कफ, वात और पित्त, ये तीन तत्व हैं जो शरीर में होते है और कार्यरत रहते हैं। कहने को तो इनको और भी विभाजित किया जा सकता था, पर ये तत्व भौतिक दृष्टि से दिखते भी हैं और गुण की दृष्टि से परिभाषित भी किये जा सकते हैं। शरीर की क्रियाशीलता में हम इनका अनुभव कर सकते हैं। कफ का अनुभव हमें अधिक ठंड में होता है। पित्त नित ही हमारे पाचन में सहयोग करता है। वात हमारे वेगों और तन्त्रिका संकेतों को संचालित करता है। यही कारण रहा होगा कि शरीर को विश्लेषित करने के लिये इनको आयुर्वेद में आधार माना गया है।
जीवन जीना प्रकृति चक्र का अंग होना है। प्रकृति के पाँच तत्वों से मिल कर ही बने हैं, कफ, पित्त और वात। कफ में धरती और जल है, पित्त में अग्नि और जल है, वात में वायु है, इन तत्वों की अनुपस्थिति आकाश है। प्रकृति में जिस प्रकार ये संतुलन में रहते हैं, हमारे शरीर में भी इन्हें संतुलन प्रिय है। जिस अनुपात में यह संतुलन शरीर में रहता है, वह हमारे शरीर की प्रकृति है। कुछ में कफ, कुछ में पित्त, कुछ में वायु या कुछ में इनके भिन्न अनुपात प्रबल होते हैं। यह संतुलित स्थिति हमारा शारीरिक ढाँचा, मानसिक स्थिरता और बौद्धिक व्यवहार निर्धारित करती है। यही संतुलन स्वास्थ्य परिभाषित करता है। प्रकृति से हमारे सतत पारस्परिक संबंधों में ये तीन तत्व घटते बढ़ते रहते हैं। किसी भी एक तत्व का शरीर में अधिक होना ही प्रकृति से हमारे घर्षण का कारण है। यही घर्षण रोग का कारण है। जब तक जीवनशैली या औषधियों से संतुलन की स्थिति में वापस पहुँचकर घर्षण कम किया जा सकता है, रोग साध्य रहता है। जब यह असंतुलन असाध्य हो जाता है, शरीर प्रकृति चक्र से बाहर आ जाता है, प्राण शरीर त्याग देते हैं।
वाग्भट्ट कृत अष्टांगहृदयं के प्रथम अध्याय में ही इन तीन तत्वों के गुण परिभाषित हैं। कौन सा या कौन से तत्व प्रभावी है, यह शरीर की बनावट, मानसिक स्थिति और बौद्धिकता से स्पष्ट हो जाता है। जहाँ वात के प्रभाव वाला मन से सतत चंचल होगा, वहीं कफ के प्रभाव वाला सौम्य और स्थिर होगा। इनके गुणों को समझ लेने से किस वस्तु, मौसम, क्रिया और भाव का शरीर पर क्या प्रभाव पड़ता है, उसके सैद्धान्तिक आधार स्पष्ट हो जाते हैं।
कफ के गुण हैं, स्निग्ध(चिकना), शीत, गुरु(भारी), मन्द, श्लक्ष्ण(खारापन के साथ चिकना), मृत्स्न(मिट्टी की तरह गन्ध वाला), स्थिर। ये गुण धरती और जल के सम्मिलित गुण हैं। जहाँ पर भी इनमें से एक या अधिक गुण कारण या प्रभाव में दिखेंगे, उसमें कफ की उपस्थिति मानी जायेगी। शीत है तो वह कफ बढ़ायेगा। यदि कफ अधिक है तो वह भारीपन या मन्द स्वाभाव लायेगा।
पित्त के गुण हैं, सस्नेह(तैलीय), तीक्ष्ण, ऊष्ण, लघु, विस्त्र(मृत शरीर की गन्ध सा), सर(बहने वाला), द्रव। ये गुण अग्नि और जल को परिभाषित करते हैं, कारण से भी या प्रभाव से भी। जिसे पसीना अधिक आता हो, उसमें ऊष्ण गुण है, वह पित्त के प्रभाव में है। ऐसे ही तीक्ष्ण गन्ध वाले पदार्थ पित्त बढ़ाते हैं।
वात के गुण हैं, रुक्ष, लघु, शीत, खर, सूक्ष्म, गतिमयता। ये सारे गुण वायु में भी पाये जाते हैं। यदि वात अधिक होगा त्वचा रुक्ष होगी। यदि मानसिक तनाव अधिक होगा तो विचारों की गतिमयता के कारण वात बढ़ेगा।
यही नहीं, दिन में, ऋतु में, क्रिया में, शरीर में इन तीनों तत्वों की प्रधानता बदलती रहती है। दिन के प्रारम्भ में कफ, मध्य में पित्त और अन्त में वात प्रधान हो जाता है। बचपन में कफ, युवावस्था में पित्त और वृद्धावस्था में वात प्रधान हो जाता है। पाचन के प्रारम्भ में कफ, मध्य में पित्त और अन्त में वात प्रधान हो जाता है। शरीर के ऊपरी भाग में कफ, मध्य में पित्त और नीचे में वात प्रधान हो जाता है। इसी प्रकार ग्रीष्म के चार माह वातप्रधान, वर्षा के चार माह पित्तप्रधान और शीत के चार माह व कफप्रधान होते हैं।
क्रियाओं को देखें तो उनमें भी यही गुण स्पष्ट दिखते है। सोने में इन्द्रियाँ स्थिर होती हैं तो कफ बढ़ता है। व्यायाम से शरीर संकुचित होता है तो लघु गुण के कारण वात और पित्त बढ़ता है। अधिक चिन्तित रहने से वात बढ़ता है। धूप में निकलने से ऊष्णता के कारण पित्त बढ़ता है। भावों में भी इन गुणों के मूल छिपे हैं। स्पर्श, रूप, रस, रंग, गंध में भी इन तीन गुणों के वर्धन या शमन के गुण छिपे हैं। रॉक संगीत या शास्त्रीय संगीत सुनने में ये तत्व भिन्न रूप से प्रभावित होते हैं।
जहाँ कफ संतुलन लाता है, कल्पनाशीलता लाता है, सृजन लाता है, वहीं इसकी अधिकता क्रोध और आक्रामकता लाती है। जहाँ पित्त शरीर का ताप नियन्त्रण करता है, ऊर्जा देता है, वहीं इसकी अधिकता ज्वर लाती है। जहाँ वात शरीर को गतिमय बनाता है, वेगों और तंत्रिकातन्त्र के संवेगों को संचालित करता है, वहीं दूसरी ओर इसकी अधिकता मानसिक असंतुलन का कारण बनती है।
हर प्रकार के खाद्य को आयुर्वेद में इसी आधार पर विश्लेषित किया गया है। क्या लेने से कौन सा तत्व शरीर में बढ़ता है और कौन सा तत्व शमित होता है, इसका विस्तृत वर्णन किया गया है। भोजन के माध्यम से ही किस तरह से बदलाव लाकर हम अपने मौलिक संतुलन की स्थिति में वापस जा सकते हैं। इसी सिद्धान्त को आगे बढ़ाते हुये, उन्हीं के आधार पर रोगों की चिकित्सा भी की जाती है। औषधियों में वह तीव्रता रहती है कि किसी तत्व की कमी या अधिकता को शीघ्रता से दूर किया जा सके।
इस आधार पर शरीर, काल, भाव और अन्य द्रव्यों की प्रकृति का वर्गीकरण एक वैज्ञानिक आधार है और वाग्भट्ट द्वारा कई दशकों की प्रायोगिक प्रक्रियाओं के बाद सिद्ध और लिपिबद्ध किया गया है। वाग्भट्ट ने ७००० श्लोकों में इसकी न केवल विस्तृत व्याख्या की है वरन औषधियों को बनाने की विधियों को वर्णित भी किया है। यही कारण है कि वाग्भट्ट की कृति के ऊपर १० से भी अधिक टीकायें लिखी जा चुकी और आयुर्वेद के आचार्यों में उसमें लिखे एक एक सूत्र के लिये निर्विवादित सम्मान है। ऐसी अद्भुत कृति को आंशिक रूप से भी पढ़ सकना मेरे मन में भारतीय मनीषियों और आयुर्वेद के लिये अभूतपूर्व कृतज्ञता का भाव संचारित करता है।
अब मुझे समझ में आ रहा है कि देशी विधियों के प्रभाव के पीछे आयुर्वेद सम्मत वाग्भट्ट के सूत्रों का सशक्त वैज्ञानिक आधार है। हमारे पूर्वज जो नियम परम्परा से निभाते आ रहे हैं, उसके पीछे आयुर्वेद का व्यापक प्रसार है। कालान्तर में पराधीनता के पाशों में हमें नियम तो याद रहे पर उनका वैज्ञानिक आधार लुप्त हो गया। आवश्यकता है उसे पूर्णविश्वास से अपनाने की।
आगे की कड़ियों में इसको विस्तारित करते व्यावहारिक उपाय।