29.5.16

चक्रव्यूह अनुकूल नहीं अब

भौतिकता में क्यों अटका है?
मार्ग जटिल ही क्यों तकता है?
स्वप्निल मनवा जागेगा कब?
चक्रव्यूह अनुकूल नहीं अब,

झेल चुका, अब बहुत हो गया,
जागृत संचितधर्म सो गया ।
जीवन के हर द्वारे द्वारे,
जयद्रथ जैसे शत्रु आज सब ।
चक्रव्यूह अनुकूल नहीं अब ।।

पार्थ-पुत्र तू नहीं प्रलयंकर,
प्राप्त नहीं हैं तुझे विजयशर ।
अस्तित्वों के युद्ध निरन्तर,
खीखें व्यूह भेदना हम कब ।
चक्रव्यूह अनुकूल नहीं अब ।।

अन्दर सुख है शेष व्यर्थ है,
अन्तरतम की बलि निरर्थ है ।
चक्रव्यूह के अग्निकुण्ड में,
भौतिकता ही दान करो अब ।
स्वप्निल मनवा जागेगा कब?

22.5.16

विचारों में दावानल

कह दूँ यदि मन की अभिलाषा,
मन मेरा अब तक क्यों प्यासा,
अर्धनग्न कई सत्य छिपाये, हृद आक्रोशित रहता था ।
होठों पर थी हँसी, विचारों में दावानल बहता था । १।

कह दूँ क्यों अकुलाता था मैं,
शब्दों को पी जाता था मैं,
संयम के वश, मन के जलते भाव छिपाये रहता था ।
होठों पर थी हँसी, विचारों में दावानल बहता था । २।

देख रहा हूँ शान्त, अकेला,
व्यक्तित्वों का जड़वत मेला,
इसी काष्ठ से, जीवन भर की आस लगाये रहता था ।
होठों पर थी हँसी, विचारों में दावानल बहता था । ३।


15.5.16

एकान्त-मन

आज  एकान्त में बढ़ती विवशता,
सदा खालीपन सताता है समय का

मन अभी भी बाल्य मेरा,
व्यस्तता का पा खिलौना
विषय की भी रिक्तता में,
खेलता रहता मगन हो ।।

नहीं आवश्यक इसे आधार चिन्तन का,
और सूझे इसे व्यवहार जीवन का
यह बढ़ा देता कदम, बस सहजता का सार पाकर,
जिस दिशा में इसे केवल भीड़ का विस्तार दिखता ।।

किन्तु जब होता अकेला,
नहीं कोई राह दिखती
शान्ति में है छटपटाता,
भीड़ की आदत पड़ी है ।।

वाह्य निर्भरता भुलाने,
आत्मगत मन चाहता हूँ
आश्रय पथ छोड़ सब मैं,
स्वयं जीना चाहता हूँ ।।

8.5.16

सौन्दर्य तेरा

जब खड़ा सौन्दर्य तेरा, मुस्करा करता इशारे,
कल्पनायें रूप की टिकती नहीं हैं, हार जातीं ।
रूप से तेरे सुनयना, विकल होकर प्राण सारे,
हैं तड़पते, काश अब तो प्यार की बरसात आती ।।१।।

दृष्टि से छूकर मुझे, जब नयन दो तेरे निकलते,
छूटते दो बाण मानो प्रेम के गाण्डीव से ।
बिद्ध होकर प्राण मेरे, हर समय रहते तड़पते,
हो सके उपचार अब तो तेरे ही स्पर्श से ।।२।।

रूप का यूँ खिलखिलाना प्रेम की भोली दशा पे,
उठ रही शाश्वत तरंगें अब हृदय में प्रेम की ।
बज उठा संगीत मन में, प्रेम की नव आस से,
गूँजती हैं धुनें अब तो, अनवरत ही प्यार की ।।३।।


1.5.16

उद्वेग

अकेले बैठता हूँ, तो विचारों के बवंडर, शान्त मन को घेर लेते हैं ।
मैं कितना जूझता हूँ, किन्तु फिर डूबता हूँ, मैं निराशा की नदी में ।
अगर मैं छोड़ता हूँ, स्वयं को मन के सहारे, आत्म का अस्तित्व खोता हूँ ।
कभी कुछ सोचता हूँ, शीघ्र छिप जाती समस्या, पर विवादों के प्रवाहों में ।।

करूँ क्या मैं, कहूँ कैसे, और किसको ही बता दूँ ।
और कैसे हृदय के उद्वेग को निश्चित दिशा दूँ ।।

न जाने क्यों जो स्थिर था, वही विश्वास हिलता है ।
मुझे क्यों हर तरफ ही विरह का विस्तार दिखता है ।।