27.11.10

ब्लॉगरीय आत्मीयता

कुछ दिन हुये अभिषेकजी घर पधारे, एक क्षण के लिये भी नहीं लगा कि उनसे यह प्रथम भेंट है। सहजता से बातें हुयीं, घर की, नौकरी की, जीवन के प्रवाह की, न किये विवाह की, ब्लॉगरों की, अभिरुचियों की, त्रुटियों की, सम्बन्धों की, प्रबन्धों की और विविध विविध। वातावरण आत्मीय बना रहा, बिना विशेष प्रयास के, दोनों ही ओर से। एक श्रेय तो निश्चय ही अभिषेकजी के मिलनसार व्यक्तित्व को जाता है, पर साथ ही साथ हिन्दी-ब्लॉग जगत की भी सक्रिय भूमिका है, मिलनों की इस अन्तर्निहित सहजता में। श्री विश्वनाथजी और श्री अरविन्द मिश्रजी से भी स्नेहात्मक भेटें इसी प्रकार की रही थी। वर्धा का सम्मिलित उल्लास तो संगीतात्मक स्वर बन अभी तक मन में गूँज रहा है।

बहुत से ऐसे ब्लॉगर हैं जिनसे अभी तक भेंट तो नहीं हुयी है पर मन का यह पूर्ण विश्वास है कि उन्हें हम कई वर्षों से जानते हैं। उनकी पोस्टें, हमारी टिप्पणियाँ, हमारी पोस्टें, उनकी टिप्पणियाँ, सतत वार्तालाप, विचारों के समतल पर, बीच के सारे पट खुलते हुये धीरे धीरे, संकोच के बंधन टूटते हुये धीरे धीरे। इतना कुछ घट चुका होता है प्रथम भेंट के पहले कि प्रथम भेंट प्रथम लगती ही नहीं है।

किसी को भी जानने का एक भौतिक पक्ष होता है और एक मानसिक। भौतिक पक्ष को जानने में कुछ ही मिनट लगते हैं और उसके बाद मानसिक पक्ष उभर कर आने लगता है। ब्लॉग पढ़ते रहने से मानसिक पक्ष से कब का परिचय हो चुका होता है, ऐसी स्थिति में भौतिक पक्ष बस एक औपचारिकता मात्र रह जाता है।

आस पास देखें, ब्लॉग जगत से परे, बहुत ऐसे व्यक्तित्व दिख जायेंगे जो कभी खुलते ही नहीं, स्वयं को कभी भी व्यक्त नहीं करते हैं, शब्दों में तो कभी भी नहीं। उनका चेहरा नित देखकर भी बड़ा अपरिचित सा लगता है। उन्हें यदि हम जान भी पाते हैं तो स्वयं के अवलोकन से। यदि वे अपने विचार व्यक्त करें, स्वयं के बारे में और जगत के बारे में तो वही अवलोकन एक विशेष शक्ति पा जाता है। ब्लॉगजगत को इसी परिचयात्मक शक्ति का वरदान प्राप्त है। सारे ब्लॉगर अपने ब्लॉगों के माध्यम से व्यक्त हैं, अन्य ब्लॉगरों के लिये।

लिखना सरल नहीं है, जब विषय आपका व्यक्तित्व खोल कर रख देने की क्षमता रख देता हो, विषय जो गहरा हो। सतही पोस्टों को लिखना सरल है पर संप्रेषण नगण्य होता है। गहरी पोस्टें कठिन होती हैं लिखने में, पर हृदय खोलकर रख देती हैं, पाठकों के सामने। गहरी पोस्टें लिखने वाले ब्लॉगरों को, लगता है मैं कई सदियों से जानता हूँ।

यदि कुछ छिपाने की इच्छा होती तो कोई ब्लॉगर बनता ही क्यों? हृदय को सबके सामने उड़ेल देने वाली प्रजाति का व्यक्तित्व सहज और सरल तो होना ही है। यदि नहीं है तो प्रक्रियारत है। यही कारण है एक अन्तर्निहित पारस्परिक आत्मीयता का।

हिन्दी-ब्लॉग ने भले ही कोई आर्थिक लाभ न दिया हो, पर विचारों का सतत प्रवाह, घटनाओं को देखने का अलग दृष्टिकोण, नये अनछुये विषय, भावों के कोमल धरातल और व्यक्तित्वों के विशेष पक्ष, क्या किसी लाभ से कम है? नित बैठता हूँ ब्लॉग-साधना में और कुछ पाकर ही बाहर आता हूँ, हर बार। ब्लॉग को तो नशा मानते हैं सतीशजी, पर यह तो उससे भी अधिक धारदार है।

धन कमा कर भी इन्ही सब सुखों की ही खोज में तो निकलेंगे हम।

24.11.10

ट्रेन में क्या कर सकते हैं

कुछ दिन पहले समीरलाल जी का बज़-तश्तरी पर रखा हुआ उड़न-प्रश्न आया था कि 17 घंटे की ट्रेन यात्रा में क्या कर सकते है? प्रश्न तो समय-भावना से प्रेरित था, सोचने बैठा तो उत्तर संभावनाओं से पूरित लगा।

ट्रेन-यात्रा में क्या नहीं कर सकते, प्रश्न यह होना था। सतीश पंचम जी ने ट्रेन की ऊपरी सीट पर बैठे बैठे एक के बाद एक, तीन पोस्टें दाग दी, वह भी बैटरी चुकने से पहले और नेटवर्क से आँख मिचौली करते हुये। वह तो भला हो कि ट्रेन के स्लीपर कोच में मोबाइल चार्जिंग प्वांइट नहीं लगाये गये हैं, नहीं तो जितना वह देख पा रहे थे और जितना समय उनके पास था, उसमें दस पोस्टें तो बड़ी सरलता से दागी जा सकती थीं।

ट्रेन में कुछ कर सकने के लिये क्या चाहिये होता है, ब्लॉगरों के लिये नेटवर्क और चार्जिंग प्वांइट। यदि यह मिले तो शेष आपकी कल्पना शक्ति पर निर्भर करता है। आँख बन्द कीजिये, ट्रेन आपको धीरे धीरे डुलाती है, आपके जीवन के सारे जड़ भावों को तरल करती हुयी, डूब जाईये अपने भावों की तरलतम व सरलतम गहराईयों में और निकाल लाईये एक कालजयी कविता। खिड़की के बाहर खेतों, जंगलों और पहाड़ों को निहारते रहिये, घंटों भर, बदलते प्रकृतिक दृश्य आप के अन्दर के पन्त को बाहर निकाल लायेंगे। सहयात्री के जीवन अनुभव सप्रयास सुनने लगिये, उसमें यदि जीवन का सत्य न भी निकले, एक ब्लॉग पोस्ट तो निकल ही आयेगी।

पंकज, प्रशान्त और अभिषेक जैसे अविवाहितों के लिये कोच के बाहर लगा रिजर्वेशन चार्ट किसी संभावना-पत्रक से कम महत्वपूर्ण नहीं होता है। उनकी आँखें यह मनाती हैं चार्ट से कि उनके आसपास के सहयात्री  रोचक हों, सही उम्र आदि के हों। बहुधा ईश्वर प्रार्थनायें सुन लेता है और यात्रा में "रब ने बना दी जोड़ी" जैसी मानसिक-पेंगे भी बढ़ जाती हैं। दो निकटस्थ युगलों को जानता हूँ जिनके ऊपर उपकार है उन रेल यात्राओं के, जिन्होने उनके प्रेम सम्बन्धों को विवाह तक पहुँचाने में सहायता की। कई बार ऐसी परिस्थितियाँ देखी हैं जहाँ पर बिहारी लाल का "कहत, नटत, रीझत, खिझत, मिलत खिलत, लजियात। भरे भवन में करत हैं नयनन हीं सों बात।" जीवन्त होते देखा है।
 
मेरे कई मित्र हैं जिन्हें ट्रेन में अपने महीनों की नींद पूरी कर लेने की इतनी शीघ्रता रहती है कि सामान में ताला लगाते ही सो जाते हैं, नाश्ते और भोजन के समय ही उठते हैं और खाना खाकर पुनः पसर जाते हैं। पुस्तक पढ़ते, मोबाइल पर बतियाते और गेम खेलते, फिल्में देखते, गाने सुनते, ताश खेलते, अन्ताक्षरी में सुर खंगालते, ऊँघते, खाद्य मुँह में भर जुगाली करते, पूरा का पूरा रुचिकर संसार दिख जाता है ट्रेन में।


हम यह तथ्य भी कैसे भूल सकते हैं कि गाँधीजी ने ट्रेन में घूम घूम कर देश जोड़ दिया।

मैं समय बाँट लेता हूँ, सहयात्री यदि रुचिकर है तो उत्सुकता-रस में डूब जाता हूँ, जब बाहर निकल पाता हूँ अपना लैपटॉप खोल कर बैठ जाता हूँ। पहले प्रशासनिक कार्य व्यवस्थित करता हूँ, कार्यानुसार मोबाइल फोन से मंत्रणा और उसके बाद सारा समय अपनी अपूर्ण कविताओं और पोस्टों को। यदि कोई नया विचार मिलता है तो वह प्रकल्प-सूची में चला जाता है। मेरे ब्लॉग पर आयी कई पोस्टें और कवितायें ऐसी ही उत्पादक ट्रेन यात्राओं के सुमधुर निष्कर्ष रहे हैं। एक बार 28 घंटे की यात्रा ने जीवन के कई छिपे कोमल भावों को उद्घाटित करने में लेखन को उकसाया था।

ऐसा भी नहीं है कि सारी ट्रेन यात्रायें इतनी रोमांचक व उत्पादक हों। पूरी यात्रा में कोई एक छोटी सी घटना और व्यग्रमना सहयात्री आपका सारा आनन्द चौपट कर देने की सामर्थ्य रखते हैं। बगल की सीट में बेसुध पड़े सज्जन यदि रात भर खर्राटे लेते रहें तो आप चाह कर भी उनका कुछ नहीं कर सकते हैं।

पर आप अपनी ट्रेन यात्रा में बहुत कुछ कर सकें, बहुत कुछ पा सकें, समीरलालजी को व आप सबको  अतिशय शुभकामनाओं के साथ......

भारतीय रेल आपकी मंगलमयी यात्रा की हार्दिक कामना करती है।

20.11.10

समरकन्द

आप सरस साहित्यिक हैं या घनघोर असाहित्यिक हैं, इससे आपके ससुराल पक्ष को कोई अन्तर नहीं पड़ता है। समस्या तब होती है जब उनकी पुत्री को आपकी साहित्यिक अभिरुचियों से व्यवधान होने लगता है। आभूषणग्रस्त भारतीय नारियों के लिये पति का साहित्याभूषण पहन लेना जहाँ एक ओर अभिरुचियों की समानता के रूप में भी देखा जा सकता है वहीं दूसरी ओर आभूषणों के ऊपर एकाधिकार हनन के रूप में भी। साहित्य के प्रति प्रदर्शित प्रेम और व्यतीत किया हुआ समय कई ब्लॉगरों के लिये संवेदनात्मक झड़पें लाता रहा है।

हमें समय दे दिया जाता है, ब्लॉगिंग के लिये, बिना किसी विवशताओं के। अतः अभी तक हमारे साहित्यिक झुकाव को लेकर ससुराल पक्ष से कोई स्वर नहीं उभरा।

पहला संवेदी स्वर तब उठा जब रवीश जी ने हमारे ब्लॉग को अपने स्तम्भ में स्थान देने की महत कृपा की। दैनिक हिन्दुस्तान में पढ़ी यह बात हमारे श्यालों तक भी पहुँची। फोन आया और पहला प्रश्न था कि यह तो राष्ट्रीय स्तर पर आपका नाम आया है। हाँ, बात छिपाने का कोई लाभ नहीं था। तब तो बहुत बड़ी पार्टी बनती है। ठीक है, सुबह पाबला जी को भी पार्टी का वचन दिया था अतः अब उसके लिये पीछे हटने का प्रश्न नहीं था। मान गये और होटल व समय निश्चित करने के लिये कह दिया।

सायं श्रीमान भाईसाहब अपनी बहन के साथ तैयार थे, चलने के लिये। होटल का नाम था समरकंद। पहले तो समझ में नहीं आया कि उजबेकिस्तान की राजधानी और सिल्क रोड के महत्वपूर्ण नगर का बंगलुरु में क्या औचित्य। जब अन्दर पहुँचे तब नामकरण का कारण समझ में आया। लकड़ी के कटे दरख्तों के आकार की मेजें, बाँस और लकड़ी के पट्टों से बनी कुर्सियाँ, पुराने गाँवों के घरों की तरह पोती गयी दीवारें, पुराने नक्काशीदार काँसे के बर्तन, अखबार की खबर जैसा मेनू, पश्तूनी पोशाक में वेटर। हाथ में यदि मोबाइल फोन न होता तो हम यह भी भूल गये होते कि हम किस कालखण्ड में जी रहे हैं।


वातावरणीय आवरण से उबरे तो सारा भोजन भी विशुद्ध उजबेकी स्वरूप लिये था। घोंटी हुयी दाल, रोटियों का थाल, अलग ही स्वाद लिये छौंकी हुयी सब्जियाँ, विभिन्न प्रकार की चटनियाँ, सब कुछ न कुछ विशेष था। बच्चों को भी यह नयापन भा रहा था। भोजन न केवल स्वादिष्ट था वरन सन्तुष्टिदायक भी था। मन समरकंद के मानसिक धरातल पर विचरण कर रहा था।

प्रवाह अवरुद्ध तब हुआ जब बिल आया। बिल आते ही हम बंगलुरु वापस आ चुके थे। कितना हुआ यह मत पूछियेगा, बस प्रसन्नचित्त मुद्रा में प्रसिद्धि का प्रथम मूल्य चुका कर हम बाहर आ गये। वापस घर आने की तैयारी कर ही रहे थे कि बच्चे अपने मामा के साथ एक आइसक्रीम की दुकान में मुड़ गये। वनीला आइसक्रीम में फलों और सूखे मेवों की कतरनें और उस पर गर्म चॉकलेट उड़ेल दी गयी, नाम था "डेथ बाइ चॉकलेट"। डरते डरते खा गये, कुछ नहीं हुआ।

हमारे साथ जो कुछ भी हुआ, ईश्वर करे सबके साथ हो। ससुराल आपकी साहित्य साधना को इतना मूल्यवान कर दे कि आपको मुझसे और मेरे साहित्यप्रेम से और भी अधिक संवेदना होने लगे। कल आपका भी नाम रवीश जी निकालें और आपके ससुराल वाले भी आपको समरकन्द की यात्रा पर ले जायें।

पूरे प्रकरण में बस एक ही लाभ हुआ कि श्याले महोदय ने अब हमारे ब्लॉग पर दृष्टि रखनी प्रारम्भ कर दी है।

17.11.10

मा पलायनम्

दोपहर के बाद कार्यालय में अधिक कार्य नहीं था अतः निरीक्षण करने निकल गया, टिकट चेकिंग पर। बाहर निकलते रहने से सम्पूर्ण कार्यपरिवेश का व्यवहारिक ज्ञान बना रहता है। सयत्न आप भले ही कुछ न करें पर स्वयं ही कमियाँ दिख जाती हैं और देर सबेर व्यवस्थित भी हो जाती हैं। पैसेंजर ट्रेन में दल बल के साथ चढ़ने से कोई भगदड़ जैसी नहीं मचती है यहाँ, सब यथासम्भव टिकट लेकर चढ़ते हैं। उत्तर भारत में अंग्रेजों से लड़ने का नशा अभी उतरा नहीं है। अब उनके प्रतीकों से लड़ने के क्रम में बहुत से साहसी युवा व स्वयंसिद्ध क्रान्तिकारी ट्रेन का टिकट नहीं लेते हैं। दक्षिण भारत में यह संख्या बहुत कम है अतः टिकट चेकिंग अभियान बड़े शान्तिपूर्वक निपट जाते हैं।

बिना टिकट यात्री पूरा प्रयास अवश्य करते हैं कि वे आपकी बात किसी ऊँचे पहुँच वाले अपने परिचित से करा दें अतः पकड़े जाने के तुरन्त बाद  ही मोबाइल पर व्यग्रता से ऊँगलियाँ चलाने लगते हैं, यद्यपि लगभग हर समय वे प्रयास निष्प्रभावी ही रहते हैं। दूर से 13-14 साल के दो बच्चों को देखता हूँ, अपने विद्यालय की ड्रेस मे, पकड़े जाने के बाद भी चुपचाप से खड़े हुये। कुछ खटकता है, अगले स्टेशन पर अपने साथ उन्हें भी उतार लेने को कह देता हूँ। हमारे मुख्य टिकट निरीक्षक श्री अकबर, अनुभव के आधार पर बच्चों से दो तीन प्रश्न पूछने के बाद, उनसे उनके अभिभावकों का फोन नम्बर माँगते हैं। फोन नम्बर देने में थोड़ी ना नुकुर के बाद जब अभिभावकों से बात होती है तो अभिभावक दौड़े आते हैं और जो बताते हैं वह हम सबके लिये एक कड़वा सत्य है।

दोनों बच्चों के पिछली परीक्षा में कम अंक आने से घर में डाँट पड़ती है। घर की डाँट और विद्यालय के प्रतियोगी वातावरण से क्षुब्ध बच्चे इस निष्कर्ष पर पहुँच जाते हैं कि उन्हें न विद्यालय समझ पा रहा है और न ही घर वाले। दोनों बच्चे आपस में बात करते हैं जिससे उनकी क्षुब्ध मनःस्थिति गहराने लगती है। परिस्थितियों का कोई निष्कर्ष न आते देख दोनों भाग जाने का निश्चय करते हैं। शिमोगा भागने की योजना थी, वहाँ जाकर क्या करना था उसका निश्चय नहीं किया था। अन्ततः उनके अभिवावकों को समझा दिया जाता है, उन्हे भी अपनी भूल का भान होता है।

मैं घर आ जाता हूँ और धन्यवाद देता हूँ ईश्वर को कि मेरे हाथों एक पुण्य करा दिया।

पर क्यों कोई बच्चा अपने परिवेश से क्षुब्ध हो? जो पढ़ाई का बोझ सह नहीं पाते हैं, क्यों सब कुछ छोड़ भागने को विवश हों? क्या इतना पढ़ाना ठीक है जिसका जीवन में कोई उपयोग ही न हो? शिक्षा पद्धति घुड़दौड़ बना कर रख दी गयी है, जो दौड़ नहीं सकते हैं उसमें जीवन से भाग जाने का सोचने लगते हैं। ग्रन्थीय पाठ्यक्रम पढ़कर जीवन में उसका कुछ उपयोग न होते देख, सारा का सारा शिक्षातन्त्र व्यर्थ का धुआँ छोड़ता इंजिन जैसा लगने लगता है, कोई गति नहीं।

रटने के बाद उसे परीक्षाओं में उगल देना श्रेष्ठता के पारम्परिक मानक हो सकते हैं पर इतिहास में विचारकों ने इस तथ्य को घातक बताया है। उद्देश्य ज्ञानार्जन हो, अंकार्जन न हो। रवीन्द्रनाथ टैगोर की विश्वभारती इसका एक प्रयास मात्र था। चेन्नई में किड्स सेन्ट्रल और उसके जैसे अन्य कई विद्यालय हैं, जो बच्चों के लिये तनावरहित और समग्र शिक्षा के पक्षधर हैं और वह भी व्यवहारिक ज्ञान और प्रफुल्लित वातावरण के माध्यम से। बच्चों के लिये विशेषकर पर सम्पूर्ण शिक्षा पद्धति  के यही गुण हों, समग्रता, व्यवहारिकता, ऊर्जा और मौलिकता।

अभिभावक यह तथ्य समझें और विद्यालय इसको कार्यान्वित करें। बच्चों का बचपन व भविष्य हम सबकी धरोहर है। जीवन जीने के लिये है, पलायन के लिये नहीं।

मा पलायनम्।

13.11.10

भाषायी उत्पात और अंग्रेजी बंदर

Vishwanath in 2008
श्री विश्वनाथजी
पूर्वज तमिलनाडु से केरल गये, पिता महाराष्ट्र में, शिक्षा राजस्थान में, नौकरी पहले बिहार में शेष कर्नाटक में, निजी व्यवसाय अंग्रेजी में और ब्लॉगिंग हिन्दी में। पालक्काड तमिल, मलयालम, मराठी, कन्नड, हिन्दी और अंग्रेजी। कोई पहेली नहीं है पर आश्चर्य अवश्य है। आप सब उन्हें जानते भी हैं, श्री विश्वनाथजी। जहाँ भाषायी समस्या पर कोई भी चर्चा मात्र दस मिनट में धुँआ छोड़ देती हो, इस व्यक्तित्व को आप क्या नाम देंगे? निश्चय ही भारतीयता कहेंगे।

पर कितने भारतीय ऐसे हैं, जो स्वतः ही श्री विश्वनाथजी जैसे भाषाविद बनना चाहेंगे? बिना परिस्थितियों के संभवतः कोई भी नहीं। दूसरी भाषा भी जबरिया सिखायी जाती है हम सबको। जब इस भारतीयता के भाषायी स्वरूप को काढ़ा बनाकर पिलाने की तैयारी की जाती है, आरोपित भाषा नीति के माध्यम से, देश के अधिनायकों द्वारा, राजनैतिक दल बन जाते हैं, विष वमन प्रारम्भ हो जाता है, भाषायी उत्पात मचता है और पूरी रोटी हजम कर जाता है, अंग्रेजी बंदर।

पिछले एक वर्ष से कन्नड़ सीख रहा हूँ, गति बहुत धीमी है, कारण अंग्रेजी का पूर्व ज्ञान। दो दिन पहले बाल कटवाने गया था, एक युवक जो 2 माह पूर्व फैजाबाद से वहाँ आया था, कामचलाऊ कन्नड़ बोल रहा था। वहीं दूसरी ओर एक स्थानीय युवक जिसने मेरे बाल काटे, समझने योग्य हिन्दी में मुझसे बतिया रहा था।

कार्यालय में प्रशासनिक कार्य तो अंग्रेजी में निपटाना पड़ता है पर आगन्तुक स्थानीय निवासियों से दो शब्द कन्नड़ के बोलते ही जो भाषायी और भावनात्मक सम्बन्ध स्थापित होता है, समस्याओं के समाधान में संजीवनी का कार्य करता है। अंग्रेजी में वह आत्मीयता कहाँ? सार्वजनिक सभाओं में मंत्री जी के व अन्य भाषणों में केवल शब्दों को पकड़ता हूँ, पूरा भाव स्पष्ट सा बिछ जाता है मस्तिष्क-पटल पर। एक प्रशासनिक सेवा के मित्र ने मेरी इस योग्यता की व्याख्या करते हुये बताया कि कन्नड़ और संस्कृत में लगभग 85% समानता है, कहीं कोई शब्द न सूझे तो संस्कृतनिष्ठ शब्दों का प्रयोग कर दें। किया भी, नीर, औषधि आदि।

तेजाब फिल्म के एक गाने 'एक दो तीन चार....' ने पूरे दक्षिण भारत को 13 तक की गिनती सिखा दी। अमिताभ बच्चन की फिल्मों का चाव यहाँ सर चढ़कर बोलता है। यहाँ के मुस्लिमों की दक्खिणी हिन्दी बहुत लाभदायक होती है, नवागुन्तकों को। भाषायी वृक्ष भावानात्मक सम्बन्धों से पल्लवित होते दिखा हर ओर, धीरे धीरे। इस वृक्ष को पल्लवित होते रहने दें, बिना किसी सरकारी आरोपण के, भाषायी फल मधुरतम खिलेंगे।

प्रश्न उठता है कि तब प्रशासनिक कार्य कैसे होंगे, विज्ञान कैसे बढ़ेगा? आईये गूगल का उदाहरण देखें, हर भाषा को समाहित कर रखा है अपने में, किसी भी साइट को आप अपनी भाषा में देख सकते हैं, भले ही टूटी फूटी क्यों न हो, अर्थ संप्रेषण तो हो ही जाता है। राज्यों को अपना सारा राजकीय कार्य स्थानीय भाषा में ही करने दिया जाये। इससे आमजन की पहुँच और विश्वास, दोनों ही बढ़ेगा, प्रशासन पर। प्रादेशिक सम्बन्धों के विषय जो कि कुल कार्य का 5% भी नहीं होता है, या तो कम्प्यूटरीकरण से अनुवाद कर किया जाये या अनुवादकों की सहायता से। तकनीक उपस्थित है तो जनमानस पर अंग्रेजी या अन्य किसी भाषा का बोझ क्यों लादा जाये।

त्रिभाषायी समाधान का बौद्धिक अन्धापन, बच्चों पर लादी गयी अब तक की क्रूरतम विधा होगी। भाषा का माध्यम स्थानीय हो, सारा ज्ञान उसमें ही दिया जाये। अपने बच्चों को हिन्दी अंग्रेजी अनुवाद के दलदल में नित्य जूझते देखता हूँ तो कल्पना करता हूँ कि विषयों के मौलिक ज्ञान के समतल में कब तक आ पायेगें देश के कर्णधार। विश्व का ज्ञान उसके अंग्रेजी अर्थ तक सिमट कर रह गया है। एक बार समझ विकसित होने पर आवश्यकतानुसार अंग्रेजी सहित किसी भी भाषा का ज्ञान दिया जा सकता है। भविष्य में आवश्यकता उसकी भी नहीं पड़नी चाहिये यदि हम मात्र वैज्ञानिक शब्दकोष ही सर्वाधिक वैज्ञानिक भाषा संस्कृत में विकसित कर लें।

भाषायी उत्पात पर व्यर्थ हुयी ऊर्जा को देश के विकास व अपनी भाषायी संस्कृति हेतु तो बचाकर रखना ही होगा। 


भाषा है तो हम हैं।

10.11.10

शिवसमुद्रम्

कावेरी को सांस्कृतिक महत्व, प्राकृतिक सौंदर्य और जीवनदायिनी जलस्रोत के रूप में तो सब जानते हैं पर 1902 में इस पर बने जलविद्युत संयन्त्र ने भारत में सर्वप्रथम किसी नगर में विद्युत पहुँचायी, यह तथ्य संभवतः बहुतों को ज्ञात न हो। बंगलोर प्रथम नगर था जहाँ पर 1906 में ही विद्युत पहुँच गयी थी।

बंगलोर से 130 और मैसूर से 65 किमी दूर, देश का दूसरा और विश्व का सोलवाँ सर्वाधिक ऊँचा जलप्रपात, कर्नाटक के माण्ड्या नगर में है। वर्षा ऋतु में इसके विकराल रूप का दर्शन, प्रकृति की अपार शक्ति में आपकी आस्था को बढ़ा जायेगा, हर क्षण निर्बाध। नास्तिकों को यदि अपना दर्शन संयत रखना है तो कृपया इसका दर्शन न करें। यात्रा की थकान, प्रपात की जलफुहारों के साथ हवा में विलीन हो जाती है। विज्ञान और प्रकृति के स्वरों को भिन्न रागों में सुनाने और समझने वालों को यह स्थान भिन्न भिन्न कारणों से आकर्षित करेगा किन्तु समग्रता के उपासकों के लिये यह स्थान एक सुमधुर लयबद्ध संगीत सुनाता है।


वहाँ पहुँच कर निर्णय लिया गया कि सर्वप्रथम जलविद्युत संयन्त्र देखा जाये। हम सब ऊँचाई पर थे और संयन्त्र पहाड़ के नीचे। जाने के लिये कोई लिफ्ट नहीं, बस रेलों पर रखी एक ट्रॉली, लगभग खड़ी दीवार पर, लौह-रस्से से बँधी। देखकर भय दौड़ गया मन में। बच्चों के सामने भय न दिखे अतः तुरन्त ही जाकर बैठ गये। बच्चों का उत्साह देखने लायक था, एक बड़े खिलौने जैसी गाड़ी पर पहाड़ों से उतरना। दो ट्रॉलियाँ थीं, जब एक नीचे जाती थी तब दूसरी ऊपर आती थी। लौह-रस्से पर जीवन का भार टिका था, जब प्राण पर बनती है तब ही यह विचार आता है कि हे भगवान, इस रस्से को बनाने में कोई भ्रष्टाचार न हुआ हो, कोई मिलावट न हुई हो। जैसे जैसे नीचे पहुँचे, हृदयगति संयत हुयी।

जब बहुत बड़े पाइप में जल सौ मीटर तक नीचे गिर, टनों भारी टरबाइनों को सवेग घुमाता है, तब हमें विद्युत मिलती है। प्रकृति और विज्ञान, दोनों ही मनोयोग से लगे हैं, अपने श्रेष्ठ पुत्र की सेवा में, पर विद्युत का दुरुपयोग कर हम उस भाव का नित ही अपमान करते रहते हैं। पाइप से निकल रहे जल का नाद एक विचित्र ताल पैदा कर रहा था, हृदय की धड़कनों से अनुनादित।

वापस चढ़ने में ही प्राकृतिक सौन्दर्य को ठीक से निहार सके हम सब। गाइड महोदय ने बताया कि इसकी पूरी संरचना मैसूर के दीवान सर शेषाद्री अय्यर ने बनायी थी। मन उस निष्ठा, ज्ञान, गुणवत्ता और लगन को देख श्रद्धा से भर गया। संयन्त्र अभी भी निर्बाधता से विद्युत उत्पन्न कर रहा है।

यहाँ पर कावेरी एक पहाड़ीय समतल पर फैल कर दो जलप्रपातों के माध्यम से गिरती है, पश्चिम में गगनचुक्की व पूर्व में भाराचुक्की।
  
भोजनादि के बाद सायं जब भाराचुक्की देखने पहुँचे, पश्चिम में सूर्य डूब चुके थे और परिदृश्य पूर्ण रूप से स्पष्ट था। हरे जंगल के बीच दूधिया प्रवाह बन बहता जल का लहराता, मदमाता स्वरूप। जल-फुहारें नीचे से ऊपर तक उड़ती हुयीं, उस ऊँचाई को देखने को उत्सुक जहाँ से गिरकर उनका निर्माण हुआ। बताया गया कि अभी इसका रूप सौम्य है, मनोहारी है, शिव समान। जब यह प्रपात अपने पूर्ण रूप में आता है, लगता है कि शिव अपनी जटा फैलाये, रौद्र रूप धरे दौड़े चले आते हों। पता नहीं इस प्रपात का नामकरण कैसे हुआ पर वहाँ पहुँचकर शिव का स्मरण हो आया।

वह दृश्य देखने में सारा समय चला गया और हम सब दूसरा प्रपात देखने से वंचित रह गये।

प्रकृति, विज्ञान और इतिहास की यात्रा कर सब के सब मुग्ध थे। यात्रायें हमारा ज्ञान बढ़ाती हैं और हमें एक नयी दृष्टि दे जाती हैं अपने अतीत को समझने के लिये, हर बार।

6.11.10

प्रश्न और उत्तर

शैक्षणिक जीवन के बहुत से ऐसे प्रश्नपत्र याद हैं जिनके कुछ प्रश्नों के आंशिक उत्तर अन्य प्रश्नों में ही छिपे रहते थे। पहले लगता था कि संभवतः परीक्षक को याद न रहा हो कि उत्तर अन्य प्रश्नों में ही छिपा है। गर्वोन्नत रहे अपने विवेक और बुद्धि-कौशल पर, अंकजनित चतुराई पर। जीवन में जब इस चतुराई से परे जाकर तथ्य समझे तब समझ में आ गया कि परीक्षकों ने जानबूझ कर वह उत्तर अन्य प्रश्नों में छिपाये थे। ठीक ठीक कारण तो ज्ञात नहीं पर उनकी सदाशयता रही होगी, अपने विद्यार्थियों के प्रति। उन्हें तो था मात्र, प्रश्न पूछने का अधिकार, प्रश्न ही थे उनके लिये माध्यम, प्रश्न ही थे उनके भावों का संप्रेषण, प्रश्न ही थे जो उत्तर धारण कर सकते थे। कुशल परीक्षकों की आशाओं को आधार मिलता रहा, प्रश्नों में ही कुछ अन्य उत्तरों को छिपा देने की कला उन विद्यार्थियों को लाभ पहुँचाती रही जिनके आँख कान खुले रहे, जिन्होने प्रश्न ठीक से पढ़े, उत्तर लिख देने की हड़बड़ी से परे।

ज्ञान का स्वरूप सदा ही परीक्षाओं में तिरोहित होता रहा। जीवन भी परीक्षाओं से भरा रहता है, कोई नियत पाठ्यक्रम नहीं, किस दिशा से आयेगी ज्ञात नहीं, अग्नि परीक्षा, अस्तित्व झुलसाती, तिक्त निर्णयों की बेला, श्रंखलायें सतत प्रश्नपूरित परीक्षाओं की। परीक्षाओं का उद्देश्य हमें परखने के लिये, हमें नीचा दिखाने के लिये, हमें सिखाने के लिये या मानसिक व्यग्रता व उत्तेजना उभारने के लिये। यह मानसिक हलचल मेरी ही नहीं है, औरों के मन को भी मथ रही है, यह विचार प्रक्रिया।

प्रश्नों की श्रंखलाओं के परे हमें उत्तरों के समतल की प्रतीक्षा रहती है। विडम्बना यही है कि यह श्रंखलायें कभी समाप्त नहीं होती है। प्रश्नों को निपटा देने की हड़बड़ी में और प्रश्न मुँह बाये खड़े हो जाते हैं। समुद्र की लहरों की भाँति सतत, आने वाली लहरों से बतियाती ढलती लहरें, प्रश्न अनुत्तरित हैं अभी। अगली लहर और ऊँची, विशाल, कोलाहलमय, गतिमान और अस्पष्ट, एक के बाद एक, अनवरत।

ईश्वर भी एक कुशल परीक्षक है, छोटे प्रश्नों में बड़े उत्तर छिपा कर आत्मजनों को अभिभूत करता रहता है। यहाँ भी बस एक ही आवश्यकता है, आँख, कान खुले रखने की। प्रश्नों में ही जीवन के उत्तर देख लेने की कला विचारकों को मार्ग दिखाती रही है, सदियों से। हमें भी यह तथ्य तब समझ में आ पाता है जब हम अंकजनित, धनजनित और मानजनित चतुराई से ऊपर उठकर विचार करना प्रारम्भ कर देते हैं। इसे ईश्वर की दया न कहें तो और क्या कहें?

प्रश्न अखरते हैं, डराते हैं, विचलित कर जाते हैं, चाहे बच्चों के हों या सच्चों के। उनका प्रतीक चिन्ह भी डरावना, फन फैलाये सर्प की तरह।

मैं अपने प्रश्नों को सहेज कर रखता हूँ, हर नये प्रश्न में पुराने प्रश्नों के उत्तर ढूढ़ने का प्रयास करता हूँ या पुराने प्रश्नों में नये प्रश्न का उत्तर। प्रश्नों से अब कोई बैर नहीं, सहज संगी हैं ये भी, जीवन पथ के।

जीवन में बढ़ जाता है, भार प्रश्नों का, आधार उत्तरों का। ज्ञानकोष में दोनों ही गोते लगाते दीखते हैं, अपनी पहचान खो, विलय हो जाते हैं विचारों में, निर्द्वन्द, प्रश्न और उत्तर।

3.11.10

खेलशैली, कार्यशैली, जीवनशैली

कई दिनों से बैडमिन्टन खेल रहा हूँ और नियमित भी हूँ। शारीरिक श्रम के अतिरिक्त क्या और सीखने को मिल सकता है, इस खेल से? खेल के बीच में जो विश्राम के क्षण होते हैं, उस समय जब शरीर ऊर्जा एकत्र कर रहा होता है, अवलोकन अपने प्रखर रूप में होता है। पहले से ही लगने लगता है कि कौन सा खिलाड़ी अब कैसा शॉट मारने वाला है।

कुछ खिलाड़ी परिश्रमशील होते हैं और सारे के सारे शॉट्स कोर्ट की पिछली रेखा पर खेलते हैं। यह बिना किसी विशेष कलात्मकता के खेल में बने रहने का गुण है, अपनी ओर से कोई भूल न करते हुये, सामने वाले को भूल करने के लिये विवश करने का। कुछ खिलाड़ी प्रारम्भ से ही ताबड़तोड़ तेज शॉट्स मारकर विरोधी को हतप्रभ करने में लग जाते हैं, पर उसमें स्वयं भूल की संभावनायें भी उतनी ही बढ़ जाती हैं। दोनों ही शैलियों में ही थकान बहुत होती है और ऊर्जा और कलात्मकता को अन्त तक बचा कर रखना कठिन हो जाता है। धीमे खेल में विशेष कलात्मकता आवश्यक होती है और थकान निसन्देह बहुत कम होती है। चतुर खिलाड़ी धीमे और तेज खेल या कहें तो कलात्मकता और गति का समुचित मिश्रण रखकर जीत पाते हैं। साथ ही साथ युगल खेल में जहाँ एक ओर आपकी सम्मिलित पहुँच पूरे कोर्ट में हो, वहीं दूसरी ओर समन्वय प्रतिपूरक हो।

रोचक तथ्य पर यह है कि खिलाड़ियों की खेलशैली के बारे में अवलोकन जाना पहचाना सा लगता है। संक्षेप में कहें तो खेलशैली उनकी कार्यशैली से मिलती जुलती लगती है। कार्यक्षेत्र का व्यवहार, करने की गति, निहित कलात्मकता, आपसी समन्वय और योजित परिश्रम, उसी मात्रा में उनकी खेलशैली में परिलक्षित दिखता। परिश्रमी अधिकारी खेल में भी उतना ही परिश्रम करते हुये दिखे, जितना वे अपने कार्य क्षेत्र में लगाते हैं। यह बहुत संभव है कि किसी का बैडमिन्टन का खेल देख कर मैं उसकी कार्यशैली के बारे में बड़ी सटीक भविष्यवाणी कर सकूँ।

कार्यशैली और खेलशैली में भले ही एकात्मक सम्बन्ध दिखे, जीवनशैली और कार्यशैली में वह एकात्मकता नहीं दिखी। तथ्य दो दिखायी पड़े। कुछ अधिकारियों का यह निश्चय रहता है कि कार्यक्षेत्र की किसी भी बात को वे घर के अन्दर नहीं लायेंगे और उसी प्रकार कार्यालय से अपने घर को दूर रखेंगे। उन अधिकारियों की कार्यशैली व जीवनशैली, गति, परिश्रम, कलात्मकता और समन्वय में एक दूसरे की पूरक दिखी। वहीं दूसरी ओर जो अधिकारी अपनी शैली सब जगह एक सी रखना चाहते हैं और उनमें अन्तर करने को अपने व्यक्तित्व पर एक कृत्रिम आवरण के रूप में मानते हैं, इन तीनों क्षेत्रों में एक जैसा व्यवहार करते दिखे।

क्या उचित है, इस पर एक स्वस्थ बहस हो सकती है। इस बहस से यदि मेरे खेल का स्तर बढ़ सके तो और भी अच्छा।

खेल में यदि भूल करने से मेरा अंक जाता है तो बड़ा क्रोध आता है स्वयं पर, वहीं दूसरे के अच्छे खेल पर उत्साहवर्धन भी करना अच्छा लगता है। इससे खेल निखर रहा है। कार्यशैली व जीवनशैली में यह गुण लाने का प्रयास है, जिससे कार्य व जीवन भी पल्लवित हो सके।