28.11.12

शिक्षा - एक वार्तालाप

यह तब प्रारम्भ हुआ जब दशहरा के तुरन्त बाद बच्चों को अपने गृहकार्य की याद आयी। बच्चे घबराये से कार्य करने बैठ गये। पिछली रात के आनन्दमयी उन्माद में डूबे बच्चों को सहसा इतने मनोयोग से काम करते देखना बड़ा रोचक लग रहा था। फोटो खींच कर उसे फ़ेसबुक में डाल दिया। जो प्रतिक्रियायें आयीं, उसमें सबसे आलोचनात्मक और हृदयस्पर्शी आलोक की थी। वार्तालाप शिक्षा के प्रति समाज के दृष्टिकोण का एक संक्षिप्त रूप है, हिन्दी में अनुवाद भाव संरक्षित रखते हुये किया गया है।(आलोक चित्रकार हैं, मोहित बड़ी कम्पनी में कार्यरत हैं, दीप्ति सियोल में शिक्षण में हैं और प्रवीण रेलवे की सरकारी नौकरी में)

आलोक - मुझे छुट्टी के समय पर बच्चों को गृहकार्य से लादने की बात समझ ही नहीं आती है। क्या विद्यालयों और शिक्षकों को ज्ञात भी है कि छुट्टियों का अर्थ और महत्व क्या होता है? यदि बच्चे छुट्टियों में इस तरह जूझते रहेंगे, तो वे कभी कार्य को उस अवस्था से अलग करके नहीं देख पायेंगे जिसमें वे इस तनाव वाली पढ़ाई से उन्मुक्त होकर प्रकृति देखें, मित्रों और सम्बन्धियों से मिलें और उन सब चीजों को जाने जो इतना गृहकार्य देने वाले विद्यालयों में नहीं पढ़ायी जाती हैं। यह चित्र मुझे बहुत पीड़ा दे रहा है, पुस्तक पर रखा पेपरवेट मानो उनकी उन्मुक्तता पर रखा एक बड़ा सा भार है। यह सब होते हुये भी वे सबकी अपेक्षाओं के प्रति समर्पित हैं।

प्रवीण - मैं पूरी तरह से समहत हूँ, क्या बच्चों को इस तरह तनाव में रखने की आवश्यकता थी? कल रात तक ये धमाचौकड़ी मचा रहे थे। इन्होंने कल रावण बनाया, उसे रंगा, उसमें पटाखे भरे और यह सब मोहल्ले के सब बच्चों के साथ किया। आज सुबह से ये बिल्कुल बदले दिख रहे हैं, इनकी छुट्टियाँ समाप्त होने से पहले ही समाप्त हो गयी हैं।

आलोक - प्रवीण, यह सच में दुख की बात है और मुझे क्रोधित भी करती है। कुछ दिन पहले एक डॉकूमेन्ट्ररी बनाने वाले युगल ने मुझसे पूछा था कि मेरे अनुसार क्रूरतम हिंसा क्या है? "एक बच्चे की बात न सुनना, उसके कुछ बोलने का आदर न करना, यही हिंसा का क्रूरतम स्वरूप है।" मैंने कहा। तब उन्होने मुझसे शिक्षातन्त्र के बारे में पूछा। मेरा उत्तर इस प्रकार था "मुझे यह सोचकर आश्चर्य होता है कि क्या होगा यदि सारे विद्यालय एक वर्ष के लिये बन्द कर दिये जायें। यदि विश्व तब भी यदि चलता रहता है तो हमें विद्यालयों की आवश्यकता ही नहीं है। तब अधिक उन्मुक्त और बुद्धिमान होंगे। बस अभी और आज ही बन्द कर देते हैं सारे विद्यालय, स्थिति भयावह है।"

प्रवीण - सच है, इस शिक्षातन्त्र को नहीं ज्ञात है कि वे कितने स्टीव जाब्स, बिल गेट्स, रामानुजम और आइन्स्टीन का गला बचपन में ही घोंट दे रहे हैं।

दीप्ति - यह चर्चा बहुत अच्छी है पर मैं तनिक अलग सोचती हूँ। कल्पना करें कि यदि आप दोनों ने पढ़ाई नहीं की होती तो आज क्या कर रहे होते? मुझे तो कुछ भी सम्मानजनक व्यवसाय नहीं दिखता है, सिवाय व्यापार के। और व्यापार में भी यदि आप अम्बानी नहीं हैं तो आपको कोई नहीं पूछता है। निश्चय ही हमारे समय में परवरिश के आयाम बदल रहे हैं पर मुझे फिर भी संशय है कि ऐसी परिस्थितियों में भी हम अपने माता पिता से भिन्न कोई निर्णय लेते।

प्रवीण - दीप्ति, यह एक वृहद विषय है और आलोक के कथन को एक बड़े परिप्रेक्ष्य में लेना होगा। बच्चों के लिये सीखना किसी ने मना नहीं किया, श्रेष्ठता प्राप्त करना भी मना नहीं है। सर्वाधिक चिन्ता का विषय है वह पद्धति जिसके माध्यम से शिक्षा दी जाती है। यह प्राकृतिक विकास और सीखना बाधित करती है।

मोहित - मेरा अनुभव दोनों तरह का रहा है, पश्चिमी भी और भारतीय भी। कक्षा ५ तक कान्वेन्ट में पढ़ा हूँ। जिस कक्षा में पढ़ते थे, एक सप्ताह में वहाँ उतने ही घंटों का गृहकार्य दिया जाता था। जैसे कक्षा ४ में केवल ४ घंटा। सप्ताह में ५ दिन पढ़ाई, अर्थात दिन में ४८ मिनट। सप्ताहान्त में कोई गृहकार्य नहीं। ६ से १२ तक स्थानीय विद्यालय में पढ़ा, अंक और स्थान आ जाने से प्रतियोगिता बढ़ गयी, अधिक पढ़ना पड़ा। अब लग रहा है कि प्रतियोगिता प्राइमरी में भी पहुँच गयी है, जिसने बच्चों के ऊपर बोझ बढ़ा दिया है। फिर भी विश्व फलक पर विश्वास से कह सकता हूँ कि हमारे विद्यार्थी कहीं अच्छे हैं।

आलोक - मोहित, तुम्हारे अवलोकनों से मैं पूर्णतया सहमत हूँ। हमें संतुलन बनाना होता है। हम इतनी तेजी से बदल रहे हैं, हमारे बच्चे न जाने कितने स्रोतों से जान रहे हैं, हमसे अच्छा जान रहे हैं। तो क्या हम उस अनुसार पढ़ाने की अपनी पद्धतियाँ बदल रहे हैं या तीन दशक पुराना पाठ्यक्रम पढ़ाकर उसमें ही जूझने को कहते रहते हैं। मुझे पढ़ाने का जितना भी अनुभव मिला, मैनें अभिभावकों से पूछा कि वे किसका स्वप्न जी रहे हैं? बच्चों से भी यही प्रश्न पूछा, पर उत्तर में सदा ही निराशा हाथ लगी। विडम्बना ही है कि जो बच्चे अपना स्वप्न जीना चाहते हैं तो सब उन्हें विद्रोही और नालायक कहने लगते हैं। उससे भी बड़ी बिडम्बना पर यह है कि जब वही बच्चे अच्छा कर स्वयं को स्थापित करते हैं तो सारा श्रेय वही माता पिता ले लेते हैं। यही हमारे जीवनचरित्र को उजागर करता है। बदलाव के साथ बदलते रहना सबको आता भी नहीं है। हो सकता है कि मैं कुछ अधिक कह गया हूँ, पर यह भावावेश व्यक्त करना आवश्यक था।

प्रवीण - हमारे शिक्षातन्त्र में बहुत कुछ करने की आवश्यकता है। मोहित को दोनों पद्धतियों का श्रेष्ठ मिला है, मैं कई उदाहरण जानता हूँ जिनको दोनों पद्धतियों के दोष ही मिले। शिक्षा एक हवाई जहाज की उड़ान जैसी हो, पर्याप्त ईंधन भी रहे ऊँचाई पर जाने के लिये और कोई अतिरिक्त भार भी न रहे ढोने के लिये, उन्मुक्त उड़ाने हों।

यहाँ वार्तालाप भले ही विश्राम पा गया हो पर विचार आयाम में आ गये, प्रवाह बहने लगा। स्वाभाविक भी है, कई प्रवाह मिलेंगे तो कुछ सार्थक धार आयेगी, नदी बनेगी, आने वाली पीढ़ियों रूपी खेतों को लहलहायेगी।

24.11.12

शिक्षा - रिक्त आकाश

आलोक का कहना है कि यदि एक वर्ष के लिये शिक्षा व्यवस्था को विराम दे दिया जाये, सारे विद्यालय बन्द कर दिये जायें तो विश्व के स्वास्थ्य पर कोई अन्तर पड़ने वाला नहीं है, यह भी संभव है कि कुछ उत्साहपूर्ण निष्कर्ष सामने आ जायें। आलोक चित्रकार हैं और सृजन और मुक्ति के मार्ग के उपासक हैं, उनके लिये बच्चों पर कुछ भी थोपना उनके सम्मान और अधिकार पर कैंची चलाने जैसा है। एक सीमा तक मैं भी उनसे सहमत हूँ, अर्थतन्त्र से प्रभावित शिक्षातन्त्र की बाध्यतायें हमारी राह सीमित कर देती हैं, लगता है कि हम हाँके जा रहे हैं, हम उस राह जाना चाहें, न चाहें। यदि किसी बच्चे को अपनी प्रतिभानुसार व्यवसाय या कार्य चुनने और उसके माध्यम से सम्मानित जीवन जीने के अवसर ही न हों तो कहानी वहीं समाप्त हो जाती है। इस अवस्था को परिभाषित करने के लिये बाजार प्रभावित जीवकों को कोई सम्मानपूर्ण शब्द भले ही मिल जाये, पर ठेठ भाषा में उसे हाँकना ही कहा जायेगा।

शिक्षा पद्धति पर आलोक के चरम विचारों का कारण वर्तमान शिक्षा में विद्यमान वे तत्व हैं जो सृजनात्मकता को कुंठित करते हैं और बच्चों को अर्थव्यवस्था में प्रयुक्त ईंधन के रूप में झोंक देने के लिये तत्पर बैठे हैं। निश्चय ही यह व्याप्त निराशा का बड़ा कारण है, पर मेरे लिये और भी कारण हैं जिन पर विशेषकर हमारे देश को ध्यान देने की महत आवश्यकता है। चलिये शिक्षा के तीनों उद्देश्यों की दशा देख लें अपने देश में।

पहले उद्देश्य को ही लें, प्रकृति के रहस्यों को समझना और नये तन्त्रों का सृजन। भारतीयों की गिनती विश्व के सर्वश्रेष्ठ मस्तिष्कों में होती है, अनुसंधान और शोध का एक सुदृढ़ तन्त्र भर स्थापित करना था, प्रतिभा पलायन रुक जाता। जहाँ पर प्रतिभाओं को समुचित सामाजिक और आर्थिक सम्मान नहीं मिलता है, उन्हें रोकना कठिन हो जाता है। यद्यपि कई क्षेत्रों में हमें लाभ मिल रहा है पर तकनीक के वे अग्रतम क्षेत्र जो अर्थतन्त्र को प्रभावित कर रहे हैं, वहाँ हम एक देश के रूप में शून्य हैं। हमने प्रतिभायें तो दे दीं, उनके योग्य वातावरण न बना पाये देश में।

दूसरे उद्देश्य को देखें, स्थापित तन्त्रों को साधना। स्थापित तन्त्रों की बात करें तो स्थिति और भी भयावह है। विकास के आधारभूत अवयव हम तैयार ही नहीं कर पाये, जो तन्त्र हमें साधने थे, उन्हें कैसे क्रियान्वित किया जाये, यह जानने के लिये हम प्रथम अवसर पाते ही विदेशयात्रा कर आते हैं, उनके प्रयोगों की अधकचरी नकल उतारने के लिये। सड़क, बिजली, संचार, न जाने कितने ही क्षेत्र हैं जो, न तो देश के हर भाग में स्थापित कर पाये हैं और न ही समग्र रूप से स्थापित करने की योजना ही है। विकास के मानक बस कुछ गिने चुने नगरों में स्थापित कर हम विजयोत्सव मनाने बैठ गये। शिक्षित जन और शिक्षा की दिशा, उजाड़ हुये शेष देश को क्यों नहीं सुखद स्वरूप दे पा रहे हैं?

तीसरा उद्देश्य है स्वयं को समझना और समाज में सहजीवन और आनन्द को प्रेरित करना। पहले जब शिक्षित लोग कहीं पहुँचते थे तो लगता था कि अब व्यवस्था भी आ जायेगी, बातें समझदारी की होंगी और समस्या को कोई न कोई समाधान मिल जायेगा। पढ़े लिखे का तात्पर्य होता था कि जो सबको साथ लेकर चले, जो सबके अन्दर स्थापित अन्तरों को स्वीकार कर उनमें अन्तर्निहित की समानता को साथ ला सके। जो भी कारण रहा हो, जो भी बाध्यतायें रही हों, शिक्षित का वह स्वरूप नहीं दिखता है। शिक्षित वर्तमान में उस आर्थिक आत्मनिर्भरता का पर्याय बन गया है जिसे समाज में किसी से कोई संवाद स्थापित करने का मन नहीं है, थोड़े ठेठ शब्दों में कहा जाये तो स्वार्थपरक भविष्य का एक माध्यम बन गयी है शिक्षा। यदि यह प्रभाव पड़ रहा है शिक्षा का समाज पर तो शिक्षा निश्चय ही अपनी राह से भटकी है।

अध्यात्म की अपेक्षा करना, कुछ अधिक ही हो जायेगा शिक्षातन्त्र के लिये। निरपेक्ष घोषित हो चुके देश में सांस्कृतिक शिक्षा भी भिन्न भिन्न रंगों में रंगी हैं और पाठ्यक्रम का अंग नहीं है। फिर भी एक ऐसी शिक्षा की आशा करना जिससे समाज सधे और व्यक्ति प्रसन्न रहना सीखे, एक शिक्षातन्त्र के लिये प्रारम्भिक पग है। जब वह भी न मिले और समाज विघटन की ओर अग्रसर हो तो शिक्षातन्त्र पर प्रश्न उठना स्वाभाविक ही है।

मैं यह नहीं कहता कि समाज के सब दोषों के लिये शिक्षातन्त्र ही दोषी है, बहुत कारक हैं, समाज की गतिमयता में आये विकार का ठीकरा शिक्षा पर ही नहीं फोड़ा जा सकता है। जो भी कारण हो, जितने भी कारण हों, सबको शिक्षा के माध्यम से सुधारा अवश्य जा सकता है। इसलिये वर्तमान में यदि स्तर गिरता जा रहा है तो इसका तात्पर्य यह अवश्य है कि कम से कम शिक्षा से सुधार के स्वर नहीं उठ रहे हैं। यह एक निर्विवाद तथ्य है कि कोई भी तन्त्र यदि अपने आप पर छोड़ दिया जाये तो उसमें विकार आने लगते हैं, यही मनुष्यों में भी लागू होती है, यह बस ज्ञान का अंश है जो उसे साधे रहता है। ज्ञान ही वह एकल सूत्र है जो तन्त्रों का क्षय रोकता है।

समाज में भी आत्मसंशोधन के गुण होते हैं, जब कोई विकार समाज में प्रवेश पाता है, कहीं दूसरी और एक संशोधनात्मक प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है जो अन्ततः उस विकार को ठीक करती है। कभी कभी समाज का सम्मिलित ज्ञान उस विकार को समझ लेता है, कभी उसे स्पष्ट रूप से समझाने के लिये किसी समाज सुधारक या महापुरुष को जन्म लेना पड़ता है। शिक्षित समाजों में यह संशोधन स्वतः होता रहता है। समाज को साधने और पुनः उसे निर्मल रुप में लाने के लिये शिक्षा सदा ही एक आधारभूत उपहार रहा है मानवता के लिये।

कहीं कुछ गहरा रिक्त स्थान है जो भरा जाना शेष है, समझा जाना शेष है। आलोक का प्रस्ताव मुझे मेरे उस डॉक्टर की याद दिलाता है, जिन्होने एक एलर्जी का कारण पता लगाने के लिये न जाने कितने प्रकार के खाने पर रोक लगा दी थी। मेरे प्रकरण में एलर्जी पता चल गयी थी, निदान भी हो गया था। शिक्षा में क्या यह संभव है?

21.11.12

शिक्षा - अर्थ व समाज

औपचारिक व अनौपचारिक शिक्षा का स्वरूप तथा शिक्षा के उद्देश्यों की समझ ही पर्याप्त न होगी यदि हम उसे आधुनिक अर्थतन्त्र और समाज की गतिमयता से न जोड़ें। जो भी संपर्कसूत्र हैं और जिन सिद्धांतों पर शिक्षा, अर्थ और समाज संवाद स्थापित किये हुये हैं, उन पर गहनता से विचार की आवश्यकता है। यदि इन बिन्दुओं का समुचित विश्लेषण किया जा सके तो उन परस्पर प्रभावों को उभारा जा सकता है जो वांछित हैं और उन पर नियन्त्रण गाँठा जा सकता है जो सबके लिये हानिप्रद हैं। विश्लेषण हेतु विषय केवल औपचारिक शिक्षा तक ही सीमित रखा जायेगा।

शिक्षा के तीन उद्देश्य मात्र बौद्धिक कल्पनाशीलता में नहीं जी सकते हैं। उन्हें भौतिक धरातल में लाने के लिये एक तन्त्र स्थापित करना होता है, साधन आवश्यक हैं, समाज को प्रतिभागिता भी आवश्यक है, जिनको लाभ मिल रहा है और जो लाभ पहुँचा रहे हैं, दोनों के लिये। शिक्षा से समाज की अपनी अपेक्षायें हैं, विद्यार्थियों के अपने सपने हैं, शिक्षातन्त्र कहाँ तक इन दोनों को साथ साथ निभा पा रहा है, अर्थतन्त्र का स्वरूप किस तरह इस पूरी रचना को अस्थिर कर रहा है, ये सब बड़े ही रोचक बिन्दु हैं, इन सबको पृथकता से और भलीभाँति समझ कर ही शिक्षा पर कुछ साधिकार कहा जा सकता है।

भले ही विश्व के समस्त तन्त्रों को रचने और चलाने में शिक्षा का सहयोग रहता है, पर शिक्षा के लिये स्थापित तन्त्र में भी तीन प्रमुख विमायें हैं। शिक्षार्थी, शिक्षक और शिक्षा-सामग्री। शिक्षक के लिये शिक्षण एक व्यवसाय है, उसे अपना घर चलाना है, साथ ही साथ उनके ऊपर बच्चों के भविष्य का महत उत्तरदायित्व है। यदि गुणवत्ता न साधी जायेगी तो पूरी की पूरी पीढी हाथ से निकल जाने का भय है। गुणवत्ता साधने के लिये योग्य और कुशल शिक्षकों को लाना होगा, एक विषय जो सीधे सीधे समाज के आर्थिक पक्ष से जुड़ा है।

बच्चे के लिये भविष्य में धन कमाने के अतिरिक्त स्वयं को स्थापित करने की चाह अधिक महत्वपूर्ण है, उसके स्वप्न और अभिरुचि के अनुसार चल सकने की चाह, समाज को सार्थक योगदान दे सकने की चाह। शिक्षा सामग्री जहाँ एक ओर समाज की दिशा निर्धारित करती है वहीं दूसरी ओर शेष विश्व तन्त्रों को भी पोषित करने में सहायक है।

अब अर्थतन्त्र के दृष्टिकोण से देखा जाये तो पूरा विश्व माँग और आपूर्ति के चक्र पर चलता है। जिसकी माँग अधिक उसका मूल्य अधिक, जिसका मूल्य अधिक उस ओर सबका झुकाव अधिक, अधिक झुकाव अधिक आपूर्ति लाता है, अधिक आपूर्ति मूल्य कम कर देती है, तब झुकाव भी कम हो जाता है, तब आपूर्ति कम हो जाती है और माँग बढ़ जाती है। यही चक्र चलता रहता है, अर्थतन्त्र घूमता रहता है। किसी भी व्यवसाय के दो पक्ष शिक्षा से पोषित होते हैं, एक है तकनीक, दूसरे हैं प्रशिक्षित कर्मचारी। जिसकी माँग अधिक होती है, उससे सम्बन्धित तकनीक में अनुसंधान और उसमें शिक्षित युवा, दोनों ही उफान पर पहुँच जाते हैं। उस क्षेत्र में अधिक अवसर और धन, और उसके प्रति समाज का रुझान।जिन क्षेत्रों से माँग नहीं आती है पर संभावनाओं से भरे हुये है, उन क्षेत्रों का कोई नामलेवा भी नहीं है।

शिक्षक क्या गुणवत्ता दे पा रहे हैं, बच्चों की क्या आकाक्षायें हैं, समाज क्या चाहता है और अर्थतन्त्र के वाहक हमें कहाँ लिये जा रहे हैं, इन चारों पाटों में हमारी शिक्षा व्यवस्था पिसी हुयी है। इन चारों की खिचड़ी हमारी शिक्षा सामग्री में दिखायी पड़ती है, कम या अधिक। जब भी बाजार की अर्थव्यवस्था अपना आधिपत्य जमाने लगती है, शिक्षाव्यवस्था धन उत्पन्न करने वाली मशीन का बड़ा अंग बन कर रह जाती है, उसमें पिसते शिक्षार्थी और हताश होते अभिभावक भी उसकी धुरी में घूमने लगते हैं। जब वह क्षेत्र सहसा झटक जाता है, जब उसमें अवसर सिकुड़ जाते है, संसाधन अतिरिक्त हो जाते हैं, तब सब के सब नैराश्य में डुबकी लगाने लगते हैं।

शिक्षातन्त्र की अर्थतन्त्र पर इतनी निर्भरता उचित नहीं है। इसके तीन पक्ष बहुत ही घातक हैं। पहला तो अर्थतन्त्र केवल तकनीकी शिक्षा को सहारा देगा क्योंकि तकनीक अर्थतन्त्र को सहारा देती है। थोड़ी बहुत दिशा प्रबन्धन व वित्तीय शिक्षा को भी मिल जायेगी, पर ये तो उच्च शिक्षा के क्षेत्र हैं, प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा को कौन सहारा देगा तब? दूसरा घातक पक्ष यह होगा कि जब धन लगेगा तो वह फीस के रुप में वसूला भी जायेगा, सक्षम शिक्षा प्राप्त कर लेंगे और निर्धन अक्षम अशिक्षित रह जायेंगे। धन केवल धन को पोषित करेगा, जन को नहीं। तीसरा घातक पक्ष होगा, उन विषयों को लुप्त होना जिनमें किसी भी व्यवसाय में लाभ देने की क्षमता नहीं है, इतिहास, साहित्य आदि जैसे कितने ही विषय अपना अस्तित्व खो बैठेंगे तब।

शिक्षातन्त्र की अर्थतन्त्र पर निर्भरता शून्य भी नहीं की जा सकती है, यदि यह हुआ तो सब कल्पनाशीलता में खो जायेंगे, कर्मशीलता अपवाद हो जायेगी समाज में तब। सम्पर्कसूत्र बनाये रखना आवश्यक है जिससे शिक्षा न केवल अपने उद्देश्यों में सफल होती रहे, वरन शिक्षकों और शिक्षार्थियों के पास पर्याप्त आर्थिक कारण रहें किसी विषय को चुनने के लिये। बाजार आधारित अर्थव्यवस्था का कुप्रभाव कम हो जाता है जब अर्थव्यवस्था का विस्तार बढ़ता है। तब एक क्षेत्र में आयी उठापटक अर्थव्यवस्था, समाज और शिक्षा को अधिक प्रभावित नहीं करती है। शिक्षा का कोई क्षेत्र, कोई भी अभिरुचि ऐसी न रह जाये जिसमें जीवन यापन की संभावना कम हो।

एक बात तो तय है कि सब कुछ बाजार की अर्थव्यवस्था के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता है। शिक्षाव्यवस्था के त्यक्त पक्षों में शक्ति लाने का कार्य सरकार का है। सुदृढ़ और सार्वभौमिक आधारभूत शैक्षणिक सुविधायें, सबको शिक्षा, निशुल्क शिक्षा, योग्य और कर्मठ शिक्षकों का चयन, शिक्षकों को यथानुरूप अच्छा वेतन, अर्थव्यवस्था का शिक्षा के अन्य अंगों में विस्तार, ये सब कार्य ऐसे हैं जो शिक्षा को सशक्त करने में सक्षम हैं। ऊर्जा व्यर्थ न हो, व्यक्ति समर्थ हों, यही तो अर्थ है अच्छे शिक्षातन्त्र का। क्या छूट गया तब और कौन सा आकाश रिक्त रह गया, यह मननीय बिन्दु अगली पोस्ट में।

17.11.12

शिक्षा - क्या और क्यों ?

शिक्षा का नाम सुनते ही उससे संबद्ध न जाने कितने आकार आँखों के सामने घुमड़ने लगते हैं। कुछ को तो लगता होगा कि बिना शिक्षा सब निरर्थक है, कुछ को लगता होगा कि बिना लिखे पढ़े भी जीवन जिया जा सकता है। एक व्यक्ति बिना शिक्षा के भी समाज में बहुत सहज और उपयोगी बनकर रह लेता है, वहीं दूसरी ओर एक शिक्षित व्यक्ति भी अपने कृत्यों से सामाजिक चरित्र को नकारता सा लगता है। एक अजब सा द्वन्द्व है, प्रकृति का मौलिक गुण है यह द्वन्द्व, शिक्षा में भी दिखायी पड़ेगा। जब भी द्वन्द्व गहराता है, उत्तर या तो मूल में मिलता है या निष्कर्षों में। निष्कर्ष भविष्य की विषयवस्तु है और बहुधा ज्ञात नहीं होती है, पर मूल खोजा जा सकता है, मूल से विश्लेषण किया जा सकता है।

हमें प्राप्त ज्ञान के दो स्रोत हैं, पहला अनौपचारिक शिक्षा, दूसरा औपचारिक शिक्षा। अनौपचारिक शिक्षा हमें घर, समाज, मित्रों आदि से मिलती है और इसके लिये विद्यालय जाने की आवश्यकता नहीं है। दादी, नानी की कहानियों में, बड़ों के संवाद में, संस्कृति के अनुकरण में, त्योहारों में, संस्कारों में, मित्रों के साथ, भ्रमण के समय, यात्राओं में, न जाने कितना कुछ सीखते हैं हम सब। हिसाब लगाने बैठे तो लगेगा कि जितना भी ज्ञान हमारे पास है, वह अनौपचारिक शिक्षा की ही देन है। जहाँ के सामाजिक ढाँचे में प्रश्न पूछने को मर्यादा का उल्लंघन नहीं माना जाता है, जहाँ ज्ञान के लिये उन्मुक्त परिवेश है, वहाँ पर सामान्य व्यक्ति के लिये अनौपचारिक ज्ञान का प्रतिशत ९० से भी अधिक होता है। कपड़े पहनना, बाल काढ़ना, फीते बाँधना, चाय बना लेना आदि न जाने कितने ऐसे कार्य हैं जो हम विद्यालय जाकर नहीं सीखते हैं, देखते हैं और सीखते हैं। भाषा का प्राथमिक ज्ञान अनौपचारिक ही होता है, बच्चा देखता रहता है, सीखता रहता है।

जनसंख्या का बड़ा वर्ग ऐसा है जो कि कभी विद्यालय गया ही नहीं। यही अनौपचारिक शिक्षा है जिसके बल पर वह अपना जीवन ससम्मान व्यतीत कर रहा है। हम उन्हें अशिक्षित मानते हैं, पर वे अपना भला बुरा हमसे बेहतर समझते हैं, कहीं बेहतर, निश्चय ही इसी अनौपचारिक शिक्षा का प्रताप है। आज भी गाँव जाना होता है तो वहाँ के बुजुर्ग जिन्होने अपने पूर्वजों से रामचरितमानस सुनी थी, इतना सटीक दोहा उद्धृत कर बैठते हैं जो परिस्थितियों पर शत प्रतिशत सही बैठता है। एक परम्परा है गीता और रामचरितमानस के पाठ की, अनौपचारिक शिक्षा के वाहक हैं ये ग्रन्थ, सदियों से ज्ञान का प्रकाशपुंज वहाँ भी फैलाये हुये हैं, जहाँ पर शिक्षातन्त्र पूर्णतया ध्वस्त है।

औपचारिक शिक्षा फिर भी आवश्यक है। आज जो संस्कृति में सहज प्राप्त है, वह कभी न कभी तो औपचारिक शिक्षा का एक भाग रहा होगा। अनौपचारिक शिक्षा श्रुति के आधार पर चलती है, उसे यदि औपचारिक शिक्षा का सहयोग नहीं मिलेगा तो कालान्तर में वह विकृत होने लगेगी। न जाने कितने ऐसे चिकित्सीय उपाय हैं जो कार्य तो करते हैं पर उनका कारण लुप्त सा हो गया है, औपचारिक शिक्षा के अभाव में।

यदि सुचारु रूप से किसी भी विषय का अध्ययन नहीं किया जायेगा तो उसमें सन्निहित रहस्य खोजे जाने से रहे। विकास का प्रथम चरण है, रहस्यों को समझना। तत्पश्चात उसे ज्ञान के रूप में सहेज कर रखना औपचारिक शिक्षा का कार्य है। क्रमिक विकास के लिये अवलोकनों और निष्कर्षों को लिपिबद्ध करना आवश्यक है, इससे पढने में भी सरलता होती है और उस पर और कार्य करने में भी। किसी भी विषय का विधिवत ज्ञान देने के लिये विद्यालय आवश्यक हैं। कहने को तो मात्र १० प्रतिशत ही ज्ञान शेष रहता है पर इसमें विकास और भविष्य के वो तार जुड़े होते हैं जिन्हें नकारना भविष्य को नकारने जैसा है। औपचारिक शिक्षा भले ही मात्रा में अधिक न हो पर जीवन की गुणवत्ता साधने के लिये अनमोल है। सिद्धान्त समझ में आते ही घटनाओं का समझना और समझाना सरल हो जाता है, कारण और प्रभाव स्पष्ट से दिखने लगते हैं तब।

किसी भी समाज में औपचारिक और अनौपचारिक शिक्षा अलग राह नहीं चलती हैं। औपचारिक शिक्षा में शिक्षित परिवार के बच्चे कितनी ही चीजें अनौपचारिक रूप से सीख जाते हैं, पता ही नहीं चलता है, हर पीढ़ी ज्ञान का सामान्य स्तर बढ़ता रहता है। जिन परिवारों में कोई एक व्यवसाय कई पीढ़ियों से किया जा रहा है, उससे संबद्ध ज्ञान परिवार में इतनी प्रचुर मात्रा में आ जाता है कि उनके सामने औपचारिक शिक्षा में शिक्षित संस्थान भी कान्तिहीन रहते हैं। व्यापारी का पुत्र व्यापारी, राजनेता का पुत्र राजनेता, किसान का पुत्र किसान, यदि कोई अपना पैतृक व्यवसाय अपनाना चाहे तो उसे न जाने कितना ज्ञान अनौपचारिक रूप से मिल जाता है। पढ़ा लिखा समाज बनाने के लिये सदियों का सतत श्रम लगता है।

इस परिप्रेक्ष्य में शिक्षा के उद्देश्यों को शिक्षा के स्वरूप से जोड़कर सही तालमेल बिठा लेना ही अच्छे शिक्षातन्त्र का कार्य है। पद्धतियाँ भिन्न दिशाओं में न भागें, कुछ वर्षों में व्यर्थ न हो जायें, कुछ ऐसा न करें जिसकी आवश्यकता ही न हो और कुछ महत्वपूर्ण छूट भी न जाये। तो एक अच्छे शिक्षातन्त्र का सही आकलन करने के लिये, उन उद्देश्यों को भी समझना होगा, जिनके लिये शिक्षा आवश्यक है।

मुझे तो शिक्षा के बस तीन प्रमुख उद्देश्य समझ आते हैं। पहला तो प्रकृति के रहस्यों को समझना, उसके सिद्धान्तों का विश्लेषण करना और उस पर आधारित विज्ञान के माध्यम से जीवन को और अधिक सुख-सुविधायें प्रदान करना। इस वर्ग में शोध आदि प्रमुख हैं और सदा से होते भी आये हैं। विज्ञान के अविष्कार बहुधा चमत्कृत करने वाले होते हैं, हमारी कल्पनाशक्ति इस उद्देश्य के लिये राह निर्माण करती है, ऐसी राह जिसमें विश्व के प्रखरतम मस्तिष्क चलते हैं, ऐसी राह जो मानवता के लिये बहुत अधिक उपयोगी रही है, ऐसी राह जिससे लगभग सभी लोग लाभान्वित और प्रभावित होते हैं। पर इस राह में अग्रणी चलने वालों की संख्या बहुत कम होती है, लाखों में एक, ये लोग नये तन्त्र रचते हैं।

दूसरा उद्देश्य है विश्व के तन्त्र को साधे रहना। मानव को सहजीवन में बड़ा रस आया है, समाज का स्वरूप भिन्न भिन्न हो सकता है पर हर समाज में सहजीवन ही प्रधान है। प्रकृति ने भी यथासंभव सहयोग किया है, इस मानवीय प्रयास में। जीवन के लिये अन्न, जल आदि, उनका उत्पादन, रखरखाव व वितरण। वस्तुओं का व्यापार, नगरों का निर्माण, संचार के साधन, और जो कुछ भी आवश्यक है साथ रहने के लिये, सुख के साथ। तन्त्र को साधना सरल कार्य नहीं हैं, तकनीक और विशेष ज्ञान की आवश्यकता होती है इसमें, उसके लिये समुचित शिक्षा की। कालान्तर में नयी तकनीक और नये प्रयोगों से तन्त्र परिवर्धित और परिमार्जित होता है, जीवन चलता रहता है। इस वर्ग में कर्मठ व्यक्तित्वों की आवश्यकता होती है। इसमें ही सर्वाधिक लोग लगते हैं। संसाधनों और आय का वितरण किस प्रकार हो, किस व्यवसाय को कितनी प्राथमिकता मिले, यह बहस का विषय हो सकता है। इसमें शिक्षा का स्तर विशेष होता है और ये लोग तन्त्र साधते हैं।

तीसरा उद्देश्य है स्वयं को समझना। स्वयं को समझना सहजीवन के उन पहलुओं को समझने की प्रक्रिया है जो समाज के रूप में सबको जानना आवश्यक है। क्या हमें सुख देता है, क्या हमें दुख, कौन सा सुख शाश्वत है, कौन सा क्षणिक, ऐसे बहुत से प्रश्न हैं, जिसके लिये हमें स्वयं को जानना आवश्यक हो जाता है। आत्म का आकार समझने वाले तो यहाँ तक कहते हैं कि यदि स्वयं को जान लिया तो कुछ जानना शेष नहीं रहता है। साहित्य, संगीत, कला आदि ऐसे क्षेत्र हैं जो मानव को सुख देते हैं, इनका सृजन सुख देता है। इस वर्ग में सब लोग ही आते हैं, बिना इस शिक्षा के शान्ति और समृद्धि संभव नहीं है।

क्या अपेक्षित था, क्या हो रहा है? शिक्षा का स्वरूप और उद्देश्य क्या एक दूसरे को समझ पा रहे हैं? अर्थतन्त्र और शिक्षातन्त्र किस दिशा भाग रहे हैं, एक दूसरे साथ दे पा रहे हैं या नहीं, बहुत समझना शेष है, अगली पोस्ट में।

14.11.12

शिक्षा - आधारभूत निर्णय

भारतीय मानसिकता में शिक्षा सदा ही महत्व का विषय रही है। माता पिता अब भी अपने बच्चों की शिक्षा में किया हुआ निवेश सर्वोत्तम निवेश मानते हैं। कम इच्छाओं में जी लेंगे, भूखे सो लेंगे पर बच्चों को पढ़ायेगे। शिक्षा सर्वोपरि है और सबको लगता भी है कि योग्य होगा तो कुछ न कुछ बन ही जायेगा। निश्चय ही पढ़ाई में अच्छे निकलने वाले कुछ न कुछ बन ही जाते हैं, जो कुछ बन नहीं पाते हैं उनके लिये तो सारी शिक्षापद्धति श्रमसाध्य कार्य सी ही बीतती है।

कितना ही अच्छा होता कि जो भी किसी स्तर तक पढ़ पाता उसे उस स्तर के अनुरूप समुचित व्यवसाय मिल जाता। कितना अच्छा होता कि शिक्षा में पाये अंक आपकी भविष्य की रूपरेखा नियत कर देते। शिक्षा योग्यता का एक मानकीकरण कर देती। शिक्षा एक अलग कार्य है, प्रतियोगिता एक अलग कार्य हैं और धनार्जन और जीवन यापन एक और नितान्त अलग कार्य। इन सबमें उतनी ही सततता और समानता है जितनी किन्ही दो मनुष्यों में स्वभाववश हो सकती है।

जीवन एक मिलता है, उसे कई भागों में पृथक कर जीने में उसकी सततता और आनन्द बाधित होता है। एक भाग में अर्जित लाभ या हानि अगले भाग को जब बहुत अधिक प्रभावित नहीं करते हैं तो लगता है कि वर्तमान में अधिक श्रम क्यों करना, अगले भाग की तैयारी कर लें। वर्तमान को तज भविष्य को साध लेने की जुगत, जीवन बस इसी तैयारी में बीत जाता है। बचपन से ही प्रतियोगिता में आगे निकलने वाले घोड़े बनने तैयार होने लगते हैं, युवावस्था धनोपार्जन के लिये संघर्ष में निकल जाती है, प्रौढ़ावस्था बच्चों के लिये सुरक्षित भविष्य निर्माण करने में। अन्त आते आते बस एक प्रश्न ही मुख्य हो जाता है, क्या अच्छा जीवन जीने के लिये इतना सब पढ़ना, संघर्षों से इतना लड़ना और स्वयं को बैल सा इतने वर्षों तक रगड़ना आवश्यक था?

प्रश्न का उत्तर भिन्न हो सकता है, पर प्रश्न बिना पूछे ही जीवन निकल जाये, यह जीवन का अपमान है। न्यूनतम कितनी शिक्षा आवश्यक हैं, प्रतियोगिताओं में कितना संघर्ष उचित है, प्रतियोगिताओं के लिये किये ज्ञानार्जन का उपयोग जीवन यापन में और तन्त्र के लिये कितना हो रहा है, यह समझना भी आवश्यक है। जिन नौकरियों में कक्षा दस पास से भी अधिक की योग्यता आवश्यक न हो, उनके लिये नियत प्रतियोगिता परीक्षा में यदि परास्नातक कक्षाओं के प्रश्न योग्य प्रतिभागियों का निर्धारण करें तो यह शिक्षा व्यवस्था और प्रतियोगी परीक्षाओं पर बहुत बड़े प्रश्न उठाते हैं। साथ ही साथ हमको यह सोचने पर विवश करते हैं कि कोई भी शिक्षा और सामाजिक जीवन के संबंध और उपयोगिता को समझ भी पा रहा है?

जब मस्तिष्क पर अधिक जोर डालने की इच्छा नहीं होती है तो सब बाजार की अर्थव्यवस्था के मत्थे मढ़ दिया जाता है, जब निर्णयों में नियन्त्रण का साहस नहीं होता है तो बाजार के उत्पात को मौन रह स्वीकार कर लिया जाता है। समग्र दृष्टिकोण की अनुपस्थिति, जीवन के हर चरण को पृथकता से देखने की सुविधा, यही प्रश्न हैं जो मूल-शूल हैं। इनको बिना निकाले शिक्षा में कोई विकास संभव नहीं है। जीवन संघर्ष, अनुशासन और संकीर्ण कठिन राहों में चलने का पर्याय बन जायेगा, जीवन जीना क्या होता है, बस मृत्यु के कुछ दिन पहले ही समझ आ पायेगा।

शिक्षाविद इस प्रश्न को बड़े ही मर्यादित ढंग से उठाते हैं, मैं तनिक ठेठ शैली में पूछ लेता हूँ। जब घर से कहीं जाने के लिये निकलते हैं तो उसी के अनुसार मार्ग नियत करते हैं, ऐसा तो नहीं करते हैं कि किसी भी दिशा में निकल लें और आगे जाने के बाद जहाँ भी पहुँचे उसे अपना ध्येय-स्थान मानकर वहीं जीने लगें। हो सकता है कि पढ़ने में अटपटा लगे पर वर्तमान शिक्षा व्यवस्था कुछ यही स्वरूप ले चुकी है। सबको एक बड़े मैदान तक हाँक कर पहुँचा दिया जाता है, आगे लड़ लो, जो आगे निकल सके तो निकल ले, डार्विन को एक प्रयोगक्षेत्र बना कर दे दिया है, अपने न सिद्ध होने वाले सिद्धान्त सिद्ध करने के लिये।

यदि संघर्ष और शक्ति ही श्रेष्ठता के मानक होते तो अभी भी हम घोड़े की पीठ पर बैठ कर तलवारों से युद्धकर रहे होते। सहजीवन और विकास के प्रति हमारी स्वाभाविक ललक हमें डार्विन के सिद्धान्त की दूसरी दिशा में ले जाती है। प्रचुर संसाधन की मानसिकता और धरती में जीने वालों को डार्विन का सिद्धान्त एक मज़ाक़ सा लगता है। जब सबके लिये जीवन यापन का मूलभूत सिद्धान्त ले हम सहजीवन की दिशा उद्धत हुये हैं तो ऊर्जा और जीवन का इस तरह पृथक पृथक हो व्यर्थ हो जाना हमें किस तरह स्वीकार हो सकता है?

जीवन को एकल और समग्र रूप देने के बाद, उसमें शिक्षा, योग्यता, जीवन यापन के साधन और सुखमय जीवन, सब के एक पंक्ति में खड़े हो जाते हैं, एक दूसरे से पोषित और संबद्ध, जिसमें न एक दिन व्यर्थ हो, न एक कर्म। जिसमें यह ध्येय छिपा हो, कि जीवन को किस तरह श्रेष्ठता के मानकों पर खरा उतारना है। हमारा यही आधारभूत निर्णय हो कि जीवन का समग्र स्वरूप क्या हो, शेष सब स्वतः स्थापित हो जायेगा जीवन में। जीवन को और समाज को इस स्वरूप में समझने के बाद शिक्षा के स्पष्ट उद्देश्य क्या हों, वह अगली पोस्ट में।

10.11.12

शिक्षा - व्यर्थ संभावनायें

जिस समय सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी कर रहे थे, एक आशंका सी रहती थी कि होगा कि नहीं, यदि होगा तो कितने वर्षों में। तैयारी करने वाले प्रतिभागियों में जिससे भी मिलते थे, एक उत्सुकता रहती थी, यह जानने की कि कौन कितने वर्षों से तैयारी कर रहा है? तैयारी का कुछ भाग दिल्ली में और कुछ इलाहाबाद में किया था, आपको यह तथ्य जानकर आश्चर्य होगा कि कुछ लोग १० वर्षों से तैयारी कर रहे थे। एक अजब सी आशावादिता व्याप्त थी वातावरण में कि आने वाला वर्ष सुखद निष्कर्ष लेकर आयेगा, पिछले वर्षों के श्रम में बस कुछ और जोड़ दें इस बार, थोड़ा भाग्य साथ दे दे इस बार, कुछ पढ़ा हुआ आ जाये इस बार।

एक नशे की गोली ही है कि ८-१० साल तक कुछ सूझता नहीं है। कई लोग इस तथ्य को शीघ्र समझ लेते हैं और कोई अन्य मार्ग ढूढ़ने लगते हैं, पर देश की शीर्षस्थ सेवाओं में पहुँचने का स्वप्न ऐसा है कि प्रतियोगी १० वर्ष स्वप्न में ही बिता डालते हैं। लाखों लोग परीक्षा देते हैं और उसमें से चार पाँच सौ ही लिये जाते हैं। जिनके चार प्रयास हो जाते हैं, वे प्रादेशिक सेवाओं की तैयारी में लग जाते हैं क्योंकि उसमें प्रयास अधिक मिलते हैं, उसके बाद कुछ और सीमित विकल्प, अन्त में सब तरह के ज्ञान में संतृप्त युवक अपनी प्रौढ़ता के प्रवेश होते होते कोई अध्यापन का कार्य कर लेते हैं और अपनी आर्थिक स्थिति गृहस्थी चलाने योग्य बना लेते हैं।

मेरा उद्देश्य न तो सिविल सेवाओं की महत्ता को दर्शाना है, न ही कोई करुण कथा सुना संवेदनायें विकसित करनी है और न ही लाखों युवाओं के व्यर्थ हुये वर्षों के बारे में कोई आँकड़े रखने है। सक्षम और मेधायुक्त युवाशक्ति का इस तरह व्यर्थ हो जाना करोड़ों करोड़ के घोटाले से कम नहीं और जिसका पूरा ठीकरा नौकरीपरक शिक्षा व्यवस्था पर ही फूटता है। किसी एक पर दोष नहीं मढ़ा जा सकता है और देखा जाये तो सब के सब दोषी। १० वर्षों के संघर्ष में लुप्त हुयी संभावनायें, इसकी तैयारी के प्रति उद्दात्त आकर्षण, अन्य क्षेत्रों में विकास न हो पाना, अपने उद्यम लगाने वालों की कमी और न जाने कितने ऐसे प्रश्न हैं जिनके उत्तर सबको ढूढ़ने हैं।

संघर्ष आवश्यक है, उतना जिससे क्षमतायें विकसित हों, उतना जिससे विकास हो, स्वस्थ प्रतियोगिता हो। संघर्ष इतना अधिक भी न हो जितना मुगलिया सल्तनत में था, पुत्रों में जो जीता वह राजा, जो हारा वह या तो कालकोठरी में या ईश्वर के पास। संघर्ष इतना कम भी न हो कि सब सुविधा बैठे बैठे ही मिल जाये, धनाड्य परिवारों की नकारा संततियों की तरह।

यह तो अच्छा हुआ कि सिविल सेवाओं के समकक्ष और कई क्षेत्र खुल गये, जैसे आईटी और प्रबन्धन, डॉक्टर और इन्जीनियर पहले से ही थे, जिन्हें देश में स्थिरता और मान नहीं मिला वे विदेश चले गये। अब संभवतः लोग दस वर्ष प्रतीक्षा नहीं करते होंगे, सिविल सेवाओं के लिये और यह भी संभव है कि बहुत लोग वैकल्पिक व्यवस्था करके ही सिविल सेवाओं की तैयारी करते होंगे। विकल्पों के विस्तार से व्यर्थ हुयी ऊर्जा निश्चय ही कम हुयी होगी पर अभी भी लाखों वर्ष जो हर वर्ष व्यर्थ होते हैं, उसका निदान नहीं हैं।

कहते हैं कि कोई प्रयास व्यर्थ नहीं जाता है, हर प्रयास में मनुष्य कुछ न कुछ सीखता ही है। सीखने के स्तर तक तो संघर्ष करके पढ़ना अच्छा है पर ८-१० वर्ष तक वही पाठ्यक्रम इस आस में पढ़ते रहना कि अगली बार भाग्य साथ देगा, समय को व्यर्थ करने से अधिक कुछ भी नहीं।

बिन्दु स्पष्ट है। एक ओर संभावनाओं का जल स्थिर है, अपने बहे जाने की राह देख रहा है, वहीं दूसरी ओर मैदानों में सूखा पड़ा है। कितने ही क्षेत्र ऐसे हैं जिनमें आवश्यकता है ऊर्जावान युवाओं की, जो आकर कुछ नया कर जायें, संभावनाओं का जल वहाँ पहुँचे तो वहाँ भी ऐश्वर्य लहलहा उठे। कितने ही क्षेत्र ऐसे हैं जहाँ गुणवत्ता शापित है, अन्य देश लाभान्वित हो रहे हैं, हमारे देश के बाजार पर अधिकार करते जा रहे हैं, वहाँ हमारी युवा ऊर्जा क्यों नहीं पहुँच पाती है। शिक्षा का ही क्षेत्र ले लीजिये जहाँ स्तरीय अध्यापकों की नितान्त आवश्यकता है, पर वहाँ पर भी इतना कम पैसा मिलता है कि व्यक्ति एक सम्मानित जीवन यापन के बारे में सोच ही नहीं सकता है। नवीन उद्यम, नवीन तकनीक, सब के सब क्षेत्र ऐसे हैं जिनमें हम अपने पैर पसार ही नहीं पा रहे हैं, ललचाये से शेष विश्व की ओर निहारने में लगे रहते हैं।

दूसरी ओर संभावनाओं को जल बस उन्हीं क्षेत्रों में बहना चाहता है जो पहले से ही सिंचित हैं। असिंचित क्षेत्रों में जाने से जल का अस्तित्व मिट जाने का भय होता है। भले ही कितना ही जल अपनी लम्बी यात्रा के पश्चात खारे सागर में जाकर समा जाये पर उसका उपयोग हम शेष धरा को सिंचित करने में नहीं कर पाते हैं।

दोष किस पर मढ़ें, अभिभावकों को भी दोष नहीं दे सकते, जो मार्ग कभी बने ही नहीं उन पर वे अपने बच्चों को चलने के लिये कैसे कह दें? कुछ तो हो आश्वस्त होने के लिये। शिक्षा पद्धति भी क्या करे, उसका ध्यान ज्ञान से अधिक इस बात पर लगा रहता है कि प्रतियोगी परीक्षाओं के योग्य बच्चे कैसे बने? रट रटकर प्रतियोगी परीक्षाओं में उगल देने वाले युवाओं से भी क्या आशा करें कि वे नव-उद्यम का मोल समझें, उस नव-उद्यम का जिसके बारे में उन्हें कभी तैयार ही नहीं किया गया है।

एक ओर सारे जगत की चमक है और शेष जगत अँधियारा। क्या कोई उपाय है जिसमें कुछ भी प्रयास व्यर्थ न जायें, प्राप्त शिक्षा व्यर्थ न जाये, झूठी आशा में निकल गये इतने वर्ष व्यर्थ न जायें? क्या आधारभूत ढांचा निर्माण हो जिसमें देश की युवा ऊर्जा सहज बहे और समुचित बहे, सारे असिंचित क्षेत्र सिंचित हों। व्यर्थ संभावनायें, बाढ़ के जल के समान अस्थिरता ला सकती हैं और यह मूल्य उन प्रयासों में लगे मूल्य से कहीं अधिक होगा जो जो इन व्यर्थ हो रही संभावनाओं को एक स्थायी दिशा देने में लगेगा।

7.11.12

बंगलोर, मेट्रो और साइकिल

अभी कुछ दिन पहले एक समाचार पढ़ा कि बंगलोर मेट्रो अपने प्रमुख स्टेशनों पर साइकिलें रखेगी। इन साइकिलों का उपयोग मेट्रो में यात्रा करने वाले लोग अपने स्थान से मेट्रो स्टेशन आने जाने में कर सकेंगे। इनका रख रखाव व उपयोग पूरी तरह से इलेक्ट्रॉनिक माध्यम पर आधारित होगा। यह सेवा सशुल्क होगी और उपयोगकर्ता प्रति घंटे से लेकर वार्षिक मूल्य तक एक बार में चुका सकते है। यह सेवा मेट्रो के लिये लाभदायक होगी, बंगलोर नगर के लिये लाभदायक होगी और यदि सब कुछ ठीक चलता रहता तो यह सेवा बंगलोर की सड़कों से बड़े वाहनों और यातायात के अवरोध को कम कर देगी। इस सेवा को लागू करने के ठेके दिये जा चुके हैं और इससे होने वाली आय में मेट्रो का भी भाग होगा।

पढ़कर बहुत अच्छा लगा। जो कार्य विकसित देशों के बड़े नगरों में हुआ हो और सकुशल चल रहा हो, वह यदि बंगलोर में भी चलने लगे तो प्रसन्नता स्वाभाविक ही है। न केवल चलने लगे, वरन अपने उद्देश्यों को पा भी ले, पर्यावरण की मार्मिक स्थिति को सुधार दे, धुँयें से भरी सड़कों पर शीतल स्वच्छ बयार बहा दे और यातायात अवरोध में घंटों व्यर्थ हुये समय को यथासंभव कम कर दे। मुझे इस प्रयास में जितनी अधिक रुचि है, इसकी सफलता में उतना ही अधिक संशय। मैं इसलिये प्रश्न नहीं खड़े करने जा रहा हूँ कि यह एक दोषपूर्ण अवधारणा है। मैं इसका विश्लेषण इसलिये करना चाहता हूँ क्योंकि समुचित और समग्र योजना के अभाव में इतने क्रान्तिकारी विचार को निष्फल होते नहीं देखना चाहता हूँ।

निश्चय ही दिल्ली मेट्रो ने यह सिद्ध किया है कि न केवल मेट्रो महत्वपूर्ण है वरन उस मेट्रो की फीडर सेवायें भी उतनी ही आवश्यक हैं। यातायात एक समग्र उत्पाद है और इसके कई अंग हैं। नगरीय सेवाओं का स्वरूप देखें तो दैनिक यात्री कुछ पैदल चलते हैं, कुछ फीडर सेवाओं से और शेष नगरीय बसों या मेट्रो से। यदि सेवायें इस दिशा में हों तो दैनिक यात्री को थोड़ा बहुत पैदल चलना अखरता नहीं है। फीडर सेवायें मेट्रो का प्राकृतिक विस्तार है, जनसंख्या या नगर में जितना गहरे तक जायेंगी, मेट्रो उतना ही सफल होगी, लोग अपने वाहन की सुविधा उतना ही तजकर और कुछ सौ मीटर पैदल चल कर मेट्रो का उपयोग करने लगेंगे।

नगर के अन्दर साइकिलों का उपयोग एक भिन्न प्रयोग है। साइकिल बहुत अधिक दूरी के लिये उपयोग में नहीं लाई जा सकती हैं, पर ६-७ किमी की दूरी के लिये सर्वोत्तम साधन है। २० मिनट में दूरी तय हो जाती है, हल्का व्यायाम हो जाता है और थकान भी नहीं होती है। हमारे गाँवों और छोटे नगरों में स्कूटर आदि आने के पहले तक साइकिल ही प्रमुख माध्यम होता था, छोटी दूरियाँ तय करने के लिये। नगरीय परिवेश में हर स्थान पर बस सेवायें नहीं जा सकतीं। नगर के प्रमुख केन्द्र से आसपास के व्यावसायिक और शैक्षणिक स्थानों पर जाने के लिये ऑटो या रिक्शा सबके लिये आर्थिक रूप से साध्य नहीं है। इस अन्तर को भरने का कार्य साइकिल से अच्छा कोई नहीं कर सकता है। पर्यटन स्थलों में जहाँ कई स्थान कुछ किलोमीटर की दूरी पर ही होते हैं, साइकिल के द्वारा सरलता से पहुँचे जा सकते हैं।

पेरिस, मॉन्ट्रियल, कोपेनहेगन, ब्रिसबेन आदि नगरों में साइकिलों को बढ़ावा दिया गया है, बिना किसी व्यावसायिक उद्देश्य के, विशुद्ध पर्यावरणीय कारणों से, दैनिक यात्रियों और पर्यटकों की सुविधा के लिये। यदि एक यात्री भी अपना वाहन छोड़कर साइकिल की सुविधा अपना लेता है तो, साइकिल का मूल्य तो निकल ही आयेगा, उसके अतिरिक्त भी कितने लाभ होंगे, उसकी गणना विकास की अवरुद्ध राहें खोलने में सक्षम होगी। यदि इन सेवाओं को लागू करना हो तो उसमें उपयोगकर्ताओं से धन उगाहने का आग्रह तो बिल्कुल ही न हो, वरन उपयोगकर्ताओं को प्रोत्साहित करने के प्रयास हों।

जब यह सुविधा सर्वहितकारी है तो ऐसे क्या कारण हैं जो इसे लागू करने में कठिनाई उत्पन्न कर सकते हैं? दो प्रमुख आवश्यकतायें हैं और दोनों का ही निदान नगरीय प्रशासन के हाथों में है।

पहला तो साइकिल अन्य वाहनों के साथ नहीं चल सकती हैं। लहराते और मदमाते वाहनों से भरी सड़कों पर कोई भी इतना साहस नहीं कर पायेगा कि निशंक हो चल सके। वैसे अभी भी कई साहसी युवकों को देखता हूँ जो सर पर हेलमेट बाँधे तेज भागती गाड़ियों के बीच जूझते रहते हैं। पर रोमांच के लिये साइकिल चलाने और दैनिक जीवन में अपनाने में अन्तर है। यदि नगर में इसे लागू करना है तो पतला सा ही सही पर एक आरक्षित मार्ग सुनिश्चित करना होगा और वह भी हर स्थान पर पहुँचने के लिये। समस्या यहीं पर आ जाती है, जिस नगर में सारा यातायात रेंग रेंग कर चलता हो, वहाँ की सड़कें और पतली कर उसमें साइकिल मार्ग निकालने का प्रयास करेंगे तो समस्या सुलझने के पहले ही उलझ जायेगी। इसका समाधान निकालना ही होगा, आंशिक नहीं, वरन पूरा। एक कार के स्थान पर ४-६ साइकिलें आराम से चल सकती हैं, इस दृष्टि से अन्ततः समस्या सुलझनी ही है, पर इसे समुचित रूप से प्रारम्भ करने की कार्ययोजना बड़ी कठिन होगी और साथ ही साथ कई कड़े निर्णयों से भरी पूरी भी।

दूसरी कठिनाई होगी, स्थापित यातायात के साधनों का विरोध। वर्तमान में छोटी दूरी की आवश्यकताओं के फलस्वरूप करोड़ों की अर्थव्यवस्था चल रही है। बंगलोर में ही ७० हज़ार से अधिक ऑटो अधिकांशतः इसी आवश्यकता से पोषित होते हैं, साथ ही साथ टैक्सी सेवायें आदि भी इसी आवश्यकता से अपना व्यवसाय चला रही हैं। इनके विरोध और कार्य-विकल्प का समुचित प्रबन्ध करना पड़ेगा।

ऐसा नहीं है कि नगर का यातायात नहीं चल रहा है। आप एक से दूसरे स्थान पर पहुँच ही जाते हैं। बस समय अधिक लगता है, धन अधिक लगता है, असुविधा अधिक होती है और प्रदूषण अधिक होता है। मेट्रो, बस और साइकिल आदि इस दिशा में ही हैं जिससे सारे व्यर्थ हो रहे संसाधनों की बचत हो सके। तन्त्र में असीमित सुधार की संभावना़यें भी हैं, उपाय भी। प्रशासन में बैठे लोग संवेदनशील हैं और नागरिक जागरूक, समस्याओं को निदान मिलना ही है और निदान को दिशा भी। एक भविष्य का स्पष्ट खाका खींचिये और वहाँ तक पहुँचने के साधन और योजना जुटाइये, इसी में सर्वहित छिपा है।

बंगलोर मेट्रो का यह प्रयास निश्चय ही सराहनीय है कि उन्होंने दो प्रयोगों को एक में ही समाहित करके एक नया तन्त्र बनाने का यत्न किया है। दोनों प्रयोग भिन्न हैं, दोनों की ही उपयोगिता है नगर के यातायात को सुधारने के लिये, पर इस तरह का बिन विचार किये हुये घालमेल करने से उसकी सफलता संशयपूर्ण लगती है। जिन दो तीन स्थानों पर मेट्रो स्टेशन देखना हुआ है, वहाँ की सड़कों पर साइकिलों को कैसे स्थान मिलेगा, यह एक यक्ष प्रश्न है।

3.11.12

चलो अपनी कुटिया जगमगायें

सतर्कता सप्ताह चल रहा था, समापन के समय विशिष्ट अतिथि बुलाये जाते हैं जो अधिकारियों और कर्मचारियों की बड़ी बैठक को सम्बोधित करते हैं, सब ध्यानमग्न हो सुनते हैं। यथासंभव उस बैठक में उपस्थित रहना होता है, कि कहीं ऐसा न हो कि अनुपस्थिति का अर्थ सतर्कता की अवहेलना के रूप में ले लिया जाये। मुख्यतः दो विशिष्ट अतिथि बुलाये जाते हैं। एक जो स्वयं सरकारी सेवाओं के उच्चपदों में रहे हों और अपने सेवाकाल में अपनी निष्कलंक छवि को बचाये रखे हों, संभवतः इस बात का विश्वास देने के लिये कि यह आचरण सर्वथा असंभव सा नहीं हैं और उदाहरण साक्षात उपस्थित हैं। दूसरे जो आध्यात्मिक क्षेत्र से संबंध रखते हों, संभवतः इस बात को समझाने के लिये कि सदाचरण और अच्छा जीवन सामाजिक जीवन के साथ साथ आध्यात्मिक जीवन की भी आवश्यकता है और अपनी आवश्यकतायें कम करके भी इस जगत में रहा जा सकता है।

पिछली चार वर्षों की बैठकों में आठ विशिष्ट अतिथियों के विचार सुन चुका हूँ। हर बार बहुत अच्छा लगता है सुनकर, सबको ही अच्छा लगता होगा। कई बार बड़ी बड़ी बातें होती हैं, प्रभाव कितना पड़ता होगा लोगों पर, ज्ञात नहीं। कभी कोई बहुत छोटी सी बात कहता है जा मन में आकर लग जाती है, एक विशिष्ट प्रभाव छोड़ जाती है। बहुत कुछ निर्भर करता होगा मनःस्थिति पर और उतना ही प्रभाव पड़ता होगा वातावरण का भी। इस बार वातावरण पिछले वर्षों से कहीं अधिक ऊष्मा लिये हुये था। जितना तापमान हमारे टीवी का हो जाता होगा, उससे कहीं अधिक आँखें और मस्तिष्क का हो जाता है हर बार घटनाक्रम को देखकर। इस बार वातावरण पिछले वर्षों की तुलना में अधिक उत्सुकता भरा था, वहाँ बैठे श्रोताओं के चेहरे से वह स्पष्ट था।

पता नहीं क्यों पर जब आप यह सोचकर बैठे हों कि आपकी एकाग्रता में विघ्न न पड़े, उसी समय सारी दुनिया को सूझती है आप तक पहुँचने के लिये। विशिष्ट अतिथियों का सम्बोधन चल रहा था और मैं बार बार अपने मोबाइल के काँपने से व्यथित था। हर बार कम से कम यह देखना तो आवश्यक हो जाता था कि फोन किसका है, आवश्यक हो तो धीरे से फुसफुसा कर बतिया लें, नहीं तो बैठक में व्यस्त होने का छोटा सा संदेश भेज कर काम चला लें। इन्हीं दो क्रियाओं में पूरा ध्यान बटा हुआ था, शेष जो भी बीच बीच में शेष बच रहा था, विशिष्ट अतिथियों के सम्बोधन को सुनने के प्रयास में लगा हुआ था।

बड़ी समस्या है, जब भी किसी एक वस्तु में एकाग्रता स्थापित करता हूँ, दूसरी उसमें बाधा डाल देती है। मैे सुनना चाह रहा हूँ कि कैसे धन के प्रभाव से शापित वातावरण में भी सीमित धन और संसाधनों के साथ और अधिक प्रसन्न रह सकते हैं? सुनना चाह रहा हूँ कि कैसे सरकारी धन का सदुपयोग सुनिश्चित कर देश को विकास के अग्रतम मानकों तक ले जाया जा सकता है? कहाँ एक ओर इतना बड़ा ध्येय और कहाँ बार बार मोबाइल का काँप उठना, मोबाइल पर बतियाना भी आवश्यक है, भविष्य के महत लक्ष्यों के लिये वर्तमान को भी चुप नहीं कराया जा सकता है। मन की ईश्वर ने सुन ली, अगले २० मिनट तक कोई फोन नहीं आया, ध्यान सुनने में लगा दिया।

रामकृष्णमिशन के स्वामीजी थे, वयोवृद्ध थे और चर्चा का आध्यात्मिक पक्ष रख रहे थे। नाम ढंग से याद नहीं आ रहा है, आप समझ सकते हैं कि आधुनिक जीवनशैली ने मानसिक रूप से हम सबको कितना क्षीण बना दिया है, पाँच मिनट पहले जिनका परिचय दिया गया, वह भी याद नहीं रहा। मोबाइल में हजारों से अधिक नाम संचित पर जिन्हें वर्तमान में सुन रहा, उनका नाम ही ध्यान से उतर गया। मन पर अधिक दवाब नहीं डाला और सम्बोधन सुनने में लग गया।(नाम स्वामी हर्षानंदजी है, आभार देवेन्द्रदत्तजी)

रवीन्द्रनाथ टैगोर की किसी कविता का संदर्भ था। भावार्थ कुछ इस प्रकार था।

सूरज अस्त हो रहा है, क्षुब्ध है, दिन भर स्वयं दहक कर सारे विश्व को प्रकाश देने का महत कार्य किया था। अस्त होने में बस कुछ ही समय शेष है, सोच रहा है कि उसके जाने के बाद क्या होगा? क्या होगा उन स्थानों का, जो अभी तक स्पष्ट दिखायी देते हैं। किसी को संशय नहीं उनके बारे में, क्योंकि वे साक्षात दिखायी पड़ते हैं। सूरज नहीं रहेगा तो उनके अस्तित्व के बारे में संशय हो जायेगा। अँधेरे में उन्हें असहजता लगती है, जो पारदर्शिता के, जो स्पष्टता के आराधक हैं। सबको सब दिखायी पड़े, सबको सबका सुख दिखे, सबको सबका दुख दिखे, सबको सबके कर्म दिखें, सबको सबके दुष्कर्म दिखें। आज वही सूरज अस्त हो रहा है, आज प्रकाश का स्रोत अस्त हो रहा है। विश्व को नहीं ज्ञात कि क्या होने वाला है, पर जिसने प्रकाश फैलाया है, वह बस इस चिन्ता में घुला जा रहा है कि उसके जाने के बाद विश्व का क्या होगा?

उस उत्तराधिकारी को ढूढ़ रही थी सूरज की आँखें जो उसके अस्त होने के बाद भी वैसा ही प्रकाश फैला सके। सूरज को जब निराशा सी लगने लगी, डूबने में बस कुछ क्षण ही बचे तब एक छोटे से दिये ने बोलना प्रारम्भ किया।

मुझे ज्ञात है कि मैं बहुत छोटा हूँ, मुझमें इतनी सामर्थ्य भी नहीं कि आपके सम्मुख खड़ा होकर कुछ कह पाऊँ, आपके महत कार्य को समझ तक पाऊँ। पर हे सूरज,मैं आपको बस इतना विश्वास दिला सकता हूँ, कि आज रात के लिये और इस छोटी कुटिया के भीतर मैं अँधेरा नहीं होने दूँगा। कल मेरा अस्तित्व रहे न रहे, कल मेरी लौ जीवित रहे न रहे, कल मुझे ऊर्जा मिले न मिले, बस इतना विश्वास दिलाता हूँ कि कम से कम इस जगह पर मैं रात भर मोर्चा सम्हाले रहूँगा।

बात बहुत छोटी की दिये ने, अपने आकार के अनुपात में, पर उसका विस्तार वृहद था, उसका उत्तर सूरज का सन्तोष था, इस बात का सन्तोष कि जब वह कल वापस आयेगा तो उसे कम से कम इस कुटिया में अपना कोई जाना पहचाना सा दिखेगा। कोई दिखेगा जो उसके आदर्शों को जीवित रखेगा, स्वयं जलकर भी, स्वयं दहक कर भी।

तभी किसी विशेष कार्य के कारण नियन्त्रण कक्ष जाना पड़ गया, और अधिक सम्बोधन न सुन पाया, पर स्वामीजी के वे शब्द मन में अनुनादित होते रहे, कि हे सूरज, आप दिन सम्हालो, आप विश्व सम्हालो। रात हम हाथ से निकलने नहीं देंगे, हम इस कुटिया को जगमगायेंगे और प्रतीक्षा करेंगे उस सुबह की जब सूरज पुनः क्षितिज पर जगमगाने लगेगा।