26.7.15

निर्णय

समय के सोपान पर जब, एक निश्चित जगह आकर,
बुद्धि विकसित, तथ्य दर्शित स्वयं ही होने लगे ।
निज करों में जीवनी की बागडोरें, मैं सम्हाले,
बढ़ चला, जब लोग मुझ पर नियन्त्रण खोने लगे ।।१।।

एक पुस्तक सी खुली थी, कभी जो दुनिया छिपी थी,
जहाँ व्यक्तित्वों भरे अध्याय बाँटे जोहते थे ।
खोल आँखें, सामने तो, दीखती राहें अनेकों,
दृश्य मुझको रोकते थे, खींचते थे, सोहते थे ।।२।।

मनस में आनन्द की मदमस्त कोयल कूजती थी,
सकल जीवन के सुहाने स्वप्न दिन में दीखते थे ।
खड़ा मैं स्वच्छन्दता के भाव में कुछ और गर्वित,
हर तरफ अधिकार के विस्तार ही दिखने लगे थे ।।३।।

अनुभवों के कोष को मैं व्यग्र हो भरने लगा था ।
और अपने निर्णयों को स्वयं ही करने लगा था ।।

(वर्षों पहले लिखी थी, वह भाव पता नहीं, कहाँ चला गया?)

19.7.15

सुख-श्रृंगार

आज विचारों में उतराकर, सकल अलंकृत प्यार करूँ मैं ।
कहीं दूर एकान्त बैठकर, तेरा सुख-श्रृंगार करूँ मैं ।।

तृषा-दग्ध हर दृष्टि, मची है उथल-पुथल, तुझको डर है ।
स्वार्थ-तिक्त जग-रीति तुम्हारे पंख काटने को तत्पर है ।।

व्यर्थ तुम क्यों झेलो सब वार,
बसाकर सरस हृदय में प्यार,
सिमटकर बाहों में छिप जा,
तुम्हारे हर दुख का उपचार करूँ मैं ।

आ जा तेरे मुग्ध, सुवासित उपवन को तैयार करूँ मैं ।
तेरा सुख-श्रृंगार करूँ मैं, सकल अलंकृत प्यार करूँ मैं ।

12.7.15

कैसे कह दूँ ?

कैसे कह दूँ, यह जीवन, निर्झर, निर्मल बहता पानी है ।
कैसे कह दूँ, है खुशी बड़ी, जब सब राहें अनजानी हैं ।।

कैसे जीवन को सिंचित, शस्यित उपवन की उपमा दे दूँ ।
कैसे कह दूँ, अब शान्ति-चैन में सारी रैन बितानी है ।।

कैसे कह दूँ, कि जीवन में जो चाहा था, हर बार मिला ।
कैसे हो जाये चित्त शान्त, जब हर गुत्थी सुलझानी है ।।

निर्विकार यदि जीना हो,
निर्भय यथार्थ स्वीकार करो ।

कैसे कह दूँ, कि आज व्यवस्थित, मन का ताना बाना है ।
कैसे भी हो, पर जीवन का चिन्तन यथार्थ पर लाना है ।।

5.7.15

वर्षा

हरे रंग के शुभ्र वस्त्र से बना हुआ धरती का आँचल,
सकल मेघ हैं दिखा रहे आनन्द रूप निज बदल बदल ।
खड़े हुये सब वृक्ष शान से, देख रहे यह रूप निरन्तर,
छोटे छोटे पंख हिला खग, भ्रमण कर रहे शाख शाख पर ।।१।।

अन्तर में जीवन-दीप लिये, जा मिली बूँद सोंधी मिट्टी से,
छोटे छोटे हाथ खोल तृण, बुझा रहे हैं प्यास चैन से ।
अपने मद में नर्तन करती, नद भूल गयी सब सुध जग की,
है शान्त, धीर, गम्भीर धराधर, खुश लख क्रीड़ा प्रकृति-पुत्र की ।।२।।

स्थिर तडाग भी वर्षा में, लगता यूँ जैसे काँप रहा है,
टपटप टिपटिप कर स्वर-निनाद, जय वर्षा देवी जाप रहा है ।
कर किरण परावर्तित, छिन्नित, अपनी मस्ती में खेल रहा है,
सारे प्रतिबिम्बित अंगों को, अपने अन्तर में देख रहा है ।।३।।

बह रही शान्त शीतल समीर, पक्षी कलरव कर घूम रहें हैं,
प्रकृति अंग मानो सब मिलकर, सुख मदिरा पी झूम रहे हैं ।
बूँदों का झीना वसन ओढ़कर, प्रकृति शुभ्र सौन्दर्य दिखाती,
मानो घूंघट को ओट खड़ी, नववधू देख पति को शर्माती ।।४।।

छोटे पौधे भी उचक उचक, सब दृश्य देखने को अधीर,
हिलडुल मानो यह पूछ रहे, मौसम क्या आया हे समीर ।
बोला समीर शीतलता से, यह ऋतु अलबेली बूँदों की,
यह सकल प्रकृति के जीवन की, फल, फूस, रसों, मकरन्दों की ।।५।।

तुम इसी काल में जल पाकर, धीरे धीरे विकसित होते,
आकार ग्रहण कर यौवन में, पा जीवन रस शस्यित होते ।
आनन्द-अर्पिता है यह ऋतु, यह सकल विश्व जीवन-दात्री,
यह सर्व-रक्षिता, कर्म मार्ग पर, अखिल सृष्टि पर कृपात्री ।।६।।