29.12.12

यार्ड में लेखन

वरिष्ठ अधिकारी का निरीक्षण है, यार्ड में नयी पिट लाइनों का निर्माण कार्य चल रहा है, पिट लाइनों का उपयोग यात्री ट्रेनों के नियमित रख रखाव के लिये किया जाता है। बंगलौर के लिये बहुत अधिक यात्री गाड़ियों की माँग है, देश के हर कोने से। दबाव भी है और सहायता भी है, अधिकतम माँग को स्वीकार करने के लिये। इसी क्रम में नये प्लेटफ़ार्म, नयी पिट लाइन, नये कोच, नये इंजिन आदि की आवश्यकता बनी रहती है। योजना और क्रियान्वयन पर नियमित दृष्टि बनाये रखने के लिये, कार्य की प्रगति बीच बीच में देखनी होती है। यह निरीक्षण उस वृहद प्रक्रिया का अंग है जो अंततः नयी यात्री गाड़ी चलाने के लिये वर्षों पहले से चल रही है।

वरिष्ठ अधिकारी दूसरे मार्ग से आ रहे हैं, हमें वहाँ पहले पहुँचना था। बंगलौर की यातायात की अनिश्चितता को देखकर हम आधे घंटे पहले निकले, भाग्य ने साथ दिया और बिना व्यवधान के लगभग ४० मिनट पहले पहुँच गये। वरिष्ठ अधिकारी पर यातायात उतना प्रसन्न न रहा और अभी सूचना मिली है कि उन्हें नियत समय से लगभग ४० मिनट की देर हो जायेगी। हमारे हाथ में ८० मिनट का समय है, यार्ड का विस्तृत क्षेत्र है, २० मिनट का प्राथमिक निरीक्षण कर लेने के बाद पूरा एक घंटा हाथ में है। पेड़ के नीचे वाहन खड़ा कर, गाड़ी की अगली सीट पर बैठे हुये, लेखन चल रहा है। ऊपर देखने से हरियाली दिख रही है, नीचे सूर्य के प्रकाश में साँप सी लहराती पटरियाँ, दूर से आती इंजन की आवाज़ और लगभग २०० मीटर दूर निर्माण कार्य की चहल पहल। दृश्य का विस्तार और समय का साथ होना, दोनों ही लिखने को विवश कर रहे हैं।

रेल यार्ड का नाम सुनते ही एक चित्र उभर आता है, लम्बी लम्बी रेल लाइनें, बड़ी बड़ी रेलगाड़ियाँ, छुक छुक धँुआ छोड़ते इंजन, डिब्बों को एक ट्रेन से काटकर दूसरे में लगाते हुये रेल कर्मचारी। मुझे लगभग १६ वर्ष हो गये है रेल सेवा में पर आज भी यार्ड उतना ही अभिभूत करते हैं जितना बचपन में करते थे। आज भी यार्ड में जाकर घंटों बीत जाते हैं और लौटकर थकान जैसी कोई चीज़ नहीं लगती है, ऐसा लगता है कि किसी मित्र के घर से होकर आ रहे हैं। यार्ड को यदि सरल भाषा में समझा जाये तो, यह रेलगाड़ियों का घर है, जहाँ पर वे विश्राम करती हैं, उनका रख रखाव होता है और जहाँ उन्हें आगे की लम्बी यात्राओं के लिये निकलना होता है। यहाँ गाड़ी की सुरक्षा, संरक्षा आदि से जुड़े हर पक्ष पर ध्यान दिया जाता है।

यार्ड बड़े होते हैं, सामान्यतः एक किमी से लेकर पाँच किमी तक। परिचालन में कार्य करते हुये ऐसे न जाने कितने यार्डों में कार्य करने का अवसर मिला है। जिस प्रकार घरों में कई कमरे होते हैं, उसी तरह यार्डों में कार्यानुसार कई उपयार्ड। बड़े यार्ड का हर उपयार्ड एक किमी लम्बा होता है। एक में गाड़ियों का स्वागत होता है, दूसरे में उन्हें विभक्त किया जाता है, तीसरे में उनका रख रखाव होता है, चौथे से उन्हें गन्तव्य के लिये भेजा जाता है। वह अनुभव अब बहुत काम आता है, किसी भी यार्ड का चित्र देखकर ही यह पता लग जाता है कि इस यार्ड में क्या समस्या आती होगी, यहाँ पर किन कार्यों की संभावनायें हैं। भविष्य में विस्तार की योजनाओं में इनका विशेष स्थान है। हर ट्रेन का, चाहे वह यात्रीगाड़ी हो या मालगाड़ी, सबका एक नियत यार्ड होता है, उसका एक घर है।

कार्यक्षेत्र से संबंधित जो भी योगदान रहा हो यार्डों का, व्यक्तिगत जीवन में यार्डों के तीन स्पष्ट लाभ रहे हैं। पहला तो इन्हीं बड़े यार्डों की सड़कों पर वाहन चलाना सीख पाया। यार्ड के एक ओर से दूसरे ओर जाने में चार पाँच किमी की यात्रा हो जाती है। सड़कें सपाट, बिना किसी यातायात के, उन पर वाहन चलाना स्वयं में अनुभव होता था। प्रारम्भ में तो यार्ड आते ही चालक महोदय को अपनी सीट पर बिठाकर वाहन चलाना सीखा, बाद में जब आत्मविश्वास बढ़ गया तो कई बार रात्रि में दुर्घटना होने पर स्वयं ही वाहन लेकर निकल गया। यद्यपि वाहन चलाना अच्छे से आता है पर बंगलौर में यातायात की अल्पगति और भीड़ को देखकर कभी इच्छा ही नहीं होती है। आज एक दूसरे यार्ड में बैठा लिख रहा हूँ पर सामने फैली लम्बी सड़क देखकर वो दिन याद आ रहे हैं जब इन पर निर्बाध वाहन दौड़ाया करते थे।

दूसरा लाभ स्वास्थ्य से संबंधित है। सेवा के प्रारम्भिक वर्षों में ही एक आत्मीय वरिष्ठ ने सलाह दी थी कि जब भी किसी यार्ड में जाओ तो एक छोर से दूसरे छोर तक पैदल चल कर ही निरीक्षण करो, उससे जो लाभ मिलता है वह दूर से समझने या इंजन में चलकर जाने में नहीं है। काग़ज़ पर यार्ड समझने का कार्य भी पूरे यार्ड की पैदल यात्रा करने के बाद ही करना चाहिये। पहले तो यह सलाह बड़ी श्रमसाध्य लगी, पर धीरे धीरे लाभ स्पष्ट होने लगे। कहीं कोई समस्या आने पर घटनास्थल पर पहुँचने के पहले ही फ़ोन से समुचित निर्देश दे सकने की क्षमता विकसित होने लगी। धीरे धीरे हर स्थान पर यही क्रम बन गया और योजना संबंधी कोई भी निर्णय लेने के लिये यार्डभ्रमण एक आवश्यक अंग बन गया। इतना पैदल चलने से स्वास्थ्य अच्छा रहना स्वाभाविक ही है। आज भी वरिष्ठ अधिकारी के आने के बाद दो किमी का भ्रमण तो निश्चित है। घर जाकर तब मिठाई आदि खाने में कोई अपराधबोध नहीं होगा। हर बार निरीक्षण में जाने के बाद एक अच्छा और भरपेट भोजन सुनिश्चित हो जाता है, स्वास्थ्य बना रहता है, सो अलग।

तीसरा लाभ है, लेखन। यार्ड का क्षेत्रफल बहुत अधिक होता है, जितना विस्तृत उतना ही शान्त। बीच बीच में ढेरों पेड़ और हरियाली। जब भी कार्य से कुछ समय मिलता है, थकान से कुछ समय निकलता है, ऐसा वातावरण बहुत कुछ सोचने और लिखने को प्रेरित करता है। विषय बहुत सामने आ जाते हैं, शान्ति और समय विचारों के संवाहक बन जाते हैं, शब्द उतरने लगते हैं। उड़ीसा में एक स्थान याद आता है, संभवतः गुआ नाम था। वहाँ के जो यार्ड मास्टर थे, वह उड़िया के बड़े लेखक थे। जंगल और लौह अयस्क की खदानों के बीच उन्हें निश्चय ही एक उपयुक्त वातावरण मिलता होगा, उस समय, जब एक ट्रेन जा चुकी हो, दूसरे की प्रतीक्षा हो, विचार रुक न रहे हों, वातावरण के अंग आपको विवश कर रहे हों, कुछ कह जाने को, कुछ बह जाने को।

सूचना आयी है कि लगभग १५ मिनट में वरिष्ठ अधिकारी पहुँच जायेंगे। बहते विचारों को अब सिमटना होगा, आगे बढ़ने की तैयारी करनी होगी। थोड़ी दूर से इंजन की बहुत भारी आवाज़ आती है, गम्भीर आवाज़ आती है। एक अधिक शक्ति का इंजन आया है, लौह अयस्क की एक भारी ट्रेन सेलम स्टील प्लांट जाने के लिये तैयार खड़ी है। लगभग आधे घंटे में वह ट्रेन अपने गन्तव्य की ओर बढ़ जायेगी, लौह पिघलेगा, कुछ सार्थक आकार निकलेगा, विकास का एक सहारा और बनेगा। हमारा लेखन भी शब्दों के रूप में बह कर पोस्ट का आकार ले रहा है, सृजन का एक और सोपान लग जायेगा। पिट लाइन के निरीक्षण के बाद कुछ सप्ताह में यहाँ किसी नई ट्रेन का रख रखाव प्रारम्भ हो जायेगा। न जाने कहाँ के लिये, जबलपुर, जयपुर, गोवा, गुवाहाटी, दिल्ली, कोच्चिवल्ली या कोयम्बटूर के लिये। ज्ञात नहीं, पर एक और स्थान बंगलौर से जुड़ जायेगा। संभवतः आप में से किसी को बंगलौर तक बैठा कर लाने के लिये। कौन जाने किससे मिलने के बीज आज के निरीक्षण में छिपे हों?

दूर से सायरन की क्षीण आवाज़ सुनायी पड़ती है, सुरक्षाबल अपनी व्यवस्था में लग जाते हैं। निरीक्षण से संबंधित संभावित विषय मस्तिष्क में अपना स्थान ढूँढ़ने लगते हैं। एक साथी अधिकारी का फ़ोन आता है, हाँ आपकी ही प्रतीक्षा में हैं, बस अभी आये हैं। अब लेखन समाप्त, निरीक्षण प्रारम्भ।

26.12.12

कोई हो

खड़ा मैं कब से समुन्दर के किनारे,
देखता हूँ अनवरत, सब सुध बिसारे ।
काश लहरों की अनूठी भीड़ में अब,
कोई पहचानी, पुरानी आ रही हो ।
कोई हो जो कह सके, मत जाओ प्यारे,
कोई हो जो मधुर, मन को भा रही हो ।।१।।

कोई कह दे, नहीं अब मैं जाऊँगी,
संग तेरे यहीं पर रह जाऊँगी ।
कोई हो, एकान्त की खुश्की मिटाने,
नीर अपने आश्रय का ला रही हो ।
कोई हो जो बह रहे इन आँसुओं के,
मर्म की पीड़ा समझती जा रही हो ।।२।।        

कोई कह दे, छोड़कर पथ विगत सारा,
तुझे पाया, पा लिया अपना किनारा ।
कोई कह दे, भूल जाओ स्वप्न भीषण,
कोई हो जो हृदय को थपका रही हो ।
कोई कह दे, देखता जो नहीं सपना,
कोई हो जो प्रेयसी बन आ रही हो ।।३।।

22.12.12

और बाल कट गये

पिछले शनिवार को बाल कटाने गये, एक नियत दुकान है, वहीं पर ही जाकर कटाते हैं। प्रारम्भ में एक दो बार जाने से परिचय हो गया, कैसे बाल कटाने से चेहरा अच्छा दिखेगा, दोनों को समझ आ गया, तब से वहीं जाने का क्रम बन गया। अब महीने में एक बार जाना हो ही जाता है, कभी कभी देर हो जाने पर दर्पण डरा देता है, बालों को लहराकर काढ़ने में कभी सौन्दर्य दिखता ही नहीं है, बिखरा बिखरा सा व्यक्तित्व लगता है। छोटे छोटे बाल ही सुहाते हैं, तब चेहरा बालों से अधिक संवाद करता हुआ लगता है।

सर के बालों को लेकर सबका अपना सौन्दर्यबोध है, सबका अपना दर्शनशास्त्र है। श्रंगार रस के कवियों ने न जाने कितना कुछ लिखा है, नारियों के खुले और लम्बे बालों पर, कई तरह से बाँधी हुयी चोटियों पर, चोटियों पर सजे हुये पुष्पों के अलंकरण पर और उन पुष्पों के सौन्दर्य पर डोलते पुरुषों के हृदयों पर। कविगण तनिक परम्पराओं से हिलमिल कर चलते हैं, परन्तु आधुनिकाओं को छोटे छोटे बाल ही सुहाते हैं, उनके रखरखाव पर उन्हें समय व्यर्थ करने का मन ही नहीं होता है, हो सकता है उन्हें भी मेरी तरह ही बालों से अधिक चेहरे से संवाद करने का दर्शन भाता हो। ईश्वर ने बाल दिये हैं, कोई उसे कैसे रखता है और उसका प्रयोग किन किन लौकिक और अलौकिक अनुसंधानों में करता, वह सर्वथा उसी का विषय है, अपना मत व्यक्त होने के पहले ही वापस आ जाने का भय रहता है, ऐसे विषयों में।

अब योगियों को ही ले लीजिये, उन्हें भी सर, मूछों और दाढ़ी के बालों पर समय व्यर्थ करना नहीं भाता है। कुछ तो उन्हें सदा बढ़ाते रहते हैं, जो बहुधा एक दूसरे से उलझ उलझ कर गर्म वस्त्रों का स्वरूप ले लेते हैं। कुछ योगी बाल रखते ही नहीं हैं, उनका मानना है कि बाल न या छोटे रहने पर उसके रख रखाव पर कम समय व्यर्थ होगा और तब भगवत्भजन के लिये अधिक समय मिल जायेगा। ईश्वर ने निश्चय ही अपने भक्तों को एक कार्य तो दे ही दिया है, भक्तों ने अपने दर्शन के अनुसार हल भी निकाल लिया है।

हमारे पृथु को भी बाल कटाना अच्छा नहीं लगता है, उन्हें तो सर पर तेल लगाना और बाल काढ़ना भी नहीं अच्छा लगता है, देशी भाषा में कहें तो उन्हें मोगली बने रहना अच्छा लगता है। बहुत कुरेदने पर बताया कि यह 'आउट ऑफ फैशन' है, सर पर तेल लगाकर काढ़ने से सब उन्हें चीकू और अच्छा बच्चा समझने लगते हैं और चिढ़ाते हैं। हे भगवान, हम तो ३६५ दिन सर पर तेल लगाते हैं पर हमें तो कभी किसी ने नहीं चिढ़ाया, अच्छा दिखना भला कब से आउट ऑफ फैशन होने लगा। पृथु के अध्यापकगण पृथु के नये फैशनबोध पर पूरी तरह सहमत नहीं हैं, उनके कारण पृथु को बाल तो छोटे रखने पड़ते हैं पर तेल लगा कर काढ़ने को अभी तक अनुशासन की परिधि में नहीं लाया गया है। नयी पीढ़ी की नयी मान्यतायें विकसित हो रही है, उनसे छेड़ छाड़ करना बाल-अधिकारों के हनन के रूप में आरोपित हो जायेगा।

बाल काटने के व्यवसाय पर काल, स्थान और व्यवस्था का प्रभाव सहज ही दृष्टिगोचर होता रहा है। बचपन में एक छोटे स्थान पर रहते थे और बहुधा नाई महोदय घर पर ही आ जाते थे, लगे हाथों शरीर की मालिश भी हो जाती थी। धीरे धीरे उनका कार्य बढ़ गया, उन्होंने अपनी दुकान खोल ली, आत्मीयता होने के कारण हम लोग वहीं जाकर बाल कटाने लगे। आगे पढ़ने कानपुर में आये तो भी नियत दुकानों में जाकर बाल कटाते रहे पर पहले जैसी आत्मीयता कहीं नहीं रही। रेलवे की सेवा में व्यस्तता का प्रभाव कहें या अंग्रेजों की विरासत का, हर स्थान पर नाई महोदय बाल काटने घर ही आते रहे। बाल कटवाने के बाद चम्पी करवाना सदा ही आकर्षण का विषय रहता था, बड़ा ही आनन्द आता रहा उसमें। रेलवे की अन्य पोस्टों पर बाजार कभी हावी नहीं रहा, व्यक्तिगत स्तर पर सेवायें मिलती रहीं, विशिष्ट स्तर बना रहा, उन छोटे नगरों में रेलवे ही नगर का प्रमुख अंग हुआ करता था।

बंगलोर बड़ा नगर है, यहाँ पर आप उतने विशिष्ट नहीं होते हैं, यहाँ पर रेलवे के अतिरिक्त विकास के अन्य प्रतिमान उपस्थित हैं। घर पर आकर बाल काटने के लिये कोई तैयार नहीं है, ग्राहक अधिक हैं, समय कम हैं। हम भी अन्य की तरह महीने में एक बार बाल कटवाने चले जाते है। वहाँ जाने का लाभ यह होता है कि अपना चेहरा देखने के अतिरिक्त बहुत कुछ सुनने और जानने को मिल जाता है। आस पास की बातें, राजनीति की बातें, फ़िल्मों की बातें, गानों की बातें, बहुत ज्ञान बढ़ जाता है।

चार लोग हैं उस दुकान में जो बाल काटते हैं, एक मैनेजर है जो व्यवस्था करता है। हमें तो पहले लगता था कि एक बाल काटने वाला ही अपनी सारी व्यवस्था कर लेता है पर थोड़ी बातें सुनने के बाद स्थिति और स्पष्ट हो गयी। दुकान का मालिक कोई और है और मालिक की अन्य कई दुकानें और व्यवसाय हैं। उसके लिये यह संभव नहीं है कि अपनी सब दुकानों में समय दे पाये, अतः उसके लिये हर स्थान पर एक मैनेजर नियुक्त कर रखा है। सारे आर्थिक अधिकार मैनेजर के पास हैं, चार कर्मचारी अपना कार्य करते हैं और अपना पारिश्रमिक ले कर चले जाते हैं। कर्मचारी उत्तर भारत के हैं, मैनेजर स्थानीय है।

पिछले तीन वर्षों में एक बड़ी मज़ेदार बात देखने को मिली है। दो कर्मचारी पिछले तीन वर्षों से हैं और उनमें से एक ही मेरे बाल काटता है। जब भी मैं वहाँ पहुँचता हूँ, यदि वह थोड़ा व्यस्त होता है, मैं तनिक प्रतीक्षा कर लेता हूँ। दूसरा भी उसी के गाँव का है। दो अन्य कर्मचारी इस बीच जा चुके हैं और उनके स्थान पर जो नये कर्मचारी आये हैं, वे भी उसी गाँव के हैं और पहले से उपस्थित कर्मचारी के संबंधी भी हैं। इस समय चारों कर्मचारी एक ही गाँव के हैं, बाहर एक साथ रहते हैं और दुकान में एक साथ कार्य करते हैं। अनौपचारिक चर्चा से पता लगा कि दोनों नये कर्मचारी गाँव में कुछ कार्य नहीं करते थे पर यहाँ पर संभावना होने पर नाई का कार्य सीख कर यहाँ आ गये। दो तीन और लोग हैं उसी गाँव में जो अपने अवसर की प्रतीक्षा कर रहे हैं, आने को तैयार बैठे हैं।

जहाँ कर्मचारियों का स्थायीकरण और एकत्रीकरण होता जा रहा है, मैनेजर की स्थिति दयनीय है। इस बार जब मैं गया, पाँचवा चेहरा मुझे मैनेजर के स्थान पर दिखा। नये मैनेजर का दूसरा या तीसरा दिन रहा होगा, क्योंकि आधे घंटे में ही अनुशासन की जितनी मात्रा उसने अपने जमे जमाये कर्मचारियों पर झोंक दी, उसे देख कर तो लग रहा था कि वह स्वयं को स्थापित करने को बहुत व्यग्र है। या तो पिछले मैनेजरों को अधिक पारिश्रमिक नहीं मिलता होगा या वे आर्थिक हिसाब किताब या प्रबन्धन में कोई अव्यवस्था किये होंगे। इतनी जल्दी जल्दी मैनेजर बदलने का कोई अन्य कारण समझ ही नहीं आया मुझे।

मोबाइल पर बात मत करो, बीच में चाय मत पियो, आपस में बात मत करो, यह फ़ोटो इधर से हटाकर उधर पर लगाओ, अख़बार और मैगज़ीन व्यवस्थित रखो, रेडियो की आवाज़ कम रखो, ऐसे न जाने कितने आदेश मेरे ही सामने झोंक दिये नये मैनेजर ने। चारों कर्मचारी दूसरी ओर मुँह करके बीच बीच में मुस्कुरा रहे थे, मुझे देखने में बड़ा आनन्द आ रहा था। 'साहब बाल कट गये' सहसा ध्यान भंग हुआ, रुक कर थोड़ा और देखने का मन तो था पर कोई बहाना नहीं था। अब तो एक महीने बाद ही पुनः आनन्द लेने का अवसर मिलेगा, तब तक आप भी प्रतीक्षा कीजिये।

19.12.12

टिप्पणियाँ भी साहित्य हैं

कुछ दिन पहले देखा कि देवेन्द्र पाण्डेय जी ने एक ब्लॉग बनाया है, टिप्पणियों का। इसमें वह किसी पोस्ट को चुनते हैं और पोस्ट पर की गयी टिप्पणियों के संवाद को समझाने का कार्य करते हैं। बड़ी ही रोचक और रसमय प्रक्रिया है यह। इसके पहले रविकरजी की काव्यात्मक टिप्पणियों का ब्लॉग भी पढ़ने को मिलता रहा है। काव्यात्मक टिप्पणियाँ न केवल पोस्ट के भाव को संक्षेप में व्यक्त करती हैं, वरन उस विषय पर अपना मत भी व्यक्त करती हैं।

उत्साहवर्धक और संवेदनात्मक टिप्पणियों की सार्थकता है, पर उससे भी अधिक बात करती हुयी वो टिप्पणियाँ होती हैं जो विषय के किसी पक्ष को उजागर करते हुये लिखी जाती है। कई बार कुछ पोस्ट पढ़ना प्रारम्भ करते हैं, उस पर की गयी टिप्पणियाँ पढ़ते हैं, तो विषय पर किया गया एक शोध सा सामने आ जाता है। अपने ब्लॉग पर ही देखता हूँ, कई बार टिप्पणियाँ इतनी पूर्ण होती हैं कि उन्हें चुरा कर अपनी पोस्ट में लगा लेने की इच्छा होती है। आभूषण की तरह सज जाती हैं वे पोस्ट के सौन्दर्य में। कभी कभी तो लगता है कि पोस्ट तो मात्र विषय की प्रस्तावना ही होती है, उस विषय का शेष विस्तार तो बाद में आता है, टिप्पणियों के माध्यम से। कई बार तो किसी पाठक विशेष की टिप्पणी क्या रहेगी, यह उत्सुकता रहती है पोस्ट लिखते समय। देखिये तो, हम पोस्ट लिखते समय टिप्पणियों का चिन्तन करते हैं, वहीं सुधीजन टिप्पणी लिखते समय पोस्ट का पूरा अर्थ शब्दों में मथ देते हैं।

यह बड़ा ही रोचक तथ्य कि इसमें लेखक और पाठक की चिन्तन प्रक्रिया को सहारा देती है टिप्पणियों की व्यवस्था। जब ब्लॉग प्रारम्भ हुये होंगे तो यह संबंध हमारी कल्पना में आये भी नहीं होंगे। अंग्रेज़ी के ब्लॉग, जो मैं पढ़ता हूँ, वे मुख्यतः तकनीक से जुड़े होते हैं और उनमें संवाद से अधिक तथ्य प्रमुख स्थान पाते हैं। अंग्रेज़ी के अन्य ब्लॉग भी जो चिन्तन प्रधान होते हैं, उन पर भी संवाद की उतनी अधिक मात्रा नहीं दिखी मुझे। हिन्दी के ब्लॉगों में जो चौपाल दिखती है, वैसी कहीं नहीं दिखी हमें। लोग बात करते हुये से लगते हैं, चर्चायें मुख्यतः सकारात्मक ही होती हैं, यदि कहीं पर मतभिन्नता दिखती भी है तो संवाद और उभर आता है, अस्त नहीं होता है। वातावरण जीवन्त सा दिखता है, यदि एक स्थान सूखा दिखता है तो वर्षा कहीं और प्रारम्भ हो जाती है, पर समग्रता में देखा जाये तो प्रवाह बना ही रहता है।

कारणों की चर्चा करें तो बहुत अधिक विचार नहीं करना पड़ेगा। हमारे समाज का प्रभाव हमारे ब्लॉगों के प्रारूप पर स्पष्ट दिखता है। पान की दुकानों पर, नाई से बाल कटाते समय, हलवाई के यहाँ चाय की चुस्कियाँ लेते समय, बनारस के घाटों पर और गाँव की चौपालों में, हम विश्व के न जाने कितने नेताओं के निर्णयों पर प्रश्नचिन्ह खड़े कर देते हैं। राजनीति के विषय के अतिरिक्त बात संस्कृति की बारीकियों की हो, इतिहास की भूलों की हो, व्यक्तित्वों की हो या उनसे जुड़ी चटपटी सूचनाओं की हो, शायद ही कोई पक्ष छूटता होगा इन संवादों से। राजनैतिक विषयों की प्रारम्भिक समझ में इन अनौपचारिक चौपालों का विशेष महत्व रहा है, मेरे लिये भी और मेरे जैसे न जाने कितने और लोगों के लिये भी।

जब पोस्ट और उन पर हुयी टिप्पणियों को देखता हूँ तो वही सब स्थान याद आने लगते हैं। जैसे उन चर्चाओं में याद नहीं रहता था कि चर्चा छेड़ी किसने थी, मोड़ी किसने थी और समाप्त किसने की। यदि कुछ याद रहता है तो उस पर पारित हुये सामूहिक निर्णय। कौन से विचार सबकी सहमति धरते हैं, कौन विचार अभी तक अनसुलझे हैं और भविष्य की चर्चा का आधार बन सकते हैं। धीरे धीरे हमारी समझ बढ़ती है, आगामी चर्चा का स्तर बढ़ता है और विषय अपने निष्कर्षों पर पहुँचने लगता है।

जब किसी विषय में संवाद का इतना महत्व है तो संवाद विषय का अभिन्न अंग भी हुआ। टिप्पणियाँ जब संवाद का स्वरूप ले लेती हों तो वह भी विषय का अंग हो जाती हैं। जब लिखी हुयी पोस्ट साहित्य हो जाये तो टिप्पणियाँ भी साहित्य हो गयीं। टिप्पणियों का महत्व निश्चय ही इस प्रकार सबके लिये ही है।

आप अपनी टिप्पणियों को कितना महत्व देते है? दानकर भूल जाते हैं या उसकी एक प्रति अपने पास भी रख लेते हैं। मैं टिप्पणियों को अपने सृजन का अंग मानता हूँ अतः उन्हें कहीं सुरक्षित रख लेता हूँ। यद्यपि औरों के द्वारा की हुयी टिप्पणियाँ आपकी पोस्ट में और ब्लॉगर खाते में सुरक्षित रहती हैं, आपके द्वारा औरों के ब्लॉग पर की हुयी टिप्पणियाँ सुरक्षित नहीं रहती हैं। कभी कभी ब्लॉग संकलक हारम् पर पिछली कई टिप्पणियों का संकलन देख कर हर्षमिश्रित प्रसन्नता होती है। ब्लॉगर तो देर सबेर हमारे द्वारा की हुयी टिप्पणियाँ भी संरक्षित और संकलित कर ही देगा पर वर्तमान में जितनी दमदार टिप्पणियाँ स्मृति से निकली जा रही हैं, उन्हें स्वयं ही सहेज के रखने की आवश्यकता है।

मैं तो अपनी टिप्पणियाँ सहेज कर रखता हूँ, कभी कभी उस स्मृति के रूप में जो किसी का उत्कृष्ट ब्लॉग पढ़कर मन में आयी। अच्छा पढ़ने के बाद मन में सुप्त विचारों को शब्द मिलने लगते हैं, शब्द अच्छे मिलते हैं, सृजन होता है। मेरे द्वारा की गयी अच्छी टिप्पणियाँ अच्छी पोस्टों की कृतज्ञ हैं, जितनी अच्छी पोस्ट होती हैं, टिप्पणियों का स्तर उतना ही बढ़ जाता है।

पिछली पोस्ट पर मुझे इस बात का संबल मिला कि अच्छा पढ़ना भी चाहिये और उसके आधार पर अच्छी पोस्ट लिखनी भी चाहिये। अच्छी पुस्तक पढ़ उसके बारे में लिखने की इच्छा होती है। यही तर्क औरों के द्वारा लिखित अच्छी पोस्टों को पढ़ने के बाद भी लागू होती है, उन्हें पढ़ने के बाद भी कुछ त्वरित लिखने का मन करता है, वह लेखन ही टिप्पणियाँ हैं। एक अच्छी पुस्तक हो या एक अच्छी पोस्ट हो, उसे पढ़ने के बाद आप एक पोस्ट लिखें या एक टिप्पणी, वह भी सृजन का अंग है, वह भी साहित्य का अंग है। जितना संभव हो पढ़ें, जितना संभव हो स्वयं को व्यक्त करें। टिप्पणियाँ व्यर्थ नहीं हैं, टिप्पणियाँ व्यापार नहीं है, टिप्पणियाँ साहित्य हैं।

15.12.12

पढ़ते पढ़ते लिखना सीखो

पिछले कई दिनों से पढ़ रहा हूँ, बहुत पढ़ रहा हूँ, कई पुस्तकें पूरी पढ़ी, कई आधी अधूरी चल रही हैं। रात में बच्चों के सोने के बाद पढ़ना प्रारम्भ करता हूँ तो कब घड़ी को दोनों सुईयाँ तारों की दिशा दिखाने लगती हैं, पता ही नहीं चलता है। सुबह शीघ्र उठने में कठिन परिश्रम करना पड़ता है, दिनचर्या अलसायी सी प्रारम्भ होती है तब।

माताजी पिताजी घर आये हैं, पिताजी आज भी सुबह ५ बजे उठ जाते हैं और योग भी करते हैं। पृथु अपने बाबा के प्रिय हैं, सुबह उठने से लेकर रात कहानी सुनने तक साथ लगे रहते हैं। तो स्वाभाविक है कि पृथु भी सुबह योग करते हैं और उसके बाद पढ़ने भी बैठ जाते हैं। एक पीढ़ी ऊपर और एक पीढ़ी नीचे, दोनों ही हमें अधिक सोने वाला और आलसी समझते हैं और उसी दृष्टि से देखते भी हैं। 'उठने का समय मिल गया पापा को', कौन भला यह कटाक्ष झेल पायेगा। सारांश यह है कि हम नित ही अंक खोते जा रहे हैं, पता नहीं कि बाद में पृथु को अनुशासित रख पाने का अधिकार भी रख पायेंगे या नहीं।

बाजी हाथ से फिसल रही है, तेजी से, पर उसका अधिक हानिबोध नहीं है। असली समस्या यह है कि अधिक पढ़ने के क्रम में लिखना भी कम हुआ जा रहा है, सप्ताह में दो पोस्ट भी लिखने में इतना जूझना पड़ रहा है कि लिखा हुआ एक एक शब्द लाखों का लगता है। चेहरे से बच्चों को पता लग जाता है कि बुधवार या शनिवार आने वाला है और पापा ने अपनी पोस्ट लिखी नहीं है। ऐसा दिखने पर हमें बहुधा उस उल्लास और कार्यक्रम में सम्मिलित नहीं किया जाता है जो घर के शेष लोगों ने बनाया होता है। लिखना भी नहीं हो पाता है, मन ललचाता भी रहता है, एक विशिष्ट रूप लेता जा रहा है हमारा जीवनक्रम।

ऐसा पहली बार नहीं हैं कि लिखने और पढ़ने को साथ साथ चलने में समस्या न आयी हो। जब लिखना अधिक होता है तो पढ़ना पूरी तरह रुक सा जाता है, महीनों कोई पुस्तक उठाने का मन नहीं करता है। अब जब पुस्तकों को महीनों का शेष चुकाने बैठे हैं तो लिखने का मन नहीं हो रहा है। समय की कमी एक कारण अवश्य होगा, होना भी चाहिये, आप कितने भी विशिष्ट समझ लें स्वयं को, घंटे तो २४ ही मिलेंगे एक दिन में। चाह कर भी एक मिनट अधिक नहीं मिलेगा। यदि अधिक कर सकने के लिये अपनी कार्य क्षमता बढ़ाने का उपाय करना चाहूँ तो वह भी नहीं हो पा रहा है, क्योंकि मन की माने तो सुबह उठकर योग करने के लिये भी समय चाहिये। अब समस्या इतनी गहरा गयी है कि बिना गोता मारे उपाय निकलेगा भी नहीं।

धीरे धीरे मन को मनाने से दिनचर्या की समस्या तो हल हो भी जायेगी, पर एक और बौद्धिक समस्या सामने दिखती है जो लिखने में रोड़ा अटका रही है। सतही देखा जाये तो समस्या है, गहरे देखा जाये तो संभावना है। यदि आप कोई अच्छी पुस्तक पढ़ते हैं तो उस लेखक से संवाद करते हैं। पुस्तक जितनी रोचक होती है, संवाद उतना गहरा होता है, उतना ही अन्दर आप उतर जाते हैं। पुस्तक पढ़ने के बीच जो समय मिलता है, उसमें आप उसी संवाद पर मनन करते हैं। पहले तो पठन औऱ फिर उसी पर मनन, इसी में सारा समय निकल जाता है, कुछ समय ही नहीं बचता कुछ संघनित करके बरसाने के लिये। इतना समेट लेने की व्यग्रता रहती है कि कुछ निकालने का समय ही नहीं रहता है। हाँ, यह बात तो है कि जो भी संवाद होता है, वह कभी न कभी तो बाहर आयेगा, कई बार गुनने के बाद, बस यही संभावना है, बस यही सान्त्वना है।

न लिख पाने का एक और कारण भी समझ में आता है, पढ़ने और लिखने का स्तर एक सा न होना। अच्छे लेखक को पढ़ने में बौद्धिक स्तर इतना ऊँचा उठ जाता है कि तब नीचे उतर कर लिखने का साहस नहीं हो पाता है, अपनी लेखकीय योग्यता पर संशय होने लगता है। जब पकवानों की उपस्थिति आप के घर में हो तो आपकी अधकच्ची, अधपकी और चौकोर रोटी कौन सुस्वादु खा पायेगा? यही संशय तब धड़कन में धक धक करता रहता है और आप उसकी थाप को अपने ध्यान से हटा नहीं पाते हैं। जब साहित्य और सृजनता मंद मंद बयार के रूप में बह रही हो, तब अपने मन के अंधकार को टटोलने का मन किसका करेगा, विस्तार के आनन्द से सहसा संकुचित हो जाना किसको भायेगा भला?

यह समस्या मेरी ही नहीं है, कई मित्र हैं मेरे, जब वे अच्छा पढ़ने बैठते हैं तो लिखना बन्द कर देते हैं। बहुत से ब्लॉगर ऐसे हैं जिन्होंने लिखना कम कर दिया है। उनका लिखा पढ़ने को कम मिल रहा है, उसका दुख तो है, पर इस बात की प्रसन्नता है कि वे निश्चय ही बहुत ही अच्छा पढ़ रहे होंगे और भविष्य में और धमाके के साथ लिखना पुनः प्रारम्भ करेंगे। डर पर इस बात का है कि कहीं अच्छा पढ़ने की लत में वे लिखना न भूल जायें। सारा ज्ञान स्वयं समा लें, सारा आनन्द स्वयं ही गटक जायें और हम वंचितों के आस भरे नेत्रों को प्यासे रहने के लिये छोड़ दें।

तो प्रश्न बड़ा मौलिक उठता है, कि यदि इतना स्तरीय और गुणवत्तापूर्ण लिखा जा चुका है तो उसी को पढ़कर उसका आनन्द उठाया जाये, क्यों समय व्यर्थ कर लिखा जाये और औरों का समय व्यर्थ कर पढ़ाया जाये। कई लोग इस बौद्धिक गुणवत्ता और पवित्रता को बनाये रखना चाहते हैं और पुरातन और शास्त्रीय साहित्य पढ़ते रहने में ही अपना समय बिताते हैं। अपने एक वरिष्ठ अधिकारी को जानता हूँ, उनका अध्ययन गहन और व्यापक है। उन्हें जब कुछ ब्लॉग आदि लिखने के लिये उकसाया तो बड़ा ही स्पष्ट उत्तर दिया। कहा, प्रवीण, जो भी जानने योग्य है, वह सब इन पुस्तकों में है, यदि कुछ लिखा जायेगा तो वह इसी ज्ञान के आधार पर ही लिखा जायेगा। हम तो इसी के आनन्द में डूबे रहते हैं।

वहीं दूसरी ओर हम हैं कि अपनी समझ को भाँति भाँति प्रकार से समझाने के प्रयास में लगे रहते हैं। जिस प्रकार समझते हैं, अधकचरा या अपरिपक्व, उसी प्रकार व्यक्त करने बैठ जाते हैं। दोष हमारा भी नहीं है, अभिव्यक्ति में व्यक्ति छिपा हुआ है, यह स्वभाव भी है। अभिव्यक्ति कभी कभी इतनी तरल और सरल हो जाती है कि मर्म तक उतर जाती है। मुझे बहुधा यह भी लगता है कि किसी विषय को व्यक्त करने के क्रम में वह हमारे मन में और भी स्पष्ट हो जाता है।

यह दोनों पक्ष इतने सशक्त हैं कि निर्दलीय बने रहना कठिन हो जाता है, पढ़ना आवश्यक है और पढ़ते पढ़ते लिखना भी। यह समस्या हमारी भी है और आपकी भी, उत्तर आप भी ढूढ़ रहे होंगे और हम भी। पर पढ़ते रहने के क्रम में अनुशासन का बाजा नहीं बजने देना है, कल उठना है समय से और पिता और पुत्र दोनों के ही साथ योग भी करना है और ध्यान भी, यह जानने के लिये कि पढ़ते पढ़ते लिखना कैसे सीखा जाये।

12.12.12

हृदय हमारा

निर्मलतम था हृदय हमारा,

निर्दयता का वृहद ताण्डव,
स्वार्थपरक  जीवन का मूल्यन ।
और घृणा के कई बाणों से,
छिला सदा ही हृदय हमारा ।।

लोलुपता का घृणित आवरण,
अहंकार की निर्मम चोटें ।
और वासना के दलदल में,
देखो सत्व लुटा बैठा है ।।

कोई हमको फिर लौटा दे,
निर्मलतम जो हृदय हमारा ।

8.12.12

मन है, तनिक ठहर लूँ

मन फिर है, जीवन के संग, कुछ गुपचुप बातें कर लूँ 
बैठ मिटाऊँ क्लेश, रहा जो शेष, सहजता भर लूँ ।।

देखो तो दिनभर, दिनकर संग दौड़ रही,
यश प्रचण्ड बन, छा जाने की होड़ रही,
स्वयं धधक, अनवरत ऊष्मा बिखरा कर,
प्रगति-प्रशस्था, प्रायोजन में जोड़ रही ।
अस्ताचल में सूर्य अस्त, अब निशा समान पसर लूँ ।
मन फिर है, जीवन के संग, कुछ गुपचुप बातें कर लूँ ।।१।।

निशा बताये, दीपक कितना जल पाया है,
स्मृतियों में डूब, निरन्तर अकुलाया है,
इस आँगन में एक जगह तो छूटी फिर भी,
दिया तले जो तम है, अपनी ही छाया है ।
वाह्य-प्रतिष्ठा पूर्ण, हृदयगत निष्ठा मधुरिम भर लूँ ।
मन फिर है, जीवन के संग, कुछ गुपचुप बातें कर लूँ ।।२।।

प्रश्न साधते मौन, नहीं प्रिय कोई उपस्थित,
प्रगति-दम्भ मद, मत्सरवश जन, सभी अपरिचित,
आपाधापी इस प्रयत्न की व्यर्थ दिख रही,
आश्रय, प्रेम-प्रणेतों का ही भूल गया हित,
प्रगति-नगर तज गाँव चलूँ, मैं अपनी ठाँव ठहर लूँ ।
मन फिर है, जीवन के संग, कुछ गुपचुप बातें कर लूँ ।।३।।

मद-नद-प्लावित, बच्चों की किलकारी भूला,
चकाचौंधवश, मैं आँगन की क्यारी भूला,
माँ का बेटा, कनक-पंथ पर बढ़ते बढ़ते,
माँ का आँचल, प्रिय की आँखें प्यारी भूला,
प्रगति-जनित सम्मोहन घातक, रहूँ सचेत, उबर लूँ ।
मन फिर है, जीवन के संग, कुछ गुपचुप बातें कर लूँ ।।४।।

मन-आँगन में एक पूरा संसार बसा है,
भाव, विचार, दिशाओं का विस्तार बसा है,
कठिन पंथ कर सहज दिखाती, मूर्त सृजनता,
साम्य, संतुलित एक भविष्य आकार बसा है ।
शान्ति कुटी में बैठ, हृदयगत पीड़ायें सब हर लूँ ।
मन फिर है, जीवन के संग, कुछ गुपचुप बातें कर लूँ ।।५।।

जितनी गहरी जड़ें, पेड़ भी उतना ऊँचा,
पोषित जिनपर, टिका हुआ अस्तित्व समूचा,
निश्चय ही मैं, कर्म क्षितिज पर पहुँच गया पर,
किस आँगन की महक, हवा ने रुककर पूँछा ।
घर, समाज की प्रेम-समाहित, सोंधी माटी भर लूँ ।
मन फिर है, जीवन के संग, कुछ गुपचुप बातें कर लूँ ।।६।।

स्पर्धा की दौड़, हृदय में स्वप्न समाया,
सार्थक करता आशाओं को, बढ़ता आया,
मिली चेतना, हर प्रकार से पालित, पोषित,
जिन गलियों में खेला, उनको क्या दे पाया ।
लाखों आँखें बाट जोहतीं, आओ तनिक ठहर लूँ ।
मन फिर है, जीवन के संग, कुछ गुपचुप बातें कर लूँ ।।७।।

5.12.12

संस्कृति बुलाती है

मानव अपनी जड़ों से जुड़ना चाहता है, उसे अच्छा लगता है कि वह अपने इतिहास को जाने, उसे अच्छा लगता है यह जानना कि अपने पूर्वजों की तुलना में उनका जीवन कैसे बीत रहा है। हो सकता है कि इतिहास का कोई प्रायोगिक उपयोग न हो, हो सकता है कि इतिहास केवल तथ्यात्मक हो और उससे भविष्य में कोई लाभ न मिले। जो भी हो हमें फिर भी उनके बारे में जानना अच्छा लगता है, रोचकता भी रहती है।

बड़ा स्वाभाविक भी है यह व्यवहार, हम सब कुछ ऐसा करना चाहते हैं कि हमारे न रहने पर भी हमारा नाम यहाँ बना रहे। यह चाह न केवल हमें कुछ विशिष्ट करने को उकसाती है, वरन अपनी गतिविधियों को लिपिबद्ध करने को प्रेरित करती है। हम अपने बारे में सूचनायें न केवल लिखित रूप में संरक्षित करते हैं, वरन भवनों, किलों, सिक्कों आदि के रूप में भी छोड़ जाते हैं। घटनायें होती हैं, उनके कारण होते हैं, कहानियाँ बनती हैं, उनके कई पक्ष उद्धाटित होते हैं। इन सबका सम्मिलित स्वरूप इतिहास का निर्माण करते हैं। विशिष्ट लोग या विशिष्ट घटनायें या विशिष्ट शिक्षा, बस यही शेष रह जाता है, अन्यथा सारे जनों की सारी घटनायें कौन लिखेगा और कौन पढ़ेगा?

जहाँ एक ओर इतिहास गढ़ने की स्वाभाविक इच्छा हमारे अन्दर है, वहीं दूसरी ओर इतिहास पढ़ने की भी इच्छा सतत बनी रहती है। इतिहास के माध्यम से हम उन स्वाभाविक समानताओं को ढूढ़ने का प्रयास करते हैं जो हमें अपने पूर्वजों से जोड़े रहती है। यही वो सूत्र हैं जो संस्कृति का निर्माण करते हैं। ये सूत्र आचार, विचार, प्रतीकों के रूप में हो सकते हैं। ये सूत्र जितने गाढ़े होते हैं हम अपने आधार से उतना ही जुड़ा पाते हैं, अपने जीवन को उतना ही सार्थक मानते हैं।

हम भारतीय बहुत भाग्यवान है कि हमारे पीछे संस्कृति के इतने विशाल आधार हैं, ज्ञात इतिहास की पचासों शताब्दियाँ हैं। इतिहास की सत्यता पर भले ही संशय के कितने ही बादल छाये हों पर फिर भी एक वृहद इतिहास उपस्थित तो है। देर सबेर संशय के बादल छट जायेंगे और हम सत्य स्पष्ट देख पायेंगे। तब तक विशाल संस्कृति की उपस्थिति ही हमारे लिये गर्व का विषय है।

प्राचीन इतिहास को समझने में अभी और समय लगेगा, अभी और प्रयास लगेंगे, पर यह एक स्थापित सत्य है कि अंग्रेजों ने भारतीयों पर अपना शासन अधिक समय तक बनाये रखने के लिये बहुत ही कुटिल नीति के अन्तर्गत कार्य किया। सामरिक श्रेष्ठता ही पर्याप्त नहीं होती है शासन के लिये, उसमें सदा ही विद्रोह की संभावना बनी रहती है। सांस्कृतिक श्रेष्ठता ही लम्बे शासन का आधार हो सकती है। अंग्रेजों ने यहाँ की जीवनशैली देखकर यह तो बहुत शीघ्र ही समझ लिया था कि स्वयं को सांस्कृतिक रूप से श्रेष्ठ सिद्ध कर पाना उनकी रचनात्मक क्षमताओं के बस की बात नहीं थी। तब केवल एक ही हल था, विध्वंसात्मक, वह भी शासित की संस्कृति के लिये।

फिर क्या था, शासित और शापित भारतीय समाज की संस्कृति पर चौतरफा प्रहार प्रारम्भ हो गये। इतिहास को हर ओर से कुतरा गया, राम और कृष्ण के चरित्रों को कपोल कल्पना बताना प्रारम्भ किया गया और वेद आदि ग्रन्थों को चरवाहों का गाना। अपने आक्रमण को सही ठहराने के लिये आर्यों के आक्रमण के सिद्धान्त को प्रतिपादित किया गया। आर्य और द्रविड के दो रूप दिखा भिन्नताओं को भारतीय समाज को छिन्न करने का आधार बनाये जाना लगा। जो भी कारक हो सकते थे फूट डालने के, भिन्नतायें उजागर करने के, सबको बढ़ा चढ़ा कर प्रस्तुत किया गया। पर्याप्त सफल भी रहे अंग्रेज, अपने अन्धभक्त तैयार करने में, अंग्रेजों के द्वारा रचित इतिहास हम भारतीय बहुत दिनों तक सच मानते भी रहे।

स्वतन्त्रता मिलने के पश्चात हम अपने उस अस्तित्व को स्वस्थ करने में व्यस्त हो गये जो अंग्रेजों की अधाधुंध लूट और फूट के कारण खोखला हो चुका था। संस्कृति के विषय पर बहुत अधिक मनन करने का अवसर ही नहीं मिला हमें। संस्कृति के बीज भले ही कुछ समय के लिये दबा दिये जायें पर उनके स्वयं पनप उठने की अपार शक्ति होती है। जिन सूत्रों ने पचासों शताब्दियों का इतिहास देखा हो, न जाने कितनी सभ्यताओं को अपने में समाहित होते देखा हो, वे स्वयं को सुस्थापित करने की क्षमता भी रखते हैं।

पिछले दो वर्षों से मुझे भारतीय बौद्धिकता इस दिशा में जाती हुयी दिखायी भी पड़ रही है। पाश्चात्य की चकाचौंध तो सबके जीवन में आती है, प्रभावित करती है पर बहुत अधिक दिनों तक टिक नहीं पाती है, अन्ततः व्यक्ति अपनी जड़ों की ओर लौट कर आता है। हिन्दी के बारे में तो ठीक से नहीं कह सकता हूँ पर पिछले दो वर्षों में न जाने कितनी ही अंग्रेजी पुस्तकें देख रहा हूँ, जो भारतीय लेखकों ने लिखी हैं और सब की सब अपनी जड़ों को खोजने का प्रयास करती हुयी। न केवल वे मौलिक शोध कर रहे हैं, वरन यथासंभव वैज्ञानिक विधियों का आधार भी ले रहे हैं।

मैं पुस्तकें देखने नियमित जाता हूँ, वहीं से मुझे बौद्धिकता की दिशा समझने में सरलता भी होती है, हर सप्ताह कौन सी नयी पुस्तकें आयी हैं, यह जानने की उत्सुकता बनी रहती है। चाहे अश्विन सांघी की 'चाणक्या चैंट' या 'कृष्णा की' हो, अमीष त्रिपाठी की 'इम्मोर्टल ऑफ मेलुहा' या 'सीक्रेट ऑफ नागाज़' हो, रजत पिल्लई की 'चन्द्रगुप्त' हो, नीलान्जन चौधरी की 'बाली एण्ड द ओसियन ऑफ मिल्क' हो, अशोक बन्कर की 'सन्स ऑफ सीता' हो, आनन्द नीलकण्ठन की 'असुरा' हो, स्टीफेन नैप की 'सीक्रेट टीचिंग ऑफ वेदा' हो, सारी की सारी पुस्तकें संस्कृति के किसी न किसी पक्ष को खोजती है।

ये सारी पुस्तकें पढ़ने की प्रक्रिया में हूँ, ये रोचक भी हैं और तथ्यात्मक भी। आप भी पढ़िये, तनिक ध्यान से सुनिये भी, संस्कृति बुलाती है।

1.12.12

कैसे कह दूँ, वापस खाली हाथ मैं आया

माँगा था सुख, दुख सहने की क्षमता पाया,
कैसे कह दूँ, वापस खाली हाथ मैं आया ।

पता नहीं कैसे, हमने रच दी है, सुख की परिभाषा,
पता नहीं कैसे, जगती है, संचित स्वप्नों की आशा,
पता नहीं जीवन के पथ की राह कहाँ, क्या आगत है,
पता नहीं किसका श्रम शापित, किन अपनों का स्वागत है,
सुख, संदोहन या भिक्षाटन या दोनों की सम्मिलित छाया। 
कैसे कह दूँ, वापस खाली हाथ मैं आया ।१।

मन की स्याह, अकेली रातें, घूम रहा मन एकाकी,
निपट अकेला जीवन उपक्रम, यद्यपि संग रहे साथी,
सुख के स्रोत सदा ही औरों पर आश्रित थे, जीवित थे,
सबके घट उतने खाली थे, कैसे हम अपने भरते,
सुख, आश्वासन अपने मन का या आश्रय का अर्थ समाया।
कैसे कह दूँ, वापस खाली हाथ मैं आया ।२।

सुख के हर एकल प्रयास में कुछ न कुछ तो पाया है,
विघ्न पार कर, सतत यत्न कर, मन का मान बढ़ाया है,
ना पाये आनन्द, नहीं मिल पाये जो सब चाह रहा,
श्यामवर्णयुत अपना ही है, जो अँधियारा स्याह रहा,
नहीं व्यर्थ कोई श्रम दिखता, जीवन का हर रंग लुभाया।
कैसे कह दूँ, वापस खाली हाथ मैं आया ।३।

गहरी चोट वहीं पर खायी, जो मन में गहराये थे,
पीड़ा उन तथ्यों में थी जो उत्सुकता बन छाये थे,
जिनकी आँखों में स्वप्न धरे, उनकी आँखें लख नीर बहा,
जिनके काँधों पर सर रखा, उनसे त्यक्ता, उपहास सहा,   
सागर की गहराई समझा, ज्यों ज्यों खारा नीर बहाया ।
कैसे कह दूँ, वापस खाली हाथ मैं आया ।४।

मेरे जैसे कितने ही जन, सुख की आशायें पाले,
अर्थ प्राप्ति ही सुख का उद्गम, साँचों में समुचित ढाले,
कितने जन इस अनगढ़ क्रम में, वर्षों से रहते आये,
कुछ समझे, कुछ समझ रहे हैं, अनुभव जो सहते आये,
दीनबन्धु की दुनिया, संग में, आज स्वयं को जुड़ते पाया ।
कैसे कह दूँ, वापस खाली हाथ मैं आया ।५।

सुख दुख की सर्दी गर्मी सह, जी लूँ मैं निर्द्वन्द्व रहूँ,
प्रतिपल उकसाती धारायें, क्यों विचलित, निश्चेष्ट बहूँ,
हर प्रयत्न का फल जीवन भर, नीरवता से पूर्ण रहे,
मन में शक्ति रहे बस इतनी, सतत प्राप्ति-उद्वेग सहे,
मा फलेषु का ज्ञान कार्मिक, अनुभव घट जाकर भर लाया।
कैसे कह दूँ, वापस खाली हाथ मैं आया ।६।

28.11.12

शिक्षा - एक वार्तालाप

यह तब प्रारम्भ हुआ जब दशहरा के तुरन्त बाद बच्चों को अपने गृहकार्य की याद आयी। बच्चे घबराये से कार्य करने बैठ गये। पिछली रात के आनन्दमयी उन्माद में डूबे बच्चों को सहसा इतने मनोयोग से काम करते देखना बड़ा रोचक लग रहा था। फोटो खींच कर उसे फ़ेसबुक में डाल दिया। जो प्रतिक्रियायें आयीं, उसमें सबसे आलोचनात्मक और हृदयस्पर्शी आलोक की थी। वार्तालाप शिक्षा के प्रति समाज के दृष्टिकोण का एक संक्षिप्त रूप है, हिन्दी में अनुवाद भाव संरक्षित रखते हुये किया गया है।(आलोक चित्रकार हैं, मोहित बड़ी कम्पनी में कार्यरत हैं, दीप्ति सियोल में शिक्षण में हैं और प्रवीण रेलवे की सरकारी नौकरी में)

आलोक - मुझे छुट्टी के समय पर बच्चों को गृहकार्य से लादने की बात समझ ही नहीं आती है। क्या विद्यालयों और शिक्षकों को ज्ञात भी है कि छुट्टियों का अर्थ और महत्व क्या होता है? यदि बच्चे छुट्टियों में इस तरह जूझते रहेंगे, तो वे कभी कार्य को उस अवस्था से अलग करके नहीं देख पायेंगे जिसमें वे इस तनाव वाली पढ़ाई से उन्मुक्त होकर प्रकृति देखें, मित्रों और सम्बन्धियों से मिलें और उन सब चीजों को जाने जो इतना गृहकार्य देने वाले विद्यालयों में नहीं पढ़ायी जाती हैं। यह चित्र मुझे बहुत पीड़ा दे रहा है, पुस्तक पर रखा पेपरवेट मानो उनकी उन्मुक्तता पर रखा एक बड़ा सा भार है। यह सब होते हुये भी वे सबकी अपेक्षाओं के प्रति समर्पित हैं।

प्रवीण - मैं पूरी तरह से समहत हूँ, क्या बच्चों को इस तरह तनाव में रखने की आवश्यकता थी? कल रात तक ये धमाचौकड़ी मचा रहे थे। इन्होंने कल रावण बनाया, उसे रंगा, उसमें पटाखे भरे और यह सब मोहल्ले के सब बच्चों के साथ किया। आज सुबह से ये बिल्कुल बदले दिख रहे हैं, इनकी छुट्टियाँ समाप्त होने से पहले ही समाप्त हो गयी हैं।

आलोक - प्रवीण, यह सच में दुख की बात है और मुझे क्रोधित भी करती है। कुछ दिन पहले एक डॉकूमेन्ट्ररी बनाने वाले युगल ने मुझसे पूछा था कि मेरे अनुसार क्रूरतम हिंसा क्या है? "एक बच्चे की बात न सुनना, उसके कुछ बोलने का आदर न करना, यही हिंसा का क्रूरतम स्वरूप है।" मैंने कहा। तब उन्होने मुझसे शिक्षातन्त्र के बारे में पूछा। मेरा उत्तर इस प्रकार था "मुझे यह सोचकर आश्चर्य होता है कि क्या होगा यदि सारे विद्यालय एक वर्ष के लिये बन्द कर दिये जायें। यदि विश्व तब भी यदि चलता रहता है तो हमें विद्यालयों की आवश्यकता ही नहीं है। तब अधिक उन्मुक्त और बुद्धिमान होंगे। बस अभी और आज ही बन्द कर देते हैं सारे विद्यालय, स्थिति भयावह है।"

प्रवीण - सच है, इस शिक्षातन्त्र को नहीं ज्ञात है कि वे कितने स्टीव जाब्स, बिल गेट्स, रामानुजम और आइन्स्टीन का गला बचपन में ही घोंट दे रहे हैं।

दीप्ति - यह चर्चा बहुत अच्छी है पर मैं तनिक अलग सोचती हूँ। कल्पना करें कि यदि आप दोनों ने पढ़ाई नहीं की होती तो आज क्या कर रहे होते? मुझे तो कुछ भी सम्मानजनक व्यवसाय नहीं दिखता है, सिवाय व्यापार के। और व्यापार में भी यदि आप अम्बानी नहीं हैं तो आपको कोई नहीं पूछता है। निश्चय ही हमारे समय में परवरिश के आयाम बदल रहे हैं पर मुझे फिर भी संशय है कि ऐसी परिस्थितियों में भी हम अपने माता पिता से भिन्न कोई निर्णय लेते।

प्रवीण - दीप्ति, यह एक वृहद विषय है और आलोक के कथन को एक बड़े परिप्रेक्ष्य में लेना होगा। बच्चों के लिये सीखना किसी ने मना नहीं किया, श्रेष्ठता प्राप्त करना भी मना नहीं है। सर्वाधिक चिन्ता का विषय है वह पद्धति जिसके माध्यम से शिक्षा दी जाती है। यह प्राकृतिक विकास और सीखना बाधित करती है।

मोहित - मेरा अनुभव दोनों तरह का रहा है, पश्चिमी भी और भारतीय भी। कक्षा ५ तक कान्वेन्ट में पढ़ा हूँ। जिस कक्षा में पढ़ते थे, एक सप्ताह में वहाँ उतने ही घंटों का गृहकार्य दिया जाता था। जैसे कक्षा ४ में केवल ४ घंटा। सप्ताह में ५ दिन पढ़ाई, अर्थात दिन में ४८ मिनट। सप्ताहान्त में कोई गृहकार्य नहीं। ६ से १२ तक स्थानीय विद्यालय में पढ़ा, अंक और स्थान आ जाने से प्रतियोगिता बढ़ गयी, अधिक पढ़ना पड़ा। अब लग रहा है कि प्रतियोगिता प्राइमरी में भी पहुँच गयी है, जिसने बच्चों के ऊपर बोझ बढ़ा दिया है। फिर भी विश्व फलक पर विश्वास से कह सकता हूँ कि हमारे विद्यार्थी कहीं अच्छे हैं।

आलोक - मोहित, तुम्हारे अवलोकनों से मैं पूर्णतया सहमत हूँ। हमें संतुलन बनाना होता है। हम इतनी तेजी से बदल रहे हैं, हमारे बच्चे न जाने कितने स्रोतों से जान रहे हैं, हमसे अच्छा जान रहे हैं। तो क्या हम उस अनुसार पढ़ाने की अपनी पद्धतियाँ बदल रहे हैं या तीन दशक पुराना पाठ्यक्रम पढ़ाकर उसमें ही जूझने को कहते रहते हैं। मुझे पढ़ाने का जितना भी अनुभव मिला, मैनें अभिभावकों से पूछा कि वे किसका स्वप्न जी रहे हैं? बच्चों से भी यही प्रश्न पूछा, पर उत्तर में सदा ही निराशा हाथ लगी। विडम्बना ही है कि जो बच्चे अपना स्वप्न जीना चाहते हैं तो सब उन्हें विद्रोही और नालायक कहने लगते हैं। उससे भी बड़ी बिडम्बना पर यह है कि जब वही बच्चे अच्छा कर स्वयं को स्थापित करते हैं तो सारा श्रेय वही माता पिता ले लेते हैं। यही हमारे जीवनचरित्र को उजागर करता है। बदलाव के साथ बदलते रहना सबको आता भी नहीं है। हो सकता है कि मैं कुछ अधिक कह गया हूँ, पर यह भावावेश व्यक्त करना आवश्यक था।

प्रवीण - हमारे शिक्षातन्त्र में बहुत कुछ करने की आवश्यकता है। मोहित को दोनों पद्धतियों का श्रेष्ठ मिला है, मैं कई उदाहरण जानता हूँ जिनको दोनों पद्धतियों के दोष ही मिले। शिक्षा एक हवाई जहाज की उड़ान जैसी हो, पर्याप्त ईंधन भी रहे ऊँचाई पर जाने के लिये और कोई अतिरिक्त भार भी न रहे ढोने के लिये, उन्मुक्त उड़ाने हों।

यहाँ वार्तालाप भले ही विश्राम पा गया हो पर विचार आयाम में आ गये, प्रवाह बहने लगा। स्वाभाविक भी है, कई प्रवाह मिलेंगे तो कुछ सार्थक धार आयेगी, नदी बनेगी, आने वाली पीढ़ियों रूपी खेतों को लहलहायेगी।

24.11.12

शिक्षा - रिक्त आकाश

आलोक का कहना है कि यदि एक वर्ष के लिये शिक्षा व्यवस्था को विराम दे दिया जाये, सारे विद्यालय बन्द कर दिये जायें तो विश्व के स्वास्थ्य पर कोई अन्तर पड़ने वाला नहीं है, यह भी संभव है कि कुछ उत्साहपूर्ण निष्कर्ष सामने आ जायें। आलोक चित्रकार हैं और सृजन और मुक्ति के मार्ग के उपासक हैं, उनके लिये बच्चों पर कुछ भी थोपना उनके सम्मान और अधिकार पर कैंची चलाने जैसा है। एक सीमा तक मैं भी उनसे सहमत हूँ, अर्थतन्त्र से प्रभावित शिक्षातन्त्र की बाध्यतायें हमारी राह सीमित कर देती हैं, लगता है कि हम हाँके जा रहे हैं, हम उस राह जाना चाहें, न चाहें। यदि किसी बच्चे को अपनी प्रतिभानुसार व्यवसाय या कार्य चुनने और उसके माध्यम से सम्मानित जीवन जीने के अवसर ही न हों तो कहानी वहीं समाप्त हो जाती है। इस अवस्था को परिभाषित करने के लिये बाजार प्रभावित जीवकों को कोई सम्मानपूर्ण शब्द भले ही मिल जाये, पर ठेठ भाषा में उसे हाँकना ही कहा जायेगा।

शिक्षा पद्धति पर आलोक के चरम विचारों का कारण वर्तमान शिक्षा में विद्यमान वे तत्व हैं जो सृजनात्मकता को कुंठित करते हैं और बच्चों को अर्थव्यवस्था में प्रयुक्त ईंधन के रूप में झोंक देने के लिये तत्पर बैठे हैं। निश्चय ही यह व्याप्त निराशा का बड़ा कारण है, पर मेरे लिये और भी कारण हैं जिन पर विशेषकर हमारे देश को ध्यान देने की महत आवश्यकता है। चलिये शिक्षा के तीनों उद्देश्यों की दशा देख लें अपने देश में।

पहले उद्देश्य को ही लें, प्रकृति के रहस्यों को समझना और नये तन्त्रों का सृजन। भारतीयों की गिनती विश्व के सर्वश्रेष्ठ मस्तिष्कों में होती है, अनुसंधान और शोध का एक सुदृढ़ तन्त्र भर स्थापित करना था, प्रतिभा पलायन रुक जाता। जहाँ पर प्रतिभाओं को समुचित सामाजिक और आर्थिक सम्मान नहीं मिलता है, उन्हें रोकना कठिन हो जाता है। यद्यपि कई क्षेत्रों में हमें लाभ मिल रहा है पर तकनीक के वे अग्रतम क्षेत्र जो अर्थतन्त्र को प्रभावित कर रहे हैं, वहाँ हम एक देश के रूप में शून्य हैं। हमने प्रतिभायें तो दे दीं, उनके योग्य वातावरण न बना पाये देश में।

दूसरे उद्देश्य को देखें, स्थापित तन्त्रों को साधना। स्थापित तन्त्रों की बात करें तो स्थिति और भी भयावह है। विकास के आधारभूत अवयव हम तैयार ही नहीं कर पाये, जो तन्त्र हमें साधने थे, उन्हें कैसे क्रियान्वित किया जाये, यह जानने के लिये हम प्रथम अवसर पाते ही विदेशयात्रा कर आते हैं, उनके प्रयोगों की अधकचरी नकल उतारने के लिये। सड़क, बिजली, संचार, न जाने कितने ही क्षेत्र हैं जो, न तो देश के हर भाग में स्थापित कर पाये हैं और न ही समग्र रूप से स्थापित करने की योजना ही है। विकास के मानक बस कुछ गिने चुने नगरों में स्थापित कर हम विजयोत्सव मनाने बैठ गये। शिक्षित जन और शिक्षा की दिशा, उजाड़ हुये शेष देश को क्यों नहीं सुखद स्वरूप दे पा रहे हैं?

तीसरा उद्देश्य है स्वयं को समझना और समाज में सहजीवन और आनन्द को प्रेरित करना। पहले जब शिक्षित लोग कहीं पहुँचते थे तो लगता था कि अब व्यवस्था भी आ जायेगी, बातें समझदारी की होंगी और समस्या को कोई न कोई समाधान मिल जायेगा। पढ़े लिखे का तात्पर्य होता था कि जो सबको साथ लेकर चले, जो सबके अन्दर स्थापित अन्तरों को स्वीकार कर उनमें अन्तर्निहित की समानता को साथ ला सके। जो भी कारण रहा हो, जो भी बाध्यतायें रही हों, शिक्षित का वह स्वरूप नहीं दिखता है। शिक्षित वर्तमान में उस आर्थिक आत्मनिर्भरता का पर्याय बन गया है जिसे समाज में किसी से कोई संवाद स्थापित करने का मन नहीं है, थोड़े ठेठ शब्दों में कहा जाये तो स्वार्थपरक भविष्य का एक माध्यम बन गयी है शिक्षा। यदि यह प्रभाव पड़ रहा है शिक्षा का समाज पर तो शिक्षा निश्चय ही अपनी राह से भटकी है।

अध्यात्म की अपेक्षा करना, कुछ अधिक ही हो जायेगा शिक्षातन्त्र के लिये। निरपेक्ष घोषित हो चुके देश में सांस्कृतिक शिक्षा भी भिन्न भिन्न रंगों में रंगी हैं और पाठ्यक्रम का अंग नहीं है। फिर भी एक ऐसी शिक्षा की आशा करना जिससे समाज सधे और व्यक्ति प्रसन्न रहना सीखे, एक शिक्षातन्त्र के लिये प्रारम्भिक पग है। जब वह भी न मिले और समाज विघटन की ओर अग्रसर हो तो शिक्षातन्त्र पर प्रश्न उठना स्वाभाविक ही है।

मैं यह नहीं कहता कि समाज के सब दोषों के लिये शिक्षातन्त्र ही दोषी है, बहुत कारक हैं, समाज की गतिमयता में आये विकार का ठीकरा शिक्षा पर ही नहीं फोड़ा जा सकता है। जो भी कारण हो, जितने भी कारण हों, सबको शिक्षा के माध्यम से सुधारा अवश्य जा सकता है। इसलिये वर्तमान में यदि स्तर गिरता जा रहा है तो इसका तात्पर्य यह अवश्य है कि कम से कम शिक्षा से सुधार के स्वर नहीं उठ रहे हैं। यह एक निर्विवाद तथ्य है कि कोई भी तन्त्र यदि अपने आप पर छोड़ दिया जाये तो उसमें विकार आने लगते हैं, यही मनुष्यों में भी लागू होती है, यह बस ज्ञान का अंश है जो उसे साधे रहता है। ज्ञान ही वह एकल सूत्र है जो तन्त्रों का क्षय रोकता है।

समाज में भी आत्मसंशोधन के गुण होते हैं, जब कोई विकार समाज में प्रवेश पाता है, कहीं दूसरी और एक संशोधनात्मक प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है जो अन्ततः उस विकार को ठीक करती है। कभी कभी समाज का सम्मिलित ज्ञान उस विकार को समझ लेता है, कभी उसे स्पष्ट रूप से समझाने के लिये किसी समाज सुधारक या महापुरुष को जन्म लेना पड़ता है। शिक्षित समाजों में यह संशोधन स्वतः होता रहता है। समाज को साधने और पुनः उसे निर्मल रुप में लाने के लिये शिक्षा सदा ही एक आधारभूत उपहार रहा है मानवता के लिये।

कहीं कुछ गहरा रिक्त स्थान है जो भरा जाना शेष है, समझा जाना शेष है। आलोक का प्रस्ताव मुझे मेरे उस डॉक्टर की याद दिलाता है, जिन्होने एक एलर्जी का कारण पता लगाने के लिये न जाने कितने प्रकार के खाने पर रोक लगा दी थी। मेरे प्रकरण में एलर्जी पता चल गयी थी, निदान भी हो गया था। शिक्षा में क्या यह संभव है?

21.11.12

शिक्षा - अर्थ व समाज

औपचारिक व अनौपचारिक शिक्षा का स्वरूप तथा शिक्षा के उद्देश्यों की समझ ही पर्याप्त न होगी यदि हम उसे आधुनिक अर्थतन्त्र और समाज की गतिमयता से न जोड़ें। जो भी संपर्कसूत्र हैं और जिन सिद्धांतों पर शिक्षा, अर्थ और समाज संवाद स्थापित किये हुये हैं, उन पर गहनता से विचार की आवश्यकता है। यदि इन बिन्दुओं का समुचित विश्लेषण किया जा सके तो उन परस्पर प्रभावों को उभारा जा सकता है जो वांछित हैं और उन पर नियन्त्रण गाँठा जा सकता है जो सबके लिये हानिप्रद हैं। विश्लेषण हेतु विषय केवल औपचारिक शिक्षा तक ही सीमित रखा जायेगा।

शिक्षा के तीन उद्देश्य मात्र बौद्धिक कल्पनाशीलता में नहीं जी सकते हैं। उन्हें भौतिक धरातल में लाने के लिये एक तन्त्र स्थापित करना होता है, साधन आवश्यक हैं, समाज को प्रतिभागिता भी आवश्यक है, जिनको लाभ मिल रहा है और जो लाभ पहुँचा रहे हैं, दोनों के लिये। शिक्षा से समाज की अपनी अपेक्षायें हैं, विद्यार्थियों के अपने सपने हैं, शिक्षातन्त्र कहाँ तक इन दोनों को साथ साथ निभा पा रहा है, अर्थतन्त्र का स्वरूप किस तरह इस पूरी रचना को अस्थिर कर रहा है, ये सब बड़े ही रोचक बिन्दु हैं, इन सबको पृथकता से और भलीभाँति समझ कर ही शिक्षा पर कुछ साधिकार कहा जा सकता है।

भले ही विश्व के समस्त तन्त्रों को रचने और चलाने में शिक्षा का सहयोग रहता है, पर शिक्षा के लिये स्थापित तन्त्र में भी तीन प्रमुख विमायें हैं। शिक्षार्थी, शिक्षक और शिक्षा-सामग्री। शिक्षक के लिये शिक्षण एक व्यवसाय है, उसे अपना घर चलाना है, साथ ही साथ उनके ऊपर बच्चों के भविष्य का महत उत्तरदायित्व है। यदि गुणवत्ता न साधी जायेगी तो पूरी की पूरी पीढी हाथ से निकल जाने का भय है। गुणवत्ता साधने के लिये योग्य और कुशल शिक्षकों को लाना होगा, एक विषय जो सीधे सीधे समाज के आर्थिक पक्ष से जुड़ा है।

बच्चे के लिये भविष्य में धन कमाने के अतिरिक्त स्वयं को स्थापित करने की चाह अधिक महत्वपूर्ण है, उसके स्वप्न और अभिरुचि के अनुसार चल सकने की चाह, समाज को सार्थक योगदान दे सकने की चाह। शिक्षा सामग्री जहाँ एक ओर समाज की दिशा निर्धारित करती है वहीं दूसरी ओर शेष विश्व तन्त्रों को भी पोषित करने में सहायक है।

अब अर्थतन्त्र के दृष्टिकोण से देखा जाये तो पूरा विश्व माँग और आपूर्ति के चक्र पर चलता है। जिसकी माँग अधिक उसका मूल्य अधिक, जिसका मूल्य अधिक उस ओर सबका झुकाव अधिक, अधिक झुकाव अधिक आपूर्ति लाता है, अधिक आपूर्ति मूल्य कम कर देती है, तब झुकाव भी कम हो जाता है, तब आपूर्ति कम हो जाती है और माँग बढ़ जाती है। यही चक्र चलता रहता है, अर्थतन्त्र घूमता रहता है। किसी भी व्यवसाय के दो पक्ष शिक्षा से पोषित होते हैं, एक है तकनीक, दूसरे हैं प्रशिक्षित कर्मचारी। जिसकी माँग अधिक होती है, उससे सम्बन्धित तकनीक में अनुसंधान और उसमें शिक्षित युवा, दोनों ही उफान पर पहुँच जाते हैं। उस क्षेत्र में अधिक अवसर और धन, और उसके प्रति समाज का रुझान।जिन क्षेत्रों से माँग नहीं आती है पर संभावनाओं से भरे हुये है, उन क्षेत्रों का कोई नामलेवा भी नहीं है।

शिक्षक क्या गुणवत्ता दे पा रहे हैं, बच्चों की क्या आकाक्षायें हैं, समाज क्या चाहता है और अर्थतन्त्र के वाहक हमें कहाँ लिये जा रहे हैं, इन चारों पाटों में हमारी शिक्षा व्यवस्था पिसी हुयी है। इन चारों की खिचड़ी हमारी शिक्षा सामग्री में दिखायी पड़ती है, कम या अधिक। जब भी बाजार की अर्थव्यवस्था अपना आधिपत्य जमाने लगती है, शिक्षाव्यवस्था धन उत्पन्न करने वाली मशीन का बड़ा अंग बन कर रह जाती है, उसमें पिसते शिक्षार्थी और हताश होते अभिभावक भी उसकी धुरी में घूमने लगते हैं। जब वह क्षेत्र सहसा झटक जाता है, जब उसमें अवसर सिकुड़ जाते है, संसाधन अतिरिक्त हो जाते हैं, तब सब के सब नैराश्य में डुबकी लगाने लगते हैं।

शिक्षातन्त्र की अर्थतन्त्र पर इतनी निर्भरता उचित नहीं है। इसके तीन पक्ष बहुत ही घातक हैं। पहला तो अर्थतन्त्र केवल तकनीकी शिक्षा को सहारा देगा क्योंकि तकनीक अर्थतन्त्र को सहारा देती है। थोड़ी बहुत दिशा प्रबन्धन व वित्तीय शिक्षा को भी मिल जायेगी, पर ये तो उच्च शिक्षा के क्षेत्र हैं, प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा को कौन सहारा देगा तब? दूसरा घातक पक्ष यह होगा कि जब धन लगेगा तो वह फीस के रुप में वसूला भी जायेगा, सक्षम शिक्षा प्राप्त कर लेंगे और निर्धन अक्षम अशिक्षित रह जायेंगे। धन केवल धन को पोषित करेगा, जन को नहीं। तीसरा घातक पक्ष होगा, उन विषयों को लुप्त होना जिनमें किसी भी व्यवसाय में लाभ देने की क्षमता नहीं है, इतिहास, साहित्य आदि जैसे कितने ही विषय अपना अस्तित्व खो बैठेंगे तब।

शिक्षातन्त्र की अर्थतन्त्र पर निर्भरता शून्य भी नहीं की जा सकती है, यदि यह हुआ तो सब कल्पनाशीलता में खो जायेंगे, कर्मशीलता अपवाद हो जायेगी समाज में तब। सम्पर्कसूत्र बनाये रखना आवश्यक है जिससे शिक्षा न केवल अपने उद्देश्यों में सफल होती रहे, वरन शिक्षकों और शिक्षार्थियों के पास पर्याप्त आर्थिक कारण रहें किसी विषय को चुनने के लिये। बाजार आधारित अर्थव्यवस्था का कुप्रभाव कम हो जाता है जब अर्थव्यवस्था का विस्तार बढ़ता है। तब एक क्षेत्र में आयी उठापटक अर्थव्यवस्था, समाज और शिक्षा को अधिक प्रभावित नहीं करती है। शिक्षा का कोई क्षेत्र, कोई भी अभिरुचि ऐसी न रह जाये जिसमें जीवन यापन की संभावना कम हो।

एक बात तो तय है कि सब कुछ बाजार की अर्थव्यवस्था के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता है। शिक्षाव्यवस्था के त्यक्त पक्षों में शक्ति लाने का कार्य सरकार का है। सुदृढ़ और सार्वभौमिक आधारभूत शैक्षणिक सुविधायें, सबको शिक्षा, निशुल्क शिक्षा, योग्य और कर्मठ शिक्षकों का चयन, शिक्षकों को यथानुरूप अच्छा वेतन, अर्थव्यवस्था का शिक्षा के अन्य अंगों में विस्तार, ये सब कार्य ऐसे हैं जो शिक्षा को सशक्त करने में सक्षम हैं। ऊर्जा व्यर्थ न हो, व्यक्ति समर्थ हों, यही तो अर्थ है अच्छे शिक्षातन्त्र का। क्या छूट गया तब और कौन सा आकाश रिक्त रह गया, यह मननीय बिन्दु अगली पोस्ट में।

17.11.12

शिक्षा - क्या और क्यों ?

शिक्षा का नाम सुनते ही उससे संबद्ध न जाने कितने आकार आँखों के सामने घुमड़ने लगते हैं। कुछ को तो लगता होगा कि बिना शिक्षा सब निरर्थक है, कुछ को लगता होगा कि बिना लिखे पढ़े भी जीवन जिया जा सकता है। एक व्यक्ति बिना शिक्षा के भी समाज में बहुत सहज और उपयोगी बनकर रह लेता है, वहीं दूसरी ओर एक शिक्षित व्यक्ति भी अपने कृत्यों से सामाजिक चरित्र को नकारता सा लगता है। एक अजब सा द्वन्द्व है, प्रकृति का मौलिक गुण है यह द्वन्द्व, शिक्षा में भी दिखायी पड़ेगा। जब भी द्वन्द्व गहराता है, उत्तर या तो मूल में मिलता है या निष्कर्षों में। निष्कर्ष भविष्य की विषयवस्तु है और बहुधा ज्ञात नहीं होती है, पर मूल खोजा जा सकता है, मूल से विश्लेषण किया जा सकता है।

हमें प्राप्त ज्ञान के दो स्रोत हैं, पहला अनौपचारिक शिक्षा, दूसरा औपचारिक शिक्षा। अनौपचारिक शिक्षा हमें घर, समाज, मित्रों आदि से मिलती है और इसके लिये विद्यालय जाने की आवश्यकता नहीं है। दादी, नानी की कहानियों में, बड़ों के संवाद में, संस्कृति के अनुकरण में, त्योहारों में, संस्कारों में, मित्रों के साथ, भ्रमण के समय, यात्राओं में, न जाने कितना कुछ सीखते हैं हम सब। हिसाब लगाने बैठे तो लगेगा कि जितना भी ज्ञान हमारे पास है, वह अनौपचारिक शिक्षा की ही देन है। जहाँ के सामाजिक ढाँचे में प्रश्न पूछने को मर्यादा का उल्लंघन नहीं माना जाता है, जहाँ ज्ञान के लिये उन्मुक्त परिवेश है, वहाँ पर सामान्य व्यक्ति के लिये अनौपचारिक ज्ञान का प्रतिशत ९० से भी अधिक होता है। कपड़े पहनना, बाल काढ़ना, फीते बाँधना, चाय बना लेना आदि न जाने कितने ऐसे कार्य हैं जो हम विद्यालय जाकर नहीं सीखते हैं, देखते हैं और सीखते हैं। भाषा का प्राथमिक ज्ञान अनौपचारिक ही होता है, बच्चा देखता रहता है, सीखता रहता है।

जनसंख्या का बड़ा वर्ग ऐसा है जो कि कभी विद्यालय गया ही नहीं। यही अनौपचारिक शिक्षा है जिसके बल पर वह अपना जीवन ससम्मान व्यतीत कर रहा है। हम उन्हें अशिक्षित मानते हैं, पर वे अपना भला बुरा हमसे बेहतर समझते हैं, कहीं बेहतर, निश्चय ही इसी अनौपचारिक शिक्षा का प्रताप है। आज भी गाँव जाना होता है तो वहाँ के बुजुर्ग जिन्होने अपने पूर्वजों से रामचरितमानस सुनी थी, इतना सटीक दोहा उद्धृत कर बैठते हैं जो परिस्थितियों पर शत प्रतिशत सही बैठता है। एक परम्परा है गीता और रामचरितमानस के पाठ की, अनौपचारिक शिक्षा के वाहक हैं ये ग्रन्थ, सदियों से ज्ञान का प्रकाशपुंज वहाँ भी फैलाये हुये हैं, जहाँ पर शिक्षातन्त्र पूर्णतया ध्वस्त है।

औपचारिक शिक्षा फिर भी आवश्यक है। आज जो संस्कृति में सहज प्राप्त है, वह कभी न कभी तो औपचारिक शिक्षा का एक भाग रहा होगा। अनौपचारिक शिक्षा श्रुति के आधार पर चलती है, उसे यदि औपचारिक शिक्षा का सहयोग नहीं मिलेगा तो कालान्तर में वह विकृत होने लगेगी। न जाने कितने ऐसे चिकित्सीय उपाय हैं जो कार्य तो करते हैं पर उनका कारण लुप्त सा हो गया है, औपचारिक शिक्षा के अभाव में।

यदि सुचारु रूप से किसी भी विषय का अध्ययन नहीं किया जायेगा तो उसमें सन्निहित रहस्य खोजे जाने से रहे। विकास का प्रथम चरण है, रहस्यों को समझना। तत्पश्चात उसे ज्ञान के रूप में सहेज कर रखना औपचारिक शिक्षा का कार्य है। क्रमिक विकास के लिये अवलोकनों और निष्कर्षों को लिपिबद्ध करना आवश्यक है, इससे पढने में भी सरलता होती है और उस पर और कार्य करने में भी। किसी भी विषय का विधिवत ज्ञान देने के लिये विद्यालय आवश्यक हैं। कहने को तो मात्र १० प्रतिशत ही ज्ञान शेष रहता है पर इसमें विकास और भविष्य के वो तार जुड़े होते हैं जिन्हें नकारना भविष्य को नकारने जैसा है। औपचारिक शिक्षा भले ही मात्रा में अधिक न हो पर जीवन की गुणवत्ता साधने के लिये अनमोल है। सिद्धान्त समझ में आते ही घटनाओं का समझना और समझाना सरल हो जाता है, कारण और प्रभाव स्पष्ट से दिखने लगते हैं तब।

किसी भी समाज में औपचारिक और अनौपचारिक शिक्षा अलग राह नहीं चलती हैं। औपचारिक शिक्षा में शिक्षित परिवार के बच्चे कितनी ही चीजें अनौपचारिक रूप से सीख जाते हैं, पता ही नहीं चलता है, हर पीढ़ी ज्ञान का सामान्य स्तर बढ़ता रहता है। जिन परिवारों में कोई एक व्यवसाय कई पीढ़ियों से किया जा रहा है, उससे संबद्ध ज्ञान परिवार में इतनी प्रचुर मात्रा में आ जाता है कि उनके सामने औपचारिक शिक्षा में शिक्षित संस्थान भी कान्तिहीन रहते हैं। व्यापारी का पुत्र व्यापारी, राजनेता का पुत्र राजनेता, किसान का पुत्र किसान, यदि कोई अपना पैतृक व्यवसाय अपनाना चाहे तो उसे न जाने कितना ज्ञान अनौपचारिक रूप से मिल जाता है। पढ़ा लिखा समाज बनाने के लिये सदियों का सतत श्रम लगता है।

इस परिप्रेक्ष्य में शिक्षा के उद्देश्यों को शिक्षा के स्वरूप से जोड़कर सही तालमेल बिठा लेना ही अच्छे शिक्षातन्त्र का कार्य है। पद्धतियाँ भिन्न दिशाओं में न भागें, कुछ वर्षों में व्यर्थ न हो जायें, कुछ ऐसा न करें जिसकी आवश्यकता ही न हो और कुछ महत्वपूर्ण छूट भी न जाये। तो एक अच्छे शिक्षातन्त्र का सही आकलन करने के लिये, उन उद्देश्यों को भी समझना होगा, जिनके लिये शिक्षा आवश्यक है।

मुझे तो शिक्षा के बस तीन प्रमुख उद्देश्य समझ आते हैं। पहला तो प्रकृति के रहस्यों को समझना, उसके सिद्धान्तों का विश्लेषण करना और उस पर आधारित विज्ञान के माध्यम से जीवन को और अधिक सुख-सुविधायें प्रदान करना। इस वर्ग में शोध आदि प्रमुख हैं और सदा से होते भी आये हैं। विज्ञान के अविष्कार बहुधा चमत्कृत करने वाले होते हैं, हमारी कल्पनाशक्ति इस उद्देश्य के लिये राह निर्माण करती है, ऐसी राह जिसमें विश्व के प्रखरतम मस्तिष्क चलते हैं, ऐसी राह जो मानवता के लिये बहुत अधिक उपयोगी रही है, ऐसी राह जिससे लगभग सभी लोग लाभान्वित और प्रभावित होते हैं। पर इस राह में अग्रणी चलने वालों की संख्या बहुत कम होती है, लाखों में एक, ये लोग नये तन्त्र रचते हैं।

दूसरा उद्देश्य है विश्व के तन्त्र को साधे रहना। मानव को सहजीवन में बड़ा रस आया है, समाज का स्वरूप भिन्न भिन्न हो सकता है पर हर समाज में सहजीवन ही प्रधान है। प्रकृति ने भी यथासंभव सहयोग किया है, इस मानवीय प्रयास में। जीवन के लिये अन्न, जल आदि, उनका उत्पादन, रखरखाव व वितरण। वस्तुओं का व्यापार, नगरों का निर्माण, संचार के साधन, और जो कुछ भी आवश्यक है साथ रहने के लिये, सुख के साथ। तन्त्र को साधना सरल कार्य नहीं हैं, तकनीक और विशेष ज्ञान की आवश्यकता होती है इसमें, उसके लिये समुचित शिक्षा की। कालान्तर में नयी तकनीक और नये प्रयोगों से तन्त्र परिवर्धित और परिमार्जित होता है, जीवन चलता रहता है। इस वर्ग में कर्मठ व्यक्तित्वों की आवश्यकता होती है। इसमें ही सर्वाधिक लोग लगते हैं। संसाधनों और आय का वितरण किस प्रकार हो, किस व्यवसाय को कितनी प्राथमिकता मिले, यह बहस का विषय हो सकता है। इसमें शिक्षा का स्तर विशेष होता है और ये लोग तन्त्र साधते हैं।

तीसरा उद्देश्य है स्वयं को समझना। स्वयं को समझना सहजीवन के उन पहलुओं को समझने की प्रक्रिया है जो समाज के रूप में सबको जानना आवश्यक है। क्या हमें सुख देता है, क्या हमें दुख, कौन सा सुख शाश्वत है, कौन सा क्षणिक, ऐसे बहुत से प्रश्न हैं, जिसके लिये हमें स्वयं को जानना आवश्यक हो जाता है। आत्म का आकार समझने वाले तो यहाँ तक कहते हैं कि यदि स्वयं को जान लिया तो कुछ जानना शेष नहीं रहता है। साहित्य, संगीत, कला आदि ऐसे क्षेत्र हैं जो मानव को सुख देते हैं, इनका सृजन सुख देता है। इस वर्ग में सब लोग ही आते हैं, बिना इस शिक्षा के शान्ति और समृद्धि संभव नहीं है।

क्या अपेक्षित था, क्या हो रहा है? शिक्षा का स्वरूप और उद्देश्य क्या एक दूसरे को समझ पा रहे हैं? अर्थतन्त्र और शिक्षातन्त्र किस दिशा भाग रहे हैं, एक दूसरे साथ दे पा रहे हैं या नहीं, बहुत समझना शेष है, अगली पोस्ट में।

14.11.12

शिक्षा - आधारभूत निर्णय

भारतीय मानसिकता में शिक्षा सदा ही महत्व का विषय रही है। माता पिता अब भी अपने बच्चों की शिक्षा में किया हुआ निवेश सर्वोत्तम निवेश मानते हैं। कम इच्छाओं में जी लेंगे, भूखे सो लेंगे पर बच्चों को पढ़ायेगे। शिक्षा सर्वोपरि है और सबको लगता भी है कि योग्य होगा तो कुछ न कुछ बन ही जायेगा। निश्चय ही पढ़ाई में अच्छे निकलने वाले कुछ न कुछ बन ही जाते हैं, जो कुछ बन नहीं पाते हैं उनके लिये तो सारी शिक्षापद्धति श्रमसाध्य कार्य सी ही बीतती है।

कितना ही अच्छा होता कि जो भी किसी स्तर तक पढ़ पाता उसे उस स्तर के अनुरूप समुचित व्यवसाय मिल जाता। कितना अच्छा होता कि शिक्षा में पाये अंक आपकी भविष्य की रूपरेखा नियत कर देते। शिक्षा योग्यता का एक मानकीकरण कर देती। शिक्षा एक अलग कार्य है, प्रतियोगिता एक अलग कार्य हैं और धनार्जन और जीवन यापन एक और नितान्त अलग कार्य। इन सबमें उतनी ही सततता और समानता है जितनी किन्ही दो मनुष्यों में स्वभाववश हो सकती है।

जीवन एक मिलता है, उसे कई भागों में पृथक कर जीने में उसकी सततता और आनन्द बाधित होता है। एक भाग में अर्जित लाभ या हानि अगले भाग को जब बहुत अधिक प्रभावित नहीं करते हैं तो लगता है कि वर्तमान में अधिक श्रम क्यों करना, अगले भाग की तैयारी कर लें। वर्तमान को तज भविष्य को साध लेने की जुगत, जीवन बस इसी तैयारी में बीत जाता है। बचपन से ही प्रतियोगिता में आगे निकलने वाले घोड़े बनने तैयार होने लगते हैं, युवावस्था धनोपार्जन के लिये संघर्ष में निकल जाती है, प्रौढ़ावस्था बच्चों के लिये सुरक्षित भविष्य निर्माण करने में। अन्त आते आते बस एक प्रश्न ही मुख्य हो जाता है, क्या अच्छा जीवन जीने के लिये इतना सब पढ़ना, संघर्षों से इतना लड़ना और स्वयं को बैल सा इतने वर्षों तक रगड़ना आवश्यक था?

प्रश्न का उत्तर भिन्न हो सकता है, पर प्रश्न बिना पूछे ही जीवन निकल जाये, यह जीवन का अपमान है। न्यूनतम कितनी शिक्षा आवश्यक हैं, प्रतियोगिताओं में कितना संघर्ष उचित है, प्रतियोगिताओं के लिये किये ज्ञानार्जन का उपयोग जीवन यापन में और तन्त्र के लिये कितना हो रहा है, यह समझना भी आवश्यक है। जिन नौकरियों में कक्षा दस पास से भी अधिक की योग्यता आवश्यक न हो, उनके लिये नियत प्रतियोगिता परीक्षा में यदि परास्नातक कक्षाओं के प्रश्न योग्य प्रतिभागियों का निर्धारण करें तो यह शिक्षा व्यवस्था और प्रतियोगी परीक्षाओं पर बहुत बड़े प्रश्न उठाते हैं। साथ ही साथ हमको यह सोचने पर विवश करते हैं कि कोई भी शिक्षा और सामाजिक जीवन के संबंध और उपयोगिता को समझ भी पा रहा है?

जब मस्तिष्क पर अधिक जोर डालने की इच्छा नहीं होती है तो सब बाजार की अर्थव्यवस्था के मत्थे मढ़ दिया जाता है, जब निर्णयों में नियन्त्रण का साहस नहीं होता है तो बाजार के उत्पात को मौन रह स्वीकार कर लिया जाता है। समग्र दृष्टिकोण की अनुपस्थिति, जीवन के हर चरण को पृथकता से देखने की सुविधा, यही प्रश्न हैं जो मूल-शूल हैं। इनको बिना निकाले शिक्षा में कोई विकास संभव नहीं है। जीवन संघर्ष, अनुशासन और संकीर्ण कठिन राहों में चलने का पर्याय बन जायेगा, जीवन जीना क्या होता है, बस मृत्यु के कुछ दिन पहले ही समझ आ पायेगा।

शिक्षाविद इस प्रश्न को बड़े ही मर्यादित ढंग से उठाते हैं, मैं तनिक ठेठ शैली में पूछ लेता हूँ। जब घर से कहीं जाने के लिये निकलते हैं तो उसी के अनुसार मार्ग नियत करते हैं, ऐसा तो नहीं करते हैं कि किसी भी दिशा में निकल लें और आगे जाने के बाद जहाँ भी पहुँचे उसे अपना ध्येय-स्थान मानकर वहीं जीने लगें। हो सकता है कि पढ़ने में अटपटा लगे पर वर्तमान शिक्षा व्यवस्था कुछ यही स्वरूप ले चुकी है। सबको एक बड़े मैदान तक हाँक कर पहुँचा दिया जाता है, आगे लड़ लो, जो आगे निकल सके तो निकल ले, डार्विन को एक प्रयोगक्षेत्र बना कर दे दिया है, अपने न सिद्ध होने वाले सिद्धान्त सिद्ध करने के लिये।

यदि संघर्ष और शक्ति ही श्रेष्ठता के मानक होते तो अभी भी हम घोड़े की पीठ पर बैठ कर तलवारों से युद्धकर रहे होते। सहजीवन और विकास के प्रति हमारी स्वाभाविक ललक हमें डार्विन के सिद्धान्त की दूसरी दिशा में ले जाती है। प्रचुर संसाधन की मानसिकता और धरती में जीने वालों को डार्विन का सिद्धान्त एक मज़ाक़ सा लगता है। जब सबके लिये जीवन यापन का मूलभूत सिद्धान्त ले हम सहजीवन की दिशा उद्धत हुये हैं तो ऊर्जा और जीवन का इस तरह पृथक पृथक हो व्यर्थ हो जाना हमें किस तरह स्वीकार हो सकता है?

जीवन को एकल और समग्र रूप देने के बाद, उसमें शिक्षा, योग्यता, जीवन यापन के साधन और सुखमय जीवन, सब के एक पंक्ति में खड़े हो जाते हैं, एक दूसरे से पोषित और संबद्ध, जिसमें न एक दिन व्यर्थ हो, न एक कर्म। जिसमें यह ध्येय छिपा हो, कि जीवन को किस तरह श्रेष्ठता के मानकों पर खरा उतारना है। हमारा यही आधारभूत निर्णय हो कि जीवन का समग्र स्वरूप क्या हो, शेष सब स्वतः स्थापित हो जायेगा जीवन में। जीवन को और समाज को इस स्वरूप में समझने के बाद शिक्षा के स्पष्ट उद्देश्य क्या हों, वह अगली पोस्ट में।

10.11.12

शिक्षा - व्यर्थ संभावनायें

जिस समय सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी कर रहे थे, एक आशंका सी रहती थी कि होगा कि नहीं, यदि होगा तो कितने वर्षों में। तैयारी करने वाले प्रतिभागियों में जिससे भी मिलते थे, एक उत्सुकता रहती थी, यह जानने की कि कौन कितने वर्षों से तैयारी कर रहा है? तैयारी का कुछ भाग दिल्ली में और कुछ इलाहाबाद में किया था, आपको यह तथ्य जानकर आश्चर्य होगा कि कुछ लोग १० वर्षों से तैयारी कर रहे थे। एक अजब सी आशावादिता व्याप्त थी वातावरण में कि आने वाला वर्ष सुखद निष्कर्ष लेकर आयेगा, पिछले वर्षों के श्रम में बस कुछ और जोड़ दें इस बार, थोड़ा भाग्य साथ दे दे इस बार, कुछ पढ़ा हुआ आ जाये इस बार।

एक नशे की गोली ही है कि ८-१० साल तक कुछ सूझता नहीं है। कई लोग इस तथ्य को शीघ्र समझ लेते हैं और कोई अन्य मार्ग ढूढ़ने लगते हैं, पर देश की शीर्षस्थ सेवाओं में पहुँचने का स्वप्न ऐसा है कि प्रतियोगी १० वर्ष स्वप्न में ही बिता डालते हैं। लाखों लोग परीक्षा देते हैं और उसमें से चार पाँच सौ ही लिये जाते हैं। जिनके चार प्रयास हो जाते हैं, वे प्रादेशिक सेवाओं की तैयारी में लग जाते हैं क्योंकि उसमें प्रयास अधिक मिलते हैं, उसके बाद कुछ और सीमित विकल्प, अन्त में सब तरह के ज्ञान में संतृप्त युवक अपनी प्रौढ़ता के प्रवेश होते होते कोई अध्यापन का कार्य कर लेते हैं और अपनी आर्थिक स्थिति गृहस्थी चलाने योग्य बना लेते हैं।

मेरा उद्देश्य न तो सिविल सेवाओं की महत्ता को दर्शाना है, न ही कोई करुण कथा सुना संवेदनायें विकसित करनी है और न ही लाखों युवाओं के व्यर्थ हुये वर्षों के बारे में कोई आँकड़े रखने है। सक्षम और मेधायुक्त युवाशक्ति का इस तरह व्यर्थ हो जाना करोड़ों करोड़ के घोटाले से कम नहीं और जिसका पूरा ठीकरा नौकरीपरक शिक्षा व्यवस्था पर ही फूटता है। किसी एक पर दोष नहीं मढ़ा जा सकता है और देखा जाये तो सब के सब दोषी। १० वर्षों के संघर्ष में लुप्त हुयी संभावनायें, इसकी तैयारी के प्रति उद्दात्त आकर्षण, अन्य क्षेत्रों में विकास न हो पाना, अपने उद्यम लगाने वालों की कमी और न जाने कितने ऐसे प्रश्न हैं जिनके उत्तर सबको ढूढ़ने हैं।

संघर्ष आवश्यक है, उतना जिससे क्षमतायें विकसित हों, उतना जिससे विकास हो, स्वस्थ प्रतियोगिता हो। संघर्ष इतना अधिक भी न हो जितना मुगलिया सल्तनत में था, पुत्रों में जो जीता वह राजा, जो हारा वह या तो कालकोठरी में या ईश्वर के पास। संघर्ष इतना कम भी न हो कि सब सुविधा बैठे बैठे ही मिल जाये, धनाड्य परिवारों की नकारा संततियों की तरह।

यह तो अच्छा हुआ कि सिविल सेवाओं के समकक्ष और कई क्षेत्र खुल गये, जैसे आईटी और प्रबन्धन, डॉक्टर और इन्जीनियर पहले से ही थे, जिन्हें देश में स्थिरता और मान नहीं मिला वे विदेश चले गये। अब संभवतः लोग दस वर्ष प्रतीक्षा नहीं करते होंगे, सिविल सेवाओं के लिये और यह भी संभव है कि बहुत लोग वैकल्पिक व्यवस्था करके ही सिविल सेवाओं की तैयारी करते होंगे। विकल्पों के विस्तार से व्यर्थ हुयी ऊर्जा निश्चय ही कम हुयी होगी पर अभी भी लाखों वर्ष जो हर वर्ष व्यर्थ होते हैं, उसका निदान नहीं हैं।

कहते हैं कि कोई प्रयास व्यर्थ नहीं जाता है, हर प्रयास में मनुष्य कुछ न कुछ सीखता ही है। सीखने के स्तर तक तो संघर्ष करके पढ़ना अच्छा है पर ८-१० वर्ष तक वही पाठ्यक्रम इस आस में पढ़ते रहना कि अगली बार भाग्य साथ देगा, समय को व्यर्थ करने से अधिक कुछ भी नहीं।

बिन्दु स्पष्ट है। एक ओर संभावनाओं का जल स्थिर है, अपने बहे जाने की राह देख रहा है, वहीं दूसरी ओर मैदानों में सूखा पड़ा है। कितने ही क्षेत्र ऐसे हैं जिनमें आवश्यकता है ऊर्जावान युवाओं की, जो आकर कुछ नया कर जायें, संभावनाओं का जल वहाँ पहुँचे तो वहाँ भी ऐश्वर्य लहलहा उठे। कितने ही क्षेत्र ऐसे हैं जहाँ गुणवत्ता शापित है, अन्य देश लाभान्वित हो रहे हैं, हमारे देश के बाजार पर अधिकार करते जा रहे हैं, वहाँ हमारी युवा ऊर्जा क्यों नहीं पहुँच पाती है। शिक्षा का ही क्षेत्र ले लीजिये जहाँ स्तरीय अध्यापकों की नितान्त आवश्यकता है, पर वहाँ पर भी इतना कम पैसा मिलता है कि व्यक्ति एक सम्मानित जीवन यापन के बारे में सोच ही नहीं सकता है। नवीन उद्यम, नवीन तकनीक, सब के सब क्षेत्र ऐसे हैं जिनमें हम अपने पैर पसार ही नहीं पा रहे हैं, ललचाये से शेष विश्व की ओर निहारने में लगे रहते हैं।

दूसरी ओर संभावनाओं को जल बस उन्हीं क्षेत्रों में बहना चाहता है जो पहले से ही सिंचित हैं। असिंचित क्षेत्रों में जाने से जल का अस्तित्व मिट जाने का भय होता है। भले ही कितना ही जल अपनी लम्बी यात्रा के पश्चात खारे सागर में जाकर समा जाये पर उसका उपयोग हम शेष धरा को सिंचित करने में नहीं कर पाते हैं।

दोष किस पर मढ़ें, अभिभावकों को भी दोष नहीं दे सकते, जो मार्ग कभी बने ही नहीं उन पर वे अपने बच्चों को चलने के लिये कैसे कह दें? कुछ तो हो आश्वस्त होने के लिये। शिक्षा पद्धति भी क्या करे, उसका ध्यान ज्ञान से अधिक इस बात पर लगा रहता है कि प्रतियोगी परीक्षाओं के योग्य बच्चे कैसे बने? रट रटकर प्रतियोगी परीक्षाओं में उगल देने वाले युवाओं से भी क्या आशा करें कि वे नव-उद्यम का मोल समझें, उस नव-उद्यम का जिसके बारे में उन्हें कभी तैयार ही नहीं किया गया है।

एक ओर सारे जगत की चमक है और शेष जगत अँधियारा। क्या कोई उपाय है जिसमें कुछ भी प्रयास व्यर्थ न जायें, प्राप्त शिक्षा व्यर्थ न जाये, झूठी आशा में निकल गये इतने वर्ष व्यर्थ न जायें? क्या आधारभूत ढांचा निर्माण हो जिसमें देश की युवा ऊर्जा सहज बहे और समुचित बहे, सारे असिंचित क्षेत्र सिंचित हों। व्यर्थ संभावनायें, बाढ़ के जल के समान अस्थिरता ला सकती हैं और यह मूल्य उन प्रयासों में लगे मूल्य से कहीं अधिक होगा जो जो इन व्यर्थ हो रही संभावनाओं को एक स्थायी दिशा देने में लगेगा।