12.11.19

मेरे राम

राम के बारे में जितना पढ़ा, रामचरितमानस के माध्यम से ही पढ़ा। जितनी बार पढ़ा, राम उतने ही रमते गये मन में। हर उस संबंध में रम गये जो उन्होंने निभाया। समझ नहीं आता कि तुलसी ने राम को प्रसारित किया कि राम ने तुलसी को या हनुमान ने दोनों को?

जितनी बार भी राम का चरित्र पढ़ा है जीवन में, आँखें नम हुयी हैं। कल मेरे राम को अपना आश्रय मिल गया, कृतज्ञतावश पुनः अश्रु बह चले। धार्मिक उन्माद के इस कालखण्ड में भी सदैव ही मेरे राम मुझे दिखते रहे हैं, त्याग में, मर्यादा में, शालीनता में, चारित्रिक मूल्यों में। दो माह पूर्व देख आया था उनको, दृश्य देखकर हृदय बैठ गया था। आज राम को वहाँ आश्रय मिला जिसके लिये मेरे राम स्वर्णमयी लंका छोड़ आये। उल्लास के आँसू है। जिनका भी तनिक योगदान है, मेरे राम को आश्रय दिलाने में, सबको मेरी अश्रुपूरित अंजलि, शब्द भाव न व्यक्त कर पायें संभवतः।

बार बार पढ़ा राम को, बार बार जाना राम को, सीमित मन से जितना संभव हुआ। हर बार पिछली बार से अधिक रोया मन। अथाह धैर्य, अथाह प्रेम, अथाह औदार्य, अथाह आर्जवता। भला कौन सहता है इतना? कौन अपने मानक स्वयं इतने कठिन बनाता है जीवन में? कौन बैठकर शबरी के जूठे बेर प्रेमपूर्वक खाता है? कौन अपने भाईयों को इतना चाहता है? कौन कहता है धरती से कि भरत जब इस पथ आये तो उसे न चुभना क्योंकि जब उसे पता चलेगा कि राम को यही कष्ट हुआ होगा तो वह सह न पायेगा। कौन भाई भला अपने भाई को इस स्तर तक समझ भी पाता होगा? कौन सा मानक हो उनके लिये जो सबके मानक हों।

रामचरितमानस पढ़ने में कई बार आँखें गीली संभवतः इसीलिये होती हैं। राम पर तो चाह कर भी किसी को क्रोध नहीं आ सकता। मेरे राम तो प्रारम्भ से अन्त तक औरों के हित के लिये स्वयं के द्वारा सताये हुये रहे। सदैव दुख सहने को तैयार। अब इस सहनशीलता पर बताईये क्रोध आये कि नयन आर्द्र हो जायें? 

राम में रमना अब किसी प्रतीक की प्रतीक्षा में नहीं रहता हैं मेरे लिये। रामचरितमानस में उतरते ही आँसुओं के स्रोत सक्रिय हो जाते हैं। इतना वृहद चरित्र हृदय में उतारने में डर केवल इस बात का लगता है कि कहीं मेरी क्षुद्रता अपना अहम न खो दे।

राम पर संवाद जितना भी होता है उसमें एक पक्ष उन्हें सर्वजन की तरह निर्णय न लेने लिये उलाहना देता है वहीं दूसरा पक्ष उनकी महानता, उनके त्याग से उन्हें परिभाषित करता है। एक कहता है कि क्यों हो गये इतने लौह हृदय? मानवीय भावों को क्यों नहीं प्रदर्शित किया, क्यों तोड़ी उनकी सीमायें? दूसरा पक्ष उनको महानता की चौखट में जड़कर आराध्य बना देता है। कितना सहा है उस आराध्य ने, हर पग पर, पर पथ पर, आज तक, अब तक। इतनी आराधना के बाद भी असमर्थ रहे उनके आराधक, ५०० वर्ष का वनवास। बैठी सगुन मनावत माता जैसा भाव लेकर आज आस प्रस्फुटित हुयी है। महानता धारण करना कठिनतम है, फिर भी संयमित रहे मेरे राम, मर्यादा में, आज तक।

कभी चाहा कि कृष्ण की तरह व्यवहारिक हो जाऊँ, शठे शाठ्यम् समाचरेत सीख लूँ। गुरुचरणदास की डिफिकल्टी आफ बीइंग गुड पढ़ी। सज्जनता के दंश को समझा। कृष्ण का चरित्र आकर्षक लगता है, आश्चर्य होता है कि कैसे बुद्धिबल पर पूरा महाभारत जीतने की क्षमता थी उनमें। शत्रुओं को उनके स्तर पर जाकर निपटाया। समय आया तो रण छोड़कर भाग भी गये। मेरे राम तो अपने आदर्शों से हिले ही नहीं, रण छोड़ा ही नहीं, अपने ऊपर ही सब ले लिया, अद्भुत स्थैर्य था उनमें। मैं तो चाह कर भी कृष्ण सा नहीं हो पाया, हर बार लगा कि अपने राम से तनिक सा भी छल न हो जाये।


रोम रमो हे राम, तुम्हारी जय हो।
जन मन के अभिराम, तुम्हारी जय हो।

चित्र साभार - https://www.whoa.in/gallery/lord-ram-with-hanuman-milan-image

9.11.19

अभ्यास और वैराग्य - २४

जब एक ही विषय पर धारणा, ध्यान और समाधि क्रमपूर्वक लगे तो उसका पारिभाषिक नाम संयम है। यह लौकिक संयम से तनिक भिन्न है। जब समाधि लगने लगती है तो विषय उत्तरोत्तर सूक्ष्म होते जाते हैं। अनन्त विषय हैं, संयम के लिये, लगभग सारे ही स्थूल और सूक्ष्म विषयों पर, भावों पर, विचारों पर, शब्दों पर, मन्त्रों पर, सब पर ही संयम किया जा सकता है।

संयम का जय होने पर प्रज्ञा का आलोक हो जाता है, विषय प्रकट हो जाते है। ज्ञान से समझ और प्रकाशित हो जाती है। यही समझ समाधि का प्रत्यक्ष है, उससे प्रज्ञा बढ़ती जाती है, समझ की गहराई बढ़ती है। जैसे जैसे संयम स्थिर होता है, प्रज्ञा उतनी ही निर्मल (विशारदी) होती जाती है। यह अनुकूल स्थिति अभ्यास से बनती जाती है। पहले पहले समझ अस्पष्ट होती है, धीरे धीरे स्पष्ट होती जाती है। धारणा के समय विषयगत ज्ञानवृत्तियाँ अपनी अस्पष्टता तजकर समाधि की स्थिति में पूर्ण स्पष्ट हो जाती हैं। 

संयम का प्रयोग भिन्न भिन्न भूमियों में होता है। भूमियों का स्तर धीरे धीरे बढ़ता जाता है। पिछली सीढ़ी अगले के विनियोग के लिये सहायक होती है। प्रक्रिया है, पहले स्थूल से प्रारम्भ करेंगे, धीरे धीरे सूक्ष्म पर जाते जायेंगे। सीधे ऊपर की सीढ़ी में नहीं पहुँच सकते हैं। ईश्वर की कृपा से यदि किसी ने उत्तर की भूमि को जीत लिया है जो उसे उनसे अधर भूमियों में संयम करने की आवश्यकता नहीं है। उसे निम्न भूमियों का साक्षात्कार करने की आवश्यकता ही नहीं है। जब ईश्वर की कृपा हो गयी और निम्न भूमियों को अन्य विधि से जान लिया है, तो संयम से जानने की क्या आवश्यकता है?

अगली भूमि कौन सी होगी, योग ही अपने आप उसे बता देगा, ज्ञान हो जायेगा। जैसा कि पहले भी चर्चा हो चुकी है, योगेन योगो ज्ञातव्यो योगो योगात्प्रवर्तते। योग के द्वारा योग जाना जाता है और योग से ही योग आगे बढ़ता है। योग के प्रति जो अप्रमत्त है वह योग में अधिक रमता है। जो भटकता नहीं है, मदमत नहीं होता है, वही देर तक योग में रहता है। हमें ज्ञान से सुख मिलता है, ज्ञान से दृष्टि मिलती है, भटकाव रुक जाता है। ज्ञान का सुख लौकिक सुख से अधिक होता है, पर क्षीण तो वह भी होता है। इसी प्रकार समाधि से प्राप्त ज्ञान का सुख और भी अधिक होता है, पर क्षीणता उसमें भी आती है। बस परमात्मा का सुख बिना क्षीणता के होता है। 

विषयगत समाधि को सम्प्रज्ञात समाधि कहते हैं, क्योंकि इसमें हमें कुछ ज्ञात रहता है। सम्प्रज्ञात समाधि के चार चरण हैं, वितर्क, विचार, आनन्द और अस्मिता, ये क्रमशः स्थूल से सूक्ष्म से सूक्ष्मतर होती जाती है। जैसा कि योग की परिभाषा में कहा गया था कि योग चित्त की वृत्तियाँ का निरोध है, पर सम्प्रज्ञात समाधि में विषय भी रहता है और संबंधित वृत्तियाँ भी। इससे परे असम्प्रज्ञात समाधि होती है, जिसे निर्बीज समाधि भी कहते हैं, इसमें वृत्तियों का अभाव होने लगता है, इसमें सम्प्रज्ञात का अभाव हो जाता है। यह परवैराग्य होने पर होती है।

संयम की प्रक्रिया में चित्त में परिवर्तन आते हैं, इन्हें परिणाम कहते हैं। सर्वार्थता (चंचलता) से एकाग्रता आने के क्रम को समाधि परिणाम कहते हैं। इसमें सर्वार्थता और एकाग्रता का क्रमशः क्षय और उदय होता है। इसमें शान्त होने वाली वृत्ति चंचलता की है और उदित होने वाली वृत्ति एकाग्रता की। जब शान्त होने वाली और उदित होने वाली वृत्ति एक सी या तुल्य हों तो उसे एकाग्रता परिणाम कहते हैं। और अन्ततः जब वृत्तियाँ उठनी बन्द हो जायें तो उसे निरोध परिणाम कहते हैं।

वृत्तियाँ संस्कार को जन्म देती हैं, संस्कार कालान्तर में वृत्तियों को जन्म देते हैं। यह क्रम सतत है क्योंकि संस्कार ही हमारे कर्माशय में एकत्र रहते हैं और उचित समय और वातावरण पाकर प्रस्फुटित होते हैं। निरोध परिणाम के समय जब कोई वृत्ति नहीं है, तब चित्त में क्या होता है? उस समय निरोध संस्कार उत्पन्न होते हैं। प्रश्न उठ सकता है कि यदि वृत्ति नहीं तो संस्कार कैसे? चित्त को वृत्तिरहित क्षणों का बोध रहता है, उसका भी संस्कार पड़ता है। निरोध परिणाम संस्कारों के स्तर पर होता है।

असम्प्रज्ञात समाधि में आये निरोध परिणाम के कारण निरोध संस्कार व्युत्थान संस्कार का स्थान लेते जाते हैं। जब निरोध संस्कार प्रबल होते हैं तो वह प्रशान्तवाहिता की स्थिति होती है। जब समाधि टूटती है तो व्युत्थान संस्कार पुनः आ जाते हैं। यह क्रम चलता रहता है, अभ्यास से, वैराग्य से, कैवल्य की प्राप्ति तक। जब कोई संस्कार शेष नहीं रहते तो मुक्ति है। जब संस्कार नहीं शेष तो वापस इस संसार में आने का कारण नहीं। और जब तक इस संसार में हैं भी, तो निर्लिप्त, विदेह, प्रकृतिलय।
यह संयोग ही रहा कि दो दिन पूर्व कोयम्बटूर जाना हुआ। वहाँ पर ईशा ध्यान केन्द्र में प्राणप्रतिष्ठित ध्यानलिंगम् के समक्ष ध्यान लगाने का अवसर मिला। अद्भुत अनुभव था वह। बाहर प्रांगण में आदियोगी की ध्यानस्थ प्रतिमा निहार कर मंत्रमुग्ध सा खड़ा रहा। अद्भुत शान्ति, अद्भुत सुख, अद्भुत तृप्त शिव समाधिस्थ थे। 

यद्यपि सिद्धियों के बारे में लिखने की पूर्वयोजना थी पर आदियोगी को रमा देखकर वे वृत्तियाँ अवसान पा गयीं। अभ्यास और वैराग्य के प्रकरण को यहीं विराम। शेष फिर कभी।

5.11.19

अभ्यास और वैराग्य - २३

ध्यान के समय ध्येय, ध्याता और ध्यान रहते हैं। ध्येय में भी तीन तत्व रहते हैं, शब्द, प्रत्यय और अर्थ। शब्द उसका नाम है, प्रत्यय उसके बारे में ज्ञान है और अर्थ वह वस्तु या विषय स्वयं। पद शब्द है और पदार्थ उस शब्द का वास्तविक स्वरूप, जो पद को अर्थ दे। लड्डू शब्द है, उसका गोल होना, मीठा होना उसके बारे में ज्ञान है और स्वयं ही लड्डू अर्थ है।

ध्यान के समय हम ध्येय के बारे में प्रत्यय की एकतानता करते हैं। समाधि में यही इतनी गहरी हो जाती है कि उस स्थिति में शेष कुछ न होकर मात्र अर्थ ही रह जाता है। तब न ध्येय रहता है, न शब्द, न प्रत्यय, न ध्याता। न इस बात का भान कि ज्ञान हो रहा, न इस बात का भान कि ध्यान हो रहा है, न उस बात का भान कि मैं ध्यान कर रहा हूँ। सब मिलकर अर्थ में लीन हो जाते हैं। यह समझने में तनिक कठिन लगता है क्योंकि हमारी लौकिक समझ ज्ञान के पर्यन्त नहीं जा पाती है। 

एक लौकिक उदाहरण लेते हैं। जब हम कोई फिल्म देख रहे होते हैं तो कभी कभी किसी पात्र के साथ स्वयं को इतना जोड़ लेते हैं कि उसके भाव हमारे भाव हो जाते हैं। यदि वह कष्ट में होता है तो हमें कष्ट होने लगता है, यदि वह हँसता है तो हम हँस देते हैं। यह वही समाधि की स्थिति है, न फिल्म, न अभिनेता, न हाल, न कुर्सी, न यह भान कि फिल्म देखी जा रही है। न अभिनेता का नाम, न उसका अन्य ज्ञान। बस उसका अर्थ, उसका भाव प्रस्फुट हो जाता है। संभवतः यही आधार रहा होगा जिस पर कश्मीर के उद्भट विद्वान अभिनवगुप्त ने यह सिद्ध किया कि नाट्यशास्त्र में रस की उत्पत्ति चित्त में ही होती है। जिसके कारण रस उत्पन्न होता है, वे बस उद्दीपन मात्र हैं।

तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः॥३.३॥ सूत्र का एक एक शब्द समाधि का वर्णन कर रहा है। तत् एव अर्थ मात्र निर्भासं स्वरूपशून्यम् इव समाधिः। तत् अर्थात ध्यान की स्थिति में, अर्थ मात्र निर्भासं अर्थात केवल अर्थ का भान, स्वरूपशून्यं अर्थात न स्वयं का ज्ञान, न वस्तु के स्वरूप का ज्ञान। कहा जाता है कि ईश्वर सत, चित और आनन्द स्वरूप है। यदि हम ईश्वर के आनन्द स्वरूप पर धारणा करते हैं, किसी चित्र के माध्यम से या अर्चविग्रह पर देशबंध करके। आँख बन्द करके ध्यान में उतर जाते हैं। ध्यान की स्थिति में ईश्वर के आनन्द स्वरूप के बारे में जो भी हमारा ज्ञान है, उसी के विचार स्मृतिवृत्ति के माध्यम से चित्त में आने लगेंगे, कोई अन्य वृत्ति नहीं। ध्यान करते करते जब केवल ईश्वरीय आनन्द शेष रह जाये और कुछ न रहे, तब समाधि होती है। उस आनन्द का प्रत्ययात्मक स्वरूप प्रत्यक्षात्मक स्वरूप में बदल जाये, ध्येय के स्वभाव से सब प्रकाशित हो जाते, वह समाधि है।

शब्द नहीं रहा, ज्ञान भी नहीं रहा, बस अर्थ रहा। मुझे ज्ञान हो रहा है, इस बात का ज्ञान भी न रहा, अर्थ के अतिरिक्त कुछ और न रहा, अर्थ मात्र निर्भास रहा। ध्याता और ध्यान का बोध नहीं रहा। ध्येय में शब्द का और उसके ज्ञान का भी ज्ञान न रहा है, सब अर्थ में लीन हो गया।

कई व्याख्या हैं। परमात्मा के आनन्द स्वरूप का ध्यान, अभी तीनों हैं, परमात्मा, आनन्द स्वरूप और ध्यान। जब केवल आनन्द रह जाता है, कुछ और नहीं, तो समाधि है। गवेषणा की दृष्टि से देखें, तो समाधि में खोज समाप्त हो जाती है। ध्यान में गवेषणा चलती रहती है, मन में उसके चित्र बनते रहते हैं, प्रत्ययात्मकता बनी रहती है, यह ऐसा होगा, वैसा होगा, यह आकार होगा इत्यादि। जब वह वस्तु प्रत्यक्ष मिल जाती है तो गवेषणा समाप्त हो गयी, यह स्वरूपशून्य की परिभाषा है। स्वरूपशून्य की दो और परिभाषा भी हैं, ध्याता के स्वरूप से शून्य और ध्यान के स्वरूप से शून्य। व्यास किन्तु प्रत्ययात्मक स्वरूप से शून्य होने की बात करते हैं। क्या था, कैसा था, उन सबसे शून्य हो जाना। जब वस्तु आ जायेगी, प्रत्यक्ष हो जायेगा, तब समाधि है। ध्येय स्वभाव आवेश को समाधि कहते हैं। समाधि पिछले ७ अंगों का प्रतिफल है।

धारणा, ध्यान और समाधि की यात्रा को यदि समग्र रूप से देखें तो यह एक प्रत्यक्ष से प्रत्यक्ष की यात्रा है। धारणा में जो प्रत्यक्ष था वह अन्य वृत्तियों, अन्य प्रत्ययों से आच्छादित था। जब ध्यान के द्वारा अन्य वृत्तियों को हटाया और उसी के बारे में ज्ञानवृत्तियों को समेटा तो शेष सब आच्छादन हट कर वस्तु का परिपूर्ण प्रत्यक्ष हुआ, यह समाधि की स्थिति है।

समाधि की अनुभूतित इस परिभाषा को जानने से, वस्तुओं और उनके ज्ञान के बारे में कुछ तथ्य स्पष्ट हो जाते हैं। पहला यह कि सारा घटनाक्रम चित्त में हो रहा है और समाधि आने पर अर्थ चित्त में ही प्रस्फुटित होता है। हम इन्द्रियों से वस्तु का प्रत्यक्ष अवश्य करते हैं पर उसकी संरचना और स्वरूप चित्त में ही बनता है। रस आदि भी चित्त में ही उदित होते हैं। देखा जाये तो एक पूरा का पूरा वही संसार बसता है चित्त में भी। यत्मुण्डे तत्ब्रह्माण्डे, इस पर व्याख्या फिर कभी। जो हम जानते नहीं, वह हमारे लिये हैं भी नहीं। उसी वस्तु को बाहर देखने से उसको उन सबसे जोड़कर देखते हैं जो कि उससे मुख्यतः असम्बद्ध हैं। उन्हीं वस्तुओं को धारणा, ध्यान और समाधि के माध्यम से देखते हैं तो वह दर्शन सम्यक परिप्रक्ष्य में होता है, संबंध अर्थपूर्ण होता है, सही दृष्टा के परिप्रेक्ष्य में होता है।

दूसरा तथ्य यह कि जानने की सीमा से भी आगे है, होने की सीमा। ज्ञान से विज्ञान की यात्रा। विषय में समाधिस्थ होकर इतना उतर जाते हैं कि उस समय केवल अर्थ रहता है, केवल विषय रहता है, केवल वस्तु रहती है, ज्ञान की इससे परे भला और क्या सीमा होगी?

तीसरा तथ्य यह कि समाधि अन्त नहीं वरन प्रत्यक्ष का प्रारम्भ है, ज्ञान का प्रारम्भ है। समझने की ऐसी प्रक्रिया है जो सघन है, सान्ध्रित है, सम्पूर्ण है। इस प्रक्रिया से स्थूल, सूक्ष्म, आत्म आदि विषयों का परिचय होता है, प्रज्ञा आती है, ज्ञान से समझ और भी प्रकाशित हो जाती है, अस्पष्टता से स्पष्टता आ जाती है। अन्त में जब प्रत्ययात्मकता की परिपक्वता आती है, कुछ और जानना शेष नहीं रहता है, तब परवैराग्य के आने पर ऋतम्भरा प्रज्ञा आती है, सत्य को प्रभासित करने वाली प्रज्ञा।

सही ज्ञान का प्रस्फुटन हमें सही कर्म करने को प्रेरित करता है। योगः कर्मषु कौशलम्। जो अधिक जानता है वह अधिक कुशल भी है।


अगले ब्लाग में संयम की प्रक्रिया।

2.11.19

अभ्यास और वैराग्य - २२

ध्यान धारणा से आगे की स्थिति है। जिस स्थान पर धारणा लगायी, उस स्थान पर प्रत्यय (ज्ञानवृत्ति) की एकतानता ध्यान है। विषय कुछ भी हो सकता है। जहाँ विभूतियों या सिद्धियों की चर्चा की गयी है, वहाँ पर स्थूल से लेकर सूक्ष्म विषय लिये गये हैं। प्रश्न उठ सकता है कि कौन सा विषय लेना है और कब लेना है? या कहें कि हम योग में कितना बढ़ पाये हैं यह कौन निर्धारित करेगा? क्या कोई अन्तःस्थल की यात्रा में हमारा मार्गदर्शन करेगा?

यद्यपि सिद्धियाँ अपने आप में योगसाधना का फल हैं, पर पतंजलि उन पर रुकने और भोग करने के बारे में आगाह करते हैं। अन्तिम उद्देश्य सारी चित्त वृत्तियों का निरोध है। जब तक वहाँ नहीं पहुँचा जाता है, कहीं पर भी रुक जाना बाधा हो सकता है। सिद्धियों का उपयोग तब दो बातों के लिये किया जाता है। पहला सामर्थ्य और अभ्यास के रूप में जो हमें आगे बढ़ने को प्रेरित करती है और सहायक भी है। दूसरा यह एक चिन्ह भी है कि हमारी साधना अब कहाँ तक पहुँची है? योग के बारे में व्यास ने दो तथ्य स्पष्ट कर दिये हैं। पहला है, योगेन योगो ज्ञातव्यो योगो योगात्प्रवर्तते। यह बहुत ही प्रभावशाली वक्तव्य है। योग के द्वारा योग को जाना जाता है, योग से ही योग बढ़ता है। दूसरा तथ्य यह कि योग के प्रति जो अप्रमत्त है वही योग में अधिक रमता है। जो भटकता नहीं है, मदमत नहीं होता है, वही देर तक योग में रहता है। आगे कहाँ जाना है, योग ही स्वयं आपको बता देगा, सहज ही ज्ञान हो जायेगा। एक बिन्दु तक पहुँचने के बाद योग ही आपका पथप्रदर्शक भी है और योग ही पथरक्षक भी।

तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम्॥३.२॥ धारणा के विषय पर प्रत्यय (ज्ञानवृत्ति) और एकतानता ही ध्यान है। धारणा में प्रत्यक्ष रूप से चित्त का किसी विषय पर देश बंध किया था, ध्यान में उस विषय पर ज्ञानवृत्ति की एकतानता होती है। उस पर चिन्तन, उसी प्रकार के विचारों द्वारा, सदृश प्रवाह। वृत्ति के रूप में जहाँ धारणा में प्रत्यक्ष था, ध्यान में स्मृति प्रधान हो जाती है। विषय के गुण, धर्म आदि के बारे में वृत्तियाँ बनती रहती हैं, अन्य किसी विषय से अपरामृष्ट, अछूती। उस समय मात्र तीन रहते हैं, ध्येय, ध्याता और ध्यान। ध्याता के ध्यान में ध्येय की कल्पना की जाती है, स्मृति का सहारा लिया जाता है, उपस्थित ज्ञान को प्रयुक्त किया जाता है, उस पर ही रमा जाता है। ध्यान करने के लिये स्थानविशेष की आवश्यकता नहीं पड़ती है। 

ध्यान की प्रक्रिया का उद्देश्य क्या है? ज्ञान, एकाग्रता, एकतानता? एक विषय पर ही जो जानते हैं, ध्यान करने से वह ज्ञान बढ़े न बढ़े पर ज्ञान स्पष्ट अवश्य हो जायेगा। उसके साथ उपस्थित अन्य ज्ञान छट जाने से वह पैना अवश्य हो जायेगा। अन्य वृत्तियों को न आने देने से एकाग्रता बढ़ेगी और एकतानता होने से उसी विषय से संबंधित और वृत्तियाँ उपजेंगी। जो प्रत्यय इस प्रकार होगा, वह प्रभाषित व पूर्ण होगा। जो ज्ञान होगा उससे वह विषय प्रकाशित होगा, स्पष्ट दिखेगा। कहते हैं कि किसी भी विषय के बारे में दृश्य का निर्माण चित्त में ही होता है। हम आँखों से देखते अवश्य हैं, पर चित्र चित्त में ही बनता है। गंध, रस, स्पर्श, शब्द आदि सब के सब चित्त में ही संग्रहित और प्रकट होते हैं। नींबू देखकर स्वयं ही लार कैसे निकल आती है? रूप का विषय तो रस से सर्वथा भिन्न है तो दोनों में संबंध कैसा? यह चित्त के द्वारा ही होता है। समाधि के वर्णन में इस तथ्य को तनिक और समझेंगे। 

योग से हमारी सामर्थ्य बढ़ती है। पर यह सामर्थ्य कितनी बढ़ती है, यह कैसे ज्ञात होगा? योगी सामान्य रूप से अपनी सिद्धियों के बारे में बताता नहीं है, पर कहीं न कहीं से इस बारे ज्ञात हो ही जाता है। इस प्रकरण को हमें शब्द प्रमाण के रूप में लेना होता है, स्वयं के द्वारा सिद्ध करने तक, तब यह प्रत्यक्ष हो जाता है। सत्यार्थ प्रकाश में कहा गया है, जितना सामर्थ्य बढ़ना उचित है, उतना ही बढ़ता है। कहने का तात्पर्य है कि अनुचित नहीं बढ़ता है, मुक्ति प्राप्ति के लिये जितना आवश्यक है। पतंजलि इसे विघ्न भी मानते हैं। यहाँ पर जो रुक जाता है और उसका उपभोग या दुरुपयोग करने लगता है, वह पतित हो जाता है, तो एक सीमा के पार वैसे भी जा नहीं पाता है। जो इसे बस साधन मात्र मानते हैं और समाधि ही जिनका अन्तिम आश्रय है, वे इस पर रुकते ही नहीं हैं, उनके लिये भी इसकी सीमा लाँघने का भी प्रश्न ही नहीं है। मुक्ति के लिये जितनी सामर्थ्य आवश्यक है, उससे अधिक पाने की आवश्यकता ही नहीं।

सांख्य दर्शन में कहा गया है, ध्यानम् निर्विषयम् मनः, ध्यान मन का निर्विषय होना है। एकतानता होने पर विषय एक ही रहेगा, अन्य नहीं। एक विषय ही होगा, क्योंकि कम से कम एक तो रहेगा ही। दूसरी व्याख्या यह हो सकती है कि सांख्य के संदर्भ में ध्यान को अन्तिम स्थिति मानी है, उसमें समाधि से संग लिया है। सांख्य में ही कहा गया है, रागोः उपहत ध्यानम्, राग का उपहत होना ध्यान है। महर्षि दयानन्द कहते हैं कि कम से कम एक घंटा ध्यान में बैठे। ध्यान और उपासना में अन्तर है, उपासना ईश्वर का ध्यान है। यदि कोई आत्म का ध्यान करता है तो वह उपासना नहीं होगी यद्यपि एकाग्रता और एकतानता दोनों में ही रहेगी। मनु कहते हैं, ध्यानयोगेन सम्पश्येत गतिम् अस्यांतरात्मा - ध्यान के द्वारा अन्तरात्मा की गति को देखें। अन्तरात्मा या परमात्मा, दोनों ही हो सकता है, एक में ध्यान, दूसरे में उपासना।

एकाग्रता तो प्राणायाम से ही प्रारम्भ हो जाती है। प्राणायाम, धारणा, ध्यान, समाधि में कालखण्ड का निर्धारण किया गया है, गणितीय ढंग से, कि कम से कम कितनी देर उसे करना चाहिये। निमेष-उन्मेष (पलक झपकाने) को एक मात्रा कहते हैं, इसका कालखण्ड लगभग ८/४५ सेकण्ड का होता है। पूरक(श्वास लेना), कुम्भक(श्वास रोकना) और रेचक(श्वास छोड़ना) में १,४ और २ का अनुपात होता है। १६ मात्रा पूरक, ६४ मात्रा कुम्भक और ३२ मात्रा रेचक, कुल लगभग २० सेकण्ड। २० सेकण्ड का एक प्राणायामकाल, १२ प्राणायामकाल का एक धारणाकाल, १२ धारणाकाल का एक ध्यानकाल और १२ ध्यानकाल का एक समाधिकाल। इसे यदि मिनटों में बदलें तो ४ मिनट का धारणाकाल, ४८ मिनट का ध्यानकाल औऱ ९.६ घंटे का समाधिकाल। यह न्यूनतम है।

अब ध्यान अंधकार में करें कि प्रकाश में? ध्यान भंग न हो, इसलिये अंधकार का सहारा ले सकते हैं। क्या अंधकार को विषय बनाकर ध्यान किया जा सकता है? उत्तर नकारात्मक है। ध्यान में वस्तु के गुण धर्म के बारे में चिन्तन होता है। शून्य पर, अंधकार पर ध्यान करना या कुछ भी विचार नहीं करना ध्यान नहीं है, कम से कम योगदर्शन का ध्यान नहीं है। यह एक सकारात्मक प्रक्रिया है। स्थूल और सूक्ष्म विषयों के अतिरिक्त भावनात्मक विषयों में भी संयम लगता है। विभूतियों के वर्णन में देखेगे कि चार भावनायें, मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा में भी पहले तीन में ही संयम लगता है। उपेक्षा में संयम नहीं लगता है, वह तम है, अंधकार है, अभाव है। ध्यान का निष्कर्ष प्रत्यय है और जिस पर ज्ञान नहीं, जिससे ध्यान के निष्कर्ष न निकलें, वह भला कैसा ध्यान? समाधि में अर्थ पाने के लिये ध्यान में सकारात्मकता आवश्यक है।

अगले ब्लाग में समाधि।

29.10.19

अभ्यास और वैराग्य - २१

बहिरंग अंतरंग का आधार है। प्रत्याहार बहिरंग की परिधि है। यह मन की सामान्य स्थिति हो जाती है, जहाँ पर भी मन गया, वहाँ से लौट कर वापस आ जाता है। देखा जाये तो एकाग्रता की स्थिति प्राणायाम से ही प्रारम्भ हो जाती है। यम, नियम व आसन के माध्यम से शरीर में और प्राणायाम व प्रत्याहार के माध्यम से मन में एक लयता सी आने लगती है। धारणा, ध्यान और समाधि किस तरह से एक दूसरे से भिन्न हैं और किस तरह से एक है?

धारणा, ध्यान और समाधि को संयम के नाम से भी जाना जाता है। यह एक पारिभाषिक शब्द है और इसका लौकिक शब्द संयम से संबंध नहीं है। प्रारम्भ की स्थिति में धारणा की मात्रा अधिक रहती है, पर अभ्यास होते होते, धारणा से चलकर ध्यान की स्थिति आती है और कब ध्यान से समाधिस्थ हो जाते हैं, यह ज्ञात नहीं रहता है। 

देश में बंध होना ही चित्त की धारणा है। चित्त को एक स्थान (देश) पर स्थिर करने का स्थूल साधन है धारणा। शरीर का कोई भी स्थान लिया जा सकता है। नाभिचक्र, हृदयपुंडरीक, मूर्द्धज्योति, नासिकाग्र, जिह्वाग्र आदि देश पर चित्त का बंध होना या वाह्य विषय में चित्त का वृत्तिमात्र के द्वारा बंध होना। बाहर के शब्दादि या मूर्तिादि वाह्य देश हैं। जहाँ पर चित्त बन्ध है, बस उसी की वृत्ति और प्रत्याहार के माध्यम से इन्द्रियसमूहों का अपने विषय न ग्रहण करना। प्रत्याहारमूलक धारणा ही समाधि की अंगभूत धारणा है। यह प्राणायाम के समय की साँसों पर की गयी एकाग्रता से भिन्न भी है और परिष्कृत भी।

धारणाओं में षटचक्र, ज्योति, मूर्ति या नाद की धारणायें प्रमुख हैं। चित्त उसी पर स्थापित कर दिया जाता है और जैसे ही चित्त की कहीं और वृत्ति होती है, चित्त स्वयं को पुनः वहीं स्थिर कर देता है। प्रारम्भ में यह यह अत्यन्त न्यून अन्तराल में टूटता है, पर धीरे धीरे अभ्यास से धारणा का समय बढ़ाया जा सकता है। किसी दिये की जलती लौ पर धारणा की जा सकती है, अर्चविग्रह पर की जा सकती है, ओंकार पर की जा सकती है, किसी मन्त्र पर की जा सकती है। उद्देश्य एक ही है कि चित्त को बारम्बार वहीं पर ले आना, कहीं भी भटके, सप्रयास वहीं पर ले आना।

शरीर के अंगों पर धारणा करने से एक संवेदना की अनुभूति होती है। यह अनुभूति परिचायक है कि धारणा कार्यशील है। कभी हृदयस्थल पर करने से हृदयगति बढ़ने लगे और असहज सा लगे तो उसे वहीं छोड़ देना चाहिये, कहीं और धारणा लगानी चाहिये। यदि नहीं समझ आये कि कहाँ करना उचित होगा तो परीक्षण कर लें, जहाँ एकाग्रता सिद्ध हो, वहीं पर धारणा का अभ्यास प्रारम्भ कर दें। त्राटक क्रिया धारणा ही है, मैंने स्वयं एक साधक को त्राटक के द्वारा चम्मच को टेढ़ा करते देखा है। योग के विषय में यह चमत्कार उतने महत्वपूर्ण नहीं हैं, धारणा का प्रयोजन ध्यान को साधना है, पर एकाग्रता और स्वास्थ्य की दृष्टि से धारणा फिर भी फलमयी है। धारणा प्रत्यक्ष करनी होती है, इसमें चिन्तन नहीं होता है, ज्ञानात्मकता का इसमें अभाव रहना चाहिये, आँख बन्द कर चिन्तन नहीं करना है इसमें। शरीर के जिस अंग पर धारणा कर रहे हैं, उस पर संवेदना बनी रहनी चाहिये। चिन्तन प्रारम्भ होते ही वह ध्यान का प्रारम्भ हो जाता है। धारणा तो बस एक ही वृत्ति है, बार बार, उसी देश पर, एक बिन्दु पर, स्थिर सी, पुनरपि, सतत, यथासंभव।

जहाँ एक ओर ज्योति, षटचक्र, मूर्ति आदि एक बिन्दु या देश में स्थित हैं, नाद एक देश में स्थित हुआ नहीं लगता है। तो चित्त कहाँ धारण करें? चिंनाद, शंखनाद, घंटानाद आदि नाद केन्द्रित होते होते शरीर में किसी एक बिन्दु विशेष में गूँजते हैं। वही बिन्दु देश बंध हो जाता है। 

धारणा के विषय में पूरा चक्र सिद्धान्त प्रचलित है। साधक अनुभव से बतलाते हैं कि भिन्न चक्रों पर धारणा करने से शरीर पर भिन्न प्रभाव पड़ता है, विशेष भाव उमड़ते हैं। कहते हैं कि यथासंभव अपने स्वभाव के अनुसार ऊपर के चक्रों पर धारणा करें, नीचे के चक्रों पर धारणा करने से लोभ, मोह आदि के रूप में छिपे संस्कार भड़क सकते हैं। मूलाधार से प्रारम्भ कर सुषुम्ना तक कुंडलिनी नामक धारा की धारणा से एक एक चक्र ऊपर उठना होता है। आश्चर्य ही है कि वृत्तिमात्र से चित्त स्थिर करने भर से शारीरिक और मानसिक परिवर्तन प्रस्फुटित होने लगते हैं। एक एक भाव से ऊपर उठते हुये चित्त की ऊपरी स्थिति पर पहुँचने का विज्ञान है यह।

धारणा चित्त का वृत्तिमात्र के द्वारा बन्ध है, बार बार वृत्ति उसी पर हो, चित्त वहीं पर लगे। धारणा को विस्तृत रूप से और पृथक रूप से समझना इसलिये आवश्यक है क्योंकि बहुधा इसे ध्यान और समाधि से अन्तर्मिश्रित करके जोड़ा जाता है और सबको ही ध्यान कह दिया जाता है। यह प्रक्रिया सिद्ध होना ध्यान में उतरने में अत्यन्त सहायक है। प्रक्रिया के रूप में, प्रभाव के रूप में और क्रमिक विकास के रूप में धारणा, ध्यान और समाधि भिन्न हैं, उन्हें यथास्थान व्याख्यायित किया जायेगा।

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26.10.19

अभ्यास और वैराग्य - २०

पाँचवा बहिरंग प्रत्याहार है। हरण न होने देने का भाव। प्रति आ हृ, प्रति और आ उपसर्ग हैं, प्रति अर्थात विपरीत, आ अर्थात पूरी तरह, हृ धातु का अर्थ है हरण करना। हरण किसका, इन्द्रियों का, हरण किसके द्वारा, विषयों के द्वारा। शब्द, रूप, रस, गंध, स्पर्श आदि विषय हैं इन इन्द्रियों के। कान से सुनना, शब्द। आँख से देखना, रूप। जिह्वा से चखना, रस। नाक से सूँघना, गंध। त्वचा से छूना, स्पर्श। पाँच विषय अपने प्रकारान्तर लिये हुये हैं, असीमित मात्रा में हैं, प्रचुर मात्रा में हैं, सहज उपलब्ध हैं, प्रकृति को गतिमान किये हुये हैं, विविधता बनाये हुये हैं। प्रकृति के पाँच तत्वों का सीधा संबंध इन विषयों से है। शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्श क्रमशः आकाश, अग्नि, जल, पृथ्वी और वायु से संबद्ध हैं।

विषय इतने प्रबल होते हैं कि हर लेते हैं। विषय, इन्द्रिय और मन के संबंध के बारे में व्यास भाष्य में लिखते हैं कि संबंध अयस्कान्तमणि(चुम्बक) और लोहे के समान है। विषय चुम्बक, इन्द्रिय लोहा। इन्द्रिय चुम्बक, मन लोहा। निकटता के आने से इनका प्रभाव पड़ता है। जब विषय पास होगा या उपस्थित होगा तो इन्द्रियाँ खिंची चली आयेंगी। आसक्ति यदि अधिक गहरी हो तो खिचाव और उत्कट हो जाता है, बलवान हो जाता है। जब इन्द्रिय किसी विषय में प्रवृत्त होती है तो मन भी स्वतः खिंचा चला जाता है, स्वतः सहयोग भी करने लगता है, पहुँचने का प्रयास करता है, साधन जुटाने लगता है। 

इस कार्यशैली को समझने के लिये एक सटीक उदाहरण रथ का है। शरीर रथ है, आत्मा रथी, बुद्धि सारथी, मन वल्गा या लगाम, इन्द्रियाँ अश्व, विषय अश्वपथ। रथ जिस ओर जाता है, जिस ओर उसकी प्रवृत्ति होती है, उसी से यह स्पष्ट हो जाता है कि रथ अश्व संचालित कर रहे हैं या रथी? विवेक नियन्त्रण में है कि मन या इन्द्रिय? रथी भोक्ता है, अपनी इच्छा करे या इन्द्रियों से सहमत हो। जन सामान्य को देख कर तो यही लगता है कि पथ निर्धारित कर रहे हैं कि रथ किस ओर जायेगा। माया का पथजाल प्रकृति को गतिमय किये हुये है। प्रवृत्ति दिशाहीन, असम्यक और अनियन्त्रित है।

प्रत्याहार का अर्थ है, इन्द्रियों का अपने विषय से असम्प्रयोग एवं इन्द्रियों का चित्त के स्वरूप के जैसे हो जाना। प्रश्न यह उठता है कि वाह्य इन्द्रियाँ तो वैसे भी मन के विषय को नहीं जानती है। मन अन्तःकरण है, मन में होने वाली गतिविधियों को जानना या समझ पाना इन्द्रियों के लिये असंभव है, मन सूक्ष्म हैं, इन्द्रियाँ स्थूल। इन्द्रियाँ न ही चित्त की वृत्तियों को समझ सकती है। इसका अर्थ तब यही होगा कि जहाँ मन लगा रहेगा, इन्द्रियाँ उसके विरूद्ध नहीं जायें, मन के कार्य में बाधा नहीं उत्पन्न करें। मन के कार्यों में सहमति हो, अपने विषयों में प्रवृत्त होने की अभिलाषा न हो। जहाँ मन रुक जाये वहाँ सारी इन्द्रिय भी रुक जायें, जहाँ मन चले वहाँ सारी इन्द्रिय प्रवृत्त हो जायें, सहयोग करें। व्यास भाष्य में रानी मक्खी का उदाहरण देते हैं। जहाँ रानी मक्खी जाती है, सारी अन्य मक्खियाँ उसका अनुसरण करती हैं, जहाँ वह बैठ जाती है, सब बैठ जाती हैं।

एक इन्द्रिय को रोकने के उपक्रम में हो सकता है कि कोई अन्य इन्द्रिय अपने विषय के प्रति आकृष्ट हो रही हो। मन एक से हटा पर दूसरे सें लग जाता है। अब उसको रोकने का उपक्रम और उतना ही प्रयास। पर प्रत्याहार में मन के रोकने पर सब रुक जाती हैं और मन के चलने पर सब चलने लगती हैं। एकै साधे सब सधे, सब साधे सब जाय। स्रोत वही है, मन। सब वहीं से संचालित होता है। एक सहज प्रश्न उठ सकता है कि यदि सब मन से ही संचालित होता है, यदि प्रत्याहार करने से ही सारी इन्द्रियाँ वश में आ जाती हैं तो यम, नियम आदि करने का क्या उपयोग? सीधे ही मन को साधें। सिद्धान्त सरल है, व्यवहार कठिन। प्रक्रिया यदि क्रमिक विकास से आये तो ही प्रभावकारी होती है। अर्जुन कहते भी हैं कि चंचलं हि मनः कृष्णः। मन इतना चंचल है कि यह बलपूर्वक हर लेता है और इसे निग्रह कर पाना वायु स्थिर कर पाने से भी अधिक दुष्कर है। कृष्ण का उत्तर था, अभ्यास और वैराग्य। प्रत्याहार एक वैराग्य सी स्थिति है, उसके पीछे अभ्यास की साधना का होना तो आवश्यक है।

पत्थर में एक चोट करने से मूर्ति का स्वरूप नहीं आता है। सहस्रों छोटी बड़ी चोटें करनी पड़ती हैं। मन भी एक बार दृढ़ निश्चय करने से सहम कर नहीं बैठ जाता है। वह उद्दण्ड है और ऊर्जित भी, उसे सारी इन्द्रियों का समर्थन प्राप्त है, वह आपके नियन्त्रण से कब ओझल हो जायेगा, आपको पता भी नहीं चलेगा। मन में जमें हुये संस्कारों को प्रतिदिन क्षीण करना पड़ता है। मन के मैल को प्रतिदिन धोना पड़ता है। काम, क्रोध लोभ, मोह, मद और मत्सर से प्रतिदिन जूझना पड़ता है। एक एक इन्द्रिय को प्रतिदिन समझाना पड़ता है कि आपका पथ रथी के समग्र हित में नहीं है, आपका पथ अल्पकालिक भोग की अभिव्यक्ति है। रथी का हित दीर्घकालिक व्यवस्थाओं में है, संरचनाओं में है, धारण में है, धर्म में है। इन्द्रिय को रोकने का एक क्रम मन को यही संदेश देता है और विषयों के बारे में जो संस्कार बने हुये है, उसे तनिक क्षीण कर जाता है। दिनचर्या का यही सुकार्य है, यही महती उपयोग है। दिनचर्या को हम ऐसे उत्कृष्ट लघु कार्यों से भर दें कि अन्यत्र विचरण का समय ही न हो। एक ऐसा उद्देश्य सामने दिखता रहे कि इन्द्रिय विषय उसके सामने क्षुद्रता से लगें। दिनचर्या सीढ़ी सी है, एक जैसी, हर दिन। यह तो कुछ वर्ष बाद ही पता चलता है कि हम किस ऊँचाई तक पहुँच गये।

प्रत्याहार की सिद्धि से इन्द्रियों की परमवश्यता हो जाती है, इन्द्रियाँ पूरी तरह से नियन्त्रण में आ जाती हैं। प्रत्याहार से काम क्रोध लोभ मोह मद और मत्सर , ये ६ शत्रु नष्ट होते है। मान्यता यह है कि प्रत्याहार का प्रयोग ध्यानकाल में ही होता है क्योंकि व्यवहार काल में तो इन्द्रियाँ अपने विषयों के संपर्क में रहेंगी ही। पर भाष्य कहता है कि इसका प्रयोग ध्यानकाल में तो होता ही है पर व्यवहार काल में भी होता है, पूरे समय।

५ स्तर बताये गये हैं, प्रत्याहार के। प्रथम स्तर है, व्यसन न होना। व्यसन है बार बार विषय पर मन पहुँच जाना, जिसके बिना रहा न जाये। यदि वह न मिले तो अन्य क्रम बाधित हो जाये। किसी अन्य के लिये निर्धारित समय या संसाधन हो पर उसी व्यसन वाले कर्म में लग जाये। नियमित कार्य बाधित होने लगें। मोबाइल देखने में इतना लग गये खाना बनाना भूल गये। चाय नहीं मिली तो दिन भारी लगने लगा। व्यसन न होना इन्द्रियजय है, प्रथम स्तर का प्रत्याहार है। यदि मिले तो ठीक, न मिले तो ठीक, अन्य कर्मों में कोई बाधा नहीं। अहानिकारक विषयों से संयोग दूसरे स्तर का प्रत्याहार है, इन्द्रियजय है। विपरीत न हो, अति न हो, सीमा में रहे, शास्त्रसम्मत हो, यह भी इन्द्रियजय है। तीसरे स्तर का इन्द्रियजय है, विषय आदि से स्वेच्छा से सम्प्रयोग कर पाना। इच्छानुसार प्राथमिकता निर्धारित कर पाना, यदि कुछ महत्वपूर्ण हाथ में है तो अन्य विषयों को टाल पाना, जो निर्धारित किया है उसमें उद्धत हो पाना।

इन तीन स्तरों में इन्द्रियजय में राग, द्वेष, सुख, दुख के भाव भरे हो सकते हैं, पर उनमें किसी एक न एक विमा में इन्द्रियजय किया गया है। चतुर्थ स्तर में राग, द्वेष, सुख, दुख के भाव के बिना ही विषयादि का सेवन। यह कठिन स्तर है पर क्रमिक है। पंचम स्तर है, विषय संयोग शून्यता, विषयों का सेवन ही नहीं करना। यह प्रत्याहार की उच्चतम स्थिति है। जैगीषव्य ऋषि इसे चित्त की एकाग्रता आने के कारण आयी अप्रवृत्ति कहते हैं। मन में प्रछन्न लौल्य रहता है कि चलो आज देखते हैं मन नियन्त्रण में है कि नहीं? हम साधना के किस स्तर पर पहुँच गये हैं? इस स्तर में यह भी नहीं करना है। यही परमवश्यता है, यही प्रत्याहार है।

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22.10.19

अभ्यास और वैराग्य - १९

आसन में बैठने से प्रयत्नशैथिल्य होता है, शारीरिक उद्वेग कम हो जाते हैं। मन को अनन्त पर स्थिर कर दिया जाता है, इससे मानसिक उद्वेग कम हो जाते हैं। यह एक आदर्श स्थिति है जिसमें योग के आगत अंग स्थिर किये जा सकते हैं। 

पतंजलि कहते हैं कि आसन के स्थिर होने पर ही प्राणायाम किया जा सकता है। तस्मिन् सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेदः प्राणायामः॥२.४९॥ उसके(आसन) के होने पर श्वास और प्रश्वास की गति का विच्छेद प्राणायाम है। अब आसन कितनी देर कर लेने पर सिद्ध माना जा सकता है। हठयोग तो कहता है कि ३ घंटे ३६ मिनट तक आसन में स्थिर और सुखपूर्व बैठ लेने से वह सिद्ध होता है। इतनी देर नहीं भी हो पाये तो १५-२० मिनट भी आसन में बैठ लिया जाये तो प्राणायाम किया जा सकता है। अन्दर लेना श्वास है, बाहर निकालना प्रश्वास है, विच्छेद इन दोनों का अभाव है। प्राणायाम प्राणवायु का आयाम है, विस्तार है। विस्तार किस बात का हो, समय के अनुसार हो, या धीरे धीरे श्वास लेने की प्रक्रिया। योगसूत्र तो मात्र विच्छेद की चर्चा करता है। तो यहाँ पर हमें विच्छेद वाला प्राणायाम करने से ध्यान आदि में सहायता मिलती है। अन्य प्रकार के प्राणायाम से अन्य प्रकार के लाभ होते हैं, पर यहाँ पर पतंजलि का उद्देश्य उन सबको न बतलाकर एक विशेष प्रकार का अभ्यास बतलाना है।

तीन प्रकार का प्राणायाम बतलाया है। बाह्याभ्यन्तरस्तम्भवृत्तिर्देशकालसंख्याभिः परिदृष्टो दीर्घसूक्ष्मः॥२.५०॥ बाह्य, आभ्यन्तर और स्तम्भ के प्रकार से। देश, काल और संख्या की दृष्टि से। और दीर्घ और सूक्ष्म के भेद से। कुल देखा जाये तो १८ विभेद है। वाह्य में प्रश्वास के बाद विच्छेद कर देना, आभ्यन्तर में श्वास के बाद विच्छेद कर देना, स्तम्भ में बीच में ही विच्छेद कर देना।  कितनी दूर तक श्वास आती या जाती है, कितनी मात्रा में श्वास ली या छोड़ी जा सकती है। काल की दृष्टि से कितने समय तक छोड़ी या रोकी जा सकती है। स्तम्भ में यह प्रवाह कभी भी रोक दिया जाता है, बीच में ही। उद्घात १२ श्वास-प्रश्वास के कालखण्ड को कहते है। उतनी देर रोकना एक उद्घात कहलाता है। ३ उद्घात तक श्वास लेना, रोकना और छोड़ना सूक्ष्म प्राणायाम कहा जाता है, धीरे धीरे। दीर्घ में अधिक मात्रा में, अधिक वेग से और एक उद्घात में श्वास ली और छोड़ी जाती है। भ्रस्तिका, कपालभाती, अनुलोमविलोम आदि प्राणायाम के प्रायोगिक निष्कर्ष हैं। कैसे, किसको, कब, कितना करना है, यह अभ्यास का विषय है। 

बाह्याभ्यन्तरविषयाक्षेपी चतुर्थः॥२.५१॥ चतुर्थ प्राणायाम प्रथम तीन का अतिक्रम है। पहले तीनों  में एक विशेष क्रम था। यह भी एक तरह का स्तम्भ है पर इसमें कोई क्रम नहीं है। स्तम्भ में एक क्रम रहता है और उस हेतु अभ्यास से सिद्धि होती जाती है। इसमें पहले तीन के अभ्यास के साथ साथ प्राण पर पूर्ण नियन्त्रण होता है, कहीं भी, कभी भी और कैसे भी।

ततः क्षीयते प्रकाशावरणम्॥२.५२॥ मलीनता हटने लगेगी तो आवरण हट जाता है और सब दिखने लगता है। विवेक के ऊपर कर्म का आवरण होता है, प्राणायाम उस आवरण को हटाता है। कर्म इससे क्षीण होते हैं। हर प्राणायाम से प्रतिक्षण क्षीण होते हैं कर्म। विवेक हमारे पापकर्म के क्षीण होने से आयेगा।

प्राणायाम से बढ़कर कोई तप नहीं है। इससे मलसमूह की विशुद्धि और ज्ञानोद्दीप्ति होती है। प्राणवायु न चलने पर मृत्यु हो जाती है। उसको भी अभ्यास के माध्यम से सहन करना, मृत्यु को साक्षात देखना है, यही प्राणायाम का अभ्यास तत्व है। कैसे सबसे पहले श्वास आये, सारा ध्यान और प्रयास वहीं लग जाता है। वही सर्वाधिक आवश्यक हो जाता है। तत्काल तो यही लगता है कि किस तरह से श्वास प्रश्वास प्रक्रिया पुनः प्रारम्भ हो। शरीर एक आकस्मिकता से कार्य करने लगता है, इससे उसकी कार्यक्षमता बढ़ जाती है। एक स्तर तक यह लाभ दायक है पर यदि इसकी अति करेंगे शरीर भी इसकी आकस्मिकता भूल जायेगा, उसका अभ्यस्त हो जायेगा।

प्राणायाम का एक दूसरा पक्ष यह भी है कि मस्तिष्क में गयी अधिक आक्सीजन से मस्तिष्क के मल बाहर आते हैं और मस्तिष्क और निर्मल अनुभव करता है। प्रश्वास की स्थिति में अधिक रहने से बिना आक्सीजन के काम करते हुये जब उसे आक्सीजन की अतीव आवश्यकता होती है तो उस समय श्वास आने पर उसका अधिकतम उपयोग होता है। यदि उदाहरण लें तो उपवास करने के बाद जब भूख सर्वाधिक लगती है तो जो भी खाते हैं वह पच जाता है और शरीर में लगता भी है। आवश्यकता का बोध होने पर उत्तरदायित्व आ जाता है। मस्तिष्क को जब तक लगता रहता है कि प्राण तो स्वतः उपलब्ध है, वह उसका मूल्य नहीं समझ पाता है, उसका पूर्ण उपयोग नहीं कर पाता है। जब न्यूनता की स्थिति आती है तो संसाधनों का उपयोग सर्वोत्तम होता है।

आधुनिक चिकित्सीय विज्ञान इस पर अधिक चर्चा नहीं करता है। बीमारियों और शारीरिक प्रयोगों के कई अच्छे जानकार डाक्टर अपने उपचार के साथ साथ प्राणायाम करने की सलाह भी देते हैं। पिताजी को एक दो पुराने रोगों से बाहर लाने में प्राणायाम ने अद्भुत योगदान दिया है। प्राणायाम करने से किस प्रकार के उपयोगी रसायनों का मस्तिष्क में स्राव होता है, इस पर एक समग्र शोध होना चाहिये।  प्राणायाम प्राणदान करने में सक्षम है, प्राणायाम के चिकित्सीय लाभ अवर्णनीय हैं, बस अति नहीं करना है और एक क्रम बनाये रखना है।

धारणासु च योग्यता मनसः॥२.५३॥ प्राणायाम करने से मन एक स्थान पर टिकता है, सारी धारणाओं में मन योग्य हो जाता है। आगे की साधनापथ में तत्पर हो जाता है।

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19.10.19

अभ्यास और वैराग्य - १८

अष्टांग योग में ५ अंग बहिरंग हैं, ३ अंग अंतरंग हैं। यम, नियम के साथ आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार बहिरंग में आते हैं। यम और नियम द्वारा सामाजिक और व्यक्तिगत स्थिरता के पश्चात शारीरिक स्थिरता पर साधना बढ़ जाती है। आसन द्वारा शरीर की इन्द्रियों को सहज रूप से रख पाना और अच्छा स्वास्थ्य, ये दो लाभ हैं। प्राणायाम प्राण को स्थिर करता है जिससे विचारों का प्रवाह संयत होता है। प्रत्याहार सारी इन्द्रियों को उनके विषयों से अलग कर लेने का सतत यत्न है। इन पर अभ्यास होने के बाद अंतरंग योग के धारणा, ध्यान और समाधि ही रह जाते हैं, अंतरंग योग को संयम भी कहते है। पतंजलि ने दूसरे पाद तक बहिरंग को और तीसरे पाद से अंतरंग का विषय उठाया है।

स्थिरसुखासनम्, स्थिर या निश्चल सुखपूर्वक बैठने का नाम आसन है। किसी विषय पर संयम करने के लिये अधिक समय के लिये नितान्त प्रशान्त हो बैठना पड़ता है, मन को एकाग्र हो उस विषय पर लगाने के लिये। यदि स्थिर एक आसन में नहीं बैठेंगे और शरीर की स्थिति बार बार बदलते रहेंगे तो मन एकाग्र नहीं हो पायेगा। यदि अतिप्रयत्न कर एक स्थिति पर बैठे रहते हैं और कभी कोई पीड़ा प्रारम्भ हो उठने लगे तो भी मन विचलित हो जायेगा। अनेकों आसन हैं, योगी मुख्यतः किन्हीं एक या दो आसनों में सिद्धि करते हैं। व्यास भाष्य में कई आसनों के नाम दिये भी गये हैं जो कि बताते हैं उस समय भी ये आसन समुचित रूप से प्रचलित रहे होंगे। पद्मासन, वीरासन, भद्रासन, स्वस्तिकासन, पंडासन, सोपाश्रय, पर्यक, कौञ्चनिषदन, हस्तिनिषदन, उष्ट्रनिषदन, समसंस्थान इत्यादि। उस स्थिति में शरीर की सहजता, सहनशीलता, द्वन्द्व सहने की शक्ति ही आसन के प्रमुख आधार हैं।

पतंजलि आगे कहते हैं कि प्रयत्न की शिथिलता से और अनन्त में मन लगाने से आसन सिद्ध होता है। जिस समय हमें लगे कि किसी आसन में लम्बे समय तक बैठने के लिये प्रयत्न विशेष नहीं करना पड़ रहा है और मन शरीर पर न लग कर अनन्त पर स्थिर हो रहा है तो समझना चाहिये कि वह आसन हमें सिद्ध हो रहा है। हर साधक के एक या दो आसन ही होते हैं जिसमें वह बैठकर विषयों पर संयम करता है। यदि लम्बा बैठने से शरीर के अंगों में कम्प आये या रक्त का प्रवाह रुकने से सुन्न हो तो शरीर को प्रयत्न करना पड़ रहा है, वह आसन सहज नहीं है। शरीर की चेष्टाओं को त्याग देने से, ध्यान नहीं देने से छोटी मोटी पीड़ा तो सहन की जा सकती है पर यदि मन का सारा ध्यान शरीर में ही लगा रहा तो वह आसन सिद्ध नहीं होगा, संयम तो तब दूर की बात है। 

हम जिस बिछौने पर बैठते हैं, वह भी आसन कहलाता है, वह भी सुखद होना चाहिये। बहुत पतला है और चुभे या ठंड लगे तो भी आसन सुखमय नहीं होगा। सभी प्रकार के आसनों में मेरुदण्ड सीधा रहना चाहिये। त्रिरुन्नतं स्थाप्य समं शरीरम् , अर्थात वक्ष, ग्रीवा और सिर उन्नत रहना चाहिये। जिसमें किसी प्रकार की पीड़ा या कष्ट हो या शरीर के अस्थैर्य की संभावना रहे, वह अष्टांग योग वाले आसन से परिभाषित नहीं होगा।

यहाँ पर आसन को हठयोग से भिन्न देखना होगा। हठयोग शरीर को हर प्रकार की सीमाओं में प्रयुक्त कर स्वास्थ्य लाभ पाने का नाम है। कठिन मुद्राओं में शरीर को घुमाकर कई बीमारियाँ आदि सही करते हैं हठयोग के साधक पर अष्टांग योग में वर्णित आसन उस स्तर और दिशा का प्रयास नहीं है। शरीर को स्वस्थ रखना तो फिर भी आवश्यक है, उसके लिये समुचित व्यायाम ही पर्याप्त है। देखा जाये तो सूर्यनमस्कार और कुछ मूलभूत आसन ही पर्याप्त है। शरीर में तनिक ऊष्मा आ जाती है और रक्त संचार सुचारू हो जाता है। रक्त संचार ही ठीक हो जाना कई रोगों से मुक्ति दिला सकता है। कितना पर्याप्त है स्वास्थ्य के लिये और कितना योग के अंग आसन के लिये आवश्यक है, यह धीरे धीरे बढ़ाने भर से पता चल जाता है, सीमा समझ में आ जाती है कि अब इसके आगे अति हो रही है।

व्यायाम का एक भाग है आसन। कई प्रकार से शरीर को व्यायाम दिया जा सकता है। व्यायाम अत्यावश्यक है क्योंकि भोजन को पचाने के लिये जठराग्नि इसी से बनती है। आसन की अधिकता और अन्य व्यायाम की न्यूनता भी ठीक नहीं है। व्यायाम की अधिकता और तीव्रता भी घातक है क्योंकि वह वात उत्पन्न करती है जिससे कई रोग हो जाते है। अधिक व्यायाम में उन्मुख होने से हमारा शरीर के प्रति आसक्ति अधिक बढ़ जाती है। शरीराभास की अधिकता योग के लिये हानिकारक है। शरीर एक संतुलन चाहता है, भारी भरकम हाथ और पाँव से भी लाभ नहीं यदि शरीर हल्का और स्फूर्त अनुभव न करे। यदि शरीर एक स्थिति में अधिक समय तक न स्थिर रह पाये तो जिम आदि में जाकर लोहा आदि उठाने का क्या लाभ?

यदि एक आसन में अधिक समय बैठना संभव नहीं हो रहा है तो उचित होगा कि आसन बदल लें। उसी आसन में फिर भी बैठे रहने से और दुख सहने तो यह कहीं अधिक उचित होगा। आसन लगाने में स्थिरता और सुख में यदि किसी को प्राथमिकता देनी हो तो वह सुख को ही दें। आसन सिद्ध होने से द्वन्द्व आदि सहन करने की क्षमता साधक में आ जाती है।

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15.10.19

अभ्यास और वैराग्य - १७

अष्टांग योग चित्त की स्थिर करने के उद्देश्य से हर संभव प्रकार से उसे साधने का प्रयत्न करता है। चित्त की वृत्ति अनेक हैं, अनन्त वर्षों के कर्म और उनके संस्कार संचित हैं। पंच क्लेश है, बिना उन क्लेशों के निवारण के संस्कारों का बनना बन्द नहीं होता है। इतने महत्कर्म को समग्रता और सम्पूर्णता से निर्वाह करना सरल कार्य नहीं है, हर संभव प्रकार से प्रयत्न करना होता है। प्रयास की भिन्नता अन्ततः उद्देश्य की एकाग्रता में समाहित हो जाती है। 

तप, स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधान को पतंजलि ने क्रियायोग से भी परिभाषित किया है। इन कर्तव्यों का मुख्य कार्य पंच क्लेशों को क्षीण करना है। अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश पंच क्लेश हैं, इनकी विस्तृत व्याख्या अन्य अंकों में पर यहाँ यही समझना पर्याप्त होगा कि बिना इन्हें क्षीण किये योग में बढ़ना असंभव है। 

तप है, द्वन्द्व को सहन करना। द्वन्द्व प्रकृति का मूल गुण है, जब प्रकृति नहीं होगी या प्रकृति प्रकट हो रही होगी, उस समय सब शून्य ही होगा, अपरिभाषित ही होगा, अव्यक्त ही होगा। फिर प्रकट हुआ, कुछ धनात्मक, कुछ ऋणात्मक, सुख-दुख, शीत-ऊष्ण, रात-दिन, लाभ-हानि, मान-अपमान। हमें स्रोत तक जाना है तो मध्य से जाना पड़ेगा, साम्य से होकर जाना होगा। तभी श्रीकृष्ण ने गीता में समेकृत्वा के भाव को उद्भाषित करने के लिये कहा है। समत्वं योग उच्यते। जब तक द्वन्द्व को सहन नहीं करेंगे, समत्व को प्राप्त नहीं करेंगे। दुख को सहन करना और साथ ही साथ सुख को भी सहन करना। सुख में मर्यादा न खोना और दुख में विश्वास न खोना। जो द्वन्द्व को सहन करना जानते हैं, जो द्वन्द्व को समझने लगते हैं, वे जानते हैं कि ये चक्रीय हैं, सबके जीवन में आते हैं, दिन रात की तरह, शीत ऊष्ण की तरह।

सोने में निखार लाने के लिये, उसे शुद्ध करने के लिये तपाना पड़ता है। तपाने से आन्तरिक अशुद्धियाँ पिघलकर बाहर आ जाती है। तप भी यही करता है। जब भी हम विपरीत स्थिति में जाते हैं, हम तपते हैं। तप क्षमतानुसार ही हो, धीरे धीरे, उत्तरोत्तर, क्रमशः। तप इतना भी न कर दें कि चित्त विचलित हो जाये, स्वास्थ्य बिगड़ जाये। तब तो उद्देश्य ही परास्त हो जायेगा। योगियों के लिये द्वन्द्व साधना भी है और साधना का मापन भी है। कौन कितना सह सकता है, वह उतना बड़ा योगी है। योग में रमे को द्वन्द्व सताना बन्द कर देते हैं।

स्वाध्याय का अर्थ है, मोक्षशास्त्रों का अध्ययन या प्रणव का जप। वेद, उपनिषद इत्यादि। स्व का अध्ययन करना, अपने को केन्द्रित रख कर चलना पड़ेगा। यह स्वार्थ नहीं है। अपने बारे में अध्ययन जिज्ञासा के उन ३५० प्रश्नों का उत्तर पाना है जिससे उपनिषद भरे पड़े हैं। स्वाध्याय अकेले कार्य नहीं करता है, साधक जैसे जैसे योग में आगे बढ़ता है, उसे वेदों और उपनिषदों के गूढ़ वाक्यों का अर्थ समझ आने लगता है।

ईश्वरप्रणिधान का अर्थ है, परमगुरु में अपने सारे कर्मों का अर्पण करना। कर्म महत्वपूर्ण हैं पर उससे भी अधिक महत्वपूर्ण है कि उन्हें किस भाव से किया जा रहा है। ईश्वर के शब्दरूप प्रणव का जप तो स्वाध्याय में आ ही गया है। जब ईश्वर को केन्द्रबिन्दु में रखकर कार्य किये जाते हैं, व्यक्ति स्वस्थ रहेगा, अपने में स्थित, परमात्मा के साथ स्थित, परमात्मनिष्ठ। वितर्कों के जाल को क्षीण करता हुआ (यमों के विपरीत जो भाव है, वह वितर्क हैं), संसार के बीज के क्षय को देखता हुआ। ऐसा व्यक्ति नित्यमुक्त होता है। यही ईश्वरप्रणिधान है। इससे प्रत्यक् चेतनाधिगम एवं अन्तराय समूह का अभाव होता है, विघ्न नष्ट होते हैं। ईश्वर को समर्पण करने से अकर्ता का भाव आयेगा, निष्काम कर्म हो जायेगा क्योंकि फल की इच्छा ही नहीं रहेगी। इसे यम नियम के अन्त में रखा गया है, यदि यह सम्हल गया तो सब सम्हल जाता है। ईश्वर अपने संकल्प मात्र से उसको समाधि प्राप्त करा देते हैं, यह ईश्वर की कृपा पर आधारित है।

दो प्रकार के लोग होते हैं। कुछ तपपूर्वक योग करते हैं, प्रयत्नपूर्वक करते हैं, व्रत अधिक करते हैं, उनमें यम की अधिकता है। कुछ सहज भाव से करते हैं पर ईश्वर के प्रति श्रद्धा बनाये रखते हैं, शरीर को अकारण कष्ट नहीं देते हैं, प्रवृत्ति और स्वभाव के अनुसार करते हैं। दोनों ही स्वीकार्य है। योग में कोई सहाय्य हो तो उसमें तो आनन्द का भाव आना चाहिये, ईश्वर के प्रति कृतज्ञता का भाव आना चाहिये, अभिमान त्यागकर। वेद में कहा गया है, कर्म के आरम्भ में, मध्य में और अन्त में ईश्वर की प्रार्थना और ध्यान करना चाहिये। ईश्वर प्रणिधान भी प्रवृत्ति को बढ़ावा देता है, पूर्ण पुरुषार्थ के साथ ही ईश्वर प्रार्थना, आगत विघ्नों को नाश करने के लिये।

पतंजलि कहते हैं कि हिंसा आदि भाव मन में आये तो प्रतिपक्ष की भावना देखनी चाहिये। किसी अपकारी के प्रति नकारात्मक भाव आये, हनन करना, असत्य बात करना, इसकी वस्तु लेना, दारा के साथ व्यभिचार करना आदि का भाव आता है, पाँचों यमो के विपरीत कर्म का भाव। इसकी प्रतिपक्ष की भावना है कि इतने श्रम से तो योग की राह में चल पा रहा हूँ, तब यह कैसे कुत्तों जैसा कार्य कर रहा हूँ। मनुस्मृति में कहा है, जब मनुष्य अपने अधर्म की निन्दा करने लगे, हानि देखने लगे तो वह अपने आप छूट जाता है। उस आचरण से होने वाली हानि को देखना प्रतिपक्षभाव है। हिंसा, अनृत, स्तेय आदि वितर्क कृत, कारित और अनुमोदित, क्रोध, लोभ तथा मोहपूर्वक आचरित तथा मृदु, मध्य और अधिमात्र होते हैं। वे अनन्त दुख और अनन्त अज्ञान के कारण हैं। यही प्रतिपक्षभावन है।


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12.10.19

अभ्यास और वैराग्य - १६

हमारे पूर्वजों को मनुष्य का अस्तित्व, उसका समाज में स्थान, जीवन का उद्देश्य आदि सभी विषयों का वैज्ञानिक ज्ञान था। बहुतों को लगता होगा कि वेद, उपनिषद आदि उपदेश मात्र हैं और इनका वैज्ञानिक आधार नहीं है। एक व्याख्यान सुन रहा था जिसमें बताया गया है कि उपनिषदों में लगभग ३५० प्रश्न हैं। इन सबका प्रमुख उद्देश्य स्वयं को जानने का है। प्रश्नपंक्ति की दिशा स्पष्ट है, सृष्टि का प्रारम्भ ही जिज्ञासा से हुआ, ब्रह्मा को ज्ञात ही नहीं था कि वह कौन हैं, कहाँ पर हैं और किसलिये हैं आये हैं? वेद का अर्थ ही जानना है, विद् धातु से आया है यह शब्द। जिज्ञासा का शमन है वेद का प्राकट्यीकरण। एक बार स्वयं को हर प्रकार से जान लिया तब यह निष्कर्ष निकालना अत्यन्त सरल हो जाता है कि हमसे क्या अपेक्षित है और वह क्यों अपेक्षित है? योग एक निष्कर्ष ग्रन्थ है, एक प्रक्रिया का निष्कर्ष जो आपको आप तक ले जायेगी, आपको स्वरूप तक ले जायेगी। उस यात्रा के लिये जिस अष्टांग योग का निरूपण किया गया है, उसका एक एक अंग और उपांग अपने अन्दर एक सामर्थ्य समाये है, अकेले ही गंतव्य तक ले जाने की।

सन्तोष एक अद्भुत गुण है। एक  दृष्टान्त के द्वारा, एक शास्त्रोक्ति के द्वारा इसकी महत्ता को वर्णित किया गया है। “ जैसे काँटे से बचने के लिये समस्त भूतल को चमड़े से नहीं ढका जा सकता किन्तु जूते पहने जा सकते हैं, ठीक वैसे ही ‘समस्त काम्य विषय पाकर सुखी होऊँ’ ऐसी इच्छा से सुख नहीं हो सकता, पर सन्तोष के द्वारा हो सकता है”। ययाति ने कहा है, कामना उपभोग से शमित नहीं होती है वरन हविषा डालने से अग्नि की तरह और बढ़ती है। तभी तो कहा गया है, सन्तोष एव पुरुषस्य परम निधानम्। जिसके पास सन्तोष है, उसके पास सब कुछ है। “चाह गयी चिन्ता गयी, मनवा बेपरवाह, जिनको कुछ नहीं चाहिये, वे शाहं के शाह”। जगत की आपाधापी से परे एक अद्भुत सी शान्ति है इस गुण को हर पल जीने वालों में, इस गुण को सिद्ध करने वालों में।

सन्तोष को व्यास अत्यन्त सरल शब्दों में व्याख्यायित करते हैं। सन्निहित साधन से अधिक की अनुपादित्सा। सन्निहित का अर्थ है, सब प्रकार से व्यवस्थित हित। जितने साधन आवश्यक हैं या उपस्थित हैं। अनुपादित्सा का अर्थ है, प्राप्त न करने की इच्छा। जितने साधन जीवन में उपस्थित हैं उससे अधिक प्राप्त न करने की इच्छा। जो प्राप्त है, वह पर्याप्त है। कहना सरल है, करना कठिन। हमारे प्रयत्न होते हैं कुछ पाने के लिये। जितना प्रयास था, जितना अभीप्सित था, यदि उतना नहीं मिल पाता है तो कुछ अधूरा सा लगता है। अब दो विकल्प हैं, जितना मिल गया है, उसमें तुष्ट रहें, उपयोग करें या जो नहीं मिला उस पर दुखी होयें, असन्तुष्ट रहें। पहला विकल्प तो रखना ही है, पर दूसरे विकल्प को तनिक परिवर्धित करना होगा। बहुधा फल हमारे हाथ में नहीं होते है, कई कारक हैं सफलता के। ज्ञान की अल्पता, कर्म की न्यूनता, कर्ता की योग्यता, फल की अपरिपक्वता, प्रारब्ध की प्रतीक्षा या विधि का अन्य विधान। कई कारण हो सकते हैं, तो उसमें क्षोभ क्यों होना, दुखी क्यों होना। कर्म पुनः होंगे, प्रयास गुरुतर होंगे, फल तो मिलेगा ही, उत्साह और धैर्य, अदम्य उत्साह और अनन्त धैर्य।

तात्कालिकता के कारण हमें न पाने का दुख बहुत बड़ा लगने लगता है। कुछ वर्षों बाद बहुधा वही घटना एक मनोरंजक स्मृति बन जाती है। यदि इस अनुभव से कुछ ग्रहण करना हो तो कल्पनाशीलता को भविष्य में ले जाकर वर्तमान के बारे में सोचें, तात्कालिकता प्लावित दुख उतर जायेगा। सोचें कि आज से ५ वर्ष बाद इस घटना का क्या मोल? सोचें कि पारिवारिक और सामाजिक जुड़ाव में, वृहद परिप्रेक्ष्य में व्यक्तिगत न्यूनताओं का क्या मोल? सोचें कि इतने बड़े विश्व में एक घटना, सिन्धु में बिन्दु सी। संकुचित मन विस्तार पाते ही सहज होने लगता है। औदार्य और आर्जवता, ये दो परिप्रेक्ष्य सदा ही सहायक हैं। औदार्य घटना को बड़े परिप्रेक्ष्य में रखने के लिये। आर्जवता स्वयं को सरलता और सहजता में रखने के लिये। यदि अपने आप को सरल कर ले तो शंकर सम कैसा भी गरल भी पी जायेंगे।    

हम सबको बहुधा लगता है कि हमारी योग्यता के अनुसार हमें फल नहीं मिले, हमारी क्षमता के अनुसार हमें पद नहीं मिले, यदि हम रहते तो कहीं अच्छा करते, जितना हमने दिया उतना नहीं मिला। परिप्रेक्ष्य पुनः बदलें। जितना प्राप्त है, पर्याप्त है। औदार्य और आर्जवता। जो है, उसमें सुखी रहें, जो नहीं है, वह नहीं है, उसमें दुखी क्यों होना? यदि किसी को देखकर असन्तोष की भावना आती है तो अन्य को देखकर संतोष का भी भाव उठे। तुलना से बहुत हानि होती है, यदि हम ऊपर देखते हैं, यदि नीचे देखते हुये चलें तो मन करूणा से भर जाता है, आभार से भर जाता है।

असन्तोष की भावना ही आपको और करने को प्रेरित करती है। वह बस प्रेरित करे, दुखी न करे। उत्साह भरे, नैराश्य न बने। वहीं दूसरी ओर सन्तोष का भाव भी अकर्मण्यता को प्रेरित न करे। प्रयत्नशीलता तो बनी रहे, आलस्य और संतोष में प्रयत्नों का अंतर है। एक कर्म न करने दे तो दूसरी कर्मफल न मिलने पर भी न थकने दे।

अस्तेय, अपरिग्रह और संतोष में क्रमिक विकास की स्पष्ट झलक है पर सूक्ष्म भिन्नता भी है। अस्तेय अधिकार से अधिक न पाने की इच्छा है। अपरिग्रह आवश्यकता से अधिक न पाने की इच्छा है। संतोष फल से अधिक न पाने की इच्छा है। अधिकार, आवश्यकता और फल के अन्तर को क्रमशः विकसित करता है इनका आचरण, एक दूसरे को प्रेरित और पोषित करता हुआ। अधिकार से फल की यह समझ श्रीकृष्ण की प्रख्यात घोषणा में भी बसती है, कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन (कर्म में आपका अधिकार है, फल में नहीं।)

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8.10.19

अभ्यास और वैराग्य - १५

अष्टांग योग मन की बाहर से अन्दर की ओर की यात्रा है, बाह्य विषयों से अन्तःस्वरूप तक की व्यवस्थित विकास प्रक्रिया। यम के द्वारा सामाजिक उद्वेलन को मंद करते हुये नियम के द्वारा मन को पुनः न उद्धत होने देना, आसन के द्वारा शरीर की अन्य इन्द्रियों की स्थिरता, प्राणायाम द्वारा प्राण पर नियन्त्रण, प्रत्याहार में कूर्मरूप हो इन्द्रियों को विषयों से खींच लेना, ये पाँच एक आवश्यक और दृढ़ आधार निर्मित कर देते हैं। तत्पश्चात स्थूल से सूक्ष्म विषयों पर संयम (धारणा, ध्यान और समाधि) के द्वारा चित्त की वृत्तियों का क्रमशः संकुचन और निरोध। प्रारम्भ में संयम क्षणिक और क्षीण होता है, अभ्यास से अवधि और गहराई बढ़ती जाती है, समाधिस्थ होने तक। जैसा पहले भी कहा है कि अगले चरण में जाने के लिये पूर्वचरण पूर्णतया सिद्ध करने की बाध्यता नहीं है। कई चरणों को एक साथ साधा जा सकता है, ये एक दूसरे को प्रेरित और पोषित करते रहते हैं।

नियम ५ हैं, शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वरप्रणिधान। नियमों के द्वारा व्यक्तिगत अनुशासन, सदाचार, चारित्रिक उन्नयन और अन्ततः जीवन नियमन होता है। नियमयन्ति प्रेरयन्तीति नियमाः। नियम के लिये प्रवृत्ति करनी होती है, प्रयत्न करना होता है। यम में निवृत्ति थी, निषेध था। जहाँ प्रवृत्ति और प्रक्रिया होती है, समय देना होता है, अनुशासन लाना पड़ता है, दिनचर्या में जोड़ना पड़ता है। ऐसे कार्य करने पड़ते हैं जिससे नियम पोषित हों। कोई भी भाव आने पर या कार्य में उद्धत होने पर यह सोचना होता है कि नियमों के पालन करने पर हमारा व्यवहार कैसा होगा?

पहला नियम है, शौच, अर्थ है शुद्धि, पवित्रता। यह वाह्य और अन्तः, दो प्रकार की होती है। मिट्टी, जल से प्रक्षालन के द्वारा की गयी शुद्धि वाह्य शुद्धि है। पहले साबुन इत्यादि का प्रयोग नहीं था, मिट्टी से ही हाथ धोना, स्नानादि किया जाता था। आज भी कई प्रकार की मिट्टी त्वचा और केशों के लिये अत्यन्त लाभदायी मानी जाती है। जल वाह्य मल को अपने साथ बहा ले जाता है। पानी पावनकारी है, पवन और पावक के समान।

मन के स्तर पर भी शौच महत्वपूर्ण है। मेधा के लिये हितकर वस्तुओं को ग्रहण करना भी शौच है। इस नियम के अन्तर्गत मादक पदार्थों का निषेध किया है, मेधा के लिये अहितकर होने के कारण। मादक पदार्थों से बुद्धि शिथिल हो जाती है, चित्त मलिन हो जाता है, चित्त स्थिर नहीं रहता है, कर्मण्यता से शून्य हो जाता है। इस स्थिति में शुभ अशुभ का विचार नहीं रहता है, विवेकशून्य हो जाता है। योग में चित्त को वशीकृत करना होता है, मादक पदार्थ उसे वशीकृत नहीं होने देते हैं, अतः वे योग के शत्रु हैं। आयुर्वेद के प्रणेता चरक भी कहते हैं, “परलोक और इहलोक में जो भी हितकर और परमश्रेयः है, वे सब देही को मन की समाधि के द्वारा प्राप्त होते हैं। परन्तु मद्य से मन में अत्यन्त संक्षोभ हो जाता है। मद्य से जो अंध है तथा मद्य में जिनकी लालसा है, वे श्रेयः से विमुख होते हैं।”

ईश्वर को न मानने वाले संप्रदाय पाँचवे नियम ईश्वरप्रणिधान को नहीं मानते हैं। उसके स्थान पर वे मादक पदार्थों के सेवन के निषेध को नियम मानते हैं। यद्यपि पतंजलि ने इसे शौच में लिया है, इसका आध्यात्मिक महत्व सबने स्वीकार किया है.

आन्तरिक शौच चित्त के मल का आक्षालन है, मद, मान, असूय आदि का आक्षालन। इन चित्त विकारों के कारण व्यक्ति का आचरण विपरीत हो जाता है जो समाज के लिये अहितकर होता है। शौच के पालन में अत्यधिक सनक ठीक नहीं होती है। स्वास्थ्य सही रहे और सामने वाले को आपकी उपस्थिति अरुचिकर न लगे। बार बार वस्त्र बदलना, बार बार स्नान, कहीं कीटाणु न लग जायें उसके लिये किसी को स्पर्श न करना। ये सब सनक ही कहलायेगी और सामाजिक अप्रियता को बढ़ायेगी।

प्रकृति में स्वयं को शुद्ध रखने का अभूतपूर्व गुण हैं। प्रकृति का संतुलन ठीक रहे तो प्रकृति शुद्धता बनाये रहेगी। परिवेश स्वच्छ रहे, नदियाँ, झील, वायुमण्डल शुद्ध रहे, तन शुद्ध रहे, मन शुद्ध रहे। स्वच्छता के प्रति दृढ़ आग्रह हमारा सामाजिक दायित्व है। पर्यावरण को अशुद्ध रखने में जीवमात्र की हानि है। हमारे कार्य कहीं ऐसे न हों जो पर्यावरण को हानि पहुँचायें तो यह भी हिंसा होगी, आने वाली पीढ़ियों के स्वास्थ्य के लिये घातक, आपके अपनों के स्वास्थ्य के लिये घातक। यह हमारा सौभाग्य है कि महान प्रयास इस दिशा में फलीभूत हो रहे हैं, विकास का भारतीय परिप्रेक्ष्य विश्वपटल पर अपना स्थान पा रहा है। संसाधनों का उतना ही संदोहन हो जिससे वे पुनः पनप सकें, पुनः उठ खड़े हो सकें। यदि प्रकृति पर अतिशय अत्याचार होगा तो प्रकृति अपने पावन करने वालों तत्वों से वंचित रह जायेगी और सब कुछ धरा का धरा रह जायेगा। असंतुलन फैलेगा, रोग फैलेंगे, सामाजिक त्रास फैलेगा।

जब हम निद्रा में होते हैं, हमारा शरीर स्वाभाविक रूप से सारे तन्त्रों को शुद्ध करता रहता है। मस्तिष्क से लेकर पाचनतन्त्र तक, कोशिका से लेकर रक्त तक सभी अपना अतिरिक्त पदार्थ मल के रूप में त्याग देते हैं। शौच बनाये रखने के लिये आवश्यक है कि हमारी निद्रा गाढ़ी हो, पूरी हो। अच्छी नींद के पश्चात एक ऊर्जान्वित दिन का प्रारम्भ होता है, नित्यकर्म करने के उपरान्त। यही शौच का प्रभाव है। शौच शरीर, मन, मस्तिष्क में एक स्फूर्ति लाती है। जीवन जीने के लिये सभी अंग मल उत्सर्जित करते हैं। उनकी शुद्धि हमें पुनः एक नयी ऊर्जा के साथ जीवन में उद्धत करती है। पतंजलि कहते हैं, शौचात् स्वाङ्गजुगुप्सा परैरसंसर्गः।२.४०। शौच की सिद्धि होने से अपने शरीर के प्रति जुगुप्सा और पर के साथ असंसर्ग का भाव आता है।

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5.10.19

अभ्यास और वैराग्य - १४

पूर्वजों के विषयगत ज्ञान, अनुभव और गहराई से अभिभूत हूँ। जो भी विषय उठाया है उसके साथ पूरा न्याय किया है। मानवीय चिन्तन प्रक्रिया और उस पर आधारित सामाजिक संरचना हमारे पूर्वजों के सशक्त और स्पष्ट हस्ताक्षर थे। जितना समझता हूँ, मूल तक जाता हूँ, उतना ही कृतज्ञ हो जाता हूँ, उनके अद्भुत प्रयासों से, प्रश्न की जटिलता को जीवटता से निपटने की उनकी अतीव उत्कण्ठा से। गर्व का भाव बार बार आता है, अमृतपुत्र होने का भाव बार बार आता है, ज्ञान की अद्वितीय परंपरा हमारी संस्कृति का अमृततत्व है। संस्कृति को नष्ट करने का दुर्स्वप्न लिये दुष्ट संभवतः नहीं जानते हैं कि यही अमरत्व है जो संस्कृति को सुमेरू सा स्थापित किये है। एक बीज भी शेष रहा तो वटवृक्ष स्थापित कर लेगा, जहाँ भी रहे, जैसे भी रहे।

नीतिसार का एक श्लोक सामाजिक व्यवहार में उत्कृष्टता के मानक सहज ही प्रस्तुत कर देता है। मातृवत परदारेषु परद्रव्येषु लोष्ठवत । आत्मवत सर्वभूतेषु यः पश्यति सः पण्डितः ।।(जो व्यक्ति अन्य पुरुष की पत्नी को माता के समान, अन्य के धन को मिट्टी के समान, और अन्य प्राणियों को अपने समान देखता है - वह ज्ञानी है) चारित्रिक उज्जवलता के ये भाव भारतीय जनमानस में ब्रह्मचर्य के महत्व को व्यक्त करते हैं। व्यक्तित्व के औदार्य का बोध शारीरिक क्षुद्रता पर भारी पड़ता है। वैसे ब्रह्मचर्य का शाब्दिक अर्थ ब्रह्म की ओर चलना है, अध्यात्म को आत्मसात करना है, ज्ञानोपार्जन है, पर पतंजलि योग सूत्र में इसे उपस्थ इन्द्रियों के संयम तक ही सीमित रखा गया है, ब्रह्मचर्य आश्रम में पूर्ण पालन और गृहस्थ आश्रम में भी दाम्पत्य तक ही सीमित। व्यभिचार से तो समाज का ताना बाना ही ध्वस्त हो जायेगा।

अपरिग्रह का अर्थ है कि अपनी आवश्यकता से अधिक ग्रहण न करना। न्यूनतम उतना हो जिससे कार्य चल सके। जिनके पास साधन नहीं हैं, उनके पास कम वस्तुओं का होना अपरिग्रह नहीं है। साधन होने के बाद भी न उपयोग करना अपरिग्रह है। आवश्यकता और इच्छा में अन्तर समझना होगा। इच्छायें असीमित होती हैं, सबको पूरा करने की न तो सामर्थ्य होती है और न ही समय। जो वस्तु या विषय जीवन साधने के लिये अनिवार्य हैं, उनका अर्जन तो करना ही होगा। सुविधायें श्रम को कम करती हैं, कोई ऐसी वस्तु जो हमारा समय बचाये, कोई ऐसा विषय जो हमारा संशय दूर करे, ऐसी सुविधाओं को तो प्राप्त करना ही होगा। पर जब एक वस्तु से कार्य चल सकता है तो दूसरी लेना, जब छोटी से काम चल सकता है तो बड़े आकार की लेना, यह सब परिग्रह है।

वस्तुयें या विषय जीवन में अकारण ही न आयें, उनका कोई कारण हो, उनसे हमारी आत्मिक उन्नति या भौतिक अभ्युदय हो। बिना सोचे समझे गृहस्थी बढ़ा लेना, कपड़ों से अल्मारियाँ भर लेना, यह सब अन्यथा है। उन वस्त्रों का भला क्या कार्य जिनको आपने वर्षों से पहना ही नहीं, उनकी क्या उपयोगिता रही, तो फिर आपने खरीदा क्यों। पास में धन है, कोई वस्तु अच्छी लगी और खरीदने का मन कर गया, यह परिग्रह है। इस मानसिकता से बाहर आना अपरिग्रह कहलायेगा। आवश्यकता से अधिक साधन जुटाना मूढ़ता है, परिग्रही मानसिकता है।

व्यास किसी भी विषय या वस्तु के परिग्रह में ५ प्रकार के दोष बताते हैं। ये ५ दोष हैं, अर्जन, रक्षण, क्षय, संग और हिंसाविषयक। किसी भी वस्तु के अर्जन में साधन, श्रम, समय और धन आदि लगता है अतः इन संसाधनों का उपयोग परम आवश्यक के लिये ही किया जाना बुद्धिमत्ता है। अर्जित वस्तु की रक्षा भी करनी होती है, उसे सम्हाल कर रखना पड़ता है, कोई चुरा न ले, छीन न ले। यह उपक्रम भी कई आवश्यक कार्यों के स्थान पर ही होता है। वस्तु का कालान्तर में क्षय हो जाता है, पुनः उद्योग करना होगा उसको प्राप्त करने का, इसमें दुख भी होता है। उस वस्तु या विषय के साथ रहते रहते उससे लगाव हो जाता है, जो कि आध्यात्मिक उन्नति के लिये ठीक नहीं। सोते जागते आपको उसका ध्यान आता है। किसी भी वस्तु या विषय के साथ लगाव, उसके अर्जन में किसी का छीना हुआ अधिकार और उसके चोरी और क्षय में आये भाव हिंसा विषयक होते हैं। व्यास बताते हैं कि ये ५ दोष देखकर, सोचकर और सम्यक विचारकर, आवश्यकता के अनुसार ही संग्रह करना अपरिग्रह है।

अर्थोपार्जन में अत्यधिक श्रम, साधन और समय लगता है। पंचतन्त्र कहता है कि अर्थार्थी के श्रम का शतांश भी यदि मोक्ष की इच्छा करने वाला लगा दे तो उसे मोक्ष प्राप्त हो जायेगा। अर्जन, रक्षण अपने आप में दोष नहीं है, योगक्षेम तो करना ही होता है, योगक्षेम वहाम्यहम्, पर आवश्यकता से अधिक करने में और बिना किसी हेतु करने में दोष है। अपरिग्रह का अर्थ आलस्य नहीं है, अपरिग्रह किसी भी ओर से आलस्यमूलक नहीं हो सकता है। कोई भी यम या नियम आलस्य करने से हो ही नहीं सकता है, इन सब में प्रयत्न करना होता है। आलस्य से अपरिग्रह संभव ही नहीं है।

शरीर ही नहीं वरन मन और वाणी में भी अपरिग्रह करना चाहिये। अनावश्यक वाणी और विचार, दोनों ही विवाद और विषाद का विषय बन सकते हैं। पश्चिमी जगत में इस समय अपरिग्रह को मिलिमलिस्ट आंदोलन के नाम से व्यापकता से अपनाया जा रहा है। अधिकता अभिशाप बन कर आती है, आपके लिये, आपके साथ रहने वालों के लिये, जीव जन्तुओं के लिये, वातावरण के लिये, पृथ्वी के लिये। अपरिग्रह का सिद्धान्त स्वार्थ के ऊपर परमार्थ को रखने का है, शरीर के ऊपर अध्यात्म को रखने का है।

पतंजलि अपरिग्रह की सिद्धि बताते हैं। अपरिग्रहस्थैर्ये जन्मकथंतासंबोधः॥२.३९॥ (अपरिग्रह के स्थिर होने पर जन्म जन्मान्तरों का बोध हो जाता है) पहले तो यह समझ नहीं आया पर जब अपरिग्रह के सिद्धान्त को आत्मा को केन्द्रबिन्दु बना कर लगाया तो आत्मा की दृष्टि से तो यह शरीर, मन, इन्द्रियाँ, विषय आदि सभी परिग्रह हैं। इनको उस रूप में स्वीकार भर कर लेने से अपने स्वरूप को जाना जा सकता है और यह भी समझा जा सकता है कि सदियों से हम यह शारीरिक आवरण ओढ़ते आये हैं। यह सबका भान हट जाने से अपनी जन्म जन्मान्तरों की यात्रा स्पष्ट दिखायी पड़ेगी।

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1.10.19

अभ्यास और वैराग्य - १३

यम सामाजिक स्थैर्य पोषित करता है, स्वस्थ समाज विकास का आधार है, सुदृढ़ अवयव शरीर को पुष्ट करते हैं। अध्यात्म उत्तरदायित्व से भागने का नाम नहीं है, प्रयत्नशीलता आवश्यक है योग के हर अंग-उपांग को साधने के लिये। उद्योग करना होता है, सही दृष्टि के साथ, सही ज्ञान के साथ। साथ ही आवश्यक है धैर्य और उत्साह। उत्साह इतना कि जैसे ध्येय अगले क्षण ही मिल जाने वाला हो और धैर्य इतना कि अनन्तकाल तक न भी मिले फिर भी उत्साह लेशमात्र भी कम नहीं हो। बस विश्वास रखें कि विधान अपना कार्य न्यायपूर्वक ही करेगा।

सत्य और अहिंसा के बाद अगला उपांग है, अस्तेय। स्तेय है, अशास्त्रपूर्वकम् द्रव्याणां परतः, अशास्त्रपूर्वक कोई द्रव्य लेना। स्तेय का निषेध और उसकी स्पृहा न करना अस्तेय है। अस्तेय का प्रचलित अर्थ चोरी है और वह अत्यन्त सरलीकृत और सीमित अर्थ है। अस्तेय का स्वरूप उससे कहीं अधिक व्यापक और गहरा है। शास्त्र को सामाजिक और धार्मिक अर्थों में समझना होगा। शास् धातु से शास्त्र शब्द निकला है, अर्थ है शिक्षा देना, शासन करना, आज्ञा देना, निर्देश देना, दण्ड देना, सलाह देना। जिन नियमों से हमारी सामाजिक और आध्यात्मिक व्यवस्था निर्धारित होती है, वे हमारे लिये शास्त्र हैं।

शास्त्रसम्मत अधिकार को परिभाषित करने के लिये ईशावास्योपनिषद का प्रथम श्लोक समझना होगा। जब यह श्लोक पहली बार पढ़ा था, त्याग और भोग को एक साथ पढ़कर आश्चर्यचकित हो गया, मंत्रमुग्ध हो गया था भारतीय विचारसंतुलन पर। चलिये समझते हैं।
ईशावास्यमिदम् सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत। तेनत्येक्तेन भुञ्जीथा मा गृध: कस्य स्विद्धनम॥(इस संसार में जो कुछ है, वह ईश्वर से व्याप्त है, वह ईश्वर का है, उसका त्यागपूर्वक भोग करो, लालच मत करो, यह धन किसका है।) जब कुछ अपना है ही नहीं, तो उस पर अधिकार कैसा, लगाव कैसा, स्पृहा कैसी? 

अब जब यह निश्चित हो गया कि धन किसका है और उसका त्यागपूर्वक भोग करना है, प्रश्न यह उठता है कि उसको प्राप्त कैसे करें? गीता(३.१२) इसका निराकरण कर देती है।
इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः। तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः।(यज्ञ करने से देवता तुम्हें वांछित भोग देंगे, प्रदत्त भोग बिना उन्हें चढ़ाये भोग करने वाला निश्चय ही चोर है।) यज्ञ प्राप्य हेतु किये गये समुचित उद्योगकर्म को कहते हैं। कालान्तर में यज्ञ का अर्थ हवन तक ही सीमित रह गया है। यज्ञ शब्द के तीन अर्थ हैं, देवपूजा, दान, संगतिकरण। संगतिकरण का अर्थ है संगठन। अतः यज्ञ का तात्पर्य है, त्याग, बलिदान, शुभ कर्म। परमात्मा के लिये किया कोई भी कर्म यज्ञ है। बिना कर्म के कुछ प्राप्त करना और जिससे प्राप्त किया है उसको धन्यवाद न देना चोरी ही है।

किसी और का धन या द्रव्य लेना तो निश्चय ही अपराध की श्रेणी में आयेगा। अधिकार के साथ कर्तव्य मूलभूत रूप से जुड़े हुये हैं। बिना कुछ किये कुछ अर्जित करने की इच्छा ही करना स्तेय होगा, हस्तगत करना एक अपराध। जो नहीं हैं, उस रूप में स्वयं को प्रस्तुत कर स्वार्थ सिद्ध करना स्तेय है। आवश्यकता से अधिक संसाधनों का उपयोग करना स्तेय है क्योंकि हमारा अधिकार हमारी आवश्यकता तक ही सीमित है। अन्न या जल व्यर्थ करना स्तेय है। आवश्यकता से अधिक खरीद कर रखना और कालान्तर में व्यर्थ कर देना स्तेय है। 

अधिकारी न होकर भी सुविधाओं का अनुचित उपयोग स्तेय है। हड़पने की बात तो दूर, सरकारी धन का दुरुपयोग तक स्तेय है क्योंकि आपका अधिकार या दायित्व उसके सदुपयोग का था, सर्वजनहिताय का था। कोई वचन देकर, आश्वासन देकर मुकर जाना या भूल जाना स्तेय है। किसी पद पर पहुँचने का भाव, कुछ बन जाने का भाव, बिना किसी योग्यता के, बिना समुचित कर्तव्य के। परिवारवाद, भाईभतीजावाद, चाटुकारितावाद से प्रभावित अन्य का अधिकार हड़प लेना भी स्तेय है। वह व्यक्ति आहत होता है जो उसका अधिकारी था।

प्रकृति, समाज और ईश्वर के प्रति कृतज्ञता का भाव हमें संयमित रखता है, कम से कम यह याद दिलाता रहता है कि हर वस्तु के लिये हम किसी न किसी के प्रति कृतज्ञ अवश्य रहें। इससे अधिकार का भाव क्षीण होता है, यदि वह भाव आये भी तो कम से कम कर्तव्यों के पूर्ण और सम्यक निर्वहन के बाद आये। अपने आप को अधिकारी मान बैठना, दूसरे से श्रेष्ठ मान लेना, प्रतियोगी मानसिकता में दग्ध रहना, ये सब स्तेय को बढ़ावा देते हैं। विनम्रता से अधिक सहायक कोई गुण नहीं है यदि अस्तेय को परिपोषित करना है। अपने को अधिकारी न मानने का भाव, सबकी सेवा में प्रस्तुत रहने का भाव लाना होगा। मुझे चैतन्य महाप्रभु के शब्द झंकृत कर जाते हैं, जब वह कहते हैं, तृणादपि सुनीचेन, तरोरपि सहिष्णुना, अमानिना मानदेन, कीर्तनया सदा हरिः। अद्बुत विनम्रता का भाव है यह।

कुछ लोग स्तेय को दान आदि से ढकने का उपक्रम करते हैं। चोरी का धन दान देना, यह दान नहीं माना जायेगा क्योंकि वह धन उसका तो था ही नहीं। यह करणीय कर्मों में नहीं माना जायेगा। इससे अच्छा होगा कि न चोरी करें, भले ही दान न दे पायें। अच्छा तो होगा कि ऐसा दान न लिया जाये, पर वह धन यदि समाज के कार्यों में लग सके तो विचार हो सकता है, बस यह मानकर कि धन के साथ अधर्म लिपटकर नहीं आ रहा है। सबका अपना अलग कर्माशय हैं, पाप और पुण्य पृथक पृथक प्रभावित करते हैं।

पतंजलि कहते हैं कि अस्तेय की सिद्धि पर रत्न स्वयं उपस्थित हो जाते हैं।(२.३७)

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