30.11.16

लिली पाण्डेय

लिली रेलवे बोर्ड में वरिष्ठ अधिकारी हैं और कार्मिक विभाग का उत्तरदायित्व वहन कर रही हैं।बंगलुरु में उनके साथ कार्य करने का सौभाग्य मिला है। कला और साहित्य में रुचि है। रेलवे में कला के विषय परसफरनाम की पुस्तिका की सहलेखिका भी रही हैं। उसी के आगामी अंक के लिये लिली ने एक कविता लिखी थी। पढ़ने को दी, बहुत अच्छी लगी, गुनगुनायी और हिन्दी में अनुवाद कर दी। शाब्दिक के स्थान पर भावानुवाद किया है। आप भी पढ़ें।

Whirl of wheels
Setting in motion the celestial machinery
Turning to infinity, to eternity
An epic adventure beyond 
Beginnings & denouement 
Spinning a universe of words, forms and shapes
A cadence of dervishes
The dance of Shiva
Spasm of creation ..

~ Lily Pandeya

अथ कालचक्र निःश्वास नाद,
बढ़ता गतिमय वैश्विक प्रमाद,
शाश्वत, अनंत
निर्बन्ध छन्द,
आगत स्वागत, सब मार्ग सुप्त,
यात्रा अनादि, संहारमुक्त
शब्दों, आकृति आकारों में 
जग घूर्ण पूर्ण विस्तारों में
दरवेशी तालों पर विशेष
नर्तन नवनूतन शिवप्रवेश
घनघुमड़ उमड़ती सृष्टिशेष


भावानुवाद - प्रवीण पाण्डेय

लिली के साथ, बीजिंग में

27.11.16

चीन यात्रा - १८

अपनी संस्कृति पर गर्व करने वालों को लोग पुरातनपंथी समझते हैं। पुरातन से विद्वेष और नूतन से लगाव तथाकथित बुद्धिजीवियों का पहचान-तत्व बन गया है। समझना और समझाना तब और कठिन हो जाता है जब संस्कृति पर आस्था रखने वालों और न रखने वालों ने संस्कृति के मर्म को नहीं समझा होता है। तर्क तब परिधि पर ही रहते हैं, केन्द्र में सत्य संदोहित हुये बिना ही पड़ा रहता है। पक्ष में और विपक्ष में बोलने के लिये संस्कृति को समझना आवश्यक है। समझने के लिये पढ़ना और जीना आवश्यक है, नहीं तो तर्क शुष्क रह जाते हैं। संस्कृति के रूप में न जाने कितना ज्ञान, न जाने कितनी बुद्धिमत्ता हमें विरासत में सहज ही मिल जाती है। साथ ही साथ कुछ विकृतियाँ भी मिल जाती हैं जो संभव है कि किसी काल में संस्कृति के अनुकूल रही हों पर वर्तमान में विपरीत हों। संस्कृति का मर्म समझने के क्रम में ऐसी विकृतियाँ स्पष्ट दिखती हैं और दूर की जा सकती हैं। जो लोग मात्र कुछ विकृतियों के लिये अपनी पुरानी संस्कृति को छोड़ देते  हैं और नये को बिना सोचे समझे अपना लेते हैं, वे संस्कृति-संकर कहीं के नहीं रहते हैं। 

चीन में पुरानी संस्कृति का आज तक कहीं भी लोप नहीं हुआ है। वहाँ की सत्ता ने भले ही संस्कृति के स्वरूप को भले ही आघात पहुँचाया हो पर संस्कृति की आत्मा को नष्ट नहीं कर पायी है। कालान्तर में सत्ता ने संस्कृति के सुदृढ़ पक्षों का उपयोग आर्थिक और सशक्त राष्ट्र बनने में प्रयुक्त किया है। भारत इतिहास के आघातों से बिखरा और भ्रमित खड़ा है। संस्कृति में शक्ति के सूत्र छिपे हैं पर वह स्वयं पर विश्वास ही नहीं कर पा रहा है। बौद्धिक क्षमता है पर स्वयं को समझा नहीं पा रहा है। अन्तर्विरोधों से क्षीण और अपनी प्राथमिकतायें निर्धारित करने में असमर्थ देश को यदि कुछ चाहिये तो वह दिशा और संबल हैं। विश्व सौ पग आगे दिखता है और अपने पग पर समस्याओं के शत पाथर बँधे हैं, इसी पशोपेश के दिग्भ्रम मे आवाक सा बैठा हुआ है। 

सृजनशीलता है, सहनशीलता है, उपलब्धियों से भरा कालखण्ड है। स्वयं को सिद्ध नहीं कर पाये हैं तो पददलित भी नहीं हुये हैं। उठना होगा, बढ़ना होगा, उन्नति के शिखरों में चढ़ना होगा। पूर्वजों को संतुष्ट करने को लिये, आने वाली संततियों को गौरव करने के लिये कुछ शेष रहे, इसके लिये कुछ न कुछ करना ही होगा। छोटा नहीं, बड़ा करना होगा, बहुत बड़ा करना होगा।

चीन के रेलतन्त्र में देखा, रेल विश्वविद्यालय में देखा, नगरीय व्यवस्था में देखा, व्यापार में देखा, यातायात में देखा, कुछ भी छोटा नहीं पाया वहाँ पर। सिल्क रोड से लेकर आधुनिक सिल्क रोड तक, स्टील के उत्पादन से लेकर अंतरिक्ष कार्यक्रम तक, सब के सब असाधारण सोच के उदाहरण हैं। व्यवस्थाओं के स्वरूप जो सिद्ध हो चुके हैं, उन्हें यथास्वरूप अपनाने में क्या समस्या हो सकती है। 

भारत और चीन का संबंध बहुत पुराना है। हम चाहें, न चाहें हमें पड़ोसी के रूप में ही रहना है। भारत ने एक भी सैनिक भेजे बिना चीन को अपनी संस्कृति के बल पर सदियों तक अपने विचार के अधिकारक्षेत्र में रखा है। बौद्ध धर्म के माध्यम से अपना आध्यात्मिक वर्चस्व बनाकर रखा है। बौद्धिक प्रभुत्व के इस लम्बे कालखण्ड ने दोनों संस्कृतियों के बीच संबंध प्रगाढ़ किये हैं। वर्तमान राजनैतिक वर्चस्व की होड़ संभवतः उसी की प्रतिक्रिया है। शक्ति को शक्ति ही साधती है। अभी भी हम बौद्धिक रूप से चुके नहीं हैं। अपनी क्षमताओं का उपयोग कर हमें भी समकक्ष आना होगा और आँख से आँख मिलाकर बात करनी होगी, व्यापारिक क्षेत्र में भी, यदि आवश्यकता पड़ी तो सामरिक क्षेत्र में भी। संबंधों को राजनैतिक कटुता से हटाकर पुनः संस्कृति के आधार पर सिद्ध करना ही होगा।

व्यक्तिगत रूप से जितना सीखने को मिला, वह संभवतः पढ़कर सीख पाना संभव नहीं था। संस्कृतियाँ सोचने का ढंग बदल देती हैं। जब सब एक सा सोचते हैं तभी शक्ति का उद्भव होता है। भिन्न विचार श्रंखलायें या तो भ्रम फैलाती हैं या सीमित और दिशाहीन विकास करती हैं। यदि हमारे पास कोई एक ऐसा तत्व है जो सबको संगठित कर एक दिशा में प्रवृत्त कर सकता है तो वह है हमारी संस्कृति। बड़ी सोच के जो सूत्र हमारी संस्कृति में त्यक्त पड़े हैं, उनका आह्वान करना होगा। अपने पुरुषार्थ को पुनर्जाग्रत करना होगा। धन्यवाद उन्हें देना चाहिये जो हमें हमारी क्षमतायें सिद्ध करने के लिये उकसाते हैं। चीन का आभार, हम निश्चय ही स्वयं को सिद्ध करेंगे।


इति चीन यात्रा।