21.12.16

मित्र हो मन

कब बनोगे मित्र, कह दो, शत्रुवत हो आज मन,
काम का अनुराग तजकर, क्रोध को कर त्याग मन,
दूर कब तक कर सकोगे, लोभ-अर्जित पाप मन,
और कब दोगे तिलांजलि, मोह-ऊर्जित ताप मन,
अभी भी निष्कंट घूमो, भाग्य, यश विकराल-मद में,
प्रेमजल कब लुटाओगे, तोड़ ईर्ष्या-श्राप मन ।

कब तृषा के पन्थ में विश्राम होगा,
कब हृदय की टीस का क्रम शान्त होगा,
कब रुकेंगी स्वप्न की अविराम लहरें,
और कब यह दूर मिथ्या-मान होगा ।

शत्रुवत उन्मत्त मन की, यातना न सही जाती ।
आँख में छलकी, करुण सी याचना है, बही जाती ।।

18.12.16

भान मुझको, सत्य क्या है

भान मुझको सत्य क्या है ?
सतत सुख का तत्व क्या है ?

किन्तु सुखक्रम से रहित हूँ,
काल के भ्रम से छलित हूँ,
मुक्ति की इच्छा समेटे,
भुक्ति को विधिवत लपेटे,
क्षुब्धता से तीक्ष्ण पीड़ित,
क्यों बँधा हूँ, क्यों दुखी हूँ ?

डगमगाते पैर क्यों हैं,
डबडबाती दृष्टि क्यों है,
राह सामने दीखती है,
क्रुद्ध होकर चीखती है,
बुद्धि का मत छोड़कर क्यों,
अंध मन-पथ जा रहा हूँ ।।

कठिन है यूँ रुद्ध जीना,
बद्ध पीड़ा, पर कही ना,
सौम्यता के आवरण में,
नित प्रवर्धित जाल मन में,
शब्द कैसे सी सकूँगा,
शान्त कैसे जी सकूँगा ।।

व्यक्त मुख पर कृत्रिमता है,
स्वार्थपूरित मृगतृषा है,
मैं अकेला भटकता हूँ,
प्रेम क्षण-कण ढूँढ़ता हूँ ।
कौन जाने, और कब तक,
सहज होगा चित्त मेरा ।।

नहीं वश में, व्यक्त क्या है ?
भान फिर भी, सत्य क्या है ?

14.12.16

लेखन में इष्टतम विलम्ब

देखा जाये तो लेखन में भी इष्टतम विलंब का वृहद उपयोग है। उपरिलिखित वाक्य सोचना और उसे लिखना, वैसे तो बड़ा स्वाभाविक लगता है पर यदि उस पर विचार करें तो सोचने की प्रक्रिया समाप्त होने के बाद ही लिखने का निर्णय होता है। कभी कभी तो लिखते या टाइप करते समय भी चिन्तन चलता रहता है और लेखन परिवर्धित हो जाता है। समुचित वाक्य बनाने के पहले कितनी देर सोचना है, यह बड़ा प्रश्न है। लिखते समय सोचने में व्यवधान होता है और सोचते समय लिखा नहीं जा सकता है। अभ्यास होते होते दोनों मिश्रित से हो जाते है और दोनों की भिन्नता का पता नहीं चलता है। लिखते लिखते ही सोच लेने में लेखन अत्यन्त शीघ्र हो सकता है। संभव है कि सरल विषय पर लेखन करने में ऐसा हो या किसी ज्ञात विषय को शब्दबद्ध करने में विचार स्वतः निकल आयें। कठिन, अज्ञात या कल्पनामयी पर चिन्तन करना ही पड़ता है। बौद्धिक क्षमता के अनुपात में समय भी लगता है। यदि उससे कम समय देंगे तो अभिव्यक्ति में भूल होने की संभावना है। हो सकता है कि वह पूर्ण न हो या जो अभीप्सित था वह संप्रेषित न हो पाया हो। आवश्यकता से अधिक सोचने में संभव है कि समय व्यर्थ हो रहा हो या जो अभिव्यक्ति हो वह समझने की दृष्टि से कठिन हो। पढ़ने वाले की दृष्टि से इष्टतम विलंब इतना हो कि वह भूल रहित हो, अधिक कठिन न हो, सुगाह्य हो, इष्टतम हो।   

पुस्तक लिखने का निर्णय भी इष्टतम विलंब के आधार पर लिया जा सकता है। जिस विषय पर लिखना है, उस पर कितना शोध और अध्ययन पर्याप्त हो। यदि कम शोध करके लिखा तो संभव हो पुस्तक की गुणवत्ता कम हो। बहुत अधिक शोध करके लिखें तो संभव हो कि लिखने में अधिक देर हो जाये या यह भी संभव है कि पुस्तक अत्यन्त कठिन हो जाये। जैसे ही कोई नया विचार या नयी खोज आती है, व्यवसायी या उद्यमी इस बात पर लग जाता है कि किस प्रकार उसका उपयोग करके आर्थिक लाभ अर्जित किया जा सके। तुरन्त ही उस कार्य में लग जाने से आप औरों से आगे तो हो जाते हैे, पर संभव हो उस समय तक शोध का स्तर अच्छा न हो, इस कारण आपके उत्पाद में वह गुणवत्ता न आ पाये जो व्यवसाय में अग्रणी रहने के लिये आवश्यक है। बहुत अधिक विलंब करने से आपके प्रतियोगी स्पर्धा में आगे निकल जायेंगे और आपके लिये कुछ शेष नहीं छोड़ेगे।  थोड़ा रुककर आर्थिक निर्णय लेने से या कहें तो इष्टतम विलंब के बाद निर्णय लेने से, हो सकता है कि आपके उत्पाद का प्रभाव महत्तम हो।

इस विषय पर जब गूगल में भ्रमण कर रहा था तो एक बड़ा ही रोचक ब्लॉग मिला। यह ब्लॉग ‘ऑपरेशन रिसर्च’ के क्षेत्र में था। इष्टतम विलंब पर गणेश और व्यास का उदाहरण उसमें दिया गया था। गणितीय शब्दावली का उपयोग न करते हुये उसे सरल भाषा में समझाता हूँ।

यह कथा सबको विदित है कि महाभारत के बाद जब व्यासजी ने उस कथानक को लिपिबद्ध करने का निर्णय किया तो उन्होने स्वयं लिखने के स्थान पर लेखक से कराने का निर्णय लिया। व्यासजी महाभारत सर्वसाधारण के लिये लिखना चाहते थे और इस कारण ग्रन्थ का आकार बड़ा होना स्वाभाविक था, लगभग एक लाख श्लोकों का। सारा कथानक उनके मस्तिष्क में स्पष्ट था, बस उसे शब्दबद्ध करना था। कथा का प्रवाह न टूटे, इसके लिये आवश्यक था कि वह बोलते रहें और कोई और उसे लिखता रहे। अब विचार किया गया कि सबसे अधिक गति से कौन लिख सकता है, गणेशजी का नाम आया, बुद्धिमान और ज्ञानवान, सबका हित चाहने वाले। प्रस्ताव भेजा गया, गणेशजी सहमत हो गये।

गणेशजी ने एक बाध्यता रखी कि यदि व्यासजी की बोलने की गति गणेशजी की लिखने की गति से कम हो गयी तो वह लिखना बन्द कर देंगे। कारण स्पष्ट था, जब सबकुछ उनके मस्तिष्क में स्पष्ट था तो बोलने में विलंब नहीं होना चाहिये। व्यासजी के लिये यह कठिन नहीं था पर बोलने की गति अधिक रखने के लिये सोचने के लिये कम समय मिलता। अधिक गति में त्रुटियों की संभावना अधिक हो जाती है। इस पर व्यासजी ने भी एक प्रतिबाध्यता रखी। व्यासजी ने गणेशजी से कहा कि आप श्लोक सुनने के बाद जब तक उसे पूरा समझ नहीं जायेंगे तब तक उसे लिखेंगे नहीं। यहाँ पर एक इष्टतम बिलंब की स्थिति उत्पन्न हो गयी, जिससे सोचने के लिये व्यासजी को तनिक अधिक समय मिल गया। यह महाभारत के त्रुटिरहित और अक्लिष्ट लेखन के लिये वरदान था।

यहाँ पर गति और समझ के बीच एक संतुलन स्थापित हुआ, त्रुटि और क्लिष्टता के बीच संतुलन स्थापित हुआ। यदि व्यासजी कम सोच कर, बड़ा सरल सा श्लोक गढ़ते तो उसमें त्रुटि की संभावना रहती।  साथ ही साथ गणेशजी उसे तुरंत ही समझकर लिख भी देते। इससे व्यासजी को अगले श्लोक के लिये कम समय मिलता, जिससे त्रुटि की संभावना और भी बढ़ जाती। इस प्रकार त्रुटि की मात्रा ग्रन्थ में उत्तरोत्तर बढ़ती जाती। यदि व्यासजी बहुत अधिक सोचकर क्लिष्ट सा श्लोक गढ़ते तो गणेशजी को उसे समझने में अधिक समय लगता। इससे व्यास को अगले श्लोक के लिये और अधिक समय मिलता। इस प्रकार महाभारत के श्लोक उत्तरोत्तर और भी क्लिष्ट होते जाते। दोनों ही अवांछित निष्कर्ष महाभारत जैसे ग्रन्थ के लिये व्यासजी को स्वीकार्य नहीं थे अतः उन्होने इष्टतम विलंब का मार्ग अपनाया जिससे महाभारत त्रुटिरहित और अक्लिष्ट हो सका।

यदि व्यास से कम मेधा का कोई वाचक होता, यदि गणेश से कम श्रुतलेखन का कोई लेखक होता, इन दोनों ही परिस्थितियों में महाभारत का वर्तमान स्वरूप सामने न आ पाता। महाभारत का संयोजन अद्भुत है। गीता जैसी कालजयी रचना उसी में से उद्धृत है। सांख्य, कर्म और भक्ति आदि के तत्व जिस सरलता से समझाये गये हैं, वह उसकी सर्वग्राह्यता सिद्ध करते हैं। पतंजलि योग सूत्र पढ़ने के बाद जब पुनः गीता पढ़ी तो लगा कि प्रत्येक सूत्र की विशद व्याख्या कृष्ण अर्जुन को समझा रहे हैं। जब कभी भी आप गीता पढ़ें तो कृष्ण-अर्जुन, संजय-धृतराष्ट्र के संवादों के साथ साथ व्यास-गणेश की इष्टतम बिलंब के संवाद को भी याद रखें।

10.12.16

इष्टतम विलंब

विश्व द्वन्द्व से भरा है, परस्पर विरोधी तत्व बद्ध हैं, लिपटे हैं। एक को अपनाने में दूसरा भी मुँह उठाये सामने खड़ा हो जाता है। प्रकृति का यही गुण विश्व को रोचक बनाये रखता है, लोगों में प्रवृत्ति भाव जागृत रखता है, उत्सुकता सदैव शेष रहती है। द्वन्द्व दलदल सा होता है, किसी भी एक दिशा में किये प्रयास आपको और भी उलझाते जाते हैं। दुख से निकलने का मार्ग सुख के प्रति आसक्ति नहीं है, वह तो और भी दुख में ढकेल देती है। सुख और दुख में समभाव ही निवृत्ति है। मुक्ति द्वन्द्व के किनारों में भटकने में नहीं है, द्वन्द्व से निर्द्वन्द्व की स्थिति में जाने में है। बुद्ध की मध्यमार्ग की परिकल्पना, कृष्ण की स्थितिप्रज्ञता और पतंजलि का चित्तवृत्तिनिरोध, निर्द्वन्द्व होने के ही प्रामाणिक उपाय हैं।

संतुलन तो पाना ही होगा। आप नहीं चाहेंगे तो प्रकृति आपको वह सिखा देगी, जीवन जीने के क्रम में आपको संतुलन करना आ ही जायेगा। हर दिन, जाने अनजाने, न जाने कितने निर्णय हम लेते हैं जिसमें संतुलन साधने का ही कार्य हम करते हैं। किसी को बस इतना ही ज्ञात हो जाये कि संतुलन किस समय आयेगा, कहाँ पर मिलेगा, कैसे प्राप्त होगा, उतना ही पर्याप्त है सिद्धि के लिये।

बौद्धिक स्तर पर ही नहीं वरन व्यवहारिक स्तर पर संतुलन का बहुत महत्व है। वेतन में कितना व्यय करना है, कितना बचाकर रखना है, संतुलन बिठाना पढ़ता है। जीवन के वर्ष नियत हैं, क्या करें, क्या न करें, संतुलन बिठाना पड़ता है। जीवन को कितना नियन्त्रण करें, कितना स्वतः बहने दें, संतुलन बिठाना पड़ता है। स्वाद और स्वास्थ्य में संतुलन बिठाना पड़ता है। ऐसे ही न जाने कितने संतुलन हम जीवन में बिठाते रहते हैं और उस पर विशेष ध्यान नहीं देते हैं।

ऐसा ही एक संतुलन होता है, निर्णय लेने में, उत्तर देने में, प्रतिक्रिया देने में। अतिशीघ्रता में लिये गये निर्णय बिना सोचे समझे लिये जाते हैं और बहुधा विपरीत ही पड़ते हैं। वहीं दूसरी ओर यदि सोचने में ही सारा समय बिता दिया तो प्रायः निर्णय ही औचित्यहीन हो जाता है। जहाँ त्वरित लिये निर्णयों में विचार की मात्रा कम रहती है, देर से लिये निर्णयों में फल पर प्रभाव की मात्रा कम होती है। यहाँ भी एक संतुलन बिठाना पड़ता है। निर्णय कितनी देर में ले जिससे वह सर्वाधिक प्रभावी हो।

कहावत है, काल करे सो आज कर, आज करे सो अब। विलंब करना उचित नहीं माना जाता है। निर्णय प्रक्रिया को देखें तो विलंब सदा हानिकारक भी नहीं होता है, वरन कई बार तो आवश्यक और लाभप्रद भी होता है। पर विलम्ब अधिक न हो, इष्टतम हो।  इष्टतम विलम्ब का अर्थ हुआ, उतना ही विलम्ब जितना सर्वोत्तम निर्णय लेने के लिये आवश्यक है। इष्टतम विलम्ब संतुलित निर्णय के लिये अत्यन्त ही महत्वपूर्ण है।

कितना विलंब करें
इस बारे में फ्रैंक पार्टनॉय की बहुचर्चित पुस्तक ‘Wait’ पढ़ी। उसमें इष्टतम विलंब को ढंग से समझाया गया है। मिलीसेकेण्ड से लेकर दिनों तक के विलम्बित निर्णयों से आये अधिक प्रभावी निष्कर्षों के ऊपर विधिवत शोध है यह पुस्तक। उदाहरणों और प्रयोगों के द्वारा सत्यापित तथ्यों ने इष्टतम विलम्ब को वैज्ञानिकता से सिद्ध किया है। उदाहरण स्वरूप किसी भूल पर क्षमा माँगने में कितना विलम्ब इष्टतम होता है। तुरन्त ही क्षमा माँगने का समय ठीक नहीं होता है, उस समय दोनों की ही मनःस्थिति उद्वेलित होती है। बहुत समय बाद क्षमा माँगने का कोई औचित्य नहीं रह जाता है। इष्टतम विलम्ब से कई लाभ होते हैं। घटना की चर्चा हो सकती है। क्यों भूल हुयी, इस पर विचार हो सकता है। उग्रता और उपेक्षा के बीच का भाव क्षमा के लिये इष्टतम होता है। शान्त मन में संवाद अर्थयुक्त होता है।

खेलों में भी इष्टतम विलम्ब के महत्व को समझाया गया है। लॉन टेनिस के खेल में यह पाया गया है कि जो खिलाड़ी अपने शॉट को जितना अधिक विलम्बित कर सकता है, वह उतना ही सफल है। लॉन टेनिस में यह विलम्ब कुछ मिलीसेकण्ड में होता है। निश्चय ही यह विलम्बित कर सकने की क्षमता अभ्यास से आती है पर विलम्बित प्रतिक्रिया में खिलाड़ी के पास विकल्प अधिक हो जाते हैं। क्रिकेट में भी यही सिद्धान्त सटीक बैठता है। सोच कर देखिये कि देर से शॉट खेलने वाले खिलाड़ियों के पास अधिक शॉट होते हैं।


गणेश और व्यास की कहानी में और पुस्तक लेखन में इष्टतम विलंब की चर्चा अगले ब्लॉग में।

7.12.16

सूत्र शैली

अनुबन्ध चतुष्ट्य को लेखन का आधार मान लेने से इस विषय पर एक सुस्पष्टता आ जाती है। लिखने के पहले इस पर विचार कर लेने से लेखन का स्तर स्वतः ही बढ़ जाता है। इसका अनुपालन पुस्तक लिखने के अतिरिक्त लेखन की अन्य विधाओं में भी किया जाना चाहिये। चलिये, अपने ब्लॉग में इसे प्रयुक्त करते हैं। मेरे ब्लॉग के विषय विविध हैं, जीवन से जुड़े, अध्ययन किये हुये, सामाजिक अवलोकन के, आत्मिक अनुभव के, और ऐसे ही जाने कितने विषय। प्रयोजन मात्र अभिव्यक्ति है, विशुद्ध स्वार्थ, क्योंकि किसी विषय को लिखने और पाठकों को समझाने के क्रम में वह और भी स्पष्ट हो जाता है। बचपन में भी लिखकर पढ़ते थे, सीखते थे, समझते थे। लिखने और उस पर आयी टिप्पणियों से विषय की समझ और भी विस्तारित हो जाती है। प्रयोजन हिन्दी का प्रचार प्रसार भी है, जिन विषयों में समान्यतः अंग्रेजी का प्राधान्य है, उन्हें हिन्दी पाठकों के लिये सुलभ बनाना है।  प्रयोजन उस विषय पर कोई विशिष्ट टीका या संदर्भ लिखना नहीं है। अधिकारी कोई भी है जो उस विषय में रुचि रखता हो, अधिकारी सर्वसाधारण हैं। सम्बन्ध बड़ा सरल है, ब्लॉग पढ़ने के बाद पाठक के जीवन में कोई विशेष परिवर्तन की आशा नहीं करता हूँ, बस पढ़ते समय पाठक उन्हीं भावनाओं से होकर निकले जिन भावनाओं से प्रेरित हो वह ब्लॉग लिखा गया था।

अपने ब्लॉग का अनुबन्ध चतुष्ट्य लिखने के बाद ऐसा लगा कि इन संदर्भों में कुछ विशेष और स्तरीय लेखन नहीं कर पा रहा हूँ, संभवतः इसीलिये आनन्द का भाव नहीं जग पा रहा है। सतही अनुभव और परिधि में घूमने में तो कोई आनन्द नहीं, जाना तो केन्द्र तक पड़ेगा तभी कुछ तत्व मिलेगा। उन विषयों पर लिखने में अत्यधिक संतुष्टि मिली जिन पर गहराई में उतर कर लिखा, विषय को सामान्य से अधिक समझा, विषय के सब पक्षों को समझ और समझा पाया। निश्चय ही संतुष्टि की उन स्मृतियों को अपने लेखकीय जीवन में पुनर्स्थापित करना पड़ेगा, तब कहीं आनन्द के कुछ छींटे मन पर पड़ेंगे।

सूत्र शैली भारत की ज्ञान परंपरा की अत्यन्त सशक्त विधा है। यह साक्षी है कि उस समय के संवाद, लेखन और अभिव्यक्ति का बौद्धिक स्तर कितना उत्कृष्ट था। योगसूत्र जैसा कठिन विषय पतंजलि ने मात्र १९५ सूत्रों में लिख दिया,  या कहें तो लगभग ६० श्लोकों में। पाणिनी ने पूरी संस्कृत व्याकरण मात्र ४००० सूत्रों में समाहित कर दी। सांख्य के प्रणेता कपिल मुनि ने मात्र २२ सूत्रों में अपने सिद्धान्त के प्रतिपादित किया। सूत्र में न्यूनतम शब्दों का प्रयोग उसे शाब्दिक कोलाहल से मुक्त कर और भी प्रभावी बना देता है। शब्दों का चयन सूत्र के अर्थ को असंदिग्ध रूप से व्यक्त करने में समर्थ होता है। सारवत कहना, यह सूत्रशैली के ही हस्ताक्षर हैं, विचारों की श्रंखला को कम वाक्यों में कह पाने की शक्ति। यदि एक से अधिक अर्थ बताना आशय है तो उस कला में भी सूत्रशैली सटीक बैठती है, उपयुक्त शब्दों को प्रयोग से यह सुनिश्चित होता है। सूत्र भी लम्बे नहीं, छोटे से, याद करने में सरल, विस्तार से समझाने में सरल। एक तो संस्कृत स्वयं में ही कोलाहल मुक्त भाषा है, न्यूनतम शब्दों में अधिकतम प्रेषित करने की सक्षमता समाये भाषा। धातु, प्रत्यय, विभक्ति, उपसर्ग, प्रत्याहार, संधि, समास आदि सबका एकल उद्देश्य अभिव्यक्ति की सुगठता और सघनता है। उस भाषा में व्यक्त सूत्रशैली में एक भी अक्षर अतिरिक्त नहीं है, एक भी अर्थ लुप्त नहीं है। इस तथ्य की उद्घोषणा प्रणेताओं ने अपनी रचनाओं के पहले ही किया है।

अभिव्यक्ति की इस पराकाष्ठा को देखता हूँ तो गर्व भी होता है और लाज भी आती है। गर्व इस बात का कि हमारे पूर्वज सतत चिन्तनशील थे, अद्भुत मेधा के स्वामी थे। लाज इस बात की आती है कि उन पुरोधाओं की संतति होने के बाद भी, उनके द्वारा निर्मित संस्कृति का पलने का लाभ होने के बाद भी हम उन मानकों के आसपास भी नहीं छिटकते हैं। जितना पढ़ता हूँ, जितना सोचता और समझता हूँ उतना ही अभिभूत हो जाता हूँ। अब आप ही कल्पना कीजिये कि जब मन की स्थिति नित उन उच्च मानकों पर जी रही हो, उस समय कुछ भी ऐसा कहना जिसमें गुणवत्ता न हो, एक निष्कर्षहीन श्रम लगता है। यही कारण रहता होगा कि लेखन का आनन्द अल्पतर होता गया।

ऐसा नहीं है कि सूत्रशैली कोई कृत्रिम तकनीक है। शब्दों की शक्ति अथाह है, एक एक शब्द जीवन बदलने में समर्थ है। इतिहास साक्षी है कि सत्य, अहिंसा, समानता, न्याय, अपरिग्रह, धर्म आदि कितने ही शब्दों ने समाज, देश और संस्कृतियों की दिशा बदल दी है। पहले उन शब्दों को परिभाषित करना, संस्कृति में उनके अर्थ को पोषित करना, उन्हें विचारपूर्ण, सिद्धान्तपूर्ण बनाना। कई कालों में और धीरे धीरे शब्द शक्ति ग्रहण करते हैं। उदाहरणस्वरूप योग कहने को तो एक शब्द है पर पूरा जीवन इस एक शब्द से साधा जा सकता है। सत्य और अहिंसा जैसे दो शब्दों से गांधीजी ने देश के जनमानस की सोच बदल दी। ऐसे ही शब्दों ने राजनैतिक परिवर्तन भी कराये हैं और समाज की चेतना में ऊर्जा संचारित की है। व्यक्तिगत जीवन में भी सूत्रशैली की उपयोगिता है। बचपन परीक्षा की तैयारी करते समय किसी विषय को पढ़ते समय हम संक्षिप्त रूप में लिख लेते हैं ताकि परीक्षा के पहले कम समय में उन्हें दोहराया जा सके। यही नहीं, विज्ञान के बड़े बड़े सिद्धान्त भी गणितीय सूत्रों के रूप में व्यक्त किये जाते हैं।

सूत्रशैली का अर्थ मात्र संक्षिप्तीकरण नहीं है। वृहद अर्थों में देखा जाये तो यह एक संतुलन है। अनुबन्ध चतुष्ट्य जहाँ एक ओर आवश्यक और अनावश्यक के बीच संतुलन करता है, सूत्रशैली अधिकारी का निर्धारण कर विस्तार और संप्रेषणीयता के बीच संतुलन करती है। किसी सिद्धान्त को विस्तार से लिख देना सरल है पर उसे याद रख पाना और उचित समय में प्रयोग में ला पाना कठिन है। अत्यन्त क्लिष्ट करने से संक्षिप्तीकरण तो हो सकता है, पर उसकी संप्रेषणीयता में ग्रहण लग जाता है। शब्दों को उस सीमा तक न्यून किया जाये जब तक अर्थ पूर्णता से संप्रेषित होता रहे। जिस समय लगे कि एक भी शब्द हटाने से संप्रेषण प्रभावित होगा, वही सूत्र की इष्टतम स्थिति है। एक और शब्द जब अधिक और व्यर्थ प्रतीत हो तो समझ लीजिये कि आपने सूत्र पा लिया। संतुलन का अर्थ ही यही होता है कि दो विपरीत लगने वाले गुणों को किस सीमा तक साधा जाये कि प्रभाव महत्तम हो।

संतुलन में ही बुद्ध का मध्यमार्ग छिपा है, कृष्ण की स्थितिप्रज्ञता छिपी है, प्रकृति और पुरुष का साम्य छिपा है, जीवन के सफलतापूर्वक निर्वाह की कुंजी छिपी है।


जीवन और लेखन में संतुलन के अन्य उदाहरण अगले ब्लॉग में।

4.12.16

लेखकीय संतुलन

जब कभी लगता है कि लेखन में आनन्द नहीं आ रहा है तो लेखन कम हो जाता है। 

लेखन अपने आप में एक स्वयंसिद्ध प्रक्रिया नहीं है। इसके कई कारक और प्रभाव होते हैं। क्यों लिखा जाये, कैसे लिखा जाये और क्या लिखा जाये, ये मूल प्रश्न आठ वर्ष के ब्लॉग लेखन के बाद आज भी निर्लज्ज प्रस्तुत हो जाते हैं। लेखन के प्रभाव बिन्दु पठन के कारक होते हैं। क्यों पढ़ा जाये, क्या पढ़ा जाये, इस पर निर्भर करता है कि क्या लिखा जाये। जीवन में बहुधा लगता है कि केवल शुष्क ज्ञान ही ग्रहण हो रहा है और उसका कोई अनुशीलन नहीं हो रहा है। तब जीना प्रारम्भ हो जाता है, ज्ञान का व्यवहार बढ़ जाता है, पढ़ना कम हो जाता है, लिखना कम हो जाता है। जब सारगर्भित ज्ञान के सूत्र मिलने लगते हैं तो विस्तार से मन हट जाता है, सूत्रों और शब्दों पर ही मनन करने में दिन निकल जाते हैं, पढ़ना कम हो जाता है, लिखना कम हो जाता है। जब कभी गहराई मिलती है, सिद्धान्तों के सुलझाव समझ में आने लगते हैं, तब मात्र पढ़ते रहने का मन करने लगता है, लिखना कम हो जाता है।

तीन वर्ष पहले मन में एक भाव उठा कि एक पुस्तक लिखी जाये। विषय बहुत थे जिन पर लिखा जा सकता था, हल्के और भारी, दोनों ही विषय थे। कई मित्रों से चर्चा की। उसी क्रम में एक कठोर सुझाव भी आया। जब तक लिखने की उत्कट इच्छा न हो, तब तक पुस्तक न लिखें। मन के विचार और उनमें समाहित विविधता व्यक्त करने के लिये ब्लॉग एक सशक्त माध्यम है। यदि कुछ लिखना ही हो तो ऐसा लिखा जाये जिसमें कुछ वैशिष्ट्य हो। वह वैशिष्ट्य लाने के लिये स्तरीय अध्ययन आवश्यक है। अनुभव को एक बार ही व्यक्त किया जा सकता है क्योंकि कल्पना हर बार नव कलेवर ओढ़ कर नहीं आ सकती है। इस तथ्य पर पर्याप्त सोचने के बाद पुस्तक लिखने का विचार स्थगित कर दिया गया। जो विषय पुस्तक के बारे में सोचे थे, उन्हें भी चिन्तन की प्रथम पंक्ति से उठा कर पीछे बैठा दिया गया। सहसा लगा कि सभी विषयों ने विद्रोह सा कर दिया हो। न कोई नवविचार, न कोई रोचक दृष्टिकोण, स्तब्ध सी मनःस्थिति, लिखना कम हो गया। अच्छी बात पर यह रही कि पढ़ना कम नहीं हुआ।

यह सत्य है कि व्यस्तता रही, पर व्यस्तता के कारण नियमित लिखने का समय नहीं मिला, यह तथ्य तर्कपूर्ण नहीं लगा। बहुधा अच्छा लेखन व्यस्तता के समय में ही लिखा है, एक प्रवाह में, बहुत कम समय में। जब बलात लिखने का प्रयास होता है तो उतना ही लिखने में बहुत समय लग जाता है। पता नहीं क्यों, पर प्रवाह कम हो गया। उतना ही लिखने के लिये अधिक मानसिक श्रम करना पड़ता था, आनन्द की मात्रा कम होती गयी, लिखना कम होता गया। प्रवाह क्यों कम होता है, यह समझ नहीं आता है, पर जब प्रवाह कम हो जाता है तो कुछ समझ नहीं आता है।

स्वाध्याय के क्रम में जब प्राचीन ज्ञान को समझना प्रारम्भ किया तो दो विशेष तथ्यों से साक्षात्कार हुआ। पहला अनुबन्ध चतुष्ट्य और दूसरा सूत्र शैली।

अनुबन्ध चतुष्ट्य वे चार बन्धन हैं जिनका लेखक को अनुसरण करना पड़ता है। अनुसरण करने के लिये आवश्यक है कि उन्हें पुस्तक के प्रारम्भ में ही घोषित कर दिया जाये। भारतीय ज्ञान परंपरा में यह बन्धन एक स्थायी स्तंभ रहा है। ये चार हैं - विषय, प्रयोजन, अधिकारी और सम्ब्न्ध। किस विषय पर पुस्तक है, यह प्रारम्भ में ही घोषित करना होता है। जब उस विषय पर कितना कुछ लिखा जा चुका है तो वर्तमान प्रयत्न का प्रयोजन क्या है। कौन व्यक्ति इसे पढ़ने के योग्य हैं या किसको समझ में यह पुस्तक आयेगी। इस पुस्तक के पढ़ने के बाद उस व्यक्ति में क्या परिवर्तन आयेगा। सीमायें वहुत ही स्पष्ट रूप से निर्धारित की गयी हैं। हम बहुधा केवल विषय पर ही सोच कर बैठ जाते हैं, किसी विषय में यदि थोड़ा अधिक जान जाते हैं तो लगता है कि उसे व्यक्त कर दिया जाये। शेष तीन पर तो विचार आता ही नहीं है। संभवतः अनुबन्ध चतुष्ट्य ही कारण रहा होगा कि प्राचीन समय में अनावश्यक साहित्य छन गया और बाहर नहीं आया। पुस्तक लिखना तब एक विशेष उपलब्धि रहा करती होगी। जो छनकर कालान्तर में बाहर आया, वह बार बार पढ़ने का मन करता है, वह संस्कृति की धरोहर बना।

अनुबन्ध चतुष्ट्य को यदि पुस्तक लिखने का आधार बनाया जाये तो बहुत से संशय दूर हो जाते हैं। न केवल लेखक के लिये वरन पाठक के लिये भी। जिन सिद्धान्तों पर लेखन होता है उन्हीं पर पाठन भी होता है। विषय का विस्तार असीमित है, सबकी अपनी एक कहानी है, सबकी अपनी समझ और परख है। सब अपनी कहने में आ जायें तो लिखने वाले अधिक हो जायेंगे, पढ़ने वाले कम। जैसे आजकल किसी भी चर्चा में कहने वाले अधिक रहते हैं और सुनने वाले कम मिलते हैं। केवल अपनी कह देना विषय नहीं हो सकता। उसमें कुछ मनोरंजन हो सकता है, कुछ भाव हो सकते हैं, कुछ खिचड़ी सा हो सकता है वह, पर स्वादिष्ट साहित्य नहीं हो सकता। आँकड़े देखें तो यही हो रहा है, २० लाख पुस्तकें हर वर्ष लिखी जाती हैं और औसत २५० प्रतियाँ प्रति पुस्तक बिकती हैं। अधिकांश के लिये तो पुस्तक का मूल्य और लगाया हुआ श्रम भी निकाल पाना कठिन होता है।

यदि बताने के लिये सारतत्व है, तो भी बिना प्रयोजन के लेखन का कोई औचित्य नहीं। जब विषय जीवन से जुड़ा होगा, कल्याण से जुड़ा होगा, ज्ञान से जुड़ा होगा, तो उसका प्रयोजन उतना ही अधिक होगा। अधिकारी प्रारम्भ में ही निर्धारित कर देने से लेखक के लिये अपना बौद्धिक स्तर नियत कर पाना सरल होता है। पुस्तक का आकार इस पर विशेष रूप से निर्भर करता है। यदि आप किसी विषय पर सर्वसाधारण के लिये लिख रहे हैं, तो हर पक्ष को समझा समझा कर लिखना होगा और पुस्तक का आकार बढ़ जायेगा। किसी भी जटिल पक्ष पर जाने के लिये आपको अत्यन्त कठिनाई होगी। आपको उदाहरणों औप कथाओं को विशेषरूप से सम्मिलित करना होगा। दूसरी और यदि प्रबुद्ध वर्ग के लिये कोई विषय व्याख्यायित किया जा रहा है तो कम शब्दों में अधिक बात कही जा सकती है। दोनों ही साधनों में विषय की गुणवत्ता से कोई समझौता नहीं किया जाता है, बस पुस्तक का आकार अधिकारी के अनुसार घटता बढ़ता रहता है। जब कई शास्त्र सूत्र के प्रारूप में दिखायी पड़ते हैं तो लिखने वाले और उन्हें पढ़ने वालों का उत्कृष्ट बौद्धिक स्तर समझ में आता है।


लेखकीय संतुलन के और पक्ष अगले ब्लॉग में।

30.11.16

लिली पाण्डेय

लिली रेलवे बोर्ड में वरिष्ठ अधिकारी हैं और कार्मिक विभाग का उत्तरदायित्व वहन कर रही हैं।बंगलुरु में उनके साथ कार्य करने का सौभाग्य मिला है। कला और साहित्य में रुचि है। रेलवे में कला के विषय परसफरनाम की पुस्तिका की सहलेखिका भी रही हैं। उसी के आगामी अंक के लिये लिली ने एक कविता लिखी थी। पढ़ने को दी, बहुत अच्छी लगी, गुनगुनायी और हिन्दी में अनुवाद कर दी। शाब्दिक के स्थान पर भावानुवाद किया है। आप भी पढ़ें।

Whirl of wheels
Setting in motion the celestial machinery
Turning to infinity, to eternity
An epic adventure beyond 
Beginnings & denouement 
Spinning a universe of words, forms and shapes
A cadence of dervishes
The dance of Shiva
Spasm of creation ..

~ Lily Pandeya

अथ कालचक्र निःश्वास नाद,
बढ़ता गतिमय वैश्विक प्रमाद,
शाश्वत, अनंत
निर्बन्ध छन्द,
आगत स्वागत, सब मार्ग सुप्त,
यात्रा अनादि, संहारमुक्त
शब्दों, आकृति आकारों में 
जग घूर्ण पूर्ण विस्तारों में
दरवेशी तालों पर विशेष
नर्तन नवनूतन शिवप्रवेश
घनघुमड़ उमड़ती सृष्टिशेष


भावानुवाद - प्रवीण पाण्डेय

लिली के साथ, बीजिंग में

27.11.16

चीन यात्रा - १८

अपनी संस्कृति पर गर्व करने वालों को लोग पुरातनपंथी समझते हैं। पुरातन से विद्वेष और नूतन से लगाव तथाकथित बुद्धिजीवियों का पहचान-तत्व बन गया है। समझना और समझाना तब और कठिन हो जाता है जब संस्कृति पर आस्था रखने वालों और न रखने वालों ने संस्कृति के मर्म को नहीं समझा होता है। तर्क तब परिधि पर ही रहते हैं, केन्द्र में सत्य संदोहित हुये बिना ही पड़ा रहता है। पक्ष में और विपक्ष में बोलने के लिये संस्कृति को समझना आवश्यक है। समझने के लिये पढ़ना और जीना आवश्यक है, नहीं तो तर्क शुष्क रह जाते हैं। संस्कृति के रूप में न जाने कितना ज्ञान, न जाने कितनी बुद्धिमत्ता हमें विरासत में सहज ही मिल जाती है। साथ ही साथ कुछ विकृतियाँ भी मिल जाती हैं जो संभव है कि किसी काल में संस्कृति के अनुकूल रही हों पर वर्तमान में विपरीत हों। संस्कृति का मर्म समझने के क्रम में ऐसी विकृतियाँ स्पष्ट दिखती हैं और दूर की जा सकती हैं। जो लोग मात्र कुछ विकृतियों के लिये अपनी पुरानी संस्कृति को छोड़ देते  हैं और नये को बिना सोचे समझे अपना लेते हैं, वे संस्कृति-संकर कहीं के नहीं रहते हैं। 

चीन में पुरानी संस्कृति का आज तक कहीं भी लोप नहीं हुआ है। वहाँ की सत्ता ने भले ही संस्कृति के स्वरूप को भले ही आघात पहुँचाया हो पर संस्कृति की आत्मा को नष्ट नहीं कर पायी है। कालान्तर में सत्ता ने संस्कृति के सुदृढ़ पक्षों का उपयोग आर्थिक और सशक्त राष्ट्र बनने में प्रयुक्त किया है। भारत इतिहास के आघातों से बिखरा और भ्रमित खड़ा है। संस्कृति में शक्ति के सूत्र छिपे हैं पर वह स्वयं पर विश्वास ही नहीं कर पा रहा है। बौद्धिक क्षमता है पर स्वयं को समझा नहीं पा रहा है। अन्तर्विरोधों से क्षीण और अपनी प्राथमिकतायें निर्धारित करने में असमर्थ देश को यदि कुछ चाहिये तो वह दिशा और संबल हैं। विश्व सौ पग आगे दिखता है और अपने पग पर समस्याओं के शत पाथर बँधे हैं, इसी पशोपेश के दिग्भ्रम मे आवाक सा बैठा हुआ है। 

सृजनशीलता है, सहनशीलता है, उपलब्धियों से भरा कालखण्ड है। स्वयं को सिद्ध नहीं कर पाये हैं तो पददलित भी नहीं हुये हैं। उठना होगा, बढ़ना होगा, उन्नति के शिखरों में चढ़ना होगा। पूर्वजों को संतुष्ट करने को लिये, आने वाली संततियों को गौरव करने के लिये कुछ शेष रहे, इसके लिये कुछ न कुछ करना ही होगा। छोटा नहीं, बड़ा करना होगा, बहुत बड़ा करना होगा।

चीन के रेलतन्त्र में देखा, रेल विश्वविद्यालय में देखा, नगरीय व्यवस्था में देखा, व्यापार में देखा, यातायात में देखा, कुछ भी छोटा नहीं पाया वहाँ पर। सिल्क रोड से लेकर आधुनिक सिल्क रोड तक, स्टील के उत्पादन से लेकर अंतरिक्ष कार्यक्रम तक, सब के सब असाधारण सोच के उदाहरण हैं। व्यवस्थाओं के स्वरूप जो सिद्ध हो चुके हैं, उन्हें यथास्वरूप अपनाने में क्या समस्या हो सकती है। 

भारत और चीन का संबंध बहुत पुराना है। हम चाहें, न चाहें हमें पड़ोसी के रूप में ही रहना है। भारत ने एक भी सैनिक भेजे बिना चीन को अपनी संस्कृति के बल पर सदियों तक अपने विचार के अधिकारक्षेत्र में रखा है। बौद्ध धर्म के माध्यम से अपना आध्यात्मिक वर्चस्व बनाकर रखा है। बौद्धिक प्रभुत्व के इस लम्बे कालखण्ड ने दोनों संस्कृतियों के बीच संबंध प्रगाढ़ किये हैं। वर्तमान राजनैतिक वर्चस्व की होड़ संभवतः उसी की प्रतिक्रिया है। शक्ति को शक्ति ही साधती है। अभी भी हम बौद्धिक रूप से चुके नहीं हैं। अपनी क्षमताओं का उपयोग कर हमें भी समकक्ष आना होगा और आँख से आँख मिलाकर बात करनी होगी, व्यापारिक क्षेत्र में भी, यदि आवश्यकता पड़ी तो सामरिक क्षेत्र में भी। संबंधों को राजनैतिक कटुता से हटाकर पुनः संस्कृति के आधार पर सिद्ध करना ही होगा।

व्यक्तिगत रूप से जितना सीखने को मिला, वह संभवतः पढ़कर सीख पाना संभव नहीं था। संस्कृतियाँ सोचने का ढंग बदल देती हैं। जब सब एक सा सोचते हैं तभी शक्ति का उद्भव होता है। भिन्न विचार श्रंखलायें या तो भ्रम फैलाती हैं या सीमित और दिशाहीन विकास करती हैं। यदि हमारे पास कोई एक ऐसा तत्व है जो सबको संगठित कर एक दिशा में प्रवृत्त कर सकता है तो वह है हमारी संस्कृति। बड़ी सोच के जो सूत्र हमारी संस्कृति में त्यक्त पड़े हैं, उनका आह्वान करना होगा। अपने पुरुषार्थ को पुनर्जाग्रत करना होगा। धन्यवाद उन्हें देना चाहिये जो हमें हमारी क्षमतायें सिद्ध करने के लिये उकसाते हैं। चीन का आभार, हम निश्चय ही स्वयं को सिद्ध करेंगे।


इति चीन यात्रा।

1.10.16

चीन यात्रा - १७

प्रकृति पुरुष का संग
व्यक्ति जब निश्चय कर लेता है कि उसे प्रकृति के साथ रहना है, समस्यायें स्वतः अपना समाधान ढूढ़ लाती हैं। प्रकृति की अवमानना या उस पर आधिपत्य के प्रयास अंततः विनाश के बीज बनते हैं। टाओ की प्रकृति से निकटस्थता का ऐसा ही एक सुन्दर उदाहरण है दूजिआनयान बाँध। चेन्दू सिचुआन राज्य में है और पर्वत की घाटी में होने के कारण यह क्षेत्र नदियों से प्लावित है। समस्या पहचानी सी है, वर्षा ऋतु में बाढ़ की। यदि बाढ़ से बचने के लिये नदियों से दूर रहा जाये तो अन्न उत्पादन और सूखे की समस्या। बाढ़ और सूखे की इस दुविधा से अपना देश भी दग्ध है। समाधान बाँध बनाना है, जब प्रवाह अधिक हो तो उसे रोक लिया जाये और सूखे के समय उस संचित जलराशि का उपयोग किया जाये। प्रकृति को चोट पहुँचाने के अतिरिक्त बाँध राजनैतिक चोट भी करते रहते हैं। कावेरी, सिन्धु और ब्रह्मपुत्र पर बने या बनाये जाने बाँध इसके जीवन्त उदाहरण हैं। समाधान समस्या से भी भयावह तब हो जाता है जब प्रकृति अनियन्त्रित हो जाती है। अत्यधिक वर्षा में जब ये बाँध अपनी क्षमता से अधिक पानी एकत्र कर लेते हैं तो उनका खोलना और टूटना सिचिंत क्षेत्रों में जल प्रलय बन कर आता है। बिहार हर वर्ष उसका भुक्तभोगी है। कुछ क्षेत्र बाँधों का पूरा लाभ तो स्वयं उठा लेते हैं पर दुष्परिणाम अन्य क्षेत्रों को बढ़ा देते हैं।

परिसर का मानचित्र

संचयन शब्द टाओ की शब्दावली में नहीं है, अपरिग्रह या आवश्यकता से अधिक न रखना। प्रकृति प्रवाहमान रहे, बाधायें न्यूनतम हों, यह धारणा टाओ में गहरे बसी है। इसका एक उत्कृष्ट उदाहरण है दूजिआनयान बाँध। इसे बाँध के स्थान पर सिचाई तन्त्र कहना अधिक उपयुक्त होगा। २२०० वर्ष पूर्व चेन्दू क्वेंगश्वेंग पर्वत से निकलने वाली मिंजियांग नदी के कारण हर वर्ष आने वाली भीषण बाढ़ से त्रस्त था। स्थानीय अधिकारी ली बिंग ने अपने पुत्र के साथ मिलकर इसका हल ढूढ़ा। लम्बे अवलोकन, सटीक योजना और अथक परिश्रम के बाद सिचाई तन्त्र तैयार हुआ। सम्पन्न कार्य की उत्कृष्टता इस बात से समझी जा सकती है कि पिछले २२०० वर्षों से यह तन्त्र सुचारु रूप से चल रहा है। बाढ़ की समस्या को चेन्दू में फिर कभी नहीं आयी और सिचुआन के सभी ५० नगरों में सिचाई व्यवस्था पर्याप्त है। सूखे के समय में मिंजियांग नदी का ६० प्रतिशत से भी अधिक जल सिचाई तन्त्र में आता है और वर्षा के समय यह घट कर ४० प्रतिशत से भी कम रह जाता है। कहने का आशय यह है कि अधिकता के समय यह तन्त्र अवांछित जल वापस नदी में भेज देता है। इस तन्त्र में कहीं भी जल के प्रवाह को बाधित नहीं किया गया है, बस उसे अद्भुत विधि से नियन्त्रित किया गया है। वर्ष २००० में इसे यूनेस्को ने बाढ़ नियन्त्रण, सिचाई तन्त्र, जल परिवहन और जल उपयोग के सतत लाभों के कारण अपनी सूची में स्थान दिया है।

सर्वप्रथम तो मुझे इस तन्त्र के पीछे का विज्ञान समझ नहीं आया क्योंकि इसके लिये हाइड्रोलॉजी का अध्ययन आवश्यक है। अपने साथ गये सिविल इन्जीनियरों से पूछने पर सन्तोषप्रद उत्तर नहीं मिले, संभवतः रेल की पटरियों के लौह ने जलविमर्श के विषयों को उनसे दूर कर दिया हो। वापस आने के बाद उसे कई दिनों तक समझा तब थोड़ा बहुत समझ में आया। जल के जटिल प्रवाह से शाश्वत लाभ ले पाना निश्चय ही एक प्रशंसनीय उपलब्धि है और उसके लिये प्राचीन चीन के नियन्ता साधुवाद के पात्र हैं।

समझने का लिये मॉडल
यह तन्त्र बनाने के लिये जिस स्थान को चुना गया है, वहाँ पर यह नदी दायीं ओर मुड़ती है। मुख्य प्रवाह के बायीं ओर एक उपधारा निकाली गयी है। उपधारा मुख्यधारा की तुलना में अधिक गहरी, पतली और लम्बी है। यह उपधारा आगे जाकर पुनः मुख्यधारा में मिल जाती है। बीच का भूमिखण्ड एक मछली का आकार बनाता है। इस मछली के तीन भाग हैं, मुँह, पिछले पंख का ऊपरी हिस्सा और पिछले पंख का निचला हिस्सा। मुँह के हिस्से को सप्रयास तिकोना और कठोर रखा जाता है। यह अत्यन्त महत्वपूर्ण भाग है क्योंकि यहीं से ही मुख्यधारा और उपधारा में जल का बँटवारा होता है। जब नदी में जल कम होता है तो उपधारा की गहराई अधिक होने के कारण उसमें अधिक जल जाता है। नदी की दिशा से उपधारा की दिशा तनिक बायें होने के कारण उसमें पत्थर और मिट्टी कम जाती है। जहाँ पर उपधारा मुख्यधारा से पुनः मिलती है, वहाँ पर धीरे धीरे नदी से उपधारा में बहकर आये पत्थर और मिट्टी जमा होता रहती है, इस कारण एक अस्थायी अवरोध बन जाता है। इस अवरोध के कारण मुख्यधारा में जाने वाले पानी की मात्रा कम हो जाती है। सारे पानी को उपधारा के बायीं ओर लम्बवत बनायी सिचाई नहर से प्रवाहित कर दिया जाता है। उपधारा के लम्बवत होने के कारण उस पर पत्थर और मिट्टी एकत्र नहीं होती है। इस व्यवस्था से गर्मी के समय लगभग ६० प्रतिशत जल सिचाई के लिये बनायी नहर में चला जाता है। 

मछली का मुख
जब वर्षा आती है तो मछली की पूँछ पर बने अस्थायी अवरोध बह जाते हैं। साथ ही सिंचाई नहर को जाने वाले मुँख की ऊँचाई भी बढ़ा दी जाती है। इसके लिये बड़े गोल पत्थरों को बाँस की रस्सी से लपेटकर लम्बी और बेलनाकार आकार बनाये जाते हैं और उन्हें रस्सियों के माध्यम से एक के ऊपर एक रखा जाता है। अपने आकार के कारण ये अस्थायी और पोरस दीवार की तरह कार्य करती है और तब सिचाई नहर में जाने वाले जल की मात्रा कम हो जाती है। मुख्यधारा और उपधारा दोनों ही शेष जल को बहा ले जाती हैं। इस व्यवस्था से वर्षा के समय ४० प्रतिशत से भी कम जल सिंचाई नहर में जाता है। साथ ही साथ पत्थर और मिट्टी भी सिचाई नहर में नहीं जा पाते हैं और सिंचित जलक्षेत्र बाढ़ के विभीषिका से मुक्त रहता है। इस व्यवस्था के साथ ही जल प्रवाह के प्रबंधन की अन्य कई उपव्यवस्थायें हैं और उसी के बल पर यह तन्त्र पिछले २२०० वर्षों से यथावत चल रहा है। इस पर कोई भी बड़ा निर्माण नहीं है और जिस प्राकृतिक विधि से जल और मिट्टी का पृथकीकरण किया गया है, आज के समय में वह स्वाभाविक व सरल लग सकती है पर उस समय के लिये यह निसंदेह एक अद्भुत उपलब्धि रही होगी।

मछली की पूँछ
जहाँ पर नदी, पर्वत, पेड़ और बादल एक साथ एकत्र हो जायें, प्रकृति अपने मद में रत हो जाती है। हम जब वहाँ पहुँचे, पानी बरस रहा था, हम लोग छाते निकाल कर चल रहे थे और प्रकृति के सुन्दर स्वरूप को निहारे जा रहे थे। यह दृश्य देखकर, दिन के प्रथम भाग में क्वेंगश्वेंग पर्वत के भ्रमण के पश्चात श्रान्त हुये तन में चेतना का पुनर्संचार हो गया। लगभग चार घंटे हम वहाँ घूमे, आनन्द आ गया। वहाँ के स्थानीय पर्यटकों के लिये यह अत्यन्त भ्रमणीय स्थल है, सब के सब अपने परिवारों के साथ यहाँ उपस्थित थे। निश्चिन्त समय बिताने के लिये यह उपयुक्त स्थान है, कहीं भी बैठ जायें और प्रकृति को निहारते रहें। युगल भी पर्याप्त संख्या में वहाँ थे, यहाँ से अधिक आकर्षक वातावरण उन्हें और कहाँ मिलेगा भला।

२०० वर्ष पुराना बोन्साई
इस स्थान को एक सांस्कृतिक स्थान के रूप में भी विकसित किया गया है। यहाँ पर कई मंदिर देखे, उसमें गये भी, पर जल के प्रवाह का प्रश्न जो मन में कुलबुला रहा था उस कारण किसी और तथ्य पर ध्यान नहीं दे पाया। २२०० वर्षों के इतिहास को वहाँ पर सजा कर रखा गया है। विस्तृत क्षेत्र में फैले १५-२० ऐसे मंदिर भवन हैं जहाँ पर घूमने जाया जा सकता है। पहाड़ों के ऊपर नदियों पर दृष्टि करते हुये कई भवन बने हुये थे। हम लोगों की बहुत इच्छा थी कि वहाँ चला जाये पर पूरा घूमने के लिये २-३ दिन और चाहिये थे। वहाँ जाने के बाद ही हम नीचे बहती उन्मुक्त नदी के प्रवाह का आलौकिक रूप देख सकते हैं।  यहाँ पर सब प्रकृतिमय लगता है, ज्ञान, विज्ञान, समाज और परिवेश। व्यक्ति को यहाँ पहुँचकर अपने मूल का आभास हो आता है। प्रकृति-पुरुष का संतुलन और प्रकृति का निश्चिन्त प्रवाह, यहाँ के हर दृश्य में व्यक्त है।


अगले ब्लॉग में चीन के बारे में शेष बातें।

24.9.16

चीन यात्रा - १६

टेराकोटा सेना
दिन एक था और विकल्प ढेरों। बहस इस बात पर चली कि छुट्टी के दिन कहाँ चला जाये? बहुतों की इच्छा जियान स्थित टेराकोटा सेना देखने की थी। दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व के एक राजा ने अपनी मृत्यु के बाद अपनी रक्षा के लिये मिट्टी की सेना बनवायी थी। ८००० सैनिक, १३० रथ, ५२० घोड़े और १५० घुड़सवारों से सज्ज यह स्थान पिछले वर्ष भारतीय प्रधानमंत्री की चीन यात्रा के समय चर्चा में आया था। चेन्दू और जियान के बीच कोई बुलेट ट्रेन नहीं चलती है। अन्य ट्रेन से जाने में समय सीमा का उल्लंघन हो रहा था और हवाई यात्रा में धन बहुत अधिक लग रहा था। अन्य व्यवस्थाओं को जोड़कर पूरी यात्रा में लगभग बीस हजार रुपये का व्यय आ रहा था। इसके अतिरिक्त वहाँ पर भी पूरा समय दौड़भाग में ही बीतना था। एक तिहाई समूह फिर भी उत्साहित था पर सबका साथ नहीं होने और अन्य विकल्प होने के कारण आग्रह छोड़ दिया गया।

लेशान के बुद्ध
दूसरा विकल्प लेशान के बुद्ध का था। तीन नदियों के संगम किनारे एक खड़ी चट्टान पर ७१ मीटर की बुद्ध प्रतिमा उनके मैत्रेय रूप को दर्शाती है। आना और जाना बुलेट ट्रेन से था। यात्रा पूरे एक दिन की थी। बताया गया कि मूर्ति के नीचे से ऊपर तक जाने में बहुत घूमकर जाना पड़ता है। मूर्ति अत्यन्त सुन्दर है, पर औद्योगिक प्रदूषण और सरकार की उपेक्षा के कारण अच्छी स्थिति में नहीं है। तीसरा विकल्प लांगकुआन झील का था। यह चेन्दू से ३८ किमी दूर है और बहुत बड़े क्षेत्र में फैली है। इसके बीच में कई टापू हैं और इसका प्राकृतिक सौन्दर्य मन मोह लेता है। यहाँ पर भी पूरा दिन लग जाता है। चौथा विकल्प दो स्थानों का था, दिन के प्रथम भाग में क्वेंगश्वेंग पर्वत और दूसरे भाग में दूजिआनयान बाँध को देखने का। दोनों ही चेन्दू के पास ही हैं और सुबह शीघ्र प्रारम्भ करके सायं तक देखे जा सकते थे। दो स्थानों का लोभ अन्य तीन विकल्पों से अधिक उपयोगी लगा, पर यदि समय मिलता तो मैं सारे स्थान देखता। इसके लिये आपके पास ४ अतिरिक्त दिन होने चाहिये।

लांगकुआन झील
हम लोग सुबह ही निकल गये। क्वेंगश्वेंग पर्वत चेन्दू से ६६ किमी है और दूजिआनयान बाँध वहाँ से १५ किमी है। हम बस से गये, हमारी गाइड का नाम जॉय हान था, उसने क्वेंगश्वेंग पर्वत पहुँचने तक के समय में चीन के कई महत्वपूर्ण तथ्य बतलाये। अंग्रेजी का उच्चारण कठिनता से होने के बाद भी संवाद स्पष्ट था। पानी बरस रहा था और वातावरण सुहावना था, हम लोग कब वहाँ पहुँच गये पता ही नहीं लगा। बीच में खेतों और मानव निर्मित जंगल की कतारें थीं, एक इंच भूमि भी रिक्त नहीं थी। हमारे देश में खेतों के बीच की मेड़ों में ही इतना स्थान छोड़ दिया जाता है कि जिसमें किसी छोटे देश के लिये अन्न की व्यवस्था हो जाये।

सहज प्राकृतिक सौन्दर्य
क्वेंगश्वेंग पर्वत टाओ का प्रमुख केन्द्र है, उसका उद्भव स्थान है। यहाँ पर कई बौद्ध स्थल भी हैं। पर्वत के दो भाग हैं, सामने का और पीछे का। सामने का भाग सांस्कृतिक और प्राकृतिक दृष्टि से घूमने योग्य है, हम लोग वहीं पर ही गये। पीछे का भाग पूर्णतया मनोरंजन और प्रकृतिप्रेमियों के लिये है, समयाभाव के कारण हम वहाँ नहीं जा पाये। चोटी तक पहुँचने के लिये हमने परिवहन के सारे संभावित साधनों का प्रयोग किया। बस से वहाँ पहुँचने के बाद हमें इलेक्ट्रिक कार से अन्दर तक ले जाया गया। वहाँ से हम सीढ़ियों से पहाड़ों पर चढ़े। वहाँ से एक नाव से आगे के स्थान पर पहुँचे और अन्त में रोपवे के माध्यम से ऊपर तक गये। पुनः पैदल चल कर टाओ के मंदिर पहुँच सके। इस प्रकार की व्यवस्था में पर्वत का मौलिक स्वरूप और वन को संरक्षित रखा गया है। बीच में शांगक्विंग महल है, ऊपर शैंक्विंग मंदिर है, मार्ग के चारो ओर घना जंगल और बीच बीच में विश्राम करने के सुविधाजनक स्थान। पहाड़ों पर चढ़ाई के समय दृश्यों के आनन्द ने हमारी थकान को दूर रखा।

झील के सम्मुख
पर्वत के नीचे समतल भाग में पुष्पों और पौधों को सौन्दर्यपूर्ण ढंग से व्यवस्थित किया गया है। प्रकृति स्वयं में ही बहुत सुन्दर होती है, उसे यदि उत्कृष्ट मानवीय संयोजन मिल जाये तो वह स्वयं प्रसन्न हो जाती है और अपने प्रभावक्षेत्र में आने वाले हर जीवजन्तु और मानव को अह्लाद से भर देती है। प्रकृति के बीच आकर लगता है कि अपने ही घर आ गये हैं। सदियों बाद जब मानव औद्योगिकीकरण का निष्पक्ष विश्लेषण करने बैठेगा तो प्रकृति की घनघोर उपेक्षा और कृत्रिमता का आलिंगन उसे अंदर तक कचोटेगा। अनियन्त्रित जंगल में भी एक लय है और तथाकथित नियन्त्रित कांक्रीट के आकार रुक्षता भरे दिखते हैं। प्रत्यक्ष को प्रमाण माना जाय तो इस यात्रा के अपने चित्रों को मैं स्वयं ही पहचान नहीं पाया। स्वयं का इतना प्रसन्न और आनन्दमय कहीं नहीं पाया था, तनावमुक्त और संतुष्ट।

उत्साही समूह
पहाड़ पर चढ़ाई प्रारम्भ करने के पहले एक बड़ा ही उत्साही समूह मिला, पर्यटन में आकण्ठ आनन्दमग्न, संभवतः प्रकृति ने उनके परिवार में एक ऊर्जा भर दी हो। उनके उत्साह और ऊर्जा ने हमें भी प्रभावित किया। सीढ़ियों पर चढ़ते समय हम लोग हिन्दी साहित्य के कवियों की रचनाओं का सस्वर पाठ कर रहे थे, जिसको जो भी याद था। आस पास से निकलने वालों को आश्चर्य भी हो रहा था और अच्छा भी लग रहा था। आश्चर्य तो हम सबको भी हो रहा था क्योंकि इस प्रकार का प्रस्फुटन सामान्य परिस्थितियों में होना संभव नहीं है। पहली बार यह भी ज्ञात हुआ कि हम सबको अभी तक कितना कुछ याद है। कामायनी, उर्वशी, रश्मिरथी, शिवस्त्रोत, हिमाद्रि तुंग श्रृंग से और न जाने क्या क्या। प्रकृति यहाँ एकान्त बैठ निज रूप सँवारति, पल पल पलटति भेष, छनिक छवि छनि छनि धारति। निराला, दिनकर, प्रसाद अपनी अपनी छायाओं से बाहर आ गये थे। अपने मित्रों का साहित्यिक पक्ष जानकर सुखद आश्चर्य हुआ और सीढ़ियाँ कब पार हो गयीं, पता ही नहीं चला।

बीच रास्ते में एक मनोरंजक दृश्य दिखा। किसी बात को लेकर एक पत्नी अपने पति को जी भर के हड़का रही थी। कारण तो समझ में नहीं आया पर पति चुपचाप खड़ा सुन रहा था, एक हाथ में झोला पकड़े, दूसरे में बच्चे को। यह समझ नहीं आ रहा था कि किस बात पर डाँट पड़ रही है,  पर जिस तरह से पति खड़ा निर्विकार भाव से सब सह रहा था, उससे तो वह सिद्धपुरुष सा दिख रहा था। कृष्ण की अर्जुन को सहन करने की सलाह “तांस्तितिक्षस्व भारत” या टाओ का अकर्म “वू वाई”, इन दोनों में से किसी एक तत्व का ज्ञाता होगा वह पति, भारतीय पतियों की तरह ही।

यिन यांग
टाओ दर्शन सिद्धान्त की दृष्टि से अत्यन्त ही सहज है, इसकी व्यापकता व्यवहार में है। आपको हर क्षेत्र में टाओ को अपनाना होता है तब आप वह हो जाते हो। भारतीयों के लिये यह समझना कठिन नहीं है क्योंकि टाओ के हर सिद्धान्त या व्यवहार के लिये आप गीता, उपनिषद, रामचरितमानस आदि ग्रन्थों से पाँच उद्धरण सामने रख देंगे। कम शब्दों में कहें तो सरलता, सत्यता और प्रकृतिलयता से टाओ परिभाषित होता है। टाओ के प्रमुख तीन सिद्धान्त हैं। पहला सिद्धान्त है एकात्मता का, ब्रह्मन् जैसा, सब आपस में संबद्ध। दूसरा सिद्धान्त है यिन यांग का, विपरीतों में संतुलन, द्वन्द्व जैसा। तीसरा सिद्धान्त है वू वाई का, अकर्मता का, प्रकृति की लय को न छेड़ने का, पानी की तरह बह जाने का, व्यवहार का सहज मार्ग विकसित करने का। इन सिद्धान्तों को गहराई से समझें तो टाओ और बौद्ध में अन्तर करना कठिन हो जाता है। 

टाओ
वू वाई के सिद्धान्त पर जब एक साधक से पूछा कि आप फिर भी इतने कर्मशील क्यों हो, इतने श्रमशील क्यों हों, किसके लिये इतने उपक्रम विकसित कर रहे हो? उत्तर सुनकर हृदय अंदर तक तृप्त हो गया। साधक ने बताया कि मैं अपने कर्म को औरों की सेवा के रूप में देखता हूँ, जुड़ता भी हूँ, संतुलन भी रहता है और अकर्मता का भी बोध होता है, “कर्मण्येवाधिकारस्ते”। मन में विचार आया कि कहीं कृष्ण महाराज एक आधा अध्याय इनको भी तो नहीं सिखा गये, जाने के पहले। इस यात्रा के बाद तन श्रान्त था, मन शान्त था, आत्मा प्रफुल्लित थी, अस्तित्व संतुष्ट था।


अगले ब्ल़ॉग में दूजिआनयान बाँध के बारे में।

21.9.16

चीन यात्रा - १५

चाय हाउस
पीपुल्स पार्क नाम के अनुरूप सबके लिये बनाया गया है, यहाँ पर प्रत्येक के लिये कुछ न कुछ है। आप पैडल नौका में घंटों घूमिये, टी हाउस में चाय पीजिये, पेड़ की छाया में बैठिये, अखबार या पुस्तक पढ़िये, ओपेरा या नाटक देखिये, बैंड के सम्मुख संगीत सुनिये, उनके साथ गुनगुनाइये, धुनों पर थिरकिये, गाना चाहें तो गाना गाइये, वृद्धों के साथ धीमा और सामूहिक नृत्य कीजिये, उछलिये, कूदिये, चांग खेलिये, मित्रों के साथ ताश खेलिये, कहीं कोने में बैठकर शतरंज के मोहरों की चाल समझिये, मन करे तो बाँसुरी बजाइये, हरी घास और पौधों को निहारिये। बच्चों के लिये झूले, युवाओं के लिये प्रकृति और एकांत, साधकों के लिये एकाग्रता और वृद्धों के लिये अपने जैसों का संग, सबके लिये बना है पीपुल्स पार्क।

सामूहिक नृत्य
अच्छे सामाजिक जीवन के लिये यह आवश्यक है कि हम ऐसे स्थानों का निर्माण करें जहाँ लोग मिल जुल सकें, विचारों और भावों का आदान प्रदान कर सकें। यदि हम नहीं बनायेंगे तो मानव मन की उत्कट सामाजिकता कोई न कोई मार्ग ढूढ़ निकालती है, कभी सहज, कभी असहज। समुचित दिशा न दिखायी गयी तो सामाजिकता की यही प्यास घातक भी हो जाती है। भले ही चीन में स्वयं को व्यक्त करने की लोकतान्त्रिक स्वतन्त्रता न हो पर सामाजिक स्थानों को बहुत ही सुन्दर ढंग से विकसित कर जीवन का सामाजिक पक्ष सुदृढ़ रखा गया है। भारत में मंदिर ऐसे ही स्थान होते थे, गाँवों की पंचायत, त्योहार, मेले और अब मॉल। चीन में मंदिर नहीं हैं, मेले और त्योहार भी गिने चुने एक दो ही हैं, मॉल भी नगरों तक ही सीमित हैं अतः सामाजिकता का पूरा दायित्व पार्कों के ऊपर ही है। संस्कृति, मनोरंजन और वाणिज्य, ये तीनों पक्ष इन पार्कों में सम्मिलित रहते हैं।

ताइ ची अभ्यास
हम लोग बस से पीपुल्स पार्क पहुँचे और दक्षिण द्वार से अन्दर गये। सबसे पहले बच्चों के खेलने का स्थान था। एक चौतरफा घुमाने वाले झूले में कुछ बच्चे उत्साह से चीख रहे थे, कुछ भय से। नीचे खड़े अभिभावक हाथ भींचे मनोरंजन और कष्ट की सीमारेखा को लहराता हुये देख रहे थे। दृश्य बड़ा ही रोचक था, कभी हम अभिभावकों की बद्ध मनःस्थिति में रहते और कभी बच्चों की उन्मुक्त मनःस्थिति में। थोड़ा समय बिताकर हम आगे बढ़ गये। पार्क का अधिकांश भाग हरा भरा था, अन्दर एक झील थी, दो ऐतिहासिक स्मारक थे। एक स्मारक रेलवे को निजी कम्पनियों के हाथ में जाने से बचाने का था। १९११ में राजा द्वारा धन कमाने हेतु रेलवे को विदेशी कम्पनियों को बेच दिया गया था। उसके विरुद्ध उमड़े आन्दोलन के हुतात्माओं की याद में यह स्मारक खड़ा है। हम सायं के समय वहाँ पहुँचे थे, बहुत लोग टहल रहे थे, कई लोग पारम्परिक ध्यान मुद्राओं में एकाग्र थे, युवा अपनी आत्मीय बातचीत में तल्लीन थे। हम लोग चाह रहे थे कि उस दिन कोई और स्थान भी देख लिया जाये पर जब पाया कि यहीं पर ही देखने के लिये कितना कुछ था तो अपना मन बदल दिया और पीपुल्स पार्क में ही सारा समय बिताकर रात को ही वापस आये। आनन्द पूर्ण आया, हम लोगों की तरह ही स्थानीय निवासी अपने दैनिक कार्यक्रम से पर्याप्त समय निकाल कर यहाँ आते होंगे। यह स्थान छूकर आने वाले स्थानों में से नहीं है, यहाँ का आनन्द यहाँ बिताये समय पर निर्भर करता है।

जिनली का द्वार
वू हाउ मंदिर और जिनली रोड आसपास हैं। जिनली रोड एक बहुत पुराना व्यापारिक केन्द्र है। वू हाउ मंदिर के पूर्व में स्थित यह रोड २०० वर्ष ई पूर्व में भी इतनी ही व्यस्त रहती थी। वू हाउ मंदिर में उस कालखण्ड के स्मृतिचिन्ह रखे हुये हैं। उसी कालखण्ड में जिनली रोड कपड़े के व्यापार के लिये प्रसिद्ध रही है। बाहर एक बड़ा सा द्वार है और अन्दर सड़क के दोनों ओर पारम्परिक भवन, खानपान, कपड़े, हस्तकारी, चाय और मसालों आदि की दुकानें। पीपुल्स पार्क और चुन्क्सी रोड की तुलना में यहाँ पर चहल पहल कहीं अधिक थी। हम लोग कपड़ों की दुकान में गये, एक विशेष प्रकार के रेशम का मूल्य देखकर दंग रह गये। एक महिला अत्यन्त सुमधुर वाद्ययन्त्र बजा रही थी, हमने फोटो लेनी चाही तो उसने शालीनता से मना कर दिया। खानपान के स्टालों के पास भी हम खड़े नहीं हो पाये, पशु बसा में पकाये गये पकवानों की गन्ध वितृष्णा उत्पन्न कर रही थी। 

भित्ति कमल
दीवारों और द्वारों पर बने भित्तिचित्र और आकार बड़े ही रुचिकर थे। एक दुकान में विशेष प्रकार का धनुषबाण देखा। उसका छोटा प्रतिरूप लेकर आने की इच्छा थी, पर भार अधिक होने के कारण और कस्टम द्वारा पारित न करने की संभावना के कारण उसका विचार त्याग दिया गया।  यहाँ की हस्तकारी अन्य स्थानों की तुलना में अच्छी और विविधता भरी थी, पर मोल भाव तनिक भी न था। हमारे समूह का एक भाग दुकानों की विविधता में ही व्यस्त हो गया, हम उसे छोड़कर जिनली रोड के अन्य पक्ष देखने आगे बढ़ गये। हमें एक तिब्बती दुकान भी मिली, वहाँ पर बड़ा अपनत्व लगा। उस युवा ने न केवल बड़े उराव से वस्तुओं को दिखाया वरन उनके मूल्य भी कम कर दिये। उसी परिसर में स्थित वू हाउ मंदिर झूग लियांग को समर्पित है, जिन्हें बुद्धिमत्ता और अच्छी राजनीति का प्रतीक माना जाता है। मंदिर सुन्दर है पर रात में बन्द हो जाने के कारण हम उसे देख नहीं पाये। जिनली रोड से बाहर आने के पहले वहाँ की छतों में रंगबिरंगी लालटेनों से सारा परिवेश जगमगा उठा था। इसी जगमग को निहारने में हमें बाहर निकलने में देर भी हो गयी।

लटकी लालटेनें
जो आनन्द और संतोष अन्य जनस्थानों पर मिला, वह बात यहाँ नहीं मिल पायी। संभवतः अधिक भीड़ और कम क्षेत्रफल के कारण यह क्षेत्र वह प्रभाव उत्पन्न नहीं कर पाया। वातावरण आधुनिक मॉलों जैसा था। जो शान्ति और शालीनता एक मंदिर परिसर में होनी चाहिये उसका सर्वथा आभाव इस स्थान पर मिला। यहाँ सौम्यता की तुलना में व्यवसायिकता कहीं अधिक थी, पर हमारे आनन्द में कोई कमी नहीं रही। जिनली रोड के बाहर भी मुख्य सड़क के दोनों ओर कई दुकानें थी जिनमें पर्यटक व्यस्त दिखे। हम लोग वापस आने के दो दिन पहले ही वहाँ गये थे अतः सब लोगों में घर के लिये कुछ न कुछ खरीद लेने की व्यग्रता थी। खरीददारी के लिये जिनली रोड और उसके आसपास का क्षेत्र बड़ा उपयोगी सिद्ध हुआ।


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14.9.16

चीन यात्रा - १४

यदि चेन्दू को अंतरिक्ष से देखा जाये तो एक ओर पर्वतमालायें, समतल पर नदियों का नीला जाल और हरे रंग से आच्छादित शेष धरती। पश्चिमी चीन का महत्वपूर्ण नगर चेन्दू सदा से ही प्रचुरता का स्थान माना गया है, व्यापारिक गतिविधियों का स्वाभाविक केन्द्र। कहते हैं कि कागज के नोटों का प्रचलन यहीं से प्रारम्भ हुआ था। चाय, मसाले और खाद्यान्न की प्रचुर उपलब्धता और सम वातावरण के कारण यहाँ पर लोग बसते रहे। संस्कृति, विज्ञान और इतिहास के कई अध्यायों से पटे इस नगर में पर्यटकों को देखने के लिये बहुत कुछ है। 

विज्ञान संग्रहालय के सम्मुख देवी प्रतिमा
जूते पहने श्वान
टियान्फू चौक और चुन्क्सी रोड, दोनों ही आसपास हैं और एक साथ ही देखे जा सकते हैं। टियान्फू चौक आधुनिक नगर का केन्द्र है और चुन्क्सी रोड पुरातन काल से ही चेन्दू का वाणिज्यिक केन्द्र रहा है, सदियों से सारा व्यापार यहीं से ही संचालित होता रहा है। यद्यपि पुराने हाटों का स्थान नये और आधुनिक निर्माणों ने ले लिया है पर कुछ गलियों को उनके मौलिक स्वरूप में संरक्षित करके रखा गया है। आप देखकर कल्पना कर सकते हैं कि किस प्रकार क्रय विक्रय योग्य वस्तुओं का यहाँ जमावड़ा लगता होगा, भीड़ और उत्सुकता भरी चहल पहल बनी रहती होगी। वर्तमान में भी कुछ नहीं बदला है। सायं होते होते लगता है कि सारा चेन्दू यहीं पर ही आ गया हो। हम लोग बस से वहाँ के लिये चले थे पर त्रुटिवश लगभग एक किमी पहले ही उतर गये। जहाँ पर उतरे थे वहाँ से पैदल चलने में स्टेडियम और विज्ञान संग्रहालय देखने को मिले। सर्वाधिक रोचक दृश्य चार जूते पहने एक छोटे कुत्ते का था। देखकर लग रहा था कि वह कष्ट में है, पर पता नहीं हम लोग जानवरों को मनुष्य की तरह ढालने में क्यों लगे रहते हैं।   

टियान्फू चौक
लिपटे ड्रैगन
कहते हैं कि जिस स्थान पर अभी टियान्फू चौक है वहाँ पर कभी राजमहल होता था। सांस्कृतिक विद्रोह के समय उसे ढहा दिया गया। राजशाही के सारे संकेत मिटाकर संस्कृति और आधुनिकता को एक साथ पिरोकर इस स्थान की परिकल्पना की गयी है। टियान्फू चौक नगर के मध्य में एक बहुत बड़ा समतल स्थान है और इसका क्षेत्रफल लगभग अठ्ठासी हजार वर्गमीटर है। इस परिसर में कोई ऊँचा निर्माण नहीं, बस कांक्रीट का सपाट समलत। इसके एक ओर विज्ञान संग्रहालय है जिसके सम्मुख विशाल झण्डे के साथ माओ की बड़ी प्रतिमा लगी है। अन्य दिशाओं में ऊँची अट्टालिकाओं में स्थित व्यापारिक प्रतिष्ठान हैं। वर्गाकार चौक के अन्दर एक वृत्ताकार आकृति है। यह टाओ का प्रतीक चिन्ह है, दो भागों में बराबर बटा, यिन और यांग, पुरुष और प्रकृति के प्रतिरूप, नर और नारी के प्रतीक। बस थोड़ा सा अन्तर केन्द्र का लघु वृत्त है जिसमें चीन के पुरातन संस्कृति के प्रतीक सुनहरे सूर्य पक्षी का प्रतिरूप लगाया गया है। यिन और यांग आकृतियों के केन्द्र में लिपटे ड्रैगन के आकार के दो फव्वारे लगे हैं। पूर्वी भाग एक तल नीचे है और इस खुले हुये भाग के चारों ओर दुकाने हैं। संस्कृति और आधुनिकता के सम्मिलित रूप का बड़े ही सुन्दर ढंग से समन्वय किया गया है। विशेषकर रात्रि में इस परिसर की शोभा और भी बढ़ जाती है, हर ओर जगमगाहट, खुला स्थान और मानवीय चहल पहल।

इस चौक के भूमिगत एक पूरा का पूरा बाजार बसा है, दो भूमिगत मेट्रो लाइनें यहीं पर आकर मिलती हैं। नगरीय सेवाओं की बसें परिसर के चारों ओर से मिल जाती हैं। किसी भरे पूरे पुराने बसे नगर के केन्द्र में, जहाँ भूमि की भाव सातवें आसमान पर होते हैं, इतना सपाट मैदान निकाल पाना अपने आप में उपलब्धि है। यहाँ से दो किमी की परिधि में चुन्क्सी रोड, पीपुल्स पार्क, विज्ञान, कला और ऐतिहासिक संग्रहालय, स्टेडियम, सिचुआन पुस्तकालय सहित कई परिसर स्थित हैं। सभी के सभी भवन भव्य हैं और स्थापत्य वैशिष्ट्य परिलक्षित करते हैं। यही कारण है कि यहाँ पर आने के बाद सब कुछ देखने में पूरा दिन निकाला जा सकता है। हम लोगों के पास समयाभाव था अतः हम लोग यहाँ से पैदल टहलते हुये चुन्क्सी रोड पहुँच गये।

चुन्कसी रोड
मन में तो कल्पना थी कि यह पुरानी दिल्ली की व्यस्त और भीड़ भरी गलियों के जैसी ही होगी। भूमिगत बाजार के मार्ग से होते हुये जैसे ही हम खुले भाग में पहुँचे, हमारी बद्ध कल्पना हमें छोड़कर जा चुकी थी और जो सामने था वह हमें आश्चर्यचकित करने के लिये पर्याप्त था। चुन्क्सी रोड एक चौड़ी सी सड़क है। इसका निर्माण चेन्दू के दो व्यापारिक केन्द्रों को जोड़ने के लिये १९२४ कराया गया था। इसका क्षेत्रफल लगभग दो लाख वर्गमीटर है। अपने चारों ओर यह अन्य वाणिज्यिक रोडों से जुड़ी हुयी है। इसके दोनों ओर दुकाने हैं जिसमें पारम्परिक वस्तुओं से लेकर अत्याधुनिक समान तक मिलता है, मोलभाव भी बहुत होता है। साथ ही चीन भर के खाने पीने की विविधता यहाँ देखने को मिल जाती है, हर तरह का खाद्य, ठेले से लेकर पाँच सितारा तक। चौड़ी सड़क होने के कारण यहाँ पर खरीददारी के अतिरिक्त और सामाजिक और सांस्कृतिक गतिविधियाँ चलती रहती हैं, बिना किसी व्यवधान के । लोग अपने परिवार के साथ बैठे बतियाते मिलेंगे, युवावर्ग अपने आधुनिकतम और न्यूनतम फैशन के परिधानों से आपको हतप्रभ कर देंगे। कुछ नहीं तो लोग सेल्फी खींचने में व्यस्त दिख जायेंगे। यहाँ पर आने का कोई न कोई कारण निकाला जा सकता है क्योंकि यहाँ पर कुछ न कुछ होता रहता है। आसपास भी घूमने के कई स्थान हैं और सायं होते होते सब लोग यहीं सिमट आते हैं। करने को कुछ नहीं भी हो तो बस समय बिताने भी यहाँ आया जा सकता है। पूरा परिदृश्य एक चलचित्र की तरह सामने घूमता सा दिखता है। 

ऐश्वर्यकृत बाथरूम
मित्रों ने बताया कि यहाँ पर हर बड़ी और मँहगी ब्राण्ड की वस्तुयें मिल जाती हैं। बड़े बड़े मॉल देखकर लगा कि विश्व का ऐश्वर्य इन्हीं दुकानों में आकर सिमट गया हो। ऐसे ही एक मँहगे मॉल (IFS) में एलेवेटर सीधे दूसरे खण्ड में ले गया। चमचमाती दुकानों के बीच में बना एक बाथरूम भी स्वर्ग से ही अवतरित लग रहा था। कुछ मित्रों को वह इतना अच्छा लगा कि उन्होंने वहाँ अपने चित्र भी खिंचवाये। वहाँ से जब बाहर निकले तब कहीं जाकर अपने विश्व में होने का बोध हुआ। अपने संबंधियों और मित्रों के लिये भेंट करने की कई वस्तुयें सबने बाहर आकर ही लीं। बाहर विज्ञापनों की बड़ी स्क्रीनें ही इतना प्रकाश उत्पन्न कर रही थीं कि चुन्क्सी रोड में दिन सा वातावरण लग रहा था।

चुन्क्सी रोड से अन्य वाणिज्यिक रोडों को जोड़ने वाली गलियों को पारम्परिक स्वरूप दिया गया है। पुरानी गलियों को संरक्षित कर शताब्दियों पहले क्या वातावरण रहता होगा, उसे दर्शाने की चेष्टा की है। यहाँ से दस मिनट की दूरी पर डाची का बौद्धमठ है। १६०० वर्ष पहले स्थापित यह मठ चीन का प्राचीनतम और विशालतम मठ है। यह बौद्ध संस्कृति का बड़ा संग्रहालय है। सायं को यह मठ बंद हो जाने के कारण हम लोग यहाँ जा नहीं पाये।


जिनली रोड और पीपुल्स पार्क अगले ब्लॉग में।