30.3.11

नोकिया C3 और हिन्दी कीबोर्ड

पिछले चार महीनों में जितनी भी बार सामान खरीदने मॉल जाता था, प्रदत्त सूची निपटाने के बाद आधे घंटे के लिये सरक लेता था, एक मोबाइल की दुकान में, यूनीवर सेल के शो रूम में। यहाँ पर यह सुविधा है कि आप किसी भी मॉडल को विधिवत चलाकर देख सकते हैं। यहीं आकर ही मेरी मोबाइल सम्बन्धी अभिरुचि को एक प्रायोगिक आधार मिलता रहा है। हर नये मोबाइल की विशेषताओं को भलीभाँति समझने का अवसर यहाँ मिल जाता है। प्रायोगिक ज्ञान सदा ही इण्टरनेटीय सूचनाओं से अधिक पैना होता है।

यहीं पर ही मुझे एक मोबाइल दिखा, नोकिया का C3 मॉडल। आकर्षण था हिन्दी का कीबोर्ड और वह भी भौतिक। अंग्रेजी के अक्षरों के साथ ही हिन्दी के अक्षर उसमें व्यवस्थित थे, लगभग इन्सक्रिप्ट ले आउट में। हाथ में लेकर जब उसमें लिखना प्रारम्भ किया तो और भी रुचिकर लगा। अभी तक मेरे पास जो दो मोबाइल थे, उनमें स्क्रीन वाला ही कीबोर्ड था अतः यह अनुभव सर्वथा नया था। लैपटॉप में इन्सक्रिप्ट में टाइप करते करते अक्षरों का स्थान समझने में कठिनाई नहीं हुयी। मन अटक गया उसमें।

मेरे सामने अपने दोनों मोबाइलों के साथ इसकी तुलना करने का मार्ग नहीं सूझ रहा था। मेरे पीछे कई और ग्राहक प्रतीक्षा कर रहे थे, उस मोबाइल पर अपने अपने हाथ चलाने के लिये। मेरी दुविधा को भाँप कर सेल्समानव बोले कि सर सप्ताहान्त में भीड़ रहती है, कार्यदिवस में आपको समुचित समय मिलेगा। अब कार्यालय से आने के बाद और बैडमिन्टन खेलने के पहले एक घंटे का समय मिलता है परिवार के साथ बैठने का, उसे इस कार्य के लिये दे देना संभव नहीं था मेरे लिये। सेल्समानव ने तब सलाह दी कि सप्ताहन्त में सुबह ही आ जाये तो लगभग 2 घंटे का समय मिल जायेगा, भीड़ बढ़ने के पहले।

मिलन का दिन नियत हुआ, सामान की सूची को प्रतीक्षा में रखा गया, हाथ में तीन मोबाइल और मैं शो रूम में अकेला। डोपोड डी600, एलजी जीएस290 और नोकिया C3 के बीच मुझे उनकी हिन्दी सम्बन्धित विशेषताओं का निर्णय लेना था।
सर्वप्रथम टाइपिंग की गति पर तुलना की। नोकिया मे टाइपिंग की गति बहुत अधिक थी और कारण था भौतिक कीबोर्ड, यद्यपि पहले थोड़ा अटपटा लगा पर 5 मिनट में ही टाइपिंग ने गति पकड़ ली। एलजी में बड़ा स्क्रीन कीबोर्ड होने से गति तो ठीक आयी पर त्रुटियों की संभावना बनी रही, कीबोर्ड की चौड़ाई अधिक होने से अंगूठों को प्रयास अधिक करना पड़ा। एलजी में गति नोकिया की तुलना में लगभग 60% ही रही। विण्डो मोबाइल में स्टाइलस के कारण टाइपिंग बहुत धीरे हुयी क्योंकि बहुत ध्यान से टाइप करना पड़ा। केवल एक बिन्दु से टाइप करने के कारण संयुक्ताक्षरों में अधिक कठिनाई हुयी। नोकिया की तुलना में गति 40% ही रही।

विण्डो मोबाइल में कीबोर्ड का आकार सबसे छोटा था, लिखने का स्थान कहीं अधिक था। एलजी में कीबोर्ड बहुत बड़ा था, लिखने का स्थान छोटा था। नोकिया में कीबोर्ड स्क्रीन पर न होने के कारण कोई अन्तर नहीं पड़ा। कीबोर्ड, स्क्रीन और फोन्ट का आकार सबसे अच्छा नोकिया में मिला।

चलती हुयी गाड़ी में व बाहर के प्रकाश में नोकिया से ही टाइपिंग की जा सकती थी, अन्य दो से यह करना संभव ही नहीं था।

एलजी में 1000 अक्षरों की, नोकिया में 3000 अक्षरों की व विण्डो मोबाइल में कोई भी सीमा नहीं थी।

बैटरी जीवन नोकिया का सर्वोत्तम मिला, लगभग तीन दिन तक। विण्डो मोबाइल को एक दिन के बाद ही चार्ज करना पड़ा।

नोकिया में वाई फाई की सुविधा थी, अन्य दोनों में जीपीआरएस के माध्यम से ही इण्टरनेट देखा जा सकता था।

लैपटॉप से समन्वय में विण्डो मोबाइल सबसे अच्छा था पर नोकिया को ओवी सूट के माध्यम से जोड़कर समन्वय करना सम्भव पाया। एलजी में समन्वय सम्बन्धी कई समस्यायें आयीं।

ऑफिस डॉकूमेन्ट्स विण्डो मोबाइल में पढ़े और सम्पादित किये जा सकते थे। नोकिया व एलजी में यह सुविधा नहीं थी।

मेसैज भेजने, फोन करने आदि आवश्यक मोबाइल कार्यों के लिये नोकिया सबसे अच्छा पाया। शेष दोनों में इन्हीं कार्यों के लिये बहुत अधिक प्रयास करना पड़ा।

इस समय विण्डो मोबाइल रु 10000 का, एलजी रु 6000 का व नोकिया रु 5700 का है।

तुलनात्मक अध्ययन के पश्चात नोकिया C3 ने बहुत प्रभावित किया और अन्ततः एक और हिन्दी कीबोर्ड वाला मोबाइल मैंने खरीद लिया।

पिछले 20 दिनों से नोकिया उपयोग में ला रहा हूँ और पिछली दो पोस्टें उस पर ही लिखी हैं, वह भी घर से बाहर, लैपटॉप से दूर। अब लगता है कि भौतिक कीबोर्ड में रम गये हैं और स्क्रीन कीबोर्ड में पुनः टाइप करने में उतनी गति न आ पाये। विण्डो फोन के प्रति प्रेम व निष्ठा अभी भी उतनी ही है जितनी कि सम्प्रति हिन्दी के प्रति है। अब प्रतीक्षा और बढ़ गयी है नोकिया और विण्डो फोन के उस मोबाइल की जिसमें नोकिया C3 की तरह ही इन्स्क्रिप्ट कीबोर्ड हो, बड़ा हो तो और भी अच्छा।

मेरी यही सलाह है कि इस समय नोकिया C3 ही सर्वोत्तम हिन्दी मोबाइल है, हम ब्लॉगरों के लिये।

26.3.11

बोसॉन या फर्मिऑन

भौतिकी का सिद्धान्त है पर समाज में हर ओर छिटका दिखायी पड़ता है। हर समय यही द्वन्द रहता है कि क्या बने, बोसॉन या फर्मिऑन। मानसिकता की गहराई हो या अनुप्राप्ति का छिछलापन, प्रचुरता की परिकल्पना हो या संसाधनों पर युद्ध, साथ साथ रह कर जूझना हो या दूसरे के सर पर पैर धरकर आगे निकलना। हर समय कोई एक पक्ष चुनना होता है हमें। हम मानवों के अन्दर का यह द्वन्द जगत की सूक्ष्मतम संरचना में भी परिलक्षित है। आईये देखें कि क्या होता है उनके परिवेश में। इस व्यवहार के क्या निष्कर्ष होते हैं और उस सिद्धान्त को किस तरह हम अपने सम्मलित भविष्य का सार्थक आकार बनाने में प्रयुक्त कर सकते हैं।

दो तरह के उपकण (सब पार्टिकल्स) होते हैं, अपने व्यवहार के आधार पर, व्यवहार जो यह निश्चित करेगा कि कण का आकार कैसा होगा। लगभग 16 प्रकार के उपकणों को इन्हीं दो विभागों में बाटा गया है, 4 बोसॉन्स और 12 फर्मिऑन्स। नामकरण हुआ है, दो महान वैज्ञानिकों के नाम पर, सत्येन्द्र नाथ बोस एवं एनरिको फर्मी जिन्होंने पदार्थ और ऊर्जा के व्यवहार को एक सशक्त गणितीय आधार दिया।

हर उपकण की एक ऊर्जा होती है, उस ऊर्जा के आधार पर उसका एक नियत स्थान होता है जिसे उसकी कक्षा कहते हैं। एक बोसॉन अपने जैसे उपकणों को अपनी ओर आकर्षित करता है और उसके साथ रहकर अपनी ऊर्जा कई गुना बढ़ाता जाता है। एक फर्मिऑन अपने जैसे उपकणों को अपने पास नहीं आने देता है और समान ऊर्जा की भिन्न भिन्न कक्षाओं में रहकर एक दूसरे की निस्तेज करता रहता है।

जब बोसॉन मिलना प्रारम्भ करते हैं तो लेज़र जैसी सशक्त संरचना बनाते हैं, इतनी सशक्त जो बिना अपना तेज खोये हजारों मील जा सकती हैं, इतनी सशक्त जो मीटर भर के लौह को सफाई से काट सकती है, इतनी सशक्त जो किसी भी माध्यम से टकराकर बिखरती नहीं है। कारण सीधा सा है, अपने जैसों को अपने साथ लेकर चलना ही बोसॉन्स को इतनी शक्ति दे जाता है। फर्मिऑन्स साधारण कणों का निर्माण करते हैं, हर जगह पाये जाने वाले, अपनी अपनी कक्षा में सुरक्षित।

आईये, अपने अपने हृदय पर हाथ रख स्वयं से पूछें कि हमारे सम्पर्क में हमारी जैसी प्रतिभा वाला, हमारे जैसे गुणों वाला कोई व्यक्तित्व आता है तो हमारे अन्दर का बोसॉन तत्व जागता है या फर्मिऑन तत्व। न जाने कितनी बार हमारा विश्वास हिल जाता है कि कहीं यह हमारा स्थान न ले ले या हमसे आगे न निकल जाये। हमें अपनी कक्षा असुरक्षित सी लगने लगती है, हम उसे अपनी कक्षा में आने नहीं देते हैं, हम फर्मिऑन बन जाते हैं।

कई समुदायों को देखा है कि अपनों को सदा ही साथ लेकर चलते हैं, अपनी कक्षा में थोड़ा और स्थान बना लेते हैं, वे प्रचुरता की परिकल्पना के उपासक होते हैं, उन्हें लगता है कि उनके क्षेत्र में सबके लिये संभावनायें हैं। जिस समय भारत में सत्ता के लिये राजपुत्रों का संघर्ष एक लज्जाजनक इतिहास लिखने को तैयार था, यूरोप में प्रचुरता के उपासक नये महाद्वीप ढूढ़ने में व्यस्त थे। पृथ्वी उर्वरा है, उसके अन्दर हम जैसी 6 जनसंख्याओं का पालने का सामर्थ्य है पर हम बीघा भर भूमि के लिये उसे अपने भाईयों के रक्त से सींच देते हैं। यह हमारी मानसिकता ही है जो हमें प्रचुरता की स्थिति में भी सीमितता का आभास देती है।

गरीबी में साथ साथ रहना है, कष्ट में साथ साथ रहना है, विपत्ति में साथ साथ रहना है, वैभव होगा तब अन्य विषयों पर शास्त्रार्थ कर लेंगे। आप निर्धारित कर लें कि आपको लेज़र बनना है कि धूल बनकर पड़े रहना अपनी अपनी कक्षाओं में सुरक्षित। आप निर्धारित कर लें कि आपको बोसॉन बनना है या फर्मिऑन।

23.3.11

विज्ञापनों का सच

घर से कार्यालय की दूरी है, 2 किमी जाते समय, 1 किमी आते समय, कारण वन वे। वैसे भी कार्यालय जाते समय अपेक्षाओं का भारीपन रहता है, गुरुतर उत्तरदायित्वों का निर्वहन, वहीं दूसरी ओर घर आते समय परिवार के साथ समय बिताने का हल्कापन। यदि आने जाने की दूरियाँ बराबर भी हो तब भी हम सबके लिये घर पहुँचना बड़ा ही शीघ्र होता है, कार्यालय पहुँचने की तुलना में। एक ओर अपेक्षाकृत अधिक दूरी, कार्यालयीन गुरुता और उस पर 3 ट्रैफिक सिग्नल, सब मिलकर कार्यालय पहुँचने की क्रिया को एक घटना में परिवर्तित कर देते हैं।

अभी तक 2 या 3 बार ही ऐसा हुआ है कि तीनों सिग्नल हरे मिले हैं, शेष हर बार सिग्नल का लाल आँखों को चिढ़ाता रहा है। आपके विचारों का प्रवाह आपके वाहन के कंपनों की हल्की सिहरन में रमा होता है, वाहन रुकते ही वह भी टूट जाता है, अनायास ही आप बाहर देखने लगते हैं। बहुत समय तक आसपास रुकी हुयी नवीनतम माडलों की चमचमाती कारें आकृष्ट करती रहीं, रुकी हुयीं कारों को मन भर कर देखने का समय मिल जाता है सिग्नलों में। हर आकार, अनुपात और रंगों की कारें, एक से एक मँहगी, साथ में बैठे उनके गर्वयुक्त स्वामी। जब धीरे धीरे सब मॉडल याद हो गये, कारों पर ध्यान जाना स्वतः रुक गया। आँख बंद कर संगीत में रमना भी नहीं हो पाता है क्योंकि कुछ देर पहले स्नान कर लेने से आँखें भी बन्द होने से मना कर देती हैं, बस सजग हो खुली रहना चाहती हैं। अपने वाहन में बैठ आगे खड़े लोगों की पीठ ताकने में कभी भी रुचि नहीं रही, अतः आँखें कुछ और ढूढ़ने लगती हैं।

प्रयास करता हूँ ढूढ़ने का, कि रुके हुये वाहनों और सड़क के किनारे खड़ी अट्टालिकाओं के ऊपर कहीं कोई छोटी सी खिड़की खुली हो जिससे झाँक कर आसमान की बिसरी हुयी नीलिमा निहारी जा सके, पर वह स्थान तो घेर लिया है विज्ञापनों की बड़ी बड़ी होर्डिगों ने। हर तरह के उत्पाद के लिये विज्ञापन, एक नये तरह का, तथ्यात्मक कम और संवादात्मक अधिक। कुछ होर्डिंग तो इतने बड़े कि एक किमी पहले से ही किसी स्वप्न-सुन्दरी का खिलखिलाता हुआ चेहरा दिखने लगता है, बाट जोहता हुआ। आपको भी लगता है जैसे वह आपके लिये ही वह मुस्करा रही हैं, आपके लिये ही समर्पित हैं उनका सौन्दर्य। इस तथाकथित समर्पण से हम भारतीय भी इतने भावानात्मक हो जाते हैं कि देखने लगते हैं कि क्या संदेश दे रही हैं उनकी स्वप्नप्रिया। वहीं दूसरी ओर अभिनेतागण भी अपना शरीर सौष्ठव व ज्ञानभरी भावभंगिमा दिखाने से नहीं चूकते, बस आप उनके बताये हुये साबुन से स्नान कर लें। जो भी हो, आप थोड़ी देर के लिये उनकी रोचकता में उलझ जाते हैं और वह ध्यानस्थता तभी टूटती है जब अगली होर्डिंग पर आपकी दृष्टि पहुँचती है।

विज्ञापन क्षेत्र के केन्द्रबिन्दु में यही एक तथ्य है कि किस प्रकार आपका अधिकतम समय उसे निहारने में व्यतीत हो। आप जितना समय उसे देखेंगे उतनी ही संभावना बढ़ जायेगी की वह आपके अवचेतन में स्थान बना ले। अवचेतन में बस जाने के बाद एक तो आपके अन्दर उस उत्पाद के प्रति आसक्ति हो जायेगी और यदि कभी खरीदने का मन बना तो बस वही याद आयेगा, खिलखिलाता, हँसता विज्ञापन। इतना सब हो जाने के पश्चात औपचारिकता मात्र रह जाता है उसे खरीदना।

रोचकता बढ़ाने के लिये क्या नहीं कर डालते हैं लोग विज्ञापनों में, कभी अभिनेता, कभी विचित्र संदेश, कभी भावुकता, कभी आकर्षण और न जाने क्या क्या। प्रस्तुतीकरण की रूपरेखा बनाने के लिये उत्कृष्ट मस्तिष्कों की पूरी सेना लगी रहती है। सर्वप्रथम विज्ञापन बनाने का व्यय, बड़े मॉडल को दिया गया मूल्य, उस विज्ञापन को लगाने का व्यय और अन्त में उसे विशेष स्थान में लगाने का व्यय। इतना अधिक धन लगाने से आपके द्वारा खरीदा गया उत्पाद लगभग 10 प्रतिशत तक मँहगा हो जाता है, वह जाता है आपकी ही जेब से।

हर विज्ञापन देखने का मूल्य है, उसे मन में बसा लेने का और भी अधिक। कार्यालय तक पहुँचने के 2 किमी में लगभग 100 बड़े होर्डिंग लगे हैं, हर दिन देखता हूँ और माह के अन्त में बैंक बैलेंस पिछले माह जैसा ही। कार्यालय जाने का भारीपन और बढ़ जाता है। अब सोचता हूँ कि कैसे भी हो, आँख बन्द कर संगीत सुनना श्रेयस्कर है। देखिये न, गाना भी विषय में डूबा हुआ है...

तुमसे मिली नज़र कि मेरे होश उड़ गये,
ऐसा हुआ असर कि मेरे होश उड़ गये।

19.3.11

चमचों का स्थान

एक बार शतरंज खेलते समय यह विचार उभरा कि यदि वास्तविक जीवन के समकक्ष इस खेल में भी चमचों का स्थान होता तो उन्हें कहाँ बिठाया जाता, उनकी क्या शक्तियाँ होतीं और उनकी चाल क्या होती? बड़ा ही सहज प्रश्न है और इस तथ्य को खेल के आविष्कारकों ने सोचा भी नहीं। संभवतः उस समय किसी भी क्षेत्र में इतने चमचे न होते होंगे और यदि होते भी होंगे तो उनका प्रभाव क्षेत्र इतना व्यापक न होता होगा। धीरे धीरे विस्तार इतना व्यापक हो गया है कि बिना उनके किसी भी क्षेत्र में ज्ञान का प्रादुर्भाव होना संभव ही नहीं। बिना उनके कुछ भी होना आश्चर्यवत ही देखा जाता है।

चमचों को शतरंज के बोर्ड में समायोजित करने के लिये बोर्ड का आकार बड़ा करना पड़ेगा क्योंकि राजा के चारों ओर 8 खानों में उनके अतिरिक्त कोई और मोहरा न रह सकेगा। राजा को एक खाना चलने के लिये यह आवश्यक होगा कि उनके चमचों के लिये भी स्थान उपलब्ध रहे। कोई एक भी स्थान भरा होने की स्थिति में राजा का हिलना वैसे ही असम्भव होगा जैसा कि अभी होता है। नियम तब यह भी बनेगा कि वह स्थान बनाने के लिये अपने राजा के मोहरे मारने का अधिकार चमचों को रहेगा।

राजा को शह लगते ही सारे चमचों को बोर्ड से हटा लेने का प्रावधान हो, बचाव की शक्ति प्रमुख मोहरों को ही रहे। मात बचाने के प्रयास में निकट आये सारे मोहरों को बचाव होते ही अपना स्थान छोड़ना होगा और चमचों को उनका स्थान समुचित और सादर सौंपना होगा। शान्ति के समय में राजा से निकटता  का अधिकार केवल चमचों को ही हो। वास्तविक जीवन परिस्थितियों को शतरंज में उतारने के प्रयास में शतरंज का खेल गूढ़तम हो जायेगा, आनन्द आयेगा और कुछ सीखने को मिलेगा।

चमचों ने पूरा सामाजिक परिदृश्य बदल दिया है। अधिकारों के प्रवाह का नियन्त्रण अब सीधा नहीं रह गया है, जगह जगह पर बाँध बन गये हैं, जितनी बड़ी नदी, उतने बड़े बाँध, प्रवाह रोक कर बिजली पैदा की जा रही है, बेहिसाब। बाँधों के आसपास के खेत लहलहा रहे हैं। दूर क्षेत्रों में न बिजली पहुँची है और न ही पानी, सब बाँधों ने रोक लिया है।

शतरंज और समाज तो निश्चय नहीं कर पा रहे हैं कि चमचों को कहाँ स्थान मिले पर चमचों को अपने स्थान के बारे में कोई संशय नहीं है। अपने स्वामी को अपने हृदय में बसाये कहीं भी किसी के भी विरुद्ध गरल वमन करने में सक्षम चमचे, उस हर समय वहाँ पाये जाते हैं, जहाँ जहाँ स्वामी पर कोई आँच सी संभावना दिखती है। पहले तो कुछ भी बोल देते हैं और बिना विषय के भी एक सदी पहले के प्रसंगों का संदर्भ दे देते हैं। संवाद स्पष्ट सा है, अर्थ आपको समझ आये न आये, भावनाओं को समझो।

लोकतन्त्र के किसी मनीषी ने इस प्रजाति के बारे में कल्पना तक भी नहीं की होगी और अब स्थिति यह आ गयी है कि इन्हें लोकतन्त्र का पाँचवा स्तम्भ समझा जा रहा है।

क्या कहा, क्या ऐसा नहीं है, ध्यान से देखना होगा।

पास जाकर ध्यान से अवलोकन होता है, स्तम्भ और आधार के बीच हवा है।

अरे, यह स्तम्भ तो लटका हुआ है लोकतन्त्र में, यही इसका स्थान और स्वरूप है।

16.3.11

डायरी के कार्य

आज एक बड़े ही व्यस्त और व्यवस्थित मित्र की डायरी देखने को मिली, व्यक्तिगत नहीं, प्रशासनिक। व्यवस्थित इतने कि हर कार्य अपनी डायरी में लिख लेते हैं। उनकी काली जिल्द वाली भरकम डायरी को गहनता से देखें तो पता चल जायेगा कि किस दिन कितने कार्य करने के लिये उन्होंने सोचा था, कितने नये कार्य और आये, किस तात्कालिक कार्य ने दिन भर का सारा समय व्यर्थ कर दिया और अन्ततः कितने कार्य हो पाये। किस पर समय निवेश हुआ और तत्पश्चात क्या शेष रहा। एक साथ कार्य करने के कारण मुझे उन कार्यों के संदर्भों को समझने के लिये विशेष प्रयास नहीं करना पड़ा, इस तथ्य ने पूरे अवलोकन को और भी रोचक बना दिया।

कुछ कार्य उसी दिन लिखे गये और हो गये, कुछ भिन्न तिथियों में उपस्थित पाये गये, उन कार्य को कई कई बार लिखा गया। एक या दो कार्य बहुत ही बड़े थे, कुछ माह तक चिपके रहे। कुछ कार्य किसी दिशा विशेष से प्रारम्भ होकर नदी के प्रवाह में कहीं दूर जाकर लगे, हर कुछ दिनों बाद उनका स्वरूप बदलता गया, पर अन्ततः हो गये। एक कार्य होने से उससे सम्बन्धित दूसरे कार्य निकल आये, श्रंखला इतनी रोचक थी कि उस पर प्रबन्धन का एक शोधपत्र तो लिखा ही जा सकता है।

बड़ा अच्छा होता कि एक नियत कार्य रहता हम सबका तो ऐसे न जाने कितने खाते लिखे जाने से बच जाते। हमारे मित्रजी के भाग्य में भला वह सुख कहाँ? उसी डायरी में बीच बीच में कुछ पारिवारिक कार्य भी थे, राशन इत्यादि ले आने के, अब पारिवारिक कार्यों के लिये एक और डायरी तो नहीं रखी जा सकती है। उन आवश्यक विवशताओं पर ध्यान न देकर हमने उस विषय को महिमामण्डित होने से बचा लिया।

स्मृति पर यदि अधिक विश्वास होता तो डायरी की आवश्कता न पड़ती, पर बहुधा कार्यों और निर्देशों की बहुतायत को सम्हालना हमारे बस में नहीं होता है। जिनका जीवन कार्यवृत्त जितना फैलता जाता है, उनके लिये कार्यों को लिख लेना उतना ही आवश्यक हो जाता है। नगरीय जीवन में ग्रामीण जीवन से अधिक जटिलता होती है, हमें तो सूची न दी जाये तो मॉल से सौंफ की जगह जीरा व जीरा की जगह अजवायन घर आ जायेगी।

दिन भर के न हुये कार्यों को अगले पृष्ठ पर तो उतारना ही होगा, अब यदि इतनी बार किसी कार्य को लिखें तो वैसे ही स्मृति में बना रहेगा वह कार्य। हर प्रभात में एक नयी सूची कार्यों की, हर रात में न पूरे हो पाये कार्यों की उदासी और कारण व कारक पर क्षोभ, सफलता का समुचित श्रेय भी। यदि कार्य कुछ बढ़ता है तो हम और उत्साहित होते हैं उसे अगले दिन सर्वप्रथम करने के लिये। बड़े कार्यों को मान मिलता है, समय व ध्यान भी अधिक मिलता है।

परिस्थितियाँ किसी कार्य को जीवित रखती हैं, कर्म उस कार्य में गति बनाये रखता है। काली डायरी में न जाने कितने कार्यों का उद्गम, विस्तार व अन्त था। कितने ही कार्य परिचित हो जाते हैं, उनका जीवन काल लम्बा जो होता है।

इसके पहले कि कार्य मुझसे बाते करने लगते, मैंने डायरी वापस कर दी, कार्यों की यह यात्रा, पृष्ठ दर पृष्ठ चलती ही रहेगी।

हम सब भी किसी कार्य की भाँति ही ईश्वर की डायरी में विद्यमान है, हमारे निरर्थक होने का क्षोभ तो उसको भी होता होगा, नित्य ही वह हमें पिछले दिन के पृष्ठ से उठाकर नये पर रख देता है, बिना किसी गति के, बस जड़वत।

क्या हम जैसे थे, वैसे ही उठाकर रख दिये गये हैं, अगले दिन के लिये? क्या हम कुछ विकसित हुये उस दिन? हमें ढोने की पीड़ा प्रकृति को भी होती होगी।

अगले पृष्ठ पर उत्साह के साथ चलें, प्रगति के साथ चलें, सार्थकता के साथ चलें, डायरी को भी प्रसन्नता दें।

12.3.11

डरे डरे से मोरे सैंया

जब मन में छिपा हुआ सत्य अप्रत्याशित रूप से सामने आ जाता है, तब न कुछ बोलते बनता है और न कहीं देखते बनता है। बस अपनी चोरी पर मुस्करा कर माहौल को हल्का कर देते हैं। आप अपने घर पर हैं, चारों ओर परमहंसीय परिवेश निर्मित किये बैठे हैं, संभवतः ब्लॉग पढ़ रहे हैं। आपकी श्रीमतीजी आती हैं और चेहरे पर स्मित सी मुस्कान लिये हुये कुछ कहना प्रारम्भ ही करती हैं कि आप आगत की आशंका में उतराने लगते हैं। आप कहें न कहें पर आपका चेहरा पहले ही आपके मन की बात कह जाता है। अब चेहरा कहाँ तक कृत्रिमता ओढ़े बैठा रहेगा, जो मन में होगा वह व्यक्त ही कर देगा। अब यह देखकर श्रीमतीजी आप पर यह सत्य उजागर कर दें तो आपको कैसा लगेगा?

"मैं कुछ भी बोलना प्रारम्भ करती हूँ तो आपके चेहरे पर प्रश्नवाचक भय पहले से आकर बिराज जाता है"

सत्य है, झुठलाया नहीं जा सकता है, बहुधा आपके साथ ऐसा ही होता होगा। जानबूझ कर नहीं पर अवचेतन में ऐसा भाव क्यों बैठ गया है, कोई मनोवैज्ञानिक ही बता सकता है। कई बार ऐसा होता है कि बात बहुत छोटी सी निकलती है, साथ में आपके राहत की साँस भी। बड़ी बात भी समझाने से अन्ततः मान जाती हैं श्रीमतीजी। पर इस भय का निवारण अभी तक नहीं हो पाया है। ऐसा क्या हो जाता है कि आप कुछ भी सुनने के पहले ही भयभीत हो जाते हैंऐसा क्यों लगने लगता है कि श्रीमतीजी की सारी माँगें आपको समस्याग्रस्त करने वाली हैंपरिवार में आशंकाओं के बादल कब आपके मन में झमाझम बरसने लगते हैं, कोई नहीं जानता, मौसम विज्ञान के बड़े बड़े पुरोधा भी नहीं बता सकते हैं।

संवाद पर अनेकों शास्त्र लिखे ऋषियों ने पर पता नहीं क्यों पारिवारिक संवाद को इतना महत्व नहीं दिया गया? संभवतः परिवार में जो एकमार्गी संप्रेषण होता हो वह संवाद की श्रेणी में आता ही न हो। आदेश और संवाद में अन्तर ही इस प्रतीत होती सी भूल का कारण होगा। यह भी हो सकता है कि ज्ञान पाने के लिये अविवाहित रहने की बाधा इस विषय से अधिक न्याय न कर पायी हो। विवाह न करने से जितना ज्ञान जीवन भर प्राप्त होता है उतना तो कुछ ही वर्षों का वैवाहिक जीवन आपको भेंट कर देता है। ज्ञान चक्षु शीघ्र खोलने हों, कुण्डलनी जाग्रत करनी हो तो बिना कुछ सोचे समझे विवाह कर लीजिये और यदि विवाह कर चुके हों तो अपनी धर्मपत्नी की बातों को ध्यानपूर्वक सुनना प्रारम्भ कर दीजिये।

अब इतना ज्ञान प्राप्त करने के बाद भी हम श्रीमतीजी के वाक-अस्त्रों के सामने असंयत दिखायी पड़ते हैं। भय इसी बात का ही रहता है कि छोटी छोटी सी लगने वाली बातें न जाने कितनी मँहगी पड़ जायेंगी। बच्चों को भी लगने लगा है कि पिता पुरुरवा के स्तर से उतर कर हर वर्ष प्रभावहीन होते जा रहे हैं और माता उर्वशी के सारे अधिकार समेट अपनी कान्ति की आभा का विस्तार करने में व्यस्त हैं। कोई दिनकर पुनः आये और नयी उर्वशी का रूप गढ़े, पारिवारिक संदर्भों में।

एक बड़ा ही स्वस्थ हास्य धारावाहिक हम सब बैठकर देखते हैं, तारक मेहता का उल्टा चश्मा। लगता है उस धारावाहिक के दो पात्र हमारे घर में पहले से रह रहे हैं। मैं 'दयनीय जेठालाल' और श्रीमतीजी 'निर्भीक दया भाभी' बनती जा रही हैं।

हमारे तो विवाह का जो अध्याय 14 फरवरी से चला था, अब 8 मार्च पर आकर ही ठहर गया।

मेरी कहानी है, मैं स्वयं झेलूँगा पर यदि आप अपनी श्रीमतीजी को इस विषय पर कुछ गाने के लिये कहेंगे तो संभवतः आपको भी यही स्वर सुनने को मिलेगा।

मोरे सैंया मोहे बहुतै सुहात हैं,
जो परस देओ बस वही खात हैं,
न जाने काहे छोटी छोटी बात मा,
पहले से घबराय जात हैं।

डरे डरे से मोरे सैंया,
पहले तो सब सुन लेते, अब ध्यान कहाँ है तोरे सैंया।
(धुन पीपली लाइवमँहगाई डायन)

9.3.11

देवेन्द्र दत्त मिश्र

पहली बार मिला प्रशासनिक कार्य से, अभिरुचियों की चर्चा हुयी, पता चला साहित्य में रुचि है तो दोनों साथ हो लिये मेरे वाहन में, दो घंटे की यात्रा, संवाद की गूढ़ता में डूबे हम लोगों को ड्राइवर महोदय ने ही बताया कि सर, घर आ गया है। जीवनयात्रा में यात्राओं ने बहुत कुछ दिया है, मिला एक और उपहार, मुझे भी, साहित्य को भी और संभवतः ब्लॉग जगत को भी।

बहुधा ऐसा होता है कि हम अपनी योग्यताओं को अकारण किसी पर थोपते नहीं हैं, एक कारण बहुत ही सौम्य होता है, हमारी विनम्रता, पर उसमें हमें अपनी योग्यताओं का भान सतत रहता है, व्यक्तित्व में गुरुता बनी रहती है। दूसरा कारण प्राकृतिक होता है, फक्कड़ी जैसा, योग्यता गुरुता नहीं लाती व्यक्तित्व में, व्यवहार की सहजता में मात्र प्रसन्नता ही बिखरती है चहुँ ओर, लहरों के उछाल में पता ही नहीं चलता कि सागर कितना गहरा है।

दो घंटों की बातचीत, न जाने कितने पक्ष खोलती गयी, एक के बाद एक, बीज से प्रारम्भ हुआ ज्ञान का वटवृक्ष बन फैलता गया, न जाने कितना क्षेत्रफल समेटे मुठ्ठीभर मस्तिष्क में। मेरा सौभाग्य ही कहेंगे इसे कि मेरे सम्मुख वह खुलते गये।

अनुभव की व्यापकता मशीनी मानव से भिन्न व्यक्तित्व निर्मित करती है, एक विशेष, विशद, समग्र दृष्टिकोण लिये। न जाने कौन सा अनुभव कब काम आ जाये, किस नये क्षेत्र में उसका उपयोग एक क्रान्ति का प्रादुर्भाव कर बैठे, इतिहास भरा पड़ा है ऐसे उदाहरणों से। सामाजिक व व्यवहारिक रूपों में उन अनुभवों का समन्वय जो निष्कर्ष लेकर आता है, उसकी प्रतीक्षा में ही सकल विश्व बाट जोहता बैठा रहता है, हर प्रभात के साथ। मैं मैराथन में अनुभव किये सत्य जब परिवार में लगाता हूँ तो धैर्य जैसे गुणों को सम्मानित स्थान मिल जाता है। लेन्ज का नियम पुत्र के तेवर बताने लगता है। गणित का सवाल हल कर लेने का उत्साह छोटी छोटी बातों में प्रसन्न हो जाना सिखा देता है। अंतरिक्ष की विशालता में स्वयं का स्थान जीवन से गुरुता निकाल फेंकती है। विभिन्न क्षेत्रों के अनुभवजन्य सत्य जीवन का अस्तित्व सुखद करने में लगे हुये हैं।

एक इलेक्ट्रिकल इन्जीनियर, आई आई एम बंगलोर से प्रबन्धन के परास्नातक, मेट्रो प्रोजेक्ट के 6 वर्ष के अग्रिम अनुभव में पके, विदेश में कार्यसंस्कृति के प्रशिक्षण में पगे, अध्यात्म के संदर्भों के जानकार, साहित्य में प्रबल हस्तक्षेप रखने वाले, कवि हृदय, सहजता के सुरवेत्ता और अपने सब गुणों को अपनी फक्कड़ी के भीतर छिपाये देवेन्द्र दत्त मिश्र से जब आप मिलेंगे तो उनकी मुस्कराहटपूर्ण आत्मीयता आपको उनके साथ और संवाद करने को विवश कर देगी।

मेरा स्वार्थ बड़ा साधारण सा था, उन्हे कुछ लिखने के लिये प्रेरित करना। पर मेरा विश्वास उतना साधारण नहीं है, जो यह माने बैठा है कि उनके अनुभव के छन्नों से छनकर जो सृजन उतरेगा, वह साहित्य व ब्लॉग जगत के लिये संग्रहणीय होगा। मेरे कई बार उलाहना देने पर उन्होने अपना ब्लॉग प्रारम्भ कर दिया है और सम्प्रति प्रबन्धन जैसे गूढ़ विषय को हिन्दी में लाने का महत प्रयास भी कर रहे हैं। उन्होने इन्फोसिस के प्रबन्धन पर लिखी पुस्तक को आधारस्वरूप लिया है, इस कार्य के लिये। दर्शन का संपुट, कविता का संप्रेषण, प्रबन्धन की गूढ़ता, सब एक में समाहित।

एक और विमा, साहित्य के घेरे में, संवर्धन की प्रक्रिया कई विषयों के लिये। स्वागत कर लें उनका, उत्साह बढ़ा दें उनका और आशा करें कि क्षमतानुसार और समयानुसार जितना भी लिख पायें वे, लिखते रहें।

इतना ही स्वार्थ हो हम सबका भी।

5.3.11

मगन होके बहती है, जीवन की लहरी

अरुण मन्त्र गाता, निशा गीत गाती,
सन्ध्या बिखेरे छटा लालिमा की ।
रहे खिलखिलाती वो, चुलबुल दुपहरी,
मगन होके बहती है, जीवन की लहरी ।।१।।

हृदय में उमंगें उमड़तीं, मचलतीं,
जहाजों की पंछी बनी साथ चलतीं ।
कभी गुदगुदाती हैं यादें रुपहली,
मगन होके बहती है, जीवन की लहरी ।।२।।

जीवन के सब पथ स्वयं नापने थे,
बँधे हाथ, नियमों के शासन घने थे ।
आशा की बूँदों की बरसात पहली,
मगन होके बहती है, जीवन की लहरी ।।३।।

प्रश्नों का निर्वाण, अब उत्तरों का,
स्वच्छन्दता से भरे उत्सवों का ।
मचता है उत्पात, सोते हैं प्रहरी,
मगन होके बहती है, जीवन की लहरी ।।४।।

चले चन्द्र मंथर, निडर यामिनी है,
वसन बन के फैली, प्रखर चाँदनी है ।
अमावस की रातें, जो सहना था, सह लीं,
मगन होके बहती है, जीवन की लहरी ।।५।।

कभी मुस्कराती, कभी गुनगुनाती,
उतरती गगन-पथ, परी कल्पना की ।
सुखद आस बनकर विचारों में ठहरी,
मगन होके बहती है, जीवन की लहरी ।।६।।


पहले अर्चना चावजी का स्वर, फिर मेरा अनुसरण




2.3.11

बसन्त का सन्त

यह एक सुन्दर संयोग ही है कि वैलेन्टाइन दिन बसन्त में पड़ता है। बसन्त प्रकृति के उत्साह का प्रतीक है और प्रेम प्रकृति की गति का। प्रेम का यह प्रतीकोत्सव भला और किस ऋतु को सुशोभित करता? आधुनिक सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में कुछ प्रश्न उभरते हैं। क्या प्रेम का अर्थ भिन्न संस्कृतियों में भिन्न होता है? प्रेम के आवरण में फूहड़ता का आचरण क्या किसी की सांस्कृतिक विरासत का अंग हो सकता है? प्रेम का सांस्कृतिक स्वरूप क्या किसी देश या समाज की सीमा में बँध कर रह सकता है? हर बार जो उत्तर मिलता है, वह धीरे धीरे सबको समेट लेता है, अपने अन्दर। जैसे जैसे प्रेम की गहराई में उतरने का यत्न करेंगे, वह दैहिक, मानसिक, बौद्धिक सीमाओं को समेटता हुआ अध्यात्मिकता में डूब जाता है।

प्रेम में अध्यात्म जैसा शब्द जोड़ते ही, बहुतों को लगता है कि, उसमें रोचकता निचोड़ ली गयी, अब होगी कोई नीरस सी असहनीय, अचंचलात्मक बातें। प्रेम की गहराई में उतरते ही उसमें ऐसा भारीपन आ जायेगा जो सबके बस की बात नहीं। मीरा का पागलपन, गोपियों की व्यथा, प्रेम की गहनतम अभिव्यक्तियाँ हैं। यह गुरुता उन लोगों को असहनीय है जिनके लिये प्रेम का उद्भव, अभिव्यक्ति और निरूपण एक नियत दिन में ही हो जाने चाहिये। आप कहें कि चलिये प्रेम को कम से कम एक माह में पल्लवित करें या बसंत में बढ़ायें तो आप पर आरोप लग जायेंगे कि आप वैलेन्टाइन बाबा का अपमान कर रहे हैं क्योंकि प्रेम के लिये एक नियत दिन है। क्या वैलेन्टाइन बाबा ने कहा था कि उन्हें एक दिन का कारागार दे दो?

मेरा 14 फरवरी से कोई विरोध नहीं अपितु वैलेन्टाइन बाबा के प्रति अगाध श्रद्धा है। हो भी क्यों न, प्रेम ही सकल विश्व की गति का एकल महत्वपूर्ण कारण है। अपने जीवन से प्रेम हटा दीजिये, आप जड़वत हो जायेंगे। प्रेमजनित गतियाँ असाधारण होती हैं, रोचक भी। उस असाधारणता को एक दिन में सीमित कर देना बाबा का अपमान है, प्रेम का भी। देखिये न, जिस सन्त ने प्रेम का पटल एक दिन से बढ़ाकर जीवन भर का कर देने का प्रयास किया, उसका प्रतीक पुनः हमने एक दिन में समेट दिया।

श्रुतियों के अनुसार, सैनिकों को विवाह की अनुमति न थी, कारण यह कि वे किसी आकर्षण में बँधे बिना ही पूरे मनोयोग से युद्ध करें। यह एक कारण था जिससे बिना विवाह  ही एक दिवसीय सम्बन्धों को आश्रय मिलता था। वैलेन्टाइन बाबा के प्रयासों से वह सम्बन्ध जीवनपर्यन्त बने, विवाह को मान्यता मिली और समाज को नैतिक स्थिरता। प्रेम में जो जितना गहरा उतरेगा, उसको उतना खजाना मिलेगा। सतह पर छींटे बिखेरेंगे तो सतही सुख मिलेगा, गहराई की डुबकी लगायेंगे तो मन के कोमलतम भावों में पगे रत्न होंगे आपके जीवन में। गहरापन बिना समय व्यय किये नहीं आता है, वर्षों की सतत साधना और तब स्पष्ट होता है प्रेम। प्रेम एक दिन का कर्म नहीं, वर्षों का मर्म है।

गहराई के साथ साथ प्रेम में एक विस्तार भी है। किसी की मुस्कराहटों पर निसार हो जाना, किसी को समझ लेना और किसी का दर्द बाटने की अभिलाषा ही प्रेम है। प्रेम तो बादल की तरह भरा हुआ होता है जो बरसना चाहता है या होता है धरती की तरह जो सब कुछ अपने भीतर समाहित कर लेने को आतुर होती है और उसे हजार गुना करके लौटा देती है। प्रेम समर्पण की धरा पर उत्पन्न होता है, निःस्वार्थ भाव से बढ़ता है और विराट हो जाता है, मानवता का विस्तार लिये। सच्चा प्रेम  किसी दिनविशेष से परे सतत पल्लवित होता रहता है।

वैलेन्टाइन बाबा ने तो प्रेम को विस्तार और गहराई दी थी, हमने ही उसे एक दिन में और सतही आकर्षण में समेट दिया। आप ही बताईये कि प्रेम के गूढ़ विषय में किसी की सतही समझ और तज्जनित फूहड़ता के कारण मैं उस सन्त पर श्रद्धा रखना कैसे कम कर दूँ, जिसने प्रेम को सही सामाजिक रूपों में स्थापित किया? मेरे लिये तो वह बसन्त के सन्त हैं।