30.8.15

बताता हूँ सत्य गहरा

बताता हूँ सत्य गहरा,
आत्म-क्रोधित और ठहरा,
लगा है जिस पर युगों से,
वेदना का क्रूर पहरा ।

मर्म जाना तथ्य का,
जब कभी भी सत्य का,
जानता जिसको जगत भी,
व्यक्त फिर भी रिक्तता,
नित्य सुनता किन्तु अब तक रहा बहरा,
बताता हूँ सत्य गहरा ।

मैं उसे यदि छोड़ता हूँ,
आत्म-गरिमा तोड़ता हूँ,
काल से अपने हृदय का,
क्षुब्ध नाता जोड़ता हूँ ।
स्याह संग जीवन लगे कैसे सुनहरा,
बताता हूँ सत्य गहरा ।

ध्यान सारा बाँटते हैं,
झूँठ मुझको काटते हैं,
आत्म की अवहेलना के,
तथ्य रह रह डाँटते हैं,
नहीं रखना संग अपने छद्म पहरा,
बताता हूँ सत्य गहरा ।

23.8.15

जीवन को जब कहा, ठहर जा

जीवन को जब कहा, ठहर जा, नहीं उसे रुकना भाता है,
और हृदय जब भरे उलाछें, सन्नाटा पसरा जाता है ।

आलस में बीते कितने दिन, कितने अवसर व्यर्थ हुये,
शब्दों से उलझे उलझे हम, कितने वाक्य निरर्थ हुये ।

मैने कब माँगी थी गति सोपान त्वरित चढ़ जाने की,
नहीं कभी भी आकांक्षा थी उत्कर्षों को पाने की ।

जीवन को देव प्रदत्त एक उपहार मान कुछ बीते दिन,
और कभी एक ध्येय अग्नि पर अर्पित करने चाहे ऋण ।

माना प्रश्न पूछ्ने का अधिकार नहीं है अब हमको,
पर क्या उत्तर दे पायें जब समय सालता है हृद को ।

16.8.15

संशय

प्रथम दृष्टि में रहे अपरिचित,
मन में कुछ संशय थे संचित,
ना जाने वह कैसा होगा,
बहता था क्रम चिन्ताआें का,
खींचे कल्पित चित्र अनेकों,
जीवन में पाये अनुभव जो,
वही रंग बस भरते जाते,
कल्पित तेरे चित्र बनाते ।।१।।

सोचा बैठे शान्त अकेले,
प्रश्न अनवरत पूछे मन से,
तुम्ही विचारों में आगत थे,
चिन्तन में तुम छाये रहते,
सोचा मन को आश्रय देगा,
आशाआें के साथ बहेगा,
उत्तर से जो लेकर आया,
प्रतिमा में वह रंग चढ़ाया ।।२।।

आये तुम, आश्रय सब आये,
व्यर्थ कल्पना में भरमाये,
थे जितने रंग समेटे,
फीके सब तेरी तुलना में,
मन, जीवन सब तुझ पर मोहित,
संशय, चिन्ता सकल तिरोहित,
प्रेमपूर्ण, अनुराग-निहित हो,
गोद छिपा लो आशाआें को ।।३।।

9.8.15

मैनें रेखाचित्र बनाये

मैनें रेखाचित्र बनाये,
जगह जगह से कर एकत्रित, आकृतियों के ढेर सजाये ।

कहीं कहीं पर मधुर कल्पना के धुँधले आकार बिछाये,
कहीं सोचकर बड़े यत्न से, सुन्दर से कुछ चित्र बनाये ।
इतना सब कुछ पहले से है, फिर भी कुछ तो छूटा जाये ।
मैनें रेखाचित्र बनाये ।।१।।

इन रेखाचित्रों में उभरे, तेरे थे जो चित्र बनाये,
अलग व्याख्या, अलग सजावट, तेरा सब श्रृंगार सजाये ।
पर रेखाआें की यह रचना, आँखों में क्यों उतर न पाये ।
मैनें रेखाचित्र बनाये ।।२।।

कार्य यही अब इन चित्रों के तीखेपन को सरल बनाना,
कहीं वेदना के दृश्यों का, थोड़ा सा आकार घटाना ।
पर गन्तव्य पहुँचने पर, अनुभव की नद विस्तार बढ़ाये ।
मैनें रेखाचित्र बनाये ।।३।।

2.8.15

आकांक्षा से भरे नयन हैं

आकांक्षा से भरे नयन हैं और असुँअन की धार बहे,
सक्षम खाली हाथ, उठे हैं सम्मुख, अपनी बात कहे,
सूचक हैं ये, प्रश्न उठाते, आज आपके बारे में,
आप समझते, अश्रु खुशी के, हाथ उठे जयकारे में ।

हम थे भ्रम में, शायद हमने, लोकतन्त्र-रण जीता है,
पाँच वर्ष अज्ञातवास, पर समय आपका बीता है,
आये पुनः बिछाने चोपड़, आशाओं की, स्वप्नों की,
पाँसे फेंके, खेल रहे हैं, राजनीति फिर अपनों की,

अब होगा सब ठीक, समस्यायें जो थी, मिट जायेंगी,
नयी नीतियाँ देखो, उजला नवप्रभात ले आयेंगी,
व्यक्ति व्यक्ति को तोड़ रहे जो, हाथ जोड़कर खड़े हुये,
आज आपके मत पाने बन भिक्षु अकिंचन पड़े हुये,

निष्ठाओं का भवन तुम्हारा जगह जगह से टूटा है,
अपना वचन निभाना था जो, सिद्ध कर दिया झूठा है,
किस को समझाना चाहो तुम, कौन कथा तुम बाँच रहे,
मन के छल को, खड़े हुये क्यों चौराहे पर जाँच रहे,

नहीं तुम्हारे आश्वासन अब काम तुम्हारे आयेंगे,
हर हाथों को काम, और यह अश्रु सूख जब जायेंगे,
तभी समझना जनमानस-स्नेह, हृदय की धड़कन को,
अपना ही पाओगे हर क्षण, तब समाज में जन जन को।