28.6.14

व्यर्थ ही

शान्त, तृप्त, कर्मालु, व्यवस्थित,
मन की मृगतृष्णा से दूर ।
ऐसा एक व्यक्तित्व जगा लूँ,
अब तो मेरा ध्येय यही है ।।१।।

व्यर्थ तृषा की बलिवेदी पर,
और समय का अर्पण करना ।
अन्त्य क्षुधा कर ले परिपूरित,
द्विजजन का सिद्धान्त यही है ।।२।।

व्यर्थ शब्द के मकर जाल मे,
जीवन का सारल्य फँसाना ।
शब्द-खोज तज अर्थ समझ ले,
न्यून श्रमेच्छुक मार्ग यही है ।।३।।

व्यर्थ कष्ट की आशंका से,
कर्म-पुण्य क्यों करूँ तिरोहित ।
स्वेद बिन्दु के उजले मोती,
जीवन का श्रृंगार यही है ।।४।।

व्यर्थ सुखों की अभिलाषा में,
अंधकूप में घुसते जाना ।
मदिरा का सुख छोड़ क्षणिक जो,
जीवन जल का पान सही है ।।५।।

18 comments:

  1. बेजोड़ अभिव्यक्ति
    सुन्दर रचना

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  2. काश देश के वर्तमान प्रधानमंत्री इस भावना को समझ पाते।

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    1. क्यों भाई ? केवल प्रधान मंत्री को ही क्यों? सभी मुख्य मंत्रियों, राज्यपालों, सांसदो, विधायको को क्यों नही?

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  3. सही बात ..... व्यर्थ की उलझने जाने कितनी ही .....

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  4. बेहतरीन रचना...

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  5. नयी पुरानी हलचल का प्रयास है कि इस सुंदर रचना को अधिक से अधिक लोग पढ़ें...
    जिससे रचना का संदेश सभी तक पहुंचे... इसी लिये आप की ये खूबसूरत रचना दिनांक 30/06/2014 को नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही है...हलचल में आप भी सादर आमंत्रित है...

    [चर्चाकार का नैतिक करतव्य है कि किसी की रचना लिंक करने से पूर्व वह उस रचना के रचनाकार को इस की सूचना अवश्य दे...]
    सादर...
    चर्चाकार कुलदीप ठाकुर
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  6. व्यर्थ कष्ट की आशंका से,
    कर्म-पुण्य क्यों करूँ तिरोहित ।
    स्वेद बिन्दु के उजले मोती,
    जीवन का श्रृंगार यही है ।।४।।
    ....वाह...बहुत सारगर्भित रचना...

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  7. सुन्दर प्रवाहमयी ओजस आह्वान

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  8. वाह! क्या बात कही है!!!

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  9. प्रवाहमयी सुन्दर सारगर्भित रचना...

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  10. प्रवाहमई रचना .....सुंदर सारगर्भित भाव ....!!

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  11. बहुत सुन्दर सारगर्भित शब्द-सज्जित रचना !
    उम्मीदों की डोली !

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  12. चिन्तन अध्यात्म की ओर बढ़ रहा है।

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  13. व्यर्थ सुखों की अभिलाषा में,
    अंधकूप में घुसते जाना ।
    मदिरा का सुख छोड़ क्षणिक जो,
    जीवन जल का पान सही है ......बहुत सुन्दर......

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  14. व्यर्थ सुखों की अभिलाषा में
    अंधकूप में घुसते जाना ....
    वैराग्य में जीवन अथवा जीवन में वैराग्य का संतुलन बनाये रखने को प्रेरित करती प्रवाहमय रचना !

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  15. व्यर्थ कष्ट की आशंका से,
    कर्म-पुण्य क्यों करूँ तिरोहित ।
    स्वेद बिन्दु के उजले मोती,
    जीवन का श्रृंगार यही है ..
    वाह .. सुन्दर प्रवाहमय काव्य .. मन के कलुष को मिटाता प्रेरित करगा ... अग्रसर करता भाव ...

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  16. बिल्कुल सहमत हूँ। जीवन का श्रृंगार यही है।

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  17. व्‍यर्थ तो है ही सब कुछ यह सोचकर कि एकदिन सबने प्राणशून्‍य हो जाना है।

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