27.4.21

मित्र - २९(फिल्म और समग्रता)

आलोक बताते हैं कि उनके जीवन में फिल्म, संगीत और यात्रायें, ये तीन ही प्रमुख तत्व हैं। शेष सब या तो इनके बीच के रिक्त समय को भरने के लिये हैं या इनके लिये धन, साधन और संसाधन जुटाने के लिये हैं।

यह वक्तव्य आलोक के फिल्म अनुराग को सशक्तता और स्पष्टता से व्यक्त करता है। इस परिप्रेक्ष्य में छात्रावासीय जीवन में उनके फिल्म देखने हेतु किये गये एकनिष्ठ प्रयत्न उत्पात की श्रेणी में नहीं आयेंगे। जीवन उद्देश्य को निभाने का आग्रह तो सत्कर्मों की श्रेणी में आता है। हम कभी समझ ही न पाये कि जिस मित्र के साथ फिल्म देखकर हम अपने साहस और जीवटता जैसे गुणों का बखान कर रहे थे, वह तो छात्रावास की कहानी में चरित्र अभिनेताओं जैसा प्रदर्शन था। फिल्म देखने के पूरे प्रकरणों के मुख्य पात्र तो आलोक थे। हम ही नहीं वरन आचार्यजी भी उस समय नहीं सोच पाये होंगे कि मन में गहरे बसे जीवट भाव दण्डात्मक प्रावधानों से नहीं जाते हैं। देर से ही सही हम सबने यह तथ्य स्वीकार कर लिया है। यहाँ तक कि छात्रावास जीवन में आलोक के फिल्म प्रयत्नों के धुर विरोधी रहे आचार्यजी भी ने इसे मान दिया है और वर्तमान में आलोक के निमन्त्रण पर दो फिल्में भी देखी हैं।


आलोक सरल, बौद्धिक और अन्तर्मुखी व्यक्तित्व हैं। उनसे कुछ निकलवा पाने के लिये बहुत कुरेदना पड़ा है, पर जो पक्ष निकल कर आया है वह पठनीय और मननीय है। पाठकों की सुविधा के लिये मैं उसका भावार्थ कह देता हूँ।


फिल्में मेरा धर्म थीं, हैं और रहेंगी। सब यहीं छोड़कर, आज और अभी से कहीं दूर, कल्पना की उड़ानों में, रूमानी विश्व में, फिल्मों की प्रशान्त काव्यत्मकता में, बस डूब सा जाता हूँ। फिल्मों के नायक तो मुझे प्रिय हैं पर उससे से भी अधिक प्रिय है कहानियों के माध्यम से चारों ओर उभारे उनके चरित्र, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार अपनी पुरातन गाथाओं में कहानियाँ और चरित्र गुँथे हुये से हैं। मेरे लिये यह समझना बहुत ही कठिन था कि एक ओर मैं ऐतिहासिक पात्रों को तो चाहूँ पर फिल्मों के पात्रों से घृणा करूँ। वह भी मात्र उनमें निहित कामुकता, विमोहन, पुरुषत्व या वीरता के कारण? मेरे लिये पुरुरवा की उर्वशी भी उतनी ही विमोहक है जितनी मास्टरजी की श्रीदेवी, कामायनी का मनु उतना ही पुरुषत्व धरे है जितना गुलामी का मिथुन।


कहानी कहानी है, कथानक कथानक है। किसी भी शैलीविशेष की फिल्म में आरोह और अन्त की रोचकता एक सी ही होती है। तब हमसे यह क्यों कहा जाता है कि इस शैली की फिल्म देखो और उस तरह की नहीं? कहें तो इस प्रकार भेद के लिये प्रेरित करना अपने आप में एक भेदपूर्ण व्यवहार है। यह अन्यथा प्रयास एक युवा मन को अच्छी कहानी, उसकी प्रस्तुति आदि जैसे तत्वों को समझ पाने से वंचित कर देता है। साड़ी, सूट, सलवार या स्कर्ट, कौन क्या पहने है उस आधार पर भेदपूर्ण आक्षेप लगाना सुन्दरता में दोष देखने जैसा है।


मेरे जीवन में फिल्म, संगीत और यात्रायें, ये तीन ही प्रमुख तत्व हैं। शेष सब या तो इनके बीच के रिक्त समय को भरने के लिये हैं या इनके लिये धन, साधन और संसाधन जुटाने के लिये हैं।


मुझे इस बात का गर्व है कि विद्यालय और मेरे अभिभावकों ने मुझे एक दृढ़ इच्छाशक्ति वाले व्यक्ति के रूप में विकसित किया है। मुझे इस बात से कोई अन्तर नहीं पड़ता है कि कोई मेरे कार्यक्षेत्र या प्राथमिकताओं के बारे में क्या सोचता है? इनके साथ फिल्मों ने भी मुझे बहुत कुछ सिखाया है।


अहा…यह मेरे विचार थे। कुरेदने के लिये आभार


अत्यन्त सशक्त अभिव्यक्ति, आलोक को शेष छात्रावासियों से अलग पंक्ति में खड़ा करती हुयी, अभिनवगुप्त के रस सिद्धान्त को विशिष्ट प्रायोगिकता देती हुयी। फिल्मों को लेकर छात्रावास में विद्रोह स्वरूप से लेकर मोह स्वरूप तक की इन्द्रधनुषीय प्रवृत्तियाँ व्याप्त थीं। वहीं दूसरी ओर आचार्यों के मनस्थलों में फिल्मों के संबंध में अनुशासनीय दृढ़ता से लेकर चारित्रिक शिथिलता की धारणायें बनी हुयी थीं। इन्हीं दोनों विमाओं में उत्पात और दण्ड के न जाने कितने चक्र चले थे और संभवतः अभी भी चल रहे होंगे।


यह एक अनवरत कथा है, सबके अपने सामयिक और तात्कालिक पक्ष हैं। निष्कर्ष निकाल कर कथा के आनन्द में व्यवधान लाने का न कोई विचार है और न ही कोई शीघ्रता। अगले ब्लाग में अन्य रणक्षेत्रों पर संघर्ष की स्मृतियाँ।

24.4.21

मित्र - २८(फिल्म और विधा)

फिल्मों के प्रति सबका ही अपना अलग दृष्टिकोण है। मेरा दृष्टिकोण क्या था या क्या बना, कभी इस बारे में व्यवस्थित और गहरे सोचा नहीं। कहें कि जीवन की आपाधापी में इस बारे में कभी अवसर ही नहीं मिला। मनोरंजन के साधन के रूप में फिल्में लुभाती रहीं। अभिव्यक्ति की एक विधा के रूप में फिल्में प्रेरित भी करती रहीं। जिस प्रकार अन्य विधाओं में सृजनात्मकता और रसात्मकता का आस्वादन मिलता है, उसी प्रकार फिल्में भी बनी रहीं। 

छात्रावासीय जीवन में फिल्मों की सान्ध्रता के बाद फिल्में जीवन से अनुपस्थित सी हो गयीं। पढ़ाई के प्रति अधिक समय देना हो या प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करनी हो, प्राथमिकतायें जीवन पर अपना अधिकार जताती गयीं। ऐसा नहीं था कि फिल्मों से पूर्णतया सन्यास ले लिया हो पर बहुत कम फिल्में या कहें कि जो चर्चित रहीं, बस वही देखीं और वह भी बहुत जाँच पड़ताल के बाद।


जब जीवन संघर्ष कर रहा होता है तो सृजनात्मकता और रसात्मकता छिप सी जाती है। रस पाने की चाह और रस को उत्पन्न कर सके, ऐसे सृजन को करने की चाह तो उसी समय संभव है जब आपका जीवन एक स्थैर्य प्राप्त कर चुका हो। वर्तमान सेवा और विवाह के प्रारम्भिक वर्षों के बाद ही वह स्थायित्व मिला जब एकान्त बैठकर अभिनवगुप्त की रससंचरणता को समझा जा सके।


बचपन में रामलीला, घर में पिताजी द्वारा रामचरितमानस का पाठ और उससे संबंधित कथाओं का विवरण, विद्यालय में संस्कृति का कहानियों के रूप में प्रस्तुतीकरण, गाँव में पूर्वजों और संबंधियों की कहानियाँ, यही सब मनोरंजन और संस्कार के साधन रहे। लगभग यही सब रात में सोते समय भी सुनाया जाता था। टीवी उस समय तक अधिक व्यवहार में नहीं था। नगर में प्रदेश सरकार के चलचित्र निगम द्वारा संचलित एक सिनेमाहाल होता था जिसमें कुछ विशेष फिल्मों के लिये ही अनुमति थी।


कहानियों से लगाव गहरा था। घर में श्रीमदभागवतम् के दो खण्डों वाला हिन्दी अनुवाद पढ़ डाला था, विशेषकर वह भाग जिसमें कोई कथा होती थी। चाचा के जासूसी हिन्दी उपन्यासों में कदाचित ही कोई छूटा होगा। कोई भी देशी पत्रिका हो, सोवियत पत्रिका हो, कहानी से संबंधित सभी भाग पढ़ डाले गये। छात्रावास में इन्हीं छूटी कहानियों को फिल्मों में ढूढ़ लेने की उत्कण्ठा ही फिल्मों के प्रति आकर्षित करती थी।


फिल्मों की अन्य विधाओं से तुलना में अभिव्यक्ति के दो तत्व महत्वपूर्ण हैं। पहला यह कि फिल्मों में अभिव्यक्ति का विस्तार बहुत होता है। दृश्य और श्रव्य माध्यमों के बहुत पक्ष फिल्मों में उपस्थित रहते हैं। जिस स्थान का वर्णन पुस्तक में दो या तीन अनुच्छेदों में होता है, वह फिल्म में एक ही दृश्य में संप्रेषित हो जाता है। जिस पात्र का चरित्र निर्माण करने में पुस्तक में तीन या चार घटनायें लगती हैं, फिल्मों में भंगिमाओं और भावों से वही कुछ क्षणों में हो जाता है। इस प्रकार फिल्मों का प्रभाव क्षेत्र अति व्यापक है। 


वहीं दूसरी ओर फिल्मों में प्राथमिक अनुभव से दूरी बढ़ जाती है। इसकी प्रत्यक्ष तुलना उन फिल्मों को देखकर की जा सकती है जो किसी पुस्तक पर आधारित रहती हैं। कई बार यह हुआ है कि पुस्तक उस पर बनी फिल्म से कहीं अच्छी लगी। रससंचरण में यह दूरी उसकी सान्ध्रता को उत्तरोत्तर क्षीण कर देती है। जब फिल्म में कई दृश्य एक साथ चल रहे हों, कई संदेश एक साथ देने का प्रयास हो तो स्वाभाविक है कि सब पर उतना ध्यान नहीं जा पायेगा। कुछ पक्षों में कार्य अच्छा होगा और वह उत्कृष्ट लगेंगे, वहीं कुछ पक्ष अपनी संप्रेषणता खो भी देंगे।


ये सारे विश्लेषण रोचक होने पर भी फिल्मों का कथा पक्ष अभी भी अत्यन्त सुहाता है। उस पर भी यदि गीतों के बोल मधुर हों तो आनन्द और बढ़ जाता है। फिल्म की सफलता मेरे लिये इस बात पर बहुत निर्भर करती है कि कथा को किस तरह से प्रस्तुत किया गया है। अभिव्यक्ति के आरोह, चरित्रों का निर्माण और घटनाओं का भावनात्मक संस्पर्श एक सुदृढ़ कथा को और भी रोचक बना देते हैं।


नेटफिल्क्स, अमेजन प्राइम आदि ने फिल्मों में एक बाढ़ सी ला दी है। प्रारम्भ में तो विविधिता के कारण आकर्षण बना पर धीरे धीरे कहानियों के स्वरूप में एकरूपता सी आने लगी। एक ही तरह की कहानी, एक ही तरह का संदेश देने का प्रयास, पात्रों के चरित्र निर्माण में एक फूहड़पन, परिस्थितियों से सतत विद्रोह, समाज और देशविशेष की पूर्वाग्रह भरी छवियाँ, व्यवस्था के ध्वंस अवधारित स्वरूप, इन सब कारणों से मेरे लिये कथा की रोचकता अवसान पर है। एक अच्छी पुस्तक यदि कथा के सहारे मन आलोड़ित कर सके या तर्क से बौद्धिकता उद्वेलित कर सके तो वह आजकल की दस फिल्मों से भी अच्छी है। जीवन के ढलान पर सरलता सुहाने लगती है, जटिल चित्रण खटकने लगते हैं।


बात आलोक की होनी थी, मैं अपना ही फिल्म पुराण ले बैठा। अगले ब्लाग में आलोक के विचार। 

20.4.21

मित्र - २७ (फिल्म और उद्योग)

प्रतिबन्ध और उल्लंघन के बीच की गुत्थमगुत्था में फिल्मों के प्रति कभी कोई स्पष्ट दृष्टिकोण पनपा ही नहीं। फिल्म देख कर आना और पकड़े जाना, इस प्रकरण में फिल्म के रसतत्व वहीं सूख जाते थे। तब सर्वप्रथम इस बात की युक्ति लगने में बुद्धि दौड़ती थी कि बात घर तक न पहुँचे। कुटाई की पीड़ा, सार्वजनिक उपहास का दंश वास्तव में साहस के परिलक्षण थे, सहे जाते थे और सगर्व कहे जाते थे। नियमों का उल्लंघन छात्रावास के लिये एक खेल सा था, उसमें हुयी जीत या हार को कोई यश-अपयश या हानि-लाभ के रूप में नहीं लेता था। उसमें मिले दण्ड या प्रताड़ना खेल भावना के रूप में स्वीकार की जाती थी। आचार्यजी ने जब छात्रावासियों के बीच यह परमहंसता अनुभव की तो उन्होने रणनीति बदली। उन्होनें घर में पत्र लिखने प्रारम्भ किये। जब से बात घर में पहुँचने लगी, खेल के नियम ही बदल गये। यह पूरे फिल्म प्रकरण में “फाउल” कहा जा सकता है, पर ऊर्जा का उछाह फिर भी इस असंतुलित खेल में जूझा रहा।

रवीन्द्र ने बताया कि वह आलोक और प्रदीप के साथ निगार में “पालेखाँ” फिल्म देखने गये थे। दीवार के ऊपर लोहे के काँटेदार बाड़ लगी थी। पार करने की विधि बड़ी सधी होती थी। पहले दीवार के ऊपर लोहे का एंगल पकड़ कर खड़ा होना होता था, एक टाँग उठाकर दीवार पर ही उस पार, फिर दूसरी टाँग उठाकर बाड़ को पूरा पार करना होता था। तब लगभग छह फिट की दीवार से नीचे कूदना होता था। पूरी प्रक्रिया में सर्वाधिक कठिन भाग बाड़ पार करना होता था, कई बार उसमें कपड़े फट जाने का या टाँग छिल जाने का भय रहता था।


रवीन्द्र उस दिन रेशम का नया कुर्ता पायजामा पहने थे। बाड़ पार करते समय उनका पूरा पायजामा उलझकर फट गया और तहमत सा हो गया। दीवार के उस पार किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति, वापस छात्रावास जाकर नया वस्त्र पहने या बाहर निकल आने की बढ़त को यथावत बनाये रखा जाये। वापस अन्दर जाने में समय लगने और पकड़े जाने की संभावना जो थी। निर्णय हुआ कि इसी तहमतिया वेश में “पालेखाँ” को निपटाया जायेगा। इतना बड़ा त्याग कर फिल्म देखी, आर्थिक हानि हुयी सो अलग। वापस आये तो आचार्यजी कुर्सी में बैठे थे और प्रतीक्षा में थे। उस समय कुछ नहीं बोले। आचार्यजी इस बात का पूरा समय देते थे कि आपकी आशंकायें आपको ही तहस नहस कर दें। सायं तीनों को बुलाया गया, संवाद के जो भी स्तर पहुँचे हों, अनुनय विनय में घरती की जो भी गहराईयाँ कम पड़ी हो, अन्ततः तीनों के घर पत्र लिख दिये गये।


इन विकट परिस्थितियों में बिना पकड़े फिल्म देख आना एक सम्मान का विषय होता था। एक गर्व की अनुभूति होती थी कि कितनी बड़ी संभावित प्रताड़ना से बच गये। इस गर्व के भाव में फिल्म के स्वरूप पर कोई विचार होना या दृष्टिकोण विकसित होना संभव ही नहीं होता है। उस समय तो आप नायक से भी बड़े नायक हो जाते हो, देखी हुयी फिल्म के समानान्तर एक फिल्म आपकी चलने लगती थी। आपके चेहरे पर विजय के यही भाव बहुधा आपके पराभव का कारण बन जाते थे। आपके मित्रों को समझ आ जाता था कि आपका देदीप्यमान मुखमण्डल किसी विशिष्ट कार्य की सफलता का द्योतक है। उस समय तो बिना पकड़े फिल्म देख आना ही सफलता के हस्ताक्षर होते थे। आपको बहुधा कुरेदा जाता था, आपके अहम को आपके मित्र उकसाते थे। मानव स्वभाव है, प्रशंसा के वशीभूत हो बहुधा मन बह जाता है। आप अपनी वीरगाथा सबको सुना देते थे। कई बार आपके प्रशंसाकारों में कोई दूत भी बैठा होता था, वही जाकर सारा किस्सा यथास्थान जड़ देता था। कई बार हम इस प्रकार भी पकड़े गये।


यही सब कारण रहे होंगे कि जब भी हम मित्रों के बीच फिल्म की चर्चा चलती है, उसमें देखी हुयी फिल्मों की कथा गौड़ हो जाती है और बार बार रह रह कर छात्रावासियों की साहसगाथायें उभर कर सामने आती हैं। ऐसा नहीं है कि हम फिल्मों की कहानियों में रुचि नहीं लेते थे। बड़ा ही स्वाभाविक होता है कथानक याद हो जाना। उन कथाओं का उपयोग रसात्मकता या विश्लेषणात्मकता से अधिक प्रमाण के रूप में होता था। यदि आप प्रत्यक्ष नहीं पकड़े गये हैं और आपने अपने मुखमण्डल को भी सौम्य बनाये रखा फिर भी फिल्म देख आने का कृतत्व का भाव पेट में बिना आन्दोलित हुये अधिक दिन तक रह नहीं पाता है। अपने प्रमुख मित्रों से तो फिर भी आपको अपनी वीरगाथा वर्णित करनी ही होती थी। उनसे कुछ छिपाना संभव नहीं होता था या कई बार तो उनकी सहायता से ही भागकर फिल्म देखना संभव हो पाता था।


कार्यसिद्धि के प्रमाण के रूप में सुनाये या कार्यफल के प्रसाद के रूप में सुनायें, फिल्मों के कथानक मित्रों को सुनाने होते थे। किन्तु उसके पहले छात्रावास से भागने की कथा और वापस आने के प्रयास, उसमें ली गयी सावधानियाँ और रोचक मोड़ों सहित वर्णित करनी होती थीं। जितनी लम्बी फिल्म की कथा होती थी उससे कहीं अधिक लम्बी उसे देखने की कथा। फिल्म की कथा यदि उतनी सुदृढ़ यदि रोचक न रही हो तो, फिल्म देखने की कथा को ही सविस्तार और रोचक शैली में सुनाया जाता था। संदीप को इस विधा में महारत थी। हमारे लिये फिल्म में प्राप्त रस अपने मित्रों के साथ ही पूरा होता था, एक बार नहीं, बार बार। लगभग ठीक वैसे ही जैसे एक बन्दर अपने मुँह में चने भर ले और बाद में एक साथ आनन्द लेकर धीरे धीरे खाये।


इस प्रकार देखा जाये तो हमारे लिये फिल्म की रसात्मकता फिल्म देखने के प्रयासों से प्रारम्भ होती थी और फिल्म की कथा के सार्वजनिक वर्णन के साथ समाप्त होती थी। आज भी वे सारे क्षण याद किये जाते हैं और प्रस्तुत वर्णन भी उसी कालखण्ड का यथारूप आनन्द दे रहा है। फिल्मों के संदर्भ में हम संभवतः इसके आगे सोच नहीं पाते हैं या कहें कि शेष सभी कथानक फीके पड़ जाते हैं। आलोक इस विषय में अग्रिम पंक्ति के विचारक रहे हैं। प्रारम्भ से ही फिल्मों के संबंध में उन पर उनकी बौद्धिकता हावी रही। जहाँ पर आकर हमारा दृष्टिकोण अवसान पा जाता था वहाँ से आलोक का दृष्टिकोण प्रारम्भ होता था। 


इसकी विस्तृत चर्चा और आलोक के स्पष्ट विचार अगले ब्लाग में।

17.4.21

मित्र - २६(फिल्म और बौद्धिकता)

आलोक रसज्ञ हैं। अभिनवगुप्त रसग्रहण के संदर्भ में दो शब्दों का प्रयोग करते हैं, सहृदय और तन्मय। इन दोनों शब्दों को मूर्तता प्रदान करती है आलोक की रसप्रियता। ७ प्रकार के रसविघ्नों को तो कभी का जीत चुके थे, उससे भी कुशलता उन्होंने छात्रावास के प्रतिबन्धों पर विजयारूढ़ होने में दिखायी। कैसा भी प्रतिकूल समय रहा हो, उनकी रससाधना निर्बाध गतिमय रही।

जहाँ हम सबका कारण मूलतः मानसिक था, आलोक का फिल्मों के प्रति लगाव बौद्धिक था। हम लोगों का किसी तरह भाग कर फिल्म देख लेना अपने आप में एक महती उपलब्धि होती थी। कौन सी फिल्म देखी और उसकी क्या कथा थी, यह बात हमारे लिये गौड़ हो जाती थी। हर प्रकार की फिल्म में लगभग एक सा ही आनन्द आया, स्वतन्त्रता का। कालान्तर में एकरूपता नीरस हो जाती है। पहले रसगुल्ले में जो सुख मिलता है, वह दसवें में कहाँ? यदि विश्वास हो कि जब चाहेंगे रसगुल्ला प्राप्त हो जायेगा तो उसके प्रति उतना आकर्षण नहीं रह जाता है। वयस्क होने के बाद हम सबके साथ लगभग यही हुआ। जहाँ प्रतिबन्धों में एक के बाद एक कई बार स्वातन्त्र्य का आनन्द लिया, वहीं मुक्त होने के बाद फिल्मों के प्रति उतनी ललक और आकर्षण नहीं रह गया।


आलोक के जीवन में फिल्मों के प्रति एकरूपता कभी आयी ही नहीं क्यों उन्होंने फिल्मों को गहन बौद्धिक भाव से पकड़ा हुआ था। हम सबके अन्दर रस की उतनी मात्रा नहीं थी जितनी आलोक के अन्तर में समायी थी। जहाँ हमारे स्रोत धीरे धीरे कर सूखने लगे, आलोक आज भी उतने रसमयी हो जाते हैं, फिल्मों को लेकर। या यह भी संभव है कि हम सबने अन्तर्निहित रस को उतना नहीं पहचाना जितना आलोक ने।


बाहर जाकर खा पी आना उतना कठिन कार्य नहीं रह गया था। बहुधा आधे या एक घंटे का अवसर मिल जाये तो हम अपनी क्षुधा तृप्त कर आते थे। बहुधा ५-६ लोग भी एक साथ निकल जायें तो पता नहीं चल पाता था। अधिक समय के लिये निकलना और छात्रावास से दूर जाकर फिल्म देखना कठिन था। निकटतम सिनेमागृह में पहुँचने में कम से कम ४५ मिनट तो लग ही जाते थे। यही कारण था कि फिल्मों के लिये निकल पाना २ या ३ के समूह में ही हो पाता था। एक तो छात्रावास की भीड़ में अधिक अन्तर नहीं पड़ता था और कम लोग होने से रहस्य छिपा भी रहता था।


आलोक की विशिष्टता यह रही कि उन्होंने सभी संभव समूहों के साथ फिल्में देखी होंगी। जितने मित्रों से बात की है, सबके साथ आलोक फिल्म देख चुके हैं। जैसे जैसे रहस्यों की परतें खुल रही हैं, लगता है कि हमने आलोक की योग्यता का आकलन ठीक से किया ही नहीं। आलोक को हमने अपने स्तर पर जाना, स्थानीय स्वरूप में, इस रूप में कि वह हमारे साथ फिल्में देखता था। पर वह सबके साथ फिल्म देखता था, यह किसी ने नहीं जाना। रस की अथाह चाह और सबके साथ बाहर निकल जाने की अदम्य लालसा, यह आलोक को विशिष्ट बना देती है। इस बात का अनुमान ही लगाया जा सकता है कि आलोक ने छात्रावास के कालखण्ड में कुल कितनी फिल्में देखीं।


इस पूरे प्रयासक्रम में वह कई बार पकड़े भी गये। किस बार कौन सी फिल्म देखने गये थे यह उनके साथ गये मित्रों से उद्घाटित हो गया। कई बार वह अकेले भी पकड़े गये, उन अवसरों पर कौन सी फिल्म देखी यह उन्होने कभी बताया नहीं। छुट्टियों पर हम लोग अकेले ही घर से आते जाते थे। यद्यपि घर और छात्रावास के बीच दोनों बार फिल्में देखने का अवसर रहता था, समस्या यह रहती थी कि सामान अस्थायी रूप से कहाँ रखा जाये? इस प्रकार भी आलोक ने बहुत फिल्में निपटायी होंगी। 


हम सबने मिलकर विनोदवश कई बार उनका मन टटोलने का प्रयास किया, आलोक ने पूरा सत्य कभी बताया नहीं। यहाँ तक कि हमने उस समय की संभावित फिल्मों की सूची को विकल्प के रूप में प्रस्तुत किया पर आलोक निर्वेद रस में डूबे रहे। कई बार बात करने में बस यही लगा कि हम सब फिल्मों को जिस विनोद भाव से देखते हैं, चर्चा करते हैं और स्मृति में लाते हैं, उसकी तुलना में आलोक की फिल्मों के प्रति लगाव अत्यन्त गहरा है। हम संभवतः वहाँ तक पहुँच न पाते हों। जब किसी की आत्मीयता गहन हो तो उस पर सतही या उत्श्रृंखल चर्चा मन में तटस्थता का भाव ले आता है। आलोक की उत्तर न देने की इच्छा इसी बौद्धिक जुड़ाव की ओर इंगित करती है।


हमारा फिल्मों के प्रति प्रेम उतना सुसंस्कृत नहीं था जितना आलोक का। यदि आप किसी प्रवृत्ति को बाधित करेंगे तो विकार आयेंगे। हमारा फिल्में के प्रति घोर तात्कालिक आकर्षण और कालान्तर का सहसा अवरोह इसी विकार की श्रेणी में आयेगा। आलोक का प्रेम स्थितिप्रज्ञता को प्राप्त हो गया है, अभी भी उतना ही स्थिर है जितना छात्रावास के दिनों में था।


आलोक का फिल्मों के प्रति एक स्पष्ट और विशिष्ट दृष्टिकोण है, उसकी चर्चा अगले ब्लाग में।

13.4.21

मित्र - २५(फिल्म और उन्माद)

अशोक ने बताया कि वह कक्षा ३ में थे, लगभग ९ वर्ष के होंगे। उस समय सुहाग फिल्म आयी थी, अमिताभ और शशिकपूर वाली। दोपहर का समय था, घर में माँ सो रही थी, पिताजी बैंक में थे। खलासी लाइन से विवेक टाकीज में वह साइकिल से पहुँच गये। उस समय इतनी लम्बाई नहीं हुयी थी कि साइकिल गद्दी पर बैठकर चला पाते, बस कैंची चलाकर मुहल्ले की गलियाँ नाप आते थे। टिकट लेने पहुँचे और जेब से कुछ सिक्के निकाले। ये सिक्के उन्होने अपनी गुल्लक में जोड़े थे, कई महीनों की बचत थी, कई महीनों का त्याग था उसमें, जलेबी और समोसे का त्याग था। हाथ ऊपर तक उठाकर भी काउन्टर तक नहीं पहुँच पा रहे थे, पीछे से किसी सहृदय ने उठाया और उनका मुख काउन्टर के समक्ष कर दिया। पैसे दिये, टिकट लिया, अन्दर गये और पूरी फिल्म देखकर घर आ गये, ऐसे कि जैसे कुछ हुआ ही न हो।

अशोक के जीवन में यदि कोई तत्व सदा ही प्रचुर मात्रा में रहा है तो वह है आत्मविश्वास। कभी अपने व्यक्तित्व और कृतित्व को लेकर सशंकित नहीं पाया है उनको। कभी कभी यह आत्मविश्वास इतना उभर कर आ जाता है कि शेष वातावरण उसमें छिप जाता है। विद्यालय में उनकी छवि ऊर्जायुक्त, क्षणिकमना, नित्यउद्धत और उत्फुल्लहृदय मित्र की थी। कोई दैवीय कारण रहा होगा कि उनसे बहुत पटती थी, पढ़ाई के अतिरिक्त सभी कार्यों में। कई घटनायें हैं पर जिस भौकाल से जाकर उन्होंने फिल्म निपटायी होगी वह बड़ा ही दर्शनीय रहा होगा। पूरे कालखण्ड में किसी ने उनसे कुछ बोला नहीं, कोई प्रश्न पूछा नहीं, कहीं रोका नहीं और यहाँ तक कि टिकट लेने में उठाकर सहायता भी की। पिता का हाथ पकड़े या माँ से पीछे छिपे ढुलुर मुलुर बच्चे अपने समकक्ष को जब इस प्रकार वयस्क विश्व में देखते होंगे तो बिना प्रभावित हुये तो न रह पाते होंगे।


कार्य सम्पादित करने की जो भी विशिष्ट शैली रही हो, अशोक का फिल्मों के प्रति प्रेम अगाध रहा है। कदाचित ही कोई चर्चित फिल्म उन्होंने छोड़ी होगी। फिल्मों से जुड़े इतने संस्मरण हैं उनके पास जिन्हें संकलित करके एक फिल्म बनायी जा सकती है। जिस उत्श्रृंखलता और उन्मुक्तता से कानपुर में फिल्में देखी जाती हैं और उन्हें जीवन में उतारा जाता है, वह अद्वितीय है। अशोक बताते हैं कि जिस समय ब्रज टाकीज में तेजाब फिल्म आयी थी, “एक दो तीन चार” वाले गाने के पहले वहाँ के प्रबन्धक पुलिस को बुला लेते थे क्योंकि झींक के नाचने में लड़कों को ध्यान नहीं रहता था कि उनसे क्या क्या टूट रहा है? कानपुर के इसी वातावरण का सारक्रम था उनका फिल्मप्रेम। उनके साथ घटित ३ घटनायें संभवतः इस प्रभाव को समझा सकने में पर्याप्त होंगी।


“मैंने प्यार किया” निशात में लगी थी, १२ से ३ का शो। अशोक के मित्र टिकट लेने के लिये पंक्ति में खड़े, दो टिकट ले पाने की सफलता को अपनी शैली में व्यक्त कर रहे थे, कनपुरिया उत्साह में। चर्चित महिला सीओ ब्लैक में टिकट बेचने के विरुद्ध अभियान और भीड़ नियन्त्रण में वहाँ उपस्थित थीं। कईयों के साथ उनको भी धरा गया और यूपी पुलिस द्वारा व्यवस्थित और सीओ द्वारा व्यक्तिगत कुटाई हुयी। मित्र का मुँह सूज गया था, पीड़ा अधिक हो रही थी, फिल्म देखने की न मुखभंगिमा थी और न ही मानसिक स्थिति। अशोक पशोपेश में, एक आतुर युवा युगल दिखते हैं, मित्र का दयनीय मुखमंडल भी भुना लेते हैं, दो सौ में टिकट बेच देते हैं। अत्यधिक पीड़ा के चिकित्सीय उपचार के स्थान पर फिल्मी उपचार, सोमरस पिलाया जाता है। घर जाने की स्थिति नहीं, बाहर ही विश्राम।


मन में एक बार फिल्म की कीड़ा बिना फिल्म देखे कहाँ शान्त होता है। रात्रि को ९ से १२ वाला शो निश्चित हुआ, “जमाईराजा”, हीरपैलेस में। रात में पुलिस वैसे ही टाकीजों में घूम आती है। इनके मित्र का सबसे अलग मुख और उससे निकलती सोमरस की सुगन्ध, श्रीमन फिर धरे गये। ईश्वर की कृपा ही थी कि सिपाही ने समझा कर छोड़ दिया। मध्यान्तर होता है, दीर्घशंका हेतु भागते हैं, वहाँ पर पहले से ही एक व्यक्ति अन्दर बैठा था। ऐसे दबाव में सारा विश्व शत्रुवत लगता है। क्रोधावेश में द्वार भड़भड़ाते हैं, सशब्द। द्वार खुलता है और अन्दर से क्रोध में एक और सीओ निकलते हैं, पुनः विधिवत कुटाई। फिल्म का ज्वर अगले तीन माह शान्त रहता है।


फिल्म “प्रेमदीवाने” चर्चित गाना, “ए बी सी डी….पी पी पी पी पिया…“। दोनों मित्र पूरे स्वर में, तान में और आरोह में गाते चले आ रहे थे। शंकर भगवान का प्रसाद चढ़ा हो या होली का समय हो, स्वर को और शरीर को एक विशेष शक्ति मिल जाती है, गान और नृत्य स्वतः प्रस्फुटित होने लगते हैं। ध्यान नहीं दिया पर पीछे पीछे पुलिस की जीप धीरे धीरे अनुसरण करती आ रही थी। जब न रहा गया, तो इनको रोका गया। एक ही डण्डे में मित्र का आधा नशा उतर गया था। पुलिस ने अशोक को भी गाने को कहा। भय में पद्य गद्य बन जाता है और श्रृंगार निर्वेद। गीत किसी तरह बाँच दिया। दरोगा ने पूछा कि पी से कुछ और भी होता है। इनका मस्तिष्क कौंधा, कहा “पुलिस”। पूछा और कुछ, “हाँ वह पुलिस पिये लोगों को ठीक करती है”। दरोगाजी मुस्करा दिये, जान लिये कि अशोक पूरी चेतना में हैं, जाने दिया।


२०-२२ मित्र फिल्म देखकर लौट रहे थे, “कर्मयोद्धा” ९ से १२ का शो, दीप सिनेमा में। हमीरपुर की ओर से आने वाली एक बस रुकती है, एक वृद्ध अपनी बिटिया के साथ उतरते हैं और रिक्शा में बैठकर चलते हैं। कोई अपनी रौ में उसी फिल्म का ताजा ताजा सुना गाना गाने लगता है, “हाय ये लड़कियाँ”। समूह में कईयों ने रोका भी पर उत्श्रंखलता संक्रमित होने लगती है, वातावरण अशोभनीय हो जाता है। सहसा कुछ दूर पर जाकर रिक्शा रुकता है, वृद्ध उतरते हैं, संभवतः बुन्देलखण्ड के होंगे, कुर्ता उठाकर रिवाल्वर निकालते हैं और भीड़ पर तान देते हैं। स्तब्धता, पूरी फिल्म हवा में उड़ जाती है। शोले की तरह कहा कि ६ गोलियाँ हैं, ६ तो जायेंगे ही। उनका मन भरा नहीं, कहा सब मुर्गा बन जाओ, सड़क पर तुरन्त २२ मुर्गे खड़े थे। कुछ मिनट बाद जाते समय कहा कि इसकी रेन्ज ३०० मीटर है, जो खड़ा हुआ, वही जायेगा। इसके बाद रिक्शे में बैठकर चल दिये। अगले ५ मिनट कोई हिला नहीं, कोई उठा नहीं, सब चुपचाप घर चले गये, एक माह तक कोई किसी से कुछ बोला नहीं, फिल्म देखना तो बहुत दूर की बात थी।


अशोक के लिये फिल्में सदा ही मनोरंजन का स्फूर्त साधन रही है। कभी उनको फिल्मों से बड़ी बड़ी प्रेरणा मिलती है, कभी मन का तम घुल जाता है, कभी निर्बद्ध आनन्द की विषयवस्तु। कोई भी पुरानी हो या नयी, समय रहता है तो वह देखने बैठ जाते हैं। उनके पुत्र आजकल उन्हें नये साधनों से परिचित करा रहे हैं। अशोक बताते हैं कि फिल्मों से क्या नहीं ग्रहण करना है, यह सबको समझ आता है। आप बच्चे नहीं हैं कि बिन जाने ही प्रभावित हो जायेंगे। अशोक का जीवन्त व्यक्तित्व फिल्मों की जीवन्तता से बहुधा अनुनादित होता रहता है।


वहीं दूसरी ओर आलोक का बौद्धिक कारण रहा है, फिल्मों के प्रति आकर्षण का। अगले ब्लाग में।

10.4.21

मित्र - २४(फिल्म और प्रतिबन्ध)

छात्रावास में फिल्में पूर्णतया प्रतिबन्धित थीं। कोई फिल्मों के प्रति तनिक भी अनुराग या आकर्षण प्रकट नहीं होने देता था, बस इस आशंका से कि कहीं उसे निकृष्ट कोटि का छात्र घोषित न कर दिया जाय। “देखिये, ये फिल्मों के दीवाने हैं”, यह आपके चरित्र पर एक अतिव्यंगात्मक आक्षेप सा होता था। इसके कई प्रत्यक्ष और परोक्ष अर्थ निकाले जा सकते थे।

पहला कि आप सभ्य और सुसंस्कृत समाज से भिन्न हो। प्रधानाचार्यजी सहित सब के सब फिल्में नहीं देखते हैं और आप एक विशिष्ट प्राणी हो, जिसकी अभिरुचियाँ प्रश्नवाचक हैं, विकृत हैं और निन्दनीय हैं। दूसरा आक्षेप होता था आपके परिवार पर क्योंकि फिल्म देखने का संस्कार आपने घर से ही सीखा होगा। आप तब किसी भी उस अनुभव की चर्चा नहीं कर सकते हैं जिसमें आप अपने अभिभावकों के साथ फिल्म देखने गये हों। फिल्मों के दृश्य या उनकी कहानियों के संदर्भ अस्पृश्य थे। किसी अभिनेता की प्रशंसा तो परिवेश में अधर्म को बढ़ाने सा था और यदि किसी अभिनेत्री के बारे में कुछ भा गया तो वह व्यक्तिगत रूप से अधर्म में डुबकी लगाने सा था।


तीसरा यह कि फिल्में फूहड़ हैं और उनमें कमर मटकाने के अतिरिक्त कुछ और दिखाया नहीं जाता है। कमर मटकाना या नृत्य देखने से मानसिकता पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। मन दिग्भ्रमित होता है, पढ़ने में मन नहीं लगता और पुस्तकों में छपे शब्द भी बिना अर्थ दिये उछलकूद मचाने लगते हैं। चौथा कि फिल्म देखना समय को व्यर्थ करना है। न केवल समय को वरन धन को भी। इससे श्रेयस्कर है वही धन और समय नाली में बहा दिया, कम से कम वह आपको बिगड़ने में साधन नहीं बनेगा।


पाँचवा संदेश संभवतः सकारात्मक था। विद्याकाल अपने भविष्य को सँवारने के लिये होता है, इस समय किसी भी अन्यथा वस्तु के प्रति आकर्षण का एक बड़ा मूल्य होता है। ये सब प्रतीक्षा कर सकते हैं। पाँचों प्रकार के संदेश भिन्न भिन्न रूपों में कहे, बताये और समझाये जाते थे पर उनमें अन्तर्निहित भाव यही रहता था कि फिल्में प्रतिबन्धित हैं।


भरतमुनि का नाट्यशास्त्र या अभिनवगुप्त का प्रत्याभिज्ञ दर्शन छात्र जीवन में नहीं पढ़ा था। पढ़ा होता तो उसी समय बताते कि रस मनीषियों द्वारा इच्छित परमानन्द का ऐन्द्रिय निरूपण है और नाटक या फिल्म उस निरूपण का सशक्त माध्यम। फिल्में प्रशिक्षण या अध्यापन का सशक्त अंग हैं और विषय को अधिकाधिक ग्राह्य बनाने में सहायक होती हैं। बंगलुरु में बिटिया के विद्यालय में एक फिल्म हर सप्ताह दिखायी जाती थी। बनारस में ही उसके विद्यालय में लघु फिल्मों के ऊपर एक पूरी पुस्तक थी, एक वैकल्पिक विषय के रूप में। मेरे वर्तमान कार्यस्थल में जो कि राजपत्रित अधिकारियों का प्रशिक्षण संस्थान है, वहाँ पर फिल्म के माध्यम से विषय के सूक्ष्म बिन्दुओं का संप्रेषण एक उत्कृष्ट विधा समझी जाती है।


इस परिप्रेक्ष्य में जब अपने बच्चों से अपने छात्रावास जीवन की समकक्ष तुलना करता हूँ तो स्वयं के फिल्मों के प्रति अतिविशिष्ट आकर्षण को न समझ पाता हूँ और न ही उनको समझा पाता हूँ। उनके लिये फिल्में देखना या न देखना उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना हम लोगों के लिये हुआ करता था। उनके लिये अच्छी फिल्म तभी देखी जाती है जब उसके बारे में एक ठीक ठाक समीक्षा हो या किसी ऐसे विषय पर हो जिसमें अभिरुचि हो या किसी का सशक्त अभिनय हो। हम लोगों कि यह स्थिति रहती थी कि यदि तीन घंटे का स्वच्छन्द कालखण्ड मिल गया तो सामने जो भी फिल्म हो, देख आते थे।


हम सबके मन में सदा ही उहापोह रही कि मन सही या प्रतिबन्ध सही? मन था कि फिल्मों के प्रति अगाध आकर्षण पाले बैठा था, वहीं व्यवस्था दूसरी ओर खड़ी थी। इस विषय में प्रश्न पूछना कि फिल्में क्यों अनुचित हैं, यही अपने आप में अपराध की श्रेणी में आ जाता। फिल्मों के कई कुप्रभाव भी हैं, कई फिल्में स्तरीय नहीं होती हैं, इस कारण से यदि सारी फिल्में प्रतिबन्धित हो, यह बालमन को स्वीकार ही नहीं था। कितना भी प्रयत्न किया समझने का, उत्तर पाने का, पर प्रतिबन्धों का कारण कभी समझ आया ही नहीं। यदि उस समय कोई यही पूछ देता कि फिल्म देखकर क्या मिल जायेगा तो भी बु्द्धि विश्लेषण नहीं कर पाती। फिल्में नहीं देखकर या कम देख कर क्या पा लिया? या भागकर देख आये और किसी को पता नहीं चला, उससे क्या उपलब्धि हो गयी? बस मन को भाता था फिल्में देखना, प्रतिबन्धों ने उस तड़प को द्विगुणित कर दिया था, साहस ने इसी को लक्ष्य बना लिया और एक दो बार नहीं कई बार भाग कर फिल्में देखीं।


फिल्मों के प्रति क्या अभी भी उतना ही आकर्षण है जितना छात्रावास के समय होता था? है भी और नहीं भी है। उस समय के प्रतिबन्धों में जितनी फिल्में देख पाते थे, आज के मुक्त वातावरण में कहीं कम देखते हैं। क्या बदलाव आया है? क्या दृष्टिकोण बदल गया या प्रतिबन्धों का कोई कारण समझ आ गया? ज्ञानचक्षु खुल गये या आवश्यकता समाप्त हो गयी?


फिल्मों में कहानी होती है, पर फिल्मों के बारे में हम सबकी अपनी कहानी है। ऐसी ही कुछ कहानियाँ जानेंगे अगले ब्लाग में।

6.4.21

मित्र - २३(अभिनवगुप्त और रस)

पाणिनि, पतंजलि, भृतहरि और अभिनवगुप्त को उनकी कृतियों के माध्यम से जानना मेरे लिये एक अद्भुत अनुभव रहा है। अभिव्यक्ति को उसके स्वरूप में समझ सकने का अतिलघु स्पंद ही इतना आनन्द दे जाता है कि बार बार उतर कर और गहरे डुबकी लगाने का मन करता है। भाषा, उसकी उपादेयता, संप्रेषण और रस, क्रमशः इन चार विषयों को मनीषियों ने जिस स्पष्टता और सिद्धहस्तता से व्याख्यायित किया है, उसकी तुलना में आधुनिक युग में किये कार्य तुच्छ प्रतीत होते हैं। जिन भी कारणों से हम उनके बारे में न जान पाये और न गर्व कर पाये, उनकी चर्चा से श्रेयस्कर है उन्हें पढ़कर और समझकर ग्रहण कर सकना।

संस्कृत से जुड़ाव अपने ग्रन्थों को उनके मौलिक स्वरूप में समझने का उपक्रम था। शब्दों की उत्पत्ति और अर्थ मेरे लिये एक सतत और अनवरत कार्य हो चला है। किसी भी शब्द का लौकिक अर्थ उसकी उत्पत्ति से भिन्न हो प्रयोग में रहता है पर उसे धातु, उपसर्ग और प्रत्यय में पृथक कर देखने से अर्थ अपने मौलिक स्वरूप में वापस दिखने लगता है। इस दृष्टि और अनुभव ने स्वाध्याय और अभिव्यक्ति की गुणवत्ता और स्तर को कई गुना बढ़ा दिया है। पहले एक झिझक और संकोच सा रहता था कि शब्द अभीप्सित अर्थ को व्यक्त कर पायेगा कि नहीं। अब एक नहीं कई शब्द आकर प्रतियोगिता करते हैं, आकर अपना पक्ष रखते हैं। संस्कृत समझने से अभिव्यक्ति सरल हो चली है।


मनीष का उपहार है कि उन्होंने प्रथम बार अभिनवगुप्त के बारे में परिचय कराया। उन्होंने भी कहीं सुना था कि अभिनवगुप्त के नाट्यशास्त्र संबंधित सिद्धान्त कई स्थानों के पाठ्यक्रम में हैं। भरत के नाट्यशास्त्र के बारे में तो सुना था पर अभिनवगुप्त को पहली बार जाना। मनीष बड़े ही उत्सुक और उत्साहित जीव है। वह बताकर निश्चिन्त हो जाते हैं, जानते थे कि हम पढ़ेंगे और उसके बारे में उन्हें बतायेंगे भी। पढ़ा भी, चर्चा भी की और यह उनका ही आग्रह था कि उसके बारे में लिखूँ। उनका स्नेहमयी आग्रह मेरे लिये आदेश है। मैं लिखूँगा भी पर छात्रावास के संदर्भ में अभिनवगुप्त का एक सूत्र बड़ा ही प्रासंगिक है। विषय था फिल्म या दूरदर्शन पर प्रतिबन्ध का।


वीतविध्नप्रतीतिग्राह्योभाव एव रसः। विघ्न के परे प्रतीति के ग्रहण का भाव ही रस है। प्रतीति, प्रति और इण(गतौ), सामने से आने का भाव, या ज्ञान। उसका ग्रहण और उससे उत्पन्न रस। यथारूप, बिना विघ्न के भावों का संचरण रस उत्पन्न करता है। रसविघ्न ७ प्रकार के होते हैं, उनके विस्तार में फिर कभी। नाटक, फिल्म, कविता, कथा आदि के संदर्भ में रस मुख्यतः चार स्तरों में उत्पन्न होता है। वह पात्र जिस पर नाटक लिखा गया, वह लेखक या कवि जिसने लिखा, वह अभिनेता जिसने अभिनय किया और वह दर्शक या पाठक जिसने उसे देखा या पढ़ा। बीच में कई और स्तर आ सकते हैं, संभव है कि पात्र का लेखक से या लेखक का अभिनेता से सीधा संबंध नहीं हो। उस स्थिति में रस के और भी मध्यस्थ संवाहक जुड़ जाते हैं।


उदाहरण लें, राम का सीता का पता लगाना, करुणा रस। राम पूछते हैं, हे खग मृग, हे मधुकर श्रेनी, तुम देखी सीता मृगनैनी। राम के नयन आर्द्र हैं, पक्षियों, पशुओं, भौरों से भावविह्वल हो सीता के बारे में पूछ रहे हैं। पात्र राम हैं, कवि तुलसीदास हैं, मंचन रामलीला का हो रहा है और अश्रु हमारे बह रहे हैं। एक बार नहीं, जितनी बार पढ़ा या देखा, जितनी बार भी उस घटना पर विघ्नरहित हो विचारा, उतनी बार।


रस की विशुद्ध अनुभूति चमत्कार कहलाती है। नाट्यशास्त्र में चमत्कार को आनन्द की क्षणिक अनुभूति कहा जाता है। रस परम का ऐन्द्रिय अनुभव है, क्षणिक ही सही। शतप्रतिशत रस संचरण तो संभव नहीं है। राम का अपार दुख अनुभव करा पाना संभव नहीं है, पर यथासंभव संचरण के कई तकनीकी पक्ष हैं। भावों के कई भाग हैं, विभाव, अनुभाव, व्यभिचारी और संचारी भाव। इनका समुचित अनुपात ही रससंचरण को प्रभावी बना पाता है। उसका विवरण फिर कभी।


महत्वपूर्ण प्रश्न यहाँ पर यह आता है कि रस हमारे अन्दर पहले से ही विद्यमान है या संचरित हो हम तक पहुँचता है। अभिनवगुप्त के अनुसार यदि रस पहले से विद्यमान न हो, तो वह उत्पन्न नहीं हो सकता है। भाव बस पहले से बँधे तारों को झंकृत कर जाते हैं, अनुनादित कर जाते हैं, और स्वर बह निकलते हैं। इसे अभिनवगुप्त ने “प्रत्याभिज्ञ” दर्शन के माध्यम समझाया है। किसी को देखना प्रत्यक्ष है, पहचानना स्मृति से होता है। प्रत्यक्ष और स्मृति में एकरूपता आने से ज्ञान या पहचान होती है। स्मृति पूर्व में हुआ प्रत्यक्ष है। स्मृति के स्थान पर उस व्यक्ति के बारे में सुने वचन भी हो सकते हैं, जैसे अमुक व्यक्ति लम्बी श्वेत दाढ़ी वाला है। आप जैसे ही उस तरह के व्यक्ति को देखते हैं, उसे पहचान लेते हैं। यदि यह तथ्य आपको ज्ञात नहीं होगा, आप पहचान नहीं पायेंगे।


समाधि की स्थिति में भी वही प्रज्ञा प्रकट होती है, न प्रत्यक्ष से, न अनुमान से, न शब्द से। जो अन्दर पहले से विद्यमान है, वही प्रकट हो जाता है। स्थितप्रज्ञता, ऋतम्भरा प्रज्ञा, प्रातिभ ज्ञान, सब के सब उसी ज्ञान को इंगित करते हैं, बस गुरु या दैवीय माध्यम से और दीक्षा की प्रक्रिया से प्रत्यक्ष हो जाता है, विघ्न हट जाने से। आत्मज्ञान के बाद दृष्टि बदल जाती है, दृष्टि से सृष्टि बदल जाती है।


रस को काल्पनिक नहीं कह सकते हैं, क्योंकि वह अनुभव किया हुआ है हम सबका, एक नहीं दस प्रकार का। हम सबके अन्दर रस है, माध्यम कोई अच्छी पुस्तक हो सकती है, कोई अच्छा नाटक या कोई अच्छी फिल्म। इस परिप्रेक्ष्य में मुझे कभी समझ आया ही नहीं कि फिल्मों जैसे सशक्त माध्यम से हमें क्यों विलग रखा गया? क्यों बद्ध मानसिकता से जनित अतृप्त चाह बढ़ने दी गयी, जो बहुधा विकृत हो प्रकट हुयी। 


ऐसे ही कई प्रश्न और उससे जूझता बालमन, अगले ब्लाग में।

3.4.21

मित्र - २२(कौन है भाई)

बिना अनुमति के बाहर निकलने के पहले कई तैयारियाँ करनी होती थीं। रविवार के दिन सबके पास समय रहता था और अवसर भी। उस दिन बाहर निकलने का प्रयास करने वालों की संख्या अधिक होती थी अतः छात्रावास अधीक्षक की सजगता भी उसी स्तर की होती थी। विद्यालय के दिनों में भी बाहर जाने के लिये सायं के अतिरिक्त कोई और समय नहीं होता था। रात को आठ बजे तक हाट बन्द हो जाते थे अतः उसके बाद जाने का प्रश्न ही नहीं। सायं की पूजा ७३० पर होती थी अतः उसके पहले तक वापस आना होता था। पूजा मे आवश्यक रूप से कोई न कोई रहता था और आपकी अनुपस्थिति प्रश्न खड़े कर सकती थी। ले देकर विद्यालय बन्द होने के तुरन्त बाद से लेकर पूजा प्रारम्भ होने तक का समय मिलता था, लगभग २ घंटे का जो खेलकूद का था।


यदि गूगल मैप से देखेंगे तो विद्यालय की आकृति ऊपर से अर्धचन्द्राकार दिखायी देती है। विद्यालय का द्वार लगभग हर कक्ष से दिखता है, स्पष्ट सा। द्वार से कौन अन्दर आ रहा है, कौन बाहर जा रहा है, इस बात की सूचना सबको रहती थी। इसके अतिरिक्त कोई और द्वार नहीं था। इसके दो अर्थ थे, पहला कि यदि बिना अनुमति लिये निकलना हो तो इस द्वार का उपयोग वर्जित था। पता नहीं विद्यालय छूटने के समय विद्यालयवासियों की भीड़ के साथ तो बाहर जाया जा सकता था पर विद्यालय के वेश में हाट में टहलना उद्धाटन को आमन्त्रित करने सा था। विद्यालय का वेश सदाचार का प्रतीक था और आचार्यों को यह तथ्य बताने वाले शुभचिन्तकों की कमी नहीं थी उस क्षेत्र में। साथ ही इतना समय भी नहीं रहता था कि कमरे में जाकर वेश बदल लें। यदि त्वरित गति से वेश बदल भी लें तो बाहर निकलने वालों के समूह में स्पष्ट दृष्टिगत हो जायेंगे।


दूसरा अर्थ गहरा था। यदि कभी सायं के समय छात्रावास अधीक्षक अपने स्कूटर से इसी द्वार से बाहर जाते या आते थे तो वह सूचना सबको ज्ञात हो जाती थी। पता नहीं छात्रावास अधीक्षक आचार्यजी को ज्ञात रहता था कि उन पर इतनी दृष्टि एक साथ पड़ रही हैं। उसी समय से हमारी गणना प्रारम्भ हो जाती थी। कई बार के अवलोकन के बाद यह निष्कर्ष निकला था कि वैसे तो आचार्यजी बाहर कम जाते हैं पर जब भी आवश्यक कार्य होने पर जाते हैं, दो घंटे से अधिक लगता है। वही हमारा सर्वोत्तम अवसर था, सुरक्षित कालखण्ड था।


बाहर निकलने के लिये हम अर्धचन्द्राकार के उत्तल भाग पर अन्त में बनी दीवार से लाँघते थे। इसके तीन लाभ थे। पहला यह बिन्दु किसी भी अन्य स्थान से नहीं दिखता था, यहाँ तक कि उसके ऊपर के कक्ष से भी नहीं। दूसरा कि यह एसडी कालेज के क्रीडास्थल की ओर खुलता था और वहाँ से निकल कर भीड़ का भाग हो जाना सरल रहता था। तीसरा कि वहाँ से हाट की ओर सरकने में विद्यालय की ओर नहीं आना होता था। समस्या बस इतनी थी कि इस बिन्दु तक पहुँचने के लिये विशालकक्ष के सामने से होकर जाना होता था जो कि प्रधानाचार्यजी के कार्यालय के सामने था। लगभग १० फीट की दूरी में आप दृष्टि में आ जाते थे पर अन्य विकल्पों की तुलना में यह सर्वाधिक सुरक्षित स्थान था। विशालकक्ष से दीवार तक पहुँचने में वहाँ लगे क्रोटन के बड़े पेड़ बड़े सहायक थे। दीवार लाँघने के लिये अन्दर की ओर दो ईटों का उपयोग होता था जो कि वापस आने के बाद छिपा दी जाती थीं।


ऐसा ही एक अवसर था, हम और अमिताभ बाहर निकल गये। निश्चिन्तता में गपियाते हुये टहले। कल्लू का चाट खायी, एक स्थान पर कड़ाही का दूध पिया और मूँगफली खाते हुये बीच हाट से चले आ रहे थे। दोनों ओर सब्जी की दुकाने  थीं और रास्ता बीच में बस इतना चौड़ा था कि दोनों ओर से एक एक पंक्ति निकल जायें। ऐसी स्थितियों में यदि कोई साइकिल या स्कूटर से भी आ जाये तो हम इस बात के अभ्यासी हैं कि उसके लिये भी रास्ता बना देंगे और उसे निकलवा भी देंगे। हाँ यदि वह साइकिल या स्कूटर खड़ा करके कुछ खरीदने लगा तो केवल एक ही पंक्ति चलेगी, बाधा होगी, मंद गति होगी पर हाट रुकेगा नहीं।


ऐसा ही एक रास्ता था, तनिक अंधकार हो गया था, ठंड थी पर एक स्वेटर की। सामने से एक स्कूटर पूरी लाइट जलाये था। थोड़ा और आगे गये तो भी वह हिला नहीं, बस अपने स्थान पर खड़ा रहा। ऐसे स्थानों पर सामान्यतः लाइट हल्की कर दी जाती है जिससे सामने वाले की आँखों में वह चुँधियाये नहीं। आँखों पर सीधा प्रकाश पड़ने से हम दोनों को यह सूझ भी नहीं रहा था कि उसके बायें से निकलने का स्थान है कि दायें से? बीस-तीस सेकेण्ड तक जब वह स्कूटर फिर भी नहीं हिला तो अमिताभ से न रहा गया, वह सकोप बोला “कौन है भाई”। स्कूटर फिर भी नहीं हिला तो कुछ संशय हुआ कि हो न हो यह प्रकाश हमारे ही चेहरे पर स्थिर हो गया हो। चेहरे पर यह विचार आते ही सारा उल्लास उड़नछू हो गया, शरीर जड़वत हो गया। स्तब्ध स्थिति में आँखे अभी भी लाइट के पीछे के व्यक्ति को पहचानने का प्रयत्न कर रहीं थी।


प्रकाश कम होने पर सबसे पहले लम्बी दाढ़ी दिखायी दी, ऊपर गोल हेलमेट और स्कूटर के दोनों ओर धरती की छूती और धोती लपेटे टाँगें। ऊपर की साँस ऊपर, नीचे की नीचे, अमिताभ पुनः कुछ बोलने को उद्धत था, उसका हाथ पकड़कर फुसफुसाया, “दीपकजी हैं”।


शेष ज्ञात इतिहास रहा। चुपचाप दोनों स्कूटर पर दोनों बैठ गये, वापस सर झुकाये छात्रावास के अन्दर। पूजा में बस यही प्रार्थना करते रहे कि हे हनुमान, आज भक्तों को बचा लो। पूजा मे आचार्यजी भी थे, पर न उन्होंने उस समय कुछ कहा, न कभी बाद में, न घर पर कहा और न किसी और से। पता नहीं चला कि बिना छात्रावास में वापस आये उन्हें कैसे पता कि हम निकले हैं और कैसे हमको बीच हाट मे जा दबोचा। हमारा सारा बु्द्धिकौशल धरा का धरा रह गया। उसके बाद ग्लानि से भरे रहे, बस कहीं बाहर जाने की इच्छा ही नहीं रह गयी।


हमें न दण्ड ने मारा, न उपदेश ने, हम तो आचार्यजी के मौन से मारे गये।