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22.2.14

कफ, वात, पित्त

कफ, वात और पित्त, ये तीन तत्व हैं जो शरीर में होते है और कार्यरत रहते हैं। कहने को तो इनको और भी विभाजित किया जा सकता था, पर ये तत्व भौतिक दृष्टि से दिखते भी हैं और गुण की दृष्टि से परिभाषित भी किये जा सकते हैं। शरीर की क्रियाशीलता में हम इनका अनुभव कर सकते हैं। कफ का अनुभव हमें अधिक ठंड में होता है। पित्त नित ही हमारे पाचन में सहयोग करता है। वात हमारे वेगों और तन्त्रिका संकेतों को संचालित करता है। यही कारण रहा होगा कि शरीर को विश्लेषित करने के लिये इनको आयुर्वेद में आधार माना गया है।

जीवन जीना प्रकृति चक्र का अंग होना है। प्रकृति के पाँच तत्वों से मिल कर ही बने हैं, कफ, पित्त और वात। कफ में धरती और जल है, पित्त में अग्नि और जल है, वात में वायु है, इन तत्वों की अनुपस्थिति आकाश है। प्रकृति में जिस प्रकार ये संतुलन में रहते हैं, हमारे शरीर में भी इन्हें संतुलन प्रिय है। जिस अनुपात में यह संतुलन शरीर में रहता है, वह हमारे शरीर की प्रकृति है। कुछ में कफ, कुछ में पित्त, कुछ में वायु या कुछ में इनके भिन्न अनुपात प्रबल होते हैं। यह संतुलित स्थिति हमारा शारीरिक ढाँचा, मानसिक स्थिरता और बौद्धिक व्यवहार निर्धारित करती है। यही संतुलन स्वास्थ्य परिभाषित करता है। प्रकृति से हमारे सतत पारस्परिक संबंधों में ये तीन तत्व घटते बढ़ते रहते हैं। किसी भी एक तत्व का शरीर में अधिक होना ही प्रकृति से हमारे घर्षण का कारण है। यही घर्षण रोग का कारण है। जब तक जीवनशैली या औषधियों से संतुलन की स्थिति में वापस पहुँचकर घर्षण कम किया जा सकता है, रोग साध्य रहता है। जब यह असंतुलन असाध्य हो जाता है, शरीर प्रकृति चक्र से बाहर आ जाता है, प्राण शरीर त्याग देते हैं।

वाग्भट्ट कृत अष्टांगहृदयं के प्रथम अध्याय में ही इन तीन तत्वों के गुण परिभाषित हैं। कौन सा या कौन से तत्व प्रभावी है, यह शरीर की बनावट, मानसिक स्थिति और बौद्धिकता से स्पष्ट हो जाता है। जहाँ वात के प्रभाव वाला मन से सतत चंचल होगा, वहीं कफ के प्रभाव वाला सौम्य और स्थिर होगा। इनके गुणों को समझ लेने से किस वस्तु, मौसम, क्रिया और भाव का शरीर पर क्या प्रभाव पड़ता है, उसके सैद्धान्तिक आधार स्पष्ट हो जाते हैं।

कफ के गुण हैं, स्निग्ध(चिकना), शीत, गुरु(भारी), मन्द, श्लक्ष्ण(खारापन के साथ चिकना), मृत्स्न(मिट्टी की तरह गन्ध वाला), स्थिर। ये गुण धरती और जल के सम्मिलित गुण हैं। जहाँ पर भी इनमें से एक या अधिक गुण कारण या प्रभाव में दिखेंगे, उसमें कफ की उपस्थिति मानी जायेगी। शीत है तो वह कफ बढ़ायेगा। यदि कफ अधिक है तो वह भारीपन या मन्द स्वाभाव लायेगा।

पित्त के गुण हैं, सस्नेह(तैलीय), तीक्ष्ण, ऊष्ण, लघु, विस्त्र(मृत शरीर की गन्ध सा), सर(बहने वाला), द्रव। ये गुण अग्नि और जल को परिभाषित करते हैं, कारण से भी या प्रभाव से भी। जिसे पसीना अधिक आता हो, उसमें ऊष्ण गुण है, वह पित्त के प्रभाव में है। ऐसे ही तीक्ष्ण गन्ध वाले पदार्थ पित्त बढ़ाते हैं।

वात के गुण हैं, रुक्ष, लघु, शीत, खर, सूक्ष्म, गतिमयता। ये सारे गुण वायु में भी पाये जाते हैं। यदि वात अधिक होगा त्वचा रुक्ष होगी। यदि मानसिक तनाव अधिक होगा तो विचारों की गतिमयता के कारण वात बढ़ेगा।

यही नहीं, दिन में, ऋतु में, क्रिया में, शरीर में इन तीनों तत्वों की प्रधानता बदलती रहती है। दिन के प्रारम्भ में कफ, मध्य में पित्त और अन्त में वात प्रधान हो जाता है। बचपन में कफ, युवावस्था में पित्त और वृद्धावस्था में वात प्रधान हो जाता है। पाचन के प्रारम्भ में कफ, मध्य में पित्त और अन्त में वात प्रधान हो जाता है। शरीर के ऊपरी भाग में कफ, मध्य में पित्त और नीचे में वात प्रधान हो जाता है। इसी प्रकार ग्रीष्म के चार माह वातप्रधान, वर्षा के चार माह पित्तप्रधान और शीत के चार माह व कफप्रधान होते हैं।

क्रियाओं को देखें तो उनमें भी यही गुण स्पष्ट दिखते है। सोने में इन्द्रियाँ स्थिर होती हैं तो कफ बढ़ता है। व्यायाम से शरीर संकुचित होता है तो लघु गुण के कारण वात और पित्त बढ़ता है। अधिक चिन्तित रहने से वात बढ़ता है। धूप में निकलने से ऊष्णता के कारण पित्त बढ़ता है। भावों में भी इन गुणों के मूल छिपे हैं। स्पर्श, रूप, रस, रंग, गंध में भी इन तीन गुणों के वर्धन या शमन के गुण छिपे हैं। रॉक संगीत या शास्त्रीय संगीत सुनने में ये तत्व भिन्न रूप से प्रभावित होते हैं।

जहाँ कफ संतुलन लाता है, कल्पनाशीलता लाता है, सृजन लाता है, वहीं इसकी अधिकता क्रोध और आक्रामकता लाती है। जहाँ पित्त शरीर का ताप नियन्त्रण करता है, ऊर्जा देता है, वहीं इसकी अधिकता ज्वर लाती है। जहाँ वात शरीर को गतिमय बनाता है, वेगों और तंत्रिकातन्त्र के संवेगों को संचालित करता है, वहीं दूसरी ओर इसकी अधिकता मानसिक असंतुलन का कारण बनती है।

हर प्रकार के खाद्य को आयुर्वेद में इसी आधार पर विश्लेषित किया गया है। क्या लेने से कौन सा तत्व शरीर में बढ़ता है और कौन सा तत्व शमित होता है, इसका विस्तृत वर्णन किया गया है। भोजन के माध्यम से ही किस तरह से बदलाव लाकर हम अपने मौलिक संतुलन की स्थिति में वापस जा सकते हैं। इसी सिद्धान्त को आगे बढ़ाते हुये, उन्हीं के आधार पर रोगों की चिकित्सा भी की जाती है। औषधियों में वह तीव्रता रहती है कि किसी तत्व की कमी या अधिकता को शीघ्रता से दूर किया जा सके।

इस आधार पर शरीर, काल, भाव और अन्य द्रव्यों की प्रकृति का वर्गीकरण एक वैज्ञानिक आधार है और वाग्भट्ट द्वारा कई दशकों की प्रायोगिक प्रक्रियाओं के बाद सिद्ध और लिपिबद्ध किया गया है। वाग्भट्ट ने ७००० श्लोकों में इसकी न केवल विस्तृत व्याख्या की है वरन औषधियों को बनाने की विधियों को वर्णित भी किया है। यही कारण है कि वाग्भट्ट की कृति के ऊपर १० से भी अधिक टीकायें लिखी जा चुकी और आयुर्वेद के आचार्यों में उसमें लिखे एक एक सूत्र के लिये निर्विवादित सम्मान है। ऐसी अद्भुत कृति को आंशिक रूप से भी पढ़ सकना मेरे मन में भारतीय मनीषियों और आयुर्वेद के लिये अभूतपूर्व कृतज्ञता का भाव संचारित करता है।

अब मुझे समझ में आ रहा है कि देशी विधियों के प्रभाव के पीछे आयुर्वेद सम्मत वाग्भट्ट के सूत्रों का सशक्त वैज्ञानिक आधार है। हमारे पूर्वज जो नियम परम्परा से निभाते आ रहे हैं, उसके पीछे आयुर्वेद का व्यापक प्रसार है। कालान्तर में पराधीनता के पाशों में हमें नियम तो याद रहे पर उनका वैज्ञानिक आधार लुप्त हो गया। आवश्यकता है उसे पूर्णविश्वास से अपनाने की।

आगे की कड़ियों में इसको विस्तारित करते व्यावहारिक उपाय।

16.10.13

शिक्षा के बिसराये सूत्र

टेड पर सर केन रॉबिन्सन के विचार सुन रहा था, शिक्षा पर। विचार सरल थे, सहज थे और सारगर्भित थे। अनुभव जैसे जैसे गाढ़ा होता जाता है, अभिव्यक्ति तरल होती जाती है, श्री रॉबिन्सन को सुनकर यह सिद्धान्त और भी दृढ़ हो चला। यही नहीं, जब कोई ज्ञान तत्व बिना किसी श्रांगारिक कोलाहल के सुनने को मिलता है, वह ग्रहणीयता के तार झंकृत कर देता है। एक स्थान पर खड़े हुये दिये गये २० मिनट के इस आख्यान में दशकों की अनुभव यात्रा का निचोड़ था।

शिक्षा पर विचारणीय दृष्टि
वार्ता का विषय था कि किस तरह शिक्षा की मृत्युघाटी से बाहर निकलें। वर्तमान शिक्षा पद्धति के लिये इतने कठोर शब्द का उपयोग ही उनके अवलोकनों और विश्लेषणों के निष्कर्ष को व्यक्त करता है। साथ ही साथ उस पीड़ा और छटपटाहट को भी दिखाता है जिससे होकर शिक्षा के प्रति संवेदनशील बौद्धिक समाज जी रहा है। उस मात्रा में भले ही न हो, पर शिक्षा पद्धति के विषय में हम सबके अन्दर भी उसी प्रकार की असंतुष्टि पनप रही है।

श्री रॉबिन्सन के अनुसार मानव की शिक्षा पद्धति मानव के मूलभूत गुणों के अनुरूप होनी चाहिये, पर वर्तमान शिक्षा पद्धति इनकी अनदेखी कर रही है। केवल अनदेखी ही नहीं कर रही है वरन उसके विपरीत जा रही है। यदि यही होता रहा तो मानव धीरे धीरे मशीन होता जायेगा, सभ्यता के विस्तृत प्राचीर में एक ईंट। यन्त्रवत से जीवन हो जायेंगे, तन्त्र मानवीय न रहेंगे।

मानव के तीन मूलभूत गुण हैं। पहला है उनकी भिन्नता और विविधता। दूसरा है उनमें निहित उत्सुकता। तीसरा है उनकी सृजनात्मकता। यही तीन गुण उसे मानसिक और बौद्धिक रूप से पूरी तरह से विकसित करते हैं। बिना इन तीन गुणों के मानव स्वयं को पूर्णता से व्यक्त नहीं कर सकता है। एक भी विमा यदि अनुपस्थिति रही तो विकास आंशिक होगा, सर्वपक्षीय नहीं होगा। आइये देखते हैं कि वर्तमान शिक्षा पद्धति किस प्रकार इन तीनों मूलभूत धारणाओं के विपरीत कार्य कर रही है।

कोई दो बच्चे एक जैसे नहीं होते हैं, जन्म से भी नहीं, परिवेश से भी नहीं, भले ही वे सगे भाई या सगी बहनें ही क्यों न हों? सबकी अपनी क्षमता होती है, सबकी अपनी विशिष्टता होती है। फिर भी हमारी शिक्षा पद्धति ऐसी है कि हम सबको एक जैसा ही बनाना चाहते हैं। प्रारम्भ से एक ही विषय पढ़ाते हैं, एक सा ही समझते हैं, फैक्टरी के उत्पाद जैसा। एक जैसी शिक्षा सबके काम नहीं आती है, कुछ को रुचिकर लगती है, कुछ सामाजिक कारणों से लग कर पढ़ते हैं, कुछ माता पिता को दिखाने के लिये पढ़ते हैं, कुछ का मन तनिक भी नहीं लगता है, कुछ पढ़ाई छोड़ ही देते हैं। हमें लगता रहता है कि बच्चों का मन पढ़ाई में क्यों नहीं लग रहा है? उपाय भी सरल ही है, देखिये कि पढ़ाई छोड़ने के बाद किन किन क्षेत्रों में बच्चों का मन लगता, वे सारे विषय पढ़ाये जाये। हर एक के लिये अपनी रुचि के अनुसार पढ़ने को मिले तो समय के पहले पढ़ाई छोड़ देने वालों की संख्या न्यूनतम हो जायेगी।

क्या शिक्षा में यह उत्सुकता पल्लवित होती है?
बच्चे प्राकृतिक रूप से उत्सुक होते है, जिज्ञासु होते हैं। उनकी उत्सुकता को व्यापक आधार या निष्कर्ष देने के स्थान पर हम उसमें ठंडा जल डाल देते हैं। यदि हम उनको यह बता दें कि क्या पढ़ना है तो वे हमसे अच्छा पढ़ सकते हैं। हमारी शिक्षा पद्धति उन्हें सब कुछ घोंट कर पिला देना चाहती है, वह सब कुछ जिसे जानकर हम स्वयं को विद्वान समझने का भ्रम पाले बैठे हैं। आप उन्हें बताये या न बतायें, उनकी उत्सुकता उन्हें वांछित ज्ञान तक ले आयेगी। कितनी ही ऐसी ज्ञान की बाते होती हैं जो बच्चे स्वयं ही सीख जाते हैं। कभी उनके प्रश्नों की दिशा और सृजनात्मकता पर ध्यान दिया है, आप आश्चर्य करने के अतिरिक्त कुछ और कर भी नहीं सकते हैं। उसकी उत्सुकता के लिये हमें उसे उकसाने की आवश्यकता है, उसे दिशा देने की आवश्यकता है, उसे प्रेरित करने की आवश्यकता है। हमें उसे पढ़ाना नहीं है, उसे सीखने के लिये उद्धत करना है, उत्सुकता का उपयोग करने के लिये तैयार करना है। इसके स्थान पर वर्तमान शिक्षा पद्धति ज्ञान ठूँसने में विश्वास रखती है और यह जानने के लिये परीक्षायें लेती रहती है कि ठूँसे हुये ज्ञान को समुचित उगलने का अभ्यास किया कि नहीं किया बच्चों ने?

सृजनात्मकता हमारा सर्वाधिक सशक्त गुण है। आप एक समस्या दस बच्चों को देकर देखिये, सब के सब अपने सृजनात्मक वैशिष्ट्य के अनुसार उसका समाधान ढूँढ़ लेगे। जीवन की समस्या है, ज्ञान की समस्या हो, विकास के सारे अध्याय इसी गुण ने लिखे हैं। इस गुण को उभारने के स्थान पर वर्तमान शिक्षापद्धति सबको समान रूप से उत्तर देने की अपेक्षा रखती है और जो सबसे भिन्न रहता है, वह दौड़ में पिछड़ जाता है। हम मानकीकरण को अपना मूलमन्त्र बनाये बैठे हैं, सबको एक ही तुला से तौलने चले हैं।

जब तक ये तीनों गुण पोषित रहते हैं, बच्चे को अपना महत्व पता चलता रहता है। उसे लगता है कि वह अपने प्रयास से सीख रहा है, न कि शिक्षा पद्धति से बौद्धिक अनुदान पा रहा है। उसे करने का भाव मिलता है, न कि कुछ पा जाने का। आन्तरिक क्रियाशीलता बच्चे को प्रेरित करती है, उकसाती है। यदि ऐसा नहीं हो पाता है तो वह अपना रुझान खो देता है, ठंडा पड़ जाता है। थोपे हुये तत्व व्यक्तित्व को ठेस पहुँचाते हैं, वह उन्हें स्वीकार नहीं कर पाता है। विविधता बनी रहती है तो कुछ भी थोपा हुआ सा नहीं लगता है, उत्सुकता बनी रहती है तो कुछ थोपा हुआ सा नहीं लगता है, सृजनात्मकता बनी रहती है तो कुछ थोपा हुआ सा नहीं लगता है।

वर्तमान शिक्षा पद्धति को इस दिशा में सोचना होगा। फैक्टरी के स्वरूप में शिक्षा को उत्पाद नहीं बनाया जा सकता। शिक्षक और शिष्य के बीच वैयक्तिक और दीर्घकालिक संबंध और क्रियाशीलता आवश्यक है। एक के बाद एक सारे महान जनों को देख लें, उनके ऊपर किसी शिक्षक की कृपादृष्टि रही है, जिसने ये तीन गुण न केवल समझे, वरन व्यक्तित्व में विकसित कराये। बच्चे को पढ़ाने भर से शिक्षकीय कर्मों की इतिश्री नहीं हो सकती है। एक बच्चे को पढ़ना और तदानुसार गढ़ना, यही एक शिक्षक का मूल कार्य है, यही शिक्षा पद्धति की सार्थकता है।