जीवन के प्रथम दशक में हमारी भाषा, परिवेश का ज्ञान, विचारों की श्रंखलायें आदि अपना आकार ग्रहण करते हैं। यह प्रक्रिया बड़ी ही स्पष्ट है, आकृतियाँ, ध्वनि और संबद्ध वस्तुयें मन में एक के बाद एक सजती जाती हैं। इन वर्षों में हमारी समझ जितनी गहरी होती, ज्ञान का आधार उतना ही सुदृढ़ बनता है। कभी सोचा है कि जब हम बच्चे को एक के स्थान पर दो भाषायें सिखाने लगते हैं, ज्ञान की नींव पर उसका क्या प्रभाव पढ़ता होगा?
यदि बचपन में हम एक भाषा के स्थान पर दो भाषाओं से लाद देते हैं तो जो ज्ञानार्जन करने में जो समय व मस्तिष्क लगना चाहिये वह अनुवाद करने में निकल जाता है। जब शब्द और उससे संबद्ध अर्थ सीखने का समय होता है तब मस्तिष्क आनुवादिक भ्रम में रहता है कि ज्ञान को किस प्रकार से ग्रहण किया जाये, हिन्दी में या अंग्रेजी में। ज्ञान के प्रवाह में एक स्तर और बढ़ जाने से श्रम बढ़ने लगता है और याद रखने की क्षमता भी आधी रह जाती है। जिस समय एक वस्तु के लिये एक शब्द होना था, एक शब्द सीखने के बाद शब्दों को संकलित कर वाक्य बनाने का समय था, उस समय हम अपना कार्य बढ़ाकर दूसरी भाषा में उसको अनुवाद करवा रहे होते हैं।
पता नहीं इस पर कभी कुछ विचार हुआ है कि नहीं कि नयी भाषा सीखने की सबसे उचित आयु कौन सी है। जब उसकी आवश्यकता पड़ती है तब तो लोग भाषा सीख ही लेते हैं और बहुत ही अच्छी सीखते हैं। यदि विज्ञान आदि पढ़ने के लिये अंग्रेजी सीखनी आवश्यक ही हो चले तो किस अवस्था में अंग्रेजी सीखनी प्रारम्भ करनी चाहिये? विकास की दौड़ में कोई भी पिछड़ना नहीं चाहता है, सबको लगता है अंग्रेजी बचपन से मस्तिष्क मे ठूँस देने से बच्चा सीधे ही अंग्रेजी बोलने लगेगा और कालान्तर में लॉट साहब बन जायेगा। लॉट साहब तो २०-२५ साल में ही बनते हैं, नौकरी भी उसी के बाद ही मिलती है। यह भी एक तथ्य है कि विकसित मस्तिष्क को अंग्रेजी सीखने में ३-४ वर्ष से अधिक समय नहीं लगता है। पर प्रारम्भ के तीन वर्ष जो जगत की समझ विकसित होती है, उसमें दूसरी भाषा ठूँस कर हम क्यों उसके भाषायी मानसिक आकारों को गुड़गोबर करने पर तुले हैं, किस आभासी लाभ के लिये यह व्यग्रता, क्यों यह मूढ़ता?
निम्हान्स के शोधकर्ताओं का भी मत है कि अधिक भाषायें सीखने से मस्तिष्क के सिकुड़ने का भय बना रहता है। हो सकता है कि अधिक भाषायें जान लेने से हम अधिक लोगों को जान पायें, भिन्न संस्कृतियों के विविध पर समझ पायें, पर गहराई में नीचे उतरने के लिये अपनी ही भाषा काम में आती है, शेष भाषा सामाजिकता की सतही आवश्यकतायें पूरी करती हुयी ही दिखती हैं, समझ विस्तारित तो होती है, गहरे उतरने से रह जाती है।
वहीं दूसरी ओर एक भाषा के माध्यम से देश की एकता की परिकल्पना करना भी भारत की विविधता को रास नहीं आया। भाषायी एकीकरण करने के लिये एक भाषा को अन्य पर थोपने के निष्कर्ष बड़े ही दुखमय रहे हैं, सबका अपनी भाषाओं के प्रति लगाव बढ़ा ही है, कम नहीं हुआ। अपितु थोपी जाने वाली भाषा के प्रति दुर्भाव बढ़ा ही है। राज्यों की सीमाओं को भाषायी आधार पर नियत होने में यह भी एक कारण रहा होगा। भाषायें अलगाव का प्रतीक बन गयीं, सबके अपने अस्तित्व का प्रमाण बन गयीं।
होना यह चाहिये था कि भाषाओं के बीच सेतुबन्ध निर्मित होने थे। भारत में एक ऐसा महाविद्यालय होता जहाँ पर सभी भारतीय भाषाओं के साहित्य को संरक्षित और पल्लवित करने का अवसर मिलता। सभी भाषाओं के भाषाविद बैठकर अपनी भाषा के प्रभावी पक्षों को उजागर करते, साथ ही साथ अन्य भाषाओं के सुन्दर पक्षों को अपनी भाषा में लेकर आते। अनुवाद का कार्य होता वहाँ पर, संस्कृतियों में एकरूपता आती वहाँ पर। वहाँ पर एक भाषा से दूसरी भाषाओं में अनुवाद की सैद्धान्तिक रूपरेखा बनायी जाती, और यही नहीं, भारतीय भाषाओं को विश्व की अन्य भाषाओं से जोड़ने का कार्य होता।
होना यह चाहिये था कि हर भाषा का एक विश्वविद्यालय उस भाषा बोलने वाले राज्य की राजधानी में रहता, उस भाषा को केन्द्र में रखकर अन्य भाषाभाषियों को उस भाषा का कार्यकारी ज्ञान देने की प्रक्रियायें और पाठ्यक्रम निर्धारित किये जाते।
होना यह चाहिये था कि हर उस नगर में जहाँ पर बाहर के लोग कार्य करने आते हैं, एक भाषा विद्यालय होता जहाँ पर उन्हें वहाँ की स्थानीय भाषा आवश्यकतानुसार सिखायी जाती। जिनको समय हो उन्हें दिन में और जिनको समय न हो, उन्हें सायं या रात को। जब आसाम का कोई व्यक्ति कर्नाटक में आईएएस में चयनित होकर आता है, उसे कन्नड़ का पूरा ज्ञान दिया जाता है। उसे यह ज्ञान बहुत गहरा इसलिये दिया जाता है क्योंकि उसे राज्य के अन्दर तक जाकर स्थानीय लोगों की भाषा का निवारण करना पड़ता है। सबकी आवश्यकता इतनी वृहद नहीं हो सकती और उनका पाठ्यक्रम उसी के अनुसार कम या अधिक किया जा सकता है।
जहाँ हमारे संपर्क बिन्दु दो परस्पर भाषायें होनी थीं, किसी व्यवस्थित भाषायी प्रारूप के आभार में वह सिकुड़ कर अंग्रेजी मान्य होते जा रहे हैं। अब कितने प्रतिशत व्यक्ति जाकर विदेशों में कार्य करेंगे, जो करेंगे तो वे सीख भी लेंगे और वे सीखते भी हैं। अंग्रेजी ही क्यों आवश्यक हुआ तो चाइनीज़ या मंगोलियन भी सीख लेंगे। पर अंग्रेजी पर आवश्यक महत्व बढ़ाकर हम न केवल अपने नौनिहालों के मानसिक विकास में बाधा बने जा रहे हैं वरन अपनी भारतीय भाषाओं को भूलते जा रहे हैं। जहाँ भी किसी से संवाद की आवश्यकता होती है, लपक कर अंग्रेजी की वैशाखियों पर सवार हो लेते हैं।
जहाँ पर हमें भारतीय भाषाओं के मध्य सेतुबन्ध स्थापित करने थे और अपने देश में करने थे, उनका निर्माण करने के स्थान पर हम अपनी राह इंग्लैण्ड और अमेरिका जाकर बनाने लगते हैं। जहाँ बचपन में एक ही भाषा सिखानी चाहिये, दो दो भाषायें सिखाने लगते हैं। देश में एकता के सूत्र स्थापित करने के लिये एक भाषा थोपने की योजना बनाने लगते हैं।
भारतीय भाषायें यहाँ के जनमानस से सतही रूप से नहीं चिपकी हुयी हैं वरन उसकी जड़ें सांस्कृतिक और धार्मिक पक्षों को छूती हैं। उसे भूल जाने को कहना या उसका प्रयत्न भी करना दुखदायी रहा है, ऐसे ही असफल रहेगा और कटुता भी उत्पन्न करेगा। आपस में बात करने के लिये यदि हमें अंग्रेजी जैसी किसी मध्यस्थ भाषा की सहायता लेनी पड़े तब भी यह हमारे लिये लज्जा का विषय है। सब भाषाओं के प्रति पारस्परिक सम्मान का भाव व तदानुसार सेतुबन्ध बनाने के प्रयास ही भारत का भविष्य है। सेतुबन्ध न केवल हम सबको जोड़कर रखेगा वरन एक मार्ग भी बतायेगा जिससे नदी के दोनों ओर रहने वाले जन उसी एक जल से अपनी आर्थिक़, मानसिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक समरसता सींच सकें।
किस भाषा को किधर रखूँ मैं |
पता नहीं इस पर कभी कुछ विचार हुआ है कि नहीं कि नयी भाषा सीखने की सबसे उचित आयु कौन सी है। जब उसकी आवश्यकता पड़ती है तब तो लोग भाषा सीख ही लेते हैं और बहुत ही अच्छी सीखते हैं। यदि विज्ञान आदि पढ़ने के लिये अंग्रेजी सीखनी आवश्यक ही हो चले तो किस अवस्था में अंग्रेजी सीखनी प्रारम्भ करनी चाहिये? विकास की दौड़ में कोई भी पिछड़ना नहीं चाहता है, सबको लगता है अंग्रेजी बचपन से मस्तिष्क मे ठूँस देने से बच्चा सीधे ही अंग्रेजी बोलने लगेगा और कालान्तर में लॉट साहब बन जायेगा। लॉट साहब तो २०-२५ साल में ही बनते हैं, नौकरी भी उसी के बाद ही मिलती है। यह भी एक तथ्य है कि विकसित मस्तिष्क को अंग्रेजी सीखने में ३-४ वर्ष से अधिक समय नहीं लगता है। पर प्रारम्भ के तीन वर्ष जो जगत की समझ विकसित होती है, उसमें दूसरी भाषा ठूँस कर हम क्यों उसके भाषायी मानसिक आकारों को गुड़गोबर करने पर तुले हैं, किस आभासी लाभ के लिये यह व्यग्रता, क्यों यह मूढ़ता?
निम्हान्स के शोधकर्ताओं का भी मत है कि अधिक भाषायें सीखने से मस्तिष्क के सिकुड़ने का भय बना रहता है। हो सकता है कि अधिक भाषायें जान लेने से हम अधिक लोगों को जान पायें, भिन्न संस्कृतियों के विविध पर समझ पायें, पर गहराई में नीचे उतरने के लिये अपनी ही भाषा काम में आती है, शेष भाषा सामाजिकता की सतही आवश्यकतायें पूरी करती हुयी ही दिखती हैं, समझ विस्तारित तो होती है, गहरे उतरने से रह जाती है।
वहीं दूसरी ओर एक भाषा के माध्यम से देश की एकता की परिकल्पना करना भी भारत की विविधता को रास नहीं आया। भाषायी एकीकरण करने के लिये एक भाषा को अन्य पर थोपने के निष्कर्ष बड़े ही दुखमय रहे हैं, सबका अपनी भाषाओं के प्रति लगाव बढ़ा ही है, कम नहीं हुआ। अपितु थोपी जाने वाली भाषा के प्रति दुर्भाव बढ़ा ही है। राज्यों की सीमाओं को भाषायी आधार पर नियत होने में यह भी एक कारण रहा होगा। भाषायें अलगाव का प्रतीक बन गयीं, सबके अपने अस्तित्व का प्रमाण बन गयीं।
होना यह चाहिये था कि भाषाओं के बीच सेतुबन्ध निर्मित होने थे। भारत में एक ऐसा महाविद्यालय होता जहाँ पर सभी भारतीय भाषाओं के साहित्य को संरक्षित और पल्लवित करने का अवसर मिलता। सभी भाषाओं के भाषाविद बैठकर अपनी भाषा के प्रभावी पक्षों को उजागर करते, साथ ही साथ अन्य भाषाओं के सुन्दर पक्षों को अपनी भाषा में लेकर आते। अनुवाद का कार्य होता वहाँ पर, संस्कृतियों में एकरूपता आती वहाँ पर। वहाँ पर एक भाषा से दूसरी भाषाओं में अनुवाद की सैद्धान्तिक रूपरेखा बनायी जाती, और यही नहीं, भारतीय भाषाओं को विश्व की अन्य भाषाओं से जोड़ने का कार्य होता।
होना यह चाहिये था कि हर भाषा का एक विश्वविद्यालय उस भाषा बोलने वाले राज्य की राजधानी में रहता, उस भाषा को केन्द्र में रखकर अन्य भाषाभाषियों को उस भाषा का कार्यकारी ज्ञान देने की प्रक्रियायें और पाठ्यक्रम निर्धारित किये जाते।
विश्व से जुड़ना भी हो |
जहाँ हमारे संपर्क बिन्दु दो परस्पर भाषायें होनी थीं, किसी व्यवस्थित भाषायी प्रारूप के आभार में वह सिकुड़ कर अंग्रेजी मान्य होते जा रहे हैं। अब कितने प्रतिशत व्यक्ति जाकर विदेशों में कार्य करेंगे, जो करेंगे तो वे सीख भी लेंगे और वे सीखते भी हैं। अंग्रेजी ही क्यों आवश्यक हुआ तो चाइनीज़ या मंगोलियन भी सीख लेंगे। पर अंग्रेजी पर आवश्यक महत्व बढ़ाकर हम न केवल अपने नौनिहालों के मानसिक विकास में बाधा बने जा रहे हैं वरन अपनी भारतीय भाषाओं को भूलते जा रहे हैं। जहाँ भी किसी से संवाद की आवश्यकता होती है, लपक कर अंग्रेजी की वैशाखियों पर सवार हो लेते हैं।
जहाँ पर हमें भारतीय भाषाओं के मध्य सेतुबन्ध स्थापित करने थे और अपने देश में करने थे, उनका निर्माण करने के स्थान पर हम अपनी राह इंग्लैण्ड और अमेरिका जाकर बनाने लगते हैं। जहाँ बचपन में एक ही भाषा सिखानी चाहिये, दो दो भाषायें सिखाने लगते हैं। देश में एकता के सूत्र स्थापित करने के लिये एक भाषा थोपने की योजना बनाने लगते हैं।
भारतीय भाषायें यहाँ के जनमानस से सतही रूप से नहीं चिपकी हुयी हैं वरन उसकी जड़ें सांस्कृतिक और धार्मिक पक्षों को छूती हैं। उसे भूल जाने को कहना या उसका प्रयत्न भी करना दुखदायी रहा है, ऐसे ही असफल रहेगा और कटुता भी उत्पन्न करेगा। आपस में बात करने के लिये यदि हमें अंग्रेजी जैसी किसी मध्यस्थ भाषा की सहायता लेनी पड़े तब भी यह हमारे लिये लज्जा का विषय है। सब भाषाओं के प्रति पारस्परिक सम्मान का भाव व तदानुसार सेतुबन्ध बनाने के प्रयास ही भारत का भविष्य है। सेतुबन्ध न केवल हम सबको जोड़कर रखेगा वरन एक मार्ग भी बतायेगा जिससे नदी के दोनों ओर रहने वाले जन उसी एक जल से अपनी आर्थिक़, मानसिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक समरसता सींच सकें।
बेहद आवश्यक विषय पर गंभीर लेखन सर। आज उम्र ५५ वर्ष पार कर गई है। लेकिन बचपन के मित्रो से उसी भाषा में आज भी बात करते हैं, जो कि बचपन में उनके साथ उनके साथ सीखी थी।
ReplyDeletebehad sarthak lekhan , hardik badhai ,aapki post par aana sadaiv sukhad hota hai , .
Deleteभाषा का मुद्दा भारत में बड़ा विकट है -यहाँ अनेक भाषायें हैं -यह तो निश्चित हैं कि जो भाषा किसी के जन्म की होती है ,मातृभाषा होती है उसमें अभिव्यक्ति सहज होती है - अंग्रेजी ने हमारी बौद्धिक संभावनाओं को विनष्ट किया है !
ReplyDeleteसुचिंतित भाषा चिंतन!
हम प्रथम दशक में ज्ञान अपनी मातृभाषा में सीखे यह महत्पूर्ण होगा //
ReplyDeleteनिम्हान्स के शोधकर्ताओं का भी मत है कि अधिक भाषायें सीखने से मस्तिष्क के सिकुड़ने का भय बना रहता है। ...मुझे इसमें दम नहीं दीखता ..mere bhi blog par aaye
आत्मीय हमारा है सम्प्रेषण शुभ-चिन्तक है सखा हमारा । घोर पराजय में भी जो देता रहता है साथ हमारा । कल्प- वृक्ष है यह सम्प्रेषण वाणी का रूप अगोचर है । मात्र वैखरी को हम जानें सम्प्रेषण परा सहोदर है । वर दे वीणा-पाणि नमन है वाणी का दे दो वरदान । सम्प्रेषण तेरा समझ में आए मति में आओ दे दो मान ।
ReplyDeleteपता नहीं आखिर क्या मज़बूरी है कि हम ये समझाना नहीं चाहते .......
ReplyDeleteजाने अनजाने भाषाओँ का यूँ थोपा जाना कटुता का बड़ा कारण रहा है ...मानसिकता ही कुछ बन जाती है कि स्वीकार्यता की जगह नहीं बचती ..... आपके सुझाव प्रभावित करते हैं , पर हमारे यहाँ संभवतः इस विषय में सोचा ही नहीं गया
ReplyDelete"कोयल तुम बस कूकती रहना तुम्हें देख सब भाव पढेंगे । वाणी की है शक्ति अलौकिक विग्रह निज अनुरूप गढेंगे । शब्द बेचारे पडते बौने । भावों के हैं अनगिन छौने ।"
ReplyDeleteयहाँ कल मैं इस समस्या का सामना की
ReplyDeleteआज आप कर रहे होंगे
कल हमारे बच्चे भी शायद लड़े
हल कब निकलेगा
भाषाई समन्वय जरूरी है।
ReplyDeleteअच्छा आलेख, लेकिन वर्तमान में तो कहा जाता है कि बचपन में तीन भाषा बच्चे आसानी से सीख लेते हैं।
ReplyDeleteआपसे सहमत हूँ कि वह तीन भाषायें सीख सकता है, पर तीन भाषायें सीखने में जो उसे सीखना चाहिये, वह सीख नहीं पाता है, वह शब्दों के अनुवाद में ही खो कर रह जाता है। होना यह था कि जिस भाषा में भी सीखा जाता, प्रारम्भिक ज्ञान गहरा होना चाहिये। एक बार ज्ञान गहरा होगा तो नींव गहरी होगी। एक नयी भाषा सीखने में वयस्क को दो वर्ष से अधिक समय नहीं लगता है, हम उसका बूरा बचपन गुड़गोबर करने पर तुले हैं।
Deleteआपके भाषाई दृष्टिकोण से असहमति का कोई प्रश्न ही नहीं उठता है . मैं यहाँ एक और दृष्टिकोण दे रही हूँ जो वृजेश सिंह जी का है -------
ReplyDeleteदिल्ली में आजकर भारतीय भाषाओं के ऊपर एक कार्यक्रम हो रहा है. जिसमें भारतीय भाषाओं की विविधता का उत्सव मनाया जा रहा है. उसकी थीम है कि जुड़ती जुबाने और जोड़ती जुबाने. लेकिन कार्यक्रम का उद्घाटन करने वाले साहित्यकार ने कहा कि भाषा और बोलियां लोगों को जोड़ने की बजाय तोड़ने का ही काम करती हैं. उनकी बात काफी सच है. मुझे भी समारोह से एक सच्चाई का पता चला कि भारतीय भाषाओं का कोई भी समारोह और उत्सव बिना झगड़े के संपन्न नहीं हो सकता है. इस तरह की विमर्श की फसल काटने वालों को पता नहीं है कि आने वाली युवा पीढ़ी तमाम सवालों और मुद्दों से कट जाएगी. भाषा की कठिनता का सवाल भी उठा कि उसको कितना आसान और सरल बनाया जाय. ख़बरों की दुनिया तो सरलीकरण की ही दुनिया है. जहां आसान शब्दों में उलझी बातों को रखा जाता है तो कभी आसान बातों को उलझे शब्दों में सामने रखा जाता है. इस तरह से बाहरी दुनिया को भी देखने का सिलसिला जारी है.
मैं भाषा और बोली के ऊपर सोच रहा था कि यह झगड़ा कब खत्म होगा? क्या इस सवाल को कोई जवाब हो सकता है. इसके बाद दूसरा सवाल था कि भाषा की शुद्धता का सवाल कितना सही है? अगर यह सवाल सही है तो पंचमेल खिचड़ी बनाने की क्या जरूरत है. मुझे लगता है कि लोगों को स्वतंत्रता होनी चाहिए कि किसी भाषा से नमक सा चुटकी भर लें या मुट्ठी भर लें. एक परिवार के लोगों पर नमक और चीनी की चोरी आरोप नहीं लगाया जाना चाहिए. इस तरह के झगड़ों भाषा परिवार के सदस्यों, साथियों और भाषा के छाते के नीचे रहने वाली बोलियों को बड़ा नुकसान होता है. राजस्थानी वाले कह रहे हैं कि हमारी परंपरा और साहित्य समृद्ध है, हिंदी वाले हमें मिटा रहे हैं और हमें नीचे गिरा रहे हैं. उनका सवाल है कि कितने लोकगीत हिंदी में लिखे गए हैं. सवाल सही हो सकता है, लेकिन लोकगीतों को बचाने के लिए समय और समाज की गति को न तो अवरुद्ध किया जा सकता है और न मोड़ा जा सकता है.
एक बात बीच में छूट रही थी कि हिंदुस्तानी जुबान भारत के सभी लोगों विशेषकर हिंदी और उर्दू बोलने वाले लोगों को आपस में जोड़ सकती है. हमारे मीडिया के एक साथी बता रहे थे कि दक्षिण भारत की भाषा, बोली और मुद्दों की जानकारी के अभाव में हम वहाँ की खबरें नहीं चलाते. इससे वहाँ के लोगों को हमारी तरफ से भेदभाव का आभास होता है. दूसरी तरफ राजधानी में हिंदी बोली और भाषा के कारण मुख्यधारा की ख़बरों के लिए उनका हिंदी चैनल देखना मजबूरी भी है और जरूरी है. तीसरा एंगल सेना का था कि पूर्वोत्तर राज्यों में सेना के बूटों के दम पर शासन चलाया जा रहा है, ऐसे में अगर वहाँ की ख़बरों पर फ़ोकस किया जाता है तो सेना की भूमिका पर भी उंगुली उठ सकती है. इस कारण से भी मीडिया ऐसे मुद्दों को उठाने से बचता है. यही बात कश्मीर के साथ लागू होती है. पहली बार यह सुनकर हैरानी वाली बात लग सकती है, लेकिन वास्तव में अगर ग़ौर से देखें तो यही स्थिति नज़र आती है. लोकप्रिय प्रदेशों के मुद्दों और केंद्र वाली बहुत ज़रूरी हलचल तक हमारी पहुंच होती है. बाकी के मुद्दे और मसले अनदेखे रह जाते हैं.
मैं भाषाओं के सरलीकरण और उनके एकरूपीकरण से किंचित भी सहमत नहीं हूँ। यह एक सुविधाभोगी मानसिकता है जिसका आधार यह है कि ऐसा होने से संवाद सुविधाजनक हो जायेगा और देश तनिक और एकता में बँध जायेगा। यह आधार कितना सच है और बोलने वाली भाषा कितना जोड़ पाती है यह एक शोध का प्रश्न है और बहुधा निष्कर्ष प्रचारित तथ्यों से कहीं अलग पाये जाते हैं। भाषाओं में विकसित होने की प्रक्रिया निहित होती है और वह उस संस्कृति में निहित विचार प्रक्रिया को अपने में समाये रहती है। जटिलता विकास का संकेत है और जटिलता हटाने के प्रयास में हम भाषाओं का अहित कर देते हैं। संभवतः यही कारण रहा होगा कि जिसे हम जोड़ने का उपक्रम समझ रहे हैं, वह तोड़ने का सिद्ध हुआ जा रहा है।
Deleteभाषाओं को विकसित होने दें, उन्हें उस प्रक्रिया में सहयोग दें। विचार-संवर्धन एक उपाय है, अनुवाद के माध्यम से। अनुवाद का कार्य जिस स्तर पर होना चाहिये, उसका ५ प्रतिशत भी नहीं हो रहा है अपने देश में।
जब अंग्रेज़ी नहीं थी. तब भी भारत भर के लोग , बिना किसी डंडे के, आपस में संवाद कर ही लेते थे. आज हम राजभाषा या संपर्क भाषा के रूप में हिंदी की बात करते हैं . (यह बात हिंदी वाले ही करते हैं) दूसरे भाषाभाषी इसे थोपे जाने की तरह देखते हैं. हिंदी वाले दूसरी भाषाएं सीखने की आवश्यकता नहीं समझते पर मानते हैं कि बाकी सभी को हिंदी आनी ही चाहिए. भई क्यों ?
Deleteअगर अंग्रेज़ी के प्रति दूसरे भाषाभाषियों को कोई शिकायत नहीं तो हिंदी वालों को भी नहीं होनी चाहिए. हिंदी वाले , अंग्रेज़ी भी सीख लें तो हर्ज़ क्या है. कोरिया की 7 यूनिवर्सिटी में हिंदी सिखाई जाती है और भारत आने वाले हरेक कोरियाई को अंग्रेज़ी आती है, अंग्रेज़ी उनकी न तो तथाकथित राष्ट्रभाषा है न ही मातृभाषा. जापान में सबकुछ जापानी में करने वाले भी विदेश्ा जाते हैं तो उसी देश की भाषा सीख कर न कि जापानी के भरोसे. अगर हम भारत की अखंडता चाहते हैं तो हमें हिंदी की अक्खड़ता के बजाय दूसरी भाषाओं को भी सादर सीखना और अपनाना होगा. वर्ना मध्यवर्ग के लिए अंग्रेज़ी तो है ही , हिंदी वाले लाख चिल्लाते रहें चेन्नई का ड़ाइवर हिंदी सुनते ही तामिल बोलेगा ही ...
आप समग्र विश्व की भाषायें सीखीये और बोलिए, किसी से दुराग्रह नही, किन्तु जीवन के प्रथम दशक कितनी भाषायें सीखनी उपयोगी हैं? इस की प्रामाणिक आवश्यकता है।
Deleteसामयिक विचाओत्तेजक आलेख है.देश की शिक्षा नीति निर्धारण करने वालों को इन बिंदुओं पर गंभीरता से विचार करना चाहिए.
ReplyDeleteप्रवीण जी. बहुत दिनों के बाद कुछ सार्थक सा पढने को मिला. कितना अच्छा हो अगर इसमें दिए गए सुझावों पर अमल हो जाए .
ReplyDeleteआभार
विजय
English Language के रूप में पढ़ाना अलग बात है पर आरंभ मे अन्य विषय पारिवेषिक भाषा में होने चाहिये ।
ReplyDeleteभाषा विद्यालय का विचार बहुत बढ़िया है. सभी भाषाओँ के प्रति सम्मान से ही एकता पुष्ट होगी।
ReplyDeleteअपन जैसे लोग जो अंग्रेजी में निष्णात हैं, वे इसका खोखलापन समझने लगे हैं. पर बहुसंख्यक निम्न मध्य वर्ग / कस्बाई / ग्रामीण वर्ग अब वैचरिक अवस्था में आया है जहाँ हम अस्सी के दशक में थे. गाँवों कस्बों में अधकचरे टीचर तक नहीं है पर कान्वेंट कुकुरमुत्तों की तरह खुल रहे हैं, घटिया पढ़ाई के बावजूद स्कूल हाउसफुल हैं, बल्कि तीन चार कमरों के स्कूल भी भारी डोनेशन पर सीटें बेच रहे हैं. ऐसा क्रेज़ है. हर कहीं यही हाल है. यह क्रांति डीटीएच के सामानांतर आई है, वर्ना गांवों में पहले सैतेलईट टीवी की सीमित पहुँच थी.
ReplyDeleteअंग्रेजी शिक्षा को अब लोग सुरक्षित भविष्य की टिकिट मानाने लगे हैं .
बहुत ही सारगर्भित आलेख |आभार
ReplyDeleteसंस्कृतियों की अनेकरूपता ही विशेषता है हमारी.
ReplyDeleteअन्यथा एकलभाषी देश , किसी शहर की कॉलोनी से लगते हैं
सार्थक विचारपरख आलेख ...!!हमने भी यही पढ़ा है की बचपन मे बच्चा भाषाएँ जल्दी सीखता है !पर आपका आलेख सहमत कर रहा है | क्षेत्रीय भाषा विद्यालय की बात बहुत पसंद आई |बाहर के देशों मे तो ये होता है हमारे देश में भी क्षेत्रीय भाषा इस प्रकार सिखाई जाने लगे ,तो बहुत सुविधा हो जाएगी |बल्कि क्षेत्रीय भाषा की उन्नति में भी सहायता मिलेगी |
ReplyDeleteआपके आलेख बहुत कुछ समझा जाते हैं - सच मैं किसी विद्यार्थी की तरह आपके लिखे को पढ़ती हूँ
ReplyDelete“अजेय-असीम{Unlimited Potential}” -
ReplyDeleteसादर प्रणाम |
बहुत ही सार्थक विषय पर लेखन |
आभार |
मातृभाषा में समझना किसी भी व्यक्ति के लिए आसान है ! हाँ दूर रहने वालों के लिए सम्पर्क भाषा का ज्ञान भी आवश्यक है !!
ReplyDeleteअब तो एक की जगह तीन भाषा सीखना मज़बूरी हो गया एक "मातृभाषा", "हिंदी" और "अंग्रेजी" !!
निम्हान्स के शोधकर्ताओं का भी मत है कि अधिक भाषायें सीखने से मस्तिष्क के सिकुड़ने का भय बना रहता है। हो सकता है कि अधिक भाषायें जान लेने से हम अधिक लोगों को जान पायें, भिन्न संस्कृतियों के विविध पर(--------पक्ष -------) समझ पायें, पर गहराई में नीचे उतरने के लिये अपनी ही भाषा काम में आती है, शेष भाषा सामाजिकता की सतही आवश्यकतायें पूरी करती हुयी ही दिखती हैं, समझ विस्तारित तो होती है, गहरे उतरने से रह जाती है।
ReplyDeleteहोना यह चाहिये था कि भाषाओं के बीच सेतुबन्ध निर्मित होने थे। भारत में एक ऐसा महाविद्यालय होता जहाँ पर सभी भारतीय भाषाओं के साहित्य को संरक्षित और पल्लवित करने का अवसर मिलता। सभी भाषाओं के भाषाविद बैठकर अपनी भाषा के प्रभावी पक्षों को उजागर करते, साथ ही साथ अन्य भाषाओं के सुन्दर पक्षों को अपनी भाषा में लेकर आते। अनुवाद का कार्य होता वहाँ पर, संस्कृतियों में एकरूपता आती वहाँ पर। वहाँ पर एक भाषा से दूसरी भाषाओं में अनुवाद की सैद्धान्तिक रूपरेखा बनायी जाती, और यही नहीं, भारतीय भाषाओं को विश्व की अन्य भाषाओं से जोड़ने का कार्य होता।
भाई साहब ऐसा होता तो फिर अंग्रेजी प्रेमी खानदान भारत के अंग्रेजी को शीर्ष पर कैसे रख पाते कैसे कह पाते ये ही ज्ञान की खिड़की है।
बढ़िया विचार मंथन करती समाधान प्रस्तुत करती पोस्ट भाषा के विविध आयामों का। सीमाओं और संभावनाओं का।
ज्ञानी जन कोम्प्लेक्सिटी क्रिएट करके दूसरों से आगे बढ़ने के जुगाड़ खोज रखें हैं...मेरा भी ये मानना है की सिर्फ कक्षा १२ तक पूरे देश का पाठ्यक्रम एक कर दो...भाषा एक कर दो...कोई शक नहीं हमारा देश विज्ञान में अग्रणी बन जाये...
ReplyDeleteThis is one more reason for me to like binary language. :) just kidding.
ReplyDeleteI wont say I agree with your thoughts on this matter on either about kids learning only one language or learning multiple language making brain shrink ( anyway humans dont have much of knowledge about brain working and studies keep chaning their claims one after another )
As far as I know, exploration make one wise. One explore more if you travel and/or read more. Hence learning more languages can hardly be a unwise step.
As far as mother language is concerned. "तु वसुधैव कुटुम्बकम"
Language which is not economically sustainable will get obsolete later then sooner anyway.
आपकी इस प्रस्तुति को आज की बुलेटिन गणेश शंकर विद्यार्थी और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। सादर .... आभार।।
ReplyDeleteहम जैसे लोगों का क्या होगा?
ReplyDeleteहमारी भाषा कौनसी है? यह हम स्वयं नहीं जानते।
कहाँ पढाया जाता है? किस स्कूल/कॉलेज में?
आप तो जानते हैं कि मेरे पूर्वज, तमिलनाडु के हैं जो सौ दो सौ साल पहले केरल में आकर बस गए।
घर में हम अशुद्ध तमिल बोलते है, मलयाली अंदाज में, और खूब सारे मलयालम श्ब्दों का प्रयोग करते हैं।
तमिल नाडु के लोग हमें मलयाली मानते हैं और केरल के लोग हमें तमिल भाषी मानते हैं
हमारी भाषा को कोई मान्यता नहीं दी जाती।
हमारी भाषा की कोई लिपी नहीं है और न ही कोई साहित्य।
बस एक कामचलाऊ भाषा है जो पालक्काड जिले में एक विशेष समुदाय के सदस्यों में प्रचलित है।
हमारी आबादी केरल छोडकर, आजकल देश भर ही नहीं पर विश्व भर में फैले हुए हैं।
स्कूल में हमने चार भाषाएं सीखी थी।
इनमे में से हमने अंग्रेजी और हिन्दी को अपनाया।
अंग्रेजी, career के लिए, और हिन्दी प्रेम, लगाव और ज्यादा से ज्यादा देशवासियों से संपर्क रखने कि लिए।
भाषाएँ चाहे क्षेत्रीय हों, या राष्ट्रीय , आधार हैं जीवन का !
ReplyDeleteआभार !
इसमें कोई शक नहीं कि मातृभाषा का ज्ञान जितना अच्छा होगा उसके बाद दूसरी भाषा का ज्ञान भी काफी बेहतर हो सकता है....पर हमारे यहां अनुवाद के ज्यादा चलन के कारण अधिकतर लोग अंग्रेजी भाषा का इस्तेमाल करते तो हैं..परंतु उनमें गहराई कम होती है...दूसरी बात ये है कि जो व्यक्ति जिस परिवेश में रहता है वहां की भाषा के नजदीक हो जाता है...जहां तक हिंदी की बात है तो सहज हिंदी और साहित्य की हिंदी अलग होती है...जिसको साहित्य किसी भाषा में रचना है तो वो उस भाषा को गहराई से जानेगा...
ReplyDeleteविचारोत्तेजक, सारगर्भित आलेख।
ReplyDeleteइन भाषाओं ने मेरा भी मगज़ खूब खाया है। हिंदी-अंग्रेजी, हिंदी-संस्कृत अनुवाद सीखते-सीखते स्पेलिंग और रूप याद करते-करते पढ़ाई से बार-बार मन उचटा है। अब जब मेरे घर और कार्यक्षेत्र का माहौल ऐसा है कि न संस्कृत की आवश्यकता पड़ती है न अंग्रेजी की। परिणाम यह हुआ कि न मुझे अंग्रेजी आती है न संस्कृत। अब लगता है अध्ययन के समय का बड़ा हिस्सा मात्र अनुवाद सीखने में ही बीत गया। वाहियात शिक्षा पद्धति है। इसमे परिवर्तन होना चाहिए। जब आवश्यकता हो तब व्यक्ति भाषा सीख ही लेगा। जिस भाषा क्षेत्र में चार-छः महीना गुजारेगा वहीं वह वहाँ की काम भर की भाषा सीख लेगा। आवश्यकता पड़ने पर भाषा सीखने की सुविधा मिलनी चाहिए बस्स। एक उम्र तक एक ही भाषा में पढ़ना-पढ़ाना चाहिए। लेकिन अब हालात यह हैं कि बिना अंग्रेजी के बच्चा पढ़ ही नहीं सकता। :( भाषा अभिव्यक्ति का माध्यम है। काश! पूरी दुनियाँ मिलकर एक भाषा निर्धारित कर लेती और बाकी सब भाषा को मिटा देती। :)
भाषाओँ का ज्ञान दूसरों से जोड़ता है , किसी व्यक्ति से उसकी भाषा में संवाद करने पर आत्मीयता महसूस होती है , बस मजबूरी ना हो !
ReplyDeleteबहुत ही सारगर्भित , सामयिक एवं विचारोतेज्जक आलेख . भाषा अभिव्यक्ति का माध्यम जब तक हैं सहज है , जब ये मजबूरी बन जाएँ तो झगड़े का कारन बन जाती है . .. आपकी इस रचना के लिंक की प्रविष्टी सोमवार (28.10.2013) को ब्लॉग प्रसारण पर की जाएगी, ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया पधारें .
ReplyDeleteतार्किक और सारगर्भित
ReplyDeleteजियो भाई
सार्थक भाषा चिंतन ...
ReplyDeleteबहुत ज़रूरी है देश में देश की समस्त भाषाओं के लिए किसी न किसी नीति का निर्माण होना ... देश की एकता अखंडता की तरफ सोचने का सार्थक प्रयास होगा ये ...
सभी भाषाओँ सम्मान होना चाहिए,लेकिन हिन्दी हमारे देश की मुख्य भाषा है ,,,
ReplyDeleteसारगर्भित एवं विचारोतेज्जक आलेख....
RECENT POST -: तुलसी बिन सून लगे अंगना
बचपन के लिए मातृ भाषा ही उपयोगी है।
ReplyDeleteजहाँ हमारे संपर्क बिन्दु दो परस्पर भाषायें होनी थीं, किसी व्यवस्थित भाषायी प्रारूप के आभार में वह सिकुड़ कर अंग्रेजी मान्य होते जा रहे हैं।..............इस प्रकार भाषा के विविध आयामों को लेकर लिखना, पढ़ना प्रशासन की आवश्यकता होनी चाहिए। तब ही भाषाई नैतिकता का व्यावहारिक स्वरुप तय हो सकेगा।
ReplyDeleteवाह... उम्दा, बेहतरीन अभिव्यक्ति...बहुत बहुत बधाई...
ReplyDelete"गहराई में नीचे उतरने के लिये अपनी ही भाषा काम में आती है, शेष भाषा सामाजिकता की सतही आवश्यकतायें पूरी करती हुयी ही दिखती हैं, समझ विस्तारित तो होती है, गहरे उतरने से रह जाती है।"...
ReplyDelete---- पर यह पूर्ण सत्य नहीं है ...वस्तुतः बचपन से घर में जो भाषा बोली-पढी जाती है वही भाव-सम्प्रेषण हेतु सुविधाजनक होती है ...जहां तक गहराई में उतरने की बात है वह तो विषयानुसार होता है ..जिस विषय को आपने जिस भाषा में गहराई से पढ़ा है, अध्ययन किया है उसी भाषा में आप उसकी गहराई में उतर सकते हैं .... यदि आपने विज्ञान अंग्रेज़ी में पढ़ा है तो वैज्ञानिक विषयों पर हिन्दी में बात स्पष्ट करने में कठिनाई आयेगी व अंग्रेज़ी में अधिक गहराई.से स्पष्ट कर सकेंगे .........
---मस्तिष्क बचपन में काफी उर्वर होता है उसे कोइ अंतर नहीं पड़ता वह एक या दो-तीन भाषाएँ भी सीख सकता है ...परन्तु निश्चय ही उसकी सामान्य बोलचाल की भाषा मातृभाषा ही होपायेगी जो घर-बाहर हर जगह, हर ओर बोली जाती है ....
----अतः निश्चय ही उचित यही है कि प्राथमिक शिक्षा तो अवश्य ही मातृभाषा में दी जाय बल्कि सभी प्रकार की उच्च शिक्षा भी मातृभाषा में ही दी जाय ....एवं अन्य भाषाएँ तत्पश्चात आवश्यकतानुसार ...जो शायद इस सुन्दर व सटीक आलेख के लेखक का मूल मंतव्य है ....जब प्रत्येक विषय का अपनी मातृभाषा में उचित प्रकार से ज्ञान, अनुभव एवं विवेक होजायेगा तो अन्य भाषा सीखना अत्यंत सरल होजायेगा....
---- जिसप्रकार पुराकाल में संस्कृत ..देश के सभी क्षेत्रों में संपर्क भाषा का कार्य करती थी क्योंकि भारत की सभी भाषाएँ संस्कृत से ही उद्भूत हैं ....उसीप्रकार आज हिन्दी ही एकमात्र संपर्क भाषा होसकती है क्योंकि वह सीधी संस्कृत से उत्पन्न हुई है | अतः सभी अन्य सभी भारतीय भाषायें उससे मिलती-जुलती हैं.....वास्तव में तो हिन्दी का प्रारम्भ ही दक्षिण भारत से हुआ है ...दक्खिनी हिन्दी ही सबसे पहली हिन्दी भाषा है जो आज की हिन्दी--खड़ीबोली बनी....
---- अंग्रेज़ी को तो निश्चय ही विदा होना ही चाहिए .... वास्तव में तो हम आज बच्चों को इसलिए अंग्रेज़ी पढ़ाते हैं कि हमारा अपना कुछ नहीं है ...हम अंग्रेज़ी देशों की क्लर्की करके ( चाहे किसी भी क्षेत्र -विषय में हो --सर्वोच्च ज्ञान का विषय चिकित्सा में भी डाक्टर यही कर रहे हैं... हम बस नक़ल पर ही आधारित हैं और क्लर्कों की भाँति ही कार्य करके खुश होलेते हैं ) बस बहुत सा धन कमाना चाहते हैं |
--- शासन को निश्चित करना होगा कि --कोइ भी कहीं की, किसी भी देश की कंपनी हो उसे यदि भारत में कार्य करना है तो ..प्रादेशिक भाषा व हिन्दी में करना होगा ... भारतीय कम्पनियां हिन्दी एवं स्थानीय भाषा में कार्य करें ....सच यही है कि उद्योग-धंधे की जो भाषा होगी वही सीखी, पढी व लिखी जायेगी .....
bahut is acha post hai,,,
ReplyDeleteसारगर्भित एवं विचारणीय संदर्भ!!
ReplyDeleteनिज भाषा उन्नति अहै ,सब उन्नति को मूल ,
ReplyDeleteबिन निज भाषा ज्ञान के मिटे न हिय को शूल।
अपनी मातृ भाषा में पारंगत होना ज़रूरी है। उसके बाद जितनी मर्ज़ी भाषा सीखो। खिड़कियाँ खोलो।
आज हालत यह है जब बच्चा पेट में आता है माताएं खुद अंग्रेजी सीखना शुरू कर देती हैं। इंटर व्यू
माता पिता का ही होता है।
सार्थक और उपयोगी विषय चुना आपने, कोई भी भाषा विवाद को विवाद का मुदा ना बनाकर उसे सीखने की ललक होनी चाहिये, उसी से ज्ञान और समझ विस्तृत होगी.
ReplyDeleteरामराम.
बहुत सुन्दर विषय पर सुन्दर विचार , प्रवीण भाई
ReplyDeleteनई पोस्ट -: प्रश्न ? उत्तर भाग - ५
बीती पोस्ट --: प्रतिभागी - गीतकार के.के.वर्मा " आज़ाद " ---> A tribute to Damini
शिक्षा का प्रथम माध्यम आंचलिक भाषा होनी चाहिए | तमिलनाडु में तमिल नाडू में तमिल आसाम में आसामी ,पंजाब में पंजाबी .....इत्यादि |दक्षिण में अहिन्दी भाषी क्षेत्र में दूसरी भाषा हिंदी होना चाहिए और हिंदी क्षेत्र में एक दक्षिण की भाषा ... तमिल, तेलुगु मलयालम ,कन्नड़ अनिवार्य रूप से पढाई जानी चाहिए .इससे भाषाई नफरत कम होगी | शिक्षा का माध्यम मातृभाषा होने से शिक्षा गहराई से होगी दूसरी भाषा भार नहीं लगेगी | अंग्रजी बादमे शिखा जा सकता है |
ReplyDeleteनई पोस्ट सपना और मैं (नायिका )
भाषा का झगड़ा खासकर तभी शुरू होता है जब कोई अपनी भाशा को अनावष्यक रूप से अन्य सभी भाषाओं से ऊपर रखना चाहता है। इसमें संदेह नहीं कि ऐसा व्यक्ति या तो दंभी, अज्ञानी अथवा स्वार्थी होता है। वस्तुतः भाषाओं में आपसी बहनापा होता है और एक भाषा को समझने में दूसरी भाषा मदद ही करती है। जिन लोगों को भाषा का क-ख-ग नहीं आता वे भाषाई विभाजन और भाषाई आंदोलन का रास्ता पकड़ते हैं। थोड़ा जल्दी नाम और काम मिल जाता है। हिंदी के साथ यह विडम्बना बहुत अधिक है। तुलसी -सूर -कबीर से लेकर प्रेमचंद ने हिंदी के समर्थन में कोई राजनीतिक आंदोलन नहीं चलाया था, लेकिन हिंदी आज उन्हीं के दम पर खड़ी है। और तो और, देवकी नंदन खत्री को भी हम भूल गए हैं जिनका योगदान स्वयं हिंदी नहीं भूल पाई है। जहां तक अंगरेजी के प्रचार-प्रसार की बात है, उसमें या तो अफसरनुमा लोग लगे हैं या फिर अधकचरे अंगरेजीदां लोग। अंगरेजी का एक अच्छा जानकार हिंदी का विरोधी तो हो ही नहीं सकता। अंगरेजी ने हिंदी साहित्य को भी बहुत कुछ दिया है। चाहिए तो उन लोगों की लंबी सूची उठाकर देख लीजिए जो अंगरेेजी की उच्च shiksha प्राप्त करने के बावजूद हिंदी में लिखते रहे और तमाम हिंदीवादियों से अच्छा लिखे।
ReplyDeleteये आपने बहुत महत्वपूर्ण मुद्दे पर लेख लिखा है। आपका ये सुझाव कि प्रदेश की राजधानी में भाषा सीखने के लिये विद्यालय होने चाहिये भी बहुत बढिया है।
ReplyDeleteबचपन में हम आराम से दो भाषायें सीख लेते है खास कर भारतीय भाषायें जिनका उगम संस्कृत से हुआ है। जैसे मराठी भाषी को हिंदी या गुजराती सीखने यै समझने में परेशानी नही होती। अंग्रेजी के लिये विशेष परिश्रम की जरूरत पडती है। पर इसके बिना तो गुजारा नही है सारा तकनीकी ज्ञान तो इसी में उपलब्ध है । दक्षिण की भाषाओं में तेलुगु तथा मलयालम में काफी संस्कृत शब्द हैं पर लिपि एकदम अलग। तामिल एकदम अलग है उसका उगम भी संस्कृत से नही है।
शुरु में हम कलकत्ता में रहे तो मेरा बेटा पहले सिर्फ बंगला बोलता था उसकी आया कि वजह से, पर हम घर में मराठी बोलते तो वह भी सीख गया । भाषा सीखना किसी के लिये आसान होता है तो किसी के लिये महा मुश्किल इसके लिये ेक ही पैमाने पर सबको नही जांचा जा सकता।
सारगर्भित विवेचन .मन में इक्षा हो तो हम सीख सकते हैं .राहुल सांस्कृत्यायन बहुत भाषाओँ के ज्ञाता थे .उनसे प्रभावित मैंने भी ज्यादा से ज्यादा भाषाओँ को लिखना पढना बोलना जाना .मौका भी मिला भाग्य भी रहा . हाँ हिंदी अंगरेजी प्रमुख रहीं .
ReplyDeleteभाषा को सीखने के लिए सच ही हम बच्चों के मस्तिष्क पर ज्यादा दवाब बनाते हैं ..... होना क्या चाहिए था उस पर नहीं सोचा जाता ...लेकिन जो हो रहा है उसके अनुरूप बच्चों को ढाला जाता है । सार्थक लेख ।
ReplyDeleteकल ही किसी के लेख में बांचा कि दो भाषायें सीखने से बच्चे पर विपरीत असर नहीं पड़ता। :)
ReplyDeleteसार्थक लेख
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