26.6.16

प्रशिक्षण की सघनता

पिछले माह से लखनऊ में हूँ और भारतीय यातायात सेवा के प्रशिक्षु अधिकारियों के प्रशिक्षण का दायित्व वहन कर रहा हूँ। एक प्रश्न सतत ही उठता रहा है कि यातायात सेवा जैसी विशिष्ट सेवा में सक्षम अधिकारियों को तैयार करने में प्रशिक्षण का अधिक महत्व है या अनुभव का? साथ ही साथ इस पर भी अन्वेषण और चिन्तन चलता रहा कि किस प्रकार प्रशिक्षण को और प्रभावी बनाया जा सकता है? चर्चायें इस तथ्य पर भी हुयी कि अन्य किन सेवाओं में प्रशिक्षण एक सुदृढ़ आधार के रूप में देखा जाता है।

प्रतियोगी परीक्षायें अधिक योग्य व्यक्ति का चयन तो सुनिश्चित कर लेती हैं पर योग्यता के मापदण्ड उस सेवा के लिये कितने सहायक होंगे इस पर संभवतः किसी का घ्यान नहीं जाता है। शीर्षस्थ सेवाओं से लेकर साधारण सेवाओं तक जाने कितने उदाहरण हैं जिसमें चयनित व्यक्ति की योग्यता किसी एक क्षेत्र में है और आवश्यकता किसी दूसरे क्षेत्र में। इस पर अधिक चर्चा करते हुये और सबको समान अवसर देने के लोकतान्त्रिक कर्तव्यों को निभाते हुये हम प्रशिक्षण को प्रथम दिशा देने वाला कार्य मान लेते हैं। प्रशिक्षण का कार्य तब और भी बढ़ जाता है जब आपके सामने हर संभावित विविधता हो और आपसे कहा जाये कि सबको ही यातायात सेवा जैसे विशिष्ट कार्य में निपुण कर के निकालना है, वह भी डेढ़ वर्ष में।

प्रशिक्षकों का कार्य दिये हुये समय और समूह में प्रशिक्षुओं का सर्वश्रेष्ठ तत्व निकालना है। वह तत्व उद्भाषित करना है जो सेवा में सहायक हो। यह तथ्य मेरे लिये तब तक महत्वपूर्ण नहीं था जब तक मैं मंडलों में सीधा परिचालन या वाणिज्य का कार्य कर रहा था। सीखे हुये कार्य को किस प्रकार सबको सिखाना है, किस प्रकार २० वर्षों के कार्य के अनुभव को डेढ़ वर्षों में सान्ध्रित करना है, और किस प्रकार प्रशिक्षण के तत्वों को समावेशित करना है, जिससे मंडलों में कार्य करने हेतु सर्वश्रेष्ठ अधिकारी तैयार किये जा सकें।

प्रशिक्षण का पाठ्यक्रम और प्रशिक्षण की विधि, यह दोनों ही विषय रोचक हैं। जो विषय जितना सरल होता है उसके लिये उतने ही कम प्रशिक्षण की आवश्यकता पड़ती है। कार्य जितना विशिष्ट होता है, पाठ्यक्रम और विधि उतने ही जटिल हो जाते हैं। पाठ्यक्रम सभी संगठनों में नियत ही रहता है। अन्तर प्रशिक्षण की विधियों से आता है। पिछले माह के प्रत्यक्ष और २० वर्षों के परोक्ष अनुभव से दो तत्व निकल कर आये हैं। ये दोनों तत्व दो विभिन्न सेवाओं से निकले हैं। विश्लेषण से तत्व स्वतः सुलझते जायेंगे।

दो क्षेत्र हैं, सेना और चिकित्सा। सेना प्रदत्त तत्व है, हर संभावित घटना और संकट के लिये तन, मन को सुदृढ़ बनाना। चिकित्सा प्रदत्त तत्व है, आने वाले परिवेश में ही प्रशिक्षण करना। इन दोनों क्षेत्रों का ज्ञान सैद्धान्तिक नहीं, वरन अमुभवजन्य। अभी कुछ दिन पहले ही मेडिकल कॉलेज से संबद्ध एक सरकारी अस्पताल में पूरी रात बितायी है और प्रशिक्षणरत कनिष्ठ डॉक्टरों को निकटता से कार्य करते हुये देखा है। सेना के प्रशिक्षण को भी समग्रता से समझा और परखा है। जब इन दो तत्वों के संदर्भ में प्रशिक्षण को देखता हूँ तो सारे अनुत्तरित प्रश्न अपना उत्तर पाते हुये से प्रतीत होते हैं। प्रशिक्षण की आधारभूत संरचना में इन दो तत्वों का होना अत्यावश्यक है। ये दोनों तत्व पाठ्यक्रम से नहीं, विधि से संबंधित हैं।

हर सेवा में, सेना की भाँति, कठिन परिस्थितियाँ आती हैं। उन परिस्थितियों को दृढ़ता से निभा ले जाना प्राप्त प्रशिक्षण का परिचायक है। सामान्य परिस्थितियों की कार्यप्रणाली में अधिकारियों के हस्तक्षेप की आवश्यकता न्यूनतम होती है। २० वर्षों की सेवा में इस तरह की कई परिस्थितियों से साक्षात्कार हुआ है और अनुभव के आधार पर यह पाया है कि कठिन परिस्थियों के संदर्भ में संगठन की तैयारी कितनी है, यह दो बातों पर निर्भर करता है। पहला कि कठिन परिस्थिति से कितनी शीघ्रता से निपटा गया, दूसरा कि पुनः सामान्य परिस्थिति में वापस आने में कितना समय लगा। कठिन परिस्थितियाँ हो सकती हैं, कठिन स्थान हो सकते हैं, कठिन सहयोगी हो सकते हैं। कठिन को सामान्य बनाने की क्षमता केवल उत्तरोत्तर बढ़ती रहनी चाहिये, वरन उसका प्रारम्भ प्रशिक्षण से ही हो जाना चाहिये। सेना की प्रशिक्षण शैली इस उद्देश्य के लिये स्वयंसिद्ध है।

चिकित्सा क्षेत्र में प्रशिक्षण की कालावधि में ही प्रशिक्षुओं को उन परिस्थितियों में उतार दिया जाता है जो उनके कार्यजीवन में आने वाली होती हैं। इससे केवल प्रशिक्षण गहन होता है, वरन उपयोगी भी हो जाता है। कक्षाओं में पढ़े हुये सिद्धान्त बिस्तर पर कराहते हुये रोगी को ठीक करने के प्रयत्न में सिद्ध हो जाते हैं। कई क्षेत्रों में प्रशिक्षण सैद्दान्तिक अधिक और उपयोगी कम होता है। पहले दिन से जिन परिस्थितियों में कार्य करना है, उसका व्यवहारिक ज्ञान प्रशिक्षण को कहीं अधिक रुचिकर बना देता है। साथ ही साथ प्रशिक्षुओं की संवेदना उन व्यक्तियों के प्रति जागृत होती है जिनकी सेवा उन्हें आने वाले समय में करनी है। जन से जुड़ाव तो करना ही होगा, अंग्रेजी साहिबी से देश का भला अब होने से रहा। जिस समाज से आये हैं, उसे तो सँवारना ही होगा। 


जितनी भी सरकारी नौकरियाँ हैं सबके प्रशिक्षण में ये दो तत्व सप्रयास डाले जायें। यदि अभी नहीं हैं तो उन्हें ढूढ़ा जाये और संबद्ध किया जाये। और भी अच्छा होगा कि प्रतियोगी परीक्षा की योग्यता इन दो तत्वों के आधार पर परखी जाये। इन दो तत्वों का अभाव अच्छे से अच्छे प्रशिक्षण पाठ्यक्रम को धूल धूसरित करने में सक्षम है। योग्य अधिकारी बिना इनके अपनी सार्थकता स्थापित नहीं कर पायेंगे। मैं भी इन तत्वों को अपने प्रशिक्षुओं में उभारना चाहता हूँ। वे शारीरिक और मानसिक रूप से सुदृढ़ हों, कठिन परिस्थियों को सामान्य बनाने में सक्षम हो, यात्रियों से जुड़ें, उनके साथ यात्रा करें, उनसे बाते करें, उनकी आवश्यकताओं को समझें। जब सारे विकल्प समाप्तप्राय हो जायें, प्रशिक्षण की सघनता उस समय तक भी प्रेरक रहे।

19.6.16

रेलवे का ऑलराइट तन्त्र

कभी आपने ध्यान दिया है कि जब भी कोई ट्रेन किसी स्टेशन, गेट आदि से निकलती है तो ड्राइवर, गार्ड, स्टेशन मास्टर व गेटमैन आदि हरे रंग की झण्डी लहराते हैं। इसे ऑलराइट संकेत कहते हैं और इसका अर्थ है कि सब ठीक है। देखने में तो यह अत्यन्त साधारण सा कार्य लगता है, परन्तु इस पर रेलवे की सुरक्षा का पूरा आधार अवस्थित है। 

रेलवे अपनी विशालता के लिये जाना जाता है, डेढ़ किलोमीटर तक लम्बी ट्रेनें, तीन हजार किलोमीटर तक की यात्रायें, प्रतिदिन चलने वाली २० हजार ट्रेनें, उस व्यवस्था में लगे लाखों कर्मचारी। यदि व्यवस्थायें सुदृढ़ और सुव्यवस्थित न हों तो इतने विशाल तन्त्र को सम्हाल पाना असम्भव हो जायेगा। ऑलराइट की व्यवस्था रेलवे की आधारभूत व्यवस्थाओं में से एक है। यह समझना होगा कि यह कैसे कार्य करती है,  इसका महत्व क्या है और किसी बड़े तन्त्र को सम्हालने में यह कैसे सहायक हो सकती है?

रेलवे तन्त्र के प्रत्येक भाग को प्रतिदिन मानवीय स्तर पर गहनता से देखा जाता है, एक दो नहीं वरन सैकड़ों आँखों द्वारा, दसियों स्तर पर। पटरियाँ, ट्रेन, इन्जन, गेट, पुल, स्टेशन, बिजली के खम्भे आदि सभी स्थान। यहीं नहीं, प्रत्येक कर्मचारी अपना कार्य कैसे निष्पादित कर रहा है, इस पर भी अन्य की सतत और सजग दृष्टि रहती है। ऐसा नहीं है कि रेलवे में मशीनों और तकनीक द्वारा सुरक्षा नहीं देखी जाती है, पर मशीनों की अनुपस्थिति में डेढ़ सौ वर्षों से जो कार्यप्रणाली चली आ रही है उसे छोड़ पाना या ढीला करना, इसका साहस अभी हमें नहीं हो पाया है। मशीनें कभी नहीं बिगड़ेंगी और अर्थ का अनर्थ नहीं करेंगी, इसका विश्वास पूर्णतया नहीं आ पाया है। मशीनें सुरक्षा के अतिरिक्त स्तर के रूप में ही अपने आपको प्रतिस्थापित कर पायी हैं। 

जब भी ट्रेन चलती है, उसमें चलने वाले ड्राइवर, सहायक और गार्ड अपने दृश्य में आने वाले सभी स्थानों और सभी कर्मचारियों पर दृष्टि रखते हैं। पटरियों में किसी प्रकार की टूट, रेल फाटक का खुला होना, ट्रेन का डब्बा बीच में छूट जाना, नियत स्थान से किसी कर्मचारी की अनुपस्थिति, पैट्रोलमैन का न दिखना, स्टेशन पर कोई संदिग्ध गतिविधि, किसी तार का टूटना, पेड़ का गिरना आदि न जाने कितनी स्थितियों पर उनकी दृष्टि रहती है। और जब वे अपने रास्ते में मिलने वाले किसी भी कर्मचारी को हरी झण्डी हिलाकर ऑलराइट करते हैं तो इसका अर्थ होता है कि पिछले खण्ड में उपरिलिखित कोई समस्या नहीं है। इसी प्रकार जो कर्मचारी स्टेशन, गेट आदि स्थानों पर होते हैं, वे सब चलती हुयी ट्रेन के हर पहिये पर दृष्टि रखते हैं। कहीं कोई पहिया असामान्य ध्वनि तो नहीं कर रहा है, उसका कोई भाग असामान्य रूप से गर्म तो नहीं हो गया, ट्रेन का कोई पुर्जा झूल तो नहीं रहा है। ऐसी न जाने कितनी बातों के बारे में सुनिश्चित होने के बाद ही वे ड्राइवर व गार्ड को अपना ऑलराइट संकेत देते हैं। इसी प्रकार स्टेशनों पर भी गार्ड जब यह सुनिश्चित कर लेता है कि सारे यात्री चढ़ गये हैं तभी वह ड्राइवर को गाड़ी चलाने के लिये ऑलराइट संकेत देता है।

हर १० किमी पर एक स्टेशन, हर तीन किमी पर एक गेट, बीच में पटरियों और पुलों की सुरक्षा में लगे हुये न जाने कितने पैट्रोलमैन। आप यह मानकर चलें कि हर २ मिनट में कोई न कोई आपकी ट्रेन को अपनी सतर्क दृष्टि से देख रहा है, आपको पता चले न चले पर वह आपकी ट्रेन की सुरक्षा सुनिश्चित करते हुये ऑलराइट संकेत संप्रेषित कर रहा है। इसी प्रकार पटरी, स्टेशन और पुलों के ऊपर से हर पाँच मिनट में एक गाड़ी निकल रही है, उसमें तैनात कर्मचारी अपनी पटरी के साथ बगल वाली पटरी पर भी दृष्टि रखते हैं। साथ ही पैट्रोलमैन पटरियों पर लगी एक एक चाभी का निरीक्षण और उनकी सुनिश्चितता दिन में एक से अधिक बार कर लेते हैं। इस प्रकार रेलवे  हर चालायमान या स्थायी तन्त्रों को दो से तीन मिनट में देखकर ऑलराइट सुनिश्चित करता रहता है। सुरक्षा का वृहद आधार ही इतने बड़े तन्त्र को चला पाने में समर्थ हो सकता है।  

जब तन्त्र बड़ा हो तो ऑलराइट संकेतों की व्यवस्थायें उसको सुचारु रूप से चलाने के लिये अनिवार्य अंग हैं। विशाल मध्य को साधने और छाँटने के लिये सिरों का आपस में संवाद बना रहना एक महती आवश्यकता है।  ट्रेन का मध्य हो या पटरियों का मध्य, उसे कोई देखे व सिरों को उसके बारे में बताये, यह व्यवस्था ऑलराइट तन्त्र में विद्यमान है। ठहराव व छटपटाहट मध्य में होती ही है, संचार व संवाद सुचारु न हो तो मध्य आवश्यकता से अधिक फूलने और फैलने लगता है।

रेलवे की भाँति ही अपना भी देश बड़ा है, उसे चलाने के लिये स्थापित तन्त्र भी बड़े हैं। अवलोकन करें कि उनमें कोई ऑलराइट संकेतों जैसी व्यवस्था है कि नहीं, और यदि नहीं है तो उसका क्या कुप्रभाव देश पर पड़ रहा है। रेलवे जैसे गतिमान तन्त्र में बीच में यदि कोई डब्बा छूट जाये तो तुरन्त पता लग जाता है। अन्य तन्त्रों की गति बहुत कम होने के कारण किसी के छूट जाने का पता तुरन्त नहीं लग पाता है और जब तक पता चलता है, बहुत देर हो जाती है। देश के विकास की ट्रेन गति पकड़ रही है, एक समुचित ऑलराइट तन्त्र के अभाव में संभवतः हमें पता ही न चल पाये कि कौन उस ट्रेन में चढ़ पाया है कि नहीं। गरीबों के लिये न जाने कितनी योजनायें बनी हैं, कितना लाभ दूसरे सिरे तक पहुँच पाता है, मध्य कितना फूल रहा है, यह सब तब पता चलेगा जब एक ऑलराइट तन्त्र सुचारु रूप से अवस्थित होगा।

जिनका अपना स्वार्थ सधता है, वे कभी नहीं चाहेंगे कि इस तरह के तन्त्र विकसित हों। अव्यवस्था बनी रहने से उनका लाभ है, फिर भी बड़े देश की व्यवस्थायें सुचारू रूप से चलाते रहने के लिये ऑलराइट तन्त्रों का पुनरुत्थान आवश्यक है। अपने जीवन काल में ही मैनें न जाने कितनी सरकारी संस्थाओं को टूटते देखा है, जीआईसी स्कूल, सरकारी अस्पताल, राशन तन्त्र, सरकारी योजनायें, बीएसएनएल, सब की सब ढेर होती हुयी देखी हैं। काश नीतिनिर्माताओं और लाभन्वितों के सिरे किसी ऑलराइट तन्त्र से जुड़े होते तो ये बड़ी व्यवस्थायें न ढहतीं। आगे सिरे में बैठे नियन्ताओं को तो सदैव ही लगता है कि उन्होंने अभूतपूर्व योजना क्रियान्वित की है, उन्हें क्या ज्ञात कि कितने डब्बे बीच पटरियों में पड़े रह गये। दुष्यन्त कुमार के शब्दों में सूखी जाती नदियों का कारण मार्ग में कहीं ठहरा पानी होगा। काश गंगासागर गंगोत्री को बता पाता कि कितना गंगाजल उस तक पहुँच पाया है।

वर्तमान में बहुत कार्य हुआ है। आईटी, सोशल माडिया, आधार, मोबाइल, जनधन बैंक आदि न जाने कितने ऑलराइट तन्त्र और उनके अंग अपने अस्तित्व का पूर्ण लाभ व्यवस्था को दे रहे हैं। जन जन का संवाद, अपने सिरे के बारे में सब ठीक होने या न होने की सूचना दूसरे सिरे तक पहुँचा रहे हैं। इन सूचनाओं की आवृत्ति और पहुँच अभी उतनी नहीं है जितनी वांछित है। सरकार के द्वारा इस तरह की व्यवस्थाये और स्थापित हों और दूसरे छोर पर स्थित प्रत्येक सिरा ऑलराइट संकेत भेजे तब अपने देश के बड़े तन्त्र पूर्णतया सध पायेंगे।

12.6.16

कविता का कालबन्ध

पिछले दो वर्षों में मुख्यतः कविता ही लिखीं, वह भी परस्पर असंबद्ध विषयों पर। कभी उत्साह की आस, कभी दर्शन की नीरवता, कभी तथ्यों की चोट, कभी बिखरे भावों को समेटने का प्रयास, कभी कुछ न कह सकने की टीस और कभी अभिव्यक्ति को ढूँढ़ लाने का उपक्रम। जब स्वयं से बात करने का समय घट जाता है तो ऐसे ही फुटकर बातें होती हैं। शब्द भी नहीं मिलते हैं, वाक्य पूरा करने के लिये। भाव अपना सत्य आधा व्यक्त करते हैं और आधा छिपा ले जाते हैं, संभवतः यह सोचकर कि पाठक उसे बीज रूप में समेट कर भाषा का समुचित विस्तार दे देगा और ठीक वैसा ही समझ लेगा जैसा भाव मन में प्रस्फुटित हुआ है।

किन्तु वैसा होता नहीं है, जैसा सोचा होता है। कवितायें अपनी ही कह जाती हैं, जो मन में आता है, वह लिखवा जाती हैं। पढ़ने वाले से संवाद होना या आंशिक होना या न होना, सब इस बात पर निर्भर करता है कि पाठक भी व्यक्त मनस्थिति से कितना परिचित है। यदि ऐसा नहीं है तो कविता असंप्रेषणीय शब्दों का एक समुच्चय बनी अपनी लघुता में भी ऐंठती रहती है।

जब कार्य कम शब्दों में होने लगता है तो मन भी आलस्य में उतरा जाता है। हमारे पूर्वजों और महान ऋषियों ने ज्ञान को संजोने के लिये सूत्र की विधा विकसित की थी। जब एक शब्द भी अतिरिक्त न हो और सारी बात कह भी दी जाये तो अभिव्यक्ति जिस रूप में निकलती है, उसे सूत्र कहते हैं। योगसूत्र, ब्रह्मसूत्र आदि इसी उत्कृष्टता के साक्षात प्रमाण हैं। उनके इस प्रयास में आलस्य नहीं वरन गहन विस्तार को संश्लेषित किये जाने में लगा परिश्रम था, चिन्तन का गहराव और विषय की पूर्ण समझ थी। यदि पतंजलि योगसूत्र के प्रथम चार सूत्रों में विषय को पूर्ण स्पष्ट करने की क्षमता रखते हैं तो वह उनकी अद्भुत मेधा का परिचायक है। मेरे द्वारा अभिव्यक्त कविता की चार पंक्तियाँ मेरे गहराये आलस्य और मन में उमड़ते समग्रभाव के शतांश से अधिक कुछ भी नहीं  है।

समय न मिल पाना, किसी एक विषय में चित्त को ध्यानस्थ न कर पाना और आलस्य की इसी स्थिति ने कविता को प्रधानता दे दी। पहले अध्ययन किये हुये विषयों पर लिखना अच्छा लगता था, मन को संतुष्टि मिलती थी। धीरे धीरे गद्य के स्थान पर कविता आती गयी, नयी कविताओं के सृजन के स्थान पर संचित कवितायें जाने लगीं, सप्ताह में दो ब्लाग के स्थान पर एक ही पर संतोष करना पड़ा और धीरे धीरे नियत समय में कुछ न लिख पाने के कारण उस पर भी २-३ दिन का विलम्ब होने लगा।

यदि सृजनशीलता शान्ति से लिखना जानती है तो वह अन्तःकरण को इस आलस्य के लिये झकझोरना भी जानती है। झकझोरना और भी तीव्रता से होता है जब समयाभाव का कारण भी समाप्त हो गया हो। अब तो मन अस्थिरता और आलस्य ही कारण बचे, समुचित न लिख पाने के। लिखने के लिये पढ़ना पड़ता था, तथ्यों और विचारों को समझना पड़ता है। न लिखने से आत्मोन्नति का प्रवाह रुद्ध सा हो गया, इस कालखण्ड में। 

मन से जूझने का कौन सा उपाय है जो मानव न अपनाता हो। कार्य को न कर सकने के ढेरों कारण लाकर रख देगा आपका मन आपके सामने। आपका मन आपको ही भ्रम में डालने के लिये तत्पर है।

अन्तः कुछ कहने को आतुर है। न जाने कितने ऐसे विषय हैं जिन पर विचारों ने परिश्रम किया है,  न जाने कितनी उलझने सुलझी हैं, सरलता के न जाने कितने समतल देखे हैं, जीवन में कितना कुछ घटा है पिछले दो वर्षों में। संवादहीनता निश्चय ही नहीं रही है पर मन के बादल जमकर नहीं बरसे हैं। दो वर्ष की प्रतीक्षा के पश्चात, इस वर्ष का मानसून भी आशा से अधिक आने की संभावना है। प्लावित मन निश्चय ही कविता के कालबन्ध से बाहर निकलेगा।

5.6.16

समय-यज्ञ

वचन है यह सत्यता को,
जिस दिशा में सोचता हूँ,
उन पथों को छोड़कर मैं,
एक पग भी ना चलूँगा ।।१।।

बहुत सोचा और विचारा,
एक बस निष्कर्ष लक्षित,
उस दिशा में दृष्टिगत हो,
पंथ मेरे चल पड़ेंगे ।।२।।

अब समय के यज्ञ में,
आहुति चढ़ाता जाऊँगा मैं,
अब विगत-उपयोगिता,
चिन्तन भी करना व्यर्थ है ।।३।।