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11.1.12

ऐसी सजनी हो

आँखों ही आँखों में मन के, भाव समझकर पढ़ जाती हो,
हृद की अन्तरतम सीमा में, सहज उतरकर बढ़ जाती हो ।
भावों में सागर लहरों सी, सतत बहे, मधुमय रमणी हो,
हो संजीवनि, नवजीवन सी, संग रहे, ऐसी सजनी हो ।।१।।

अरुण किरण सी, नभ-नगरी में, बन जाये स्फूर्ति चपलता,
डुला रही अपने आँचल से, बन पवनों का शीतल झोंका ।
धीरे धीरे नयन समाये, अलसायी, मादक रजनी हो,
हो संजीवनि, नवजीवन सी, संग रहे, ऐसी सजनी हो ।।२।।

मन के अध्यायों में सब था, किन्तु तुम्हारा नाम नहीं था,
तत्पर, आतुर, प्रेमपूर्ण वह, मदमाता अभिराम नहीं था ।
आ जाये, ऐश्वर्य दिखाये, सकल ओर मन मोह रमी हो,
हो संजीवनि, नवजीवन सी, संग रहे, ऐसी सजनी हो ।।३।।

(बस इतना जान लीजिये कि विवाह के बहुत पहले लिखी थी, यह आसभरी कविता)