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2.8.14

अन्तहीन है ज्ञानस्रोत

अगणित रहस्य के अन्धकूप,
इस प्रकृति-तत्व की छाती में ।
है अन्तहीन यह ज्ञानस्रोत,
मानव तू क्या क्या ढूँढ़ेगा ।।

विस्तारों की यह प्रकृति दिशा,
आधारों से यह मुक्त शून्य ।
लाचारी से विह्वल होकर,जीवन अपना ले डूबेगा ।
है अन्तहीन यह ज्ञानस्रोत, मानव तू क्या क्या ढूँढ़ेगा ।।१।।

तू कण कण को क्यों तोड़ रहा,
जाने रहस्य क्या खोज रहा ।
इन छोटे छोटे अदृश कणों में डुबा स्वयं को भूलेगा ।
है अन्तहीन यह ज्ञानस्रोत, मानव तू क्या क्या ढूँढ़ेगा ।।२।।

कारण असंख्य, कर्ता असंख्य,
मानव हन्ता, ये तत्व हन्त्य ।
कब तक जिज्ञासा बाण लिये, इन सबके पीछे दौड़ेगा ।
है अन्तहीन यह ज्ञानस्रोत, मानव तू क्या क्या ढूँढ़ेगा ।।३।।

स्थिर न तुझसे विजित हुआ,
चेतन पर फिर क्यों दृष्टि पड़ी ।
जाने किसका आधार लिये, तू चरम सत्य पर पहुँचेगा ।
है अन्तहीन यह ज्ञानस्रोत, मानव तू क्या क्या ढूँढ़ेगा ।।४।।

अपना प्रवाह न समझ सका,
मन के वेगों में उलझ गया ।
लड़खड़ा रहा तेरा पग पग, बाकी चालें क्या समझेगा ।
है अन्तहीन यह ज्ञानस्रोत, मानव तू क्या क्या ढूँढ़ेगा ।।५।।

अपने घर में बैठे बैठे,
बाहर दिखता जो, देख रहा ।
अन्तर आकर खोलो आँखें, तब अन्तरतम को जानेगा ।
है अन्तहीन यह ज्ञानस्रोत, मानव तू क्या क्या ढूँढ़ेगा ।।६।।

15.2.14

प्रकृति चक्र

आयुर्वेद का परिचय लोग वैकल्पिक चिकित्सा पद्धति के रूप में कराते हैं। पर जितना मैं समझ सका हूँ, आयुर्वेद एक पूर्णकालिक जीवनशैली है जो भारतीय सांस्कृतिक व स्वास्थ्य परंपराओं में रची बसी है। आयुर्वेद से संबंधित केवल दो तथ्य समझ लिये जायें तो हम स्वयं ही ८५ प्रतिशत रोगों से अपने आप को दूर रख सकते हैं, शेष १५ प्रतिशत के लिये विशेषज्ञ का परामर्श लिया जा सकता है। समझने योग्य ये दो तथ्य हैं, अपने शरीर की प्रकृति और नियमित लिये जाने वाला भोजन। कहने का आशय है कि शरीर की प्रकृति के अनुसार समुचित भोजन बस करते रहने से रोग पास नहीं आ सकते हैं। असमय, अभोज्य और अव्यवस्थित ढंग से किये भोजन के कारण ही ८५ प्रतिशत तक रोग होते हैं।

माटी से तत्व सोखता बीज
आइये, अब शरीर को तनिक दार्शनिकता से देखा जाये। शरीर माटी का बना है, यह कोई अतिश्योक्ति नहीं। जितने भी तत्व शरीर में होते हैं, वे सारे के सारे तत्व माटी में भी मिल जाते हैं। यही कारण है कि शरीर माटी से ही पोषित होता है, उसी से ही जीवन पाता है और अन्ततः मृत्यु के पश्चात माटी में ही मिल जाता है। आश्चर्य नहीं करना चाहिये कि माटी हमारे लिये कितनी महत्वपूर्ण हैं। चोला माटी के रे।

यह तो दार्शनिक पक्ष हुआ, पर इसी तथ्य में हमारे जीवन का वैज्ञानिक आधार भी छिपा हुआ है। जब माटी के तत्व ही शरीर में आने हैं तो उसका माध्यम क्या हो? क्या कभी आश्चर्य नहीं होता कि कैसे इस विश्व में इतने खाद्य पदार्थ हैं, कैसे उन्हें खाकर हम जीवित रहते हैं? मुझे तो बचपन में बड़ा आश्चर्य होता था कि कैसे मनुष्य ने जीवित रहने के लिये खाद्य पदार्थ ढूँढ़े होंगे। कैसे अन्न, शाक, फल आदि नियत किये होंगे, कैसे अखाद्य को उनसे अलग किया होगा। कैसे मनुष्य, पशु, पक्षी आदि के लिये भिन्न व्यवस्थायें रची होंगी प्रकृति ने। इस व्यवस्था को भले ही कोई आश्चर्य के किसी भी स्तर में रखे, मेरे लिये यह समझना तब और स्वाभाविक हो जाता है जब मैं अन्न, शाक, फल आदि को माटी के उन तत्वों का वाहक मानता हूँ, जो मेरे और सबके शरीर में भी हैं। माटी के विशेष तत्व अन्न के दाने में से होते हुये मेरे शरीर में पहुँचते हैं और मुझे जीवित रखते हैं, देखा जाये तो बड़ा आश्चर्य भी है और समझा जाये तो प्रकृति का एक सहज कार्य भी है।

यही कारण है कि आयुर्वेद किसी भी वनस्पति को व्यर्थ नहीं मानती है। सबके अन्दर माटी के कोई विशेष गुण समाहित हैं, पर उन्हें किस रूप में लेना है, यह एक यक्ष प्रश्न है और आयुर्वेद का रहस्य भी। हमारे अनुभव व परम्परा से प्राप्त ज्ञान के कारण हम सैकड़ों खाद्य व अखाद्य को जानते हैं, ऐसी हजारों वनस्पतियाँ भी जानते हैं, जिनमें औषधीय गुण विद्यमान हैं। आयुर्वेद ने न जाने कितनी वनस्पतियों को उनके गुण दोष के अनुसार वर्गीकृत किया है, उनके औषधीय गुणों को उजागर किया है।

यदि अन्नादि को एक माध्यम भर समझें तो भोजन पकाना और पचाना एक वृहद प्रक्रिया के सहज अंग से दिखने लगते हैं, जिसमें माटी के तत्वों को शरीर में पहुँचाना होता है। भोजन पकाने और पचाने की इस प्रक्रिया में ही स्वास्थ्य के सारे सूत्र छिपे है, सारे रहस्य छिपे हैं। यदि इसको समझ लिया गया तो आयुर्वेद के सारे भेद समझ आ जाते हैं।

माटी से तत्वों को एकत्र करने का कार्य पौधे करते हैं। इन पौधों को कम्प्यूटर की भाषा में कहा जाये तो ये एक विशेष प्रकार के सॉफ़्टवेयर हैं जो माटी से एक विशेष प्रकार का तत्व निकालते हैं। आश्चर्य की बात देखिये कि यह सॉफ़्टवेयर अपना कार्य करने के पश्चात पुनः बीज में संकुचित हो जाता है और माटी में पहुँचने पर अपना पूर्वनियत कार्य प्रारम्भ करने लगता है। इस प्रक्रिया में दो और कारकों का योगदान रहता है, सूर्य का प्रकाश और वायु के तत्व। जिन्होंने वनस्पति शास्त्र पढ़ा है, वे ये जानते हैं कि इन दोनों कारकों के बिना पौधे का विकास संभव ही नहीं है। 

पौधे के विकास में  माटी के तत्वों का क्रमिक संकलन होता है तो पचाने की प्रक्रिया में उन तत्वों का क्रमिक विघटन। पचाने के पहले अन्नादि को पकाने की प्रक्रिया उसी विघटन में सहायक है। भले ही हमें लगे कि विकास की प्रक्रिया में यह सब हमने स्वतः ही खोज लिया, पर वाग्भट्ट को ध्यान से पढ़ेंगे तो खान पान जैसी सरल सी दिखने वाली बातों में ढेरों वैज्ञानिकता छिपी हुयी है। एक पूरा का पूरा चक्र होता है जिसके माध्यम से प्रकृति हमारा पोषण करती है, एक पूरा का पूरा सिद्धान्त है जिससे हम ऊर्जा आदि पाते हैं।

जितना रहस्यमयी अन्नादि का बनना है, उतना ही रहस्यमयी शरीर के अन्दर उनका विघटन भी है। हर तरह के तत्व तोड़ने के लिये एक विशेष प्रकार का एन्जाइम निकालता है शरीर का पाचनतन्त्र। पाचन की प्रक्रिया तो लार के साथ ही प्रारम्भ हो जाती है। तत्वों का पूर्ण पाचन ही पाचनतन्त्र का कार्य है। यह कार्य बिना थके, बिना रुके शरीर करता रहता है, जीवन पर्यन्त। माँसाहारी पशुओं के लिये भी माटी के जो तत्व आवश्यक होते हैं, उन्हें अन्य पशुओं से मिल जाते हैं। उनका भी चक्र अन्ततः पौधों पर ही आधारित होता है।

भोजन पचने के बाद जो शेष बचता है वह पुनः प्रकृति में मिल जाता है। जब तक शरीर जीवित रहता है, प्रकृति से पोषण पाता रहता है, अन्त में शरीर माटी में मिल जाता है। यह माटी न जाने कितने शरीरों को अपने में समेटे है, न जाने कितने शरीरों को रचने की क्षमता समेटे है। प्रकृति के इस चक्र में हम एक याचक के रूप में खड़े हैं, न जाने क्या सोचकर हम स्वयं को नियन्त्रक मान बैठते हैं। प्रकृति की यह विशालता जैसे जैसे समझ आती है, तेन त्यक्तेन भुन्जीथा का भाव मन में व्याप्त होने लगता है।

दार्शनिकता तो ठीक है, पर प्रकृति का यह चक्र रोग कैसे लाता है, जानेंगे प्रकृति के एक और सिद्धान्त के साथ।

24.7.13

क्लॉउड कैसा हो?

कभी प्रकृति को कार्य करते देखा है? यदि प्रकृति के कर्म-तत्व समझ लेंगे तो उन सब सिद्धान्तों को समझने में सरलता हो जायेगी जो संसाधनों को साझा उपयोग करने पर आधारित होते हैं। क्लॉउड भी एक साझा कार्यक्रम है, ज्ञान को साझा रखने का, तथ्यों और सूचनाओं को साझा रखने का।

पवन, जल, अन्न, सब के सब हमें प्रकृति से ही मिलते हैं, उन पर ही हमारा जीवन आधारित होता है। हम खाद्य सामग्री का पर्याप्त मात्रा में संग्रहण भी कर लेते हैं, जल तनिक कम और पवन बस उतनी जितनी हमारे फेफड़ों में समा पाये। फिर भी प्रकृति प्रदत्त कोई भी पदार्थ ऐसा नहीं है जो हम जीवन भर के लिये संग्रहित कर लें, यहाँ तक कि शरीर की हर कोशिका सात वर्ष में नयी हो जाती है।

प्रकृति का यह महतकर्म तीन आधारभूत सिद्धांतों पर टिका रहता है। पहला, ये संसाधन सतत उत्पन्न होते रहते हैं, चक्रीय प्रारूप में। हमें सदा नवल रूप में मिलते भी हैं। उनकी नवीनता और स्वच्छता ही हमारे जीवन को प्राणमय बनाये रहते हैं, अधिक संग्रह करने से रोकते भी रहते हैं, क्योंकि अधिक समय के लिये संग्रह करेंगे तो सब अशुद्ध हो जायेंगे, अपने मूल स्वरूप में नहीं रह पायेंगे। हमारी आवश्यकता ही प्रकृति का गुण है, प्रकृति उसे उसी प्रकार सहेज कर रखती भी है।

दूसरा, प्रकृति इन संसाधनों को हमारे निकटतम और सार्वभौमिक रखती है। पवन सर्वव्याप्त है, जल वर्षा से अधिकतम क्षेत्र में मिलता है और अन्न आसपास की धरा में उत्पन्न किया जा सकता है। ऐसा होने से सारी पृथ्वी ही रहने योग्य बनी रहती है। संसाधनों की पहुँच व्यापक है। तीसरा, प्रकृति ने अपने सारे तत्वों को आपस में इस तरह से गूँथ दिया है कि वे एक दूसरे को पोषित करते रहते हैं। किसी स्थान पर हुआ रिक्त शीघ्र ही भर जाता है, प्रकृति का प्रवाह अन्तर्निर्भरता सतत सुनिश्चित करती रहती है।

आइये, यही तीन सिद्धान्त उठा कर क्लॉउड पर अधिरोपित कर दें और देखें कि उससे क्लॉउड का क्या आकार निखरता है? ज्ञान, तथ्य और सूचनायें स्वभावतः परिवर्तनशील हैं और काल, स्थान के अनुसार अपना स्वरूप बदलती भी रहती हैं। उन्हें संग्रहित कर उन्हें उनके मूल स्वभाव से वंचित कर देते हैं हम। क्लॉउड में रहने से, न केवल उनकी नवीनतम और शुद्धता बनी रहती है, वरन उन्हें वैसा बनाये रखने में प्रयास भी कम करना पड़ता है। उदाहरण स्वरूप, यदि कोई एक रिपोर्ट सबके कम्प्यूटरों पर संग्रहित है और उसमें कोई संशोधन आते हैं तो उसे सब कम्प्यूटरों पर संशोधित करने में श्रम अधिक करना पड़ेगा, जबकि क्लॉउड पर रहने से एक संशोधन से ही तन्त्र में नवीनतम सुनिश्चित की जा सकेगी।

जब सारा ज्ञान क्लॉउड पर होगा और अद्यतन होगा तो व्यर्थ के संग्रहण की प्रवृत्ति पर रोक लगेगी। जितनी आवश्यक हो और जब आवश्यक हो, सूचना क्लॉउड पर रहेगी, उपयोग के समय प्राप्त हो जायेगी।

अभी के विघटित प्रारूप में, कोई सूचना या तथ्य अपने स्रोत से बहुत दूर तक छिन्न भिन्न सा छिटकता रहता है, उसके न जाने कितने संस्करण बन जाते हैं, उसे न जाने कितने रूपों में उपयोग में लाया जाता है। क्लॉउड के एकीकृत स्वरूप में एक सूचना अपने स्रोत से जुड़ी रहेगी, वहीं से क्लॉउड में स्थान पायेगी और कैसे भी उपयोग में आये, क्लॉउड में अपने निर्धारित पते से जानी जायेगी। इस प्रकार न केवल सूचनाओं की शुद्धता और पवित्रता बनी रहेगी वरन उसे अपने उद्गम के सम्मान का श्रेय भी मिलता रहेगा। क्लॉउड आपका वृहद माध्यम हो जायेगा, सबके लिये ही, बिलकुल प्रकृति के स्वरूप की तरह।

प्रकृति का प्रथम सिद्धान्त अपनाते ही भविष्य का भय तो दूर हो जायेगा पर तब क्लॉउड को प्रकृति की सार्वभौमिकता व उपलब्धता का दूसरा सिद्धान्त शब्दशः अपनाना होगा क्योंकि भविष्य की अनिश्चितता का भय ही संग्रहण करने के लिये उकसाता है। क्लॉउड हमारे जितना अधिक निकट बना रहेगा, उस पर विश्वास उतना ही अधिक बढ़ेगा। हर प्रकार की सूचना पलत झपकते ही उपलब्ध रहेगी। लगेगा कि आप ज्ञान के अदृश्य तेजपुंज से घिरे हुये सुरक्षित और संरक्षित से चल रहे हैं। पहले हम लोग अपने कम्प्यूटर और मोबाइल पर कई गाने लादे हुये चलते थे, अब तो जो भी इच्छा होती है, वही इण्टरनेट से सुन लेते हैं, सब का सब क्लॉउड पर उपस्थित है। हाँ, यह कार्य उतना सरल नहीं है जितना क्लॉउड बनाना। माध्यम स्थापित कर सकने का कर्म कठिनतम है, इण्टरनेट की सतत उपलब्धता प्रकृति के सिद्धान्तों की तरह हो जाये तो क्लॉउड प्रकृतिमना हो जाये।

अभी के समय में क्लॉउड की सूचना में कोई परिवर्तन करना हो तो पूरी की पूरी फाइल बदलनी होती है जिससे इण्टरनेट की आवश्यकता अधिक मात्रा में होती है। यदि परिवर्तनमात्र को ही क्लॉउड तक लाने और ले जाने की तकनीक सिद्धहस्त कर ली जाये तो माध्यम की उपलब्धता और अधिक होने लगेगी। अभी एक व्यक्ति के न जाने कितने खाते होते हैं। यदि एक व्यक्ति इण्टरनेट पर एक ही परिचय से व्यक्त हो और उसका दुहराव भिन्न प्रकारों से न हो तो इण्टरनेट पर होने वाला अनावश्यक यातायात कम किया जा सकता है। इससे न केवल इण्टरनेट की गति बढ़ेगी वरन उपलब्धता भी सुनिश्चित हो जायेगी।

तीसरा सिद्धान्त जो कि प्रकृति के प्रवाह का है, उसके लिये क्लॉउड को अपना बुद्धितन्त्र विकसित करना होगा। रिक्त को पढ़ना, उसका अनुमान लगाना और यथानुसार उस रिक्त को भरना प्रकृति के प्रवाह के आवश्यक अंग हैं। क्लॉउड केवल सूचनाओं का भंडार न बन जाये, उसको सुव्यस्थित क्रम में विकसित किया जाता रहे, यह प्रक्रिया क्लॉउड में प्राण लेकर आयेगी। हम तब क्लॉउड के प्रति उतने ही निश्चिन्त हो पायेगे, जितने प्रकृति के प्रति अभी हैं, वर्तमान पर पूर्ण आश्रित और भविष्यभय से पूर्ण मुक्त। आपका क्लॉउड क्या आकार लेना चाह रहा है? हम सबका आकाश तो एक ही है।

18.5.13

नदी का सागर से मिलन

पहली बार देख रहा था, एक नदी का सागर से मिलना। स्थान कारवार, नदी काली और अरब सागर। दोपहर के समय ऊपर से पड़ने वाली सूरज की किरणें पसरी नीली परत पर चाँदी की रेखा सी झिलमिला रही थीं। पीछे जंगल, बगल में रेत, हवा में एक मध्यम ठंडक और सामने दिख रहा था नदी और सागर का मिलन। मैं लगभग वहीं खड़ा था जहाँ से कभी कविवर रवीन्द्रनाथ टैगोर ने खड़े होकर सागर और नदी का मिलन देखा था। अन्तर बस इतना था कि उन्होंने काली नदी में प्रवाह के साथ कई किलोमीटर यात्रा करने के पश्चात यह दृश्य देखा था, जबकि मुझे यह दृश्य सहसा ही देखने को मिल रहा था।

काली नदी अपने उद्गम से बस १८४ किमी बाद ही समुद्र में मिल जाती है, यह संभवतः एक ही ऐसी नदी होगी जो पूरी की पूरी एक ही जिले, उत्तर कन्नड में बहती है। पश्चिमी घाट से सागर की इतनी कम दूरी ने न जाने कितने सुन्दर और ऊँचे प्रपातों को जन्म दिया है, छोटी छोटी नदियों के जाल से बुना हुआ कोकण क्षेत्र अपने आप में एक अनूठा दृश्य रचता है, पहाड़, जंगल, प्रपात, नदियाँ, सागर, सब एक दूसरे पर अधारित और आरोपित। लगभग चार लाख लोगों की जीवन रेखा यह नदी, सागर तक आते आते निश्चिन्त हो जाती है, अपना संक्षिप्त पर सम्पूर्ण कर्म करने के पश्चात।

आज खड़ा मैं उसी नदी का अन्तिम बिन्दु निहार रहा था। देख रहा था कि कहीं कोई भौतिक रेखा है जिसके एक ओर को समुद्र कहा जा सके और दूसरी ओर को नदी। सहसा एक सहयात्री ने इंगित किया, थोड़ी दूरी पर स्पष्ट दिख रहा था, सागर का स्तर नीचे था, उस समय भाटा था। नदी का पानी उस स्थान पर सहसा गिरता हुआ सा दिख रहा था, बहुत सुन्दर दृश्य था। नदी की दिशा में देखा, छोटी छोटी लहरें भागी चली आ रही हैं, अपने सागर से मिलने, अपना जलचक्र पूरा करने।

रात के समय चाँद पृथ्वी के निकट होता है। अब अपना आकर्षण किस तरह व्यक्त करे? पृथ्वी को अपनी ओर खींचना चाहता है, पृथ्वी ठहरी भारी, न वह हिलती है और न ही हिलते हैं उसके पहाड़। ले दे कर एक ही तरल व्यक्तित्व है सागर का, जिस पर चाँद का जोर चल पाता है, उसे ही अपनी ओर खींच लेता है चाँद, उस स्थिति को ज्वार कहते हैं। तब सागर का जल स्तर नदी से ऊपर हो जाता है। नदी ठहर सी जाती है, उसे कुछ सूझता नहीं है, उसे दिशाभ्रम हो जाता है कि जाना किधर है। आगे बढ़ते बढ़ते सहसा उसकी गति स्थिर हो जाती है, वह वापस लौटने लगती है। और जब दोपहर में चाँद पृश्वी से दूर हो जाता है, सागर पुनः नीचे चला जाता है, नदी के स्तर से कहीं नीचे, तब नदी का जल सरपट दौड़ लगाता है।

जल का यह आड़ोलन, कभी सागर से नदी की ओर तो कभी नदी से सागर की ओर, उस सीमा को कभी एक स्थान पर स्थिर ही नहीं देता, जिसे हम नदी और सागर का मिलना कहते हैं। कैसे ढूढ़ पायेंगे आप कोई एक बिन्दु, कैसे निर्धारित कर पायेगें उन दो व्यक्तित्वों की सीमायें, जिन्हें चाँद एक दूसरे में डोलने को विवश कर देता हो। चाँद मन की गति का प्रतीक माना जाता है, सागर खारा है, नदी मीठी है, यह मिलन संबंधों को इंगित करता है। यह आड़ोलन उन अठखेलियों को भी समझने में सहायक है जो संबंधों के बीच आती जाती रहती हैं। सागर स्थिर है, नदी गतिशील है, पर वे चाहकर भी अपनी प्रकृति बचाकर नहीं रख पाते। रात को चाँद निकलता है और सागर गतिशील हो जाता है अपनी सीमायें तोड़ने लगता है, नदी सहम सी जाती है, ठिठक जाती है। सागर का खारापन मीलों अन्दर चला जाता है, लगता है कि कहीं सागर स्रोत को भी न खारा कर बैठे। एक स्थान पर, जहाँ सागर की उग्रता और नदी का प्रवाह समान हो जाता है, खारापन वहीं रुक जाता है, वहीं साम्य आ जाता है।

दिन धीरे धीरे बढ़ता है, नदी उसी साम्य को खींचते खींचते वापस सागर तट तक ले आती है और साथ ही ले आती है वह खारापन जिसे रात में सागर उसे सौंप गया था। साथ में सौंप जाती है जल के उस भाव को जो रात भर ठहरा रहा, सहमा सा। यह क्रम चलता रहता है, हर दिन, हर रात। नदी सागर हो जाती है और पुनः नदी के अतिक्रमण में लग जाती है। सागर को वर्ष भर लगता है, वाष्पित होकर बरसने में, पहाड़ों के बीच अपना स्थान ढूढ़ने में, छोटी धार से हो नदी बनने में और पुनः सागर में मिल जाने में।

नदी और सागर के रूप में प्रकृति की ये अठखेलियाँ हमें भले ही खेल सी लगती हों पर इनमें ही प्रकृति का मन्तव्य छिपा हुआ है। सागर और नदी को लगता है कि हम दोनों का संबंध नियत है, एक को जाकर दूसरे में मिल जाना है। उन्हें लगता है कि वे दो अकेले हैं जगत में। उन्हें लगता है कि उनके बीच एक साम्य है, संतुलन है, जो स्थिर है एक स्थान पर। उन्हें लगता है कि सागर और नदी का जो संबंध होना चाहिये, उसमें किसी और को क्या आपत्ति हो सकती है। नदी और सागर पर यह भूल जाते हैं कि प्रकृति कहाँ स्थितियों को स्थिर रहने देती हैं, उसने दोनों का जीवन उथल पुथलमय बनाये रखने के लिये चाँद बनाया, हर दिन उसके कारण ही ऐसा लगता है कि नदी और सागर एक दूसरे की सीमाओं का अतिक्रमण कर रहे हैं। यही नहीं, प्रकृति ने सूरज भी बनाया, केवल इसलिये कि सागर अपने मद में, खारेपन में मत्त न बना रहे, वाष्पित होकर बरसे, नदी बने।

प्रकृति के सिखाने के ढंग बड़े सरल हैं, समझना हम लोगों को ही है कि हम कितना समझ पाते हैं। प्रकृति हमें स्थिर न रहने देगी, कितना भी चाह लें हम, चाँद से संचालित मन कोई न कोई उथल पुथल मचाता ही रहेगा। यह भी सच है कि प्रकृति हमें अपनी सीमायें अतिक्रमण भी न करने देगी, कितने भी भाग्यशाली या शक्तिशाली अनुभव करें हम। आदेश कहने वाला कभी आदेश सहने की स्थिति में भी आयेगा, प्रकृति के पास पाँसा पलटने के सारे गुर हैं। सागर से धरती का मिलन होता है तो रेत के किनारे निर्मित हो जाते हैं, सारे पाथर चकनाचूर हो जाते हैं। सागर का अपनी सहधर्मी नदी से मिलन होता है तो सीमाओं का खेल चलता रहता है। सागर का आकाश से मिलन होता है तो अनन्त निर्मित हो जाता है।

प्रकृति को किसी भौतिक नियम से संचालित मानने वाले प्रकृति की विशालता को न समझ पाते हैं और न ही उसे स्वीकार कर पाते हैं। प्रकृति में सौन्दर्य है, गति है, अनुशासन है और क्रोध भी। हम तो हर रूप में जाकर हर बार खो जाते हैं। देखते देखते सागर और धरती का मिलन सागर की ओर आगे बढ़ जाता है। दोनों अपनी अठखेलियों में मगन हैं, प्रकृति भी दूर खड़ी मुस्करा रही है। हम सब यह देख कभी विस्मित होते हैं, कभी प्रसन्नचित्त। बस नदी की तरह प्रकृति में झूम जाने का मन करता है, आनन्दमय प्रकृति में।

8.8.12

कामना-वह्नि की शिखा

उर्वशी को व्यक्त कर पाना बड़ा ही दुविधा से भरा था मेरे लिये, लिखूँ कि न लिखूँ? यदि नहीं लिखता हूँ तो उर्वशीकथा में केवल नर पक्ष रखने का आक्षेप सहता हूँ, और यदि लिखता हूँ तो इस विषय में अपनी अनुभवहीनता प्रसारित करता हूँ। अनुभवहीनता इसलिये कि बिना नारी हुये 'कामना-वह्रि की शिखा' जैसा विषय समझा ही नहीं जा सकता है। यह जानता हूँ कि न्याय नहीं कर पाऊँगा और अन्ततः बात नारी के बारे में नर के दृष्टिकोण तक ही सीमित रह जायेगी। दुविधा जब भी लिखने या न लिखने की होगी, मैं तो लेखन को ही चुनूँगा, थोड़ी राह दिनकर दिखायेंगे, थोड़ी राह आप लोग।

दिनकर की दी उपमाओं में बस यही एक उपमा नारी के प्रति मेरी समझ के निकटतम है। अर्थ है, कामना की अग्नि की शिखा, लहराती लपटों के सम्मोहन जैसी, अनवरुद्ध, अप्रतिहत, दुर्निवार। नारी को समझा जा सकता है, पर क्या करूँ, उसकी उपमा अग्नि की लपट से की गयी है, जो शीर्ष पर उन्मत्त तो लहराती है, पर कभी स्थिर नहीं रहती है। उसे पकड़ने के प्रयास व्यर्थ हैं, उसे पकड़ेंगे, वह छिटक कर दूर लहराने लगेगी। आग की लपटों से घिरा यह अंगार तो बस तभी पढ़ा जा सकता है जब वह अपनी लपटें समेट अपना हृदय खोले। नारी के हृदय की साँकल बाहर से नहीं खोली जा सकती है, उसका तो द्वार बस अन्तःपुर से खुलता है। उसका हृदय बलपूर्वक खोलने का प्रयास करने वाले, अग्नि की उस लपट का सौन्दर्य नहीं लख पाते हैं, उनके हाथ बस शीत शरीर की राख पड़ती है, मूल्यहीन, मूर्तहीन, प्राणहीन, तत्वहीन।

बहुत लिखा गया है और उससे भी अधिक समझा गया है यह विषय, पर जब उर्वशी अपना परिचय स्वयं देती है तो देहभाव और तद्जनित अाकर्षण क्षीण पड़ने लगता है। दिनकर ने उर्वशी के माध्यम से उन सारी भावनाओं और उत्कण्ठाओं को प्रस्तुत किया है जो नारी को सृष्टि में अतिविशिष्ट स्थान दे देती हैं, वह स्थान जिसके चतुर्दिक प्रकृति अपना ताना बाना बुनने में सक्षम हो पाती है। उर्वशी ने प्रेयसी के रूप में ही स्वयं को व्यक्त किया है अतः चर्चा उसी रूप तक सीमित रह पायेगी। नारी को देह तक समझ पाने वाले संभवतः वह स्वरूप न समझ पायें पर नारीत्व की थोड़ी गहन अभिव्यक्ति में वे सब किरणें किसी जल की सतह पर नाचती हुयी सी दिखती हैं।

उर्वशी कहती है कि नारी का उद्भव समस्त जगत की इच्छाओं की परिणति है, एक ऐसा उपहार है जिसके सानिध्य में इच्छाओं को तृप्ति का वरदान मिलता है। विज्ञान इस बात को मानेगा नहीं, उसकी दृष्टि में तो नर, नारी और उनके बीच का आकर्षण, सब के सब परमाणुओं की करोड़ों वर्षों की उछलकूद से बने हैं। विज्ञान को इस विषय में किसी नियत कारण की उपस्थिति नहीं दिखती है। जैसे भी यह स्थिति पहुँची हो, पर सृष्टि के चक्र का मूलभूत कारण उर्वशी के इसी वाक्य में छिपा है। रूप, रंग, रस और गंध के जितने भी स्रोत हैं, जितने भी आकार हैं, नारी को उन सब के साथ संबद्ध किया जा सकता है। क्या रहस्य है, जानने के प्रयास रहस्य सुलझाते कम है, रहस्य को गहरा कर जाते हैं, थक कर नर बैठ जाता है, काश कामना-वह्नि की शिखा स्थिर हो जाये, स्वयं को व्यक्त कर दे, स्वयं को सुलझा दे।

फेनभरी सर्पिल लहरों के शिखर पर नाचती झलमल है नारी, पूर्णिमा चाँदनी की तरंगित आभा है नारी, अम्बर में उड़ती हुयी मुक्त आनन्द शिखा है नारी, सौन्दर्य की गतिमान छटा है नारी। जब नर का हृदय अपनी अग्नि से भर आता है तो उस कामना-तरंग से खिंची हुयी नारी कल्पना लोक से भूमि पर उतर आती है, नर के सर को अपने उर में रखकर उसके भीतर की अग्नि को अश्रु बना बहाने के लिये, उसे उद्विग्नता से उबारने के लिये। बर्बर, निर्मम, हिंस्र, मदमत, सब के सब अपना स्वभाव भूल नारी के सामने निरीह हो जाते हैं, जगत जीतने वाले स्वयं को हार जाने को तत्पर रहते हैं, झुकना सीख जाते हैं। नारी उर एक विस्तृत सिन्धु के बीच आश्रय का छोटा सा द्वीप सा है, जहाँ थकान की सारे पथ आ विश्राम पाना चाहते हैं। नर के हृदय में देवों से अधिक नारी पूजी जाती है। साहित्य संगीत और कला में भी नर की यही आतुरता ही उभर उभरकर  छलकती है।

नारी का परिचय या तो वह दे सकता है जिसने प्रकृति रची, या वह इच्छायें दे सकती हैं जो उस पर आश्रय पाती हैं। नारी अपने प्रभुत्व को धरती से जकड़ कर रखती है, प्रकृति के सर्वाधिक निकट है नारी का अस्तित्व, प्रकृति की गतिमयता का आधार है नारी। यदि उद्भव सिद्ध न कर पायें, तो नारी तत्व की अनुपस्थिति की कल्पना मात्र कर लें हम, सब का सब जगत ध्वस्त सा दिखायी पड़ता है तब।

अजब बात है, विश्व के दो प्रमुख नियामक, धर्म और विज्ञान इस आकर्षण को समझ सकने में अक्षम हैं। एक तो इसे हारमोन्स जैसे निर्जीव तत्वों पर ठेल कर निकल लेता है। हारमोन्स यदि इस आकर्षण को परिभाषित करने लगें, मानव मन का निष्प्रायोजनीय उत्पीड़न क्यों? हारमोन्स यदि नर की अग्नि को परिभाषित करने लगें, तो इतना संघर्ष क्यों? हो सकता है कि कोई औषधि मन की चेतना को थोड़े समय के लिये अवरुद्ध कर दे, पर मन में भाव कभी मिटता नहीं है, रह रहकर उमड़ता है। यही लगता है कि यह आकर्षण प्रकृति के आवश्यक और मूलभूत तत्वों में एक है, या कहें कि प्रमुखतम है। वहीं दूसरी ओर धर्म में भी या तो नारी को चिर आश्रिता माना गया है या मार्ग में बाधक। न वह शक्ति में श्रेष्ठ, न ही अध्यात्म में। विडम्बना है, किनारे  प्रवाह के बारे में निर्णय सुनाते हैं और हम मूढ़ की तरह उन्हें सच मान बैठते हैं। प्रवाह को समझा नहीं, स्वतन्त्र दृष्टि से जाना नहीं, तो कैसे नियम और कैसे निर्णय?

प्रकृति चतुर है, अपने संचालन के तत्व उद्धाटित नहीं करती है। नर की अग्नि जगत को मथती है, नर की अग्नि को नारी नियन्त्रित करती है, नारी को प्रकृति ने तब किन गुणों से सुसज्जित कर रखा है, इस बारे में पुरुरवा जैसे नर भी भ्रमित ही रहते हैं, लहराती लपटों के सम्मोहन में अस्थिर, आश्रित और अकुलाये, चिर काल से चिर काल तक।

नारी प्रकृति का विजयनाद है।

30.7.11

बिजली फूँकते चलो, ज्ञान बाटते चलो

सूर्य पृथ्वी के ऊर्जा-चक्र का स्रोत है, हमारी गतिशीलता का मूल कहीं न कहीं सूर्य से प्राप्त ऊष्मा में ही छिपा है, इस तथ्य से परिचित पूर्वज अपने पोषण का श्रेय सूर्य को देते हुये उसे देवतातुल्य मानते थे, संस्कृतियों की श्रंखलायें इसका प्रमाण प्रस्तुत करती हैं।

पूर्वजों ने सूर्य से प्राप्त ऊर्जा को बड़े ही सरल और प्राकृतिक ढंग से उपयोग किया, गोबर के उपलों व सूखी लकड़ी से ईंधन, जलप्रवाह से पनचक्कियाँ, पशुओं पर आधारित जीवन यापन, कृषि और यातायात। अन्य कार्यों में शारीरिक श्रम, पुष्ट भोजन और प्राकृतिक जीवन शैली।

संभवतः मानव को ऊर्जा को भिन्न भिन्न रूपों में उपयोग में लाना स्वीकार नहीं था। जिस प्रकार आर्थिक प्रवाह में वस्तु-विनिमय की सरल प्रक्रिया से निकल कई तरह की मुद्राओं चलन प्रारम्भ हो गया, लगभग हर वस्तु और सेवा का मूल्य निश्चित हो गया, उसी प्रकार प्राकृतिक जीवन शैली के हर क्रिया कलाप को बिजली पर आधारित कर दिया गया, हर कार्य के लिये यन्त्र और उसे चलाने के लिये बिजली।

बिजली बनने लगी, बाँधों से, कोयले से, बन के तारों से बहने लगी, बिकने भी लगी, मूल्य भी निश्चित हो गया। जिसकी कभी उपस्थिति नहीं थी मानव सभ्यता में, उसकी कमी होने लगी। संसाधनो का और दोहन होने लगा, धरती गरमाने लगी, हर कार्य में प्रयुक्त ऊर्जा की कार्बन मात्रा निकाली जाने लगी। पर्यावरण-जागरण के नगाड़े बजने लगे।

जागरूक नागरिकों पर जागरण की नादों का प्रभाव अधिक पड़ता है, हम भी प्रभावित व्यक्तियों के समूह में जुड़ गये। बचपन में कुछ भी न व्यर्थ करने के संस्कार मिले थे पर बिजली के विषय में संवेदनशीलता सदा ही अपने अधिकतम बिन्दु पर मँडराने लगती है। घर में बहुधा बिजली के स्विच बन्द करने का कार्य हम ही करते रहते हैं। डेस्कटॉप के सारे कार्य लैपटॉप पर, लैपटॉप के बहुत कार्य मोबाइल पर, थोड़ी थोड़ी बचत करते करते लगने लगा कि कार्बन के पहाड़ संचित कर लिये।

ऊर्जा का मूल फिर भी सूर्य ही रहा। अपने नये कार्यालय में एक बड़ी सी खिड़की पाकर उस मूलस्रोत के प्रति आकर्षण जाग उठा। स्थान में थोड़ा बदलाव किया, अपने बैठने के स्थान को खिड़की के पास ले जाने पर पाया कि खिड़की से आने वाला प्रकाश पर्याप्त है। अब कार्यालय के समय में कोई ट्यूब लाइट इत्यादि नहीं जलती है हमारे कक्ष में, बस प्राकृतिक सूर्य-प्रकाश। कार्यों के बीच के क्षण उस खिड़की से बाहर दिखती हरियाली निहारने में बीतते हैं। बंगलोर से वर्षा को विशेष लगाव है, जब जमकर फुहारें बरसती हैं तो खिड़की खोलकर वातावरण का सोंधापन निर्बाध आने देता हूँ अपने कक्ष में। एक छोटे से प्रयोग से न केवल मेरा मन संतुष्ट हुआ वरन हमारे विद्युत अभियन्ता भी ऊर्जा संरक्षण के इस प्रयास पर अपनी प्रसन्नता व्यक्त कर गये।
विकास के नाम पर आविष्कार करते करते हम यह भूल गये हैं कि हमारी आवश्यकतायें तो कब की पूरी हो चुकी हैं । इतनी सुविधा हर ओर फैली है कि दिनभर बिना शरीर हिलाये भी रहा जा सकता है। घर में ऊर्जा चूसने वाले उपकरणों को देखने से यह लगता है कि बिना उनके भी जीवन था और सुन्दर था। तनिक सोचिये,

माचिस के डब्बों से घर बना दिये हैं, उन्हें दिन में प्रकाशमय, गर्मियों में ठंडा और शीत में गर्म रखने के लिये ढेरों बिजली फूँकनी पड़ती है।

निशाचरी आदतें डाल ली हैं, रात में बिजली बहाकर दिन बनाते हैं और दिन में आँख बन्द किये हुये अपनी रात बनाये रखते हैं।

विकास बड़े शहरों तक ही सीमित कर दिया है, आने जाने में वाहन टनों ऊर्जा बहा रहे हैं।

ताजा भोजन छोड़कर बासी खाना प्रारम्भ कर दिया है और बासी को सुरक्षित रखने में फ्रिज बिजली फूँक रहा है, उसे पुनः गरम करने के लिये माइक्रोवेव ओवेन।

क्या विषय ले बैठा? जस्ट चिल। बिजली फूँकते चलो, ज्ञान बाटते चलो। 

23.7.11

तोड़ महलिया बना रहे

उन्मादित सब जीव, वृक्ष भी,
अन्तरमन भी और दृश्य भी,
एक व्यवस्था परिचायक है,
अह्लादित हैं ईश, भक्त भी,

रहें विविध सब, पर मिल रहतीं,
भाँति भाँति की संरचनायें,
एक सृष्टि बन उतरी, फैलीं,
परम ईश की विविध विधायें,

नहीं अधिक है, नहीं कहीं कम,
जितनी जीवन को आवश्यक,
सहज रूप में स्वतः प्राप्त सब,
प्रकृति पालती रहे मातृवत,

धरती माँ सी, रहती तत्पर,
वन, नद, खनिज अपार सजी है,
तरह तरह के पशु पक्षी हैं,
पुष्प, वृक्ष, फल, शाक सभी हैं,

महासंतुलन सब अंगों में,
एक दूजे के प्रेरक, पूरक,
रहें परस्पर सुख से बढ़ते,
सब जीते हैं औरों के हित,

मानव ने पर अंधेपन में,
अपनी तृष्णा का घट भरने,
सकल प्रकृति को साधन समझा,
ढाये अत्याचार घिनौने,

संकेतों से प्रकृति बोलती,
समझो और स्वीकार करो,
जितने अंग विदेह किये हैं,
प्रकृति अंक में पुनः भरो,

देखो सब है प्राप्त, पिपासा-फन क्यों फैले?
सम्मिलित सभी सृष्टि में, फिर क्यों दंश विषैले?
किसकी बलि पर किसका बल हम बढ़ा रहे?
एक नगर था, तोड़ महलिया बना रहे ।

18.5.11

वह बरसात और हमारे कर्म

दोपहर है और जोर का पानी बरस रहा है, सड़कों पर अनवरत पानी बह रहा है। वैसे तो सायं होते ही बंगलोर का मौसम ऐसे ही सड़कों की सफाई करने उतर आता है, आज अधिक कार्य निपटाना है अतः सवेग आया है और वह भी समय से पहले। सहसा सड़कें अधिक चौड़ी लगने लगती हैं। पैदल चलने वाले दुकानों के अन्दर खड़े मुलकते हैं, कोई चाय पी रहा है, कोई सिगरेट। दुपहिया वाहन भी सरक लेते हैं किसी आश्रय को ढूढ़ने जहाँ झमाझम बरसती बूँदों के प्रकोप से बचा जा सके। अब सड़क पर चौपहिया वाहन सीना चौड़ाकर बढ़े जा रहे हैं, निरीक्षण के लिये जाना है, लगता है आज शीघ्र पहुँच जायेंगे।

यह सब होने पर भी एक जगह ट्रैफिक की गति लगभग शून्य सी हो जाती है, कारण समझ नहीं आता है। धीरे धीरे गाड़ी आगे बढ़ती है तो पता लगता है सड़क पर दो फुट गहरा पानी भरा हुआ है, पानी का स्तर थोड़ा कम होता तो ट्रैफिक थोड़ा आगे सरकता। पैदलों और दुपहिया वाहनों के न चलने से उपजी गतिमयी आशा क्षुब्ध निराशा में बदल गयी थी।

देखा जाये तो भौगोलिक दृष्टि से बंगलोर समतल शहर नहीं है, जलभराव की समस्या होनी ही नहीं चाहिये, शहर को साफ कर वर्षा के जल को सहज ही बह जाना चाहिये। पुराने निवासियों से पता लगा कि पहले यह समस्या कभी नहीं रहती थी, सड़के सदा ही स्वच्छ और धूल रहित रहती थीं। सारा का सारा वर्षाजल सौ से अधिक जलाशयों में ससम्मान पहुँच जाता था, कहीं निकट आश्रय मिल ही जाता था। आजकल कुछ बड़ी झीलों को छोड़ दें तो शेष जलाशय विकास की भेंट चढ़ गये हैं, अब वर्षाजल सड़कों पर मारा मारा फिर रहा है।

मनुष्य ने विकासीय-बुखार में जंगल से पशुओं व वृक्षों को बाहर लखेद दिया, अब शहर के जलाशयों से जल को लखेदने का प्रयास चल रहे हैं। पशु निरीह थे, वृक्ष स्थूल थे, उन्होने हार मान ली और पुनः लौटकर नहीं आये और न ही विरोध व्यक्त किया। इन्द्र का संस्पर्श लिये जल न तो हार मानता है और न ही अपने सिद्धान्त बदलता है। कैसे भी हो अपने लिये समुचित आश्रय ढूढ़ ही लेता है। यदि आप जलाशय पाट देंगे तो वह आकर सड़क पर फैला रहेगा, आप कितना भी खीझ लें अपनी भव्य गाड़ियों में बैठकर, विकास का प्रतिमान बनी सड़कों को जलभराव से छुटकारा मिलने वाला नहीं है। जल इसी प्रकार अपना विरोध व्यक्त करता रहेगा।

मुझे लगा जल अपना क्रोध व्यक्त कर बह जायेगा पर अपना पुराना कर्म तो निभायेगा, शहर को स्वच्छ करने का। निरीक्षण कर के लगभग तीन घंटे बाद जब उसी रास्ते से वापस जाता हूँ तो सड़क के किनारे कीचड़ सा पड़ा मिला, लगभग हर जगह। हम अपने गर्व में जल का सम्मान भूल गये तो जल भी न केवल अपना कर्म भूला वरन उल्टा एक संदेश छोड़ गया। जो जल पहले शहर की सड़कों को स्वच्छ कर जाता था, आज अपने विरोध स्वरूप उन्ही सड़कों को गन्दा करके चला गया है, हमारी विकास की नासमझी और अन्ध-लोलुपता पर करारा तमाचा मारकर।

कहाँ एक ओर मंच तैयार था, झमाझम वर्षा का समुचित आनन्द उठाने का, मदमाती बूँदों की धुंधभरी फुहारों पर छंद लिखने का, एक गहरी साँस भरकर प्राकृतिक पवित्रता को अपने अन्दर भर लेने का, पर आज पहली बार वर्षा रुला गयी, हमारे कर्म हमें ढंग से समझा गयी।