21.12.16

मित्र हो मन

कब बनोगे मित्र, कह दो, शत्रुवत हो आज मन,
काम का अनुराग तजकर, क्रोध को कर त्याग मन,
दूर कब तक कर सकोगे, लोभ-अर्जित पाप मन,
और कब दोगे तिलांजलि, मोह-ऊर्जित ताप मन,
अभी भी निष्कंट घूमो, भाग्य, यश विकराल-मद में,
प्रेमजल कब लुटाओगे, तोड़ ईर्ष्या-श्राप मन ।

कब तृषा के पन्थ में विश्राम होगा,
कब हृदय की टीस का क्रम शान्त होगा,
कब रुकेंगी स्वप्न की अविराम लहरें,
और कब यह दूर मिथ्या-मान होगा ।

शत्रुवत उन्मत्त मन की, यातना न सही जाती ।
आँख में छलकी, करुण सी याचना है, बही जाती ।।

18.12.16

भान मुझको, सत्य क्या है

भान मुझको सत्य क्या है ?
सतत सुख का तत्व क्या है ?

किन्तु सुखक्रम से रहित हूँ,
काल के भ्रम से छलित हूँ,
मुक्ति की इच्छा समेटे,
भुक्ति को विधिवत लपेटे,
क्षुब्धता से तीक्ष्ण पीड़ित,
क्यों बँधा हूँ, क्यों दुखी हूँ ?

डगमगाते पैर क्यों हैं,
डबडबाती दृष्टि क्यों है,
राह सामने दीखती है,
क्रुद्ध होकर चीखती है,
बुद्धि का मत छोड़कर क्यों,
अंध मन-पथ जा रहा हूँ ।।

कठिन है यूँ रुद्ध जीना,
बद्ध पीड़ा, पर कही ना,
सौम्यता के आवरण में,
नित प्रवर्धित जाल मन में,
शब्द कैसे सी सकूँगा,
शान्त कैसे जी सकूँगा ।।

व्यक्त मुख पर कृत्रिमता है,
स्वार्थपूरित मृगतृषा है,
मैं अकेला भटकता हूँ,
प्रेम क्षण-कण ढूँढ़ता हूँ ।
कौन जाने, और कब तक,
सहज होगा चित्त मेरा ।।

नहीं वश में, व्यक्त क्या है ?
भान फिर भी, सत्य क्या है ?

14.12.16

लेखन में इष्टतम विलम्ब

देखा जाये तो लेखन में भी इष्टतम विलंब का वृहद उपयोग है। उपरिलिखित वाक्य सोचना और उसे लिखना, वैसे तो बड़ा स्वाभाविक लगता है पर यदि उस पर विचार करें तो सोचने की प्रक्रिया समाप्त होने के बाद ही लिखने का निर्णय होता है। कभी कभी तो लिखते या टाइप करते समय भी चिन्तन चलता रहता है और लेखन परिवर्धित हो जाता है। समुचित वाक्य बनाने के पहले कितनी देर सोचना है, यह बड़ा प्रश्न है। लिखते समय सोचने में व्यवधान होता है और सोचते समय लिखा नहीं जा सकता है। अभ्यास होते होते दोनों मिश्रित से हो जाते है और दोनों की भिन्नता का पता नहीं चलता है। लिखते लिखते ही सोच लेने में लेखन अत्यन्त शीघ्र हो सकता है। संभव है कि सरल विषय पर लेखन करने में ऐसा हो या किसी ज्ञात विषय को शब्दबद्ध करने में विचार स्वतः निकल आयें। कठिन, अज्ञात या कल्पनामयी पर चिन्तन करना ही पड़ता है। बौद्धिक क्षमता के अनुपात में समय भी लगता है। यदि उससे कम समय देंगे तो अभिव्यक्ति में भूल होने की संभावना है। हो सकता है कि वह पूर्ण न हो या जो अभीप्सित था वह संप्रेषित न हो पाया हो। आवश्यकता से अधिक सोचने में संभव है कि समय व्यर्थ हो रहा हो या जो अभिव्यक्ति हो वह समझने की दृष्टि से कठिन हो। पढ़ने वाले की दृष्टि से इष्टतम विलंब इतना हो कि वह भूल रहित हो, अधिक कठिन न हो, सुगाह्य हो, इष्टतम हो।   

पुस्तक लिखने का निर्णय भी इष्टतम विलंब के आधार पर लिया जा सकता है। जिस विषय पर लिखना है, उस पर कितना शोध और अध्ययन पर्याप्त हो। यदि कम शोध करके लिखा तो संभव हो पुस्तक की गुणवत्ता कम हो। बहुत अधिक शोध करके लिखें तो संभव हो कि लिखने में अधिक देर हो जाये या यह भी संभव है कि पुस्तक अत्यन्त कठिन हो जाये। जैसे ही कोई नया विचार या नयी खोज आती है, व्यवसायी या उद्यमी इस बात पर लग जाता है कि किस प्रकार उसका उपयोग करके आर्थिक लाभ अर्जित किया जा सके। तुरन्त ही उस कार्य में लग जाने से आप औरों से आगे तो हो जाते हैे, पर संभव हो उस समय तक शोध का स्तर अच्छा न हो, इस कारण आपके उत्पाद में वह गुणवत्ता न आ पाये जो व्यवसाय में अग्रणी रहने के लिये आवश्यक है। बहुत अधिक विलंब करने से आपके प्रतियोगी स्पर्धा में आगे निकल जायेंगे और आपके लिये कुछ शेष नहीं छोड़ेगे।  थोड़ा रुककर आर्थिक निर्णय लेने से या कहें तो इष्टतम विलंब के बाद निर्णय लेने से, हो सकता है कि आपके उत्पाद का प्रभाव महत्तम हो।

इस विषय पर जब गूगल में भ्रमण कर रहा था तो एक बड़ा ही रोचक ब्लॉग मिला। यह ब्लॉग ‘ऑपरेशन रिसर्च’ के क्षेत्र में था। इष्टतम विलंब पर गणेश और व्यास का उदाहरण उसमें दिया गया था। गणितीय शब्दावली का उपयोग न करते हुये उसे सरल भाषा में समझाता हूँ।

यह कथा सबको विदित है कि महाभारत के बाद जब व्यासजी ने उस कथानक को लिपिबद्ध करने का निर्णय किया तो उन्होने स्वयं लिखने के स्थान पर लेखक से कराने का निर्णय लिया। व्यासजी महाभारत सर्वसाधारण के लिये लिखना चाहते थे और इस कारण ग्रन्थ का आकार बड़ा होना स्वाभाविक था, लगभग एक लाख श्लोकों का। सारा कथानक उनके मस्तिष्क में स्पष्ट था, बस उसे शब्दबद्ध करना था। कथा का प्रवाह न टूटे, इसके लिये आवश्यक था कि वह बोलते रहें और कोई और उसे लिखता रहे। अब विचार किया गया कि सबसे अधिक गति से कौन लिख सकता है, गणेशजी का नाम आया, बुद्धिमान और ज्ञानवान, सबका हित चाहने वाले। प्रस्ताव भेजा गया, गणेशजी सहमत हो गये।

गणेशजी ने एक बाध्यता रखी कि यदि व्यासजी की बोलने की गति गणेशजी की लिखने की गति से कम हो गयी तो वह लिखना बन्द कर देंगे। कारण स्पष्ट था, जब सबकुछ उनके मस्तिष्क में स्पष्ट था तो बोलने में विलंब नहीं होना चाहिये। व्यासजी के लिये यह कठिन नहीं था पर बोलने की गति अधिक रखने के लिये सोचने के लिये कम समय मिलता। अधिक गति में त्रुटियों की संभावना अधिक हो जाती है। इस पर व्यासजी ने भी एक प्रतिबाध्यता रखी। व्यासजी ने गणेशजी से कहा कि आप श्लोक सुनने के बाद जब तक उसे पूरा समझ नहीं जायेंगे तब तक उसे लिखेंगे नहीं। यहाँ पर एक इष्टतम बिलंब की स्थिति उत्पन्न हो गयी, जिससे सोचने के लिये व्यासजी को तनिक अधिक समय मिल गया। यह महाभारत के त्रुटिरहित और अक्लिष्ट लेखन के लिये वरदान था।

यहाँ पर गति और समझ के बीच एक संतुलन स्थापित हुआ, त्रुटि और क्लिष्टता के बीच संतुलन स्थापित हुआ। यदि व्यासजी कम सोच कर, बड़ा सरल सा श्लोक गढ़ते तो उसमें त्रुटि की संभावना रहती।  साथ ही साथ गणेशजी उसे तुरंत ही समझकर लिख भी देते। इससे व्यासजी को अगले श्लोक के लिये कम समय मिलता, जिससे त्रुटि की संभावना और भी बढ़ जाती। इस प्रकार त्रुटि की मात्रा ग्रन्थ में उत्तरोत्तर बढ़ती जाती। यदि व्यासजी बहुत अधिक सोचकर क्लिष्ट सा श्लोक गढ़ते तो गणेशजी को उसे समझने में अधिक समय लगता। इससे व्यास को अगले श्लोक के लिये और अधिक समय मिलता। इस प्रकार महाभारत के श्लोक उत्तरोत्तर और भी क्लिष्ट होते जाते। दोनों ही अवांछित निष्कर्ष महाभारत जैसे ग्रन्थ के लिये व्यासजी को स्वीकार्य नहीं थे अतः उन्होने इष्टतम विलंब का मार्ग अपनाया जिससे महाभारत त्रुटिरहित और अक्लिष्ट हो सका।

यदि व्यास से कम मेधा का कोई वाचक होता, यदि गणेश से कम श्रुतलेखन का कोई लेखक होता, इन दोनों ही परिस्थितियों में महाभारत का वर्तमान स्वरूप सामने न आ पाता। महाभारत का संयोजन अद्भुत है। गीता जैसी कालजयी रचना उसी में से उद्धृत है। सांख्य, कर्म और भक्ति आदि के तत्व जिस सरलता से समझाये गये हैं, वह उसकी सर्वग्राह्यता सिद्ध करते हैं। पतंजलि योग सूत्र पढ़ने के बाद जब पुनः गीता पढ़ी तो लगा कि प्रत्येक सूत्र की विशद व्याख्या कृष्ण अर्जुन को समझा रहे हैं। जब कभी भी आप गीता पढ़ें तो कृष्ण-अर्जुन, संजय-धृतराष्ट्र के संवादों के साथ साथ व्यास-गणेश की इष्टतम बिलंब के संवाद को भी याद रखें।

10.12.16

इष्टतम विलंब

विश्व द्वन्द्व से भरा है, परस्पर विरोधी तत्व बद्ध हैं, लिपटे हैं। एक को अपनाने में दूसरा भी मुँह उठाये सामने खड़ा हो जाता है। प्रकृति का यही गुण विश्व को रोचक बनाये रखता है, लोगों में प्रवृत्ति भाव जागृत रखता है, उत्सुकता सदैव शेष रहती है। द्वन्द्व दलदल सा होता है, किसी भी एक दिशा में किये प्रयास आपको और भी उलझाते जाते हैं। दुख से निकलने का मार्ग सुख के प्रति आसक्ति नहीं है, वह तो और भी दुख में ढकेल देती है। सुख और दुख में समभाव ही निवृत्ति है। मुक्ति द्वन्द्व के किनारों में भटकने में नहीं है, द्वन्द्व से निर्द्वन्द्व की स्थिति में जाने में है। बुद्ध की मध्यमार्ग की परिकल्पना, कृष्ण की स्थितिप्रज्ञता और पतंजलि का चित्तवृत्तिनिरोध, निर्द्वन्द्व होने के ही प्रामाणिक उपाय हैं।

संतुलन तो पाना ही होगा। आप नहीं चाहेंगे तो प्रकृति आपको वह सिखा देगी, जीवन जीने के क्रम में आपको संतुलन करना आ ही जायेगा। हर दिन, जाने अनजाने, न जाने कितने निर्णय हम लेते हैं जिसमें संतुलन साधने का ही कार्य हम करते हैं। किसी को बस इतना ही ज्ञात हो जाये कि संतुलन किस समय आयेगा, कहाँ पर मिलेगा, कैसे प्राप्त होगा, उतना ही पर्याप्त है सिद्धि के लिये।

बौद्धिक स्तर पर ही नहीं वरन व्यवहारिक स्तर पर संतुलन का बहुत महत्व है। वेतन में कितना व्यय करना है, कितना बचाकर रखना है, संतुलन बिठाना पढ़ता है। जीवन के वर्ष नियत हैं, क्या करें, क्या न करें, संतुलन बिठाना पड़ता है। जीवन को कितना नियन्त्रण करें, कितना स्वतः बहने दें, संतुलन बिठाना पड़ता है। स्वाद और स्वास्थ्य में संतुलन बिठाना पड़ता है। ऐसे ही न जाने कितने संतुलन हम जीवन में बिठाते रहते हैं और उस पर विशेष ध्यान नहीं देते हैं।

ऐसा ही एक संतुलन होता है, निर्णय लेने में, उत्तर देने में, प्रतिक्रिया देने में। अतिशीघ्रता में लिये गये निर्णय बिना सोचे समझे लिये जाते हैं और बहुधा विपरीत ही पड़ते हैं। वहीं दूसरी ओर यदि सोचने में ही सारा समय बिता दिया तो प्रायः निर्णय ही औचित्यहीन हो जाता है। जहाँ त्वरित लिये निर्णयों में विचार की मात्रा कम रहती है, देर से लिये निर्णयों में फल पर प्रभाव की मात्रा कम होती है। यहाँ भी एक संतुलन बिठाना पड़ता है। निर्णय कितनी देर में ले जिससे वह सर्वाधिक प्रभावी हो।

कहावत है, काल करे सो आज कर, आज करे सो अब। विलंब करना उचित नहीं माना जाता है। निर्णय प्रक्रिया को देखें तो विलंब सदा हानिकारक भी नहीं होता है, वरन कई बार तो आवश्यक और लाभप्रद भी होता है। पर विलम्ब अधिक न हो, इष्टतम हो।  इष्टतम विलम्ब का अर्थ हुआ, उतना ही विलम्ब जितना सर्वोत्तम निर्णय लेने के लिये आवश्यक है। इष्टतम विलम्ब संतुलित निर्णय के लिये अत्यन्त ही महत्वपूर्ण है।

कितना विलंब करें
इस बारे में फ्रैंक पार्टनॉय की बहुचर्चित पुस्तक ‘Wait’ पढ़ी। उसमें इष्टतम विलंब को ढंग से समझाया गया है। मिलीसेकेण्ड से लेकर दिनों तक के विलम्बित निर्णयों से आये अधिक प्रभावी निष्कर्षों के ऊपर विधिवत शोध है यह पुस्तक। उदाहरणों और प्रयोगों के द्वारा सत्यापित तथ्यों ने इष्टतम विलम्ब को वैज्ञानिकता से सिद्ध किया है। उदाहरण स्वरूप किसी भूल पर क्षमा माँगने में कितना विलम्ब इष्टतम होता है। तुरन्त ही क्षमा माँगने का समय ठीक नहीं होता है, उस समय दोनों की ही मनःस्थिति उद्वेलित होती है। बहुत समय बाद क्षमा माँगने का कोई औचित्य नहीं रह जाता है। इष्टतम विलम्ब से कई लाभ होते हैं। घटना की चर्चा हो सकती है। क्यों भूल हुयी, इस पर विचार हो सकता है। उग्रता और उपेक्षा के बीच का भाव क्षमा के लिये इष्टतम होता है। शान्त मन में संवाद अर्थयुक्त होता है।

खेलों में भी इष्टतम विलम्ब के महत्व को समझाया गया है। लॉन टेनिस के खेल में यह पाया गया है कि जो खिलाड़ी अपने शॉट को जितना अधिक विलम्बित कर सकता है, वह उतना ही सफल है। लॉन टेनिस में यह विलम्ब कुछ मिलीसेकण्ड में होता है। निश्चय ही यह विलम्बित कर सकने की क्षमता अभ्यास से आती है पर विलम्बित प्रतिक्रिया में खिलाड़ी के पास विकल्प अधिक हो जाते हैं। क्रिकेट में भी यही सिद्धान्त सटीक बैठता है। सोच कर देखिये कि देर से शॉट खेलने वाले खिलाड़ियों के पास अधिक शॉट होते हैं।


गणेश और व्यास की कहानी में और पुस्तक लेखन में इष्टतम विलंब की चर्चा अगले ब्लॉग में।

7.12.16

सूत्र शैली

अनुबन्ध चतुष्ट्य को लेखन का आधार मान लेने से इस विषय पर एक सुस्पष्टता आ जाती है। लिखने के पहले इस पर विचार कर लेने से लेखन का स्तर स्वतः ही बढ़ जाता है। इसका अनुपालन पुस्तक लिखने के अतिरिक्त लेखन की अन्य विधाओं में भी किया जाना चाहिये। चलिये, अपने ब्लॉग में इसे प्रयुक्त करते हैं। मेरे ब्लॉग के विषय विविध हैं, जीवन से जुड़े, अध्ययन किये हुये, सामाजिक अवलोकन के, आत्मिक अनुभव के, और ऐसे ही जाने कितने विषय। प्रयोजन मात्र अभिव्यक्ति है, विशुद्ध स्वार्थ, क्योंकि किसी विषय को लिखने और पाठकों को समझाने के क्रम में वह और भी स्पष्ट हो जाता है। बचपन में भी लिखकर पढ़ते थे, सीखते थे, समझते थे। लिखने और उस पर आयी टिप्पणियों से विषय की समझ और भी विस्तारित हो जाती है। प्रयोजन हिन्दी का प्रचार प्रसार भी है, जिन विषयों में समान्यतः अंग्रेजी का प्राधान्य है, उन्हें हिन्दी पाठकों के लिये सुलभ बनाना है।  प्रयोजन उस विषय पर कोई विशिष्ट टीका या संदर्भ लिखना नहीं है। अधिकारी कोई भी है जो उस विषय में रुचि रखता हो, अधिकारी सर्वसाधारण हैं। सम्बन्ध बड़ा सरल है, ब्लॉग पढ़ने के बाद पाठक के जीवन में कोई विशेष परिवर्तन की आशा नहीं करता हूँ, बस पढ़ते समय पाठक उन्हीं भावनाओं से होकर निकले जिन भावनाओं से प्रेरित हो वह ब्लॉग लिखा गया था।

अपने ब्लॉग का अनुबन्ध चतुष्ट्य लिखने के बाद ऐसा लगा कि इन संदर्भों में कुछ विशेष और स्तरीय लेखन नहीं कर पा रहा हूँ, संभवतः इसीलिये आनन्द का भाव नहीं जग पा रहा है। सतही अनुभव और परिधि में घूमने में तो कोई आनन्द नहीं, जाना तो केन्द्र तक पड़ेगा तभी कुछ तत्व मिलेगा। उन विषयों पर लिखने में अत्यधिक संतुष्टि मिली जिन पर गहराई में उतर कर लिखा, विषय को सामान्य से अधिक समझा, विषय के सब पक्षों को समझ और समझा पाया। निश्चय ही संतुष्टि की उन स्मृतियों को अपने लेखकीय जीवन में पुनर्स्थापित करना पड़ेगा, तब कहीं आनन्द के कुछ छींटे मन पर पड़ेंगे।

सूत्र शैली भारत की ज्ञान परंपरा की अत्यन्त सशक्त विधा है। यह साक्षी है कि उस समय के संवाद, लेखन और अभिव्यक्ति का बौद्धिक स्तर कितना उत्कृष्ट था। योगसूत्र जैसा कठिन विषय पतंजलि ने मात्र १९५ सूत्रों में लिख दिया,  या कहें तो लगभग ६० श्लोकों में। पाणिनी ने पूरी संस्कृत व्याकरण मात्र ४००० सूत्रों में समाहित कर दी। सांख्य के प्रणेता कपिल मुनि ने मात्र २२ सूत्रों में अपने सिद्धान्त के प्रतिपादित किया। सूत्र में न्यूनतम शब्दों का प्रयोग उसे शाब्दिक कोलाहल से मुक्त कर और भी प्रभावी बना देता है। शब्दों का चयन सूत्र के अर्थ को असंदिग्ध रूप से व्यक्त करने में समर्थ होता है। सारवत कहना, यह सूत्रशैली के ही हस्ताक्षर हैं, विचारों की श्रंखला को कम वाक्यों में कह पाने की शक्ति। यदि एक से अधिक अर्थ बताना आशय है तो उस कला में भी सूत्रशैली सटीक बैठती है, उपयुक्त शब्दों को प्रयोग से यह सुनिश्चित होता है। सूत्र भी लम्बे नहीं, छोटे से, याद करने में सरल, विस्तार से समझाने में सरल। एक तो संस्कृत स्वयं में ही कोलाहल मुक्त भाषा है, न्यूनतम शब्दों में अधिकतम प्रेषित करने की सक्षमता समाये भाषा। धातु, प्रत्यय, विभक्ति, उपसर्ग, प्रत्याहार, संधि, समास आदि सबका एकल उद्देश्य अभिव्यक्ति की सुगठता और सघनता है। उस भाषा में व्यक्त सूत्रशैली में एक भी अक्षर अतिरिक्त नहीं है, एक भी अर्थ लुप्त नहीं है। इस तथ्य की उद्घोषणा प्रणेताओं ने अपनी रचनाओं के पहले ही किया है।

अभिव्यक्ति की इस पराकाष्ठा को देखता हूँ तो गर्व भी होता है और लाज भी आती है। गर्व इस बात का कि हमारे पूर्वज सतत चिन्तनशील थे, अद्भुत मेधा के स्वामी थे। लाज इस बात की आती है कि उन पुरोधाओं की संतति होने के बाद भी, उनके द्वारा निर्मित संस्कृति का पलने का लाभ होने के बाद भी हम उन मानकों के आसपास भी नहीं छिटकते हैं। जितना पढ़ता हूँ, जितना सोचता और समझता हूँ उतना ही अभिभूत हो जाता हूँ। अब आप ही कल्पना कीजिये कि जब मन की स्थिति नित उन उच्च मानकों पर जी रही हो, उस समय कुछ भी ऐसा कहना जिसमें गुणवत्ता न हो, एक निष्कर्षहीन श्रम लगता है। यही कारण रहता होगा कि लेखन का आनन्द अल्पतर होता गया।

ऐसा नहीं है कि सूत्रशैली कोई कृत्रिम तकनीक है। शब्दों की शक्ति अथाह है, एक एक शब्द जीवन बदलने में समर्थ है। इतिहास साक्षी है कि सत्य, अहिंसा, समानता, न्याय, अपरिग्रह, धर्म आदि कितने ही शब्दों ने समाज, देश और संस्कृतियों की दिशा बदल दी है। पहले उन शब्दों को परिभाषित करना, संस्कृति में उनके अर्थ को पोषित करना, उन्हें विचारपूर्ण, सिद्धान्तपूर्ण बनाना। कई कालों में और धीरे धीरे शब्द शक्ति ग्रहण करते हैं। उदाहरणस्वरूप योग कहने को तो एक शब्द है पर पूरा जीवन इस एक शब्द से साधा जा सकता है। सत्य और अहिंसा जैसे दो शब्दों से गांधीजी ने देश के जनमानस की सोच बदल दी। ऐसे ही शब्दों ने राजनैतिक परिवर्तन भी कराये हैं और समाज की चेतना में ऊर्जा संचारित की है। व्यक्तिगत जीवन में भी सूत्रशैली की उपयोगिता है। बचपन परीक्षा की तैयारी करते समय किसी विषय को पढ़ते समय हम संक्षिप्त रूप में लिख लेते हैं ताकि परीक्षा के पहले कम समय में उन्हें दोहराया जा सके। यही नहीं, विज्ञान के बड़े बड़े सिद्धान्त भी गणितीय सूत्रों के रूप में व्यक्त किये जाते हैं।

सूत्रशैली का अर्थ मात्र संक्षिप्तीकरण नहीं है। वृहद अर्थों में देखा जाये तो यह एक संतुलन है। अनुबन्ध चतुष्ट्य जहाँ एक ओर आवश्यक और अनावश्यक के बीच संतुलन करता है, सूत्रशैली अधिकारी का निर्धारण कर विस्तार और संप्रेषणीयता के बीच संतुलन करती है। किसी सिद्धान्त को विस्तार से लिख देना सरल है पर उसे याद रख पाना और उचित समय में प्रयोग में ला पाना कठिन है। अत्यन्त क्लिष्ट करने से संक्षिप्तीकरण तो हो सकता है, पर उसकी संप्रेषणीयता में ग्रहण लग जाता है। शब्दों को उस सीमा तक न्यून किया जाये जब तक अर्थ पूर्णता से संप्रेषित होता रहे। जिस समय लगे कि एक भी शब्द हटाने से संप्रेषण प्रभावित होगा, वही सूत्र की इष्टतम स्थिति है। एक और शब्द जब अधिक और व्यर्थ प्रतीत हो तो समझ लीजिये कि आपने सूत्र पा लिया। संतुलन का अर्थ ही यही होता है कि दो विपरीत लगने वाले गुणों को किस सीमा तक साधा जाये कि प्रभाव महत्तम हो।

संतुलन में ही बुद्ध का मध्यमार्ग छिपा है, कृष्ण की स्थितिप्रज्ञता छिपी है, प्रकृति और पुरुष का साम्य छिपा है, जीवन के सफलतापूर्वक निर्वाह की कुंजी छिपी है।


जीवन और लेखन में संतुलन के अन्य उदाहरण अगले ब्लॉग में।

4.12.16

लेखकीय संतुलन

जब कभी लगता है कि लेखन में आनन्द नहीं आ रहा है तो लेखन कम हो जाता है। 

लेखन अपने आप में एक स्वयंसिद्ध प्रक्रिया नहीं है। इसके कई कारक और प्रभाव होते हैं। क्यों लिखा जाये, कैसे लिखा जाये और क्या लिखा जाये, ये मूल प्रश्न आठ वर्ष के ब्लॉग लेखन के बाद आज भी निर्लज्ज प्रस्तुत हो जाते हैं। लेखन के प्रभाव बिन्दु पठन के कारक होते हैं। क्यों पढ़ा जाये, क्या पढ़ा जाये, इस पर निर्भर करता है कि क्या लिखा जाये। जीवन में बहुधा लगता है कि केवल शुष्क ज्ञान ही ग्रहण हो रहा है और उसका कोई अनुशीलन नहीं हो रहा है। तब जीना प्रारम्भ हो जाता है, ज्ञान का व्यवहार बढ़ जाता है, पढ़ना कम हो जाता है, लिखना कम हो जाता है। जब सारगर्भित ज्ञान के सूत्र मिलने लगते हैं तो विस्तार से मन हट जाता है, सूत्रों और शब्दों पर ही मनन करने में दिन निकल जाते हैं, पढ़ना कम हो जाता है, लिखना कम हो जाता है। जब कभी गहराई मिलती है, सिद्धान्तों के सुलझाव समझ में आने लगते हैं, तब मात्र पढ़ते रहने का मन करने लगता है, लिखना कम हो जाता है।

तीन वर्ष पहले मन में एक भाव उठा कि एक पुस्तक लिखी जाये। विषय बहुत थे जिन पर लिखा जा सकता था, हल्के और भारी, दोनों ही विषय थे। कई मित्रों से चर्चा की। उसी क्रम में एक कठोर सुझाव भी आया। जब तक लिखने की उत्कट इच्छा न हो, तब तक पुस्तक न लिखें। मन के विचार और उनमें समाहित विविधता व्यक्त करने के लिये ब्लॉग एक सशक्त माध्यम है। यदि कुछ लिखना ही हो तो ऐसा लिखा जाये जिसमें कुछ वैशिष्ट्य हो। वह वैशिष्ट्य लाने के लिये स्तरीय अध्ययन आवश्यक है। अनुभव को एक बार ही व्यक्त किया जा सकता है क्योंकि कल्पना हर बार नव कलेवर ओढ़ कर नहीं आ सकती है। इस तथ्य पर पर्याप्त सोचने के बाद पुस्तक लिखने का विचार स्थगित कर दिया गया। जो विषय पुस्तक के बारे में सोचे थे, उन्हें भी चिन्तन की प्रथम पंक्ति से उठा कर पीछे बैठा दिया गया। सहसा लगा कि सभी विषयों ने विद्रोह सा कर दिया हो। न कोई नवविचार, न कोई रोचक दृष्टिकोण, स्तब्ध सी मनःस्थिति, लिखना कम हो गया। अच्छी बात पर यह रही कि पढ़ना कम नहीं हुआ।

यह सत्य है कि व्यस्तता रही, पर व्यस्तता के कारण नियमित लिखने का समय नहीं मिला, यह तथ्य तर्कपूर्ण नहीं लगा। बहुधा अच्छा लेखन व्यस्तता के समय में ही लिखा है, एक प्रवाह में, बहुत कम समय में। जब बलात लिखने का प्रयास होता है तो उतना ही लिखने में बहुत समय लग जाता है। पता नहीं क्यों, पर प्रवाह कम हो गया। उतना ही लिखने के लिये अधिक मानसिक श्रम करना पड़ता था, आनन्द की मात्रा कम होती गयी, लिखना कम होता गया। प्रवाह क्यों कम होता है, यह समझ नहीं आता है, पर जब प्रवाह कम हो जाता है तो कुछ समझ नहीं आता है।

स्वाध्याय के क्रम में जब प्राचीन ज्ञान को समझना प्रारम्भ किया तो दो विशेष तथ्यों से साक्षात्कार हुआ। पहला अनुबन्ध चतुष्ट्य और दूसरा सूत्र शैली।

अनुबन्ध चतुष्ट्य वे चार बन्धन हैं जिनका लेखक को अनुसरण करना पड़ता है। अनुसरण करने के लिये आवश्यक है कि उन्हें पुस्तक के प्रारम्भ में ही घोषित कर दिया जाये। भारतीय ज्ञान परंपरा में यह बन्धन एक स्थायी स्तंभ रहा है। ये चार हैं - विषय, प्रयोजन, अधिकारी और सम्ब्न्ध। किस विषय पर पुस्तक है, यह प्रारम्भ में ही घोषित करना होता है। जब उस विषय पर कितना कुछ लिखा जा चुका है तो वर्तमान प्रयत्न का प्रयोजन क्या है। कौन व्यक्ति इसे पढ़ने के योग्य हैं या किसको समझ में यह पुस्तक आयेगी। इस पुस्तक के पढ़ने के बाद उस व्यक्ति में क्या परिवर्तन आयेगा। सीमायें वहुत ही स्पष्ट रूप से निर्धारित की गयी हैं। हम बहुधा केवल विषय पर ही सोच कर बैठ जाते हैं, किसी विषय में यदि थोड़ा अधिक जान जाते हैं तो लगता है कि उसे व्यक्त कर दिया जाये। शेष तीन पर तो विचार आता ही नहीं है। संभवतः अनुबन्ध चतुष्ट्य ही कारण रहा होगा कि प्राचीन समय में अनावश्यक साहित्य छन गया और बाहर नहीं आया। पुस्तक लिखना तब एक विशेष उपलब्धि रहा करती होगी। जो छनकर कालान्तर में बाहर आया, वह बार बार पढ़ने का मन करता है, वह संस्कृति की धरोहर बना।

अनुबन्ध चतुष्ट्य को यदि पुस्तक लिखने का आधार बनाया जाये तो बहुत से संशय दूर हो जाते हैं। न केवल लेखक के लिये वरन पाठक के लिये भी। जिन सिद्धान्तों पर लेखन होता है उन्हीं पर पाठन भी होता है। विषय का विस्तार असीमित है, सबकी अपनी एक कहानी है, सबकी अपनी समझ और परख है। सब अपनी कहने में आ जायें तो लिखने वाले अधिक हो जायेंगे, पढ़ने वाले कम। जैसे आजकल किसी भी चर्चा में कहने वाले अधिक रहते हैं और सुनने वाले कम मिलते हैं। केवल अपनी कह देना विषय नहीं हो सकता। उसमें कुछ मनोरंजन हो सकता है, कुछ भाव हो सकते हैं, कुछ खिचड़ी सा हो सकता है वह, पर स्वादिष्ट साहित्य नहीं हो सकता। आँकड़े देखें तो यही हो रहा है, २० लाख पुस्तकें हर वर्ष लिखी जाती हैं और औसत २५० प्रतियाँ प्रति पुस्तक बिकती हैं। अधिकांश के लिये तो पुस्तक का मूल्य और लगाया हुआ श्रम भी निकाल पाना कठिन होता है।

यदि बताने के लिये सारतत्व है, तो भी बिना प्रयोजन के लेखन का कोई औचित्य नहीं। जब विषय जीवन से जुड़ा होगा, कल्याण से जुड़ा होगा, ज्ञान से जुड़ा होगा, तो उसका प्रयोजन उतना ही अधिक होगा। अधिकारी प्रारम्भ में ही निर्धारित कर देने से लेखक के लिये अपना बौद्धिक स्तर नियत कर पाना सरल होता है। पुस्तक का आकार इस पर विशेष रूप से निर्भर करता है। यदि आप किसी विषय पर सर्वसाधारण के लिये लिख रहे हैं, तो हर पक्ष को समझा समझा कर लिखना होगा और पुस्तक का आकार बढ़ जायेगा। किसी भी जटिल पक्ष पर जाने के लिये आपको अत्यन्त कठिनाई होगी। आपको उदाहरणों औप कथाओं को विशेषरूप से सम्मिलित करना होगा। दूसरी और यदि प्रबुद्ध वर्ग के लिये कोई विषय व्याख्यायित किया जा रहा है तो कम शब्दों में अधिक बात कही जा सकती है। दोनों ही साधनों में विषय की गुणवत्ता से कोई समझौता नहीं किया जाता है, बस पुस्तक का आकार अधिकारी के अनुसार घटता बढ़ता रहता है। जब कई शास्त्र सूत्र के प्रारूप में दिखायी पड़ते हैं तो लिखने वाले और उन्हें पढ़ने वालों का उत्कृष्ट बौद्धिक स्तर समझ में आता है।


लेखकीय संतुलन के और पक्ष अगले ब्लॉग में।