21.8.22

सज्जन-मन


सब सहसा एकान्त लग रहा,

ठहरा रुद्ध नितान्त लग रहा,

बने हुये आकार ढह रहे,

सिमटा सब कुछ शान्त लग रहा।


मन का चिन्तन नहीं व्यग्रवत,

शुष्क हुआ सब, अग्नि तीक्ष्ण तप,

टूटन के बिखराव बिछे हैं,

स्थिर आत्म निहारे विक्षत।


सज्जन-मन निर्जन-वन भटके,

पूछे जग से, प्रश्न सहज थे,

कपटपूर्ण उत्तर पाये नित,

हर उत्तर, हर भाव पृथक थे।


सज्जन-मन बस निर्मल, निश्छल

नहीं समझता कोई अन्य बल,

सब कुछ अपने जैसा लगता,

नहीं ज्ञात जग, कितना मल, छल।

 

साधारण मन और जटिल जन,

सम्यक चिन्तन और विकट क्रम,

बाहर भीतर साम्य नहीं जब,

क्या कर लेगा, बन सज्जन-मन।

14 comments:

  1. Anonymous21/8/22 15:14

    उत्कृष्ट सर🙏

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  2. Anonymous21/8/22 21:19

    Waah praveenam soooo nice.👌👌👌

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  3. Anonymous21/8/22 22:12

    बहुत भावपूर्ण सर

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  4. Anonymous21/8/22 23:25

    अप्रतिम🙏

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  5. Anonymous22/8/22 10:43

    Welcome to Gorakhpur again sir

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  6. Anonymous24/8/22 08:19

    🙏🙏

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  7. Anonymous6/10/22 16:19

    बहुत ही सुंदर और मार्मिक सर

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  8. Anonymous22/5/23 08:02

    Bahut hee sundar rachna lambe samay baad blog me haal haal lene aayi sudhi pathak lekhak jano ki. Aapki wall me bhi ek saal se post nahi.

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  9. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज रविवार (28-05-2023) को   "कविता का आधार" (चर्चा अंक-4666)  पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'  

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  10. प्राकृतिक सनातन पथ से विमुख समाज की पीड़ाओं से जो मन होता है, उसकी सहज सुंदर अभिव्यक्ति।
    इस उदासीनता में यह जन भी आपके साथ है।

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  11. प्रणाम। कैसे हैं। बहुत दिन से कुछ लिखे नहीं।

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  12. प्रवीण जी,
    बहुत दिन हो गए मिलना नहीं हुआ ! आशा है स्वस्थ, प्रसन्न होंगे !🙏

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