28.7.12

स्वर्ग मही का भेद

स्वर्ग का नाम आते ही उसके अस्तित्व पर प्रश्न खड़े होने लगते हैं, गुण और परिभाषा जानने के पहले ही। यद्यपि सारे धर्मों में यह संकल्पना है, पर उसके विस्तार में न जाते हुये मात्र उन गुणों को छूते हुये निकलने का प्रयास करूँगा, जिनसे उर्वशी और उसकी प्रेम भावनायें प्रभावित हैं। इस प्रेमकथा में स्वर्ग से पूरी तरह से बच पाना कठिन है क्योंकि इसमें प्रेम का आधा आधार नर और नारी के बीच का आकर्षण है, और शेष आधार स्वर्ग और मही के बीच के आकर्षण का। स्वर्ग और मही के आकर्षण की पहेली समझना, प्रेम के उस गुण को समझने जैसा है जिसमें परम्परागत बुद्धि गच्चा खा जाती है।

अच्छे कर्म और परिश्रम करने से स्वर्ग मिलता है। स्वर्ग की परिभाषा कुछ पहचानी पहचानी से लगे, अतः समानता हेतु यह माना जा सकता है कि स्वर्ग हमारी पृथ्वी के उन स्थानों जैसा है, जहाँ ऐश्वर्य है, धनधान्य है, जहाँ किसी चीज की कमी नहीं है। जहाँ सब कुछ बहुत ही अच्छा है, आनन्द विलास की सारी सुविधायें हैं, सुख ही सुख पसरा है। जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि, इसकी तनिक छाँव नहीं है वहाँ। वहीं दूसरी ओर मृत्युलोक में पीड़ा है, हर सुख में दुख छिपा है, द्वन्द्व भरा है। मृत्युलोक में रहने वाले हम सब, स्वाभाविक है कि इसी कारण से स्वर्ग के प्रति आकृष्ट होते हैं।

पुरुरवा भी अपवाद नहीं हैं। उर्वशी नारी है और सौन्दर्य का चरम है, आकर्षण गहरा होना ही है। साथ ही साथ वह स्वर्ग से भी है, जहाँ प्रणय एक कला है, जहाँ ऐश्वर्य एक जीवन पद्धति है, जहाँ श्रृंगार समीर संग बहता है। उर्वशी के प्रति पुरुरवा की प्रेमासित आकांक्षा सहजता से समझी जा सकती है, पर उर्वशी को पुरुरवा के अन्दर क्या भाया जिसके लिये वह स्वर्ग छोड़कर मही पर आने को उद्धत हो गयी। इस तथ्य को समझ पाना न केवल प्रेम का रहस्य जानने में सहायक होगा वरन मृत्युलोक के नरों को वह अभिमान भी देगा जो स्वर्गलोक में अनुपस्थित है।

चलिये ढूढ़ते हैं कि पुरुरवा में मृत्युलोक के कौन से विशेष गुण हैं जिससे उर्वशी अभिभूत है। पुरुरवा सुन्दर हैं, राजा हैं, शक्तिशाली हैं, वीर हैं, देवताओं का साथ देते हैं, सात्विक हैं, गुणवान हैं। पर यह सब तो स्वर्ग के देवों में भी है। कहीँ ऐसा तो नहीं कि उर्वशी को मृत्युलोक की मूलभूत प्रकृति ही अच्छी लगती हो, वही प्रमुख हो, पुरुरवा गौड़ हों। ऐसा भी हो सकता है कि प्रेम बिना किसी नियम के अनियन्त्रित ही उमड़ आता हो, उर्वशी को स्वयं भी न समझ आता हो कि उसे पुरुरवा से प्रेम क्यों हो गया। संभावनायें अनेक हैं। जब भी संशय हो, तो सबसे अच्छा समाधान वही कर सकता है जिसके बारे में संशय हो। उर्वशी के संवाद ही इस संशय को मिटाने में सहायक होंगे।

स्वर्ग के सुखों में कल्पना की प्रधानता हैं, वहाँ रूप का आनन्द दृष्टि से ही मिल जाता है, वहाँ व्यञ्जन का आनन्द उसकी गन्ध से ही मिल जाता है। जब मन की कल्पना सुख का निर्धारण करने लगे और सुख का संचार शरीर तक न पहुँचे तो कुछ छूटा छूटा सा लगता होगा स्वर्ग में, कुछ कुछ कृत्रिम सा लगता होगा स्वर्ग में। यद्यपि प्रेम का प्रारम्भ दृष्टि और कल्पना के माध्यम से ही होता है, स्वर्गलोक में भी और मृत्युलोक में भी, पर स्वर्गलोक में वह संचार कल्पना तक ही सीमित रहता है, मृत्युलोक में वह संचार शरीर तक आता है, अप्रतिबन्धित। शरीर से सुख भोगने की प्रवृत्ति दुख भी देती है, शरीर का सुख अल्पकालिक भी होता है। द्वन्द्व देता है शरीर, तब सुख की अनुपस्थिति दुख का आधार निर्माण करने लगती है। यद्यपि मृत्युलोक में दुख की उपस्थिति सुख की उपलब्धता बाधित और सीमित कर देती हैं, पर दुख के बाद सुख की अनुभूति में जो गाढ़ापन होता है, वह स्वर्गलोक में कहीं नहीं मिलता है। उर्वशी और अन्य देवता जिन्हें मृत्युलोक का आकर्षण है, उनके अन्दर सुख का गाढ़ापन एक न एक कारक होगा।

प्रेम स्वर्ग में एक क्रीड़ा है, देवताओं के लिये भी और अप्सराओं के लिये भी, वहाँ भावों से अधिक भोगों की प्रधानता है। प्रेम हुआ तो हुआ, नहीं तो जीवन चलता ही रहता है। जहाँ भोगों की अधिकता हो, वहाँ प्रेम को क्या वरीयता मिलेगी, यह विचार कर पाना कोई कठिन कार्य नहीं है। वहीं मृत्युलोक में प्रेम से बड़ा कोई रोग नहीं है, जिसे हो जाता है, उसे कोई औषधि नहीं मिलती है, न नींद आती है, न स्थायित्व मिलता है। कारण यही होगा कि हम प्रेम को अत्यधिक गम्भीरता से लेते हैं। जहाँ सुखों का आकाल पड़ा हो, वहाँ प्रेम में ही सुखों की उपस्थिति ढूढ़ने लगते हैं हम पृथ्वीवासी। उर्वशी के मन में प्रेम की उस एकात्मता और गूढ़ता की आकांक्षा जगी होगी, प्रेम के उस पक्ष की जो मात्र मृत्युलोक में मिलती है। उर्वशी के लिये मृत्युलोक के प्रेम का लोभ यातना से भरा होने वाला था, माँ बनने की पीड़ा से भरा, फिर भी वह प्रेम की उस गहराई को छूना चाहती थी जो केवल मृत्युलोक में सुलभ थी।

तीसरा कारण नर के भीतर की वह अग्नि है जो उसे संघर्ष करते रहने को प्रेरित करती रहती है। देवताओं के मन में कोई कामना, द्वन्द्व व परिताप शेष नहीं रहता है, तब उस अग्नि की अनुपस्थिति भी स्वाभाविक है जो इन गुणों का कारण बनती है। नर जानता है कि जब तक उसके अन्दर वह अग्नि है, जब तक उसके अन्दर कामना है, तभी तक सब उसके सम्मुख नत मस्तक हैं, सब इसी अग्नि का सम्मान करते हैं, देव भी, दानव भी। यही अग्नि द्वन्द्व उत्पन्न करती है, मन को स्थिर भी नहीं रहने देती है, उसे बारी बारी से दोनों तटों पर डुलाती है, कभी स्वर्ग सुहाता है, कभी मही सुहाती है। वह अग्नि रक्त की ऊष्णता में विद्यमान है, जब रक्त नर की नसों में अनियन्त्रित दौड़ता है, जब हुंकार अग्नि बरसाती है, सामने उपस्थित जन सहम जाते हैं, सुरक्षित आश्रय ढूढ़ते हैं। जिस समय पुरुरवा ने उर्वशी को केसी दानव से बचाया होगा तो अनजाने में हुये स्पर्श में इसी अग्नि की तपन उर्वशी के उर में बस गयी होगी।

प्रेम शरीर का भी विषय है, मन में उत्पन्न होता है पर निरूपण शरीर में पाता है। जैसे जैसे आत्मा का प्रकाश फैलता है, शरीर अपना महत्व खोने लगता है, जन्म मृत्यु के चक्र से बाहर निकलने लगता है। आत्मा का प्रकाश प्रेम के उपासकों के लिये बाधक है। गन्धमादन पर्वत पर, जब उर्वशी ने पुरुरवा से पूछा कि यदि आपको प्रेम था तो आपने मेरा हरण क्यों नहीं कर लिया? जब पुरुरवा कर्म और विकर्म की बात करने लगे तो उर्वशी का हृदय धक से रह गया, उसे लगा कि वह पुनः किसी देव की बाहों में पड़ी है। उसने कहा कि मैं अन्धकार की प्रतिमा हूँ, मैं आपके हृदय के अन्धकार पर राज्य करती हूँ, उसी के माध्यम से मेरा आप पर अधिकार है, जिस दिन आपको प्रकाश मिलेगा, आप भी देव हो जाओगे, वे देव जिन्हे छोड़ मैं आपकी बाहों में पड़ी हूँ।

प्रेम अंधकार से पोषित क्यों होता है, कहना कठिन है, पर दैनिक जीवन में उसका उदाहरण मिल जाता है। पति कभी कोई धार्मिक ग्रन्थ पढ़ने लगे तो पत्नी तुरन्त ही सशंकित हो जाती हैं। उन्हें लगने लगता है कि पति विरक्त हो जायेंगे, उनके प्रेम में भला ऐसी क्या कमी रह गयी जो पति विरक्तिमना होने लगे हैं। आप पर उनका और प्रेम उमड़ने लगता है। मही में एक गुरुता है, सब चीजों को अपनी ओर आकर्षित करने की, प्रेम भी आकर्षण का विषय है अतः उसमें भी गुरुता स्वाभाविक है। प्रेम और मही में स्वभावों का मिलन है, स्वर्ग प्रेम को समझने में असमर्थ रहता है, उर्वशी को प्रेम की अनुभूति पाने मही पर उतरना पड़ता है, किसी पुरुरवा के बाहु-वलय में।

25.7.12

उर्वशी, एक कथा

कथाओं का अपना संसार है, सच हों या कल्पना। उनमें एकसूत्रता होती है जो पात्रों को जोड़े रहती है। कथा में पात्रों का चरित्र महत्वपूर्ण है या परिस्थितियों का क्रम, कहना कठिन है, क्योंकि दोनों ही ऐसे गुँथे रहते हैं कि उन्हें अलग अलग कर उनका विश्लेषण असंभव सा होता है। उर्वशी की कथा का भी यही स्वरूप है, उर्वशी, पुरुरवा और समस्त पात्र परिस्थितियों से संबद्ध हो कथा का निर्माण करते हैं, एक बड़ी रोचक कथा का।

उर्वशी अप्सरा है, वह स्वर्ग की संस्कृति का अंग है, नृत्य, संगीत, मोहन, सम्मोहन आदि उसके दैनिक कर्म हैं पर उसे कुछ अतृप्त सा लगता है। सर्वसुखमयता के संसार में स्थिर पड़े रहने से उसे प्रकृति और उसके तत्वों के आड़ोलन का आस्वाद नहीं मिलता है। रात्रि को बहुधा वह अपनी सहेलियों के साथ मृत्युलोक का भ्रमण करती है। स्वर्ग में सब शाश्वत है, मृत्युलोक में सृजन और लुप्त होने की क्रिया उसे लुभाती है। रात में ओस का बनना, सूर्यकिरण पड़ते ही उड़ जाना, फूलों का खिलना, बन्द हो जाना, इनमें उसे कुछ क्रियाशीलता दिखती है, कुछ प्रकृतिशीलता दिखती है। मृत्युलोक के तत्वों की जीवटता, और जिजीविषा के प्रति मन में स्फोटित अग्नि, ये गुण उसके आकर्ष के प्रमुख उद्दीपन है। ऐसा क्यों है, यह एक वृहद विषय है, क्योंकि अध्ययन यह भी स्पष्ट करेगा कि देवता सदैव पृथ्वी में जन्म लेने के लिये लालायित क्यों रहते हैं?

पुरुरवा प्रतापी राजा हैं, चन्द्रवंशी, प्रतिष्ठानपुर के, आधुनिक प्रयाग के निकट। देवताओं के अधिकार क्षेत्र में दानव जब भी उत्पात मचाते हैं, पुरुरवा को सहायता के लिये पुकारा जाता है। वीरता, प्रखरता, संवेदनशीलता आदि सभी गुण होने पर भी उन्हें स्वर्ग का तन्त्र और ऐश्वर्य अत्यधिक अभिभूत करता है, स्वर्ग का हर तत्व सुन्दर लगता है। उसे पाने की एक अग्नि मन में रहती है। स्वर्गलोक के उत्सवों के बाद बहुधा वह रथारूढ़ बादलों में वेग से भ्रमण किया करते हैं, कोई दिशा नहीं, कोई ध्येय नहीं, बस मन की अग्नि को बुझाने, आवरगी सा कुछ।

दोनों की ऐसी ही मनःस्थिति की कोई रात्रि है, भ्रमणशील उर्वशी को केसी दानव देखता है, अरक्षित पा अपहरण कर लेता है, उर्वशी सहायता के लिये पुकारती है, निरुद्देश्य घूम रहे पुरुरवा की विचारतन्द्रा टूटती है। वीर पुरुरवा केसी दावन को युद्ध के लिये ललकारते हैं, मदमत्त और भीमकाय दानव पर सिंह सा टूट पड़ते हैं पुरुरवा। केसी से उर्वशी को छीनने के प्रयास में कई बार अनायास ही पुरुरवा व उर्वशी के शरीरों का स्पर्श होता है, नयन मिलते हैं, उस छुअन की तरंगें आसक्तिमय हो दोनों को ही अपहरित कर लेती है, अकथ प्रेम में। आहत केसी दानव भाग जाता है, पुरुरवा उर्वशी को सादर व ससम्मान वापस स्वर्ग भेज देते हैं, पुरुरवा वापस पृथ्वी आ जाते हैं। दोनों ही अपना हृदय खो आते हैं, स्मृतियाँ ले आते हैं, प्रेम दोनों का जीवन आच्छादित कर लेता है।

उर्वशी के लिये अपने प्रेम को पहले न कह पाने की लज्जा, पुरुरवा के लिये अस्वीकार कर दिये जाने का भय, पहल नहीं हो पाती है, प्रेम की अतृप्त ज्वाला दोनों का ही मन और जीवन लीलने लगती है। अनमनी सी उर्वशी एक बार विष्णु और लक्ष्मी पर आधारित नृत्यनाटिका कर रही है, लक्ष्मी का अभिनय करते हुये वह विष्णु को पुरुषोत्तम के स्थान पर पुरुरवा कह जाती है। निर्देशक भरत मुनि क्रोधित हो श्राप दे देते हैं कि जिस पुरुष के बारे में तू चिन्तनमग्न है, जा उसे वरण कर, स्वर्ग से निष्कासन का श्राप देते हैं। पर याद रख कि तुझे एक समय में पति या पुत्र ही मिलेगा, जिस समय तेरे पति और पुत्र का मिलन होगा, तुझे स्वर्ग वापस आना पड़ेगा।

तमिल मे कहावत है, उर्वशी शापम् उपकारम्, उस समय तो पुत्र का विचार मन में था ही नहीं इसलिये उर्वशी को यह श्राप भी एक उपकार सा लगता है। वह अपनी सखी से पुरुरवा को प्रणय-निमन्त्रण भेजती है, जिसे सहर्ष स्वागत मिलता है। उर्वशी प्रेमारूढ़ हो स्वर्ग से मही उतर आती है, पुरुरवा उसके साथ गन्धमादन की रमणीक पहाड़ी पर रहने लगते है, वहीं से राजकाज के निर्देश देते हैं। पुरुरवा की पहली पत्नी औशीनरी प्रतिष्ठानपुर में ही रहती हैं, निःसन्तान होने का दुख है उन्हें, पुत्रप्राप्ति के क्रम में पति के किसी दूसरी नारी के संग होने का क्षोभ वह राज्य के संचालन में सक्रिय रहकर छिपा लेती हैं।

एक वर्ष हर्षातिरेक में बीत जाता है, एक दूसरे के प्रेम में निमग्न दोनों को ही संसार की सुध नहीं रहती है। इस समय दोनों के बीच हुये संवाद को नर और नारी की परस्पर मनःस्थिति समझने के लिये आधारभूत माना जा सकता है। उन सूक्ष्म विवेचनाओं का वर्णन एक अलग अध्याय माँगता है। एक वर्ष के बाद की दो प्रचलित कथायें हैं, पर दोनों का उद्देश्य एक है। एक कथा के अनुसार वनभ्रमण के समय पुरुरवा की दृष्टि क्षण भर के लिये नदी से झुक कर जल भरती हुयी एक युवती पर ठहर जाती है, यह देख कर उर्वशी क्रोधवश और डाहवश लता बन जाती है। पुरुरवा उसे ढूढ़ते हैं पर वह मिलती नहीं है। पुरुरवा की विछोह दशा से द्रवित हो तथा उनके द्वारा ऋण को चुकाने के लिये देवता उन्हें एक मणि देते हैं, जिसको छूने से उर्वशी पुनः शरीररूप में आ जाती है। दूसरी कथा के अनुसार कुछ समय के लिये पुरुरवा यज्ञ कराने के लिये अपने राज्य वापस जाते हैं, तत्पश्चात वापस आ जाते हैं।

जो भी कथा हो पर इस समयावधि में उर्वशी ऋषि च्यवन और उनकी पत्नी सुकन्या के आश्रम में रहती है और अपने पुत्र आयु को जन्म देती है। पिता और पुत्र एक साथ मिल न जायें, उर्वशी की सहायता के लिये यह देवताओं की चाल थी। जो भी हो, पर उसके बाद उर्वशी पुरुरवा के साथ महल वापस आ जाती है और औशीनरी भी उसे स्वीकार कर लेती है। अगले १६ वर्ष उनका जीवन आनन्दमय और प्रेममय बीतता है, स्वर्ग और मही का श्रेष्ठस्वरूप उनके प्रेम के रुप में प्रतिष्ठापित होता है।

१६ वर्षों तक आयु का पालन पोषण महर्षि च्यवन और सुकन्या के आश्रम में होता है, माता-पिता से प्राप्त श्रेष्ठ गुणों को आश्रम की सम्यक और कुशल शिक्षा पद्धति और मणिमय कर देती है। योग्य आयु जब १६ वर्ष का होता है, महर्षि च्यवन उसे सुकन्या के साथ राजा के पास भेज देते हैं। श्राप के प्रभाव से उर्वशी को न चाहते हुये भी स्वर्ग वापस जाना पड़ जाता है। एक ओर उर्वशी के जाने का दुख, दूसरी ओर युवा पुत्र को सामने पाने का हर्ष, पुरुरवा राज्य आयु को सौंप कर गन्धमादन वापस चले जाते हैं। वर्षों से वात्सल्य हृदय में समेटे औशीनरी आयु को सहर्ष स्वीकार कर लेती है और राजमाता के रूप में अपने दायित्व का निर्वाह करती है।

दिनकर कथा यहीं समाप्त कर देते हैं पर अन्य विवरणों के अनुसार दानवों के साथ हुये एक और युद्ध के लिये देवताओं को पुरुरवा की सहायता की आवश्यकता पड़ती है, पुरुरवा सहायता करते हैं, देवता युद्ध जीत जाते हैं। युद्ध के बाद विदा लेते पुरुरवा के लिये इन्द्र उपहारस्वरूप उर्वशी को स्वर्ग से मुक्त कर देते हैं। पुरुरवा और उर्वशी तब जीवन पर्यन्त साथ साथ रहते हैं, उनके सात और पुत्र होते हैं। जीवन बीतता है, प्रेममुदित हो, प्रेम विजयी होता है, स्वर्ग और मही का मिलन स्थायी हो जाता है, गन्धमादन पर्वत पर।

21.7.12

उर्वशी, एक परिचय

जो भी कारण रहा हो पर जिसे भी उर्वशी की कथा सुनायी, उसके लिये वह नयी थी। पुस्तक पढ़ने के बाद, पात्रों को समझने के बाद, कथा कहना और भी सरल हो जाता है, और भी रुचिकर हो जाता है। लगता है मानो सबकुछ आपके सामने ही घटा है, मानो पात्रों ने अपने मन के उद्गार एकान्त में आपसे कहे हों। कालिदास कृत विक्रमोर्वशीयम् भी एक नाटक के रूप में लिखी गयी है, दिनकर कृत उर्वशी भी उसी शैली में निरूपित है, पात्रों को अपनी बात कहने में कठिनता नहीं होती, हर बार संदर्भ और सूत्रधार की आवश्यकता नहीं पड़ती है।

मानकर चल रहा हूँ कि आप में अधिकांश को यह कथा ज्ञात होगी, फिर भी उसे एक बार और कह देने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ। पात्रों का परिचय और उनकी चरित्रगत विशेषता का पूर्वज्ञान पाठकों को लेखक के साथ कदमताल का आनन्द देती है और बहुधा लेखक जो कहने वाला होता है, वह बात पाठक के मन में पहले ही घुमड़ आती है। संभवतः इसे ही पढ़ने का रस कहा जाता है, तब लगता है कि लेखक से आमने सामने बैठकर बातें की जा रही हैं। पात्र भी साथ में बैठे हैं, चर्चा जब भटकती है तब वे उसे सुधार देते हैं, नहीं तो सहमति में सर हिला देते हैं।

यदि विषयवस्तु को केन्द्र में रखें तो नारी पात्रों को चार स्तरों पर रखा जा सकता है। ये सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं क्योंकि इनके आपसी संवादों के माध्यम से ही दिनकर ने प्रेम के रहस्यों की पर्तों को धीरे धीरे खोला है। एक छोर में अप्सरायें हैं, जो स्वतन्त्र हैं, स्वच्छन्द हैं, उत्श्रंखल हैं, भोग और आनन्द में आकण्ठ डूबी। उन्हें न भविष्य की चिन्ता है, न भूतकाल का दुख, वे वर्तमान के स्वर्ग में जीती हैं। सौन्दर्य की स्वामिनी इन्द्रलोक में रहती हैं, सुविधाओं के ऐश्वर्य में। चिरयौवना हैं और उसके प्रति सजग भी, किसी की माँ बनकर वे अपना यौवन क्षणभर के लिये भी नहीं खोना चाहती हैं। देवता उनके प्रशंसक हैं और प्रेमी भी, कोई एक नहीं सब, किसी एक के लिये नहीं, सबके लिये। नृत्य, संगीत, गीत, कला आदि में संतृप्त निमग्न आनन्दविलास की प्रतिमूर्ति हैं अप्सरायें। देव, मनुज, दानव, सब के सब लालायित रहते हैं, उनका सानिध्य पाने के लिये, उनका होना उत्सवीय होता है, उनका न होना प्रतीक्षापूर्ण। कोई तापस अपनी तपस्या से इन्द्र के आसन पर अधिकार न कर बैठे, उस हेतु सदा ही अप्सराओं को भेजा जाता रहा है, उनकी तपस्या भंग करने।

कथा के दूसरे छोर पर हैं, सुकन्या, महर्षि च्यवन की सहधर्मिणी। कहते हैं, जब महर्षि च्यवन तपस्यारत थे, चंचल सुकन्या ने कौतूहलवश तपस्वी की पलक खींच दी थी। तपस्या टूटती है, सुकन्या को लगता है कि महर्षि उसे भस्म कर देंगे। पता नहीं विधि ने क्या नियत किया था कि महर्षि की आँखों में कोप के अंगार के स्थान पर प्रेम की लालिमा उभर आयी, रूपमयी सुकन्या का सात्विक सौन्दर्य उन्हें बहा ले गया। उन्होंने रुपमयी सुकन्या से विवाह का प्रस्ताव रखा। वृद्ध महर्षि ने विवाह हेतु तपस्या से ही पुनः यौवन ग्रहण करने का विश्वास दिलाया। उनके पास अर्पित करने के लिये केवल तापस का तप था, उन्होने अपने प्रेम से अरण्य में स्वर्ग उतारने का वचन दिया। बस यही कहा कि 'हरि प्रसन्न यदि नहीं, सिद्धि बनकर तुम क्यों आयी हो'। सुकन्या, जिससे विवाह के लिये न जाने कितने युवराज आतुर थे, महर्षि के एकांगी समर्पण में सहर्ष सिमट गयी और अरण्य में महर्षि च्वयन की पत्नी बन गुरुकुल में व्यस्त हो गयी।

इन दोनों छोरों के बीच में हैं दो और पात्र, औशीनरी और उर्वशी। औशीनरी पुरुरवा की धर्मपत्नी है, राज्य चलाने में सहयोगिनी है, पर दुर्भाग्यवश निःसन्तान है। वह मानवी है अतः प्रेम उसके लिये समर्पण भी है और अधिकार भी। पुरुरवा का उर्वशी के प्रति आकृष्ट होना उसे सालता है, पर पुरुरवा के मन में उसके लिये सम्मान कम नहीं होता है, सारे राजकीय व धार्मिक अवसरों पर औशीनरी ही पुरुरवा के वामांग में विराजती है। पुरुरवा को सन्तान की उत्कट चाह थी, वंश बढ़ाने का भार था, उस पृष्ठभूमि में पुरुरवा और उर्वशी की प्रेमकथा सहती है औशीनरी। कहानी के अन्त में पुरुरवा और उर्वशी के पुत्र आयु की राजमाता बन, औशीनरी उस पर वर्षों का संचित वात्सल्य उड़ेलने से भी नहीं पीछे रहती है।

कथा के केन्द्र में है उर्वशी, उसकी गति के माध्यम से कथा में संक्रमण होता है, अप्सरा, मानवी और तापसी के चरित्रों के बीच। उर्वशी अप्सरा है, इन्द्रलोक का प्रमुखतम आकर्षण, सब देव उसके लिये कुछ भी कर देने को लालायित रहते थे। एक अप्सरा जिसका मन स्वर्गलोक के आनन्द विलास की एकरूपता से उकता जाता है। उसे प्रेम की वह अवस्था चाहिये जिसमें अग्नि की धधक हो, जिसमें आकर्ष की तपन हो, जिसमें स्नेहिल अनुराग हो। देवप्रेम का कृत्रिम स्वरूप उसके लिये असहनीय सा था, उसे मानवीय प्रेम की प्राकृतिक रूक्षता रुचिकर लगती थी। उसे मृत्युलोक अच्छा लगता था। इस बीज का क्या वृक्ष पनपता है, इसकी कहानी है उर्वशी।

पुरुरवा ही प्रमुख नर पात्र की ध्वजा वहन करते हैं, उन्हीं के माध्यम से नर के भीतर की विभिन्न मनोदशाओं का चित्रण किया गया है। वह एक प्रतापी राजा हैं, देवों को बहुधा सहायता देते रहते हैं, दानवों के विरुद्ध। पुरुरवा के मन में देवलोक के प्रति अप्रतिम आकर्षण है, उन्हें यह तथ्य कचोटता भी है कि श्रेष्ठ होने पर भी उनके पास वह सब क्यों नहीं है? एक अतृप्त तृषा सदा ही उनके पीछे भागती है, एक अधूरेपन के भाव का लहराना उन्हें खटकता है।

यही पाँच पात्र उर्वशी की कथाभूमि का निर्माण करते हैं, उनकी चरित्रगत विशेषता कथा के अन्दर प्रेम के इतने रंग भर लाती है जो विषय समझने में बड़े आवश्यक होते हैं। आज भी ध्यान से देखेंगे तो यही पात्र हमारे चारों ओर खड़े दिखायी पड़ेंगे। हमारा प्रेम भले ही किसी एक पात्र से स्वयं को न जोड़ पाये, पर वह निश्चय ही इन्हीं के बीच कहीं अवस्थित रहता है।

सृष्टि के चलने में प्रेम धुरा सा कार्य करता है, धुरा जो स्वयं तो स्थिर रहता है पर किनारों को चलाता रहता है। प्रेम के प्रवाह में अस्थिर हम सब उस मर्म को समझना चाहते हैं जिसमें हमें तृप्ति का आनन्द मिले। उर्वशी का पढ़ना संभवतः उन सिद्धान्तों को समझने की राह बने, जिस पर हमारी चाह चलना चाहती हो।

18.7.12

उर्वशी, एक परिक्रमा

उर्वशी पुस्तक दस वर्ष पहले खरीदी थी, बिलासपुर में, किताबघर से। प्रतीक्षित पुस्तकों की सूची में पड़ी रही वह, दस वर्षों तक। बक्सों में भरकर न जाने कितने स्थानान्तरण झेले, उतने ही घरों की मुख्य अल्मारियों में सजी रही उर्वशी। कितनी बार उसे देखा, पुस्तकों के चयन में, हर बार मन में कुछ होते होते रह गया, उर्वशी पढ़ने के लिये नहीं उठा पाया। दिनकर की उर्वशी भी इतनी उपेक्षित नहीं रही होगी, वह तो पत्थरों में भी आकार बना निकल आती है, अनुपेक्षित और उन्मत्त। अब माह भर पहले, जब से उठाया है उर्वशी को, दो बार पढ़ चुका हूँ, पाँच लोगों को पूरा कथानक सुना चुका हूँ, उसके प्रत्येक पात्र को देखने लगा हूँ, पुनर्जीवित, वर्तमान में।

ऐसा भी नहीं कि उर्वशी पूर्णतया ही अपरिचित थी। पढ़ रखा था कि एक अप्सरा थी, बहुत ही सुन्दर, सकल विश्व में सुन्दरतम, चिरयौवना, उड़ती सी, मधुरिम, मदिर, लहर सी। यह भी पढ़ रखा था कि राजा पुरुरवा का पराक्रम अतुलनीय था, उनके राज्य की सीमाओं के परे स्थापित, स्वर्ग लोक तक। कथारूप में पढ़ रखा था, अन्य कथाओं की तरह, अध्ययन करना शेष था। कहते हैं कि ज्ञान तब तक उद्धाटित नहीं होता है जब तक अनुभव उसे आमन्त्रित न करे। शब्द भी तभी अपना रहस्य खोलते हैं, जब अनुभव उसे कचोटता है, उसे कुछ सोचने को विवश करता है।

दिनकर की प्रतिभा का, दिनकर के अनुभव का एक मधुरतम व प्रखरतम फल था, उर्वशी खण्ड काव्य का सृजन। तब तक दिनकर अपनी ओजपूर्ण शब्द-ऋचाओं का सृजन कर चुके थे, स्वयं को स्थापित कर चुके थे। पचास के तीन वर्ष पहले और तीन वर्ष बाद, इन ६ वर्षों में उर्वशी शब्दरूप धर दिनकर के हृदय से बह निकली। ओजभरे रचना-प्रवाह की पूर्णता थी उर्वशी, मन में किसी अकुंश के हट जाने का निष्कर्ष थी उर्वशी। दिनकर को उर्वशी के लिये ही ज्ञानपीठ भी मिला।

पता नहीं मेरा क्या कारण रहा हो, पर उर्वशी का आगमन एक अंकुश के हटने सा था, उसके नायक के रूप में पुरुरवा के लिये, उसके लेखक के रूप में दिनकर के लिये और उसके पाठक के रूप में मेरे लिये भी। इसके पहले कि मैं स्वयं को पाठक के रूप में और महिमामंडित कर डालूँ, इतना तो कहना आवश्यक है कि उर्वशी ने समझ के कई द्वार खोले हैं, यदि ऐसा नहीं होता तो यह विषय शेष जीवन भी मौन ही रहता, एक ऐसे अनुभव के रूप में जो मन ही मन गुन कर अपना जीवन जी डालता है, अपने को अभिव्यक्त नहीं कर पाता है।

पिछली दो बार से मैं विषय के चारों ओर से परिक्रमा लगाकर निकला जा रहा हूँ, इस बार भी विषय में प्रवेश का साहस नहीं दिखा पा रहा हूँ, न जाने क्या अंकुश है, न जाने क्या हिचक है, क्यों नहीं विषय को सरलता से और सहजता से कह पा रहा हूँ? उसका कारण जाने बिना और उसे अभिव्यक्त किये बिना, विषय से न्याय करना कठिन होगा मेरे लिये। सबसे पहले तो अपने लिये उस परिस्थिति को समझने का प्रयास करता हूँ मैं।

हम भारतीयों के लिये प्रेम सदा ही हृदय का विषय रहा है, हृदय के अन्दर ही रहा है, उसकी वाह्य अभिव्यक्ति ही बाधित रही है अपनी संस्कृति में, मर्यादित रही है अपने संस्कारों में। प्रेम समझने का विषय रहा है, न कि अभिव्यक्त करने का। घर और समाज के परिवेश में पति पत्नी का प्रेम भी संबंधों की सूची में एक अल्पमुखर स्वरूप धरे रहता है। किसी को प्रेम हो जाना विकार के रूप में देखा जाता है, एक पन्थभ्रम के रूप में देखा जाता है, ऐसा लगता है कि यह यौवन का लहकपन है, इसमें गहराई कम है, धीरे धीरे यह नशा उतर जायेगा। प्रश्न दो हैं। पहला, क्या यह सोच सही है या गलत है? दूसरा, क्या यह सोच हमारी संस्कृति का अंग है या परिस्थितिजन्य है?

ध्यान से देखा जाये तो यही दो प्रश्न अनुत्तरित थे। जब तक इन दो प्रश्नों के उत्तर नहीं ढूढ़ लेंगे, उर्वशी की परिक्रमा ही काटते रहेंगे, अन्तर में नहीं उतर पायेंगे। जब मैं प्रेम की बात करता हूँ तो उसे उस सुविधा से अलग रखता हूँ जो मात्र अल्पकालिक शारीरिक आनन्द से जोड़कर देखी जाती है। प्रेम की धधक अल्पकालिक नहीं हो सकती है, अप्सराओं की क्रीड़ा को कभी प्रेम का नाम नहीं दिया गया है। स्वच्छन्दता में आकर्षण तो रहता है पर स्थायित्व नहीं, अतः आकर्षण कभी गहन नहीं हो पाता है। प्रेम में आकर्षण भी है और स्थायित्व भी, गहनता का पर्याय। स्वच्छन्द क्रीड़ा भले ही संस्कृति में वक्र दृष्टि से देखी गयी हो, प्रेम सदा ही सम्मान लिये जिया है।

जिस संस्कृति में ईश्वरीय प्रेम पुरुषार्थ की पराकाष्ठा है, उस संस्कृति में मानवीय प्रेम इतना शमित कैसे रह सकता है? उन परिस्थितियों का सामाजिक और ऐतिहासिक विश्लेषण एक वृहद विषय है, पर निष्कर्ष इतने अपरिचित भी नहीं होंगे जिन्हें देख हमें आश्चर्य हो जाये। यदि किसी के सही स्वरूप नहीं देखगें तो उसकी विकृतियाँ उभरेंगी, यही संभवतः प्रेम के साथ भी हुआ है। विकृतियों से परे प्रेम के सकल पक्षों का विस्तार है उर्वशी का पढ़ना।

इन दो प्रश्नों के उत्तर स्पष्ट हैं, संस्कृति में प्रेम बाधित नहीं है और इसके पक्षों की चर्चा आवश्यक है, अपना स्वरूप समझने में, एक नर के रूप में, एक नारी के रूप में।

उर्वशी की परिक्रमायें, उन संशयों को उतार फेंकने के लिये थीं जो वर्षों से मन और जीवन से बँधे हुये थे, उन अंकुशों को हटा देने के लिये थीं जो हमारा मन बाधित करते हैं, उन कुण्ठाओं को जला देने के लिये थीं जो मन को पूर्णता प्राप्त करने में बाधक थीं। एक मानसिक पात्रता आवश्यक थी उर्वशी को समझने के लिये, उर्वशी का परिचय पाने के लिये।

अब प्रवाह निष्कंट बहेगा।

14.7.12

विचारों के बादल

विचारों का प्रवाह सदा अचम्भित करता है। कुछ लिखने बैठता हूँ, विषय भी स्पष्ट होता है, प्रस्तुति का क्रम भी, यह भी समझ आता है कि पाठकों को क्या संप्रेषित करना चाहता हूँ। एक आकार रहता है, पूरा का पूरा। एक लेखक के रूप में बस उसे शब्दों में ढालना होता है, शब्द तब नियत नहीं होते हैं, उनका भी एक आभास सा ही होता है विचारों में।

शब्द निकलना प्रारम्भ करते हैं, जैसे अभी निकल रहे हैं। प्रक्रिया प्रारम्भ होती है, विचार घुमड़ने लगते हैं, ऐसा लगता है कि मन के अन्दर एक प्रतियोगिता सी चल रही है, एक होड़ सी मची हैं, कई शब्द एक साथ प्रस्तुत हो जाते हैं, आपको चुनना होता है, कई विचार प्रस्तुत हो जाते हैं, आपको चुनना होता है। आपने जो पहले से सोच रखा था, उससे कहीं उन्नत होते हैं, ये विचार, ये शब्द। आप उन विचारों को, उन शब्दों को चुन लेते हैं। उन विचारों, उन शब्दों से संबद्ध विचार और शब्द और घुमड़ने लगते हैं। आप निर्णायक हो जाते हैं, कोई आपको थाली में सब प्रस्तुत करता जाता है, आप चुनते जाते हैं। कोई विचार या शब्द यदि आपको उतना अच्छा नहीं लगता है, या आपका मन और अच्छा करने के प्रयास में रहता है, तो और भी उन्नत विचार संग्रहित होने लगते हैं। प्रक्रिया चलती रहती है, सृजन होता रहता है।

पूरा लेख लिखने के बाद, जब मैं तुलना करने बैठता हूँ कि प्रारम्भ में क्या सोचा था और क्या लिख कर सामने आया है, तो अचम्भित होने के अतिरिक्त कोई और भाव नहीं रहता है। बहुधा सृजनशीलता योग्यता से कहीं अच्छा लिखवा लेती है। बहुत से ऐसे विचार जो कभी भी मन के विचरण में सक्रिय नहीं रहे, सहसा सामने आ जाते हैं, न जाने कहाँ से। एक के बाद एक सब बाहर आने लगते हैं, ऐसा लगता है कि सब बाहर आने की बाट जोह रहे थे, उन्हें बस अवसर की प्रतीक्षा थी। आपका लिखना उनकी मुक्ति का द्वार बन जाता है, आप माध्यम बन जाते हैं।

आपको थोड़ा अटपटा अवश्य लगेगा कि अपने लेखन का श्रेय स्वयं को न देकर प्रक्रिया को दे रहा हूँ, उस प्रक्रिया को दे रहा हूँ जिसके ऊपर कभी नियन्त्रण रहा ही नहीं हमारा। कभी कभी तो कोई विचार ऐसा आ जाता है इस प्रक्रिया में जो भूतकाल में कभी चिन्तन में आया ही नहीं, और अभी सहसा प्रस्तुत हो गया। जब कोई प्रशंसा कर देता है तो पुनः यही सोचने को विवश हो जाता हूँ, कि किसे श्रेय दूँ। श्रेय लेने के लिये यह जानना तो आवश्यक ही है कि श्रेय किस बात का लिया जा रहा है। मुझे तो समझ नहीं आता है, सृजन के चितेरों से सदा ही यह जानने का प्रयास करता रहता हूँ।

सृजन के तीन अंग है, साहित्य, संगीत और कला। साहित्य सर्वाधिक मूर्त और कला सर्वाधिक अमूर्त होता है। शब्द, स्वर और रंग, अभिव्यक्ति गूढ़तम होती जाती है। अभिव्यक्ति के विशेषज्ञ भले ही कुछ और क्रम दें, पर मेरे लिये क्रम सदा ही यही रहा है। बहुत कम लोगों में देखा है कि आसक्ति तीनों के प्रति हो, विरले ही होते हैं ऐसे लोग जो तीनों को साध लेते हैं। बहुत होता है तो लोग दो माध्यमों में सृजनशीलता व्यक्त कर पाते हैं। समझने की समर्थ और व्यक्त करने की क्षमता, दोनों ही विशेष साधना माँगती हैं, कई वर्षों की। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर को ही देखें, तीनों में सिद्धहस्त, पर सबसे पहले साहित्य लिखा, फिर संगीत साधा और जीवन के अन्तिम वर्षों में रंग उकेरे।

कोई संगीतकार तो नहीं मिला अब तक, पर अपने चित्रकार मित्र से जब यह प्रश्न पूछा कि विचार कैसे उमड़ते हैं, सृजन के पहले की मनस्थिति क्या होती है, सृजन के समय क्या होता है और सृजन होने के बाद कैसा लगता है, क्या सोचा होता है और क्या बन जाता है? सबके लिये इस प्रक्रिया को व्यक्त कर पाना अलग स्वरूप ले सकता है, पर सबका सार लगभग यही रहता है।

किसी विषय के बारे में हमारी समझ विचारों के बादल के रूप मे रहती है। जब भी कुछ पढ़ते हैं, संगीत सुनते हैं, चित्र देखते हैं, तो मन के अन्दर अमूर्त स्वरूप सा बन जाता है, कुछ कुछ बादल सा। यही बादल बनता रहता है, घना होता रहता है, तरह तरह के आकार लेता रहता है। जब यह बादल बूँद बन बरसना चाहते हैं तो आकार ढूढ़ते हैं, किस रूप में बरसें? कुछ लोग शब्द का आधार लेते हैं, शब्द का सहारा सरल होता है, शब्द भौतिक जगत के अधिक निकट हैं, हर वस्तु को शब्द से व्यक्त किया जा सकता है, हमारा भी सहारा शब्द ही है। मन के भाव जैसे जैसे अमूर्त होते हैं, शब्द कम पड़ने लगते हैं, भाव शब्दातीत हो जाते हैं। तब संगीत रिक्तता भर देता है, शब्द से अधिक अमूर्त और रंग से अधिक मूर्त होते हैं स्वर। मन के गहरे भाव शब्द से अधिक संगीत समझता है। कला एक स्तर और ऊपर उठ जाती है, रंगों की छिटकन विचारों के बादल के सर्वाधिक निकटस्थ है। कुशल चित्रकार विचारों के बादल को यथारूप उतार देने में सक्षम होते हैं।

विचारों का बादल सा होता है मन में, हम उसे एक स्थूल रूप दे देते हैं, शब्दों के माध्यम से, संगीत के माध्यम से, कला के माध्यम से। होना तो यही चाहिये था कि उस स्थूल रूप को पुनः ग्रहण करने पर वही भाव मन में आने चाहिये जो उसके सृजन के समय आये थे, होता भी है यदि सृजनकर्ता पुनः अपनी कृति देखता, सुनता या पढ़ता है। मैं तो जितनी बार अपनी कवितायें या लेख पढ़ता हूँ, उसी सुलझन व भावावेश में पहुँच जाता हूँ जिसके निष्कर्ष स्वरूप वह शब्द लिखे गये थे। ऐसे में स्वयं के लिये औषधि का कार्य करती है आपकी कृति, आपके उसी भाव को हर बार घनीभूत कर जाती है आपकी कृति।

सृजन का औषधीय पक्ष तो समझ आता है, पर सृजन कैसे होता है, यह समझ नहीं आता है। बादल कैसे बनते हैं, कैसे आकार लेते हैं, कहाँ से उड़कर आते हैं, कहाँ पर बरस जाते हैं और बरसकर क्या प्रभाव डालते हैं, यह समझ नहीं आता है। आपके विचारों के बादल कैसे बनते और बरसते हैं?

11.7.12

पानी का व्यापार

सावन आया है, ग्रीष्म की पूर्ण तपन के बाद। कितनी घनी प्रतीक्षा, हर दिन की आस, कि आज बरसें शीतल फुहारें, कि आज टूटे तपन की श्रृंखला। पानी बरस रहा है, कहते हैं कि कम बरस रहा है, कारण पता नहीं, संभवतः मानसून का जोर कम चल रहा है। पता नहीं इस बार पर्याप्त रहेगा कि नहीं, पता नहीं कि इस बार फसल अच्छी होगी कि नहीं? फसल कम अच्छी हुयी तो अन्न की आपूर्ति कम होगी, माँग बनी रहेगी क्योंकि जनसंख्या की फसल तो किसी भी वर्ष विफल हुयी ही नहीं है। माँग और आपूर्ति का भारी अन्तर मँहगाई बढ़ायेगा, और तपन बढ़ेगी, ग्रीष्म की तपन से भी तपी, सावन पुनः प्रतीक्षित रहेगा।

बड़ा जटिल संबंध है, तपन का सावन से, सावन का जल से, जल का जन से और जन का तपन से। त्राहि त्राहि मच उठती है जब सावन रूठता है, हम असहाय बैठ जाते हैं, अर्थव्यवस्था के मानक असहाय बैठ जाते हैं, गरीबों के चूल्हे असहाय बैठ जाते हैं। बड़ा ही गहरा संबंध है, सावन की बूँदों में और हमारे आँखों और पसीने की बूँदों में। सावन की बूँदें या तो सागर को भरती हैं या पृथ्वी के गर्भ के जल स्रोत को, एक खारा एक मीठा। एक सीधा सा सिद्धान्त तय मान कर चलिये, आप सावन की बूँदों को जितना खारापन देते हैं, सावन की बूँदें आपको उतना ही खारापन वापस करती हैं, पसीने के रूप में, आँसू के रूप में। आप सावन की बूँदों को जितना मीठापन देंगे या कहें जितना उसे पृथ्वी के गर्भ में जाने देंगे, उतनी ही मिठास आपके जीवन में भी आयेगी।

पानी का चक्र बड़ा ही सरल और सुलझा है, पृथ्वी से जितना जल वाष्पित होता है, वह सारा जल पृथ्वी पर ही कहीं न कहीं जाकर बरस जाता है, आसमान अपने पास कुछ नहीं रखता है। ९० प्रतिशत से अधिक वाष्पन सागर से होता है, शेष दस प्रतिशत पृथ्वी के पेड़ पौधों, झील नदियों आदि से होता है। कुल वाष्पन का लगभग ७७ प्रतिशत सागर पर ही बरस जाता है, शेष २३ प्रतिशत हवाओं के माध्यम से जमीन पर बरसता है। यह बरसा हुआ जल पर्वतों पर बर्फ के रूप में, पृथ्वी के अन्दर भूगर्भ जल के रूप में, झीलों और तालाबों के रूप में एकत्र होता है, शेष नदियों की धाराओं के माध्यम से पुनः सागर में मिल जाता है। बर्फ के रूप में एकत्र जल भी नदियों को वर्ष भर पानी देता रहता है और अन्ततः सागर में मिल जाता है।

कुल मिलाकर हाथ में रहता है, भूगर्भ जल, झीलों का जल और नदियों का जल। नदियों के आसपास का सारा जल नदियों में ही आकर मिलता है। नदियों का जलग्रहण क्षेत्र बड़ा होता है और उसमें साधारणतया कोई झील आदि नहीं होती है। नदियों के दोनों ओर ४-५ किमी तक के क्षेत्र का भूगर्भ जल नदियों के द्वारा ही भरा जाता रहता है। यदि नदियाँ सूखेंगी या उनमें कम पानी रहेगा तो भूगर्भजल उतना ही नीचे चला जायेगा। झीलों और तालों का जलग्रहण क्षेत्र अधिक बड़ा नहीं होता है पर वह भौगोलिक रूप से अपने आसपास के क्षेत्रों की तुलना में सबसे नीचे होती हैं। झीलें भी भूगर्भजल को सतत भरती रहती हैं। जब बरसात में नदियों का जल बह जाता है, जब उपयोग में लाते लाते झील और ताल भी सूख जाते हैं, तब हमारे पास भूगर्भ जल का ही आश्रय होता है। यदि कहा जाये तो भूगर्भजल हमारे गाढ़े समय के लिये का जल है।

भूगर्भजल की उपलब्धता लगभग उतनी ही है जितने पृथ्वी के उपर जमे हुये हिमखण्ड, यही हमारी जमापूँजी है। सावन का जल आता है, बह जाता है, हम प्रयास कर उसे पूरा नहीं समेट पाते हैं। बाँध बनाते हैं, नहर निकालते हैं, खेतों को पहुँचाते हैं, फिर भी पर्याप्त नहीं पड़ पाता है वह सबके लिये, उन क्षेत्रों के लिये भी नहीं जो नदी के आसपास हैं। झीलें भरती हैं, कुछ महीनों में उनका भी जल स्तर नीचे आ जाता है, दैनिक उपयोग और सतत वाष्पन उन्हें भी सुखा देता है। तब शेष रहता है भूगर्भजल, जो कि पृथ्वी के अन्दर सदियों से एकत्र हो रहा है, जो कुँओं के माध्यम से हम तक आता है।

एक व्यापारी क्या करता है? जो संसाधन सबसे पहले उपस्थित रहते हैं और पहले विलुप्त होने वाले होते हैं, उनका समुचित उपयोग करता है, एक योग्य व्यापारी। जो संसाधन गाढ़े समय में काम आते हैं, उन्हें सोने की तरह सम्हाल कर रखता है और विपत्ति के समय ही उपयोग में लाता है। हर बार वह अपना संचय बढ़ाता रहता है औऱ अपने व्यापार का विस्तार भी करता रहता है।

हमें क्या हो गया है? जिन नदियों में जल बहना था, जिनका उपयोग पानी पीने और दैनिक आवश्यकताओं में अधिक करना था, वो आज सूख रही हैं। सारी की सारी मुख्य नदियाँ कृशकाय सी दिखती हैं, पता नहीं उनका जल कहाँ सोख लिया जाता है? जिन नहरों से जुड़कर खेती को पानी मिलता था, उन नहरों में इतनी मिट्टी जम गयी है कि वहाँ बच्चे क्रिकेट खेलते हैं। वर्षा के समय जल का प्रवाह हमसे सम्हाले नहीं सम्हलता है और सारा का सारा जल सागर में समा जाता है। नदियों के सूखने से आपपास के भूगर्भजल का स्तर सैकड़ों फीट नीचे चला गया है। यदि उन नदियों में कुछ बहता है तो वह शहरों और फैक्ट्रियों का मल बहता है, ऐसा कूड़ा कि देखकर मन पीड़ा से भर उठता है। जल के प्रवाह को हमने क्या से क्या कर दिया, इस प्रश्न का उत्तर अपनी संततियों को देना कठिन हो गया है हमें।

यदि झीलें ही बची रहती तब भी यत्र तत्र पानी एकत्र होकर भूगर्भजल को भरता रहता और अन्य कार्यों में भी उपयोग में आता। बंगलोर में कभी ४५० झीलें हुआ करती थीं, जनसंख्या के दवाब ने नगर के अन्दर भूमि के मूल्य अधाधुंध बढ़ा दिये और भूमि माफियाओं ने झीलें सुखा कर उस पर कब्जा करना प्रारम्भ कर दिया। अब ६०-७० ही झीलें शेष बची हैं और वे भी अपनी मृत्यु की प्रतीक्षा में हैं। झीलें जो पूरे नगर के जल आवश्यकता पूरी करने में सक्षम थीं, आज अपने लिये भी जल नहीं जुटा पा रही हैं। नगर को कावेरी नदी का जल दिया जा रहा है, वह भी लगभग १०० किमी पंप करके। हर वर्ष झीलों में जल न आने से भूगर्भजल का स्तर १०० फीट से ५०० फीट तक जा चुका है। जिस नगर में पहले कहीं पानी भरता नहीं था, उस नगर को हर वर्षा के बाद सड़कों पर कीचड़ के अंबार सहने पड़ते हैं।

हर छोटे बड़े नगर की यही कहानी है, भूगर्भजल को हम प्राथमिक स्रोत मानकर बैठे हैं और पंप लगाकर अधाधुंध दोहन कर रहे हैं। जिन स्रोतों से उनमें पानी जाना था, उन्हें विधिवत सुखा रहे हैं और वर्षा की हर बूँद का संरक्षण जो हमारा कर्तव्य था, उसे व्यर्थ ही बह जाने दे रहे हैं।

यह कैसा पानी का व्यापार है? पानी की जो संस्कृति पनप रही है, उसे देखकर तो लगता है कि पानी भी उपभोग की वस्तु बन गयी है, जब तक उलीच सकें उलीच लें, आने वालों के लिये कुछ न छोड़ें। प्रकृति ने सदा ही कृपा बरसायी है, हमने उसे लूट में बदल दिया है। नदियाँ और जल के स्रोत जो हमारे आराध्य थे, इसलिये नहीं कि उनमें किसी देवी का वास है, इसलिये क्योंकि जल हमारे लिये जीवन का पर्याय है और जीवनदायिनी सदा ही आराध्य होती है।

पानी के व्यापार में हम हर बार प्रकृति के साथ छल करते हैं, अधिक रख लेते हैं, कम देते हैं, मूल्य न समझ व्यर्थ कर देते हैं। कभी प्रकृति ने छल किया तो हमारी सभ्यता जल के लिये युद्ध करते करते समाप्त हो जायेगी और हम पानी के व्यापार में सब लुटा बैठेंगे।

7.7.12

त्याग भोग के बीच कहीं पर

उर्वशी पढ़ने बैठा तो एक समस्या उठ खड़ी हुयी। पता नहीं, पर जब भी श्रृंगार के विषय पर उत्साह से लगता हूँ, कोई न कोई खटका लग जाता है, कामदेव का इस तरह कुपित होने का कारण समझ ही नहीं आता है। पिछले जन्मों में या तो किसी ऋषि रूप में कामदेव के प्रयासों को व्यर्थ किया होगा जो अभी तक बदला लिया जा रहा है, या तो इन्द्रलोक में ही साथ रहते रहते कोई प्रतिद्वन्दिता पनप गयी होगी , या तो उर्वशी ही कारण रही होगी। तप में विघ्न पहुँचाने, इन्द्र द्वारा भेजी अप्सराओं की सुन्दरता का उपहास उड़ाने के लिये ऋषि नरनारायण ने अपनी उरु (जाँघ) काट कर उन सबसे कई गुना अधिक सुन्दर उर्वशी को बना दिया था और उसे वापस इन्द्र को भेंट कर दिया था। तब से ही उर्वशी के पाठकों के लिये कामदेव ऐसे ही समस्या उत्पन्न कर रहे होंगे।

अथाह सौन्दर्य की प्रतिमूर्ति उर्वशी की उत्पत्ति त्याग का एक उत्तर था, भोग के उपासकों के लिये। ऐसा उत्तर जिसका होना प्रश्न अधिक खड़ा कर जाता है, ऐसा उत्तर जिसको समझना त्याग और भोग के पारस्परिक संबंधों को जानने के लिये आवश्यक है। भोग में अधिक शक्ति है या त्याग में, भोग त्याग से सदा इतना सशंकित क्यों रहता है, त्याग भोग को व्यर्थ क्यों समझता है? भोगमयी प्रवृत्ति और त्यागमयी निवृत्ति के बीच सौन्दर्य किस रूप में प्रस्तुत होता है? एक के लिये सयत्न प्राप्त कर सर धरने की वस्तु, दूसरे के लिये जाँघ से निकाल कर भेंट कर देने की वस्तु।

काम कभी भी संस्कृति का त्यक्त विषय नहीं रहा है, सदा ही उपस्थित रहा है। उर्वशी का वर्णन वेदों में है, शतपथ ब्रह्नण में उल्लेख है, कालिदास का नाटक विक्रमोर्वशीयम् की कथावस्तु ही यही है, दिनकर का काव्य है उर्वशी, राजा रविवर्मा के चित्रों में छलकता है उर्वशी का सौन्दर्य, तमिल कहावतों का हिस्सा है उर्वशी। प्रेम पर एक विस्तृत अध्ययन है, उर्वशी का पाठ। नर क्या होता है और क्या चाहता है, नारी के सौन्दर्य का प्रवाह कितना गतिमय होता है, इसका व्याख्यान है उर्वशी।

बरस गयी बूँदें यदि बादल का स्वरूप बताने में सक्षम होतीं तो एक आलिंगन भी भोग के सिद्धान्त समझा जाता। भावनाओं का घुमड़ना, रह रह उमड़ना, विचारों के बवंडर कैसे समझ आयेंगे? भोग के विषय में हमारा शाब्दिक ज्ञान तो औरों की अभिव्यक्ति के सहारे ही सीखा गया है। अज्ञेय जैसा विदग्ध हो, आहुति बन प्रेम की ज्वाला में कूद कर सीखने का उपक्रम ही रहस्य उद्घाटित कर सकता है, त्याग और भोग के। जो न त्याग में डूबा, जो न भोग में डूबा, उसके लिये तो ये दोनों शब्द विलोम ही बने रहेंगे। जो न त्याग समझा, जो न भोग समझा, उसके लिये ये दोनों विषय शरीर से परे जा ही नहीं पाते हैं, शरीर का बिछुड़ना त्याग और शरीर का मिलना भोग।

समाज में व्याप्त, प्रेम की यही जड़वत समझ एक कारण रहा होगा, जिसने दिनकर को नर के भीतर एक और नर और नारी के भीतर एक और नारी की परिकल्पना प्रस्तुत करने को बाध्य किया होगा। संभवतः इसी बहाने हम कुछ और गहरा उतरेंगे, कुछ और गहरा जहाँ त्याग और भोग परस्पर विलोम शब्द नहीं होंगे, साथ साथ खड़े होंगे, क्षण में पृथक, क्षण में संयुक्त।

त्याग और भोग पृथक शब्द नहीं है, इसका भान ईशोपनिषद का दूसरा श्लोक पढ़ते ही हो गया था हमें, तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा, अर्थ कि उसका त्यागपूर्वक भोग करो। अध्यापक से समझाने के लिये कहा पर संतुष्टि भरा उत्तर नहीं मिला, मन में प्रश्न बना रहा, कोई उत्तर देने वाला ही नहीं मिला। कहते हैं कि प्रेम में भोग भी है, त्याग भी। इन दोनों का परस्पर संबंध जैसे जैसे खुलता जाता है, प्रेम परिष्कृत होता जाता है। ईश्वर करे, उर्वशी का पढ़ना प्रेम की उस अनसुलझी गुत्थी समझने का माध्यम बने।

पुस्तक पढ़कर स्वयं को थोड़ा और ढंग से समझ सकूँ, अपने संबंधों को ढंग से समझ लूँ, कौन तृषा उन्मुक्त सी घूम रही है, उसे संतुष्ट कर सकूँ। विद्वता पुस्तक से ही मिलती तो सब पढ़ पढ़ विद्वान हो गये होते। प्रेम विशेषज्ञ बनना किसी के मन में हो तो उन्हें मैल्कम ग्लैडवेल की "आउटफ्लायर" पढ़नी चाहिये। जिन्होंने भी अपने क्षेत्रों में सिद्धहस्तता प्राप्त की है, उन्होनें लगभग दस हजार घंटे अभ्यास में लगाये हैं, कोई भी उपलब्धि स्वतः नहीं मिलती है। बस ६६ मिनट प्रतिदिन दीजिये, अपने प्रेम को, आप २५ वर्ष के गृहस्थ जीवन में प्रेमसिद्ध हो जायेंगे। बस घंटा भर ही अपने प्रेम को दीजिये।

देखिये, त्याग और भोग की प्राथमिक भँवर में ही फँस गये और यह बताना भूल गये कि समस्या क्या आ गयी थी? हुआ यह कि उर्वशी के पहले २० पन्नों में ही लगभग २० शब्द ऐसे निकल आये जिनका अर्थ ही समझ नहीं आ रहा था, कोई शब्दकोष नहीं था और बार बार इण्टरनेट में ढूढ़ने से पढ़ने की तारतम्यता टूटती थी। अरविन्द मिश्र जी को समस्या बताई तो उन्होंने एक वृहत शब्दकोश भेज दिया, बनारस से बंगलुरु। हाथ में आ गया है, कल से पुनः उर्वशी के पन्नों में उतराने को मिलेगा, त्याग भोग के बीच कहीं पर।

4.7.12

रूठ गया निष्कर्ष दिशा से

कठिन परिश्रम की घड़ियाँ हैं,
नहीं कहीं कोई पथ दिखलाता।
घुप्प अँधेरों के चौराहे,
नहीं जानता, एक प्राकृतिक,
या भ्रम-इंगित कृत्रिम व्यवस्था।
कुछ भी हो लगता ऐसा है,
रूठ गया निष्कर्ष दिशा से,
या फिर सर धर हाथ बैठता,
गृहस्वामी गृह लुट जाने पर।
प्राणहीन हो गयी व्यवस्था,
जीवन है अब कहाँ उपस्थित,
कब औषधि उपचार करेगी?

शोषण-धारा बहे अनवरत,
कहीं मानसिक, कहीं आर्थिक,
दृढ़ इच्छा का नाविक बनकर,
चलें विरुद्ध बहें धारा के।
यदि विचार भी उठता मन में,
सोचो एक पल व्यग्रहीन हो,
नौकायें सब डूब रही हैं,
जो धारा के संग नहीं हैं
डूबे प्राणी, चीख प्रभावी,
असहायों का शैशव क्रन्दन,
भयाक्रान्त जन पर भविष्य में,
फिर यह गलती ना दोहरायें।

विषय दुःखप्रद, किन्तु बन रहे,
नित्य निरन्तर प्राणहीन जन,
धारा के अनुरूप बह रहे,
शंकित मन में, निज भविष्य प्रति।
सत्य यही है, फैल रही है,
कह दो कैसे बनी व्यवस्था?
कौन लाये संजीवनि औषधि,
लखन क्रोध से मूर्छित लेटा।
कब तक फैली चाटुकारिता,
मध्यम सुर में राग गढ़ेगी
स्याही चादर ओढ़ बिचारे,
सूर्योदय सब राह तक रहे

शक्तिहीन जन, प्राणहीन मन,
मर्यादा परिभाषित करने,
तत्पर मन से जुटे हुये सब,
आश्रय पाते थके हुये जन,
परिभाषित इस मर्यादा में,
जीवन जीभर जी लेने की,
आवश्यकता जानेगे कब,
कृत्रिम व्यवस्था में अपना भी,
समुचित योगदान अर्पित कर,
किन्नर सेना मन ही मन में,
बढ़ते बढ़ते हर जीवन में,
स्वप्न-दिवा सी फैल गयी है।