30.10.13

टाटा स्काई प्लस एचडी

कुछ दिन पहले टाटा स्काई के कुछ चैनलों का प्रसारण बाधित होने लगा। पहले तो लगा कि अधिक वर्षा इसका कारण रहा होगा। किन्तु जब धूप छिटक आयी और फिर भी चैनल बाधित रहे तो टाटा स्काई वालों को फ़ोन किया गया। फ़ोन पर समस्या बताने पर उनके प्रतिनिधि ने बताया कि वे प्रसारण की अधिक उन्नत तकनीक की ओर जा रहे हैं, सेट टॉप बॉक्स बदलने से सारे चैनल पूर्ववत आने लगेंगे। यदि आप अभी बदलवाना चाहें तो तीन घंटे के अन्दर हमारे कार्यकर्ता आकर बदल देंगे। साथ ही साथ उन्होंने मुझे दो और सेट टॉप बाक्सों का प्रस्ताव भी दिया। पहला टाटा स्काई एचडी का और दूसरा टाटा स्काई प्लस एचडी का। एचडी में कुछ चैनल अधिक स्पष्टता में आयेंगे, प्लस में आपके पास कार्यक्रमों को रिकार्ड करने की व्यवस्था रहेगी जिससे वे बाद में सुविधानुसार देखें जा सकें। मात्र एचडी में हज़ार रुपये लग रहे थे, प्लस में पाँच हज़ार।

हाई डेफिनिशन, गजब की क्वालिटी
कार्यक्रमों को अधिक स्पष्टता से देखने का अधिक मोह नहीं रहा है, पर अपने एक मित्र के यहाँ पर एचडी चैनल देखकर प्रभावित अवश्य हुआ था। एक क्रिकेट मैच चल रहा था और लग रहा था कि मैदान के अन्दर खड़े होकर मैच देख रहे हैं। यद्यपि हमें तीसरे अम्पायर का कार्य नहीं करना था पर क्रिकेट का आनन्द एचडी में और बढ़ जाता है। साथ ही साथ एचडी फ़िल्मों में भी डायरेक्टर द्वारा छिटकाये रंगों को आप मल्टीप्लेक्स के समकक्ष स्पष्टता में देख पाते हैं। डिस्कवरी और हिस्ट्री आदि चैनल जो हमें अत्यन्त भाते है, वे भी एचडी में ही अपने पूरे रंग में आते हैं। उत्सुकता मन में थी ही, प्रस्ताव आते ही मन के अनुकूल हो गया, हज़ार रुपये जेब से निकल भागने को तत्पर हो गये।

तभी मन ने कहा, जब चिन्तन द्वार खोले ही हैं तो प्लस के प्रस्ताव पर भी विचार कर लो। कार्यक्रम को रिकार्ड कर बाद में देखने की व्यवस्था में टीवी अधिक देखे जाने की संभावना दिख रही थी और प्रथम दृष्ट्या प्लस घर के लिये उपयोगी नहीं लग रहा था। यही नहीं, उसमें एक हज़ार के स्थान पर पाँच हज़ार रुपये लग रहे थे। पर पता नहीं क्या हुआ, पूरे टीवी प्रकरण को समग्रता से सोचने लगा, निर्णय प्रक्रिया में श्रीमतीजी और बच्चों की सहमति लेने का मन बन आया।

प्लस में रिकार्डिंग की व्यवस्था
बच्चे सदा से ही प्लस से अभिभूत रहे हैं, कॉलोनी में एक दो घरों में होने के कारण पुराने छूट गये कार्यक्रमों को मित्रों के साथ निपटा आने की कला में सिद्धहस्त रहे हैं दोनों बच्चे। इस सुविधा के लिये वे कुछ भी करने को तैयार थे, अधिक टीवी न देखने के लिये तो तुरन्त ही तैयार हो गये दोनों। मेरी एक और समस्या थी उनसे, रात में टीवी देखने की। रात में सबकी पसन्द के कार्यक्रम देखने के क्रम में सोने में देर हो जाती थी, सो सुबह उठने में कठिनाई। रात भर के कार्यक्रमों का प्रभाव यह होता था कि सुबह सब कुछ आपाधापी में होता था। दोपहर में बच्चे इसलिये नहीं पढ़ते हैं कि विद्यालय से पढ़कर आये हैं, रात में इसलिये नहीं पढ़ते हैं कि उनके पसन्द के कार्यक्रम आ रहे होते हैं। बीच के समय में सायं आती है, तो उसमें किसी का इतना साहस कि उन्हें खेलने से मना कर दे। पढ़ाई समयाभाव में तरसती रहती है। पढ़ाई कभी आधे घंटे के लिये, कभी डाँट से, कभी चिरौरी कर के, घर में सबसे बेचारी सी। उनकी उत्सुकता देख कर मेरे अन्दर का स्नेहिल और अनुशासनात्मक पिता एक साथ जाग उठा। संतुलन की संभावना देखकर एक व्यापारी की तरह बोला, ठीक है, रात के कार्यक्रम रिकार्ड कर दोपहर में देखना होगा, खेलने के बाद पढ़ाई और समय से सुलाई। हाँ, सहर्ष मान गये दोनों बच्चे, वचन दे बैठे। वैसे रात में टीवी देखना तो मुझे भी अच्छा नहीं लगता है, न ढंग से लेखन हो पाता है और न ढंग से नींद आ पाती है। अच्छा हुआ एक तीर में दोनों ध्येय सध गये।

पिछली गर्मी की छुट्टी में एक और समस्या हुयी थी। मेरे पिताजी को समाचार आदि देखने में रुचि रहती है और बच्चों को कार्टून आदि में। एक टीवी रहने पर दोनों पीढ़ियों के बीच घर्षण बना रहता था। हम और हमारी श्रीमतीजी के द्वारा टीवी से वनवास लेने के बाद भी बहुधा समस्या उलझ जाती थी। या तो बच्चे क्रोधित हो जाते या पिताजी बच्चों को बिगाड़ने के दोष मढ़ने लगते। अनुशासन व प्यार के द्वन्द्व में मस्तिष्क पूरी तरह घनघना गया था। दूसरा टीवी और दूसरा कनेक्शन लेना तो पूरी तरह व्यर्थ था, वांछित शान्ति तब आयी जब पिताजी को अपने मित्रों की याद आने लगी। लगा कि प्लस लेने से यह समस्या भी सुलझ जायेगी। जिसको देखना होगा, देखेगा, दूसरे का कार्यक्रम रिकार्ड हो जायेगा, बाद में देखने के लिये।

मेरी पसन्द के कई कार्यक्रम या तो ऑफ़िस के समय में आते हैं या तो सोने के समय में। डीडी भारती, डिस्कवरी, हिस्ट्री आदि के कई कार्यक्रम ऐसे होते हैं जो बार बार देखने का मन करता है। न रात में जगना हो पाता है और न ही उसके पुनर्प्रसारण की प्रतीक्षा करना। सायं और रात को जो समय मिलता, उसमें टीवी या तो बच्चे हथियाये रहते या तो श्रीमतीजी। हमें भी लगने लगा कि हमें भी इस डब्बे से अपनी पसन्द के गुणवत्ता भरे कार्यक्रम देखने को मिल जायेंगे। साथ ही साथ कई नई फ़िल्में भी टीवी पर आती रहती हैं, एचडी में उन्हें घर में ही देख लेने से मल्टीप्लेक्स जाने का व्यय भी कम होने की संभावना भी दिखने लगी।

श्रीमतीजी घर का सारा काम करने के बाद घर में भी खाली रहती हैं, उनसे भी कहा कि यदि हम प्लस लेते हैं तो आप भी अपने कार्यक्रम दोपहर में देख लिया करें और सायं का समय परिवार के साथ और रात का भोजन टीवी के बिना, गुणवत्ता भरा। एक तरह से घर के सारे लोगों के लिये लाभकारी होने वाली थी, प्लस की यह अवधारणा।

एक और लाभ होता है रिकॉर्डेड कार्यक्रम देखने का, बीच में आये प्रचारों को आप बढ़ा सकते हैं। यदि गणना की जाये तो हर कार्यक्रम में लगभग ३० प्रतिशत समय उन प्रचारों से भरा रहता है जिन्हें हम देखना ही नहीं चाहते हैं। इस प्रकार हमारे समय की बहुत बचत हो सकती है। यदि आप एक दिन में एक घंटे भी टीवी देखें तो पूरे वर्ष में लगभग १०० घंटे की बचत निश्चित है। पूरे परिवार के लिये एक वर्ष में ४०० घंटे की बचत के लिये एक बार दिये अतिरिक्त ४००० रुपये अधिक नहीं हैं।

इन लाभों को देखते हुये सामूहिक और पारिवारिक निर्णय यह लिया गया कि टाटा स्काई प्लस एचडी लिया जाये और परिवार की जीवनशैली को एक नया रूप दिया जाये। एक ऐसा स्वरूप जिसमें टीवी कार्यक्रम का समय हमें आदेश न दे, बच्चों को पढ़ाई के लम्बे कालखण्ड मिले, घर को लम्बी शान्तिकाल मिले, ठूँसे गये कार्यक्रम के स्थान पर गुणवत्ता भरे कार्यक्रम मिलें, कार्यक्रमों के दृश्य अधिक स्पष्ट दिखें, सप्ताहन्त में साथ बैठ कोई फ़िल्म देखी जाये, साथ बैठ बिना टीवी के व्यवधान के रात में खाना खाया जाये, और ऐसे न जाने सुधरते जीवन के कितने आकार गढ़ें।

मेरे दो ऐसे मित्र हैं जिन्होंने अपने घर में टीवी को धँसने नहीं दिया है। हम उनके दृढ़ निश्चय से प्रभावित तो रहे हैं पर उन जैसा साहस नहीं कर पाये हैं। टीवी से होने वाले लाभों को अधिकतम उपयोग कर सके और साथ ही होने वाली हानियों को न्यूनतम कर सके, यही बस प्रयास रहा है।

टाटा स्काई के प्रतिनिधि को फ़ोन करके हमने अपना निर्णय बता दिया। उनकी त्वरित सेवा देख कर मैं दंग रह गया, तीन घंटे के अन्दर हम एक एचडी चैनल देख रहे थे और दूसरे को रिकॉर्ड कर रहे थे। श्रीमतीजी बड़ी प्रसन्न थीं, करवा चौथ वाले दिन उन्हें रंगभरा उपहार मिल गया था। उन्होंने अपने उपहार का त्याग कर परिवार के लिये टाटा स्काई प्लस एचडी को वरीयता दी है। परिवार का वातावरण और भी रंग बिरंगा हो गया है।

26.10.13

बचपन, भाषा, देश

जीवन के प्रथम दशक में हमारी भाषा, परिवेश का ज्ञान, विचारों की श्रंखलायें आदि अपना आकार ग्रहण करते हैं। यह प्रक्रिया बड़ी ही स्पष्ट है, आकृतियाँ, ध्वनि और संबद्ध वस्तुयें मन में एक के बाद एक सजती जाती हैं। इन वर्षों में हमारी समझ जितनी गहरी होती, ज्ञान का आधार उतना ही सुदृढ़ बनता है। कभी सोचा है कि जब हम बच्चे को एक के स्थान पर दो भाषायें सिखाने लगते हैं, ज्ञान की नींव पर उसका क्या प्रभाव पढ़ता होगा?

किस भाषा को किधर रखूँ मैं
यदि बचपन में हम एक भाषा के स्थान पर दो भाषाओं से लाद देते हैं तो जो ज्ञानार्जन करने में जो समय व मस्तिष्क लगना चाहिये वह अनुवाद करने में निकल जाता है। जब शब्द और उससे संबद्ध अर्थ सीखने का समय होता है तब मस्तिष्क आनुवादिक भ्रम में रहता है कि ज्ञान को किस प्रकार से ग्रहण किया जाये, हिन्दी में या अंग्रेजी में। ज्ञान के प्रवाह में एक स्तर और बढ़ जाने से श्रम बढ़ने लगता है और याद रखने की क्षमता भी आधी रह जाती है। जिस समय एक वस्तु के लिये एक शब्द होना था, एक शब्द सीखने के बाद शब्दों को संकलित कर वाक्य बनाने का समय था, उस समय हम अपना कार्य बढ़ाकर दूसरी भाषा में उसको अनुवाद करवा रहे होते हैं।

पता नहीं इस पर कभी कुछ विचार हुआ है कि नहीं कि नयी भाषा सीखने की सबसे उचित आयु कौन सी है। जब उसकी आवश्यकता पड़ती है तब तो लोग भाषा सीख ही लेते हैं और बहुत ही अच्छी सीखते हैं। यदि विज्ञान आदि पढ़ने के लिये अंग्रेजी सीखनी आवश्यक ही हो चले तो किस अवस्था में अंग्रेजी सीखनी प्रारम्भ करनी चाहिये? विकास की दौड़ में कोई भी पिछड़ना नहीं चाहता है, सबको लगता है अंग्रेजी बचपन से मस्तिष्क मे ठूँस देने से बच्चा सीधे ही अंग्रेजी बोलने लगेगा और कालान्तर में लॉट साहब बन जायेगा। लॉट साहब तो २०-२५ साल में ही बनते हैं, नौकरी भी उसी के बाद ही मिलती है। यह भी एक तथ्य है कि विकसित मस्तिष्क को अंग्रेजी सीखने में ३-४ वर्ष से अधिक समय नहीं लगता है। पर प्रारम्भ के तीन वर्ष जो जगत की समझ विकसित होती है, उसमें दूसरी भाषा ठूँस कर हम क्यों उसके भाषायी मानसिक आकारों को गुड़गोबर करने पर तुले हैं, किस आभासी लाभ के लिये यह व्यग्रता, क्यों यह मूढ़ता?

निम्हान्स के शोधकर्ताओं का भी मत है कि अधिक भाषायें सीखने से मस्तिष्क के सिकुड़ने का भय बना रहता है। हो सकता है कि अधिक भाषायें जान लेने से हम अधिक लोगों को जान पायें, भिन्न संस्कृतियों के विविध पर समझ पायें, पर गहराई में नीचे उतरने के लिये अपनी ही भाषा काम में आती है, शेष भाषा सामाजिकता की सतही आवश्यकतायें पूरी करती हुयी ही दिखती हैं, समझ विस्तारित तो होती है, गहरे उतरने से रह जाती है।

वहीं दूसरी ओर एक भाषा के माध्यम से देश की एकता की परिकल्पना करना भी भारत की विविधता को रास नहीं आया। भाषायी एकीकरण करने के लिये एक भाषा को अन्य पर थोपने के निष्कर्ष बड़े ही दुखमय रहे हैं, सबका अपनी भाषाओं के प्रति लगाव बढ़ा ही है, कम नहीं हुआ। अपितु थोपी जाने वाली भाषा के प्रति दुर्भाव बढ़ा ही है। राज्यों की सीमाओं को भाषायी आधार पर नियत होने में यह भी एक कारण रहा होगा। भाषायें अलगाव का प्रतीक बन गयीं, सबके अपने अस्तित्व का प्रमाण बन गयीं।

होना यह चाहिये था कि भाषाओं के बीच सेतुबन्ध निर्मित होने थे। भारत में एक ऐसा महाविद्यालय होता जहाँ पर सभी भारतीय भाषाओं के साहित्य को संरक्षित और पल्लवित करने का अवसर मिलता। सभी भाषाओं के भाषाविद बैठकर अपनी भाषा के प्रभावी पक्षों को उजागर करते, साथ ही साथ अन्य भाषाओं के सुन्दर पक्षों को अपनी भाषा में लेकर आते। अनुवाद का कार्य होता वहाँ पर, संस्कृतियों में एकरूपता आती वहाँ पर। वहाँ पर एक भाषा से दूसरी भाषाओं में अनुवाद की सैद्धान्तिक रूपरेखा बनायी जाती, और यही नहीं, भारतीय भाषाओं को विश्व की अन्य भाषाओं से जोड़ने का कार्य होता।

होना यह चाहिये था कि हर भाषा का एक विश्वविद्यालय उस भाषा बोलने वाले राज्य की राजधानी में रहता, उस भाषा को केन्द्र में रखकर अन्य भाषाभाषियों को उस भाषा का कार्यकारी ज्ञान देने की प्रक्रियायें और पाठ्यक्रम निर्धारित किये जाते।

विश्व से जुड़ना भी हो
होना यह चाहिये था कि हर उस नगर में जहाँ पर बाहर के लोग कार्य करने आते हैं, एक भाषा विद्यालय होता जहाँ पर उन्हें वहाँ की स्थानीय भाषा आवश्यकतानुसार सिखायी जाती। जिनको समय हो उन्हें दिन में और जिनको समय न हो, उन्हें सायं या रात को। जब आसाम का कोई व्यक्ति कर्नाटक में आईएएस में चयनित होकर आता है, उसे कन्नड़ का पूरा ज्ञान दिया जाता है। उसे यह ज्ञान बहुत गहरा इसलिये दिया जाता है क्योंकि उसे राज्य के अन्दर तक जाकर स्थानीय लोगों की भाषा का निवारण करना पड़ता है। सबकी आवश्यकता इतनी वृहद नहीं हो सकती और उनका पाठ्यक्रम उसी के अनुसार कम या अधिक किया जा सकता है।

जहाँ हमारे संपर्क बिन्दु दो परस्पर भाषायें होनी थीं, किसी व्यवस्थित भाषायी प्रारूप के आभार में वह सिकुड़ कर अंग्रेजी मान्य होते जा रहे हैं। अब कितने प्रतिशत व्यक्ति जाकर विदेशों में कार्य करेंगे, जो करेंगे तो वे सीख भी लेंगे और वे सीखते भी हैं। अंग्रेजी ही क्यों आवश्यक हुआ तो चाइनीज़ या मंगोलियन भी सीख लेंगे। पर अंग्रेजी पर आवश्यक महत्व बढ़ाकर हम न केवल अपने नौनिहालों के मानसिक विकास में बाधा बने जा रहे हैं वरन अपनी भारतीय भाषाओं को भूलते जा रहे हैं। जहाँ भी किसी से संवाद की आवश्यकता होती है, लपक कर अंग्रेजी की वैशाखियों पर सवार हो लेते हैं।

जहाँ पर हमें भारतीय भाषाओं के मध्य सेतुबन्ध स्थापित करने थे और अपने देश में करने थे, उनका निर्माण करने के स्थान पर हम अपनी राह इंग्लैण्ड और अमेरिका जाकर बनाने लगते हैं। जहाँ बचपन में एक ही भाषा सिखानी चाहिये, दो दो भाषायें सिखाने लगते हैं। देश में एकता के सूत्र स्थापित करने के लिये एक भाषा थोपने की योजना बनाने लगते हैं।

भारतीय भाषायें यहाँ के जनमानस से सतही रूप से नहीं चिपकी हुयी हैं वरन उसकी जड़ें सांस्कृतिक और धार्मिक पक्षों को छूती हैं। उसे भूल जाने को कहना या उसका प्रयत्न भी करना दुखदायी रहा है, ऐसे ही असफल रहेगा और कटुता भी उत्पन्न करेगा। आपस में बात करने के लिये यदि हमें अंग्रेजी जैसी किसी मध्यस्थ भाषा की सहायता लेनी पड़े तब भी यह हमारे लिये लज्जा का विषय है। सब भाषाओं के प्रति पारस्परिक सम्मान का भाव व तदानुसार सेतुबन्ध बनाने के प्रयास ही भारत का भविष्य है। सेतुबन्ध न केवल हम सबको जोड़कर रखेगा वरन एक मार्ग भी बतायेगा जिससे नदी के दोनों ओर रहने वाले जन उसी एक जल से अपनी आर्थिक़, मानसिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक समरसता सींच सकें।

23.10.13

हल्की साइकिलें

मुझे साइकिल के आविष्कार ने विशेष प्रभावित किया है। सरल सा यन्त्र, आपके प्रयास का पूरा मोल देता है आपको, आपकी ऊर्जा पूरी तरह से गति में बदलता हुआ, बिना कुछ भी व्यर्थ किये। दक्षता की दृष्टि से देखा जाये तो यह सर्वोत्तम यन्त्र है। घर्षण में थोड़ी बहुत ऊर्जा जाती है, पर वह भी न के बराबर। कुल मिला कर चार स्थान ऐसे होते हैं जहाँ घर्षण हो सकता है, दो पहिये के संपर्क बिन्दु और दो चेन के धुरे। दक्षता प्रतिशत में नापी जाती है, जितना निष्कर्ष निकला, उसे लगे हुये प्रयास से भाग देकर सौ से गुणा कर दीजिये। जब व्यर्थ हुयी ऊर्जा न्यूनतम होती है तो दक्षता अधिकतम होती है। साइकिल के लिये यह लगभग ९८% तक होती है। एक नियत दूरी तय करने में, यातायात के अन्य साधनों में भी लगी ऊर्जा साइकिल की तुलना में कहीं अधिक होती है। यहाँ तक कि पैदल चलने में भी साइकिल से अधिक ऊर्जा लगती है।

पिछले सौ वर्षों में साइकिल की मौलिक डिज़ाइन में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। जो भी विकास हुआ है, वह नयी और हल्की धातुओं से उसका ढाँचा बनाने में और गियर बॉक्स परिवर्धित करने में हुआ है। मैं कल ही बंगलौर में देख रहा था, पहाड़ों पर चलाने वाली २४ गियर की साइकिल का भार मात्र १२ किलो था। पहाड़ो पर चलने वाली सबसे हल्की साइकिल ६.४ किलो की है। सामान्य श्रेणी में सबसे हल्साइकिल २.७ किलो की है जो आपका छोटा सा बच्चा भी उठा लेगा।

पर्यटन की दृष्टि से देखा जाये तो इस प्रकार की हल्की साइकिलें साथ में ले जाने में असुविधाजनक है, कारण उनका बड़ा आकार है। यदि ऐसी साइकिलों को ट्रेन के सामान डब्बे में रखने और उतारने की सुविधा रहे तो ही लम्बी यात्राओं में इनका उपयोग किया जा सकता है। यदि ऐसी व्यवस्था नहीं हो पाती है तो उस स्थिति में ऐसी साइकिल हो जो सहजता से मोड़ कर सीट के नीचे रखा जा सके। इस दृष्टि से बिना उपयोगिता प्रभावित किये हुये, साइकिलों का ढाँचा बदल कर, उनका भार १० किलो तक लाया जा चुका है। घुमक्कड़ों के लिये ऐसी मोड़ कर रखी जा सकने वाली साइकिलें भविष्य में बहुत उपयोगी सिद्ध होने वाली हैं।

हल्की साइकिलें, सहयोगी
इण्टरनेट देखें तो साइकिल के गुणगान से अध्याय भरे पड़े हैं, हर दृष्टि में साइकिल धुँये उगलते राक्षसों से श्रेष्ठ है। यदि आस पास दृष्टि उठाकर देखें तो परिस्थितियाँ सर्वथा पलट हैं, सड़कों पर एक साइकिल नहीं दिखती है। हाँ, कॉलोनी या मुहल्लों में साइकिल दिखती है पर वह विशुद्ध मनोरंजन और खेलकूद के प्रायोजन से। बंगलोर को पिछले ४ वर्षों से देख रहा हूँ, दो समस्यायें नित ही दिखायी पड़ती हैं। एक तो सड़कें वाहनों से भरी पड़ी हैं और उसमें बैठे लोग अति बेडौल होते जा रहे हैं। यह विडम्बना ही कही जायेगी कि यहाँ पर वाहनों की औसत चाल १०-१५ किमी प्रतिघंटे से अधिक नहीं है। यातायात का बोझ यहाँ की सड़कें उठाने में अक्षम हैं और अपना बोझ उठाने में यहाँ के सुविधाभोगी नागरिक। काश ऐसा होता कि १० किमी के तक के कार्य स्थलों के लिये साइकिल अनिवार्य हो जाती, उसके अनुसार सुरक्षित मार्ग बन जाते, तो यहाँ का पर्यावरण, सड़कें और नागरिक सौन्दर्य, व्यवस्था और स्वास्थ्य से लहलहा उठते।

आइये देखते हैं कि किस तरह से साइकिल अन्य माध्यमों से अधिक उन्नत है। यहाँ के यातायात की स्थिति लें तो एक साइकिल की तुलना में कार से जाने में ८० गुना अधिक ऊर्जा लगती है, जबकि इसमें ट्रैफिक सिग्नल में व्यर्थ किया गया तेल जोड़ा नहीं गया है। साइकिल की औसत गति १५ किमी प्रतिघंटा तक होती है, जबकि यातायात वाहनों को १५ किमी प्रतिघंटों से अधिक चलने नहीं देता है। यदि सड़कों पर वाहनों से चलने वाला यातायात साइकिल पर स्थानान्तरित कर दिया जाये तो सड़कें एक दो तिहाई स्थान रिक्त हो जायेगा। ८० गुना अधिक ऊर्जा व्यर्थ करने का दुख तो फिर भी सहा जा सकता है, पर उससे उत्पन्न प्रदूषण का क्या करें जो हमें कहीं अधिक हानि पहुँचा जाता है।

नगर अपने यातायात का चरित्र और स्वरूप जब बदलें, तब बदलें, पर पर्यटन की दृष्टि से हल्की और मोड़ कर रख सकी जाने वाली साइकिलों का महत्व अभी भी है। यह आपको दूरियों नापने में आत्मनिर्भर बनाती है। हो सकता है कि नगर के बाहर के क्षेत्रों में अन्य वाहनों की औसत गति साइकिल से अधिक हो, पर उस साधन की प्रतीक्षा करने में लगा समय यदि बचा लिया जाये तो संभव है कि साइकिल की उपयोगिता नगर के बाहर भी उतनी ही होगी जितनी किसी नगर के अन्दर।

साइकिल की उपयोगिता ऊर्जा, गति, भार, धन और समय की दृष्टि से यातायात के अन्य साधनों की तुलना में कहीं अधिक है। साइकिल के लिये भारी आधारभूत ढाँचे की आवश्यकता नहीं, एक पतली सी पगडंडी में भी साइकिल बिना किसी समस्या के चलायी जा सकती है। भारी वाहनों के लिये बनायी गयी सड़कों में लगे धन का एक चौथाई भी लगाया जाये तो साइकिल के लिये एक अलग गलियारा तैयार किया जा सकता है। यही नहीं भूमि का अधिग्रहण भी उसी अनुपात में कम किया जा सकता है, खेती योग्य भूमि बचायी जा सकती है।

इन सब गुणों के अतिरिक्त साइकिल की बनावट और परिवर्धन में विशेष रुचि भी रही है। आईआईटी में तृतीय वर्ष के ग्रीष्मावकाश में वहीं पर रह गया था। एक प्रोफ़ेसर उस समय साइकिल की नयी बनावटों पर कुछ शोध कर रहे थे। उनके सान्निध्य में रहकर साइकिल की यान्त्रिकी कार्यपद्धति के बारे में बहुत कुछ जाना। यही नहीं, किस तरह से नयी धातुओं या कार्बन फ़ाइबर का उपयोग कर भार कम किया जा सकता है, किस तरह उसके बल संचरण को बनावट में परिवर्तन कर साधा जा सकता है, किस तरह चेन के स्थान पर सीधे ही पहियों में ही पैडल लगाया जा सकता। इसी तरह के भिन्न प्रश्नों ने पहली बार साइकिल जैसी साधारण लगने वाले यन्त्रों में संभावनाओं की खिड़की खोली थी। सच मानिये ग्रीष्म की गर्मी और तीन माह के समय का पता ही नहीं चला था उस रोचकता में।

मोड़े जाने योग्य साइकिलों की बनावट अपने आप में एक पूर्ण विधा है। आप इण्टरनेट पर खोजना प्रारम्भ कीजिये, न जाने कितने प्रकार की तकनीक आपको दिख जायेंगी, सब की सब एक दूसरे से भिन्न और कई पक्षों में श्रेष्ठ। मुझे फिर भी एक बनावट की खोज है जिसमें एक साइकिल को न केवल मोड़ कर रखा जा सके, खोल कर चलाया जा सके, वरन आवश्यकता पड़ने पर व्हील चेयर के आकार में परिवर्तित कर हाथों से भी चलाया जा सके। इसके पीछे कारण बड़ा ही सरल है, कई बार ऐसा होता है कि लगातार एक दो घंटे तक साइकिल चलाते चलाते आपके पैर थक जायें तब आप बिना यात्रा बाधित करे बैठकर हाथों से साइकिल चलायें और पैरों को विश्राम दें। किसी न किसी साइकिल कम्पनी को यह विचार अवश्य ही भायेगा, तब निष्कर्ष निश्चय ही साइकिल के लिये अधिक उपयोगिता लेकर आयेंगे।

हल्की, उन्नत याइक बाइक
सम्पत्ति में हो रहे शोधों ने यदि किसी ने बहुत प्रभावित किया है तो वह है, याइक बाइक। यद्यपि यह परम्परागत पैडल वाली साइकिल नहीं है और इसमें एक छोटी सी मोटर भी लगी है, पर बनावट के दृष्टि से आधुनिक शोधों के लिये एक दिशा है। एक पहिये में मोटर लगी है जो बिजली से चार्ज हो जाती है और एक चार्ज में १४ किमी की दूरी तय कर लेती है। यही नहीं, ब्रेक लगाने से साइकिल की ऊर्जा वापस बैटरी में चली जाती है। १२ किलो की यह साइकिल बड़ी सुगमता से मोड़ी जा सकती है और नियमित कार्यालय जाने वालों के लिये यह एक वरदान सिद्ध हो सकती है। यद्यपि इसे मानवीय रूप ये चार्ज करने का प्रावधान नहीं है और बैटरी समाप्त होने की स्थिति में पैडल मारने की भी व्यवस्था नहीं है। यदि इन बिन्दुओं पर ध्यान दिया जाये तो यह जनसाधारण और जनपदों के लिये एक वरदान हो सकती है।

साइकिल एक शताब्दी देख चुकी है पर अब भी संघर्षरत है। उसका संघर्ष तेल से है, तेल भरे और धुँआ उगलते राक्षसों से है, उसे निम्न समझने वालों की मानसिकता से है और साथ ही साथ उन सड़कों से भी है जहाँ पर उनको अपनी संरक्षा का भय है। पर्यटन और नगर यातायात में साइकिल के इस संघर्ष को हमें अपनाना होगा और उसे समुचित स्थान दिलाना होगा। यदि ऐसा हम नहीं करते हैं तो संभव है कि कल डॉलर और तेल मिल कर हमारा कॉलर पकड़ें और तेल निकाल दें।

चित्र साभार - singletrackworld.com, Yike Bike

19.10.13

कितनी पहचानें

कुछ दिन पहले एक डाटा कार्ड लिया था। उसके लिये दो प्रमाणपत्रों की आवश्यकता थी, पहचान के लिये और निवास के लिये। यद्यपि मेरे पास कार्यालय द्वारा प्रदत्त पहचान पत्र और निवास प्रमाण पत्र था पर एयरटेल वालों ने दोनों ही मानने से मना कर दिया। समझाया कि यह एक सरकारी प्रपत्र है तो कहने लगे कि कोई भी संस्था अपने कर्मचारियों को इस तरह के काग़ज़ बाँटती रहती है। भंगिमाओं से देखा जाता तो उनका प्रतिनिधि एक न्यायविद की तरह बात कर रहा था और मुझे एक संदिग्ध आतंकवादी की तरह समझ रहा था। विकल्प था अतः पैन कार्ड का प्रस्ताव रखा, उस पर भी मना कर दिया, कहा कि उसमें निवास प्रमाण पत्र नहीं रहता है। चुनाव पहचान पत्र था तो उसमें गृहनगर का पता था, ड्राइविंग लाइसेन्स पर अन्य नगर का पता था। लगा कि, सुरक्षा के नाम पर जितना कवच चढ़ा रखा है, उसके अनुसार तो हमें डाटाकार्ड मिलने से रहा। एयरटेल की फाइलों में संभवतः मेरे केस का निस्तारण मेरे ऊपर प्रतिकूल टिप्पणी करने जैसा हो। मेरे डाटा कार्ड को न देने का कारण संभवतः यह लिख दिया जाये, कि वैध पहचान व निवास प्रमाण पत्र प्रस्तुत करने में असमर्थ, भारतीय नागरिक होने में सन्देह। इतने कड़े नियम बने रहे तो हम जैसे सरकारी नौकर भी बांग्लादेशी घुसपैठिये मान लिये जायेंगे। अपने देश में ही हमारे साथ परायों सा व्यवहार हो रहा है, हम निराशा में डूब गये।

पहचान सिद्ध करने के लिये पहचानें
तब सोचा कि नियम अंधे हो सकते हैं, मानवीय संवेदनायें नहीं। हमने कहा कि हम तो भारत सरकार की कार्यनदी में डूबते उतराते तत्व हैं और हर दो तीन वर्ष में अपना स्थान बदलते रहते हैं। अपने कार्यालय के अतिरिक्त कोई और प्रमाण पत्र तो ला भी नहीं सकते हैं। आप ही अपने आप में संतुष्ट हो लो, दयादृष्टि कर दो। पता नहीं तर्क ने अपना काम किया या उसे सद्बुद्धि आयी या उसका अहं संतुष्ट हुआ, पर वह मान गया। एक दो दिन में घर के पते पर सत्यापन करने आया और अगले दो दिनों में फ़ोन के द्वारा पुनर्सत्यापन कर डाटा कार्ड प्रारम्भ कर दिया।

बैंक वाले भी पहचान पूरी जानने के लिये लालायित रहते हैं, पर उनके लिये पैन कार्ड ही सब कुछ है, संभवतः उन्हें व्यक्ति के आर्थिक पक्ष से ही सारोकार है। पैन कार्ड वाले व्यक्ति के लिये बैंक में कुछ भी करवा पाना कठिन नहीं है। हर छोटी सी चीज़ के लिये एक फोटो माँग लेते हैं और पैन कार्ड की फोटोकापी।

इसी कड़ी में अभी कुछ दिन पहले आधार कार्ड के लिये एक कैम्प रेलवे परिसर में ही लगा। सबने कहा बनवा लीजिये, इतने जटिल अनुभव पाने के बाद अपना आधार स्थापित करना अत्यन्त आवश्यक है। हम भी सहमत हो गये कि चलो, इसी बहाने ठोस सरकारी आधार मिल जायेगा। यहाँ भी डाटाकार्ड की तरह दो प्रमाणपत्र माँगे गये, मैंने तुरन्त ही रेलवे प्रदत्त पहचान और निवास प्रमाणपत्र प्रस्तुत कर दिये। ठेके पर आधारकार्ड बनवाने वाले युवा के चेहरे से लगा कि वह भी एयरटेल के प्रतिनिधि की तरह न्यायविद की कुर्सी पर सत्तासीन है, पर नीचे रेलवे की मुहर देख कर तनिक ठंडा पड़ गया। जिस संस्था की भूमि पर उसे आधार कार्ड बनाने की सुविधा मिली थी, वह उसके मुहर की अवहेलना नहीं कर सकता था। संतुष्टि के भाव आंशिक अवश्य थे पर कोई हठधर्मिता नहीं दिखी। मेरे पूरे हाथ के प्रिण्ट और आँखों की छाप ले ली गयी और प्रक्रिया पूरी होने के बाद एक पावती पकड़ा दी गयी।

जब श्रीमतीजी और बच्चों की बारी आयी तो मेरे प्रमाणपत्रों के आधार पर उनका आधारकार्ड बनाने से वह नियमों के अध्याय पढ़ने लगा। कहा कि पहले तो आप यह सिद्ध कीजिये कि ये वही हैं जो आप कह रहे हैं। साथ ही साथ उनके साथ अपने संबंध का प्रमाणपत्र भी लाइये। हमें लग गया कि इस ठेके के एजेण्ट ने हमारा सर तो किसी विवशतावश निकल जाने दिया पर हमारे धड़ को नियमों के पाश से जकड़ लिया।

श्रीमतीजी के साथ हमारे संबंध का प्रमाण पत्र एक वह फोटो भर थी, जिसमें हम मुस्कुराने का प्रयास करते हुये उनके गले में वरमाला डाल रहे थे। विवाह के पंजीकरण को करोड़ों भारतीयों की तरह अनिवार्य न मानते हुये, उसी फोटो की स्मृतिविधा में जिये जा रहे थे। फोटोशॉप के आगमन के बाद तो ऐसी न जानी कितनी फोटुयें संदेह के घेरे में आ जायें। श्रीमतीजी जिस तरह प्यार से हमें घर में समझाती हैं, उस तरह समझाकर वह अपनी पत्नी होने के संबंध को सिद्ध कर सकती थीं, पर भरी भीड़ में ऐसा करने में वह सकुचा गयी होंगी। श्रीमतीजी ने अपना पैनकार्ड और चुनाव पहचान पत्र तो दिखा दिया, पर वे दोनों ही विवाह के पहले के थे और दोनों में ही उनके पिताजी का नाम अभिभावक के रूप में लिखा था। संबंध सिद्ध करने का फिर भी कोई प्रमाणपत्र नहीं था। यद्यपि वहाँ पर खड़े दो बच्चे हम दोनों को माताजी और पिताजी कह रहे थे और यह तथ्य हमारे पति पत्नी के संबंधों को सिद्ध करता था, पर नियमों के सामने भावनाओं का कोई मोल नहीं।

बच्चों के साथ तो समस्या और गहरी थी। उनके पास न तो पहचान पत्र ही था और न ही संबंध सिद्ध करने का प्रमाणपत्र। यदि संबंध के नाम पर कुछ था तो वह कई वर्ष पहले बनवा लिया जन्म प्रमाण पत्र, जिसमें पिता के रूप में मेरा नाम लिखा था. पर वह यह सुनिश्चित नहीं करता था कि उसमें लिखा पता मेरा ही है, किसी और प्रवीण पाण्डेय का नहीं। साथ ही साथ उसमें लिखा पता मेरा स्थायी पता था, न कि वर्तमान। एक और बात थी कि जन्म प्रमाण पत्र में बच्चों की फोटो नहीं लगी थी, तो यह भी सिद्ध नहीं हो पा रहा था कि जो बच्चे वहाँ पर खड़े हैं, वे उन्हीं के जन्म प्रमाण पत्र है। जन्म प्रमाण पत्र इस प्रकार एक चौथाई भी पहचान सिद्ध नहीं कर पा रहा था। दूसरा था, विद्यालय प्रदत्त पहचान पत्र। विद्यालय पहचान पत्र में फोटो तो लगी थी पर घर का पता नहीं था और साथ ही साथ माता पिता का नाम नहीं था। अत: वह पहचान पत्र भी पूर्ण नहीं माना गया। हाँ, यदि दोनों को मिला कर तार्किक निष्कर्ष निकाले जाते तो पहचान और संबंध पूर्ण सिद्ध हो रहे थे, पर अधिक बुद्धि लगाना ठेके पर आये एजेण्टों के अधिकार क्षेत्र में नहीं था।

अब क्या किया जाये, हमारा आधार बन जाये और यदि औरों का न बने तो घर में विद्रोह निश्चित था। लगा कि नियमों से परे कोई देशी तोड़ निकालना पड़ेगा। थोड़ा और गहराई में उतरा गया तो पता लगा कि कोई सांसद, विधायक या राजपत्रित अधिकारी प्रमाणपत्र दे दे तो वह उन्हे मान्य है। एक राजपत्रित अधिकारी होने को आधार पर जब मैंने सबका प्रमाणपत्र देने को कहा तो मुझको कहा गया कि आप अपने संबंधी के लिये प्रमाणपत्र नहीं दे सकते। मैंने कहा कि आप उन्हें मेरा संबंधी मान ही नहीं रहे हैं तो प्रमाणपत्र देने दीजिये। यह भी तर्क भैंस के सामने बीन बजाने जैसा सिद्ध हुआ।

अब मेरा कार्याल़य मेरी श्रीमतीजी और बच्चों के लिये पहचान पत्र और संबंध प्रमाणपत्र कैसे दे? यह बड़ी समस्या थी और उनके अधिकार क्षेत्र के बाहर भी। कार्यालय तो मेरे लिये तो यह कार्य कर सकता था, बच्चों और श्रीमतीजी का सत्यापन उसकी परिधि के बाहर था। यह दोनों ही विषय राज्य सरकार की अधिकार सूची में थे और हम ठहरे केन्द्र सरकार के नौकर, कोई किसी की सुध क्यों ले। कार्यालय को यह भी भय था कि कहीं हम उन प्रमाण पत्रों को किसी और उपयोग में न ले आयें। अन्ततः एक सरकारी उपाय निकाला गया। हमने अपने वरिष्ठ अधिकारी को लिख कर दिया कि आधार कार्ड बनवाने के लिये मुझे संलग्न प्रमाणपत्रों की आवश्यकता है, जिसके आधार पर हमें केवल इसी हेतु और एक बार उपयोग में लाने के लिये प्रमाणपत्र दे दिया गया। आधारकार्ड वाले भी उन प्रमाण पत्रों को मान गये और श्रीमतीजी और बच्चों के लिये भी आधारकार्ड की प्रक्रिया पूरी हो गयी। अब तीन माह बाद हम सबके आधारकार्ड बनकर मिल जायेंगे।

एक देश में एक ही पहचान हो
अब पता नहीं कि आने वाले समय में आधारकार्ड ही एकमात्र पहचान रहेगी कि अन्य पहचानों का सहारा भी लिया जायेगा? आज आकर मैंने अपने सारे पहचान प्रमाणपत्र व बैंक आदि के कार्ड निकाल कर देखे, छोटे बड़े मिलाकर १०-१२ निकले, सब के सब एक दूसरे से असंबद्ध। हर कार्ड के लिये कोई न कोई पहचान प्रस्तुत की गयी होगी पर किसी में भी कोई संदर्भ नहीं था। क्या आने वाले समय में पहचान के सारे बिखरे तन्तुओं को एक सूत्र में पिरोया जायेगा? क्या निश्चय समयाविधि में आधारकार्ड सबके लिये अनिवार्य होगा और सारे कार्डों में आधारकार्ड का संदर्भ देना आवश्यक किया जायेगा? क्या अमेरिका की तरह कोई एक ही पहचान पत्र को सभी प्रकार के सामाजिक व आर्थिक प्रक्रियाओं के लिये मान्यता दी जायेगी?

मेरे इस जन्म में तो यह सब होता असंभव दिखता है। सुना है कि बांग्लादेशी घुसपैठियों को सहज ही पहचान मिल जाती है और इसी देश में जन्मे और बढ़े हुये न जाने कितनों को अपनी पहचान सिद्ध करने में संशय और संदेह के कितने अपमानों से होकर निकलना पड़ता है। अगले जन्म में यदि पुनः भारत आने का आदेश मिलता है तो ईश्वर से कहूँगा कि कर्ण की तरह ही कवच और कुण्डल चढ़ा कर भेजना। कर्ण की तरह अपमान और तिरस्कार झेलने की शक्ति भी आ जायेगी और कवच और कुण्डल दिखा कर अपनी पहचान भी बताता रहूँगा।

16.10.13

शिक्षा के बिसराये सूत्र

टेड पर सर केन रॉबिन्सन के विचार सुन रहा था, शिक्षा पर। विचार सरल थे, सहज थे और सारगर्भित थे। अनुभव जैसे जैसे गाढ़ा होता जाता है, अभिव्यक्ति तरल होती जाती है, श्री रॉबिन्सन को सुनकर यह सिद्धान्त और भी दृढ़ हो चला। यही नहीं, जब कोई ज्ञान तत्व बिना किसी श्रांगारिक कोलाहल के सुनने को मिलता है, वह ग्रहणीयता के तार झंकृत कर देता है। एक स्थान पर खड़े हुये दिये गये २० मिनट के इस आख्यान में दशकों की अनुभव यात्रा का निचोड़ था।

शिक्षा पर विचारणीय दृष्टि
वार्ता का विषय था कि किस तरह शिक्षा की मृत्युघाटी से बाहर निकलें। वर्तमान शिक्षा पद्धति के लिये इतने कठोर शब्द का उपयोग ही उनके अवलोकनों और विश्लेषणों के निष्कर्ष को व्यक्त करता है। साथ ही साथ उस पीड़ा और छटपटाहट को भी दिखाता है जिससे होकर शिक्षा के प्रति संवेदनशील बौद्धिक समाज जी रहा है। उस मात्रा में भले ही न हो, पर शिक्षा पद्धति के विषय में हम सबके अन्दर भी उसी प्रकार की असंतुष्टि पनप रही है।

श्री रॉबिन्सन के अनुसार मानव की शिक्षा पद्धति मानव के मूलभूत गुणों के अनुरूप होनी चाहिये, पर वर्तमान शिक्षा पद्धति इनकी अनदेखी कर रही है। केवल अनदेखी ही नहीं कर रही है वरन उसके विपरीत जा रही है। यदि यही होता रहा तो मानव धीरे धीरे मशीन होता जायेगा, सभ्यता के विस्तृत प्राचीर में एक ईंट। यन्त्रवत से जीवन हो जायेंगे, तन्त्र मानवीय न रहेंगे।

मानव के तीन मूलभूत गुण हैं। पहला है उनकी भिन्नता और विविधता। दूसरा है उनमें निहित उत्सुकता। तीसरा है उनकी सृजनात्मकता। यही तीन गुण उसे मानसिक और बौद्धिक रूप से पूरी तरह से विकसित करते हैं। बिना इन तीन गुणों के मानव स्वयं को पूर्णता से व्यक्त नहीं कर सकता है। एक भी विमा यदि अनुपस्थिति रही तो विकास आंशिक होगा, सर्वपक्षीय नहीं होगा। आइये देखते हैं कि वर्तमान शिक्षा पद्धति किस प्रकार इन तीनों मूलभूत धारणाओं के विपरीत कार्य कर रही है।

कोई दो बच्चे एक जैसे नहीं होते हैं, जन्म से भी नहीं, परिवेश से भी नहीं, भले ही वे सगे भाई या सगी बहनें ही क्यों न हों? सबकी अपनी क्षमता होती है, सबकी अपनी विशिष्टता होती है। फिर भी हमारी शिक्षा पद्धति ऐसी है कि हम सबको एक जैसा ही बनाना चाहते हैं। प्रारम्भ से एक ही विषय पढ़ाते हैं, एक सा ही समझते हैं, फैक्टरी के उत्पाद जैसा। एक जैसी शिक्षा सबके काम नहीं आती है, कुछ को रुचिकर लगती है, कुछ सामाजिक कारणों से लग कर पढ़ते हैं, कुछ माता पिता को दिखाने के लिये पढ़ते हैं, कुछ का मन तनिक भी नहीं लगता है, कुछ पढ़ाई छोड़ ही देते हैं। हमें लगता रहता है कि बच्चों का मन पढ़ाई में क्यों नहीं लग रहा है? उपाय भी सरल ही है, देखिये कि पढ़ाई छोड़ने के बाद किन किन क्षेत्रों में बच्चों का मन लगता, वे सारे विषय पढ़ाये जाये। हर एक के लिये अपनी रुचि के अनुसार पढ़ने को मिले तो समय के पहले पढ़ाई छोड़ देने वालों की संख्या न्यूनतम हो जायेगी।

क्या शिक्षा में यह उत्सुकता पल्लवित होती है?
बच्चे प्राकृतिक रूप से उत्सुक होते है, जिज्ञासु होते हैं। उनकी उत्सुकता को व्यापक आधार या निष्कर्ष देने के स्थान पर हम उसमें ठंडा जल डाल देते हैं। यदि हम उनको यह बता दें कि क्या पढ़ना है तो वे हमसे अच्छा पढ़ सकते हैं। हमारी शिक्षा पद्धति उन्हें सब कुछ घोंट कर पिला देना चाहती है, वह सब कुछ जिसे जानकर हम स्वयं को विद्वान समझने का भ्रम पाले बैठे हैं। आप उन्हें बताये या न बतायें, उनकी उत्सुकता उन्हें वांछित ज्ञान तक ले आयेगी। कितनी ही ऐसी ज्ञान की बाते होती हैं जो बच्चे स्वयं ही सीख जाते हैं। कभी उनके प्रश्नों की दिशा और सृजनात्मकता पर ध्यान दिया है, आप आश्चर्य करने के अतिरिक्त कुछ और कर भी नहीं सकते हैं। उसकी उत्सुकता के लिये हमें उसे उकसाने की आवश्यकता है, उसे दिशा देने की आवश्यकता है, उसे प्रेरित करने की आवश्यकता है। हमें उसे पढ़ाना नहीं है, उसे सीखने के लिये उद्धत करना है, उत्सुकता का उपयोग करने के लिये तैयार करना है। इसके स्थान पर वर्तमान शिक्षा पद्धति ज्ञान ठूँसने में विश्वास रखती है और यह जानने के लिये परीक्षायें लेती रहती है कि ठूँसे हुये ज्ञान को समुचित उगलने का अभ्यास किया कि नहीं किया बच्चों ने?

सृजनात्मकता हमारा सर्वाधिक सशक्त गुण है। आप एक समस्या दस बच्चों को देकर देखिये, सब के सब अपने सृजनात्मक वैशिष्ट्य के अनुसार उसका समाधान ढूँढ़ लेगे। जीवन की समस्या है, ज्ञान की समस्या हो, विकास के सारे अध्याय इसी गुण ने लिखे हैं। इस गुण को उभारने के स्थान पर वर्तमान शिक्षापद्धति सबको समान रूप से उत्तर देने की अपेक्षा रखती है और जो सबसे भिन्न रहता है, वह दौड़ में पिछड़ जाता है। हम मानकीकरण को अपना मूलमन्त्र बनाये बैठे हैं, सबको एक ही तुला से तौलने चले हैं।

जब तक ये तीनों गुण पोषित रहते हैं, बच्चे को अपना महत्व पता चलता रहता है। उसे लगता है कि वह अपने प्रयास से सीख रहा है, न कि शिक्षा पद्धति से बौद्धिक अनुदान पा रहा है। उसे करने का भाव मिलता है, न कि कुछ पा जाने का। आन्तरिक क्रियाशीलता बच्चे को प्रेरित करती है, उकसाती है। यदि ऐसा नहीं हो पाता है तो वह अपना रुझान खो देता है, ठंडा पड़ जाता है। थोपे हुये तत्व व्यक्तित्व को ठेस पहुँचाते हैं, वह उन्हें स्वीकार नहीं कर पाता है। विविधता बनी रहती है तो कुछ भी थोपा हुआ सा नहीं लगता है, उत्सुकता बनी रहती है तो कुछ थोपा हुआ सा नहीं लगता है, सृजनात्मकता बनी रहती है तो कुछ थोपा हुआ सा नहीं लगता है।

वर्तमान शिक्षा पद्धति को इस दिशा में सोचना होगा। फैक्टरी के स्वरूप में शिक्षा को उत्पाद नहीं बनाया जा सकता। शिक्षक और शिष्य के बीच वैयक्तिक और दीर्घकालिक संबंध और क्रियाशीलता आवश्यक है। एक के बाद एक सारे महान जनों को देख लें, उनके ऊपर किसी शिक्षक की कृपादृष्टि रही है, जिसने ये तीन गुण न केवल समझे, वरन व्यक्तित्व में विकसित कराये। बच्चे को पढ़ाने भर से शिक्षकीय कर्मों की इतिश्री नहीं हो सकती है। एक बच्चे को पढ़ना और तदानुसार गढ़ना, यही एक शिक्षक का मूल कार्य है, यही शिक्षा पद्धति की सार्थकता है। 

12.10.13

कानपुर से बंगलोर

आनन्द के अतिरेक में थकान का पता नहीं चलता है। थकान तब आती है, जब आनन्द अवस्था से आप जीवन के सामान्य पर उतर आते हैं। दिनभर सहपाठियों के साथ भेंट में समय का पता ही नहीं चला। मन तो प्रसन्न ही बना रहा, पर शरीर अपनी सीमाओं से कितना परे जा चुका था, उसका प्रमाण मिलना शेष था। मन अपने सामने किसी की सुनता नहीं है, सबसे मनमाना कार्य लेता है। शेष सबको अपनी सीमाओं से आगे निकलने का पता तब चलता है जब मन तनिक शान्त होता है। मन मित्र बना रहे, सच्चा साथ देता रहे, भरमाये नहीं, उद्विग्न न करें, और भला क्या चाहिये इस चंचल जीव से।

स्टेशन जाते समय थोड़ी देर के लिये अपने मामाजी के यहाँ जाना हुआ। मन का उछाह और तन की थकान मेरे ममेरे भाई को स्पष्ट दिख गयी थी, उसने स्नान करने की भली सलाह दी। स्नान के पश्चात मन स्थिर हुआ, शरीर में शीतलता भी आयी, पर लगा कि थोड़ा विश्राम फिर भी आवश्यक है। अब थोड़ी ही देर में वापसी की यात्रा प्रारम्भ करनी है, सोचा तभी जीभर कर विश्राम हो जायेगा, अभी तन्त्रिका तन्तुओं को सचेत रखते हैं।

नाम में दम
वहाँ से स्टेशन जाते समय एक चाट वाला ठेला दिखायी पड़ा, लिखा था, हाहाकार बतासे, ललकार टिकिया। वाह, सच में महारोचक नाम है यह, बतासे ऐसे कि आप हाहाकार कर उठें और टिकिया आपको खाने के लिये ललकारे, विपणन की भला इससे अधिक प्रभावी तकनीक और क्या हो सकती है? कानपुर में ही एक और प्रसिद्ध दुकान है, ठग्गू के लड्डू और बदनाम क़ुल्फ़ी। आनन्द की बात यह है कि इतने दमदार और दामदार नाम होने के बाद भी यह नगर मँहगा नहीं है। बंगलोर जैसे मँहगे नगर में रहने के बाद कानपुर के बारे में एक बात तो सविश्वास कहीं जा सकती है, नामों में दम पर दामों में कम। पिछली पोस्ट में कानपुर की न सुधरने वाली टिप्पणी कहीं हमारे ससुराल, विद्यालय और आईआईटी का हृदय न तोड़ बैठे, इसलिये कानपुर के कुछ अच्छे पक्ष उजागर करने का नैतिक दायित्व भी हमारा ही बनता है।

इदमपि कानपुरम्
झाँसी इण्टरसिटी प्लेटफ़ार्म नम्बर एक से जानी थी। वहाँ पर पहुँच कर एक दूसरे प्रकार के आनन्द की अनुभूति हुयी। पिछले कई वर्षों से एक नम्बर प्लेटफ़ार्म को देखता आ रहा हूँ, सदा ही ऐसा लगा था कि वहाँ पर स्थान कम है और भीड़ अधिक। इस बार स्थान अधिक लगा और भीड़ कम। पिछले एक दो वर्षों से हुये बदलाव में ट्रेन से २० मीटर तक की दूरी से सारी दुकानें, बेंच और अन्य अवरोध हटा लिये गये हैं। इतना सपाट कि वहाँ पर चार सौ मीटर की दौड़ आयोजित की जा सके। ऐसा करने से यात्रियों के आवागमन में कोई कठिनाई नहीं आती है और सब कुछ बड़ा खुला खुला सा लगता है। यदि प्लेटफ़ार्म बनाये जायें तो ऐसे ही बनाये जायें, परिवर्धन भी इन्हीं सिद्धान्तों पर ही हो। दुकान, बेंच आदि बनाने से हम थोड़ी बहुत सुविधा तो देते हैं पर प्लेटफ़ार्म को उसके प्राथमिक कार्यों से वंचित कर देते हैं। प्लेटफ़ार्म का प्राथमिक कार्य अधिकतम भीड़ को निर्बाध रूप से सम्हालना है। भोजन, विश्राम आदि की व्यवस्था प्लेटफ़ार्म क्षेत्र के बाहर हो, प्लेटफ़ार्म पर केवल यात्री ही जाये, सामान ले जाने के लिये ट्रॉली हों, आने और जाने के लिये भिन्न भिन्न द्वार हों, तभी कहीं जाकर स्टेशनों पर स्वच्छता और व्यवस्था रह पायेगी। अभी तो प्लेटफ़ार्म पूरा मेलाक्षेत्र लगता है, १५-२० मीटर चौड़े और ६०० मीटर लम्बे प्लेटफ़ार्म सदा ही पूरी तरह खचाखच भरे दिखते हैं। ट्रेनों में यात्रियों की पूरी संख्या की दृष्टि से भी यह क्षेत्रफल ४ गुना है, फिर भी पैर रखने का स्थान नहीं मिलता है प्लेटफ़ार्मों पर। बताते चलें कि चीन में केवल यात्री ही प्लेटफ़ार्म पर जा सकते हैं और वह भी ट्रेन आने के मात्र ३० मिनट पहले ही। वहाँ के प्लेटफ़ार्म इतने स्वच्छ और खाली दिखते हैं कि वहाँ फ़ुटबॉल खेली जा सके।

इण्टरसिटी समय से आयी, इस बार पिछले दरवाज़े के पास की सीट मिली थी, सीट पर बैठने के बाद अत्यधिक सफल और सुचारु रूप से संचालित कार्यक्रम के लिये कई मित्रों को धन्यवाद प्रेषित किया और आँख बन्द कर कुछ सोचने लगे। थकान तो पहले से ही थी अतः बैठते ही निढाल हो सीट पर ही लुढ़क गये, कब नींद आ गयी पता ही नहीं चला। अधिक विश्राम हो नहीं पाया और शीघ्र ही नींद उचट गयी। वातानुकूलन होने के बाद भी गर्मी लग रही थी, अर्धचेतना में संशय हुआ कि या तो बुखार आ गया है या वातानुकूलन कार्य नहीं कर रहा है। पूर्णचेतना में आने पर कारण तीसरा ही निकला।

कोच के बाहर खड़ा एक व्यक्ति धीरे से दरवाज़ा धकिया कर वातानुकूलन की शीतल हवा बाहर लिये ले रहा था। उसके ऐसा करने से बार बार गर्म हवा का झोंका लग रहा था और विश्राम में विघ्न पड़ रहा था। उलझन तो हुयी पर मुझे उन महाशय की जुगाड़ प्रवृत्ति पर आश्चर्य भी हुआ और हर्ष भी। तभी विद्युत विभाग के अपने एक सहयोगी अधिकारी की बात याद आयी कि यदि दरवाज़ा खुला रह जाये तो वातानुकूलित संयन्त्र पर बहुत अधिक बोझ पड़ जाता है और संभावना रहती है कि वह शीघ्र ही ढेर न हो जाये। कहीं संयन्त्र बिगड़ न जाये, इस संभावना को न आने देने की कटिबद्धता में मैंने टीटी महोदय को बुला कर वातानुकूलन का यह पक्ष समझाया और उन व्यक्ति को ऐसा न करने की सलाह देने को कहा। मेरे याचना में संभवतः उतना बल न होता जितना टीटी महोदय के एक वाक्य में दिखा। उस व्यक्ति ने मेरी ओर ऐसे देखा, मानो मैंने लोकतन्त्र या धर्मनिरपेक्षता की नयी परिभाषा प्रस्तुत कर दी है। फिर बाहर जाकर टीटी महोदय ने उन महाशय को पता नहीं किन शब्दों में क्या समझाया कि वे नत होकर दृष्टि से ओझल हो लिये।

बाहर से गर्म हवा आनी भले ही बन्द हो गयी हो पर लोगों की बातचीत का उच्च स्वर सुनायी पड़ रहा था। कान लगा कर सुना तो विषय था कि अगला प्रधानमंत्री कौन? चर्चा भले ही चलती ट्रेन में हो रही थी, भले ही वातानुकूलन के बाहर हो रही थी, भले ही खड़े खड़े हो रही थी, पर चर्चा टीवी पर होनी वाली चर्चाओं से कहीं ऊँचे स्तर की और कहीं अधिक विश्लेषणात्मक थी। मुज़फ़्फ़रनगर दंगों के राजनैतिक प्रभाव, दशकों से वोटर की बदलती मानसिकता, राजनैतिक पार्टियों की सूचना संग्रहण प्रक्रिया और निर्णयों को किस समय लेना है, इन जैसे कई विषयों पर जो सुनने को मिला, वैसा आज तक न किसी चैनल में सुना और न किसी समाचार विश्लेषण में पढ़ा। कानपुर के आस पास के जनों की इतनी उच्च राजनैतिक चेतना देख कर मन किया कि अपनी सीट उन्हें देकर उनका त्वरित सम्मान कर दें, पर अपनी थकान का स्वार्थ सर चढ़ कर बोलने लगा और यह सुविचार उतनी ही त्वरित गति से त्याग दिया गया। हाँ यदि टीवी चैनल वालों को अपनी टीआरपी स्तरीय विश्लेषणों से बढ़ाने की इच्छा हो तो उन्हें कानपुर-झाँसी के बीच चलने वाली ट्रेनों में अपना स्थायी प्रतिनिधि नियुक्त कर देना चाहिये।

झाँसी उतर कर ३ घंटे का विश्राम था, पर पूर्व परिचितों के आ जाने और उनके साथ बतियाने में वह समय भी निकल गया। नींद का ब्याज बढ़ता जा रहा था, पर राजधानी ट्रेन का आश्रय था कि उसमें सोकर सारी थकान उतारी जायेगी।

बंगलोर राजधानी झाँसी के प्लेटफ़ार्म नम्बर एक पर ही आयी। कोच पीछे था, वहाँ पहुँचने के क्रम में सारे प्लेटफ़ार्म पर एक विहंगम दृष्टि डाली। कानपुर की तुलना में झाँसी का प्लेटफ़ार्म पूरी तरह से भरा और अव्यवस्थित लग रहा था। अव्यवस्था से अधिक, झाँसी का प्लेटफ़ार्म वहाँ पर व्याप्त घोर निर्धनता को भी अभिव्यक्त कर रहा था। रात को कई ट्रेनें झाँसी से होकर निकलती हैं, कई ट्रेनें सुबह जाती है, लोग सायं से ही आकर स्टेशन पर डेरा डाल लेते हैं। प्लेटफ़ार्म पर ग्रेनाइट या अच्छा पत्थर लगने से लोगों को वहाँ पर सो लेने में कष्ट नहीं होता है। बहुतों के पास चद्दर नहीं थी, कई गत्ते बिछाकर सोये थे, कई नीचे अखबार बिछाये लेटे थे। छोटी छोटी गठरियाँ, मैले कुचैले कपड़े, सोये समाज में श्रमिक वर्ग प्रमुख था। पाँच छह के समूह में एक व्यक्ति आधी आँख खोले सामान की सुरक्षा कर रहा था। जो एकल थे, वे अपना सामान या तो हाथों में बाँधे थे या पैरों से दबाये सो रहे थे। बीस मीटर चौड़े प्लेटफ़ार्म पर दो फ़ुट चौड़ा रास्ता नहीं मिल रहा था चलने को। ऐसा नहीं है कि आवश्यकता पड़ने पर प्लेटफ़ार्म पर सोया नहीं जा सकता, पर यह दृश्य देख कर विवशता शब्द अधिक मुखरित होता है।

राजधानी के अन्दर पहुँच कर लगा कि सहसा विश्व परिवर्तन हो गया। रात्रि का डेढ़ बजा था, झाँसी के प्लेटफ़ार्म नम्बर एक का दृश्य मन को व्यथित अवश्य कर रहा था पर इस बार मन पर शरीर ने सहज अधिकार जमा लिया। थकान और शीतल वायु ने कुछ ही मिनटों में सोने को विवश कर दिया। स्वप्नहीन निशा थी, निश्चिन्त निशा थी, पिछले न जाने कितने दिनों की शारीरिक व मानसिक व्यस्तता के बाद घर वापसी की पूर्वनिशा थी। पता ही नहीं चला कि कब रात निकली, कब दिन चढ़ा, कब नागपुर आया और वर्धा पीछे छूट गया। जब नींद खुली तब अच्छा लग रहा था, थकान जा चुकी थी, परिचारक कई बार अल्पाहार व चाय के बारे में पूछ चुके थे। भोजन में क्या लेना है क्या नहीं, कब लेना है, आदि कई प्रश्नों से अपने ही देश में राजा होने का क्षणिक सुख अवश्य देती है राजधानी ट्रेन।

एक युगल था ऊपर की दो सीटों पर, नया विवाह था और प्रेम विवाह था, अनौपचारिकता और व्यवहारिकता अधिक थी, कोई झिझक व संकोच नहीं। हमारे घर में तो कई दिन इस बात पर चर्चा चली कि हमारी श्रीमतीजी हमें क्या संबोधन करें। हमारी माताजी और पिता जी एक दूसरे को पापा और मम्मी ही कहते हैं। कई लोग माँ और पिता के सम्बोधन को वैश्विक न बना कर बच्चों के नाम भी विशेषण के रूप में जोड़ देते हैं। अन्ततः बात पाण्डेजी पर आकर नियत हुयी, साथ में हमसे श्रद्धा कहने का अधिकार भी नहीं छीना गया, यह बात अलग है कि भरी भीड़ में हम भी सुनोजी जैसे सम्बोधनों पर उतर आते हैं। यह युगल था कि धाँय धाँय एक दूसरे का नाम लिये जा रहा था। कितने ही आधुनिकता में आ गये हों पर सार्वजनिक नाम लेना अब भी अटपटा लगता है। अच्छा ही है, माँ बाप ने इतने प्यार से नाम रखा है, लेने देने में क्या जाता है।

सायं से अगली सुबह तक ट्रेन तेलंगाना और सीमान्ध्र क्षेत्र में थी, पूरे आन्ध्र में आन्दोलन की स्थिति थी, भय इस बात का था कि कहीं रास्ते में रोक न लिया जाये। कहीं कुछ भी व्यवधान नहीं आया और हम ११० घंटे के पश्चात अपने परिवार के साथ सकुशल और प्रसन्न थे।

इति यात्रा।

9.10.13

वर्धा से कानपुर

स्टेशन पर ट्रेन आने के ३० मिनट पहले पहुँच गया था, ट्रेन अपने समय से ३० मिनट देर से आयी। मेरे पास एक घंटे का समय था, थोड़ी देर पहले जमकर वर्षा हुयी थी, बाहर का वातावरण सुहावना था, प्रतीक्षालय में न बैठकर मैंने प्लेटफ़ार्म की बेंच में बैठकर चारों ओर के दृश्य देखने और उन्हें लिखते रहने का निश्चय किया।

कितने विश्व यहाँ दिखते हैं
प्लेटफ़ार्म की बेंच पर बैठ कर चारों ओर देखते रहने से आस पास चल रहे ढेरों लघुविश्व दिखने लगते हैं। पहले तो लगता है कि रेलवे प्लेटफ़ार्म पर उपस्थित लोग या तो यात्री हैं या उनकी सुविधा के लिये वहाँ उपस्थित कर्मचारी या सहयोगी सेवा देने वाले। प्रथम दृष्ट्या लगता है कि यात्रियों के चारों ओर ही घूमता होगा प्लेटफ़ार्म का चक्र। यथार्थ पर इस धारणा से कहीं अलग होता है और कहीं अधिक रोचक भी।

जिस प्लेटफार्म पर मैं खड़ा प्रतीक्षा कर रहा था, उसके एक ओर से एक दिशा में और दूसरी ओर से दूसरी दिशा में ट्रेनें जा रही थी। एक के बाद एक ट्रेनें निकल रही थीं, हर दस मिनट में दो ट्रेनें, दोनों दिशाओं से एक एक। पास में ही एक कर्मचारी खड़ा था, उसका कार्य जाती हुयी ट्रेन को ढंग से देखना था और सबकुछ ठीक होने पर गार्ड महोदय को हरी झण्डी दिखाना था। यह बहुत ही अच्छा सुरक्षा उपाय होता है। ट्रेन में ड्राइवर और गार्ड दो सिरों पर तो रहते हैं, पर बीच अवस्थित ७०० मीटर लम्बी ट्रेन मे क्या घट रहा है, इस बारे में उन्हें जानकारी नहीं रहती है। हर स्टेशन और हर रेलवे फाटक पर यही कर्मचारी उनको सब कुछ ठीक होने की सूचना देते रहते हैं। बरबस ही ध्यान देश की गहराती और गाढ़ी हो चुकी समस्याओं पर चला गया कि काश इन तन्त्रों को भी हर थोड़ी दूरी पर कोई यह बताने के लिये खड़ा किया जाता कि सब कुछ ठीक चल रहा है। कोई भी तन्त्र बनाने के समय हम इतनी छोटी सी पर इतनी प्रभावी बात कैसे भुला देते हैं?

वह कर्मचारी अपने कार्य में मगन था। वह हर डब्बे को ध्यान से देखता था और अन्त में ट्रेन के गार्ड को बड़े ही उत्साह में हरी झण्डी हिलाता था। यह उत्साह और भी बढ़ जाता यदि गार्ड उनके परिचित निकल आते। मैंने इस बात का तनिक भी आभास नहीं दिया था कि मैं भी रेलवे से ही हूँ और यह तथ्य अवलोकन को और अधिक रुचिकर बना रहा था। उस कर्मचारी का उत्साह आनन्द की एक सुखद रेख बन मन में रच बस गया। दो ट्रेनों के बीच के समय के रिक्त को वह अपने साथ खड़े एक कर्मचारी को कोई पुरानी घटना सुना कर बिता रहा था। जिस लगन से उसने अपना दायित्व निभाया और जिस तरह मगन हो उसने अपने मित्र को अपनी घटना सुनायी, उसने मुझे अत्यधिक प्रभावित किया। यह देख कर मुझे लगा ही नहीं कि एक घंटे के प्रतीक्षा समय में मुझे किसी प्रकार की उलझन होनी चाहिये।

पास में ही एक सास, एक बहू और उसके चार बच्चे बैठे थे। देखने से लगा कि वे भी उसी ट्रेन की प्रतीक्षा में हैं और मुझसे पर्या्प्त पहले से वहाँ विद्यमान हैं। सास के चेहरे पर आधिपत्य झलक रहा था और वह कम बोल रही थी, बहू भी हल्का मुँह बनाये अपनी बात बोले ही जा रही थी। माँ और दादी के बीच चल रहे रासायनिक युद्ध का लाभ उठा बच्चे दोनों ओर पटरियोों में झाँक झाँक कर अपनी उत्सुकता को व्यक्त कर रहे थे। जब भी वे प्लेटफार्म के किनारे पर पहुँचते, दोनों सास बहू युद्धविराम कर बच्चों पर चिल्लाती, कहना न मानने पर झल्लाती और उन्हें उठाकर ले आतीं। युद्ध तो रह रह रुका जा रहा था, पर क्रोध कम नहीं था दोनों के मन में। बहू जब सास से अधिक नहीं जूझ पायी तो उसने अपने सबसे ऊधमी बच्चे के धमक कर अपने क्रोध का स्पष्ट संकेत दे दिया। यही नहीं, उस समय चारों ओर अपनी क्रोध भरी आँखे घुमाकर अश्वमेघ यज्ञ भी कर डाला। मैं अब तक उनके गृहनाट्य पटकथा का आनन्द उठा रहा था, बहू की उस दृष्टि ने मुझे अपना सारा ध्यान अपने आईफोन पर केन्द्रित करने पर विवश कर दिया।

जब से आईफ़ोन और आईपैड मिनी अद्यतन किया है तब से उसके विशिष्ट पक्ष अधिक नहीं देख पाया था। आईओएस७ से आईफोन पूरी तरह से नया लगने लगा है। वर्ष भर इस नयेपन को जीने के बाद ही नये आईफोन के बारे में सोचा जायेगा और तब तक इसके ही प्रयोग से ही तकनीक में बने रहा जायेगा। फ़ोन आदि करने के अतिरिक्त आईफ़ोन का सर्वाधिक उपयोग ईमेल, फेसबुक और टाइप करने में ही होता है। उसका हिन्दी कीबोर्ड और भी अच्छा हो गया है, अब अधिक समय तक टाइप करने में आनन्द आने लगा है। साथ ही साथ उसमें नोट का पार्श्व रंग पीले के स्थान पर श्वेत कर दिया गया है और लाइनें हटा दी गयी हैं। जिससे वह दिखने में और भी सुन्दर लगने लगा है।

ट्रेन आ गयी, सीट देखी तो किनारे की ऊपर वाली सीट थी। यात्रा के बीच के स्टेशन पर होने के कारण यह कोने की सीट भाग्य में अवतरित हुयी थी, नहीं तो बहुधा अन्दर की ही सीट मिलती रही है। लोगों को भले ही यह सीट थोड़ी अटपटी लगे पर मेरे कुछ मित्रों को यह सीट बड़ी भली लगती है। जब तक चाहिये चुपचाप लेटे रहिये, कोई व्यवधान नहीं, कोई पूछने वाला नहीं। मुझे बस तीन समस्यायें आयी। पहली, नीचे एक महिला के सोते रहने के कारण जब भी बैठने की इच्छा होती तो अन्दर वाली सीटों के मालिकों से पूछना पड़ता था। दूसरी, बार बार उतरने चढ़ने में कष्ट होने के कारण तब तक नीचे नहीं उतरता था जब तक उसके लिये पर्याप्त कार्य एकत्र न हो जाये। तीसरी, ऊपर की सीट में कोई चार्जिंग प्वाइंट नहीं होने से हर बार नीचे वाली सीट से बिजली उधार माँगनी पड़ती है। दो बार ही पूछा होगा, पर नीचे वाली महिला ने ऐसे देखा मानो ४०-५० लाख का होम लोन माँग लिया हो।

कष्टभरी है ऊपरी शैय्या
तीन समस्याओं को यथासंभव साधते हुये मैं स्वयं में व्यस्त हो गया। अन्दर की सीट में ऊपर की ओर एक वृद्ध बैठे थे, निश्चय ही ६० के ऊपर थे, उन्हें हर बार चढ़ने उतरने में कष्ट हो रहा था। चाह कर भी उनकी सहायता नहीं कर पा रहा था। यदि कोई इस तरह से नीचे की सीट माँगता है तो मैं बदलने को तुरन्त तैयार हो जाता हूँ, आज मैं भी किनारे की छत पर टँगा था। अन्दर की ओर दो अन्य युवा जीव नीचे बैठे थे पर उन्हें लगा कि वृद्ध को नीचे की सीट देने से उनके सम्मान को ठेस पहुँच जायेगी। वृद्ध भी सज्जन थे, उन्होंने अधिक ज़ोर नहीं डाला और चुपचाप ऊपर नीचे करने लगे। रात में एक बार उतरते हुये उनका हाथ सरक गया और वे गिर पड़े, बड़ी चोट लगी। फिर भी नीचे बैठे मूढ़ों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा और उन्होंने अपनी नीचे की सीट उन वृद्ध को नहीं दी। यूएन की एक आयी रिपोर्ट में ठीक ही कहा गया है कि वृद्ध लोगों की सुविधा की दृष्टि से भारत का स्थान विश्व में ७३वाँ है। ऐसे दृश्य देख कर यूएन की रिपोर्ट पर अविश्वास भी तो नहीं किया जा सकता है।

कई बार इस विषय पर चर्चा की है कि किस तरह से रेलवे में वयोवृद्ध यात्रियों को स्वतः ही नीचे की सीट दी जा सके। रेलवे में यह व्यवस्था वांछनीय तो है पर उसका क्रियान्वयन उतना ही कठिन है। चर्चा के निष्कर्ष इस प्रकार हैं। जैसे ही टिकट बिकने प्रारम्भ होते हैं, उपलब्धता के अनुसार सीटों का आवंटन प्रारम्भ हो जाता है। हर आरक्षित टिकट पर एक सीट नम्बर होता है और आवंटन एक ओर से प्रारम्भ होता है। उस समय इस बात का ध्यान अवश्य रखा जाता है कि एक टिकट पर सभी व्यक्तियों को एक साथ रखा जाये। जब अधिकतम सीटें भर जाती हैं तो फुटकर स्थान एक के बाद एक भरते जाते हैं और उसमें प्रारम्भिक चरणों की तुलना में सुविधाओं का ध्यान रखना संभव नहीं होता है। किसी के टिकट निरस्त कराने से छूटे स्थान भी इसी तरह अस्त व्यस्त बँटते हैं।

समाधान तब संभव है, जब प्रारम्भ में मात्र आरक्षण दिया जाये, सीट नम्बर न बताया जाये, जैसा कि प्रथम वातानुकूलित श्रेणी में होता है। ट्रेन चलने के नियत समय पहले सभी मानवीय सुविधाओं को ध्यान में रखकर सीटों का आवंटन किया जा सकता है। ठीक इसी तरह का सीट आवंटन हवाई यात्राओं में भी होता है। इसमें समस्या बस इतनी है कि अन्तिम समय में सबके लिये अपना सीट नम्बर पता करने में और उसके अनुसार अपनी नियत सीट में बैठने में अव्यवस्था फैलने का डर है। वर्तमान में पहले से सारी सीटें नियत रहने से अन्तिम समय में अव्यवस्था न्यूनतम रहती है और केवल प्रतीक्षारत यात्री अपने टिकट की स्थिति जानने को उत्सुक रहते हैं। व्यवस्था में परिवर्तन और आईटी और मोबाइल के समुचित उपयोग से शीघ्र ही ऐसी समस्याओं का समाधान होगा, ऐसी भविष्य से आशा है।

रात में यात्रा का पहला भोजन था जो ट्रेन से मँगाया था, एक रोटी से अधिक नहीं खा सका, शेष छोड़ दिया। नागपुर से कुछ केले ले लिये थे जिनसे क्षुधा भी शान्त हुयी और ऊर्जा भी मिली। थोड़ा प्रयास करते तो यात्रा के बीच के स्टेशनों पर परिचितों के घर से भोजन आ सकता था, पर संकोचवश उनसे कह न सका। रात में शीघ्र ही सो जाने से झाँसी में प्रातः नींद खुल गयी, खिड़की से ही अपने पुराने स्टेशन को देखता रहा। तब जिन कार्यों का प्रस्ताव भेजा था, सब आधारभूत निर्माण पूरा हो चुका था। दो दिन पहले ही झाँसी कानपुर का विद्युतीकरण भी सम्पन्न हुआ था, अब झाँसी में इंजन बदलने में व्यर्थ हुआ समय कम हो जायेगा। बड़ा अच्छा लग रहा था, प्रभात का समय और सच हुये स्वप्न।

उन स्वप्नों को तब झटका लगा जब ट्रेन कानपुर पहुँच रही थी। कूड़े के वही ढेर और नगरीय अव्यवस्था। सब सुधर गये, तुम न सुधरे कानपुर।

5.10.13

बंगलोर से वर्धा

कभी कभी लगता है कि यात्रा के बारे में क्या लिखूँ? यात्रायें सामान्य क्रियाओं की श्रेणी में आ चुकी हैं। सबकी यात्रायें एक जैसी ही होती होंगी, यदि कुछ विशेष रहता होगा तो वह है यात्रा में मिले लोग। यदि आप बातें करने में उत्सुक हैं तो आपकी हर यात्रा रोचक होगी। यदि ऐसा नहीं है और आप पूर्णतया अन्तर्मुखी हैं तो आपकी यात्राओं में कुछ विशेष कहने को नहीं होगा।

पहचानों, हैं कौन मुखी हम
मुझे अब तक समझ नहीं आया है कि मैं बहिर्मुखी हूँ या अन्तर्मुखी। कभी कभी न चाहते हुये भी सामने वाले से इस लिये भी बतिया लेते हैं कि कहीं ऐसा न लगने लगे कि मानसिकता में भी प्रौढ़ता छाने लगी है। पता नहीं युवावस्था किस अवस्था तक मानी जाती है़, पर मन यह मानने को करता ही नहीं कि हम प्रौढ़ता के द्वार खटखटा रहे हैं। जब से लिखना अधिक हो गया, सोचना अधिक हो गया, अब अधिक बतियाने से समय व्यर्थ होने का बोध होता है, लगता है कि इससे अच्छा कुछ लिख लिया होता।

क्या हम यात्राओं में सामने वाले से बस क्या इसीलिये बतियाते हैं कि समय कट जाये, या संभव है कि कुछ नया और रोचक जानने को मिल जाये। २०-३० घंटे के यात्रा में उत्पन्न बौद्धिक व मानसिक संबंधों की इच्छा तब बहुत अधिक नहीं रहती जब आपके पास स्वयं ही करने के लिये पर्याप्त कार्य हों। अपने कार्यों के बन्धनों का बोझ जब अधिक कर लें तो सारी शक्ति उसी को साधने में निकल जाती है, पर सबको लगता है कि हम अन्तर्मुखी हो चले हैं। जब हम सभी बोझों से मुक्त रहते हैं और स्वयं को अनुभव से भरने को प्रस्तुत रहते हैं तब सबको लगता है कि हम बहुर्मुखी हो चले।

मैं भी अन्तर्मुखी और बहुर्मुखी की अवस्थाओं में बहुधा उतराता हूँ, इस यात्रा में पूरी तरह से निर्धारित कर के चला था कि ज्ञान के सागर भरूँगा, इसीलिये टेड की ढेरों वार्तायें अपने आईपैड में भरकर ले गया था। अनुभव भरने को प्रस्तुत था तो बहुर्मुखी होना था, पर अनुभव पूर्वनियोजित था और स्वयं में ही व्यस्त रहना था, अतः व्यवहार अन्तर्मुखी था।

पूर्वनियोजित अन्तर्मुखी बने रहने की सारी योजना तब धूल धूसरित हो गयी जब टेड की वार्ताओं ने बतियाना बन्द कर दिया। अब तो चाह कर भी व्यस्त नहीं लग सकते थे, अतः निश्चय किया कि कृत्रिम आवरण छोड़कर बहुर्मुखी हो जाया जाये।

सामने की सीट में एक वृद्ध महिला को बिठा कर उनके सहायक उतर गये थे। सामने की सीट रिक्त होने के कारण वह वहाँ बैठकर सुस्ता रही थीं। उन्हें यह तो ज्ञात था कि उनकी सीट पक्की है पर कौन सी वह सीट है, इसकी समुचित सूचना नहीं थी उन्हें। संभवतः ट्रेन चलने के तुरन्त पहले ही उनका आना हुआ था और सामने वाला कोच का दरवाज़ा खुला होने के कारण उसमें उन्हें चढ़ा दिया गया था। मुझे भी कुछ कार्य नहीं था अतः उनसे थोड़ी देर बैठ कर बात करता रहा। उनका व्यवहार मातृवत लगा और उनके हर वाक्य में एक बार बेटा अवश्य निकल रहा था। मुझे लगा कि मुझे उनकी सीट ढूँढ़ने में उनकी सहायता करनी चाहिये पर टीटी महोदय के आने तक कुछ कर भी नहीं सकता था।

टीटी महोदय आये और टिकट देख कर बोले कि माताजी आपका तो प्रथम वातानुकूलित कोच में है, आप द्वितीय वातानुकूलित कोच में क्यों बैठी हैं? माताजी के चेहरे पर रेलवे संबंधित इतनी जटिलता न जानने के मन्द भाव उभर आये। टीटी महोदय ने बताया कि उनका कोच दो कोच के बाद है। वे अकेली थीं और एक बड़ा बैग लिये थीं। हमने टीटी महोदय से कहा कि आप जाकर उन्हें बैठा दीजिये, हम पीछे उनका सामान भिजवा देते हैं। यह कह तो दिया था पर भूल गये थे कि हम पूरी तरह से व्यक्तिगत यात्रा पर थे और कोई भी सहायक हमारे साथ नहीं था। जब अगले स्टेशन पर एक और सहयात्री आ गये तो उन्हें अपना सामान देखने को कह कर हम स्वयं ही माताजी का सामान उठाकर उनके कोच में पहुँचा आये। माताजी गदगद हो गयीं, तनिक असहज भी कि क्या बोलें? उन्हें बस इतना ही कहा कि आपने इतनी बार बेटा बोला है तो बेटे को सामान उठाने का अधिकार है।

छोटा ही सही पर एक अच्छा कार्य करके मन प्रसन्न हो गया था। टेड की वार्तायें धुल जाने का दुख पूरी तरह से जा चुका था। अब सामने वाली सीटों पर एक वयोवृद्ध दम्पति थी, जैन मतावलम्बी थे, बंगलोर में किसी धार्मिक आयोजन में भाग लेकर वापस जा रहे थे। पत्नी किसी उपवास में थीं अतः विश्राम कर रही थीं, पतिदेव को दोपहर में नींद नहीं आ रही थी और वे ऊपर की सीट पर बैठकर पुरानी फ़िल्मों के गाने सुन रहे थे। मैनें भी कुछ विशेष न करने का निश्चित किया और आईपैड मिनी पर ही अपने कार्यों को व्यवस्थित करने में लग गया। कुछ पुरानी लेख छिटकनों का संपादन भी करना था, वह भी कार्य में जोड़ लिया। सच में आनन्द आ रहा था, बाहर के सुन्दर दृश्य, ट्रेन के सवेग भागने से उत्पन्न पवन का सुन्दर नाद, पार्श्व में पुराने गीतों का कर्णप्रिय संगीत और व्यस्तताओं के कारण छूटे रह गये कार्य का व्यवस्थित संपादन। सब कुछ लयबद्ध लग रहा था। अब तक टेड वार्तायें बह जाने का दुख पूर्ण रूप से जा चुका था और उसके स्थान पर बहिर्मुखी चेतना आनन्दमयी थी।

दृश्य मगन था
कार्य करने के बाद पुनः बाहर देखने लगा। हरीतिमा से पूरा यात्रा-क्षेत्र लहलहा रहा था। नदी नालों में पानी पूरे वेग में था। पानी का मटमैला रंग इस बात का प्रमाण था कि ग्रीष्म से प्यासी धरती की प्यास बुझाकर आया है वह वर्षा जल। ऊपर हल्के स्याह रंग के बादल से भरा आसमान और नीचे गहरे हरे रंग में लिपटा धरती का विस्तार, निश्चय ही वर्षा बड़ा हो मोहक दृश्य प्रस्तुत कर रही थी।

जैन दम्पति अपने खाने का पूरा सामान लेकर आये थे और घर में बनी चीज़ों को धीरे धीरे और रस लेकर खा रहे थे। सच में देखकर अच्छा लगा कि उनके पास दो बड़े बैगों में एक बैग केवल खाद्य सामग्री से ही भरा था। न बाहर का भोजन और न ही किसी से अधिक बातचीत। प्रारम्भिक परिचय के बाद वे आपस में ही अपने संबंधियों के बारे में कुछ बतियाने लगे। उनकी निजता को सम्मान देने के भाव से मैंने भी कुछ नहीं कहा, अपने लेखन में व्यस्त हो गया। बंगलोर और वर्धा के बीच की ट्रेन यात्रा में मैंने भी बाहर का कुछ नहीं खाया था। श्रीमतीजी ने पराँठे और सब्ज़ी बनाकर दे दी थी, साथ ही साथ १० केले ले लिये थे। उसी में सारा भोजनीय कार्य हो गया।

वर्धा पहुँचने के तीन घंटे पहले, पति ने पत्नी से रुई के बारे में पूछा, पति के नाख़ून में चोट लग गयी थी और हल्का ख़ून निकल रहा था। मेरे पास एक बैण्डेज था, निकालकर दे दिया, उन्हें अच्छा लगा। अगले तीन घंटे हम एक दूसरे को अपने बारे में बताते रहे, दूसरे के बारे में जानते रहे, स्नेहिल भाव से। वर्धा पहुँचने पर हमने उनसे विदा ली और उतर गये।

छोटे छोटे कार्यों की प्रसन्नता में हमारी यात्रा का प्रथम चरण बीत गया। भले ही पूर्वनियोजित यात्रा न हो पायी हो, भले ही अन्तर्मुखी यात्रा न हुयी हो, भले ही पूरी तरह बहिर्मुखी यात्रा भी न हुयी हो, पर यात्रा सरलमुखी थी, सहजमुखी थी।

चित्र साभार - हिन्दू

2.10.13

संग्रह भला किस काम का

कभी कभी लगता है, भगवान जो करता है, बहुत अच्छा करता है।

दो कार्यक्रमों में भाग लेना था, वर्धा में ब्लॉगरीय कार्यशाला और कानपुर में विद्यालय के सहपाठियों से २५ वर्षीय पुनर्मिलन। कानपुर का कार्यक्रम १० वर्ष पहले से नियत किये बैठे थे मित्रगण और वर्धा के लिये सिद्धार्थजी का आदेश दो माह पहले आया। अच्छी बात यह थी कि एक ही यात्रा में वर्धा और कानपुर, दोनों ही समेटे जा सकते थे, असहजता इस बात की थी कि दोनों ही स्थानों पर पूरे कार्यक्रम में भाग न लेकर आंशिक कटौती करनी पड़ रही थी।

कानपुर की ओर सपरिवार ही निकलना होता है, पर परिवार चाह कर भी साथ नहीं चल पा रहा था। बच्चों की परीक्षायें चल रही थी और अपने कार्य के लिये उनकी परीक्षायें को छुड़वाने की सोचना गृह-अपराधों की श्रेणी में आता। जब भी अकेले निकलना होता है, तब यात्रा पूरी तरह से अपने अनुसार ढाली जा सकती है, जहाँ भी समय बचाया जा सकता है, बचाया जाता है भले ही थोड़ी असुविधा ही क्यों न हो? रात और दिन का कोई भेद नहीं रहता है इन यात्राओं में क्योंकि अकेले होने पर कभी भी सोया जा सकता है और कभी भी जागा जा सकता है।

पहले एक यात्रा कार्यक्रम बना। उसमें ट्रेन के अन्दर तो कम समय लग रहा था पर ट्रेनों की प्रतीक्षा और सड़क यात्रा मिला कर कहीं अधिक समय लग रहा था। समय निचोड़ने की मानसिकता ने वैकल्पिक और समयोत्पादक कार्यक्रम बनाने के लिये उकसाया। अन्ततः ११० घंटे का कार्यक्रम बना, उसमें ४० घंटे स्थिर और शेष ७० घंटे ट्रेन में। कार्यक्रम और सिकोड़ा जा सकता था, पर हवाई जहाज़ वाले ही फैल गये, किराया बढ़ाते गये। ट्रेन में जाना अधिक सुविधाजनक लगता है, धरती से जुड़े मानुषों को। पूरे कार्यक्रम के लिये सप्ताहान्त के अतिरिक्त केवल २ दिन का अवकाश लेना पड़ रहा था। कार्यक्रम की लम्बाई चौड़ाई को देखते हुये २ दिन का अवकाश देने में प्रशासन को भी कोई कठिनाई नहीं हुयी।

वर्धा और कानपुर में मिला कर ४० घंटे पास में थे, उसमें तो पूरा समय ब्लॉगरों और मित्रों से मिलने में बीतने वाला था। ट्रेन के ७० घंटों में ४ रातें थी, उसमें ३० घंटे निकलने वाले थे। शेष बचे ४० घंटे विशुद्ध रूप से अपने थे। अब उन ४० घंटों में क्या किया जाये, इस पर पहले से विचार करना आवश्यक था। ट्रेन में संभावनायें तो बहुत होती हैं, इस पर एक पूरा लेख लिख चुका हूँ। सहयात्रियों के साथ परिचर्चायें रोचक हो सकती, पर उसके लिये सहयात्री भी रोचक होना आवश्यक हैं। कई बार भाग्य साथ नहीं देता है अतः समय बिताने के लिये अपनी व्यवस्थायें स्वयं करके चलनी होती हैं। न अब संभावनाओं की उम्र ही रह गयी है और न ही संभावनाओं के सहारे यात्रायें अनियोजित छोड़ी ही जा सकती हैं।

पुस्तकें ही सर्वोत्तम रहती हैं यात्रा में और हर बार पुस्तकों के सहारे ही यात्रायें कटती हैं। इस बार सोचा कि कुछ अलग किया जाये। कुछ फ़िल्में थी देखने के लिये, पर इस बार मैं अपना मैकबुक एयर घर छोड़कर जा रहा था। पहली बार प्रयोगिक तौर पर आईपैड मिनी लेकर जा रहा था। आईपैड मिनी में फ़िल्में तो देखी जा सकती हैं पर फ़िल्मों को आईपैड मिनी में स्थानान्तरित करना अपने आप में कठिन है। १५ जीबी के रिक्त स्थान पर अधिक फ़िल्में आ भी नहीं सकती थीं। फ़िल्में विशुद्ध मनोरंजन होती हैं और कुछ सोचने को प्रेरित नहीं करती हैं। यही कारण रहा कि फ़िल्मों का विचार त्याग दिया गया।

संगीत में बहुत समय बिताया जा सकता था पर परिवार साथ में नहीं होने के कारण मनोरंजन की अधिक इच्छा नहीं थी। इस बार कुछ सृजनात्मक करने की इच्छा थी, कुछ नया जानने की इच्छा थी, कुछ नया लिखने की इच्छा थी। अन्ततः इस पर निर्णय लिया कि टेड की शिक्षा और मन संबंधी वार्ताओं को सुना जाये। अभी तक जितनी भी टेड वार्तायें सुनी थीं, सब इंटरनेट पर थी। तभी टेड का एक एप्प मिला जिसमें आप ऑफ़ लाइन वार्तायें भी सुन सकते थे, उन्हें डाउनलोड करने के पश्चात।

जब निर्णय ले लिया तो एक सप्ताह पहले से ही उन वार्ताओं को चुन कर उन्हें आईपैड मिनी में डाउनलोड करने में लगा दिया। इण्टरनेट की गति अच्छी थी कि दो दिन में ही कुल ८ जीबी की ६० वार्तायें डाउनलोड हो गयीं। हम भी प्रसन्न थे, उन्हें ऑफ़ लाइन चला कर देख भी लिया, वे बिना किसी व्यवधान के सुव्यवस्थित चल रहीं थीं। एक बार निरीक्षण में जाते समय एक दो वार्तायें चलायीं, रोचक थीं। २० घंटे की और वार्तायें भी उसी स्तर की होंगी, यह सोचकर मन आनन्द से भर गया। ४० घंटों की रिक्त ट्रेन अवधि में २० घंटों के ज्ञानप्रवाह की अच्छी व्यवस्था, यात्रा सुखद होने के प्रति मुझे पूरी तरह से आश्वस्त कर गयी।

यात्रा प्रारम्भ करने के एक दिन पहले ही एप्पल ने अपना नया आईओएस ७ निकाल दिया। जिस दिन भी कुछ नया निकलता है, अद्यतन रहने की आतुरता मन में घिर आती है। बिना यह सोचे कि आईपैड मिनी को अद्यतन करने में किसी प्रोग्राम पर क्या प्रभाव पड़ेगा, हमने उसे प्रयोग करने हेतु डाउनलोड कर लिया। हर बार यही होता है कि ऐसा करने के पश्चात पुराने प्रोग्रामों को चलाने में कोई समस्या नहीं आती है। हम भी आश्वस्त रहे कि सब कुछ पहले जैसा ही रहेगा।

यात्रा प्रारम्भ हुयी। यात्रा से पूर्व व्यस्तता अधिक रहने के कारण थकान बहुत अधिक थी, ट्रेन में बैठते ही जाते निद्रा ने आ घेरा। दो तीन घंटे सोने के बाद जब शेष समय का सदुपयोग करने की याद आयी तो आईपैड मिनी खोलकर बैठ गये और टेड वार्ता का बटन दबा दिया। जैसे ही उसमें न चलने का संदेश आया, मन बैठ गया। दूसरी वार्ता चलायी, उसकी भी वही स्थिति। अब समझ में आ चुका था कि आईपैड मिनी को अद्यतन करने के क्रम में समन्वय का हृास हो चुका था, अब कोई भी वार्ता उसमें चलने से रही।

न केवल डाउनलोड में लगे प्रयास मिट्टी में मिल चुके थे, वरन इन वार्ताओं के लुप्त होने के साथ ही यात्रा को सार्थक और उपयोगी बनाने के स्वप्न भी धूल फाँक रहे थे। अब सामने पूरी यात्रा थी और पढ़ने के लिये अन्तिम समय में रख ली आधी पढ़ी एक छोटी पुस्तक और लिखने के लिये ढेरों पड़े आधे अधूरे अनुभव।

दुखी होकर खिड़की से बाहर देखने लगा। अपनी तकनीकी समझ पर झल्लाहट हो रही थी और लग रहा था कि इतनी छोटी सी बात पर ध्यान क्यों नहीं गया? संयोगवश खिड़की के बाहर वर्षा हो रही थी, पूरे परिवेश में हरीतिमा फैली थी और वातावरण हृदय की तरह रुक्ष नहीं था। खिड़की के बाहर का दृश्य तब तक देखता रहा, जब तक मन हल्का नहीं हो गया।

अब न कोई बाहरी ज्ञान आना है, अब न कोई नये विषयों के बारे में कुछ जानने को मिलेगा। यदि साथ रहेगा तो यात्रा का अपना अनुभव और उसे लिखने के लिये आईपैड मिनी। हो न हो यही ईश्वर की चाह थी कि इस यात्रा में कुछ मौलिक ही किया जाये।