31.7.16

चीन यात्रा - १

ब्लॉगजगत से पिछले ४ सप्ताहों से अनुपस्थित था। रेलवे द्वारा एक सेमिनार के लिये चीन भेजा गया था। गूगल, फेसबुक, यूट्यूब और ट्विटर आदि कितनी ही साइटें जिन पर हम यहाँ व्यस्त रहते हैं, वहाँ पर ध्वस्त थीं। मन में व्यक्त करने को बहुत कुछ था पर चाह कर भी कुछ लिख न सका। यदि इसके बारे में ज्ञात होता तो सततता बनाये रखने के लिये पहले से कुछ लिखकर डाला सकता था। कुछ लिखा तो न गया पर इस यात्रा में दिखा बहुत कुछ।

चीन का संदर्भ आते ही मन में क्या कौंधता है? दो पुरानी सभ्यतायें, सदियों की संस्कृति का आदान प्रदान, जनप्लावित दो देश, विश्वविकास को खींचते विश्व के दो बाजार, बौद्धिकबल से संतृप्त दो देश, पंचशील, १९६२ का युद्ध, सीमा पर तनाव, अकसाई चिन। समझ में नहीं आ रहा था कि किस पूर्वमनस्थिति से चीन को समझा जाये। विकास की अग्रता में उसकी विस्तार की उग्रता को कैसे समझा जाये? यद्यपि मेरे लिये रेलवे द्वारा प्रदत्त ३-४ विषयों को समझना ही पर्याप्त था, पर उपरोक्त पक्ष मन में भला कहाँ शान्त रह पाते हैं?

३ दिनों का बीजिंग प्रवास और शेष दिन चेन्दू में रहना हुआ। चेन्दू वहाँ का चौथा बड़ा नगर है, बीजिंग, शंघाई और गुआन्झो के बाद। चेन्दू दक्षिण-पश्चिम चीन में है और गुवाहटी से लगभग २ घंटे की हवाई दूरी पर है। इतना निकट होने के बाद भी हम दिल्ली से गुआन्झो होते हुये लगभग १२ घंटों के बाद चेन्दू पहुँचे, यदि काठमान्डू होकर जाते तो ४ घंटे में ही पहुँच जाते। यद्यपि यह यात्रा चीन के द्वारा प्रायोजित थी पर चीन की अन्य बातों की तरह ही हमें यह बात भी समझ नहीं आयी। रेलवे के १९ अधिकारियों के इस दल के रहने की व्यवस्था चेन्दू के परिवहन विश्वविद्यालय में की गयी थी।

वहाँ संवाद की समस्या मुखर थी। वहाँ के निवासियों को अपनी भाषा छोड़कर कोई और भाषा नहीं आती है। यहाँ तक कि विश्वविद्यालय के प्रोफेसरों की अंग्रेजी भी टूटी फूटी ही कही जा सकती है। जिन दो प्रोफेसरों की शिक्षा अमेरिका में हुयी थी, सार्थक संवाद बस उन्हीं से हो सका। यहाँ की सारी व्यवस्था, सारी शिक्षा, सारा साहित्य मान्डरिन भाषा में ही है। पारम्परिक मान्डरिन की जटिलता को तनिक संवर्धित कर सरल मान्डरिन को विकसित किया गया और उसी में विज्ञान और तकनीक जैसे कठिन मान लिये विषय पढ़ाये जाते हैं यहाँ। मान्डरिन शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के मन्त्रिन् शब्द से हुआ बताते हैं, जिसे मिंग और क्विंग राजाओं के राजदरबारों में मंत्रणा के लिये उपयोग में लाया जाता था।

मान्डरिन की संरचना को समझना थोड़ा कठिन है। यह अक्षर और शब्दों में पिरोयी भाषा नहीं है, इसमें हर वस्तु और क्रिया के लिये एक विशेष वर्ण हैं। इस भाषा में लगभग ७००० वर्ण थे पर सरलीकरण की प्रक्रिया में यह संख्या घटकर ३५०० रह गयी है। उनमें से यदि आप २६०० वर्णों को पहचान लेते हैं तो आप लगभग ९८ प्रतिशत लेखन पढ़ सकेंगे। जब आड़ी तिरछी रेखाओं से आपको ३५०० आकृतियाँ बनाने या समझने को कहा जाये तो निश्चय मानिये कि जटिलता आपके मस्तिष्क में स्थायी रूप से निवास करने लगेगी। ऐसी कठिन भाषा सीखना अपने आप में एक दुरूह कार्य है। तत्पश्चात उस भाषा में विज्ञान और दर्शन के जटिल सिद्धान्त पिरोना असंभव को संभव बनाने सा कार्य है।

इतनी कठिन भाषा सीखने के प्रयास में ही मस्तिष्क जितना विकसित हो जाता होगा, विषय की कठिनता तो उसके सामने नगण्य ही होगी। यही कारण है कि यहाँ के छात्रों की बौद्धिक क्षमता अच्छी है। पिछले एक वर्ष से संस्कृत व्याकरण का स्वरूप समझने का प्रयास कर रहा हूँ। मुझे ये दोनों भाषायें मानवीय अभिव्यक्ति के दो दूरस्थ सिरों पर स्थित दिखायीं देती हैं। एक असीमित से प्रारम्भ होती है तो दूसरी असीमित तक जाने की क्षमता रखती है। एक की उत्पत्ति के आधार इतने सरलीकृत हैं कि जिसमें हर दिखने वाली वस्तु को एक आकार दिया जाता रहा। देखा जाये तो एक भी ऐसा वर्ण नहीं जिसका कुछ भी अर्थ न हो, कुछ भी व्यर्थ नहीं। वहीं दूसरे की उत्पत्ति का व्याकरणीय वैशिष्ट्य इतना रोचक है जिसमें अभिव्यक्ति के आधार इतने वैज्ञानिक और सुकृत बनाये गये जो अनन्त को समझ पाने में सक्षम रहे।


यात्रा में जब भी कुछ समय मिला, वहाँ के समाज को वहाँ की भाषा के माध्यम से समझने का प्रयास किया। भाषा का जटिल स्वरूप पर सरल जीवनशैली। भाषा सीखने के प्रयास में जटिल हुआ मस्तिष्क इतने सरलीकृत चिन्तन में कैसे पहुँचा? उत्तर देर से मिले पर रोचक मिले। अगले ब्लॉग में उन्हीं तथ्यों को समझने का प्रयास करेंगे।