भी आवश्यक होती है। इसके विपरीत जब नवें संभावित कारण में नवदर्गा के व्रत के समय समुचित जल नहीं पिया और अन्न की अनुपस्थिति में शरीर दुर्बल रहा तो उसकी परिणिति शरीर के अन्य अवयवों को पचा कर हुयी, जिससे वात दोष बढ़ा। बढ़े वात के प्रभाव का स्थान संभवतः वह स्थान रहा जो पाँचवे कारण में वर्णित था, या कंधे का जोड़ जो पहले से ही तनिक दुर्बल या क्षतिग्रस्त था। लोकोक्ति भी है कि जब भी पुरुवाई चलती है, पुरानी चोटों और जोड़ों में पीड़ा वापस आ जाती है। इसके साथ ही अन्य संभावित कारण अपने अनुपात में इस वात वर्धन में अपना योगदान दिये होंगे।


सैद्धान्तिक समझ को हमारे चिकित्सक महोदय के निवारण से बल मिला। कारण का लगभग सही सही ज्ञान अपने आप में पीड़ा कम नहीं करता है। उसके लिये विशेषज्ञ की आवश्यकता होती है जो भिन्न उपायों को सही क्रम में रख कर उपचार करता है। हमारे चिकित्सक ने क्या औषधियाँ और उपाय बताये और हमने किन दीर्घकालिक उपायों को अपनी जीवनशैली में अपनाया, जानेंगे अगले ब्लाग में।

18.5.21

बाँह की पीड़ा - विशेष कारण


बाँह की पीड़ा के प्रारम्भिक काल में तीक्ष्णता अधिक नहीं थी। ज्वर और ऐंठन तो २४ घंटे के अन्दर ही समाप्त हो चुके थे। उसके बाद के ६ दिन लगभग सामान्य से थे, बस टीके के स्थान में तनिक भारीपन था। अतः टीका लगने के ८ दिन बाद जब सहसा शेष बाँह और विशेषकर कंधे में पीड़ा हुयी तो आश्चर्य हुआ। यह पीड़ा रात को लगभग दो बजे उठी, दो तीन बिन्दुओं पर अधिक थी और केन्द्रित सी थी, बाँह को लिटा पाना असंभव सा लग रहा था और टहलने में तनिक आराम लग रहा था। पीड़ा की वह अवस्था रात्रि की शेष निद्रा खा गयी।


पहला और तात्कालिक कारण जो समझ में आया कि संभवतः टीके के कारण काँख में कोई गाँठ पड़ गयी हो। बाँह को ऊपर उठाने पर गर्दन से लेकर कुहनी तक एक रेख में खिंचाव सा लग रहा था। इस तथ्य से गाँठ के कारण को बल मिला। सुबह पीड़ा कम होने पर जब काँख में टटोलकर देखा तो किसी प्रकार की गाँठ नहीं थी, ऊँगली से दबाने पर पीड़ा की तीक्ष्णता बहुत नहीं बढ़ रही थी और साथ ही बाँह में कहीं कोई सूजन नहीं थी। इन लक्षणों से यह तो निश्चित हो गया कि नस खिची है पर उसका कारण कोई गाँठ नहीं है। जब आप चिकित्सक के यहाँ जाने में असमर्थ हों तो सारे परीक्षण स्वयं करने होते हैं। मैंने भी अपने चिकित्सक मित्र की सलाह पर यह लक्षण बताये तो उन्होंने मुख्यतः पीड़ानिवारक औषधि बतायीं जिससे रात्रि में नींद आ जाये। यह पीड़ा तीन दिन तक चली उसके बाद तनिक कम हुयी या कहें कि पीड़ानिवारक औषधि के कारण पता नहीं चली।


रात्रि में नींद तीन भागों में पूरी होती थी। पीड़ानिवारक औषधि लेने के बाद लगभग ३ घंटे, अन्यथा दो भागों में लगभग एक एक घंटा। यदि टीके के कारण सूजन या गाँठ के कारण पीड़ा होती तो ४-५ दिन में क्षीण हो जाती। इसके विपरीत और पहली पीड़ा के लगभग दस दिन बाद पुनः पीड़ा उठी। इस बार की पीड़ा कहीं अधिक गहरी और व्यापक थी। अब यह गर्दन, पीठ, कंधे से आती हुयी पूरे बाँह में फैल गयी थी। उस समय लगा कि पीड़ा के कारण को समझने में कहीं कोई भूल हो रही है। पीड़ानिवारकों से पीड़ा के लक्षण तो शमित किये जा रहे हैं पर पीड़ा के कारणों को न तो समझा जा पा रहा है और न ही निवारण ही किया जा रहा है।


उसके बाद की दो रातें पीड़ा की पराकाष्ठा में बीतीं। रात्रि को जब न रहा गया तो सिकाई की, पीड़ानिवारक जेल लगाया। फिर भी जब नींद नहीं आयी और पीड़ानिवारक औषधि लेनी पड़ी तो श्रीमतीजी ने आदेश दिया कि शरीर के साथ अब प्रयोग बन्द कीजिये। निश्चय ही टीका से भिन्न कोई और कारण हो सकते हैं, चिकित्सक से पुनः और विधिवत सलाह लीजिये। यदि आवश्यक हो तो टेस्ट आदि भी करवाइये। इस समय तक मन और शरीर निढाल हो चुका था और सारे संभावित कारणों में स्वीकार्य करने को बाध्य भी। अपने मौसेरे भाई से परामर्श लेने के पहले मन में और तब श्रीमतीजी से उन सारे संभावित कारणों का विश्लेषण किया।


दूसरा संभावित कारण सर्वाधिक उद्विग्न करने वाला था। पीड़ा बायीं बाँह में थी। गर्दन, पीठ, कंधा और बाँह पीड़ा में थे। यह लक्षण हृदयाघात के भी होते हैं। धमनियों में रक्त का प्रवाह रुकने से अंगों में आक्सीजन नहीं पहुँच पाती है और तब बाँह की पीड़ा सहित ये लक्षण प्रकट होते हैं। चिकित्सक ने पूछा कि कुछ घबराहट या साँस की कमी सी भी लग रही है। बताया कि वैसे तो नहीं हो रही थी पर हृदयाघात का विचार आते ही मन भयग्रस्त अवश्य हो गया। अन्य संलग्न कारणों के न होने पर मन आश्वस्त हुआ कि हृदयाघात के प्रारम्भिक लक्षण नहीं हैं।


पीड़ा यदि शरीर के किसी एक अंग में हो या पूरे शरीर में हो तो उसका स्रोत ढूढ़ना अपेक्षाकृत सरल हो जाता है। या तो वह अंगविशेष कारण होगा या वह तन्त्र कारण होगा जो पूरे शरीर में व्याप्त है। यह पीड़ा उन दोनों ही श्रेणियों में नहीं आती थी। यह गर्दन से लेकर कुहनी तक व्याप्त थी, नस के साथ साथ और वह भी शरीर के बायें भाग में। पीड़ा की खोज में अब वे सारे अंग सम्मिलित होने वाले थे जहाँ से जहाँ तक यह नस फैली थी। अब रीढ़ की हड्डी, गर्दन, कंधे और बाँह की माँसपेशियाँ, शेष हड्डी और बाँह के जोड़ परिधि में थे। कहीं न कहीं यह नस दब रही थी, कारण तात्कालिक और दीर्घकालिक दोनों हो सकते थे।


तीसरा संभावित कारण दीर्घकालिक था। जीवन की अर्धशताब्दी आते आते शरीर में कई जीवन्त तत्वों की कमी होने लगती है। कैल्शियम की कमी के कारण आर्थीराइटिस होने लगता है और जब प्रभावित होने वाली हड्डी रीढ़ की हो तो तन्त्रिकातन्त्र पर प्रभाव पड़ता है। कौन सी रीढ़ की हड्डी प्रभावित हुयी है, उससे पता चलेगा कि किस अंग को जाने वाले तन्त्रिकातन्तु पीड़ा का कारण बनेंगे? बंगलुरु में अपने वरिष्ठ अधिकारी की पत्नी की पीड़ा और आपरेशन को देखा है। अधिकतम जटिलता और अत्यन्त कष्ट से होकर ही कोई निवारण हो पाता है। शरीर के किसी अन्य अंग से जोड़ों में कोई पीड़ा नहीं थी और दूध पीना बचपन से प्रिय रहा है अतः इस कारण की भी प्रायिकता कम ही लग रही थी।


चौथा संभावित कारण जीवनशैली से संबंधित था। अधिक समय तक बैठ कर कम्प्यूटर पर कार्य करने से या पीठ टेढ़ी करके बैठने से गर्दन क्षेत्र की रीढ़ की हड्डियाँ तनिक मुड़ जाती है और सरवाइकल की समस्या हो जाती है। यह पीड़ा बड़ी कष्टकारी होती है। प्रशिक्षण और अध्यापन में होने के कारण दिन में लगभग ५-६ घंटे तक तो यह स्थिति बनी रहती है। संभव था कि कालान्तर में यहीं पीड़ा का कारण बन गया हो। यदि यह पीड़ा का कारण होता तो पीड़ा की उत्पत्ति गर्दन से होती पर मेरी पीड़ा बाँह से उत्पन्न होकर गर्दन तक पहुँची थी। अतः इस कारण की संभावना भी तनिक न्यून थी।


शेष संभावित ६ कारण अगले ब्लाग में।

15.5.21

मैं उत्कट आशावादी हूँ

मैं उत्कट आशावादी हूँ।

मत छोड़ समस्या बीच बढ़ो,

रुक जाओ तो, थोड़ा ठहरो,

माना प्रयत्न करने पर भी,

श्रम, साधन का निष्कर्ष नहीं,

यदि है कठोर तम, व्याप्त निशा,

कुछ नहीं सूझती पंथ दिशा ।

बन कर अंगद-पद डटा हुआ, मैं सृष्टि-कर्म प्रतिभागी हूँ।

मैं उत्कट आशावादी हूँ।।१।।

 

सूखे राखों के ढेरों से,

पा ऊष्मा और अँधेरों से,

पाता व्यापकता, बढ़ जाता,

दिनकर सम्मुख भी जलने का,

आवेश नहीं छोड़ा मन ने,

आँखों में ध्येय लगा रमने,

है कर्म-आग, फिर कहाँ त्याग, मैं निष्कर्षों का आदी हूँ।

मैं उत्कट आशावादी हूँ।।२।।

 

पत्ते टूटेंगे पेड़ों से,

निश्चय द्रुतवेग थपेड़ों से,

आहत भी आज किनारे हैं,

सब कालचक्र के मारे हैं,

क्यों चित्र यही मन में आता,

जीवन गति को ठहरा जाता,

व्यवधानों में जलता रहता, मैं दिशा-दीप का वादी हूँ।

मैं उत्कट आशावादी हूँ।।३।।

 

कर लो हिसाब अब, इस जग में,

क्या खोया, क्या पाया हमने,

जीवन पाया, संसाधन सब,

जल, खिली धूप, विस्तार वृहद,

यदि खोयी, कुछ मन की तृष्णा,

श्रम, समय और कोई स्वप्न घना,

हर दिन लाये जीवन-अंकुर, मैं नित प्रभात-अनुरागी हूँ।

मैं उत्कट आशावादी हूँ।।४।।

 

भ्रम धीरे-धीरे खा लेगा,

थकता है मन, बहका देगा,

मन-आच्छादित, नैराश्य तजो,

उठ जोर, जरा हुंकार भरो,

धरती, अम्बर के मध्य व्यक्त,

कर गये देव तुझको प्रदत्त,

मैं लगा सदा अपनी धुन में, प्रेरित छन्दों का रागी हूँ।

मैं उत्कट आशावादी हूँ।।५।।

 

जब किया जलधि-मंथन-प्रयत्न,

तब निकले गर्भित सभी रत्न,

हाथों में सुख की खान लिये,

अन्तरतम का सम्मान लिये,

स्वेदयुक्त सुत के आने की,

विजय-माल फिर पहनाने की,

आस मही को, क्यों न हो, मैं शाश्वत कर्म-प्रमादी हूँ।

मैं उत्कट आशावादी हूँ।।६।।

 

जीवन के इस चिन्तन-पथ को,

मत ठहराओ, गति रहने दो,

चलने तो दो, संवाद सतत,

यदि निकले भी निष्कर्ष पृथक,

नित चरैवेति जो कहता है,

अपने ही हृद में रहता है,

वह दीनबन्धु, संग चला झूमता, मैं बहका बैरागी हूँ।

मैं उत्कट आशावादी हूँ।।७।।


(बहुत पहले लिखी थी, मन हो आया पुनः कहने का, मन के विश्वास को पुनः स्थापित करने का)


13.5.21

बाँह की पीड़ा - कारण


विज्ञान के प्रयोग बड़े अच्छे लगते थे, सरल होते थे, उनसे व्यवस्थित ज्ञान पाने का अभिमान होता था। शेष को नियत कर एक कारण को घटाया और बढ़ाया जाता था और उसका प्रभाव किसी तत्व विशेष पर देखा जाता था। कारण और कार्य में तब एक संबंध स्थापित होता था, समानुपाती या व्यतिक्रमानुपाती। किसी वस्तु पर बल लगाने से गति उत्पन्न होती है, बल दुगुना कर दिया जाये तो गति भी दुगुनी हो जाती है, बल दुगुने समय के लिये लगाया जाये तब भी गति दुगनी हो जाती है।


एक कार्य में कई कारण होते हैं। वैशेषिक दर्शन बताता है कि कारण मुख्यतः तीन प्रकार के होते हैं, समवायी जो कार्य में प्रमुख रूप से विद्यमान रहते हैं, असमवायी जो कार्य में गौड़ रूप से विद्यमान रहते हैं और निमित्त जो अपना योगदान देकर विलीन हो जाते हैं। कर्म एक निमित्त कारण है, अपना योगदान देकर नष्ट हो जाता है। रासायनिक प्रक्रियाओं में ऊष्मा, तापमान, उत्प्रेरकों को निमित्त कारण माना जा सकता है।


योग को समझा तो उसमें भी एक तत्व पर धारणा करते हुये ध्यान की प्रक्रिया से समाधि की स्थिति प्राप्त की जाती है। निष्कर्ष होता है, उस तत्व का और उससे संबंधित सभी अन्य तत्वों का पूर्ण ज्ञान। जैसे जैसे अभ्यास बढ़ता है, समाधि सविकल्प से निर्विकल्प हो जाती है, कोई वाह्य कारक नहीं रहता है, आत्म पर ही समाधिस्थ, आत्मज्ञान या ऋतम्भरा प्रज्ञा या कैवल्य की स्थिति प्राप्त हो जाती है। स्व में स्थित जीव तब स्वस्थ हो जाता है, सत, चित और आनन्द के स्पंद अनुभव करने लगता है।


विज्ञान, वैशेषिक और योग के इन सिद्धान्तों को जब अपनी पीड़ा के कारण जानने में प्रयुक्त किया तो निश्चित निष्कर्ष नहीं मिले। पीड़ा का स्रोत किसी एक कारण पर नियत नहीं कर सका। एक नहीं लगभग दस संभावित विकल्प दिखे जो कि कारण हो सकते थे। किसका योगदान था, किसका नहीं, इसका निर्धारण करना आवश्यक था क्योंकि पीड़ा का निवारण उसके कारण पर निर्भर करता है। कठिनता इस बात की भी थी कि ये सारे के सारे कारण नैमित्तिक थे। आये और अपना कार्य कर के चले गये, पीड़ा देकर चले गये। समवायी और असमवायी कारणों को तो फिर भी प्रयोगों से या उनकी स्थूल या सूक्ष्म उपस्थिति से पकड़ा जा सकता है, कार्य में लगे नैमित्तिक कारणों का केवल अनुमान किया जा सकता है। अब मुझे उसी अनुमान की प्रक्रिया से होकर जाना था और शंकराचार्य के नेति नेति के सिद्धान्त से मूल कारण तक पहुँचना था।


कार्य जितना वृहद, अस्पष्ट और जटिल होता है, कारण उतने ही व्यापक होते हैं। एक अच्छे स्वास्थ्य के कालान्तर में क्या क्या कारण रहे हैं, बताना सरल नहीं है। क्या किया गया, क्या नहीं किया गया, विधेय और निषेध दोनों ही कारण रूप में आते हैं। अच्छे स्वास्थ्य से साधर्म्य रखने वाले कारण विधेय और वैधर्म्य रखने वाले कारण निषेध। पूरा आयुर्वेद इसी साधर्म्य और वैधर्म्य के सिद्धान्तों पर आधारित है। महान राष्ट्र के क्या कारण रहे, सशक्त संस्कृति के क्या कारक रहे, न जाने कितनों का योगदान रहा, यह विश्लेषण सरल नहीं होता है। इसके विपरीत तात्कालिक कार्य या प्रभाव का कारण पता लगाना सरल होता है क्योंकि उसके कारण भी तात्कालिक होते हैं, वर्तमान या निकट भूत में होते हैं।


सामान्यदृष्ट्या पीड़ा का भी एक निश्चित कारण तो होता ही है। सीमाओं के लंघन का संकेत देती हैं पीड़ायें। शरीर में कुछ चुभन होती है, पीड़ा होती है, संकेत होता है कि कुछ अन्यथा हो रहा है। यदि उसका तत्काल निवारण नहीं किया जायेगा तो बड़ा अनर्थ हो सकता है। शरीर के रक्षातन्त्र का सुचारु रूप से चलते के लिये संकेत देती रहती है पीड़ा। स्थूल विकार हो या सूक्ष्म, पीड़ा कई रूपों में आकर संकेत देती है। मुझे कभी भी कुछ उदर विकार होता है तो सर में तनिक भारीपन आ जाता है। यह एक स्पष्ट संकेत होता है कि आप तुरन्त उस असामान्य परिस्थिति का विश्लेषण करें, तत्पश्चात उसका निवारण करें। यही मानसिक पीड़ाओं में भी होता है। हमारा एक मानसिक विश्व होता है, उसकी सीमाओं का अतिक्रमण हमें पीड़ा पहुँचाता है। कोई हमारे प्रतिकूल जाता है तो हमें दुख होता है, पीड़ा होती है। जब हमारे अहं की सीमाये दूसरों को प्रभावित करती हैं तो उनको पीड़ा होती है। पीड़ा के इन संकेतों का होना प्रकृति को अपना स्थैर्य बनाये रखने के लिये नितान्त आवश्यक है।


सामान्य परिस्थितियों में पीड़ा भी एक सीमा में ही आती है, संकेत देने के लिये। किन्तु जब पीड़ा सहसा आये और असह्य हो जाये तो मानकर चलिये कि आप कोई विराट भूल कर बैठे हैं, कुछ ऐसा कर बैठे हैं जो आपकी सामान्य दिनचर्या या जीवनचर्या का अंग नहीं रहा है। बाँह की पीड़ा का सहसा उत्पन्न होना और लगभग दस दिन बाद भड़क जाना बाध्य कर गया कि पिछले कुछ काल में घटित उन सारे कारणों पर दृष्टिपात किया जाये जो कि असमान्य थे। साथ ही उन संभावित विकारों पर भी मनन किया जाये जो कालान्तर में शनैः शनैः अपना आकार धरते हैं।


छात्रजीवन में विद्यालय के एक मित्र दिवस मुझे अपने घर ले गये थे। उनके पिताजी ने, जो एक वैज्ञानिक थे और दुर्भाग्यवश अब हमारे बीच नहीं है, एक बड़ी रोचक शिक्षा दी थी। विषय प्रतियोगी परीक्षाओं के कठिन प्रश्नों को हल करने का था और समाधान इस समस्या का था कि प्रश्न को किस स्तर पर जाकर हल करना है। एक उदाहरण जो उन्होंने दिया था, वह मुझे अभी तक याद है और मेरे मानसिक व्यवहार का आवश्यक अंग बन चुका है। उन्होंने पूछा कि यदि लाइट चली जाती है तो आपके मन में क्या विचार आयेगा? मैंने उत्तर देना प्रारम्भ किया, दो तीन कारण बताये, उन्होने और की अपेक्षा की। अन्ततः लगभग दस संभावित कारण मैं बता सका। उन्होनें कहा कि कठिन प्रश्न का अच्छा हल पाने के लिये सारे संभावित विकल्प आपने मन में कौंधने चाहिये। उसके बाद प्रस्तुत तथ्यों के आधार पर एक एक विकल्प को विश्लेषण द्वारा आप सूची से बाहर करिये। जैसे यदि दूसरे कमरे में लाइट आ रही है तो ग्रिड की विफलता नहीं है। जब दो या तीन विकल्प रह जाते हैं तब विश्लेषण कठिन हो जाता है, और तथ्य आवश्यक होते हैं, प्रक्रिया समय लेती है पर आपके उत्तर की दिशा सम्यक होती है।


विज्ञान की इस तार्किक प्रक्रिया को इतने सरल ढंग से समझ पाना और उसे जीवन में उतार पाना मेरी चिन्तन पथ का सौभाग्यतम बिन्दु रहा है। यही प्रक्रिया मैनें जब बाँह की पीड़ा के कारण जानने के लिये प्रयुक्त की तो स्थितियाँ और स्पष्ट हुयीं। जानेंगे अगले ब्लाग में।

11.5.21

बाँह की पीड़ा - प्रसारण

 

जब सकल विश्व पीड़ासित हो तो बाँह की पीड़ा पर कुछ कहना परिवेश की परिस्थितियों का संवेदनहीन परिहास ही कहा जायेगा। जब काल विकराल हो चला हो, मृत्यु चतुर्दिक ताण्डव कर रही हो, भविष्य अस्थिर हो, स्तब्ध मानवता अपने अस्तित्व में सिकुड़ी पुनः सामान्य क्षणों की प्रतीक्षा में हो, उस समय बाँह की पीड़ा का विषय ले बैठना अनुचित ही कहा जायेगा। सहमत हूँ, न जाने कितनी सूचनाओं पर हृदय विदीर्ण हुआ है, परिचितों, परिजनों और बान्धवों ने अपनों को खोया है। उन सबकी अथाह मानसिक पीड़ा को समझ पाना सरल नहीं है। किसी अन्य प्रकार से उसकी तुलना करना संभव ही नहीं है। उससे तुलना करना या उसकी उपेक्षा करना मेरा उद्देश्य भी नहीं है। मेरे लिये बाँह की पीड़ा के अनुभव साझा करने का एकमात्र उद्देश्य पीड़ा के स्वरूप का विश्लेषण करना है। उस स्वरूप का, जो आती है, सब ध्वंस कर चली जाती है, तब कुछ भी पूर्ववत नहीं रहता है, पुराने साम्यबिन्दु अस्थिर हो जाते हैं, जीवन में नये अंग जोड़ने पड़ते हैं, अस्तित्व को पुनः स्थापित करना पड़ता है, एक पुनर्जन्म सा होता है।


बाँह की पीड़ा कदाचित इतना महत्व न पाती यदि परिस्थितियाँ सामान्य होतीं। पूरा चिकित्सीय तन्त्र कोरोना का त्रास झेल रहा है और यथासंभव उससे जूझ रहा है। ज्ञानदत्तजी ने गाँवों की परिस्थितियों का जो वर्णन किया है उससे हृदय काँप उठता है। इस संकट को पार कर जो सकुशल पहुँच पायेंगे उसमें एक बड़ा योगदान उनकी प्राकृतिक प्रतिरोधक शक्ति का होगा, साथ ही मानसिक इच्छाशक्ति का भी जो उन्हें जीने के लिये प्रवृत्त करेगी। गाँवों की जीवट जीवनशैली संभवतः इन दोनों शक्तियों को देने में समर्थ है क्योंकि नगरों का सुविधाभोगी स्वरूप इस समय अत्यन्त हृदयविदारक दृश्य प्रस्तुत कर रहा है।


आज लगभग एक माह हो आया और अब बाँह की पीड़ा सहनीय है, सामान्य क्रियाकलाप और जीवनक्रम निभा पा रहा हूँ। इस कालखण्ड में पर जो अनुभव किया है, उसे कहना आवश्यक है। प्रकरण कथनीय इसलिये है कि उसमें बहुत कुछ सीखने को मिला। पीड़ा के स्पंदों में दार्शनिकता कहाँ रह जाती है, क्या प्रधान हो जाता है, क्या गौड़ हो जाता है, यह सारे पक्ष उद्घाटित हुये। छोटे छोटे वे तथ्य जिन्हें हम कभी ध्यान भी नहीं देते, वे कपाल फोड़ते हुये आपके चिन्तन में आ धमकते हैं। मन कैसे बलात खींच लेता है, शरीर कैसे अपना दम्भ प्रस्तुत करता है, कैसे तात्कालिकता हावी हो जाती है, दृष्टिकोण चरमराते हैं, प्राथमिकतायें सरकने लगती हैं, एक एक क्षण जीने की जिजीविषा में बड़ी बड़ी योजनायें सहम कर छिप जाती हैं। आनन्द और उन्माद का कालखण्ड तो भोग देकर चला जाता है, व्यक्ति देवत्व का अनुभव करता है। पीड़ा का कालखण्ड जीवन को घूर्ण चूर्ण कर देता है, वह सब सिखा देता है जो देवता समझ भी नहीं सकते। मनुजत्व का यह अभिमान देवों के लिये भी ईर्ष्या का विषय है, देव कहाँ पीड़ा पाते हैं? पीड़ा के पथ पर सचेतन जाने की आवश्यकता है। यदि पीड़ा से आप निष्क्रिय हो अचेत पड़े रहें या पीड़ा के लक्षणों को तुरन्त शमित करने में लग जायें तो वह सब समझना संभव नहीं है जो पीड़ा सिखाने में सक्षम है।


एक माह पहले टीका लगवा लिया था, ४५-५९ वर्ष के नागरिकों के लिये अनुमति के एक सप्ताह बाद ही। एक दिन ज्वर आया, शरीर में ऐंठन हुयी। प्रारम्भिक कोप के बाद शरीर सम्हला पर बाँह में टीके के स्थान पर भारीपन बना रहा। टीके लगने के एक सप्ताह बाद वह पीड़ा पूरे बाँह में फैल गयी, कन्धे के जोड़ों पर और काँख के पास एक विशेष अड़चन और अकड़न सा अनुभव होने लगा। इसे टीका के अपप्रभावों को मानकर मैं पीड़ा सह रहा था। कहते हैं प्रतिरोधक क्षमता का विकास शरीर के अवयवों से ही होता है। शरीर के अन्दर हुयी यह टूट फूट पीड़ा के माध्यम से ही व्यक्त होती है। बाँह की पीड़ा रात्रि के सोने में व्यवधान डालने लगी। इसे टीका का एक सामान्य अपप्रभाव मानकर अधिक ध्यान नहीं दिया पर जब दो दिन के बाद भी कुछ सुधार नहीं हुआ तो एक चिकित्सक मित्र से फोन पर सलाह ली। उन्होंने बताया कि शरीर अपनी तरह से लड़ रहा है, सबको टीका लगने के बाद कुछ असामान्यता आयी है, पीड़ानिवारक औषधि ले लो, रात की नींद पूरी करना आवश्यक है। यद्यपि उस समय नवदुर्गा के व्रत का पाँचवाँ दिन चल रहा था, देवीमाँ से क्षमा माँगते हुये लगभग तीन रातों में पीड़ानिवारक औषधि लीं। 


व्रत समाप्त हुआ, अन्न के प्रभाव में पीड़ा कुछ कम हुयी और लगा कि सब सामान्य हो जायेगा कि सहसा एक सप्ताह बाद बाँह की पीड़ा पुनः भड़क गयी, असहनीय हो गयी। न हाथ उठाये बनता था न कहीं टिकाये बनता था, बस लटकाये रहने पर ही पीड़ा तनिक सहनीय हो पाती थी। इस आस में कि पीड़ा की तीक्ष्णता स्वतः कम हो जायेगी, दो दिन तक सिकाई की और रात्रि में पीड़ानिवारक औषधि ली। जब कुछ लाभ नहीं हुआ तो अपने मौसेरे भाई से विस्तारित चर्चा की। वे हड्डियों के सिद्धहस्त चिकित्सक हैं। पूरे परामर्श में उन्होने पहले मेरे द्वारा व्यक्त आशंकायें सुनी, उसके बाद कई लक्षणों के बारे में कुरेद कुरेद कर पूँछा। सारा क्रम सुनिश्चित करने के बाद पाँच दिन की औषधियाँ दी, सिकाई करने को कहा, पीड़ानिवारक जेल लगाने को कहा, मालिश करने को मना किया।


पाँच दिन पूरे होते होते ऐसा लग रहा था कि कुछ लाभ नहीं हो रहा है। पीड़ा यदि एक सीमा के पार चली जाती है तो अपनी माप खो देती है। कम और अधिक में भेद नहीं रह जाता है, पीड़ा बस पीड़ा रह जाती है। संभवतः वही मेरे साथ भी हो रहा था। यद्यपि आन्तरिक अवयवों में सुधार हो रहा था पर पीड़ा बनी रहने के कारण उसका आभास नहीं हो रहा था। सिकाई, लेपन, विश्राम, औषधि, रात्रि जागरण आदि ही मुख्य गतिविधियाँ हो गयी थी, शेष जीवन में कुछ भी घटित नहीं हो पा रहा था। दिनचर्या पूर्णतया ध्वस्त और अस्तव्यस्त हो चुकी थी और उस समय जीवन का एकमात्र लक्ष्य पीड़ा को सहना और उसके पार निकलना था। वाह्यविश्व की भयावह परिस्थितियों पर बाँह की पीड़ा भारी थी और पूर्णरूपेण व्यापी थी। क्या घटनाक्रम चल रहा है, क्या समय चल रहा है, दिन है कि रात है, सप्ताह का कौन सा दिन आया है, सब गौड़ हो चला था, पीड़ा प्रधान थी।


औषधिकाल समाप्त होने के बाद सहसा सुधार प्रारम्भ हुआ। पीड़ा की तीक्ष्णता कम हुयी, रात्रि में टूटी नींद के कालखण्ड बढ़े, बाँह बाँध कर थोड़ा टहलने का साहस हुआ। दिनचर्या और जीवनक्रम तनिक सामान्य होने की ओर अग्रसर है पर पीड़ा पूरी तरह से लुप्त नहीं हुयी है, समय पाकर स्मृति और शरीर में लहरा जाती है। जिस समय तक आप यह पढ़ रहे होंगे, संभवतः पीड़ा न्यूनतम हो जाये पर स्मृति में उसकी यह हूक आने वाले समय में लम्बी बनी रहेगी। जीवन में पहली बार ऐसा हुआ है कि कोई भी पीड़ा इतने समय तक बनी रही और झकझोर कर चली गयी।


आने वाले ब्लागों में बाँह की पीड़ा का कारण, निवारण और उच्चारण व्यक्त होंगे।

8.5.21

काल के किस ओर जीवन


अंध व्यापा दिशा तम घनघोर जीवन,

कल जाने काल के किस ओर जीवन।


वृहद, आगत योजना के आकलन में,

रत रहे संसाधनों के संकलन में,

कर्म क्रम संभाव्य सीमा में समेटे,

सकल रचनावृत्त बाहों में लपेटे,

ज्ञात गति व्यवहार, अति आश्वस्त हम सब,

दृष्टिगत आकार में थे व्यस्त हम सब,

आज की निश्चिंतता किस छोर जीवन।

कल जाने काल के किस ओर जीवन ।१।


प्रकृति को कर हस्तगत, उत्ताल मद में,

दम्भ सृष्टा सा धरे विकराल हृद में,

नित्य निर्मित विश्व नव विस्तार अगनित,

सृष्टि पर अभिमानपूरित दृष्टि प्रमुदित,

अंध आँधी बन उमड़ती सृष्टियाँ सब,

भ्रमित शंकित रुद्ध बैठीं दृष्टियाँ सब,

क्या पता अब जगत के किस ठौर जीवन,

कल जाने काल के किस ओर जीवन ।२।


हम यथासंभव लड़ेंगे, लड़ रहे हैं,

सतत संकट सहन करते, बढ़ रहे हैं,

प्राण को जो पूर्णता से साधता है,

जो ग्रहों को घूर्णता से बाँधता है,

उस नियन्ता से यही आराधना है,

एक ही बस सर्वहित लघु प्रार्थना है,

रात्रि के उस पार पाये भोर जीवन।

कल जाने काल के किस ओर जीवन ।३।