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17.7.21

याद बहुत ही आते पृथु तुम


सभी खिलौने चुप रहते हैं, भोभो भी बैठा है गुमसुम ।

बस सूनापन छाया घर में, याद बहुत ही आते पृथु तुम ।।

 

पौ फटने की आहट पाकर, रात्रि स्वप्न से पूर्ण बिताकर,

चिड़ियों की चीं चीं सुनते ही, अलसाये कुनमुन जगते ही,

आँखे खुलती और उतरकर, तुरत रसोई जाते पृथु तुम ।

याद बहुत ही आते पृथु तुम ।।१।।

 

जल्दी है बाहर जाने की, प्रात, मनोहर छवि पाने की,

पहुँचे, विद्यालय पहुँचाने, बस बैठाकर, मित्र पुराने,

कॉलोनी की लम्बी सड़कें, रोज सुबह ही नापे पृथु तुम ।

याद बहुत ही आते पृथु तुम ।।२।।

 

ज्ञात तुम्हे अपने सब रस्ते, पथ बतलाते, आगे बढ़ते,

रुक, धरती पर दृष्टि टिकी है, कुछ आवश्यक वस्तु दिखी है,

गोल गोल, चिकने पत्थर भर, संग्रह सतत बढ़ाते पृथु तुम ।

याद बहुत ही आते पृथु तुम ।।३।।

 

धूप खिले तब वापस आना, ऑन्टी-घर बिस्कुट पा जाना,

सारे घर में दौड़ लगाकर, यदि मौका तो मिट्टी खाकर,

मन स्वतन्त्र, मालिश करवाते, छप छप खेल, नहाते पृथु तुम ।

याद बहुत ही आते पृथु तुम ।।४।।

 

तुम खाली पृथु व्यस्त सभी हैं, पर तुम पर ही दृष्टि टिकी हैं,

शैतानी, माँ त्रस्त हुयी जब, कैद स्वरूप चढ़ा खिड़की पर,

खिड़की चढ़, जाने वालों को, कूकी जोर, बुलाते पृथु तुम ।

याद बहुत ही आते पृथु तुम ।।५।।

 

और नहा पापा जब निकले, बैठे पृथु, साधक पूजा में,

लेकर आये स्वयं बिछौना, दीप जलाकर ता ता करना,

पापा संग सारी आरतियाँ, कूका कहकर गाते पृथु तुम ।

याद बहुत ही आते पृथु तुम ।।६।।

 

यदि घंटी, पृथु दरवाजे पर, दूध लिया, माँ तक पहुँचाकर,

हैं सतर्क, कुछ घट न जाये, घर से न कोई जाने पाये,

घर में कोई, पहने चप्पल, अपनी भी ले आते पृथु तुम ।

याद बहुत ही आते पृथु तुम ।।७।।

 

दे थोड़ा विश्राम देह को, उठ जाते फिर से तत्पर हो,

आकर्षक यदि कुछ दिख जाये, बक्सा, कुर्सी, बुद्धि लगाये,

चढ़ सयत्न यदि फोन मिले तो, कान लगा बतियाते पृथु तुम ।

याद बहुत ही आते पृथु तुम ।।८।।

 

सहज वृत्ति सब छू लेने की, लेकर मुख में चख लेने की,

कहीं ताप तुम पर न आये, बलपूर्वक यदि रोका जाये,

मना करें, पर आँख बचाकर, वहाँ पहुँच ही जाते पृथु तुम ।

याद बहुत ही आते पृथु तुम ।।९।।

 

सबसे पहले तुमको अर्पित, टहल टहल खाना खाओ नित,

देखी फिर थाली भोजनमय, चढ़कर माँ की गोदी तन्मय,

पेट भरा, पर हर थाली पर, नित अधिकार जमाते पृथु तुम ।

याद बहुत ही आते पृथु तुम ।।१०।।

 

मन में कहीं थकान नहीं है, दूर दूर तक नाम नहीं है,

पट खोलो और अन्दर, बाहर, चढ़ बिस्तर पर, कभी उतरकर,

खेल करो, माँ को प्रयत्न से, बिस्तर से धकियाते पृथु तुम ।

याद बहुत ही आते पृथु तुम ।।११।।

 

इच्छा मन, विश्राम करे माँ, खटका कुछ, हो तुरत दौड़ना,

खिड़की से कुछ फेंका बाहर, बोल दिया माँ ने डपटाकर,

बाओ कहकर सब लोगों पर, कोमल क्रोध दिखाते पृथु तुम ।

याद बहुत ही आते पृथु तुम ।।१२।।

 

यदि जागो, संग सब जगते हैं, देख रहे, पृथु को तकते हैं,

पर मन में अह्लाद उमड़ता, हृद में प्रेम पूर्ण हो चढ़ता,

टीवी चलता, घूम घूमकर, मोहक नृत्य दिखाते पृथु तुम ।

याद बहुत ही आते पृथु तुम ।।१३।।

 

ऊपर से नीचे अंगों की, ज्ञान परीक्षा होती जब भी,

प्रश्न, तुरत ही उत्तर देकर, सम्मोहित कर देते हो पर,

जब आँखों की बारी आती, आँख बहुत झपकाते पृथु तुम ।

याद बहुत ही आते पृथु तुम ।।१४।।

 

शाम हुयी, फिर बाहर जाना, डूबे सूरज, आँख मिलाना,

देखेंगे चहुँ ओर विविधता, लेकर सबको संग चलने का,

आग्रह करते, विजय हर्ष में, आगे दौड़ लगाते पृथु तुम ।

याद बहुत ही आते पृथु तुम ।।१५।।

 

मित्र सभी होकर एकत्रित, मिलते, जुलते हैं चित परिचित,

खेलो, गेंद उठाकर दौड़ो, पत्थर फेंको, पत्ते तोड़ो,

और कभी यदि दिखती गाड़ी, चढ़ने को चिल्लाते पृथु तुम ।

याद बहुत ही आते पृथु तुम ।।१६।।

 

चलती गाड़ी, मन्त्रमुग्ध पृथु, मुख पर छिटकी है सावन ऋतु,

उत्सुकता मन मोर देखकर, मधुरिम स्मृति वहीं छोड़कर,

शीश नवाते नित मन्दिर में, कर प्रदक्षिणा आते पृथु तुम ।

याद बहुत ही आते पृथु तुम ।।१७।।

 

दिन भर ऊधम, माँ गोदी में, रात हुयी, सो जाते पृथु तुम,

शान्तचित्त, निस्पृह सोते हो, बुद्ध-वदन बन जाते पृथु तुम ।

याद बहुत ही आते पृथु तुम ।।१८।।


10.7.21

आँखों के दो तारे तुम

 

आत्म-अधिक हो प्यारे तुम,

आँखों के दो तारे तुम ।

 

रात शयन से प्रात वचन तक, सपनों, तानों-बानों में,

सीख सीख कर क्या भर लाते विस्तृत बुद्धि वितानों में,

नहीं कहीं भी यह लगता है, मन सोता या खोता है,

निशायन्त तुम जो भी पाते, दिनभर चित्रित होता है,

कृत्य तुम्हारे, सूची लम्बी, जानो उपक्रम सारे तुम,

आँखों के दो तारे तुम ।१।

 

कहने से यदि कम हो जाये उत्श्रंखलता, कह दूँ मैं,

एक बार कर यदि भूलो तो, चित्त-चपलता सह लूँ मैं,

एक कान से सुनी, बिसारी, दूजे से कर रहे मन्त्रणा,

समझा दो जो समझा पाओ, हमको तो बस मन की करना,

अनुशासन के राक्षस सारे, अपने हाथों मारे तुम,

आँखों के दो तारे तुम ।२।

 

पैनी दृष्टि, सतत उत्सुकता, प्रश्न तुम्हारे क्लिष्ट पहेली,

समय हाथ में, अन्वेषणयुत बुद्धि तुम्हारी घर-भर फैली,

कैंची, कलम सहज ही चलते, पुस्तक, दीवारें है प्रस्तुत,

यह शब्दों की चित्रकारिता या बल पायें  भाषायें नित,

जटिल भाव मन सहज बिचारो, प्रस्तुति सहज उतारे तुम,

आँखों के दो तारे तुम ।३।

 

अनुभव सब शब्दों में संचित, प्रश्नों के उत्तर सब जानो,

स्वतः सुलभ पथ मिलते जाते, यदि विचार कोई मन में ठानो,

मुक्त असीमित ऊर्जा संचित, कैसे बाँध सके आकर्षण,

चंचल चपल चित्त से सज्जित, रूप बदलते हर पल हर क्षण,

उलझे चित्रण, चंचल गतियाँ, घंटों सतत निहारे तुम,

आँखों के दो तारे तुम ।४।

 

बादल बन बहती, उड़ती है, कहीं बिचरती मनस कल्पना,

और परिधि में सभी विषय हैं, सजती जीवन-प्रखर अल्पना,

अनुभव के अम्बार लगेंगे, बुद्धिमता के हार सजेंगे,

अभी लगे उत्पातों जैसे, उत्थानों के द्वार बनेंगे,

सीमाओं से परे निरन्तर, बढ़ते जाओ प्यारे तुम,

आँखों के दो तारे तुम ।५।


(पहले मानसिक हलचल में लिखी थी, स्मृति में पुनः उतर आयी)


19.1.15

एक बचपन माँगता हूँ

अब समय की राह में,
अस्तित्व अपना जानता हूँ ।
यदि कहीं, कुछ भा रहा है,
एक बचपन माँगता हूँ ।

कहाँ से लाऊँ सहजता,
हर तरफ तो आवरण है ।
आत्म का आचार जग में,
बुद्धि का ही अनुकरण है ।
क्यों नहीं प्रस्फुट हृदय है,
कृत्रिम कविता बाँचता हूँ ।
एक बचपन माँगता हूँ ।।

खो गया हूँ, मैं अकेला,
स्वयं के निर्मित भवन में ।
अनुभवों की वृहद नद में,
आचरण के जटिल वन में,
क्यों सफलता के घड़ों से,
जीवनी मैं नापता हूँ ।
एक बचपन माँगता हूँ ।। २।।

30.4.14

बचपन

बचपन फिर से जाग उठा है,
सुख-तरंग उत्पादित करने,
ऊर्जा का उन्माद उठा है ।

वे क्षण भी कितने निश्छल थे,
चंचलता का छोर नहीं था ।
जीवन का हर रूप सही था,
व्यथा युक्त कोई भोर नहीं था ।।१।।

अनुपस्थित था निष्फल चिन्तन,
शान्ति अथक थी, चैन मुक्त था ।
घर थी सारी ज्ञात धरा तब,
दम्भ-युक्त अज्ञान दूर था  ।।२।।
 
व्यक्त सदा मन की अभिलाषा,
छलना तब व्यवहार नहीं था ।
मन में दीपित मुक्त दीप था,
अन्धकार का स्याह नहीं था ।।३।।

अनुभव का अंबार नहीं यदि,
ऊर्जा का हर कुम्भ भरा था ।
नहीं उम्र के वृहद भवन थे,
हृदय क्षेत्र विस्तार बड़ा था ।।४।।

थे अनुपम वे ज्ञानरहित क्षण,
अन्तः अपना भरा हुआ था ।
आज हृदय है खाली खाली,
ज्ञान कोष में अनल भरा है ।।५।।

26.10.13

बचपन, भाषा, देश

जीवन के प्रथम दशक में हमारी भाषा, परिवेश का ज्ञान, विचारों की श्रंखलायें आदि अपना आकार ग्रहण करते हैं। यह प्रक्रिया बड़ी ही स्पष्ट है, आकृतियाँ, ध्वनि और संबद्ध वस्तुयें मन में एक के बाद एक सजती जाती हैं। इन वर्षों में हमारी समझ जितनी गहरी होती, ज्ञान का आधार उतना ही सुदृढ़ बनता है। कभी सोचा है कि जब हम बच्चे को एक के स्थान पर दो भाषायें सिखाने लगते हैं, ज्ञान की नींव पर उसका क्या प्रभाव पढ़ता होगा?

किस भाषा को किधर रखूँ मैं
यदि बचपन में हम एक भाषा के स्थान पर दो भाषाओं से लाद देते हैं तो जो ज्ञानार्जन करने में जो समय व मस्तिष्क लगना चाहिये वह अनुवाद करने में निकल जाता है। जब शब्द और उससे संबद्ध अर्थ सीखने का समय होता है तब मस्तिष्क आनुवादिक भ्रम में रहता है कि ज्ञान को किस प्रकार से ग्रहण किया जाये, हिन्दी में या अंग्रेजी में। ज्ञान के प्रवाह में एक स्तर और बढ़ जाने से श्रम बढ़ने लगता है और याद रखने की क्षमता भी आधी रह जाती है। जिस समय एक वस्तु के लिये एक शब्द होना था, एक शब्द सीखने के बाद शब्दों को संकलित कर वाक्य बनाने का समय था, उस समय हम अपना कार्य बढ़ाकर दूसरी भाषा में उसको अनुवाद करवा रहे होते हैं।

पता नहीं इस पर कभी कुछ विचार हुआ है कि नहीं कि नयी भाषा सीखने की सबसे उचित आयु कौन सी है। जब उसकी आवश्यकता पड़ती है तब तो लोग भाषा सीख ही लेते हैं और बहुत ही अच्छी सीखते हैं। यदि विज्ञान आदि पढ़ने के लिये अंग्रेजी सीखनी आवश्यक ही हो चले तो किस अवस्था में अंग्रेजी सीखनी प्रारम्भ करनी चाहिये? विकास की दौड़ में कोई भी पिछड़ना नहीं चाहता है, सबको लगता है अंग्रेजी बचपन से मस्तिष्क मे ठूँस देने से बच्चा सीधे ही अंग्रेजी बोलने लगेगा और कालान्तर में लॉट साहब बन जायेगा। लॉट साहब तो २०-२५ साल में ही बनते हैं, नौकरी भी उसी के बाद ही मिलती है। यह भी एक तथ्य है कि विकसित मस्तिष्क को अंग्रेजी सीखने में ३-४ वर्ष से अधिक समय नहीं लगता है। पर प्रारम्भ के तीन वर्ष जो जगत की समझ विकसित होती है, उसमें दूसरी भाषा ठूँस कर हम क्यों उसके भाषायी मानसिक आकारों को गुड़गोबर करने पर तुले हैं, किस आभासी लाभ के लिये यह व्यग्रता, क्यों यह मूढ़ता?

निम्हान्स के शोधकर्ताओं का भी मत है कि अधिक भाषायें सीखने से मस्तिष्क के सिकुड़ने का भय बना रहता है। हो सकता है कि अधिक भाषायें जान लेने से हम अधिक लोगों को जान पायें, भिन्न संस्कृतियों के विविध पर समझ पायें, पर गहराई में नीचे उतरने के लिये अपनी ही भाषा काम में आती है, शेष भाषा सामाजिकता की सतही आवश्यकतायें पूरी करती हुयी ही दिखती हैं, समझ विस्तारित तो होती है, गहरे उतरने से रह जाती है।

वहीं दूसरी ओर एक भाषा के माध्यम से देश की एकता की परिकल्पना करना भी भारत की विविधता को रास नहीं आया। भाषायी एकीकरण करने के लिये एक भाषा को अन्य पर थोपने के निष्कर्ष बड़े ही दुखमय रहे हैं, सबका अपनी भाषाओं के प्रति लगाव बढ़ा ही है, कम नहीं हुआ। अपितु थोपी जाने वाली भाषा के प्रति दुर्भाव बढ़ा ही है। राज्यों की सीमाओं को भाषायी आधार पर नियत होने में यह भी एक कारण रहा होगा। भाषायें अलगाव का प्रतीक बन गयीं, सबके अपने अस्तित्व का प्रमाण बन गयीं।

होना यह चाहिये था कि भाषाओं के बीच सेतुबन्ध निर्मित होने थे। भारत में एक ऐसा महाविद्यालय होता जहाँ पर सभी भारतीय भाषाओं के साहित्य को संरक्षित और पल्लवित करने का अवसर मिलता। सभी भाषाओं के भाषाविद बैठकर अपनी भाषा के प्रभावी पक्षों को उजागर करते, साथ ही साथ अन्य भाषाओं के सुन्दर पक्षों को अपनी भाषा में लेकर आते। अनुवाद का कार्य होता वहाँ पर, संस्कृतियों में एकरूपता आती वहाँ पर। वहाँ पर एक भाषा से दूसरी भाषाओं में अनुवाद की सैद्धान्तिक रूपरेखा बनायी जाती, और यही नहीं, भारतीय भाषाओं को विश्व की अन्य भाषाओं से जोड़ने का कार्य होता।

होना यह चाहिये था कि हर भाषा का एक विश्वविद्यालय उस भाषा बोलने वाले राज्य की राजधानी में रहता, उस भाषा को केन्द्र में रखकर अन्य भाषाभाषियों को उस भाषा का कार्यकारी ज्ञान देने की प्रक्रियायें और पाठ्यक्रम निर्धारित किये जाते।

विश्व से जुड़ना भी हो
होना यह चाहिये था कि हर उस नगर में जहाँ पर बाहर के लोग कार्य करने आते हैं, एक भाषा विद्यालय होता जहाँ पर उन्हें वहाँ की स्थानीय भाषा आवश्यकतानुसार सिखायी जाती। जिनको समय हो उन्हें दिन में और जिनको समय न हो, उन्हें सायं या रात को। जब आसाम का कोई व्यक्ति कर्नाटक में आईएएस में चयनित होकर आता है, उसे कन्नड़ का पूरा ज्ञान दिया जाता है। उसे यह ज्ञान बहुत गहरा इसलिये दिया जाता है क्योंकि उसे राज्य के अन्दर तक जाकर स्थानीय लोगों की भाषा का निवारण करना पड़ता है। सबकी आवश्यकता इतनी वृहद नहीं हो सकती और उनका पाठ्यक्रम उसी के अनुसार कम या अधिक किया जा सकता है।

जहाँ हमारे संपर्क बिन्दु दो परस्पर भाषायें होनी थीं, किसी व्यवस्थित भाषायी प्रारूप के आभार में वह सिकुड़ कर अंग्रेजी मान्य होते जा रहे हैं। अब कितने प्रतिशत व्यक्ति जाकर विदेशों में कार्य करेंगे, जो करेंगे तो वे सीख भी लेंगे और वे सीखते भी हैं। अंग्रेजी ही क्यों आवश्यक हुआ तो चाइनीज़ या मंगोलियन भी सीख लेंगे। पर अंग्रेजी पर आवश्यक महत्व बढ़ाकर हम न केवल अपने नौनिहालों के मानसिक विकास में बाधा बने जा रहे हैं वरन अपनी भारतीय भाषाओं को भूलते जा रहे हैं। जहाँ भी किसी से संवाद की आवश्यकता होती है, लपक कर अंग्रेजी की वैशाखियों पर सवार हो लेते हैं।

जहाँ पर हमें भारतीय भाषाओं के मध्य सेतुबन्ध स्थापित करने थे और अपने देश में करने थे, उनका निर्माण करने के स्थान पर हम अपनी राह इंग्लैण्ड और अमेरिका जाकर बनाने लगते हैं। जहाँ बचपन में एक ही भाषा सिखानी चाहिये, दो दो भाषायें सिखाने लगते हैं। देश में एकता के सूत्र स्थापित करने के लिये एक भाषा थोपने की योजना बनाने लगते हैं।

भारतीय भाषायें यहाँ के जनमानस से सतही रूप से नहीं चिपकी हुयी हैं वरन उसकी जड़ें सांस्कृतिक और धार्मिक पक्षों को छूती हैं। उसे भूल जाने को कहना या उसका प्रयत्न भी करना दुखदायी रहा है, ऐसे ही असफल रहेगा और कटुता भी उत्पन्न करेगा। आपस में बात करने के लिये यदि हमें अंग्रेजी जैसी किसी मध्यस्थ भाषा की सहायता लेनी पड़े तब भी यह हमारे लिये लज्जा का विषय है। सब भाषाओं के प्रति पारस्परिक सम्मान का भाव व तदानुसार सेतुबन्ध बनाने के प्रयास ही भारत का भविष्य है। सेतुबन्ध न केवल हम सबको जोड़कर रखेगा वरन एक मार्ग भी बतायेगा जिससे नदी के दोनों ओर रहने वाले जन उसी एक जल से अपनी आर्थिक़, मानसिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक समरसता सींच सकें।

16.2.13

त्यक्त बचपन, रुद्ध जीवन

टेड पर श्री डेविड आर डो का सम्बोधन सुन रहा था, वह टेक्सास में एक वकील हैं और मृत्युदण्ड प्राप्त व्यक्तियों के मुक़दमे लड़ते हैं। जिन व्यक्तियों ने जघन्यतम अपराध किये होते हैं, जिन व्यक्तियों को न्यायालय ने किसी भी स्थिति में जीने योग्य नहीं पाया और जिनको सारी क्षमा-प्रक्रियाओं में भी जीने योग्य नहीं समझा गया, डेविड उन अपराधियों के मृत्युदण्ड को मानवीय आधार पर कम करवाने का प्रयास करते हैं। मृत्यु के निकट पहुँच कर दुर्दान्त अपराधी का भी सत्य बाहर आ जाता है, ऐसे कितने ही सत्यों का अनुभव है उनके पास।

उनके अनुसार ८० प्रतिशत की कहानी एक ही है, बस नाम बदल जाते हैं, स्थान बदल जाते हैं, यात्रा वही है, अन्त वही है। सबका बचपन त्यक्त रहता है, जीवन रुद्ध रहता है, सबके बीज बचपन में ही पड़ जाते हैं। जिन घटनाओं को हम सोचते कि वे प्रभाव नहीं छोड़ेंगी, उनका भी बालमन पर बहुत ही गहरा प्रभाव पड़ता है। यदि आपको यह लगता है कि ४-५ वर्ष का बच्चा घटनाओं को स्पष्ट रूप से याद नहीं रख पायेगा, तो संभवतः आप अंधकार में जी रहे हैं। पति पत्नी का तनावपूर्ण व्यवहार बच्चे के मन में उसी रूप में और उतनी ही मात्रा में उतर आता है। पारिवारिक सुलझाव और सौहार्द्र बच्चे के मन को सशक्त बनाता है, उसे सकारात्मकता की ओर प्रेरित करता है। यदि किसी कारणवश बच्चे का मन परिवार से उचाट हो गया तो समाज के लिये उसे सम्हाल पाना और भी कठिन हो जाता है। समाज में युवा के व्यवहार के सूत्र कई वर्ष पहले परिवार के व्यवहार से पड़ चुके होते हैं। बच्चों के मानसिक भटकाव को बचपन में नियन्त्रित करना उतना कठिन नहीं होता है जितना बाद में हो जाता है।

यही कहना श्री डो का भी है। असहाय पड़े और मृत्युदण्ड की राह देखते उन अपराधियों के जीवन को वापस देखने पर, अब तक पार किये सारे मोड़ों को देखने पर, यदि कहीं पर कुछ संभावना दिखती है तो वह है परिवार। ऐसा नहीं है कि बाद में नियन्त्रण के सारे आसार समाप्त हो जाते हैं पर बाद में इसी कार्य में लगा श्रम, धन और समय कहीं अधिक होता है, कहीं कष्टकर होता है। समाजशास्त्रियों का ही नहीं, स्वयं अपराधियों का भी यही कहना है। उन्हें लगता है कि काश बचपन तनिक और ममतामयी होता, पिता के स्नेहिल आश्रय के कुछ और वर्ष जीवन में आ गये होते। उस समय तो दोष उनका न था, पर मन उचाट होने के साथ ही साथ नियन्त्रण की आखिरी आस भी समाप्त हो गयी उनके जीवन से। किसी का कोई मोह न रहा, जिधर मन ने कहा, उधर चल पड़ा जीवन, और अन्त निष्प्रभ, मृत्युदण्ड।

दुखान्त देख कर हमें उनके उनके दुखद बचपन की चिन्ता हो सकती है, पर किसी का दुखद बचपन देखकर क्यों नहीं झंकृत होते हमारी संवेदनाओं के तन्तु। क्या तब हमें वह कहानी याद नहीं आती जो अपराधिक भविष्य की ८० प्रतिशत कहानियों में बदल जाने की संभावना पाले हुये है। बचपन में किये लघु प्रयास न जाने कितने युवाओं को अपराध के अन्धकूप से बचा लेंगे।

पाश्चात्य जगत में परिवार की स्थिरता का हृास, एकल परिवारों में पालन या संकर परिवारों का चलन, कई ऐसी ही परिस्थितियाँ हैं, उससे संबद्ध घटनायें हैं जो एक स्थायी प्रभाव छोड़ जाती हैं, बच्चों की मानसिकता पर। यद्यपि हर अस्थिरता का प्रभाव उतना गहरा नहीं होता है कि बच्चा अपराधों की ओर मुड़ जाये पर माता-पिता में किसी एक का न होना उसे त्यक्त या अर्धपालन का भाव अवश्य देता होगा। उसका भला क्या दोष जो विवाह करने वाले माता पिता निभा न पाये। यदि पाश्चात्य जगत में पारिवारिक उथलपुथल की परिणिति तलाक के रूप में होती है और उसका बच्चों पर कुप्रभाव पड़ता है, तो भारतीय समाज के उन परिवारों की स्थिति भी अच्छी नहीं है जहाँ खटपट तो बनी रहती है पर सामाजिक दबाव में तलाक नहीं होता है। भले ही माता पिता साथ रहें पर उनके बीच के विवाद बच्चों के मन में गहरे उतरते हैं। उनके बीच का व्यवहार यदि समझने योग्य और सहज न हुआ तो उसकी छाप बच्चे के मन में कोई न कोई विकार लेकर अवश्य आयेगी।

परिवार सुधार कार्यक्रम आशातीत सफल रहे या न रहें, पर बच्चों को असहाय नहीं छोड़ा जा सकता। इस तरह के असंबद्ध और उचाट बच्चों की त्वरित पहचान और उनके लिये छात्रावास और पढ़ाई की व्यवस्था, यह सरकार का कर्तव्य हो जाता है। जो बच्चे अपराध में प्रवृत्त हो चुके हैं और पकड़े जा चुके हैं, उनके लिये बालकारागारों में ही सतत सुधार के लिये पढ़ाई और वैकल्पिक व्यावसायिक प्रशिक्षण की व्यवस्था, यह उन्हें रोकने का अगला चरण है। जो बच्चे खो जाते हैं, उन पर क्या बीतती होगी या उनको किन राहों पर ढेला जाता होगा? दिल्ली में ही प्रतिदिन १३ बच्चे खोते हैं, उन्हें ढूढ़ना प्राथमिकताओं में हो। इसके बाद भी यदि अपराध पर नियन्त्रण न किया जा सके तो अपवादों से निपटने के लिये कानून को उसका कार्य करने दिया जाये। बिना प्रयास ही सबको अपराध में प्रवृत्त होने देना तो निश्चय ही समाज के लिये अति घातक होगा।

जितना धन कानून व्यवस्था बनाये रखने में, अपराध के अन्वेषण करने में और न्याय व्यवस्था की लम्बी प्रक्रिया में लगता है, उसके एक चौथाई में ही हम वह तन्त्र सुचारु रूप से चला पायेंगे, जिसमें बच्चों को अपराधों की ओर प्रवृत्त होने से रोका जा सके। श्री डो तो यहाँ तक कहते हैं कि जो परिवार अपनी समस्यायें सुलझाने में असहाय हों, उनके बच्चों को उस परिवेश से हटाकर उन्हें छात्रावास में डालने का अधिकार हो सरकार के पास।

भारत में ये विचार असंभव से दिखते हैं। बच्चों का उत्तरदायित्व मुख्यतः परिवारों के पास ही है, उनके प्रभाव से वह अलग नहीं है। उनके अतिरिक्त जो परिवारों से असंबद्ध हैं, बालश्रम में लगे हैं, वर्षों से लापता है, शोषण का जीवन जी रहे हैं, उनकी पहचान करना और उन्हें सम्मानित और आशान्वित जीवन जीने की ओर ले जाना सरकार की प्राथमिकताओं में हो। जब तक यह नहीं सुनिश्चित किया जायेगा, तब तक अपराध की राह का एक कपाट हम अपने समाज की ओर खोल कर रखे रहेंगे। उनका बचपन त्यक्त न बीते, उनका जीवन रुद्ध न बीते।

31.10.12

एक बड़ा था पेड़ नीम का

बचपन की सुन्दर सुबहों का भीना झोंका,
आँख खुली, झिलमिल किरणों को छत से देखा,
छन छन कर जब पवन बहे, तन मन को छूती,
शुद्ध, स्वच्छ, मधुरिम बन थिरके प्रकृति समूची,

आज सबेरा झटके से उग आया पूरा,
नही सलोनी सुबह, लगे कुछ दृश्य अधूरा,
आज नहीं वह पेड़, कभी जो वहाँ बड़ा था,
तना नहीं, ईटों का राक्षस तना खड़ा था,

पत्तों की हरियाली हत, अब नील गगन है,
नीम बिना भी पवन मगन है, सूर्य मगन है,
वही सुबह है, विश्व वही, है जीवन बहता,
आज नहीं पर, हृदय बसा जो तरुवर रहता,

खटक रहा अस्तित्व सुबह का, निष्प्रभ सूरज,
आज नहीं है नीम, बड़ा था, चला गया तज,
किस विकास को भेंट, ढह गया किस कारणवश,
किस लालच ने छीना मेरा प्रात-सुखद-रस,

सबने मिल कर काटा उसको,
बढ़ा लिया टुकड़ा जमीन का,
एक बड़ा था पेड़ नीम का।

21.4.12

एक लड़के की व्यथा

एक लड़का था, बचपन में देखता था कि सबकी माँ तो घर में ही रहती हैं, घर का काम करती हैं, बच्चों को सम्हालती हैं, पर उसकी माँ इन सब कार्यों के अतिरिक्त एक विद्यालय में पढ़ाने भी जाती है। दोपहर में जब सब बच्चे अपने विद्यालयों से घर आते थे, वे सब कितना कुछ बताते थे अपनी माँओं को, आज यह किया, आज वह किया, किसको अध्यापक ने दण्ड दिया, किसे सराहा गया। वह लड़का चुपचाप अकेले घर आता, सोचता काश उसकी भी माँ को पढ़ाने न जाना पड़ता, उसके पास भी अपनी माँ को बताने के लिये कितना कुछ था, विशेषकर उन दिनों में जब उसे किसी विषय में पूरे अंक मिलते थे, विशेषकर उन दिनों में जब अध्यापक सबके सामने उसकी पीठ ठोंक उसकी तरह बनने का उदाहरण औरों को देते थे।

माँ के जिस समय पर उसका अधिकार था, उसको किसी नौकरी में लगता देखता तो उसे लगता कि उसका विश्व कोई छीने ले रहा है। माँ की नौकरी से एक अजब सी स्पर्धा हो गयी थी, उसे पछाड़ने का विचार हर दिन उसे कचोटता। बचपन के अनुभवों से उत्पन्न दृढ़निश्चय बड़ा ही गाढ़ा होता है जो समय के कठिन प्रवाह में भी अपनी सांध्रता नहीं खोता है। निश्चय मन में घर कर गया कि जब वह नौकरी करने लगेगा तो माँ को नौकरी नहीं करने देगा।

समय आगे बढ़ता है, परिवार के जिस भविष्य के लिये माँ ने नौकरी की, उन्हीं उद्देश्यों के लिये उस लड़के को बाहर पढ़ने जाना पड़ता है, छात्रावास में रहना, छठवीं कक्षा से ही। भाग्य न जाने कौन सी परीक्षा लेने पर तुला हुआ था। कहाँ तो उसे दिन में माँ का आठ-दस घंटे नौकरी पर रहना क्षुब्ध करता था, कहाँ महीनों तक घर न जा पाने की असहनीय स्थिति। पहले भाग्य को जिसके लिये कोसता था, वही स्थिति अब घनीभूत होकर उपहार में मिली। दृढ़निश्चय और गहराया और बालमन यह निश्चय कर बैठा कि वह माँ को नौकरी न कर देने के अतिरिक्त उन्हें अपने साथ रख बचपन के अभाव की पूर्ति भी करेगा।

समय और आगे बढ़ता है, उस लड़के की नौकरी लग जाती है। बचपन से ही समय और भाग्य के साथ मची स्पर्धा में लड़के को पहली बार विजय निकट दीखती है, लगता है कि उन दो दृढ़निश्चयों को पूरा करने का समय आ गया है। माँ की १५ वर्ष की नौकरी तब भी शेष होती है। लड़का अपनी माँ से साधिकार कहता है कि अब आप नौकरी छोड़ दीजिये, साथ में रहिये, अब शेष उत्तरदायित्व उसका। शारीरिक सक्षमता और कर्मनिरत रहने का तर्क माँ से सुन लड़का स्तब्ध रह जाता है, कोई विरोध नहीं कर पाता है, विवशता १५ साल और खिंच जाती है। नौकरी, विवाह और परिवार के भरण पोषण का दायित्व समयचक्र गतिशीलता से घुमाने लगता है, पता ही नहीं चलता कि १५ वर्ष कब निकल गये।

सेवानिवृत्ति का समय, माँ से पुनः साथ चलने का आग्रह, पर छोटे भाई के विवाह आदि के उत्तरदायित्व में फँसी माँ की विवशता, दो वर्ष और निकल जाते हैं। पुनः आग्रह, पर माँ को अपना घर छोड़कर और कहीं रहने की इच्छा ही नहीं रही है, उस घर में स्मृतियों के न जाने कितने सुखद क्षण बसे हुये हैं, उस घर में एक आधी सदी बसी हुयी है। जीवन का उत्तरार्ध उस घर से कहीं दूर न बिताने का मन बना चुकी है उस लड़के की माँ।

उस लड़के की व्यग्रता उफान पर आने लगती है, एक पीढ़ी का चक्र पूरा होने को है। जिस उम्र में उसका दृढ़निश्चय हृदय में स्थापित हुआ था, उस उम्र के उसके अपने बच्चे हैं। स्वयं को दोनों के स्थान पर रख वह अपने बचपन का चीत्कार भलीभाँति समझ सकता है, पर वह अब भी क्यों वंचितमना है, इसका उत्तर उसके पास नहीं है। जीवन भागा जा रहा है, ईश्वर निष्ठुर खड़ा न जाने कौन से चक्रव्यूह रचने में व्यस्त है अब तक। ईश्वर संभवतः इस हठ पर अड़ा है कि उस लड़के ने अधिक कैसे माँग लिया, कैसे इतना बड़ा दृढ़संकल्प इतनी छोटी अवस्था में ले लिया। कहाँ तो सागर की अथाह जलराशि में उतराने का स्वप्न था, और कहाँ एक मरुथल में पानी की बूँद बूँद के लिये तरस रहा है उस लड़के का अस्तित्व।

वर्ष में एक माह के लिये माँ पिता उसके घर आते हैं, साथ रहने के लिये। उस लड़के को भी वर्ष में दस दिन का समय मिल पाता है, जब वह सारा काम छोड़ अपने पैतृक घर में अपने माँ पिता के साथ रहने चला जाता है। लड़का और अधिक कर भी क्या सकता है, ईश्वर यदि एक बालमन के दृढ़निश्चय के यही निष्कर्ष देने पर तुला हुआ है तो इसे उस लड़के की व्यथा ही कही जायेगी।

8.6.11

पाँच किलो का बालक, दस किलो का बस्ता

भाग्य अच्छा रहा जीवन भर कि कभी भारी बस्ता नहीं उठाना पड़ा। इसी देश में ही पढ़े हैं और पूरे 18 वर्ष पढ़े हैं। कक्षा 5 तक स्थानीय विद्यालय में पढ़े, जहाँ उत्तीर्ण होने के लिये उपस्थिति ही अपने आप में पर्याप्त थी, कुछ अधिक ज्ञान बटोर लेना शिक्षा व्यवस्था पर किये गये महत उपकार की श्रेणी में आ जाता था। न कभी भी बोझ डाला गया, न कभी भी सारी पुस्तकें बस्ते में भरकर ले जाने का उत्साह ही रहा। हर विषय की एक पुस्तक, एक कॉपी, उसी में कक्षाकार्य, उसी में गृहकार्य। कक्षा 6 से 12 तक छात्रावास में रहकर पढ़े, ऊपर छात्रावास और नीचे विद्यालय। मध्यान्तर तक की चार पुस्तकें हाथ में ही पकड़कर पहुँच जाते थे, यदि किसी पुस्तक की आवश्यकता पड़ती भी थी तो एक मिनट के अन्दर ही दौड़कर ले आते थे। छात्रावासियों के इस भाग्य पर अन्य ईर्ष्या करते थे। आईआईटी में भी जेब में एक ही कागज रहता था, नोट्स उतारने के लिये जो वापस आकर नत्थी कर दिया जाता था सम्बद्ध विषय की फाइल में। भला हो आई टी का, नौकरी में भी कभी कोई फाइल इत्यादि को लाद कर नहीं चलना पड़ा है, अधिकतम 10-12 पन्नों का ही बोझ उठाया है, निर्देश व निरीक्षण बिन्दु मोबाइल पर ही लिख लेने का अभ्यास हो गया है।

अब कभी कभी अभिभावक के रूप में कक्षाध्यापकों से भेंट करने जाता हूँ तो लौटते समय प्रेमवश पुत्र महोदय का बस्ता उठा लेता हूँ। जब जीवन में कभी भी बस्ता उठाने का अभ्यास न किया हो तो बस्ते को उठाकर बाहर तक आने में ही माँसपेशियाँ ढीली पड़ने लगती हैं। हमसे आधे वज़न के पुत्र महोदय जब बोलते हैं कि आप इतनी जल्दी थक गये और आज तो इस बैठक के कारण दो पुस्तकें कम लाये हैं, तब अपने ऊपर क्षोभ होने लगता है कि क्यों हमने जीवन भर अभ्यास नहीं किया, दस किलो का बस्ता उठाते रहने का।

देश के भावी कर्णधारों को कल देश का भी बोझ उठाना है, जिस स्वरूप में देश निखर रहा है बोझ गुरुतम ही होता जायेगा। यदि अभी से अभ्यास नहीं करेंगे तो कैसे सम्हालेंगे? जब तक हर विषय में चार कॉपी और चार पुस्तकें न हो, कैसे लगेगा कि बालक पढ़ाई में जुटा हुआ है, सकल विश्व का ज्ञान अपनी साँसों में भर लेने को आतुर है। जब हम सब अपने मानसिक और भौतिक परिवेश को इतना दूषित और अवशोषित करके जा रहे हैं तो निश्चय ही आने वाली पीढ़ियों को बैल बनकर कार्य करना पड़ेगा, शारीरिक व मानसिक रूप से सुदृढ़ होना पड़ेगा। देश की शिक्षा व्यवस्था प्रारम्भ से ही नौनिहालों को सुदृढ़ बनाने के कार्य में लगी हुयी है। भारी बस्ते निसन्देह आधुनिक विश्व के निर्माण की नींव हैं।

आगे झुका हुआ मानव आदिम युग की याद दिलाता है, सीधे खड़ा मानव विकास का प्रतीक है। आज भी व्यक्ति रह रहकर पुरानी संस्कृतियों में झुकने का प्रयास कर रहा है। पीठ पर धरे भारी बस्ते बच्चों को विकास की राह पर ही सीधा खड़ा रखेंगे, आदिम मानव की तरह झुकने तो कदापि नहीं देंगे। रीढ़ की हड़्डी के प्राकृतिक झुकाव को हर संभव रोकने का प्रयास करेगा भारी बस्ता।

कहते हैं कि बड़े बड़े एथलीट जब किसी दौड़ की तैयारी करते हैं तो अभ्यास के समय अपने शरीर और पैरों पर भार बाँध लेते हैं। कारण यह कि जब सचमुच की प्रतियोगिता हो तो उन्हें शरीर हल्का प्रतीत हो। इसी प्रकार 17-18 वर्षों के भार-अभ्यास के बाद जब विद्यार्थी समाज में आयेंगे तो उन्हें भी उड़ने जैसा अनुभव होगा। इस प्रतियोगी और गलाकाट सामाजिक परिवेश में इससे सुदृढ़ तैयारी और क्या होगी भला?

हम सब रेलवे स्टेशन जाते हैं, कुली न मिलने पर हमारी साँस फूलने लगती है, कुली मिलने पर जेब की धौंकनी चलने लगती है। यदि अभी से बच्चों का दस किलो का भार उठाने का अभ्यास रहेगा तो भविष्य में बीस किलो के सूटकेस उठाने में कोई कठिनाई नहीं आयेगी। गाँधी और विनोबा के देश में स्वाबलम्बन का पाठ पढ़ाता है दस किलो का बस्ता। मेरा सुझाव है कि कुछ विषय और पुस्तकें और बढ़ा देना चाहिये। पढ़ाई हो न हो, अधिक याद रहे न रहे पर किसी न किसी दिन माँ सरस्वती को छात्रों पर दया आयेगी, इतना विद्या ढोना व्यर्थ न जायेगा तब।

आज बचपन की एक कविता याद आ गयी, कवि का नाम याद नहीं रहा। कुछ इस तरह से थी।

आज देखो हो गया बालक कितना सस्ता,
पाँच किलो का खुद है, दस किलो का बस्ता।

1.12.10

तुम क्या जानों राजनीति की घातें और प्रतिघातें

बचपन में मुहल्ले में शतरंज का खेल होता था। बाल सुलभ प्रश्न उठता था कि क्या करते रहते हैं दो लोग, घंटों बैठकर, घिरे हुये बहुत लोगों से, आँखे गड़ाये सतत। मस्तिष्क की घनीभूत प्रक्रिया किन मोहरों के पीछे इतना श्रम करती रहती है और वह भी किस कारण से। उत्सुकता खींच कर ले गयी वहाँ तक, पता ही नहीं चलता था, घंटों खड़ा रहता था, देखता रहता, सुनता रहता, गुनता रहता, समझता रहता। हाथी और ऊँट जैसे सीधे चलने वाले मोहरों से परिचय शीघ्र ही हो गया, जीवन में भी यही होता है। घोड़े की तिरछी चाल, प्यादे का तिरछा मारना, राजा की असहायता और वजीर का वर्चस्व उन 64 खानों में बिछा देखा तो उत्सुकता भी नशेड़ी हो गयी। कितनी संभावनायें, कोई दो खेल एक जैसे नहीं, कभी हार, कभी जीत और कभी कोई निष्कर्ष नहीं।

हृदय सरल होता है, मन कुटिल। शतरंज के खेल में मन को पूर्ण आहार मिलने लगा, उसे अपने होने का पूर्ण संतोष प्राप्त होने लगा। धीरे धीरे ज्ञान बढ़ने लगा और लगने लगा कि सभी मोहरों के मन की बात, उनकी शक्ति, उनकी उपयोगिता मुझे समझ में आने लगी है। कौन कब खतरे में है, किसे किस समय रक्षार्थ आहुति देनी है, किसे अन्य मोहरों से और सुरक्षा प्रदान करनी है, धीरे धीरे दिखने लगा। यद्यपि छोटा ही था पर कुछ ऐसी परिस्थितियाँ देख कर किसी के कान में बता देता था, जिससे लाभ होना निश्चित होता था। धीरे धीरे तीक्ष्ण प्रशिक्षु के रूप में उन बाजियों का दरबारी हो गया।

शतरंज का नशा मादक होता है, हर दिन छुट्टी के बाद और माता पिता के घर आने तक का समय शतरंज की बाजियों में बसने लगा। खाना खाते समय, गृहकार्य करते समय, सोने के पहले, उठने के बाद, मोहरों के चेहरे अन्तर्मन में घुमड़ने लगे।

शतरंज की गहराई, अगली कई चालों तक उन संभावनाओं को देखने की बौद्धिक शक्ति है, जो आपको हानि या लाभ पहुँचा सकती हैं। सामने वाले की चालें क्या होंगी, यह भी सामने वाले की ओर से आपको सोचना होता है, आपको दोनों ओर से खेलना है पर स्वयं की ओर से थोड़ा अधिक और थोड़ा गुप्त। हर चाल के बाद रणनीति बदल जाती है, हर चाल के बाद बौद्धिक प्रवाह पुनः मुड़ जाता है।

प्रारम्भ में मोहरों की सम्भावनायें, मध्य में उनकी शक्ति के आधार पर प्रबल व्यूह संरचना और अन्त में उनकी पूर्ण शक्ति का उपयोग किसी भी खेल के महत्वपूर्ण पक्ष हैं। हार और जीत का अवसाद व उन्माद, चालों के बीच की अर्थपूर्ण चुप्पी, मोहरा घेर कर चेहरे पर आयी कुटिल मुस्कान और मोहरा मार दम्भयुक्त अट्टाहस किसी भी राजप्रासाद या मंत्रीपरिषद के मंत्रणा कक्ष से कम रोचक नहीं लगते हैं। एक खाट पर बैठे हुये ही सिकन्दर सा अनुभव होने का भान होता है।

प्यादों को शहीद कर राजा की रक्षा करना शतरंज की बाजियों पर बहुत पहले देख चुके हैं पर उसमें दुख नहीं होता था। राजनीति का चरित्र शतरंजी होते देख हृदय चीत्कार कर उठता है। मन की कुटिलता मोहरों की नाटकीयता में आनन्दित रहती थी, हृदय की संवेदना मनुष्यों के मोहरीकरण में द्रवित हो जाती है। नित एक मोहरा गिर रहा है रक्षार्थ, बस राजा का राज्य बना रहे।

एक बड़े फुफेरे भाई जो बहुत अच्छा खेलते थे और साथ ही बड़ा स्नेह भी रखते थे, शतरंज की बाजियों में साथ में बिठा लेते थे। जो शतरंजी चालें बचपन में समझ नहीं आती तो पूछ लेता था, कभी कभी सार्थक उत्तर मिल जाते थे, पर कभी यदि कुछ छिपाना होता था तो यही कहते थे।

"तुम क्या जानो राजनीति की घातें और प्रतिघातें"

पता नहीं क्यों पर अब तो राजनीति की हर चाल के पश्चात यही अट्टाहस अनुनादित होता है। 
सच ही है, हम क्या जानें, राजनीति की घातें और प्रतिघातें।