31.7.21

लोभी रेवड़ी बाँट रहे हैं


जन-कुबेर-धन के रक्षक बन, जगह जगह बन्दर बैठे हैं ।

अनुशासन का पाठ पढ़ाते, उत्श्रंखल शासन करते हैं ।

बँटा हुआ निश्चित ही भारत, समुचित इन राजाओं में ।

धैर्य धरो, ऐसी आहुतियाँ, डालें जन-आशाओं में ।

पेट पाप से पूर्ण भरा है, मुँह से विद्या बाँच रहे हैं ।

लोभी रेवड़ी बाँट रहे हैं ।।१।।

 

कागज पर जितनी रेखायें, खिंचती जन-उत्थानों की ।

उतनी भूख स्वतः बढ़ जाती, मैकाले-सन्तानों की ।

निर्देशों की गंगा बहती, मरुथल सी धनहीन धरा ।

धन-धारा ने निश्चय कितने खेतों को परिपूर्ण भरा ।

लघु-कुबेर का आसन खाली, अर्थ-नियन्ता भाग रहे हैं ।

लोभी रेवड़ी बाँट रहे हैं ।।२।।

 

वही हमारे मार्ग-नियामक, जीवन-सृष्टा, पंथ-प्रकाशक ।

वही दया के उज्जवल तारा, गुणवत्ता के स्थिर मानक ।

वही समस्या जान सके हैं, समाधान भी वे देंगे ।

कलुष-पंक में डूबे मानव-जीवन को भी तर देंगे ।

पद की गरिमा सतत बढ़ाते, ईश्वर खुद को आँक रहे हैं ।

लोभी रेवड़ी बाँट रहे हैं ।।३।।

 

पीड़ा का कारण खोजा है, जब से अनुसन्धान किये ।

वर्णन कर डाला साधन का, बड़े-बड़े व्याख्यान दिये ।

भूख, गरीबी, रोजगार को पाँच साल में बाँध दिया ।

गुणा-भाग सारे कर डाले, नहीं किन्तु कुछ काम किया ।

पथ-भ्रष्टों की सेना सम्मुख, पथ दृष्टा बन हाँक रहे हैं ।

लोभी रेवड़ी बाँट रहे हैं ।।४।।

चित्र साभार - https://economictimes.indiatimes.com/



29.7.21

निर्णयों के वैकल्पिक विश्व


निर्णय के क्षण इतिहास रचने की सामर्थ्य रखते हैं। यदि कोई निर्णय विशेष नहीं होता तो इतिहास का स्वरूप क्या होता, इस बात पर चर्चा बहुत होती है और वह चर्चा अत्यन्त रोचक भी होती है। ऐसी ही एक चर्चा में हमारे पुत्र पृथु ने तीन वेब सीरीज़ के बारे में बताया, जो केवल इस तथ्य पर आधारित हैं कि इतिहास की कोई एक महत्वपूर्ण घटना नहीं हुयी होती या विपरीत हुयी होती, तो विश्व का स्वरूप क्या होता? किसी एक में सोवियत पहले चन्द्रमा में पहुँच जाते हैं, किसी दूसरे में रूज़वेल्ट के स्थान पर कोई और १९४० का चुनाव जीत जाता है। किसी एक अन्य में रूज़वेल्ट की हत्या हो जाती है, अमेरिका का विकास अवरोधित हो जाता है और जर्मनी पहले परमाणु बम बना लेता है। बड़ा ही रोचक लगता है, इतिहास के घटनाक्रम को इस प्रकार पलटते हुये देखना। उस बिन्दु तक सब कुछ पूर्ववत चलता है और सहसा उस बिन्दु के बाद सब घटनाक्रम बदल जाता है, आमूलचूल परिवर्तन। जानकार इसे “वैकल्पिक इतिहास” कहते हैं।


वैकल्पिक इतिहास पर आधारित श्रृंखलायें लोगों को कपोल कल्पनायें लग सकती हैं पर इसके लेखक, निर्माता और निर्देशक इस पर बहुत अधिक शोध करते हैं। सामाजिक परिस्थितियाँ, आर्थिक उतार चढ़ाव, शक्ति संतुलन और न जाने कितनी विमायें। कौन सी घटनायें नहीं हुयी होतीं, कौन सी अन्य संभावित घटनाओं के होने की प्रायिकता अधिक होती, ऐसे न जाने कितने विषयों पर शोध होता है। जब वैकल्पिक संभावित भविष्य बनाया जाता है तो स्वाभाविक ही है कि भूत भी खंगाला ही जाता होगा। एक एक वे विचार जो बल पाते, एक एक वे तथ्य जो महत्वपूर्ण हो जाते, इन सब विषयों पर गहन शोध होता है। कहने को तो आप उनको गपोड़ी कह सकते हैं, पर उनका शोध वर्तमान से भी अधिक रोमांचक और व्यवहारिक लगता है। 


जहाँ एक ओर कथाकार अपने कल्पना के घोड़े इतनी दूर तक दौड़ाते हैं वहीं कुछ यह मान कर बैठे रहते हैं कि जो हुआ, वह तो होना ही था। दूसरे समूह के पुरोधाओं से किसी तर्क में जीतना संभव ही नहीं है। “कोई घटना क्यों हुयी”, जब इसका उत्तर यह हो कि “यह तो होनी ही थी, दैवयोग था”, तब कोई संवाद नहीं सूझता है। क्या कहें? न आप भूत पर चर्चा कर सकते हैं और न भविष्य पर। न आप कारकों पर चर्चा कर सकते हैं, न व्यक्ति या परिस्थिति विशेष पर। न आप किसी के निर्णयों की प्रशंसा कर सकते हैं, न किसी की निंदा। सब कुछ पूर्णता से नियत मान बैठे ऐसे नियतिवादियों के लिये कोई विकल्प है ही नहीं, जो हुआ वही होना था। कहा जाये और उनके जीवन में देखा जाये तो आलस्य का अंतहीन प्रमाद।


एक स्थान पर कई मार्गों से जाया जा सकता है। एक ही निष्कर्ष के लिये कई घटनायें कारण हो सकती हैं। विकल्प की अनुपस्थिति हमारे इतिहास में कहीं नहीं रही है। किसी को यह कहने का अवसर नहीं दिया है इतिहास ने कि इसके अतिरिक्त क्या किया जा सकता था? भीष्म के प्रकरण में भी यही बात मुखर हुयी कि कृष्ण के विराटस्वरूप वाले मुख में जब सब हत ही देखे गये तो भीष्म क्या कर सकते थे? उन्होंने वही किया जो विधि ने या दैव ने उनसे करा लिया। इस प्रकार की विचारधारा अपनायी तो कैसे आप किसी के निर्णयों का मूल्यांकन कर सकेंगे? कोई उहापोह कैसे हो पायेगी तब? निर्णयों की गुणवत्ता कैसे जानी जायेगी तब। नियतिवादी तो सारी उत्सुकता पर ठंडा पानी डाल देते हैं। कोई वैकल्पिक इतिहास को तो छोड़िये, वे तो नियत इतिहास को भी भिगो भिगो कर धो डालते हैं। कोई प्रश्न नहीं, कोई उत्तर नहीं, होना था, हो गया। जिसने जो किया, उसको वैसा ही करना था, कोई कर्म नहीं, कोई विकर्म नहीं, सब अकर्म।


कर्मफल का सिद्धान्त तार्किक है, न्यायदर्शन में विस्तृत रूप से सिद्ध है और मुझे स्वीकार भी है। पर सबकुछ ही पहले से नियत है इस सिद्धान्त को मैं स्वीकार नहीं कर सकता। यदि माने कि सब दैव का किया धरा है और बस भोगना ही है तो भोग लेने के बाद मुक्ति तो स्वतः ही मिल जानी चाहिये। तब किस बात के प्रयत्न और कौन से कर्तव्य? एक परिस्थिति में लाने का कार्य दैव कर सकता है पर उस परिस्थिति में क्या निर्णय लेना है इसकी पूरी छूट हमें सदा ही रही है, हमारे सामने विकल्प सदा ही उपस्थित रहे हैं। निर्णय की इस जागृत प्रक्रिया के बाद जो भी विकल्प हम चुनते हैं, उसी के आधार पर हमारे अगले संस्कार, कर्माशय, विपाक आदि तैयार होते हैं। यही न्यायसंगत, तार्किक और व्यवहारिक भी है।


निर्णयों में विकल्प पर आधारित कई वैज्ञानिक उपन्यास भी पढ़े हैं जो मुख्यतः समय में यात्रा करने के बारे में थे, कभी भूतकाल में तो कभी भविष्य में जाने वाले। हमारी विवशता ही है कि समय सदा ही हमको एक नोंक पर आगे ढकेलता रहता है कभी अपने पीछे या आगे नहीं जाने देता। यदि ऐसा हो सकता तो समय में यात्रायें संभव होती। तब एक नहीं अनेक विश्व होते, हर विश्व में हर पात्र, हर विश्व के समान्तर अनेक अन्य विश्व। कल्पना करते जायें पर शीघ्र ही आप माथा पकड़ कर बैठ जायेंगे क्योंकि सब गड्डमड्ड होने लगेगा आपके अनगिनत विश्वों में तब। अच्छा हुआ यह सब नहीं हुआ, कितना भी हो पर इस प्रकार की जटिलताओं के कष्ट सहने का प्रारब्ध नहीं हो सकता है हमारा।


समय में जाना, वैकल्पिक विश्व की कल्पना करना केवल कथाकारों और विज्ञान के ही विषय नहीं हैं। धर्म और भारतीय दर्शन में भी इनकी महती उपस्थिति है। मेरी भाभीजी ने पिछले वर्ष मुझे दो छोटी पुस्तकें दी थी। “शून्य” द्वारा लिखित “इम्मोर्टल टाक्स”, दो भागों में। अत्यन्त रोचक, पढ़ने बैठा तो कल्पनाओं के भँवर में ही उतरता चला गया। उसमें भी एक दो प्रसंग समानान्तर विश्व और वैकल्पिक भविष्य के आते हैं।


मैं वैकल्पिक विश्व में भले ही न जाऊँ पर नियतिवाद को भी स्वीकार नहीं कर सकता। भले ही उस पर कुछ कर न पाऊँ पर अपने निर्णयों पर प्रश्न उठाता ही रहता हूँ। अपने ही क्यों, उन सभी निर्णयों पर प्रश्न उठाता रहता हूँ जो मुझे प्रभावित करते हैं और जहाँ मुझे लगता है कि यदि वैकल्पिक निर्णय होता तो कहीं अच्छा होता। बड़ा ही सरल होता है किसी महापुरुष को पूजायोग्य बनाकर उनके सारे निर्णयों को उनके ही महापुरुषत्व में तिरोहित कर देना, पर बहुत कठिन होता है उन्हें मानवरूप में स्वीकार करना और उनके द्वारा लिये गये निर्णयों की परिस्थिति और प्रक्रिया को यथारूप समझना। निर्णयों पर चर्चा आवश्यक है क्योंकि उससे ही निर्णयों के लेने के आधार स्पष्ट होते हैं। तब तो और भी चर्चा करना बनता है जब पात्र ने उस पर स्वयं ही संवाद किया हो या स्पष्टीकरण दिया हो।

किस पथ जायें हम (चित्र साभार https://blogs.cfainstitute.org/)


27.7.21

पिता दीन्ह मोहि कानन राजू


माँ कौशल्या का उत्साह अपरिमित है, आज उनके राम का राज्याभिषेक होगा। वैसे तो माँ के हृदय में पुत्र सदा ही राजा ही रहता है पर जन मन के अभिराम, सबके प्यारे राम, उनके लाल राम आज अयोध्या का सिंहासन सुशोभित करेंगे। प्रातः उठने के बाद से ही व्यस्तता बनी हुयी है, फिर भी न जाने कितने कार्य शेष हैं। कौन से वस्त्र पहनेंगी राजमाता, कौन से आभूषण धारण करेंगी, कौन परिचारिकायें साथ चलेंगीं, सब कुछ महत्वपूर्ण है, आज का दिन महत्वपूर्ण है।


राम के विवाह में भी समय नहीं मिला था। महाराज दशरथ ने सबको बुला भेजा जहाँ मिथिला के कुलगुरु संदेश लेकर आये थे कि उनके पुत्र राम का विवाह जनककुमारी सीता से होना है। मन में न जाने कितने सुख के भँवर उठ रहे थे और माँ कौशल्या उनमें बार बार डूबी जा रही थी। मेरे राम का विवाह, पुत्रवधू कैसी होगी, सुकुमार ने शिव धनुष कैसे तोड़ा होगा और न जाने कितने विचारों की सतत श्रृंखलायें। अगले दिन महाराज दशरथ का मिथिला के लिये प्रस्थान और विवाहोपरान्त राम का सीता के साथ आगमन। न अपने लिये अधिक कुछ कर पायी, न सुकुमारी सीता के लिये। माँ की अभिलाषायें अतृप्त ही रह गयीं, तब समय ही नहीं मिला।


राम के विवाह में परिस्थितियाँ वश में नहीं थी, विवाह का निर्णय महर्षि विश्वामित्र ने लिया था, पर कल महाराज को न जाने क्या हो गया, न कोई पूर्व सूचना, न कोई मन्त्रणा, न कोई संकेत। सायं परिचारिकायें सूचना लाती हैं कि कल रामजी का राज्याभिषेक होगा। हे ईश्वर, मेरे राम के निर्णयों में इतनी शीघ्रता क्यों? अब पुनः मुझे सारी तैयारियाँ करनी हैं, एक दिन से भी कम का समय। अर्धरात्रि की नींद त्यागने के बाद भी सब अस्त व्यस्त पड़ा हुआ है। स्वयं ही अह्लादित और विह्वल हुयी माँ स्वयं से बातें किये जा रही है।


सूचना मिलती है कि राम महल में आ रहे हैं और अकेले आ रहे हैं। आश्चर्य हुआ कि इतने प्रातः और वह भी बिना सीता के। राज्यभिषेक में निकलने के पहले सपत्नीक आकर माँ का आशीर्वाद लेने की ही तो परम्परा है, इस कुल में। पता नहीं, कहीं माँ को कोई विशेष सलाह देने या मन्त्रणा करने तो नहीं आ रहा है पुत्र? परिचारिकायें शीघ्रता से कक्ष में आती हैं और कक्ष को यथासंभव व्यवस्थित कर देती हैं।


राम माँ को प्रणाम करते हैं, आशीर्वाद लेते हैं और सामने खड़े हो जाते हैं। एक क्षण माँ पुत्र को निहारती है, सदा की भाँति मुख पर प्रशान्तमना भाव। कभी कभी तनिक क्रोध भी आता है राम पर, गम्भीर होने की भी यह कोई वय है? इस समय तो मन उल्लसित रहे, मुखमंडल खिला रहे, शरीर के अंगों से ऊर्जा प्रस्फुटित हो। कहीं राम ने राज्य के आगामी कार्यभार को अधिक गम्भीरता से तो नहीं ले लिया?


सहसा कौशल्या को लगा कि संभवतः वस्त्राभूषण आदि पर या राज्याभिषेक की तैयारियों पर कोई प्रश्न रह गया हो मन में? सदा से संकोची रहे राम कह न पा रहे हों। या संभवतः सीता के बारे में प्रश्न हो, पर उसके लिये राम को आने की क्या आवश्यकता? सहसा सब भूलकर माँ अपनी तैयारियों में लग जाती है और उसी उत्साह में राम से आभूषणों के बारे में पूछने लगती हैं। कोई स्पष्ट उत्तर न पाकर उराव में अपने आप ही उत्तर भी दिये जा रही है माँ। महाराज दशरथ ने यह तो किया होगा, व्यवस्थायें कैसी की होंगी सुमन्त्र ने? अपने आप में बतियाते हुये और राम के उत्तर की प्रतीक्षा न करते हुये वात्सल्यपूरित स्नेहिल शब्द अपने लाल पर बरसाती हुयी माँ सुखनिमग्न थी।


राम सदा ही मितभाषी और स्पष्टवादी रहे हैं, कभी वार्तालाप करने में इतना समय उन्हें नहीं लगा था। आज सब भिन्न था। प्रातः जब सुमन्त्र सहसा बुलाने के लिये रथ लाये और माँ कैकेयी के यहाँ ले गये तो उन्हें यह भान नहीं था कि काल किस करवट पलटेगा। पिता का शोकनिमग्न मुख देखकर अनर्थ का संशय हुआ था पर इतने प्रतापी राजा को किस बात का शोक और वह भी अपने पुत्र राम के रहते। माँ कैकेयी ने मौन तोड़ा और सारा वृत्तान्त राम से कह दिया। राजा दशरथ के शोक का कारण उनका राम के प्रति अथाह प्रेम ही बता कर अपना पल्ला भी झाड़ लिया।


पिता के वचनों के हित निर्णय ले चुके राम माँ कौशल्या को सूचित करने और उनसे आज्ञा लेने यहाँ पर आकर खड़े हैं। माँ की प्रसन्नता देखकर कुछ भी बताने का साहस नहीं हो पा रहा है राम को। माँ के शोकनिमग्न मुख की कल्पना भर करके राम रुक गये। कुछ कह नहीं पा रहे हैं राम। उस पर से माँ लगातार ही बोलती जा रही है, कुछ कहने का समय ही नहीं दे रही है। उपयुक्त समय न जाने कब आयेगा?


सहसा श्वास शरीर में भरती है, समय स्तब्ध सा ठिठक जाता है। एक क्षण के लिये कौशल्या की दृष्टि राम पर पड़ती है, अपने प्रश्नों के उत्तर के लिये, पर राम तो माँ को स्नेह से निहारे ही जा रहे हैं। नेत्र आर्द्र होना चाहते हैं पर बाँध सा बना है राम का अन्तस्थल। माँ सहसा रुक जाती है, वह समझ जाती है। राम कुछ विशेष कहना चाह रहे हैं। भाव अपनी पूर्णता पा लेते हैं, बस यही शब्द गूँजते हैं।


“पिता दीन्ह मोहि कानन राजू” 


माँ, पिताजी ने मुझे वन का राज्य दिया है। राम जानते थे कि ये शब्द माँ कौशल्या के अश्रुबन्ध तोड़ देंगे। स्तब्ध थे राम भी, पर क्या करें? माँ को इस प्रकार शोक देने का दैव भी ईश्वर ने राम से पुत्र को ही दिया था।



24.7.21

भीष्म उठ निर्णय सुनाओ


द्रौपदी के चीर की तुम चीख सुनते क्यों नहीं,

विदुर की तुम न्यायसंगत सीख सुनते क्यों नहीं,

पाण्डवों का धर्मसंकट, जब मुखर होकर बह रहा,

यह तुम्हारा कुल कराहे, घाव गहरे सह रहा,

धर्म की कोई अघोषित व्यंजना मत बुदबुदाओ,

भीष्म उठ निर्णय सुनाओ ।

 

राज्य पर निष्ठा तुम्हारी, ध्येय दुर्योधन नहीं,

सत्य का उद्घोष ही व्रत, और प्रायोजन नहीं,

राज्य से बढ़ व्यक्ति रक्षा, कौन तुमसे क्या कहे,

अंध बन क्यों बुद्धि बैठी, संग अंधों यदि रहे,

व्यर्थ की अनुशीलना में आत्म अपना मत तपाओ,

भीष्म उठ निर्णय सुनाओ ।

 

हर समय खटका सभी को, यूँ तुम्हारा मौन रहना,

वेदना की पूर्णता हो और तुम्हारा कुछ न कहना,

कौन सा तुम लौह पाले इस हृदय में जी रहे,

किस विरह का विष निरन्तर साधनारत पी रहे,

मर्म जो कौरव न समझे, मानसिक क्रन्दन बताओ,

भीष्म उठ निर्णय सुनाओ ।

 

महाभारत के समर का आदि तुम आरोह तुम,

और अपनी ही बतायी मृत्यु के अवरोह तुम,

भीष्म ली तुमने प्रतिज्ञा, भीष्मसम मरना चुना,

व्यक्तिगत कुछ भी नहीं तो क्यों जटिल जीवन बुना,

चुप रहे क्यों, चाहते जब लोग भीषणता दिखाओ,

भीष्म उठ निर्णय सुनाओ ।

 

ध्वंस की रचना समेटे तुम प्रथम सेनाप्रमुख,

कृष्ण को भी शस्त्र धर लेने का तुमने दिया दुख,

कौन तुमको टाल सकता, थे तुम्हीं सबसे बड़े,

ईर्ष्यायें रुद्ध होती, बीच यदि रहते खड़े,

सृजन हो फिर नया भारत, व्यास को फिर से बुलाओ,

भीष्म उठ निर्णय सुनाओ ।


(बहुत पहले मानसिक हलचल पर लिखी थी। भीष्म के प्रसंग पर पुनः प्रस्तुत कर रहा हूँ)

भीष्म प्रतिज्ञा करते हुये देवव्रत  (चित्र साभार - https://ritsin.com/ )


22.7.21

भीष्म के प्रश्न

 

महाभारत के पात्रों में संभवतः भीष्म का चरित्र सर्वाधिक जटिल रहा होगा। जिस तरह की घटनायें उनकी चार पीढ़ियों लम्बे और पूरे जीवन काल में आयीं, उतना वैविध्य और वैचित्र्य कहीं और देखने को नहीं मिलेगा। वैसे तो महाभारत का पूरा कथाखण्ड अत्यधिक रोचक और प्रवाहपूर्ण है, पर उस पर भी शिलाखण्ड से खड़े और सब देख रहे भीष्म विशिष्ट हो जाते हैं।


हमारा जीवन यदि सामान्य भी हो, तो भी कई ऐसे प्रश्न रहते हैं जिनका उत्तर हमें जीवन भर कचोटता है। स्वाभाविक है कि भीष्म के इतने दीर्घजीवन में भी प्रश्न होंगे जिनके उत्तर उन्होंने स्वयं ही ढूढ़े होंगे और उन पर लिये निर्णयों पर मनन किया भी होगा। फिर भीष्म से प्रश्न क्यों?


महाभारत के जानकारों का भीष्म से सबसे बड़ा प्रश्न यह रहता है कि यदि वह ठान लेते तो महाभारत टाला जा सकता था।


गुरुचरणदास की पुस्तक “डिफिकल्टी आफ बीइंग गुड” में पढ़ा था कि महाभारत के तीन कारण हैं। शान्तनु का काम, दुर्योधन की ईर्ष्या और द्रौपदी का क्रोध। शान्तनु का काम भीष्म-प्रतिज्ञा का कारण बना। दुर्योधन की ईर्ष्या पाण्डवों को पाँच गाँव भी न दे सकी। द्रौपदी का क्रोध विनाश पत्र के ऊपर अन्तिम हस्ताक्षर था।


यदि ऐसा था तो सारे प्रश्न भीष्म से क्यों? मेरा फिर भी यह मानना है कि भीष्म युद्ध रोक सकते थे।


आठ वसुओं में बड़े, पत्नियों के मनोविनोद में वशिष्ठ की गाय नन्दिनी की चोरी, मनुष्य योनि में जन्म लेने के लिये वशिष्ठ का श्राप, अनुनय विनय और पश्चाताप, शेष सात को शीघ्र ही मुक्ति पर भीष्म को पूर्ण जीवन के भोग का आदेश। इस पूर्वकथा के बाद प्रारम्भ हुआ शेष महाभारत और भीष्म का वृत्तान्त। माँ गंगा ७ पूर्वपुत्रों को जन्म लेते ही गंगा में प्रवाहित कर मुक्त कर देती है। आठवें में शान्तनु से रहा नहीं जाता, भीष्म बच जाते हैं पर माँ चली जाती है।


एक दुर्धर्ष योद्धा और धर्म के विशेषज्ञ के रूप भीष्म बड़े होते हैं। सारे राज्य को यह आस रहती है कि अगले महाराज अपने प्रताप से राज्य विस्तारित करेंगे और धर्मध्वजा फहरायेंगे। यहाँ तक की यात्रा को यदि प्रारब्ध मान लें तो इसके बाद प्रारम्भ होती है भीष्म की निर्णय यात्रा। प्रश्न इस पर उठते हैं। अधिक चर्चा न कर बस प्रश्न लक्षित करूँगा।


  1. पिता शान्तनु का विवाह नियत करने भीष्म सत्यवती के यहाँ जाते हैं। सत्यवती के पिता की आशंका के लिये पहले राज्य न लेने का प्रण लिया और आगामी पीढ़ी में कोई संघर्ष न हो, इसके लिये विवाह न करने की भीष्म प्रतिज्ञा भी ले डाली। भला कौन पिता अपने समर्थवान पुत्र से अपने काम के लिये इस प्रकार के त्याग की अपेक्षा करता है? पूर्व में दशरथ मात्र ऐसे पिता हुये जिनके ऊपर अयोध्यावासी, लक्ष्मण और एक स्थान पर राम द्वारा भी यह आक्षेप लगा कि उन्होंने अपने काम के लिये अपने सर्वसमर्थ, आज्ञाकारी और योग्य पुत्र की तिलांजलि दे दी।
  2. अपने सौतेले भाईयों के विवाह के लिये काशी नरेश की तीन पुत्रियों का अपहरण किया जबकि अम्बा ने कह दिया था कि वह शाल्व को पति मान चुकी है। अपना जीवन त्याग कर वही अगले जन्म में शिखण्डी बनी और भीष्म की पराजय और मृत्यु का कारण भी।
  3. जब विचित्रवीर्य सन्तान उत्पन्न न कर सके तो नियोग के लिये सबसे पहले भीष्म को कहा गया। तब भी भीष्म ने मना कर दिया। अन्ततः माँ सत्यवती ने अपनी पूर्वप्रसंग से उत्पन्न पराशर के पुत्र वेदव्यास को इस कार्य के लिये आदेशित किया। कुरूप और कृष्ण वर्ण के व्यास के सामने एक रानी अपनी आँख भी न खोल सकी और अंधे पुत्र धृतराष्ट्र को जन्म देती है। दूसरी भय से पीली पड़ जाती है और नपुंसक पुत्र पांडु की माँ बनती है।
  4. धृतराष्ट्र के लिये गांधारी का चयन किया पर उसे पति के अंधेपन के तथ्य से अनिभिज्ञ रखा। जिससे विक्षुब्ध हो उसने जीवन भर के लिये अपनी आँखों पर पट्टी बाँध ली। नपुंसकता के तथ्य को जानते हुये भी पांडु से कुंती और माद्री का विवाह कराया। पांडव तो नियोग से उत्पन्न हो गये पर पांडु के प्राण माद्री के कारण चले गये।
  5. द्रौपदी के चीरहरण के समय शान्त रहे। विदुर के द्वारा कठोर स्वर उठाने के बाद भी धर्म के बारे में कोई भीरु सा ज्ञान उड़ेल कर सर झुकाये बैठे रहे। क्या उस समय भीष्म की एक हुंकार सारा दुष्कृत्य रोक न देती?
  6. महाभारत होने दिया। कृष्ण के पाँच गाँव के प्रस्ताव पर भी दुर्योधन की हठधर्मिता को सहन कर लिया। न्याय, धर्म और नीति के किस पड़ले पर यह प्रस्ताव अनुचित था?
  7. प्रथम सेनापति बन गये। यद्यपि दुर्योधन कर्ण को सेनापति बनाना चाहता था पर वृद्ध होने के कारण इनसे पूछने गया। वय ९० के ऊपर होने पर भी अपने पौत्रों से युद्ध को तत्पर हो गये। चाहते तो अपने आप को निवृत्त भी कर सकते थे।
  8. अपने प्रिय पाण्डवों से लड़े पर अर्धमना हो। दुर्योधन सदा ही यह कह कर उकसाता रहा कि आप अर्जुन को अधिक चाहते हैं। अर्जुन भी अपने पितामह पर प्रहार न कर सका। दस दिन तक युद्ध खिंचा। भीष्म और अर्जुन, दोनों ही ने अपना क्रोध और क्षोभ शेष शत्रु सेना पर निकाला।
  9. महाभारत के कई पात्र समय आने पर मुख्य मंच से निकल कर नेपथ्य पर चले गये पर भीष्म टिके रहे। अपनी प्रतिज्ञा का दंश झेलते रहे, अपने प्रथम निर्णय का भार उठाये जीते रहे।


यद्यपि मूल महाभारत नहीं पढ़ी है पर नरेन्द्र कोहली की श्रृंखला और अन्य लेखकों के कई पात्रों पर लिखी हुयी पुस्तकें पढ़ी हैं। भीष्म को मानवीय दृष्टिकोण से समझना दुरूह है। पता नहीं कौन सा लौह भरा था उस हृदय में? भीष्म कुरुवृद्ध थे और एक परिवार में एक वृद्ध की इच्छा रहती है कि सब मिल जुल कर रहें। अन्य वृद्ध तो विवशता में या संतानों के हठ में निराश हो जाते हैं पर भीष्म में कौन सी विवशता और कौन सा नैराश्य?


आजकल समाज के वृद्ध तो समाज जोड़ने के स्थान पर स्वार्थ के लिये समाज को तोड़ने में तत्पर हैं। अंग्रेजों से हम कुछ सीखे न सीखे, यह घृणित और कुटिल चाल अवश्य सीख चुके है। पर भीष्म तो कुल का, समाज का, राज्य का, धर्म का, सबका ही हित चाहते थे, तब उनके सामने कौन सी विवशता थी जिसने महाभारत सा सर्वविनाशक युद्ध हो जाने दिया?


प्रश्न अनुत्तरित हैं।




20.7.21

भीष्म या प्रयोगधर्मी


कल ज्ञानदत्तजी का ब्लाग पढ़ रहा था। पिछले ५-६ ब्लागों से ज्ञानदत्तजी ने अपनी सिद्धविधा में परिमार्जन किया है, लेखन को साथ में वार्तालाप भी जोड़ दिया है। वह जो भी विषय लेते हैं, उसके तथ्यात्मक और सैद्धान्तिक पक्ष तो रखते ही हैं, उस पर अपना विशिष्ट दृष्टिकोण भी रखते हैं। रोचकता तब और बढ़ जाती है जब उसके व्यवहारिक पक्षों पर चर्चा भी होती है। यह सुनने में आनन्द आता है, आधे घंटे से अधिक कब निकल जाते हैं, पता ही नहीं चलता।


ज्ञानदत्तजी प्रयोगधर्मी हैं, रेलवे सेवा में मेरे वरिष्ठ रहे हैं और कई विषयों में उत्साहवर्धन के साथ मेरा मार्गदर्शन भी किया है। ब्लाग के साथ ही उस विषय पर चर्चा एक अभिनव प्रयोग है और मेरी दृष्टि में अत्यन्त सफल भी। अभिनव इसलिये कि नयी पीढ़ी के पास आधुनिक परिवेश में इतना समय नहीं है कि बैठकर १० मिनट कोई ब्लाग पढ़ सके। तो समय के साथ उनको सुनने का विकल्प देना अभिव्यक्ति को बिना बदले हुये सुविधाजनक बनाना है। पढ़ने में स्वर जैसा उतार चढ़ाव नहीं आता है, भाव सपाट से चलते हैं। शब्दों की थिरकन प्रभाव तो लाती है पर उतना नहीं जितना स्वर लाते हैं। वैसे भी शब्दों की थिरकन के चितेरे कहाँ हैं अधिक अब?


मुझे लगता है जब मैं अपनी कविता पढ़कर सुनाता हूँ, उसमें सन्निहित भाव तब अधिक मुखर होते हैं। निश्चय ही अब आने वाले समय में बातें कही जायेंगी और सुनी जायेंगी। लिखने और पढ़ने वाले उतने ही रहेंगे पर सुनने वालों से हिन्दी अपना प्रचार पायेगी।


यद्यपि यूट्यूब के माध्यम से लोग अपनी बाते कहते हैं पर उसमें दृश्य अधिक है और तत्व कम। वैसे भी दृश्य माध्यम चुनना था तो पढ़ना ही श्रेयस्कर था? वीडियो में एक तो डाटा अधिक लगता है, आँखें बँध जाती हैं और अन्य कोई कार्य नहीं किया जा सकता है। जब समय घर से बाहर अधिक बीत रहा हो, कार में, ट्रेन में या टहलने में समय के उपयोग की बात आये तो लोग कान में ईयरफोन लगाकर सुनना रुचिकर मानते हैं। अभी संगीत मुख्य है पर आने वाले समय में पाडकास्ट एक मुख्य अभिव्यक्ति होगी। 


ज्ञानदत्तजी ब्लाग के साथ ही अपना पाडकास्ट डाल देते हैं तो विकल्प रहता है कि सुनते हुये अन्य कार्य भी किये जा सकें। साथ ही साथ चर्चा का स्वरूप अधिक ग्राह्य होता है। ब्लाग के साथ पाडकास्ट का यह प्रयोग अभिनव है और प्रभावी भी।


पिछले दो ब्लागों में ज्ञानदत्तजी चर्चा अपनी “मेम साहब” से ही कर रहे हैं। कई लाभ स्पष्ट हैं। पहला तो घर में ही बात करने के लिये कोई है और उसके लिये उन्हें कहीं और नहीं जाना पड़ता। दूसरा यह कि श्रीमतीजी के अनुभव और ज्ञान का पूरा सम्मान हो रहा है और यह तथ्य उनकी विषयगत गहराई से पता चलता है। तीसरा अभिरुचियों में अपनी श्रीमती को सहयात्री बनाने का सत्कर्म और सद्धर्म। चौथा यह कि उदाहरणों के लिये दूर नहीं जाना पड़ता, सहजीवन के कितने ही साझा दशक व्यक्त करने को पड़े हैं। इस प्रयोग ने मुझे भी बहुत उत्साहित किया है। जब अपनी श्रीमतीजी को सुनाया और ऐसा ही करने को सुझाया तो उन्होंने विषय ढूढ़ने का गृहकार्य दे दिया है। अर्थ यह है कि प्रयोग अपनी सफलता के प्रथम चरण पर है।


चर्चा की श्रृंखला में पहला विषय लम्बे और सुखी जीवन के उपायों पर था। शेष दो ४५ वर्ष के बाद से अन्त तक के जीवन के बारे में था। श्रीमतीजी के साथ दो विषय, पहली गाँव की पोखरी और दूसरी एक चर्चित पुस्तक थी।


इरावती कर्वे की पुस्तक “युगान्त” पर की गयी चर्चा अत्यन्त रोचक लगी। महाभारत के विशिष्ट पात्रों के समीक्षात्मक विश्लेषण पर और मराठी भाषा में लिखी गयी इस पुस्तक को “साहित्य अकादमी” के द्वारा पुरुस्कृत किया गया था। यद्यपि यह पुस्तक अब तक नहीं पढ़ी थी पर चर्चा सुनने के बाद पढ़ने का मन बन गया।


महाभारत के पात्र सबको अपने जैसे ही लगते हैं। कभी लगता है कि संभवतः मैं भी ऐसा करता, कभी लगता है कि उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिये था। भावों की यह निकटता तभी आती है जब विचार, संस्कार आदि मिलते हों। आपकी मन की मानवीय दुर्बलताओं और चपलताओं को किसी न किसी पात्र में आश्रय मिल जाता है। रामायण कलियुग से अधिक दूर है और अधिक आदर्शवादी, महाभारत निकट भी है और अत्यन्त व्यवहारिक भी। कृष्ण तो लीलामय हैं ही पर शेष सभी पात्र कोई न कोई विशिष्टता लिये हुये हैं।


बात भीष्म की उठी। कुरुवंश के वरिष्ठतम ने अपने सामने अपने कुल का विनाश देखा और कुछ न कर सके। आज्ञाकारी की भाँति अधर्म की ओर से लड़े भी। चर्चा में इरावती कर्वे के विचारों के साथ ज्ञानदत्तजी और भाभीजी के विचार भी सामने आये। कई बिन्दुओं पर भीष्म के व्यवहार को ठीक नहीं माना गया। यह भी कहा गया कि उन्हें उस समय उल्टा करना चाहिये। जिन स्थानों पर उन्होंने भीषणता दिखायी उसके अतिरिक्त कई अन्य स्थानों पर भी उन्हें कठोर होना चाहिये था।


मेरे मन में भी सदा ही भीष्म के लिये प्रश्न रहे हैं। मुझे कई बार लगा कि भीष्म समय के साथ बदल सकते थे, प्रयोगधर्मी हो सकते थे। कई स्थानों पर उनका मौन रहना विशेषकर व्यथित कर गया। वचनों से, निष्ठा से तो उन्हें दशरथ के समकालीन होना था जो कैकेयी के अनर्गल वचन सुनकर भी शान्त रह गये।


भीष्म के मन में क्या रहा होगा? उनकी सामर्थ्य पर कौन सा ग्रहण पड़ गया था? बिना इन प्रश्नों के उत्तर पाये उन पर क्रोध भी तो नहीं आता है। पता नहीं, पर मैं भी कभी भीष्म हो जाता हूँ, कहाँ रह पाता हूँ प्रयोगधर्मी?


गंगा किनारे ज्ञानदत्तजी के साथ कुछ पल


17.7.21

याद बहुत ही आते पृथु तुम


सभी खिलौने चुप रहते हैं, भोभो भी बैठा है गुमसुम ।

बस सूनापन छाया घर में, याद बहुत ही आते पृथु तुम ।।

 

पौ फटने की आहट पाकर, रात्रि स्वप्न से पूर्ण बिताकर,

चिड़ियों की चीं चीं सुनते ही, अलसाये कुनमुन जगते ही,

आँखे खुलती और उतरकर, तुरत रसोई जाते पृथु तुम ।

याद बहुत ही आते पृथु तुम ।।१।।

 

जल्दी है बाहर जाने की, प्रात, मनोहर छवि पाने की,

पहुँचे, विद्यालय पहुँचाने, बस बैठाकर, मित्र पुराने,

कॉलोनी की लम्बी सड़कें, रोज सुबह ही नापे पृथु तुम ।

याद बहुत ही आते पृथु तुम ।।२।।

 

ज्ञात तुम्हे अपने सब रस्ते, पथ बतलाते, आगे बढ़ते,

रुक, धरती पर दृष्टि टिकी है, कुछ आवश्यक वस्तु दिखी है,

गोल गोल, चिकने पत्थर भर, संग्रह सतत बढ़ाते पृथु तुम ।

याद बहुत ही आते पृथु तुम ।।३।।

 

धूप खिले तब वापस आना, ऑन्टी-घर बिस्कुट पा जाना,

सारे घर में दौड़ लगाकर, यदि मौका तो मिट्टी खाकर,

मन स्वतन्त्र, मालिश करवाते, छप छप खेल, नहाते पृथु तुम ।

याद बहुत ही आते पृथु तुम ।।४।।

 

तुम खाली पृथु व्यस्त सभी हैं, पर तुम पर ही दृष्टि टिकी हैं,

शैतानी, माँ त्रस्त हुयी जब, कैद स्वरूप चढ़ा खिड़की पर,

खिड़की चढ़, जाने वालों को, कूकी जोर, बुलाते पृथु तुम ।

याद बहुत ही आते पृथु तुम ।।५।।

 

और नहा पापा जब निकले, बैठे पृथु, साधक पूजा में,

लेकर आये स्वयं बिछौना, दीप जलाकर ता ता करना,

पापा संग सारी आरतियाँ, कूका कहकर गाते पृथु तुम ।

याद बहुत ही आते पृथु तुम ।।६।।

 

यदि घंटी, पृथु दरवाजे पर, दूध लिया, माँ तक पहुँचाकर,

हैं सतर्क, कुछ घट न जाये, घर से न कोई जाने पाये,

घर में कोई, पहने चप्पल, अपनी भी ले आते पृथु तुम ।

याद बहुत ही आते पृथु तुम ।।७।।

 

दे थोड़ा विश्राम देह को, उठ जाते फिर से तत्पर हो,

आकर्षक यदि कुछ दिख जाये, बक्सा, कुर्सी, बुद्धि लगाये,

चढ़ सयत्न यदि फोन मिले तो, कान लगा बतियाते पृथु तुम ।

याद बहुत ही आते पृथु तुम ।।८।।

 

सहज वृत्ति सब छू लेने की, लेकर मुख में चख लेने की,

कहीं ताप तुम पर न आये, बलपूर्वक यदि रोका जाये,

मना करें, पर आँख बचाकर, वहाँ पहुँच ही जाते पृथु तुम ।

याद बहुत ही आते पृथु तुम ।।९।।

 

सबसे पहले तुमको अर्पित, टहल टहल खाना खाओ नित,

देखी फिर थाली भोजनमय, चढ़कर माँ की गोदी तन्मय,

पेट भरा, पर हर थाली पर, नित अधिकार जमाते पृथु तुम ।

याद बहुत ही आते पृथु तुम ।।१०।।

 

मन में कहीं थकान नहीं है, दूर दूर तक नाम नहीं है,

पट खोलो और अन्दर, बाहर, चढ़ बिस्तर पर, कभी उतरकर,

खेल करो, माँ को प्रयत्न से, बिस्तर से धकियाते पृथु तुम ।

याद बहुत ही आते पृथु तुम ।।११।।

 

इच्छा मन, विश्राम करे माँ, खटका कुछ, हो तुरत दौड़ना,

खिड़की से कुछ फेंका बाहर, बोल दिया माँ ने डपटाकर,

बाओ कहकर सब लोगों पर, कोमल क्रोध दिखाते पृथु तुम ।

याद बहुत ही आते पृथु तुम ।।१२।।

 

यदि जागो, संग सब जगते हैं, देख रहे, पृथु को तकते हैं,

पर मन में अह्लाद उमड़ता, हृद में प्रेम पूर्ण हो चढ़ता,

टीवी चलता, घूम घूमकर, मोहक नृत्य दिखाते पृथु तुम ।

याद बहुत ही आते पृथु तुम ।।१३।।

 

ऊपर से नीचे अंगों की, ज्ञान परीक्षा होती जब भी,

प्रश्न, तुरत ही उत्तर देकर, सम्मोहित कर देते हो पर,

जब आँखों की बारी आती, आँख बहुत झपकाते पृथु तुम ।

याद बहुत ही आते पृथु तुम ।।१४।।

 

शाम हुयी, फिर बाहर जाना, डूबे सूरज, आँख मिलाना,

देखेंगे चहुँ ओर विविधता, लेकर सबको संग चलने का,

आग्रह करते, विजय हर्ष में, आगे दौड़ लगाते पृथु तुम ।

याद बहुत ही आते पृथु तुम ।।१५।।

 

मित्र सभी होकर एकत्रित, मिलते, जुलते हैं चित परिचित,

खेलो, गेंद उठाकर दौड़ो, पत्थर फेंको, पत्ते तोड़ो,

और कभी यदि दिखती गाड़ी, चढ़ने को चिल्लाते पृथु तुम ।

याद बहुत ही आते पृथु तुम ।।१६।।

 

चलती गाड़ी, मन्त्रमुग्ध पृथु, मुख पर छिटकी है सावन ऋतु,

उत्सुकता मन मोर देखकर, मधुरिम स्मृति वहीं छोड़कर,

शीश नवाते नित मन्दिर में, कर प्रदक्षिणा आते पृथु तुम ।

याद बहुत ही आते पृथु तुम ।।१७।।

 

दिन भर ऊधम, माँ गोदी में, रात हुयी, सो जाते पृथु तुम,

शान्तचित्त, निस्पृह सोते हो, बुद्ध-वदन बन जाते पृथु तुम ।

याद बहुत ही आते पृथु तुम ।।१८।।


15.7.21

सात चक्र - सरलीकरण

 

योग शब्द युज् धातु से आया है। युज् घातु तीन अर्थों में प्रयुक्त होती है। संस्कृत व्याकरण में लगभग २००० धातुयें हैं जो १० गणों में विभक्त हैं। हर गण का एक विकिरण प्रत्यय होता है जिससे उसके रूप भिन्न होते हैं। युज् धातु भी तीन गणों में है और हर गण में उसका भिन्न अर्थ है। रोचक यह भी है कि सारी धातुयें किसी क्रिया को ही बताती हैं। धातुओं से ही सारे शब्द उत्पत्ति पाते हैं अतः यह तथ्य शब्द के उत्पत्ति के क्रियात्मक मूल को सिद्ध करता है। शब्दों के मूल में जाने से उसमें निहित क्रियायें और सन्निहित गुण पता चलते हैं। उदाहरण के लिये राम शब्द रम् धातु से आया है, अर्थ है रमना, क्रीडा करना, प्रसन्न होना। राम का शाब्दिक अर्थ है, जो हर्षदायक हो। इसी प्रकार जल या अग्नि के लिये प्रयुक्त भिन्न शब्द उनके भिन्न गुणों को व्यक्त करते हैं।


युज् धातु के तीन अर्थ इस प्रकार हैं।

  1. युज् समाधौ (४.७४) - चित्त स्थिर करना, बराबर स्थित होना, समत्व में होना। समाधि (सम आ धा), धा धारणे।
  2. युज् योगे (७.७) - जुड़ना, मिलना, एकत्र करना।
  3. युज् संयमने (१०.३३८) - संयत करना, बाँधना, वश में रखना। संयम (सम् यम), यम उपरमे।

उपरोक्त तीनों ही अर्थ योग प्रक्रिया को समझने में सहायक हैं। ये अर्थ पिछले ब्लाग में वर्णित योगसूत्र और गीता के तीन कथनों को और भी स्पष्ट करते हैं। पहले और दूसरे अर्थ स्थितिबोधक हैं, तीसरा अर्थ प्रक्रियाबोधक हैं। शब्द का अर्थ या अर्थ का मन्तव्य समझने में यदि कोई संशय रहता है तो उसकी धातु का विश्लेषण कर हम तात्पर्य समझ सकते हैं। 


योग के अर्थ, सिद्धान्त और व्यवहार को तो क्रमशः व्याकरण, योगसूत्र और गीता के माध्यम से समझा जा सकता है पर उनको जीवन में प्रयुक्त करने में सतत प्रयत्न करना पड़ता है। अष्टाङ्गयोग की प्रक्रिया और योगेश्वर की व्याख्या अन्ततः उस वर्तमान पर आकर ठहरती है जिसे हमें निभाना होता है। वही हाथ में रहता भी है और कुछ नियन्त्रण में भी। सारे के सारे उपाय, ज्ञान, उपक्रम उसी एक क्षण को निभाने के लिये आपको तैयार करते हैं, जिसे वर्तमान कहा जाता है। जो हो रहा है, यत वर्तते, वह वर्तमान। आने के पहले वह भविष्य था, बीतते ही वह भूत हो जाता है, एक क्षण ही है वर्तमान। विस्तार करना चाहें तो जीवन कम पड़ जायेंगे और संक्षिप्त करें तो एक क्षण में सिमट जाता है सब कुछ। अनुभव अन्ततः यही सिखाता है कि वर्तमान को कैसे निभायें। 


काल बड़ा निर्दयी होता है। वर्तमान के उसी एक क्षण में ही हमें संकुचित कर देता है, न एक क्षण उधर, न एक क्षण इधर। यदि उस क्षण पर भी हमारा नियन्त्रण न रहा तो कुछ भी नियन्त्रण में नहीं रहेगा। यदि कर्तव्य के उस क्षण में हम भूत या भविष्य के विकल्प में उलझे रहे तो कुछ भी नहीं मिलेगा। जो भी हमें तैयारी करनी है, जो भी हमें संस्कार डालने हैं, उसी एक क्षण को निभाने के लिये, जो वर्तमान है। गीता(४.६) में कृष्ण कहते हैं कि मृत्यु के क्षण हमारी मनोदशा हमारा नया जन्म निश्चित कर देती है, अतः अन्तकाल में कृष्ण का स्मरण करना चाहिये। साधकों के सारे जीवन बस इसी तैयारी में निकल जाते हैं कि मृत्यु के क्षण में वह शक्ति और सामर्थ्य रहे कि ईश्वर का स्मरण मन में रह सके।


मृत्यु का क्षण दो जन्मों को विभक्त करता है अतः उस पर प्रयुक्त मनःस्थिति महत्वपूर्ण दिखती है। वर्तमान के क्षण को भी इसी परिप्रेक्ष्य में देखें तो वह भी महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि अगले ही क्षण मन की एक नयी स्थिति होती है, एक नया जन्म होता है। अनुभव के आधार पर वर्तमान के उसी क्षण को निभाने के सरल से कुछ प्रयास करता हूँ। समर्थ नहीं हूँ, बहुधा काल के द्वारा ढकेल दिया जाता हूँ। मानसिक दुर्बलतायें प्रबल हो जाती हैं, जो चाहता हूँ, जो सोचता हूँ, वह नहीं कर पाता हूँ। फिर भी सभी प्रयासों को कोटिबद्ध कर व्यक्त कर रहा हूँ। 


  1. स्मृतियों को निष्कर्ष दें। राग, द्वेष से उन्हें मुक्त करें। अस्मिता (यह मैंने किया है) से बचें। टालना उचित नहीं हैं, यदि ऐसा किया तो वे पुनः लौटकर आयेंगी। यथासंभव उनकी तीक्ष्णता मन्द करें।
  2. कल्पना सृजनशीलता के लिये तो अच्छी है पर कब वह चिंता के ग्रास में चली जाती है, पता ही नहीं चलता है। कार्यविशेष से ही भविष्य में विचरण करें और शीघ्र ही वर्तमान में लौट आयें। बीच में अपने से प्रश्न अवश्य पूछें कि यह चिंता किस चिन्तन की भटकन है?
  3. कुछ ज्ञान प्राप्त कर रहे हैं, कुछ पढ़ रहे हैं, सुन रहे हैं या देख रहे हैं तो उस समय और किसी विचार को न आने दें, सप्रयास। मन उकता जाता है, भागता है। ध्यान का तनिक अभ्यास इसमें सहायक होता है। बीच बात में बोलने के क्रम पर संयम रखे। यह इसलिये होता है कि हम सुनते समय सीखने के स्थान पर सोचने लगते हैं और स्वयं को व्यक्त करना चाहते हैं।
  4. किसी कर्म में लगे हो तो तन्मय होकर करें, शत प्रतिशत। एक साथ कई कार्य करने से दोनों से ही न्याय नहीं होता है और मन भटकता है सो अलग। एकाग्रता से समय, ऊर्जा की बचत तो होती ही है, साथ में कार्य की गुणवत्ता भी स्तरीय होती है। सम्यक रूप से निष्पादित कर्म तृप्ति की अनुभूति कराता है, अपने निष्कर्ष को पा जाता है, अन्यथा स्मृतियों में नहीं आता है।
  5. जब विश्राम करने जायें, इतना क्लान्त हो जायें कि मन को भ्रमण करने के लिये कुछ अवसर ही न मिले। निद्रा के हर क्षण में शरीर स्वयं को ऊर्जा से पुनः पूर्ण भरता रहे, प्रतिदिन। दिनभर के अतृप्त क्षण, अतृप्त निष्कर्ष रात्रि में आपको असहाय पा हाहाकार न मचाने पायें, इसके लिये आवश्यक है कि उनको यथासंभव, यथाप्रयास और यथासमय निष्कर्ष पर पहुँचाया जाये।  
  6. जब कुछ करने को न हो, कुछ जानने को न हो, स्मृति और कल्पना में मन आड़ोलित न हो, मन चैतन्य हो, तब शान्त बैठकर स्वयं को ही निहारें। प्रश्नों को पूछें, उत्तरों को ढूढ़ें। यह एकान्त अन्वेषण कई उलझनों को सुलझा देता है। एकान्त न सह पाने की प्रवृत्ति तभी आती है जब हम प्रश्नों से भागना चाहते हैं। हमें यह भय रहता है कि संभावित उत्तर हमको उद्वेलित कर जायेंगे, हमारे तथाकथित स्थिर जीवन को अस्थिर कर जायेंगे। मुझे तो लगता है कि जीवन के सर्वाधिक उत्पादक क्षण वे थे जब हाथ में कुछ करने को नहीं था, मन में कुछ सोचने को नहीं था।


प्रयास करता हूँ कि वर्तमान में जी सकूँ। बहुधा भटकता हूँ पर यथासम्भव वापस लौटने का प्रयत्न करता हूँ।