29.6.13

महीने भर का ऱाशन या महीने भर का लेखन

सप्ताहान्त के दो दिन यदि न होते तो संभवतः सृष्टि अब तक विद्रोह कर चुकी होती, या सृष्टि तब तक ही चल पाती, जब तक चलने दी जाती। वे सारे कार्य जो आदेश रूप में आपको मिलते रहते हैं, अपना ठौर ढूढ़ने तब भला कहाँ जाते? अच्छा हुआ कि सप्ताहान्त का स्वरूप बनाया गया, और भी अच्छा हुआ कि उसे एक दिन से बढ़ा कर दो दिन कर दिया गया। अब न जाने कितने छोटे मोटे कार्य तो अपने आप ही हो जाते हैं, इसलिये कि कहीं दो दिनों में उनको ढंग से निचोड़ न डाले हम। बड़े बड़े कार्य, जैसे कहीं दूर देश घूमकर आना, ये सारे कार्य भी वरिष्ठों की कृपा की जुगत से हो ही जाते है। जहाँ तक उत्पादकता के प्रश्न हैं, तो देश हर दिन प्रगतिमान है। पहले ६ दिनों में जो निष्क्रिय काल होता था, उसे एक दिन के अवकाश में बदलने के बाद भी शेष पाँच दिनों में लोगों के पास इतना समय रहता है कि अपना कार्य करने के अतिरिक्त बहुत लोग विदेश के आर्थिक संस्थानों की रोजी रोटी चलाते रहते हैं। राज्य सरकारों में कार्यरत बान्धव इससे तनिक ईर्ष्यालु हो उठेंगे, उन्हें अभी भी ६ दिन खटना होता है, पर हर दिन एक डेढ़ घंटा कम।

जब दृष्टि फैलती है तब दृश्य विस्तारित हो जाता है, जब सृष्टि फैलती है तब व्यवस्था विस्तारित हो जाती है, पर जब से सप्ताहान्त फैला है तब से हमें मिलने वाला समय और कम हो चला है। कहते हैं कि जब धन कम रहता है तो व्यक्ति सोच समझ कर व्यय करता है, पर अधिक धन में व्यय भी अधिक होने लगता है और बहुधा व्यर्थ ही हो जाता है। अब घर में सबको कम से कम इतना तो ज्ञात है कि सप्ताहान्त के दो दिन हम सबकी सेवा में लगे रहेंगे। कभी कभी आवश्यक प्रशासनिक कार्य निकल आते हैं, पर प्रशासकों को भी घरेलू कार्य पकड़ाने वालों की कृपा से कनिष्ठगण बचे रहते हैं, कृतज्ञ बने रहते हैं।

मुख्यतः तीन कार्य रहते हैं, बच्चों को कहीं घुमाना, घर का राशन आदि लाना और लेखन कर्म करना। तीन कार्य होने से कई बार व्यस्तता बनी रहती है और विश्राम का समय नहीं मिल पाता है। कई बार सोचा कि इन्हें किस प्रकार सुव्यस्थित करें कि सबके लिये समुचित समय मिल जाये।

बच्चों का कार्य तो अत्यावश्यक है और किसी प्रकार भी टाला नहीं जा सकता है, उसको टालने का सोचते ही दो ओर से ऊष्मा आने लगती है, बच्चे और बच्चों की माँ एक ओर हो जाते हैं। एक सप्ताह में किसी एक स्थान पर ले जाने से ही कार्य चल जाता है, कभी कभी जब व्यस्तता अधिक होती है तो उनको भी हम पर दया आ जाती है और मॉल आदि घूमने से ही कार्य चल जाता है। इस कार्य से हमें सर्वाधिक विश्राम तब मिलता है जब उनके विद्यालयों में सप्ताहान्त के लिये ढेर सारा कार्य पकड़ा दिया जाता है, उस गृहकार्य के लिये विषय सामग्री जुटाने में ही उनका सारा समय निकल जाता है और कहीं घूमने जाने की सुध भी नहीं रहती है उन्हें। उन्हें कार्य के बोझ में डूबा देख अच्छा तो नहीं लगता है, पर क्या करें, समय मिल जाता है अपने लिये तो वह दुख कम भी हो जाता है। पिछले कुछ माह से लग रहा है कि उनके विद्यालय के शिक्षकगण दयालु प्रकृतिमना हो चले हैं अतः अधिक कार्य नहीं दे रहे हैं, फलस्वरूप हर सप्ताह कहीं न कहीं घूमना हुआ जा रहा है।

घर का राशन लाना भी प्रमुखतम कार्यों में एक है, यदि वह नहीं किया गया तो उपवास की स्थिति आ सकती है। न केवल वह कर्म प्राथमिकता से करना होता है, वरन मन लगा कर भी करना होता है। जल्दी जल्दी करने के प्रयास में जितना समय बचता है, उससे दस गुना अधिक समय घर में न जाने कितने ताने सुनने में चला जाता है, हर प्रकार के और हर प्रकार से। जो सूची हाथ में आती है उसका अनुपालन अनुशासनात्मक आदेश की तरह निर्वाह किया जाता है। हर बार बस यही प्रयास कि पिछली बार से अच्छा सामान लाकर अधिक अंक बटोर लिये जायें।

इन दो महाकर्मों के बाद रहा सहा जो समय शेष बचता है, वह सप्ताह में लिखे जाने वाली दो पोस्टों को सोचने और लिखने में निकल जाता है। अब उस समय लिखने का वातावरण हो न हो, मन में विचार श्रंखला निर्मित हो न हो, निर्बाध समय मिले न मिले, कई अन्य कारक रहते हैं जिन पर सीमित लेखन की आस टिकी रहती है। कई बार तो ऐसा भी होता है कि कोई पोस्ट आधी ही लिखी जा पाती है और अपने अधपके रूप में छपने के एक दिन पूर्व तक गले में अटकी रहती है। बहुधा व्यग्रता का स्तर ख़तरे के निशान के ऊपर बना रहता है।

सप्ताहान्त के आकारों और प्रारूपों पर ढेर सा चिन्तन मनन करने के पश्चात हम श्रीमती जी से बोले कि क्या ऐसा नहीं हो सकता कि आप महीने भर का राशन एक बार ही बता दें, एक बार में ही जाकर सारी आवश्यकतायें पूरी कर ली जायें। शेष सप्ताहान्तों का उपयोग हम लेखन के लिये करें। प्रस्ताव सशक्त था, यदि महीने भर में एक ही बार जाना हो तो शेष तीन सप्ताहान्तों का उपयोग निर्बाध लेखन के लिये किया जा सकता है। प्रस्ताव उन्होंने कुछ पल के लिये और हमारे सामने एक प्रति प्रस्ताव रख दिया। क्यों न हम ऐसा करें कि महीने भर का लेखन एक सप्ताहान्त में बैठकर कर लें और शेष समय घर के कार्यों में लगाया जाये?

कभी कभी जब चलाया हुआ तीर या कहा हुआ शब्द घूमकर वापस आ जाता है तो उत्तर देते नहीं बनता है। इसमें दो संकेत स्पष्ट थे। पहला हमारा लेखनकर्म घर के कार्यों में सम्मिलित नहीं था, वह प्रवासी के रूप में पिछले ४-५ वर्षों से इस घर में रह रहा था और घर के सामान्य कार्यों को बाधित कर रहा था दूसरा यह कि यह एक पूर्ण रूप से भौतिक व श्रममार्गी कार्य था। यदि एक लेख ३ घंटे में लिखा जा सकता है तो महीने भर में छपने वाले ८-९ लेखों के लिये २४-२५ घंटे पर्याप्त हैं। उन्हें एक के बाद एक, बिना मानसिक या शारीरिक विश्राम के लिखा जा सकता है।

हम कल्पना में डूब गये कि यदि सच में ऐसा होगा तो क्या होगा? कल्पना कठिन नहीं है, तीन चार लेख पूरे होते होते शब्द घूमने लगेंगे, विचार छिटकने लगेंगे, भ्रम गहराने लगेगा और अन्ततः कपाल निचुड़ने की स्थिति में पहुँच जायेगा। हमें लगा कि प्रति प्रस्ताव हमारे लेखन को पूर्णरूपेण धूलधूसरित करने के लिये रखा गया है। हमने समझाने का प्रयास किया कि माह भर का राशन तो एक साथ आ सकता है पर माह भर का लेखन एक साथ बाहर नहीं आ सकता। सृजन कर्म की गति मध्यम होती है, जबकि पाँच किलो की बोरी के स्थान पर दस किलो की बोरी आ सकती है।

अब हमारे चिन्तन के स्थान पर प्रति चिन्तन प्रारम्भ हो गया, उत्तर आया कि महीने भर क्या क्या बनाना है, यह एक बार में कैसे निर्धारित किया जा सकता है? मान लिया हम लोग अपने लिये कोई भोजनचर्या नियत भी कर लें, पर तब क्या होगा जब कोई अतिथि आयेगा, तब क्या होगा जब कोई बच्चा हठ करेगा, तब क्या होगा जब आपको सहसा कुछ विशेष खाने का मन करने लगेगा? जीवन इस प्रकार से एकरूपा चलाने से उसमें घोर नीरसता आ जायेगी।

हम दोनों अपने तर्कों पर अड़े हैं और जहाँ पर खड़े थे, बस वहीं पर ही खड़े हैं। क्या माह में एक बार के स्थान पर माह में दो बार का प्रस्ताव धरा जाये? माह में तीन बार के स्थान पर दो बार लेखन करने से लेखन की गुणवत्ता तो प्रभावित होगी पर घर के खान पान आदि में विविधता बढ़ जायेगी। सुधीजनों का और अनुभव के पुरोधाओं का क्या मत है?

26.6.13

बोझ प्रधान देश का बचपन

मुझे लगता है कि बोझ का जितना स्तर अपने देश में है, उतना विश्व के किसी देश में नहीं है। कोई ऐसे तथ्य तो नहीं हैं जिनके आधार पर मैं यह सिद्ध कर पाऊँ, पर लगता है कि यह ही सत्य हैं।

वैसे कहने को तो सारे तथ्य होने के पश्चात भी लोग सत्य स्थापित नहीं कर पाते हैं, तर्क होने के बाद भी कुछ सिद्ध नहीं कर पाते हैं, सिद्ध करने के बाद उसे क्रियान्वित नहीं कर पाते हैं। जिनके पास कुछ भी नहीं होता, उनके पास बस सत्य होता है, वे कह देते हैं और सब मान भी जाते हैं। जब तक गुणीजन उसे असिद्ध कर सकते हैं, वह सत्य बना रहता है। कभी कभी ऐसे सत्य राजनैतिक गरिमा के लिये तो कभी अपने को समझाने के लिये टपकाये जाते हैं।

हम भी इसी तरह का सत्य टपका रहे हैं, कि भारत के बच्चे सर्वाधिक दबे हैं, हर तरह के बोझ से, जीवन के बोझ से। तर्क को उल्टे सिरे से पकड़ते हैं और इसे असिद्ध करने का प्रयास करते हैं। यदि असिद्ध न कर पाये तो तर्क सिद्ध माना जायेगा, स्थापित सत्यों की तरह। जैसा लगता है कि जितनी हमारी सामर्थ्य है, हम असिद्ध करने को बड़ा कठिन मानते हैं और वहाँ तक नहीं पहुँच पाते हैं। चलिये कठिन ही सही, असिद्ध करने का प्रयास करते हैं।

असिद्ध करने का पहला स्तर है, स्वयं का, विशेषकर स्वयं के अनुभव का। यदि हमारा बचपन आनन्द में बीता हो, पढ़ाई का तनिक भी बोझ न पड़ा हो, तो प्रस्तुत सत्य असत्य माना जायेे। बचपन में एक तथ्य बड़ी स्पष्टता से समझ आ गया था कि यदि भविष्य आर्थिक रूप से सुरक्षित चाहिये तो पढ़ते रहना पड़ेगा, न केवल पढ़ना पड़ेगा, वरन अपनी कक्षा की ऊपरी बौद्धिक सतह में टिके रहना पड़ेगा। मन्त्र न केवल समझाया गया वरन पड़ेसियों के कई उदाहरणों के द्वारा सिद्ध भी किया गया। देखो उनको, बचपन में पढ़ने की जगह खेलते रहे, अब जीवन के दुख भोग रहे हैं।

कभी कभी कुछ भय अकारण ही दिखाये जाते हैं, पर यह भय सच था। थोड़ा बड़ा होने पर पता लग गया कि प्रतियोगी परीक्षाओं में सफल प्रतियोगियों का प्रतिशत प्रयासरत प्रतियोगियों का पाँच प्रतिशत भी नहीं। प्रथम पाँच में रहना है तो, पुस्तकों को सर पर धरे चलना ही होगा, जागते समय भी, सोते समय भी। भारत में मध्यमवर्ग की बहुलता है और उनकी आर्थिक बचत एक पीढ़ी के परे जा भी नहीं पाती है। यदि कोई नौकरी नहीं मिली तो अगली पीढ़ी निम्न मध्यमवर्ग और उसकी अगली पीढी सीधे गरीबी रेखा के नीचे।

स्थापित व्यवसाय और परम्परागत आर्थिक आधार टूटने के कारण सारे बच्चों को नौकरी के राह पर जूझना स्वाभाविक है। नौकरियों का आश्रय केवल उन्हें ही मिल पाता है जो पढ़ने में और उसे परीक्षाओं में उगल देने में अच्छे होते हैं। शेष जूझते हैं, शेष जीवन। बोझ का बोध रहता ही है, जीवन के पूर्वार्ध में या जीवन के उत्तरार्ध में।

कभी सोचा कि कितना अच्छा होता कि हमारा देश भी विकसित होता, हर गाँव में एक तेल का कुँआ होता, एक सोनी के सामानों की फैक्टरी होती। रुचि और आवश्यकता अनुसार ज्ञान प्राप्तकर हम भी कहीं लग जाते। दुर्भाग्य ही है हमारे देश का कि हम जनसंख्या और भ्रष्टाचार में तो अग्रणी हैं, पर औद्योगिक विकास और अनुशासन में पिछड़े हुये हैं।

विदेशों में बच्चे राज्य के अनमोल उपहार माने जाते हैं, उन पर किसी प्रकार का अत्याचार अपराध की श्रेणी में आता है। स्वास्थ्य और शिक्षा राज्य का कर्तव्य होता है और बड़े होने पर उन्हें अपना व्यवसाय स्थापित करने के लिये पर्याप्त आर्थिक सहायता मिलती है। हमारे यहाँ जिन बच्चों को शिक्षा का आग्रही बोझ नहीं मिल पाता है, हमारा आर्थिक तन्त्र उन्हें और उनके बचपन को बालश्रम के माध्यम से सोख लेता है।

कहते हैं कि संघर्ष व्यर्थ नहीं जाता है, जितना जूझेंगे उतना निखरेंगे। जिन उन्नत क्षेत्रों के लिये हमें अपनी जुझारू क्षमता बचाकर रखनी थी, उनके स्थान पर हम सारी ऊर्जा प्रतियोगी परीक्षाओं की उन पुस्तकों को रटने में और हल करने में लगा देते हैं जिनकी उत्पादकता केवल प्रतियोगी परीक्षाओं को उत्तीर्ण करने तक ही सीमित रहती है। नौकरी मिल जाने के बाद उनकी उपयोगिता शून्य हो जाती है। हमने ज्ञान के पहाड़ पढ़ डाले, उनका उपयोग अब कुछ भी नहीं, छूछे कीर्तमान स्थापित कर डाले, उनका उपयोग अब कुछ भी नहीं। बौद्धिक उत्कृष्टता के आधार पर तकनीक के जिन क्षेत्रों में हमें आगे होना था, वे हमारे ध्येय में रहे ही नहीं। संभवतः जिस दिन प्रतियोगी परीक्षाओं के बोझ से हमें मुक्ति मिलेगी, उस दिन हम अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अपना हित अहित समझ पायेंगे।

जिस भय को हमने जिया है, जिस तन्त्र का गरल हमने पिया है, उसी में अपने बच्चों को जाते देख मन पीड़ा से कराह उठता है। हृदय कहता है कि उन्हें अपना बचपन सिद्ध करने दो, उड़ना सीख गये तो आकाश से अपना लक्ष्य साझ ही लेगे। बुद्धि कहती है कि इस देश में कहाँ से उड़ पायेगा बच्चा।, उसे अपने कंधों पर आर्थिक सुनिश्चितता और सामाजिक आकांक्षाओं का बोझ जो उठाना है।

उपरोक्त कहे सत्य को असिद्ध करने के जितने भी तर्क एकत्र करता हूँ, मन उतना ही भारी हो जाता है। काश मेरा कथन असिद्ध हो जाये, आज नहीं तो कल, देश के बच्चे भी शिक्षा और आर्थिक तन्त्र के बीच बैल की तरह जुते न दिखायी दें। 

22.6.13

औरों को हम

आदर्शों की छोटी चादर,
चलो ढकेंगे,
औरों को हम।

आंकाक्षा मन पूर्ण उजागर,
चलो छलेंगे,
औरों को हम।

इसकी उससे तुलना करना,
चलो नाप लें,
औरों को हम।

निर्णायक बन व्यस्त विचरना,
चलो ताप लें,
औरों को हम।

हमने ज्ञान निकाला, पेरा,
चलो पिलायें,
औरों को हम।

बिन हम जग में व्याप्त अँधेरा,
चलो जलायें,
औरों को हम।

पूर्ण नियन्त्रण, ध्येय महत्तम,
चलो बतायें,
औरों को हम।

फिर क्यों उछलें, अत्तम-बत्तम,
चलों सतायें,
औरों को हम।

काँटे जन जन, पुष्प मधुर हम,
चलो सजा दें, 
औरों को हम।

सुप्त प्राण, हो गुञ्जित मधुबन,
चलो बजा दें,
औरों को हम।

जब हम जागे,
तभी सभी का उदित सबेरा,
जब हम आगे,
तब विकास पथ रत्न बिखेरा,

हम तो हम हैं,
तुम हो, तम है,
हम साधेंगे, सारी रचना,
हम ढोते हैं, जग संरचना,
धर्म हमारा, कर्म हमारा,
न समझो तुम मर्म हमारा,

औरों के हम, समझे जन जन,
यही सिखाते, औरों को हम।

19.6.13

जो है, सो है

अपने मित्र आलोक की फेसबुक पर बदले चित्र पर ध्यान गया, उसमें कुछ लिखा हुआ था। आलोक प्रमुखतः चित्रकार हैं और उसके सारे चित्रों में कुछ न कुछ गूढ़ता छिपी होती है, अर्थभरी कलात्मकता छिपी रहती है। आलोक बहुत अच्छे फोटोग्राफर भी हैं और उनकी मूक फोटो बहुत कुछ कहती हैं। आलोक को पढ़ते पढ़ते दार्शनिकता में डुबकी लगाने में भी रुचि है, उनसे किसी भी विषय पर बात करना एक अनुभव है, हर बार कुछ न कुछ सीखने को मिल जाता है।

चित्र में उनके रेत पर चलते हुये पैर का धुँधला दृश्य था, उनके ही पैर का होगा क्योंकि आलोक गोवा में रहते हैं। उस पर लिखा था, Whatever is could not be otherwise - Eckhart Tolle. अर्थ है, जो है, वह उससे इतर संभव नहीं था। या कहें कि जो है, वह उसके अतिरिक्त कुछ और हो भी नहीं सकता था। पर इसे पढ़ते ही मेरे मन मे जो शब्द आये, वे थे, 'जो है, सो है'।

जो है, सो है। बड़े दार्शनिक शब्द हैं ये। समय, व्यक्ति और स्थान की तुलनात्मक जकड़न से सहसा मुक्त करते शब्द हैं ये। न पहले सा समय आ सकता है, न हम औरों से ही बन सकते हैं और न ही हम किसी समय किसी और स्थान पर ही हो सकते हैं। यदि ऐसा होता तो वैसा हो जाता, यदि ऐसा न होता तो वैसा न हो पाता। ऐसे ही न जाने कितने मानसिक व्यायाम करते रहते हैं, हम सभी। ऐसा लगता है कि औरों की तुलना में सदा ही स्वयं को स्थापित करने के आधार ढूढ़ते रहते हैं हम। न जाने कितना समय व्यर्थ होता है इसमें, न जाने कितनी ऊर्जा बह जाती है इस चिंतन में। उस सभी विवशताओं से मुक्ति देता है, यह वाक्य। जो है, सो है।

एक्हार्ट टॉल के लेखन में आध्यात्मिकता की पर्याप्त उपस्थिति रहती है। उनकी लिखी पॉवर ऑफ नाउ नामक पुस्तक आप में से कइयों ने पढ़ी भी होगी। वर्तमान में जीने की चाह का ही रूपान्तरण है, उनकी यह पुस्तक। मन में एकत्र स्मृतियों और आगत के भय में झूलते वर्तमान को मुक्त कराते हैं, इस पुस्तक के चिन्तन पथ। अभी के मूलमन्त्र में जीवन जी लेने का भाव सहसा हर क्षण को उपयोगी बना देता है, जैसा उस क्षण का अस्तित्व है।

मन बड़ा कचोटता है, असंतुष्ट रहता है। कोई कारण नहीं, फिर भी अशान्त और व्यग्र सा घूमता है। कोई कारण पूछे तो बस तुलना भरे तर्क बतलाने लगता है। समय, व्यक्ति और स्थान की तुलना के तर्क। ऐसे तर्क जो कभी रहे ही नहीं। ऐसे जीवन से तुलना, जो हम कभी जिये ही नहीं। क्योंकि हम तो सदा वही रहे, एक अनोखे, जो हैं, सो हैं।

हम पहले जैसे प्रसन्न नहीं हैं, या भविष्य में अभी जैसे दुखी नहीं रहना चाहते हैं, यही तुलना हमें ले डूबती है। क्या लाभ उस समय को सोचने का जिसे हम भूतकाल कहते हैं और जिसे हम बदल नहीं सकते हैं। क्या लाभ उस समय को सोचने का जो आया ही नहीं और जिसकी चिन्ता में हम भयनिमग्न रहते हैं। मन हमें सदा ही तुलना को बाध्य करता रहता है और हम हैं कि उन्हीं मायावी तरंगों में आड़ोलित होते रहते हैं, अस्थिर से, आधारहीन से। वर्तमान ही है जिसे जीना प्रस्तुत कर्म है और हम इसी से ही भागते रहते हैं।

मन हमें या तो भूतकाल में या भविष्य में रखता है, वर्तमान में रहना उसके बस का नहीं। यदि मन वर्तमान में रहना सीख जायेगा तो वह स्थिर हो जायेगा, उसकी गति कम हो जायेगी, उसका आयाम कम हो जायेगा। किसी चंचल व्यक्तित्व को भला यह कैसे स्वीकार होगा कि उसकी गति कम हो जाये या उसके आयाम सिकुड़ जायें।

जब समय की विमा से हम बाहर आते हैं और वर्तमान में रुकते हैं, तब भी मन नहीं मानता है। किसी और स्थान से तुलना करना प्रारम्भ कर देता है, सोचने लगता है कि संभवतः किसी और स्थान में हमारा सुख छिपा है, यहाँ की तुलना में अच्छा विस्तार छिपा है। हमारा मन तब यहाँ न होकर वहाँ पहुँच जाता है और तुलना करने के अपने कर्म में जुट जाता है। यदि उस स्थान से किसी तरह सप्रयास आप वापस आ जायें, तो तुलना अन्य व्यक्तियों से प्रारम्भ हो जाती है।

मन अपनी उथल पुथल छोड़ नहीं सकता है, उसे साथी चाहिये अपने आनन्द में, हमें भी साथ ले डूबता है। मन को उछलना कूदना तो आता है, पीड़ा झेलना उसने कभी सीखा ही नहीं। मन छोटी से भी छोटी पीड़ा हम लोगों को सौंप देता है और चुपचाप खिसक लेता है।

पता नहीं, आलोक की तर्करेखा भी मेरी तर्करेखा से मिलती है या नहीं, कभी पूछा भी नहीं। पर एक स्थान से चले यात्री कुछ समय पश्चात पुनः एक स्थान पर आकर मिल जायें तो पथ का प्रश्न गौड़ हो जाता है। चित्र में एक पथ दिख रहा है, एक पग दिख रहा है, वर्तमान की दिशा का निर्देशित वाक्य दिख रहा है, यह सब देख मुझे तो यही लगता है कि आलोक मेरे पथ पर ही है। वह तनिक आगे होगा, मैं तनिक पीछे। वह तनिक गतिशील होगा, मैं तनिक मंथर।

यह चित्र एक और बात स्पष्ट रूप से बता रहा है, इसमें न पथ का भविष्य दिख रहा है, न पथ का भूतकाल, बस पथ दिख रहा है, बस पग दिख रहा है। सब के सब वर्तमान की ओर इंगित करते हुये। आप भी बस अभी की सोचिये, यहीं की सोचिये, अपने बारे में सोचिये। मैं तो कहूँगा कि सोचिये ही नहीं, सोचना आपको बहा कर ले जायेगा, आगे या पीछे। आप बस रहिये, वर्तमान में, जो है, सो है।

15.6.13

मैकबुक मिनी

नहीं, एप्पल ने किसी नये उत्पाद की घोषणा नहीं की है, यह मेरे नये प्रयोग का नाम है। इसके पीछे एक रोचक कहानी है, एक परिवर्धित सततता है, एक सुनिश्चित योजना है और उत्पादकतापूर्ण उत्साहवर्धन भी।

जिन्होंने मैकबुक एयर को देखा और परखा है, उन्हें यह ज्ञात होगा कि यह सबसे हल्का लैपटॉप है, ११.६ इंच स्क्रीन और भार मात्र एक किलो। उठाने में सुविधाजनक, रखने में सुरक्षित और कम्प्यूटर के मानकों में आधुनिकतम। यही नहीं, बैटरी भी पर्याप्त रहती है, लगभग ६ घंटे। दो वर्ष पहले लिया था और आज भी नया सा ही लगता है। उपयोग भी सघन है, परिचालन, प्रशासनिक, लेखन और ब्लॉग संबंधी सारे कार्य उसी लैपटॉप में ही होते हैं। कुल मिलाकर मेरे द्वारा ६ घंटे औऱ बच्चों द्वारा २ घंटे उपयोग में आता है। लगभग ८ घंटे के उपयोग में दो बार बैटरी चार्ज करनी पड़ जाती है। उपयोगिता की दृष्टि से देखा जाये तो सामान्य से कहीं अधिक मूल्य देने के बाद भी कहीं अधिक संतुष्ट और प्रसन्न हूँ।

कुछ दिन पहले बिटिया का जन्मदिन था। पढ़ाई में पिछले वर्षों की अपेक्षा बहुत अच्छा प्रदर्शन करने के कारण मन प्रसन्न था और उसे कुछ अच्छा उपहार देने का मन बना लिया था, ऐसा उपहार जो आगे भी उसके काम आ सके। सोचा, विचारा और जाकर एप्पल का आईपैड मिनी ले आया। पता नहीं, आप लोग क्या कहेंगे? आप कह सकते हैं कि दस वर्ष की बिटिया को इतना बहुमूल्य उपहार देना एक मूर्खता है। सबने यही कहा कि ऐसे तो आप बच्चों को बिगाड़ देंगे। क्या करें, मुझे लगा कि अभी थोड़ा बहुत गेम खेलेगी, थोड़े बहुत गाने सुनेगी, वीडियो देख लेगी, पर धीरे धीरे पढ़ने और अन्य सार्थक उपयोग में लाने लगेगी। जो भी हो, बिटिया बड़ी प्रसन्न है, सहेलियों के बीच सगर्व लिये घूमती भी है।

आईपैड मिनी मात्र ३०० ग्राम का है, अत्यन्त हल्का, ८ इंच की स्क्रीन और कार्य करने में अत्यधिक सुविधाजनक। छोटी सी बिटिया के हाथ में छोटा सा आईपैड मिनी, उपयुक्त और मेल खाता। रोचकता में ही सही, वह उस पर बहुत कुछ करना सीख गयी। फिर भी तकनीकी रूप से उसमें कुछ भी करने का उत्तरदायित्व मेरा ही था, मैं उसका तकनीकी सलाहकार जो था। इसी बहाने कई बार उसे देखने, समझने और उस पर कार्य करने का अवसर भी मिला। अब बिटिया जब स्कूल जाती थी, उसका लाभ उठा कर उसे कई बार कार्यालय भी ले गया। उसमें कार्य कर बड़ा आनन्द आया। मैकबुक एयर पर किये जाने वाले सारे कार्य बड़ी सरलता से उसमें भी कर सका। धीरे धीरे नशा बढ़ता गया, कार्यालय में आईपैड मिनी अपना अधिकार बढ़ाने लगा, साथ ही लम्बे निरीक्षणों में और वाहन में भी उसका उपयोग करने लगा।

एक बात जो सर्वाधिक प्रभावित कर गयी, वह थी लगभग तीन गुनी बैटरी, बिना एक बार भी चार्ज किये हुये लगभग १५ घंटे। साथ में चार्जर ले जाने की आवश्यकता समाप्त हो गयी। अब एक तिहाई से भी कम भार में तीन गुनी से भी बैटरी, धीरे धीरे उस पर मन डोलने लगा। बहुधा घर में भी उसे उपयोग में लाने लगा, कहीं कोने में चुपचाप, बिटिया से आँँख बचा कर, घंटे भर के लिये।

बस दो समस्यायें हैं, एक तो स्क्रीन पर टाइप करने से टाइपिंग की गति बहुत कम होने लगती है, उतनी नहीं रहती है जितनी एक भौतिक कीबोर्ड में। जब सोच समझ कर लिखना हो तो वह गति अधिक महत्व नहीं रखती, पर जब विचारों का प्रवाह गतिमय हो तो ऊँगलियों को भी और अधिक थिरकना पड़ता है। उसे एक हाथ से पकड़कर दूसरे हाथ से टाइप करने में बायाँ हाथ थोड़ा थकने लगता है और केवल एक हाथ के प्रयोग से टाइपिंग की गति आधी हो जाती है। दूसरा यह कि कीबोर्ड स्क्रीन पर आ जाने से कार्य करने के लिये क्षेत्रफल कम मिलता है और देखने में थोड़ी असुविधा होने लगती है। संभवतः यही दो बिन्दु प्रमुख थे जब टैबलेट के ऊपर वरीयता देकर मैकबुक एयर को खरीदा था।

थोड़ी सुविधा और थोड़ी असुविधा के साथ आईपैड के प्रयोग में मिलाजुला अनुभव हो रहा था। जब तनिक सुविधाभोगी प्रयोग हो तो आईपैड मिनी, जब तनिक गतिमय लेखन हो तो मैकबुक एयर। मेरे इस व्यवहार से सर्वाधिक अड़चन बिटिया को होने लगी। यद्यपि मैकबुक एयर का प्रयोग करते हुये उसे भी कई गेम उस पर अच्छे लगने लगे थे, पर मेरा यह व्यवहार देखकर उसे लगा कि उसके हाथ से कहीं दोनों ही न निकल जायें, जब नहीं तब पिताजी किसी पर भी कार्य करने लगते हैं। एक दिन हमें चेतावनी मिल गयी कि आप किसी एक का ही उपयोग करने का निश्चित कर लें, दूसरा पूरी तरह उसके लिये छोड़ दें।

किसी पुराने नशेड़ी की तरह मुझे भी आईपैड मिनी के प्रयोग में आनन्द आने लगा था। इस चेतावनी के बाद कोई न कोई उपाय ढूढ़ना आवश्यक हो चला था। एक दिन बंगलोर में भ्रमण करते समय लॉजीटेक कम्पनी की नयी खुली दुकान में जाना हुआ। आईपैड मिनी के लिये एक ब्लूटूथ कीबोर्ड देखा, बहुत छोटा और कई प्रकार से उपयोगी। लगा कि इसे लेने से उपरिलिखित दो समस्यायें सुलझ जायेंगी और आईपैड मिनी के सशक्त पक्ष भी बने रहेंगे। एक दिन बिटिया के साथ गये और जाकर वह कीबोर्ड ले आये। तब तक अनुभव नहीं था कि वह उपयोग में कैसा रहेगा? दो लाभ स्पष्ट थे, पहला वह कीबोर्ड एक कवर का भी कार्य करने लगा, उसकी बनावट बिल्कुल आईपैड मिनी से मेल खाती थी। दूसरा वह एक आधार के रूप में भी कार्य करने लगा, लम्बा और चौ़ड़ा, दोनों ही प्रकार से। अब लिखने, पढ़ने, वीडियो देखने और अन्य कार्य करने में सुविधापूर्ण आनन्द आने लगा है। आप दोनों का अन्तर चित्र में देखिये।

यह कीबोर्ड परम्परागत कीबोर्डों के आधे आकार का है। एक संशय हो सकता है कि आकार आधा होने पर टाइप करने में कठिनाई हो सकती है। हाँ, यदि आप दसों ऊँगलियों से टाइप करते हैं तो संभव है कि कई बार आपसे भूल हो जाये और आपकी ऊँगलियाँ कुछ और टाइप कर जायें। पर यदि आप मेरी तरह हैं और दो ऊँगलियों से ही देख देख कर टाइप करते हैं तो आपकी गति पहले से और अधिक हो जायेगी, क्योंकि इसमें आपको अन्य कीबोर्डों की तुलना में हाथ बहुत कम हिलाना पड़ेगा।

अभ्यास लय पकड़ चुका है और टाईपिंग की गति पहले से बीस प्रतिशत अधिक हो गयी है। बैटरी तीन गुनी और कीबोर्ड को मिलाकर भी भार मैकबुक एयर का आधा रह गया है। यदि मूल्य भी देखा जाये तो वह भी मैकबुक एयर का आधा ही है। अन्य कार्यों के बारे में तो नहीं कह सकता पर लेखन, कार्यालय, अध्ययन समेत मेरे सारे कार्यों के लिये यह पर्याप्त है। जब से इस प्रयोग में लगा हूँ, लेखन बहुत अधिक बढ़ गया है। इसका नामकरण मैंने 'मैकबुक मिनी' किया है। अब बिटिया मेरे 'मैकबुक एयर' में प्रसन्न है और मैं उसके 'मैकबुक मिनी' में।

12.6.13

खिड़की पर गिलहरी

घर की जिस मेज पर बैठ कर लेखन आदि कार्य करता हूँ, उसके दूसरी ओर एक खिड़की है। उसमें दो पल्ले हैं, बाहर की ओर काँच का, अन्दर की ओर जाली का, दोनों के बीच में लोहे की ग्रिल लगी है। दोनों पल्लों के बीच लगभग ४ इंच का स्थान है। जब कभी भी ऊपर की खिड़की खुली रहती है, नीचे के दोनों पल्लों के बीच आने जाने का रास्ता निकल आता है। बहुधा ऊपर की खिड़की खुली रहती है, हवा और प्रकाश दोनों ही आते रहते हैं। पिछले कुछ दिनों से बंगलोर में अत्यधिक वर्षा होने से ठंडक बढ़ गयी, तब खिड़की बन्द न कर, उस पर केवल एक पर्दा लगा दिया गया।

आज जब वह पर्दा ८-१० दिन बाद खोला तो उसमें एक गिलहरी के रहने का स्थान बन चुका था। पता नहीं इसके पहले वह कहाँ रह रही थी? संभवतः किसी पेड़ पर या किसी छत में निचले हिस्से में। वर्षा ने उस स्थान को गीला कर दिया होगा। बिल्ली आदि शत्रुओं से बचने के लिये वह क्या करे, तो उन दो पल्लों के बीच उसने अपना अस्थायी घर बना लिया। सूखी घास-फूस के कई टुकड़े लाकर उन्हें वृत्ताकार बिस्तर के रूप में सजा दिया है, एक रस्सी के रेशों को अपने छोटे छोटे दाँतों से निकाल कर एक हल्का गद्देदार आकार दे दिया है। एक बड़ा ही सुरक्षित, व्यवस्थित और विश्रामयुक्त स्थान का निर्माण कर दिया।

अब दुविधा मेरी थी। सर्वप्रथम आश्चर्य इस बात पर हो रहा था कि इतनी छोटी सी गिलहरी और इतनी व्यवस्थित बुद्धि, प्रयासरत श्रम और सार्थक निष्कर्ष। वह आधा घर बना चुकी थी और शेष के लिये दौड़ भाग कर रही थी। मैं सहसा सामने खड़ा था। एक मनुष्य की दो आँखें उसे देख रही थीं। ऐसा नहीं हैं कि मनुष्य से उसका व्यवहार सर्वथा नया है, उसके अनुभव और उसके पूर्वजों द्वारा सुनायी हुयी कहानियों में मनुष्य की छवि बहुत अच्छी तो नहीं होगी। वह स्तब्ध सी मुझे देख रही थी, हम दोनों के बीच में एक काँच का अन्तर था। दूसरी ओर से जाली से छनती हवा गिलहरी के रोयें हिला रही थी। एक अजब सा संवाद था, निर्दयी मनुष्य के हाथ और उसके घर के बीच एक चटखनी का अन्तर था। बेघर और अर्धनिर्मित घर के बीच १० दिन का श्रम था। सहृदय मनुष्य और गिलहरी के सुरक्षित भविष्य के बीच खिड़की पर खटकने वाला एक घोंसला था।

अब किस अन्तर को मनुष्य हटायेगा। देखा जाये तो वह स्थान मेरा था, प्रभात में जब प्रथम किरण आती है, जब भी सुवासित पवन बहती है, वह खिड़की ही प्रकृति से मेरा सम्पर्क स्थापित करती है। एक छोटा सा घोंसला, आपको खटक सकता है। मैं उस खिड़की पर अपना अधिकार माने बैठा था। दस दिन से वह स्थान उपयोग में न आने से गिलहरी उसे सुरक्षित मान बैठी थी और वहाँ अपना घर बनाने लगी थी।

दुविधा गहरी थी और निपटानी आवश्यक थी। आप कह सकते हैं कि मैंने दस दिन की ढील क्यों दे दी, यही कारण रहा कि गिलहरी ने अपना घर बना डाला। यदि मैं नियमित रूप से खिड़की खोलता रहता तो संभवतः यह स्थिति उत्पन्न न होती। मेरी ढील मेरा दोष है, गिलहरी का अज्ञान उसका दोष है। किसका दोष गाढ़ा है, कौन निर्णय करेगा? इस समस्या का क्या हल निकलेगा, किन सिद्धान्तों के आधार पर निकलेगा?

प्रमुख सिद्धान्त प्रकृति का आधार लिये है। मैं और गिलहरी, दोनों ही प्रकृति के अंग हैं। मेरे लिये मैं महत्वपूर्ण हूँ, गिलहरी के लिये वह स्वयं। इस विषय में गिलहरी के पूरे अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगा हुआ था और मेरे लिये प्रभात में खटकने वाली दृष्टि। गिलहरी को होनी वाली हानि मुझे होने वाली हानि से बहुत अधिक थी।

उस स्थान पर किसका न्यायपूर्ण अधिकार है या हम दोनों का सहअस्तित्व संभव है। यदि ऐसा है तो हम दोनों में किसे क्या स्वीकार करना होगा? यह हम दोनों पर छोड़ देना चाहिये या शक्तिशाली मनुष्य को दोनों के बारे में निर्णय लेना चाहिये? न्याय के किन पक्षों को किस प्रकार समझना है, यह चिन्तन की कई परतों को उद्वेलित कर जाता है।

यदि मैं चिन्तनहीन होता तो उसी समय शक्ति प्रदर्शन कर त्वरित निर्णय दे देता, घोंसला उठा कर फेंक देता, गिलहरी उसे समेट कर कहीं और नया घोंसला बना लेती। पर वह मुझसे न हुआ, मैं सोच में पड़ गया। अब निर्णय नहीं कर पा रहा हूँ कि क्या किया जाये?

विश्व की सारी समस्याओं को देखें तो हर स्थिति में गिलहरी और मनुष्य की ही कहानी दिखती है, मेरी कहानी से पूरी तरह मिलती जुलती। शक्ति के उपासक अपना न्याय और निर्णय गिलहरी पर थोप देते हैं। उनके विरोधी गिलहरी का सहारा लेकर अपना स्वार्थ साधते हैं। गिलहरी माध्यम बन जाती है, घर से बेघर हो जाती है, शेष लड़ाई चलती रहती है।

नक्सल समस्या भी कुछ अलग नहीं है। गिलहरी के तथाकथित संरक्षक कहे जाने वाले पक्ष लड़ रहे हैं और गिलहरी अपने अस्तित्व के लिये निहार रही है, सहमी सी।

अब मैं क्या करूँ? मैं तो उसे नहीं हटा पाऊँगा। प्रभात की किरण और शीतल पवन के साथ गिलहरी की गतिविधि भी देखता रहूँगा। हो सकता है कि लेखन धर्म में थोड़ा व्यवधान पड़ जाये, स्वीकार है, पर उसे हटाने का साहस मेरे अन्दर तो नहीं है। आप ही बतायें कि गिलहरी के संग सहअस्तित्व के इस नये अध्याय को और कैसे सुमधुर बनाया जा सकता है?

8.6.13

टावर किचेन से ब्लॉगिंग

इस बार इंडीब्लॉगर के मिलने का स्थान था, यूबी सिटी। यह स्थान विजय माल्या जी का है, जी हाँ किंगफिशर वाले और यहीं पर ही उनका मुख्यालय भी है। मेरे घर से लगभग ३ किमी दूर और विस्तृत और सुन्दर कब्बन पार्क के समीप। रविवार का समय था, अघटित सा, सदा की तरह शान्त और रिक्त, यह आयोजन रोचक लगा तो नहा धोकर वहाँ पहुँच गये।

यूबी सिटी के १६वें तल में टावर किचेन नामक यह स्थान निश्चय ही रात्रिकालीन पार्टियों में चहल पहल से भरा पूरा रहता होगा, क्योंकि अपराह्न के समय ही बार आदि की तैयारियाँ विधिवत चल रही थीं। उन सब विषयों पर ध्यान नहीं जाना चाहिये था, आयोजन का विषय कुछ और था, पर एक ब्लॉगर होने के नाते पत्रकारिता के गुणों के छींटे बिना आप पर पड़े रह भी कहाँ सकते हैं। हम भी अवलोकन का धर्म निभा उस ओर बढ़ गये जहाँ से चहल पहल की टहल चल रही थी।

इस बार कुछ अधिक ही भीड़ थी, ब्लॉगरों के अतिरिक्त माइक्रोसॉफ्ट के चाहने वालों की भी भीड़ थी वहाँ पर। विषय और आयोजन ही कुछ ऐसा था। यह आयोजन माइकोसॉफ्ट और इंडीब्लॉगर ने मिलकर किया था और शीर्षक था, 'क्लॉउड ब्लॉगॉथन'। देखिये एक ही शब्द में कितने पक्ष साध लिये। क्लॉउड से तकनीकी पक्ष, ब्लॉग से लेखकीय पक्ष और ऑथन से कुछ कुछ मैराथन जैसा लम्बा चलने वाला। तीनों ही विषय, तकनीक, लेखन और अस्तित्व, मेरे प्रिय विषय हैं। बस यही कारण था अत्यधिक भीड़ का, त्रिवेणी के संगम में तीनों मतावलम्बियों की भीड़ थी, हम थे जो तीनों के संश्लेषित रूप लिये पहुँचे थे।

आशायें बहुत प्रबल थीं और लग रहा था कि चर्चा गहरी होगी। पहली आशा कि लेखन की तकनीक पर चर्चा होगी, ढह गयी। दूसरी आशा कि तकनीकी लेखन पर चर्चा होगी, ढह गयी। तीसरी आशा कि तकनीक या लेखन में से किसी के भविष्य पर चर्चा होगी, वह भी ढह गयी। अन्ततः मन्तव्य समझ आया कि यह माइक्रोसॉफ्ट के उत्पादों को ब्लॉगिंग के माध्यम से प्रचारित करने के लिये आयोजित कार्यक्रम था। क्योंकि क्लॉउड इण्टरनेट का भविष्य है, माइक्रोसॉफ्ट के क्लॉउड प्रधान उत्पाद ऑफिस ३६५ ही चर्चा के केन्द्रबिन्दु में था।

जब पहले से कार्यक्रम के आकार और आसार के बारे में कुछ ज्ञात नहीं हो तो समझने में थोड़ा समय चला जाता है। इस स्थिति में एक कोने में सुविधाजनक शैली में बैठकर सुनने से अच्छा कुछ नहीं है। अपनी उपस्थिति को अपने तक ही सीमित रखने से संवाद का बहुत अधिक प्रवाह आपकी ओर बहता है। जब बोलने की इच्छा न हो तो, समझने में बहुत अधिक आनन्द आता है। मेरे जैसे १५-२० लोग स्थान की परिधि निर्मित किये हुये थे, उसके अन्दर नये और उत्साही प्रतिभागी अपनी उपस्थिति का नगाड़ा बजा रहे थे।

तभी माइक्रोसॉफ्ट के भारतीय परिक्षेत्र के एक बड़े अधिकारी आते हैं, पहले कम्प्यूटर, फिर माइक्रोसॉफ्ट और फिर क्लॉउड की महत्ता पर एक सारगर्भित और स्तरीय व्याख्यान देते हैं। सब कुछ इतने संक्षिप्त में सुनकर अच्छा लगा और साथ ही साथ अनुभव का संस्पर्श देख रुचि और बढ़ी। पर ब्लॉग को किसलिये शीर्षक सें सम्मिलित किया गया है, उसे सुनने की प्रतीक्षा बनी रही। जब व्याख्यान अपने अंतिम चरण पर पहुँचा, तब कहीं जाकर पता चला कि ब्लॉग को उनके उत्पादों के प्रचार तक ही महत्व प्राप्त है। ब्लॉगरों को प्रचार माध्यम का एक अंग मानकर दिया गया था वह व्याख्यान। थोड़ा छली गयी सी प्रतीत हुयी अपनी उपस्थिति, वहाँ पर।

तीन तरह की प्रतिक्रियायें स्पष्ट दिख रही थीं। पहली उनकी थी जो विशुद्ध तकनीकी थे, वे सबसे आगे खड़े थे, अधिकारी को लगभग पूरी तरह घेरे, कुछ ज्ञान की उत्सुकतावश और कुछ संभावित नौकरी के लिये स्वयं को प्रदर्शित करने हेतु। उनके तुरन्त बाहर विशुद्ध ब्लॉगरों की प्रतिक्रिया थी, उनका तकनीक के बारे में ज्ञान लगभग शून्य था और वे मुँह बाये सब सुन रहे थे, सब समझने का प्रयास कर रहे थे। उनमें भी तनिक विकसित प्रतिक्रियायें उन ब्लॉगरों की थीं जिन्होने तकनीक के प्रभाव को समाज में समाते हुये देखा है, उन्हें तकनीक का ब्लॉग समाज के पास आकर प्रचार का आधार माँगना रुचिकर लग रहा था।

चौथी प्रतिक्रिया विहीन उपस्थिति हम जैसे कुछ लोगों की थी, जो शान्त बैठे इस गति को समझने का प्रयास कर रहे थे। मैं संक्षिप्त में बताने का प्रयास करूँगा कि उसकी दिशा क्या थी।

क्लॉउड इण्टरनेट के भविष्य की दिशा निर्धारित कर रहा है। प्रोग्रामों के बदलते संस्करण, फाइलों के ढेरों संस्करणों में होता विचरण, कई लोगों के सहयोग के सामंजस्य में आती अड़चन, कई स्थानों पर रखे और संरक्षित डिजटलीय सूचनाओं के सम्यक रख रखाव ने क्लॉउड को जन्म दिया है। न केवल आवश्यकता इस बात की है कि सूचनाओं का रखरखाव क्लॉउड में हो, वरन उनमें आये बदलाव और उन्हें त्वरित कार्य में लाने की एक ऐसी प्रणाली बने, जिसें श्रम, समय और साधनों की न्यूनतम हानि हो और साथ ही साथ उत्पादकता भी बढ़े।

जब दिशा ज्ञात है तो वहाँ पहुँचने की होड़ भी मची है। व्यवसाय भी उसी दिशा में जाता है जहाँ वह औरों को अपना मूल्य दे पाता है, अपनी उपस्थिति जताने के लिये उसे भी प्रचार की आवश्यकता होती है। हम ब्लॉगरों पर भी तकनीक के ढेरों उपकार हैं, बिना तकनीक तो हम व्यक्त भी नहीं थे। तकनीक जितनी व्यवधान रहित होगी, अभिव्यक्ति की पहुँच भी उतनी ही विस्तृत होगी। ब्लॉग न केवल तकनीकी, वरन सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक संवादों में अपनी उपस्थिति बनाने लगा है। जो यात्रा एक प्रयोग के माध्यम से प्रारम्भ हुयी थी, उसे आज एक पूर्णकालिक माध्यम की पहचान मिल चुकी है।

यह आयोजन भले ही किसी के द्वारा अपनी बात कहने का व्यावसायिक प्रयास हो, पर एक संकेत स्पष्ट रूप से देता है कि ब्लॉगिंग को एक माध्यम के रूप में स्वीकार और उसका आधार निर्माण करने का समय आ गया है। जहाँ यह हम सबके लिये प्रसन्नता का विषय है कि हमें भी अभिव्यक्ति का श्रेय मिलना प्रारम्भ हो चुका है, साथ ही साथ यह हमारे ऊपर एक उत्तरदायित्व का बोध भी है जो हमें इस माध्यम की गुणवत्ता बढ़ाने की ओर प्रेरित करता है।

भविष्य का निश्चित स्वरूप क्या होगा, किसे पता? हमें तो राह का आनन्द ही भाता है, हमें बस चलना ही तो आता है।

5.6.13

वाकू डोकी

कुछ दिन पहले टोयोटा से दो अधिकारी मिलने आये थे, टोयोटा की एक फ़ैक्टरी बंगलोर के पास में ही है। आपसी हित के विषय पर बातचीत थी। जब विषय पर चर्चा समाप्त हो गयी और दोनों अधिकारी चले गये तो उनके विज़िटिंग कार्ड पर ध्यान गया। अंग्रेज़ी में लिखा था 'वाकू डोकी'। उत्सुकता तो उस समय जगी पर व्यस्तता के कारण उन शब्दों का अर्थ नहीं पता लग पाया। जब समय मिला तो गूगल किया, अर्थ था, रोमांच की संभावना में सिहरना और हृदय गति बढ़ जाना।

टोयोटा एक जापानी कम्पनी है और 'वाकू डोकी' एक जापानी शब्द। वाकू डोकी के माध्यम से टोयोटा का प्रयास यह प्रचारित करना है कि उनके उत्पादों में भी यही गुण उपस्थित है। अर्थ यह कि टोयाटो के उत्पादों को उपयोग करते समय आपको सिहरन होगी और हृदय की धड़कन अव्यवस्थित हो जायेगी। जापानी कारें बहुत अच्छी होती हैं और उन्होंने अमेरिका के बड़े कार निर्माताओं को विस्थापित कर, जापान का आर्थिक वर्चस्व सुनिश्चित किया है। यह भी एक सत्य है कि कार के दीवानों की दीवानगी अवर्णनीय होती है। संभव है कि अच्छी कारों और दीवानों का संगम वाकू डोकी का अनुभव कराता हो, पर यह अभी तक मुझे अनुभव नहीं हुआ, न मेरे पास जापानी कार है और न मैं कार का दीवाना हूँ।

तब इस शब्द को कैसे अनुभव किया जाये। कोई आसपास का अनुभव ढूँढा जाये। नये मोबाइल में, नई पुस्तक में, नये नगर में, हाँ एक उत्सुकता अवश्य रहती तो है पर वाकू डोकी जैसी नहीं। लक्ष्यों की पूर्ति में, किसी पुराने परिचित से मिलने में, नवोदित प्रेम में या विवाह की प्रतीक्षा में, हाँ वाकू डोकी सा कुछ कुछ तो रहता है, पर वह भी बहुत अधिक स्थायी नहीं रहता है। वाकू डोकी घटना होने के बाद उस परिमाण में नहीं रहता है जैसा घटना के पहले रहता है। अब जो अनुभव उत्पाद के पहले ही हो और उत्पाद के उपयोग के साथ धीरे धीरे ढल जाये, उस पर अपनी कम्पनी की मूल अवधारणा बनाना विक्रय विभाग का ध्येय तो हो सकता है पर वैसा ही वाकू डोकी सदा ही बना रहेगा, यह कहना बड़ा कठिन है।

वैसे देखा जाये तो कुछ खरीदने के पहले थोड़ा बहुत वाकू डोकी तो होता ही है। एक झोंका सा रहता है जो हमें कोई भी उत्पाद खरीदने के समय होता ही है। यदि मूल्य कम रहे तो कम होता है, यदि मूल्य अधिक रहा तो अधिक होता है। कार तो बहुत अधिक मूल्य की होती है अतः उसमें हुये वाकू डोकी की मात्रा और अन्तराल बहुत अधिक होता है।

किसी भी कम्पनी के विक्रय विभाग का यह लक्ष्य रहता है कि किस तरह से अपनी बिक्री बढ़ायी जाये। उसके लिये वह कुछ भी कर सकती है। मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया का उपयोग किस तरह से प्रचार बनाने में किया जाता है, यह नित प्रचार देखने वालों को सहज ही समझ आ जाता है। प्रचार आदि पर काम करने वाली कम्पनियाँ इस तथ्य को विधिवत समझती हैं कि किस प्रकार मन के भावों को धीरे धीरे उभारते रहने से उस उत्पाद के प्रति वाकू डोकी के भाव निर्मित होते रहते हैं? यही कारण रहता है कि मनोवैज्ञानिक रूप से पहले से ही इतना ऊर्जामग्न होने के कारण, उस उत्पाद के प्रति वाकू डोकी के गहरे और गाढ़े भाव हमारे मन में जाग जाते हैं।

ऐसा नहीं है कि केवल आर्थिक लक्ष्यों की अनुप्राप्ति में हमें वाकू डोकी की अनुभूति होती है। जब भी कोई बड़ा स्वप्न और घटना साकार होने के निकट होती है, हमें वाकू डोकी के अनुभव होते हैं। कोई बड़ा परीक्षाफल निकलने वाला हो, किसी बड़े व्यक्ति से हाथ मिलाने का क्षण हो, कोई बड़ा पुरस्कार मिलने वाला हो, वाकू डोकी के लक्षण हमारे शरीर से टपकने लगते हैं। व्यक्तिगत ही नहीं, समाज और देशगत विषयों में भी यही भाव छिपे रहते हैं।

देखा जाये तो शरीर का क्या दोष? शरीर में त्वचा है तो कंप होगा ही, हृदय है तो धड़केगा ही। शारीरिक रूप से तो वाकू डोकी का मंच तैयार है। यह तो मन है जो इन दोनों को गति देने को तैयार बैठा रहता है। यदि तनिक और सूक्ष्मता से देखा जाये तो मनुष्य के जीवन में यही वाकू डोकी के लघु लक्ष्यों का एक पंथ निर्मित है, एक के आने की प्रतीक्षा में हम श्रमरत रहते हैं और एक के जाने के बाद दूसरे की प्रतीक्षा में लग जाते हैं। यदि वाकू डोकी के क्षण जीवन में न रहें तो जीवन कितना नीरस हो जाये।

जब हम छोटे होते हैं तो छोटी छोटी बातों में हमें वाकू डोकी हो जाता है, थोड़ा बड़ा होने में अनुप्राप्ति के लक्ष्य और बड़े होते जाते हैं। धीरे धीरे श्रम और समय की मात्रा बढ़ती जाती है। जब हमें लगने लगता है कि अगले लक्ष्य के लिये हम अधिक श्रम नहीं कर सकते तो उसे मन से त्याग कर वर्तमान में स्थिर होने लगते हैं, पर औरों को देखकर वाकू डोकी की आस बनी रहती है। जो परमहंस होते हैं, उन्हें इन सांसारिक लक्ष्यों से कोई सारोकार नहीं रहता है, वे शान्त सागर से हो जाते हैं, हलचल भले ही किनारों पर बनी रहे, मन स्थिर हो जाता है, हर प्रकार के वाकू डोकी से।

अहा, अब याद आ रहा है कि कहीं इस तरह से मिलते जुलते भाव पढ़े हैं। साहित्य में कहीं निकटतम पहुँचने का बोध होता है, तो वह इस भजन का एक भाग है जिसमें कहते हैं, रोमांच कंपाश्रु तरंग भाजो, वन्दे गुरो श्री चरणारविन्दमं। रोमांच, कंप और तरंग जैसे शब्द एक साथ पहली बार आते हुये दिखते हैं, इस भजन में। देखा जाये तो भक्तिमार्ग में भी वाकू डोकी की खोज होती है, लोग कहते हैं कि शाश्वत वाकू डोकी की। भक्ति, साधना आदि के भावमयी प्रवाह में वाकू डोकी की मात्रा सांसारिक पक्षों की तुलना में कहीं अधिक होती है। कहते हैं कि सांसारिक वाकू डोकी कृत्रिम और संक्षिप्त है जबकि भक्तिजनित वाकू डोकी स्वस्फूर्त व सतत है।

आपको किससे सर्वाधिक वाकू डोकी होता है, टोयोटा ने कहा है कि उनकी कारों को ख़रीदने से यह भाव सहज आता है। देखते हैं, कब तक आयेगी वह कार और कब होगा वाकू डोकी। कोई और कम्पनी है, कहीं की भी हो, थोड़ी देर के लिये वाकू डोकी दे जाये। कुछ कुछ उस गीत की तरह, पल भर के लिये कोई हमें प्यार कर ले, झूठा ही सही।

1.6.13

विश्व जियेगा

विश्व जियेगा और गर्भरण जीते बिटिया,
प्रथम युद्ध यह और जीतना होगा उसको,
संततियों का मोह, नहीं यदि गर्भधारिणी,
सह ले सृष्टि बिछोह, कौन ढूढ़ेगा किसको,

विश्व जियेगा और पढ़ेगी अपनी बिटिया,
आधा तम भर, आधा ठहरा, कौन बढ़ा है,
फिर भी शिक्षा रहती बाधित, सीमित, सिमटी,
बर्बरता की पुनर्कल्पना, जग सिकुड़ा है।

विश्व जियेगा और सुरक्षित होगी बिटिया,
आधा तज कर, बोलो अब तक कौन जिया है,
मुखर नहीं यदि हो पाता है फिर भी आग्रह,
विध्वंसों से पूर्व सृष्टि ने मौन पिया है। 

विश्व जियेगा, परिवारों को साधे बिटिया,
अस्त व्यस्त जग का हो पालन, तन्त्र वही है,
प्रेम तन्तु में गुँथे रहेंगे घर में जन जन,
विस्तृत हृद, धारण करती सब, मन्त्र मही है,

विश्व जियेगा, अधिकारों से प्लावित बिटिया,
घर, बाहर उसके हों निर्णय, नेह भरे जो,
लड़ लड़कर हम व्यर्थ कर चुके अपनी ऊर्जा,
जुड़ने का भी एक सुअवसर इस जग को हो,

विश्व जियेगा, करे साम्य स्थापित बिटिया,
समय संधि का, नहीं छिटक कर हट जाने का,
गर्व हमारा, शक्ति हमारी, क्यों खण्डित हो,
समय अभी है, बस मिल जुल कर, डट जाने का,

विश्व जियेगा और जियेगी सबकी आशा,
तत्व प्रकृति दो, संचालित हो, स्थिर, गतिमय,
यह विशिष्टता, द्वन्द्व हमारा, न हो घर्षण,
एक पुष्प, एक वात प्रवाहित, जगत सुरभिमय।