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19.12.12

टिप्पणियाँ भी साहित्य हैं

कुछ दिन पहले देखा कि देवेन्द्र पाण्डेय जी ने एक ब्लॉग बनाया है, टिप्पणियों का। इसमें वह किसी पोस्ट को चुनते हैं और पोस्ट पर की गयी टिप्पणियों के संवाद को समझाने का कार्य करते हैं। बड़ी ही रोचक और रसमय प्रक्रिया है यह। इसके पहले रविकरजी की काव्यात्मक टिप्पणियों का ब्लॉग भी पढ़ने को मिलता रहा है। काव्यात्मक टिप्पणियाँ न केवल पोस्ट के भाव को संक्षेप में व्यक्त करती हैं, वरन उस विषय पर अपना मत भी व्यक्त करती हैं।

उत्साहवर्धक और संवेदनात्मक टिप्पणियों की सार्थकता है, पर उससे भी अधिक बात करती हुयी वो टिप्पणियाँ होती हैं जो विषय के किसी पक्ष को उजागर करते हुये लिखी जाती है। कई बार कुछ पोस्ट पढ़ना प्रारम्भ करते हैं, उस पर की गयी टिप्पणियाँ पढ़ते हैं, तो विषय पर किया गया एक शोध सा सामने आ जाता है। अपने ब्लॉग पर ही देखता हूँ, कई बार टिप्पणियाँ इतनी पूर्ण होती हैं कि उन्हें चुरा कर अपनी पोस्ट में लगा लेने की इच्छा होती है। आभूषण की तरह सज जाती हैं वे पोस्ट के सौन्दर्य में। कभी कभी तो लगता है कि पोस्ट तो मात्र विषय की प्रस्तावना ही होती है, उस विषय का शेष विस्तार तो बाद में आता है, टिप्पणियों के माध्यम से। कई बार तो किसी पाठक विशेष की टिप्पणी क्या रहेगी, यह उत्सुकता रहती है पोस्ट लिखते समय। देखिये तो, हम पोस्ट लिखते समय टिप्पणियों का चिन्तन करते हैं, वहीं सुधीजन टिप्पणी लिखते समय पोस्ट का पूरा अर्थ शब्दों में मथ देते हैं।

यह बड़ा ही रोचक तथ्य कि इसमें लेखक और पाठक की चिन्तन प्रक्रिया को सहारा देती है टिप्पणियों की व्यवस्था। जब ब्लॉग प्रारम्भ हुये होंगे तो यह संबंध हमारी कल्पना में आये भी नहीं होंगे। अंग्रेज़ी के ब्लॉग, जो मैं पढ़ता हूँ, वे मुख्यतः तकनीक से जुड़े होते हैं और उनमें संवाद से अधिक तथ्य प्रमुख स्थान पाते हैं। अंग्रेज़ी के अन्य ब्लॉग भी जो चिन्तन प्रधान होते हैं, उन पर भी संवाद की उतनी अधिक मात्रा नहीं दिखी मुझे। हिन्दी के ब्लॉगों में जो चौपाल दिखती है, वैसी कहीं नहीं दिखी हमें। लोग बात करते हुये से लगते हैं, चर्चायें मुख्यतः सकारात्मक ही होती हैं, यदि कहीं पर मतभिन्नता दिखती भी है तो संवाद और उभर आता है, अस्त नहीं होता है। वातावरण जीवन्त सा दिखता है, यदि एक स्थान सूखा दिखता है तो वर्षा कहीं और प्रारम्भ हो जाती है, पर समग्रता में देखा जाये तो प्रवाह बना ही रहता है।

कारणों की चर्चा करें तो बहुत अधिक विचार नहीं करना पड़ेगा। हमारे समाज का प्रभाव हमारे ब्लॉगों के प्रारूप पर स्पष्ट दिखता है। पान की दुकानों पर, नाई से बाल कटाते समय, हलवाई के यहाँ चाय की चुस्कियाँ लेते समय, बनारस के घाटों पर और गाँव की चौपालों में, हम विश्व के न जाने कितने नेताओं के निर्णयों पर प्रश्नचिन्ह खड़े कर देते हैं। राजनीति के विषय के अतिरिक्त बात संस्कृति की बारीकियों की हो, इतिहास की भूलों की हो, व्यक्तित्वों की हो या उनसे जुड़ी चटपटी सूचनाओं की हो, शायद ही कोई पक्ष छूटता होगा इन संवादों से। राजनैतिक विषयों की प्रारम्भिक समझ में इन अनौपचारिक चौपालों का विशेष महत्व रहा है, मेरे लिये भी और मेरे जैसे न जाने कितने और लोगों के लिये भी।

जब पोस्ट और उन पर हुयी टिप्पणियों को देखता हूँ तो वही सब स्थान याद आने लगते हैं। जैसे उन चर्चाओं में याद नहीं रहता था कि चर्चा छेड़ी किसने थी, मोड़ी किसने थी और समाप्त किसने की। यदि कुछ याद रहता है तो उस पर पारित हुये सामूहिक निर्णय। कौन से विचार सबकी सहमति धरते हैं, कौन विचार अभी तक अनसुलझे हैं और भविष्य की चर्चा का आधार बन सकते हैं। धीरे धीरे हमारी समझ बढ़ती है, आगामी चर्चा का स्तर बढ़ता है और विषय अपने निष्कर्षों पर पहुँचने लगता है।

जब किसी विषय में संवाद का इतना महत्व है तो संवाद विषय का अभिन्न अंग भी हुआ। टिप्पणियाँ जब संवाद का स्वरूप ले लेती हों तो वह भी विषय का अंग हो जाती हैं। जब लिखी हुयी पोस्ट साहित्य हो जाये तो टिप्पणियाँ भी साहित्य हो गयीं। टिप्पणियों का महत्व निश्चय ही इस प्रकार सबके लिये ही है।

आप अपनी टिप्पणियों को कितना महत्व देते है? दानकर भूल जाते हैं या उसकी एक प्रति अपने पास भी रख लेते हैं। मैं टिप्पणियों को अपने सृजन का अंग मानता हूँ अतः उन्हें कहीं सुरक्षित रख लेता हूँ। यद्यपि औरों के द्वारा की हुयी टिप्पणियाँ आपकी पोस्ट में और ब्लॉगर खाते में सुरक्षित रहती हैं, आपके द्वारा औरों के ब्लॉग पर की हुयी टिप्पणियाँ सुरक्षित नहीं रहती हैं। कभी कभी ब्लॉग संकलक हारम् पर पिछली कई टिप्पणियों का संकलन देख कर हर्षमिश्रित प्रसन्नता होती है। ब्लॉगर तो देर सबेर हमारे द्वारा की हुयी टिप्पणियाँ भी संरक्षित और संकलित कर ही देगा पर वर्तमान में जितनी दमदार टिप्पणियाँ स्मृति से निकली जा रही हैं, उन्हें स्वयं ही सहेज के रखने की आवश्यकता है।

मैं तो अपनी टिप्पणियाँ सहेज कर रखता हूँ, कभी कभी उस स्मृति के रूप में जो किसी का उत्कृष्ट ब्लॉग पढ़कर मन में आयी। अच्छा पढ़ने के बाद मन में सुप्त विचारों को शब्द मिलने लगते हैं, शब्द अच्छे मिलते हैं, सृजन होता है। मेरे द्वारा की गयी अच्छी टिप्पणियाँ अच्छी पोस्टों की कृतज्ञ हैं, जितनी अच्छी पोस्ट होती हैं, टिप्पणियों का स्तर उतना ही बढ़ जाता है।

पिछली पोस्ट पर मुझे इस बात का संबल मिला कि अच्छा पढ़ना भी चाहिये और उसके आधार पर अच्छी पोस्ट लिखनी भी चाहिये। अच्छी पुस्तक पढ़ उसके बारे में लिखने की इच्छा होती है। यही तर्क औरों के द्वारा लिखित अच्छी पोस्टों को पढ़ने के बाद भी लागू होती है, उन्हें पढ़ने के बाद भी कुछ त्वरित लिखने का मन करता है, वह लेखन ही टिप्पणियाँ हैं। एक अच्छी पुस्तक हो या एक अच्छी पोस्ट हो, उसे पढ़ने के बाद आप एक पोस्ट लिखें या एक टिप्पणी, वह भी सृजन का अंग है, वह भी साहित्य का अंग है। जितना संभव हो पढ़ें, जितना संभव हो स्वयं को व्यक्त करें। टिप्पणियाँ व्यर्थ नहीं हैं, टिप्पणियाँ व्यापार नहीं है, टिप्पणियाँ साहित्य हैं।

22.2.12

फेसबुक, आपको भी धन्यवाद और विदा

नकारात्मकता से सदा ही बचना चाहता हूँ, बहुत प्रयास करता हूँ कि किसे ऐसे विषय पर न लिखूँ जिसमें पक्ष और विपक्ष के कई पाले बना कर विवाद हो, विवाद में ऊर्जा व्यर्थ हो, ऊर्जा जो कहीं और लगायी जा सकती थी, सकारात्मक दिशा में। जीवन में प्रयोगों का महत्व है, प्रयोगों से ही कुछ नया संभव भी है, प्रयोगों में प्राप्त अनुभव और भी महत्वपूर्ण होते हैं और विषयवस्तु की उपादेयता के बारे में औरों को आगाह करने में सहायक भी।

ऐसा ही एक प्रयोग फेसबुक के साथ किया था, कुछ माह पहले, सम्पर्क लगभग २५० के साथ, कई पुराने मित्र और परिवार के सदस्य, उपयोग मूलतः अपने पोस्ट का लिंक देने के लिये, साथ ही साथ कुछ रोचक पढ़ लेने का उपक्रम। बस इसी भाव से फेसबुक में गया था, वह भी किसी के यह कहने पर कि फेसबुक में साहित्य का भविष्य है। अनुभव यदि कटु नहीं रहा तो उत्साहजनक भी नहीं रहा, कुछ दिनों पहले अपना खाता बन्द कर दिया है, पूरा विचार किया, अपनी न्यूनतम और अनिवार्य की श्रेणी में उसे बैठा नहीं पाया। इसके पहले दो माह का साथ ट्विटर के साथ भी था पर वह चूँ चूँ भी निरर्थक ही लगी। अब रही सही उपस्थिति अपने ब्लॉग के साथ ही बची है, वह चलती रहेगी।

हर निर्णय का आधार होता है, आधार स्पष्ट हो तो व्यक्त भी किया जा सकता है। आधार के तीन सम्पर्क बिन्दु थे, समय, साहित्य और सामाजिकता। इन तीनों बिन्दुओं पर कितना कुछ रिस रहा था और कितना रस मिल रहा था, यह अनुभव हर व्यक्ति के लिये भिन्न हो सकता है, पर विश्लेषण हेतु विषय का उठना आवश्यक है।

पहला है सामाजिकता। यह फेसबुक का सुदृढ़ पक्ष है। अपने कई परिचितों के बारे में जाना, वे कहाँ रह रहे हैं, क्या कर रहे हैं, कुछ चित्र उनके परिवारों के, कुछ घूमने के, कुछ त्योहार के, कुछ मित्रों के साथ, जन्मदिन और वैवाहिक वर्षगाँठ की शुभकामनायें। वैसे तो जिन मित्रों और संबंधियों को जानना आवश्यक था, वे तो फेसबुक से पहले भी सम्पर्क में थे। फेसबुक के माध्यम से उनके बारे में कुछ और जान गये। कुछ और लोगों से भी परिचय बढ़ा पर उसका आधार साहित्यिक न हो विशुद्ध जान पहचान का ही रहा, वह भी किसी तीसरे पक्ष के माध्यम से। संबंधों को महत्व देने वालों के लिये, संबंधों की संख्या से कहीं अधिक, उनकी गुणवत्ता पर विश्वास होता है। फेसबुक में संबंधों का प्रवाहमयी संसार तो मिला पर जब उसकी अभिव्यक्ति में गाढ़ेपन की गहराई ढूढ़ी तो छिछलेपन के अतिरिक्त कुछ भी नहीं पाया।

दोष वातावरण का है, जहाँ स्वयं को व्यक्त करने की होड़ लगी हो, सम्पर्कों की संख्या चर्चित होने के मानक हों, औरों की अभिव्यक्ति का अवमूल्यन केवल लाइक बटन दबा कर हो जाता हो, वहाँ संबंधों के प्रगाढ़ होने की अपेक्षा करना बेईमानी है। संबंधों को पल्लवित करने के लिये समय देना पड़ता है, लगभग बराबर का, स्वयं की अभिव्यक्ति में दिया समय औरों द्वारा अभिव्यक्त को पढ़ने में दिये समय से कम ही रहे। इस वातावरण में ऊपर ऊपर तैरने को आनन्द तो बना रहा पर गहरे उतर कुछ संतुष्टि जैसा कुछ भी अर्जित नहीं हुआ।

दूसरा है समय। जहाँ पर गतिविधियों की झड़ी लगी हो, वहाँ कितना समय सर्र से निकल जाता है, पता ही नहीं चलता है। कई लोगों को जानता हूँ जो सुबह उठकर मुँह धोने के पहले फेसबुक देखते हैं। दिन में कई बार फेसबुक में कुछ न कुछ देखने में समय स्वाहा करने की लत लग जाती है सबको। संभवतः यही कारण है कई संस्थानों में फेसबुक पर रोक लगा दी गयी है। एकाग्रता नहीं रह पाती है, जब भी कुछ सोचने का समय आता है, मन में फेसबुक की घटनायें घूम जाती हैं। भरी भीड़ में परिवेश से त्यक्त युवा बहुधा फेसबुक में विचरते पाये जाते हैं। मेरा भी पर्याप्त समय फेसबुक चुराता रहा, जो पिछले कई दिनों से मुझे पूरी तरह से मिल रहा है।

तीसरा है साहित्य। साहित्य की दृष्टि से अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम ब्लॉग ही है। ट्विटर के १५० अक्षरों में केवल चूँ चूँ ही की जा सकती है। आप अपने होने, न होने, खोने, पाने की सूचना तो दे सकते हैं पर साहित्य सा कुछ लिख नहीं सकते हैं। फेसबुक में भी जहाँ सामाजिकता प्रधान वातावरण हो, वहाँ साहित्य गौड़ हो जाता है। वैसे तो ब्लॉग भी साहित्य का गहरा प्रारूप नहीं है, पाँच छै पैराग्राफ में बड़ी कठिनता से एक विषय समेटा जा सकता है, पर वर्तमान में यही साहित्य की न्यूनतम अभिव्यक्ति और ग्रहण करने की ईकाई है। जहाँ लाखों उदीयमान साहित्यकारों के योगदान से साहित्य सृजन के स्वप्न देखे जा रहे हों, वहाँ अभिव्यक्ति के लिये ब्लॉग से छोटी ईकाईयों का स्थान नहीं है।

पाठक ढूढ़ने का श्रम लेखक को करना होता है, उसी तरह अच्छे लेखक को ढूढ़ने का श्रम पाठक को भी करना पड़ता है। माध्यमों की अधिकता ध्यान बाटती है, अभिव्यक्ति का कूड़ा एकत्र करती है। छोटी चीजें से कुछ बड़ा बन पाने में संशय है, रेत से पिरामिड नहीं बनते, उनके लिये बड़े पत्थरों की आवश्यकता होती है। महाग्रन्थों का युग नहीं रहा पर कम से कम ब्लॉग की ईकाई से सबका योगदान बनाये रखा जा सकता है। साहित्य संवर्धन तो तभी होगा, जब अधिक लोग लिखें, अधिक लोग पढ़ें, लोग अच्छा लिखें, लोग अच्छा पढ़ें, अधिक समय तक रुचि बनी रहे, जब समय मिले तब साहित्य ही पढ़ें, बस में, ट्रेन में, हर जगह। फेसबुक सामाजिकता संवर्धित कर सकता है, साहित्य नहीं।

फेसबुक, आपको भी धन्यवाद और विदा।

13.8.11

वननोट और आउटलुक

एक बार लिख लेने के बाद सूचना को व्यवस्थित रखना और समय आने पर उसको ढूढ़ निकालना, इन दो कार्यों के लिये वननोट और आउटलुक का प्रयोग बड़ा ही उपयोगी रहा है मेरे लिये। प्रोग्रामों की भीड़ में अन्ततः इन दोनों पर आकर स्थिर होना, मेरे लिये प्रयोगों और सरलीकरण के कई वर्षों का निष्कर्ष रहा है। 1985 में बालसुलभ उत्सुकता से प्रारम्भ कर आज तक की नियमित आवश्यकता तक का मार्ग देखा है मेरे कम्प्यूटरों ने, न जाने कहाँ और कब यह साथ दार्शनिक हो गया, पता ही नहीं चला।

हर व्यक्ति के पास मोबाइल, दूर प्रदेशों और विदेशों में जाकर पढ़ते सम्बन्धी, विद्यालय, आईआईटी और नौकरी में बढ़ती मित्रों की संख्या, धीरे धीरे संपर्कों की संख्या डायरी के बूते के बाहर की बात हो गयी। प्रारम्भिक सिमकार्डों और मोबाइलों की भी एक सीमा थी, समय 2001 के पास का था। संपर्क, उनकी जन्मतिथियाँ, वैवाहिक वर्षगाठें, बैठकें, कार्यसूची आदि की बढ़ती संख्या और आवश्यकता थी एक ऐसे प्रोग्राम की जिस पर सब डाल कर निश्चिन्त बैठा जा सके। माइक्रोसॉफ्ट के ऑफिस आउटलुक में मुझे वह सब मिल गया और आज दस वर्ष होने पर भी वह सूचना का सर्वाधिक प्रभावी अंग है मेरे लिये। न जाने कितने मोबाइल बदले, नोकिया, सोनी, ब्लैकबेरी, विन्डोज, हर एक के साथ आउटलुक का समन्वय निर्बाध रहा। अनुस्मारक लगा देने के बाद कम्प्यूटर एक सधे हुये सहयोगी की तरह साथ निभाता रहा। यही नहीं, कई खातों के ईमेल और एसएमएस स्वतः आउटलुक के माध्यम से फीड में आते रहे, आवश्यक कार्य व बैठक में परिवर्तित होते रहे।

2007 तक अपनी सारी फाइलों को अलग अलग फोल्डरों में विषयानुसार रखने का अभ्यास हो चुका था। मुख्यतः वर्ड्स, एक्सेल, पॉवर-प्वाइण्ट, पीडीएफ, एचटीएमएल। यह बात अलग है कि हर बार किसी फाइल को खोलने और बन्द करने में ही इतना समय लग जाता था कि विचारों का तारतम्य टूटता रहता था। माइक्रोसॉफ्ट के ऑफिस वननोट की अवधारणा संभवतः यही देखकर की गयी होगी। वननोट का ढाँचा देखें तो आपको इसका स्वरूप किसी पुस्तकालय से मिलता जुलता लगता है, उसकी तुलना में अन्य प्रोग्राम कागज के अलग अलग फर्रों जैसे दिखते हैं। संग्रहण के कई स्तर हैं इसमें, प्रथम-स्तर वर्कबुक कहलाता है, आप जितनी चाहें वर्कबुक बना सकते हैं, विभिन्न क्षेत्रों के लिये जैसे व्यक्तिगत, प्रशासनिक, लेखन, पठन, तकनीक, मोबाइल समन्वय आदि। हर वर्कबुक में आप कई सेक्शन्स रख सकते हैं जैसे लेखन के अन्दर ब्लॉग, कविता, कहानी, पुस्तकें, संस्मरण, डायरी, टिप्पणी इत्यादि, यही नहीं आप कई सेक्शन्स को समूह में रखकर एक सेक्शन-समूह बना सकते हैं। हर सेक्शन में आप कितने ही पृष्ठ रख सकते, एक तरह के विषयों से सम्बन्धित उपपृष्ठ भी।

हर पृष्ठ पर आप कितने ही बॉक्स बनाकर अपनी जानकारी रख सकते हैं, उन बाक्सों के कहीं पर भी रखा जा सकता है। शब्द, टेबल, चित्र, ऑडियो, कुछ भी उनमें सहेजा जा सकता है। आप स्क्रीन पर आये किसी भी भाग को चित्र के रूप में सहेज सकते हैं, किसी भी सेक्शन को पासवर्ड से लॉक कर सकते हैं। मेरी सारी सूचनायें इस समय वननोट में ही स्थित हैं।

अब संक्षिप्त में इसके लाभ गिना देता हूँ। इसमें बार बार सेव करने की आवश्यकता नहीं पड़ती है, स्वयं ही होता रहता है। मैंने अपनी कई वर्कबुकों को इण्टरनेट में विण्डोलाइव से जोड़ रखा है, कहीं पर कुछ भी बदलाव करने से स्वतः समन्वय हो जाता है। एक वर्कबुक मेरे विण्डो मोबाइल से भी सम्बद्ध है, मोबाइल पर लिखा इसमें स्वतः आ जाता है। यदि कभी किसी बैठक में किसी आलेख की आवश्यकता पड़ती है तो उसे मोबाइल की वर्कबुक में डाल देता हूँ, वह मोबाइल में स्वतः पहुँच जाती है। सूचना का तीनों अवयवों में निर्बाध विचरण।

आउटलुक में ईमेल, ब्लॉग फीड या अन्य अवयवों को सहेज कर पढ़ना चाहें तो 'सेण्ड टु वननोट' का बटन दबाते ही सूचना वननोट में संग्रहित हो जाती है। इसी प्रकार कोई भी वेब पृष्ठ स्वतः ही वननोट में सहेज लेता हूँ। यदि उसे मोबाइल में पढ़ना है तो उसे मोबाइल की वर्कबुक में भेज देता हूँ।

आप किसी भी वाक्य को कार्य में बदल सकते हैं, वह स्वतः ही आउटलुक में पहुँच जायेगा और वननोट के उस पृष्ठ से सम्बद्ध रहेगा। किसी भी वाक्य या शब्द में टैग लगाने की सुविधा होने के कारण आप जब भी सार देखेंगे तो सारे टैगयुक्त वाक्य एक पृष्ठ में आ जायेंगे। मैं उसी पृष्ठ को उस दिन की कार्यसूची के रूप में नित्य सुबह मोबाइल में सहेज लेता हूँ।


लगभग तीन वर्षों से मैं कागज और पेन लेकर नहीं चला हूँ। बैठकों में अपने मोबाइल पर ही टाइप कर लेता हूँ और यदि समय कम हो तो हाथ से भी लिख लेता हूँ। एक सूचना को कभी दुबारा डालने की आवश्यकता अभी तक नहीं पड़ी है। दो वर्ष पहले किसी विषय पर आये विचार अब तक संदर्भ सहित संग्रहित हैं। किसी भी शब्द को डालने भर से वह किन किन पृष्ठों पर है, स्वतः सामने प्रस्तुत हो जाता है।

हाथ से लिखा बहुत ही ढंग से रखता है वननोट, आने वाले समय में हाथ से लिखी हिन्दी को भी यूनीकोड में बदलेगा कम्प्यूटर तब हम अपने बचपन के दिनों में वापस चले जायेंगे और सब कुछ स्लेट पर ही उतारा करेंगे।

लाभ अभी और भी हैं, आपकी उत्सुकता जगा दी है, शेष भ्रमण आपको करना है। या कहें कि दो इक्के आपको दे दिये हैं, तीसरा आपको अपना फिट करना है, सोच समझ कर कीजियेगा।

10.8.11

संग्रहण और प्रवाह

मानव मस्तिष्क की एक क्षमता होती है, स्मृति के क्षेत्र में। बहुत अधिक सूचना भर लेने के बाद यह पूरी संभावना रहती है कि आगत सूचनायें ठहर नहीं रह पायेंगी और बाहर छलक जायेंगी। यह न हो, इसके लिये बहुत आवश्यक है कि उन्हें लिख लिया जाये। तीक्ष्ण बुद्धि के स्वामी भी स्मृति लोप से ग्रसित रहते हैं, जोर डालते हैं कि क्या भूल रहे हैं? अतः जिस समय जो भी विचार आये, लिख लिया जाये। यह आप निश्चय मान लीजिये यदि वह विचार दुबारा आता है तो आप पर उपकार करता है। अब विचार कहीं पर भी आ सकता है तो तैयारी सदा रहनी चाहिये उसे लिख लेने की। या तो एक छोटी सी डायरी हो एक पेन के साथ या आप अपने मोबाइल में ही लिख सकें वह विचार। मुझे भी अपनी स्मृति पर उतना भरोसा नहीं है, मुझे जो भी विचार उपहार में मिलता है मैं समेट लेता हूँ।

इसी प्रकार अध्ययन करते समय कई रचनायें व विषय समयाभाव के कारण उसी समय नहीं पढ़े जा सकते हैं, यह आवश्यक है कि उन्हें किसी ऐसी जगह संग्रहित कर लिया जाये जहाँ पर आप समय मिलने पर विस्तार से पुनः पढ़ सकें। किसी विषय पर शोध करने पर बहुत सी सूचनायें प्रथमतः पृथक स्वरूप में होती है पर उनका समुचित विश्लेषण करने के लिये उन्हें एक स्थान पर रखना आवश्यक होता है। कभी इण्टरनेट में, कभी पुस्तक में, कभी दीवार पर, कभी सूचना बोर्ड पर, कभी चित्र के माध्यम से, कभी वाणी रूप में, कभी मैसेज में, कभी ईमेल में, कभी ब्लॉग में, हर प्रकार से आपको सम्बन्धित तथ्य मिलते रहते हैं, आपको सहेजना होता है, रखना होता है, एक स्थान पर, भविष्य के लिये।

साहित्य के अतिरिक्त भी, अपने अपने व्यावसायिक क्षेत्रों में सम्बद्ध ज्ञान-संवर्धन और नियमावली अपना महत्व रखते हैं और आपकी निर्णय प्रक्रिया को प्रभावित करते हैं। औरों पर निर्भरता कम रहे और निर्णय निष्पक्ष लिये जायें, उसके लिये भी आवश्यक है कि हम अपना ज्ञान संग्रहित और संवर्धित करते चलें। सामाजिक और व्यावसायिक बाध्यतायें आपको ढेरों संपर्क, तिथियाँ, बैठकें, कार्य, निर्देश आदि याद रखने पर विवश करेंगी, उन्हें कैसे सहेजना है, कैसे उपयोग में लाना है और कैसे उन्हें अगले स्तर पर पहुँचा प्रवाह बनाये रखना है, यह स्वयं में एक बड़ा और अत्यन्त ही आवश्यक कार्य है।

डिजिटल रूप में विविध प्रकार की सूचना का संग्रहण मुख्यतः आपके कम्प्यूटर में होता है, आपका ज्ञान आपके साथ और चल सकता है यदि आपके पास लैपटॉप हो। सूचनाओं के एकत्रीकरण के लिये एक उपयोगी मोबाइल और सूचनाओं के बैकअप के लिये इण्टरनेट का प्रयोग आपके संग्रहण को पूर्ण बनाता है। लैपटॉप, मोबाइल और इण्टरनेट, ये तीन अवयव एक दूसरे के पूरक भी हैं और आवश्यक समग्रता भी रखते हैं। आपका संग्रहण-प्रवाह इन तीनों पर आधारित बने रहने से कभी अवरुद्ध नहीं होगा।

सूचना के संग्रहण के तीन अवयव किसी एक डोर से बँधे हों जिससे इन तीनों के समन्वय में आपको कोई प्रयास न करना पड़े। कहीं भी और किसी भी माध्यम से एकत्र सूचना इन तीन अवयवों में स्वमेव पहुँच जानी चाहिये। कहीं आपको इण्टरनेट नहीं मिलेगा, कहीं आपका लैपटॉप आपके पास नहीं रहेगा, कई बार आप मोबाइल बदल लेते हैं या खो देते हैं। यह सब होने पर भी आपका सूचना-तंत्र निर्बाध बढ़ना चाहिये। किसी भी सूचना का आपकी परिधि में बस एक बार आगमन हो, उसे उपयोग में लाने के लिये बार बार बदलना न पड़े। जब मैं लोगों को मोबाइल बदलते समय सारे संपर्क हाथ से भरते हुये या सिमकार्ड से बार बार कॉपी करते हुये देखता हूँ तो मुझे ऊर्जा व्यर्थ होते देख दुःख भी होता है और क्षोभ भी।

सूचनाओं का संग्रहण और समग्र समन्वय, तीनों अवयवों में उनका स्वरूप, एकत्रीकरण और विश्लेषण में लचीलापन, समय पड़ने पर उनकी खोज। इन विषयों का महत्व जाने बिना यदि आप मोबाइल का चयन, लैपटॉप पर संग्रहक प्रोग्राम का चयन और इण्टरनेट पर इन सूचनाओं के स्वरूप का चयन करते हैं, तो संभव है कि आपका संग्रहण आपकी ऊर्जा और समय व्यर्थ करेगा।

असहज मत हों, इन सिद्धान्तों को मन में बिठा लेने के पश्चात जो भी आपके संग्रहण का प्रारूप होगा, वह आपको ही लाभ पहुँचायेगा। इस प्रकार संरक्षित ऊर्जा और समय साहित्य संवर्धन में लगेगा।

इस बार आप अपने संग्रहण के प्रारूप पर मनन कर लें, अगली बार बाजी पास नहीं करूँगा, अपने पत्ते दिखा दूँगा।

6.8.11

साहित्य और संग्रहण

संग्रहण मनुष्य का प्राचीनतम व्यसन है। जब कभी भी कोई अतिरिक्त वस्त्र, भोजन, शस्त्र इत्यादि अस्तित्व में आया होगा, उसका संग्रहण किस प्रकार किया जाये, यह प्रश्न अवश्य उठा होगा। हर वस्तु के संग्रह करने की अलग विधि, अलग स्थान, अलग सुरक्षा, अलग समय सीमा। मूलभूत संग्रहण को पूरा करने के पश्चात आवश्यकताओं का क्रम और बढ़ा, ज्ञान, विज्ञान, कला, साहित्य, सौन्दर्यबोध आदि विषय पनपे, उनसे सम्बन्धित संग्रहण भी आकार लेने लगा। मशीनें आयीं, कारखाने आये, व्यवसाय आया, संग्रहण का विज्ञान धीरे धीरे विकसित होने लगा। आज संग्रहण पर विशेषज्ञता, किसी भी व्यवसाय का अभिन्न अंग बन चुकी है।

हर व्यक्ति संग्रह करता है, आवश्यक भी है, कोई अत्याधिक करता है, कोई न्यूनतम रखता है। पशुओं में भी संग्रहण का गुण दिखता है, जीवन में अनिश्चितता का भय इस संग्रह का प्रमुख कारण है। हम अपने घरों की सीमाओं में न जाने कितनी प्रकार की वस्तुओं को रखते हैं, हर एक का नियत स्थान और नियत आकार। मूलभूत आवश्यकताओं के ही लिये यदि घरों का निर्माण होता तो सारा विश्व अपने दसवें भाग में सिमट गया होता।

नये विश्व में नित नयी नयी वस्तुयें जन्म ले रही हैं, सबका अपना अलग संग्रहण प्रारूप। आलेखों, श्रव्य और दृश्य सामग्रियों को डिजिटल स्वरूप दिया जा रहा है, भौतिक विश्व धीरे धीरे आभासी में बदलता जा रहा है अब चित्रों में भौतिक रंग नहीं वरन 1 और 0 से निर्मित आभासी रंगों का मिश्रण पड़ा होता है। भौतिक पुस्तकें और डायरी अब इतिहास के विषय होने को अग्रसर हैं, उनका स्थान ले रहे हैं उनके डिजिटल अवतार। पुस्तकालय या तो आपके कम्प्यूटर पर सिमट रहे हैं या इण्टरनेट के किसी सर्वर पर धूनी रमाये बैठे हैं।

आप लेख लिखते हैं, कहानियाँ रचते हैं, कवितायें करते हैं, गीत गुनते हैं, चित्र गढ़ते हैं। संवाद के माध्यम डिजिटल होने के कारण, उन सृजनाओं का डिजिटल स्वरूप आवश्यक हो जाता है। बहुधा कम्प्यूटर के ही किसी भाग में आपके सृजित-शब्द पड़े रहते हैं, फाइलों के रूप में। हम नव-उत्साहियों के पास ऐसी सैकड़ों फाइलें होंगी और जो वर्षों से सृजन-कर्म में रत हैं, उनके लिये यह संख्या निश्चय ही हजारों में होगी। न जाने कितनी फाइलें ऐसी होंगी जिसमें कोई एक विचार बाट जोहता होगा कि कब वह रचना की सम्पूर्णता पायेगा। सृजित और सृजनशील, पठित और पठनशील, न जाने कितनी रचनायें, कई विधायें, कई विषय, कई प्रकल्प, कई संदर्भ, यह सब मिलकर साहित्य संग्रहण के कार्य को गुरुतर अवश्य बना देते होंगे।

साहित्यकार ही नहीं, शोधकर्ता, विद्यार्थी, वैज्ञानिक, बुद्धिजीवी और इस श्रेणी में स्थित सबको ही ज्ञान के संग्रहण की आवश्यकता पड़ती है। संग्रहण के सिद्धान्त भौतिक जगत में जिस तरह से प्रयुक्त होते हैं, लगभग वैसे ही डिजिटल क्षेत्र में भी उपयोग में आते हैं। कम स्थान में समुचित रखरखाव, समय पड़ने पर उनकी खोज, खोज में लगा समय न्यूनतम, शब्दों और विषयों के आधार पर खोज, अनावश्यक का निष्कासन, आवश्यक की गतिशीलता।

कम्प्यूटर में कोई फाइल कहाँ है यह पता लगाना सरल है यदि आपने बड़े ही वैज्ञानिक ढंग से उनका संग्रहण किया है। आपको उस फाइल का नाम थोड़ा भी ज्ञात है तब भी कम्प्यूटर आपको खोज कर दे देगा आपकी रचना। किन्तु यदि आपको बस इतना याद पड़े कि उस रचना में कोई शब्द विशेष उपयोग किया है, तो असंभव सा हो जायेगा खोज करना। कम्प्यूटर तब एक नगर जैसा हो जाता है और आपकी खोज में एक रचना किसी घर जैसी हो जाती है।

देखिये न, गूगल महाराज खोज के व्यवसाय से ही कितने प्रभावशाली हो गये हैं, इण्टरनेटीय ज्ञान में गोता लगाने में इनकी महारत आपको इण्टरनेट में तो सहायता दे सकती है पर आपके अपने कम्प्यूटर में वे कितना सहायक हो पायेंगे, इस विषय में संशय है। वैसे भी यदि ज्ञान इण्टरनेट पर न हो या ठीक से क्रमबद्ध न हो तो उस विषय में गूगल भी गुगला जाते हैं। एक विषय पर लाखों निष्कर्ष दे आपका धैर्य परखते हैं और पार्श्व में मुस्कराते हैं।

आपके कम्प्यूटर पर साहित्यिक संग्रह आपका है, उपयोग आपको करना है, व्यवस्थित आपको करना है। आप करते हैं या नहीं? यदि करते हैं तो कैसे? अपनी विधि से आपको भी अवगत करायेंगे, पर आपकी विधि जानने के बाद।

22.12.10

किसी की मुस्कराहटों पे हो निसार

न जाने कितनी बार आपको ऐसा लगा होगा कि कोई ऐसा ही गीत है जो बस आपके लिये लिखा गया है। उन्मत्त सुख के अवसरों पर, विदारणीय दुख की घड़ियों में, आपके द्वारा सुने जा रहे गीत आपसे बातें करने लगते हैं। गीतों में निहित मूल भाव, उनके कारण और प्रभाव आपसे पहले का परिचय रखते हुये से दिखते हैं।

मुझे कई गीत बहुत भाते हैं, जब भी सुनता हूँ, साथ में गाने लगता हूँ, बहुधा परिवेश भूल जाता हूँ। पता नहीं कि शब्द अच्छे लगते हैं या भाव या संगीत या स्वयं का गाना। कभी कभी जब विचार भटकाने लगते हैं अन्धे कूप में तो वहाँ इन्हीं गीतों की प्रतिध्वनियाँ सुनायी पड़ने लगती हैं, मैं पुनः गुनगुनाने लगता हूँ और बाहर निकल आता हूँ अपनी भँवरों से। जब गाना बन्द करता हूँ तब सब समझ जाते हैं कि अब बात की जा सकती है श्रीमानजी से।

साहित्य की पवित्रता भंग न होने देने वालों के लिये फिल्मी गीतों को साहित्य न मानना एक हठ हो सकता है, पर पता नहीं क्यों भावों का गहरापन आपको इन गीतों के सतरंगी स्वरूप को स्वीकार करने को बाध्य कर देगा। ऐसा लगने लगेगा कि बिना अनुभव की तीक्ष्णता के ऐसे उद्गार निकलना असम्भव है। कल्पना की राह जहाँ समाप्त हो जाती है, वहाँ से प्रारम्भ होता होगा इन गीतों के सृजन का क्रम, अनुभव की तीक्ष्णता में। आपके सामने कईयों ऐसे गीत आ चुके होंगे जिनको बार बार आप याद करते होंगे गुनगुना कर, हर बार वही विशुद्ध भाव।

गीतों में पूरा का पूरा साहित्य बसा है, कवियों ने लिखा है, आप उन्हें मान्यता प्राप्त कवि न माने, न सही। सूर का सौन्दर्य, तुलसी की संवेदना, निराला की फक्कड़ी, दिनकर का ओज, पन्त की सुकुमारता, महादेवी की पीड़ा, नागार्जुन की बेबाकी भले ही उनकी साहित्यिक साधना में न हो, भले ही उनकी प्रतिभा धनोपार्जन और जीविकोपार्जन में तिक्त रही हो, भले ही गीतों के सीमित स्वरूप ने उनके भावों की जलधार को रूद्ध कर दिया हो, पर जो भी उनकी लेखनी से बहा है भावों का नीर बहाने के लिये पर्याप्त है।

फिल्मों की अपनी साहित्यिक सीमायें हैं। गीत व कहानी लेखन फिल्म के अंग अवश्य हैं पर संप्रेषण के एक मात्र आधार नहीं। व्यावसायिक कारणों से जनसाधारण के लिये बनायी गयी फिल्मों में आप भले ही सान्ध्र साहित्यिक अनुभव न पा पायें, पर गीतों के रूप में कवि बहुधा ही सुधीजनों को जीवन दर्शन के गहरे पाठ सुनाते आये हैं। उससे अधिक की आस करना, माध्यम की व्यावसायिक उपयोगिता को सीमाओं से अधिक खीचने जैसा हो संभवतः।

कभी मन में टीस तो अवश्य उठती होगी कि इतने सशक्त माध्यम का प्रयोग साहित्य संवर्धन के लिये उतना नहीं हो पा रहा है जितना मनोरंजन के लिये। हिन्दी की कई कविताओं को फिल्मों ने अपनाया है पर जिस स्तर के प्रयोग लोकसंगीत के लेकर हुये हैं फिल्मों में, हिन्दी की कवितायें उस अपनत्व से अछूती रही हैं अब तक। संभव है कि हिन्दी शब्दों की क्लिष्टता बाधक हो सकती है, पर साहित्य को जनप्रचार में भी अपनी धार बचा के तो रखनी ही है। संभव है कि फिल्मकारों को लगे कि यह गीत सब लोगों तक नहीं पहुँच पायेंगे, पर साहित्य का अमृत उस माध्यम को असाधारण अमरत्व भी दे जायेगा, व्यवसायिकता की राहों से परे।

आवश्यकता है तो जनमानस को समझने वाले एक प्रयोगधर्मी फिल्मकार की, साहित्य के अमृत को सरलता से शब्दों में ढाल कर पिलाने वाले कवि की, लोक संगीत के थापों में उस शब्द-संरचना को पिरोने वाले संगीतकार की और सबके अधरों पर उसे सजा देने वाले गायक की। आज भी चाहिये न जाने कितने राजकपूर, शैलेन्द्र, शंकर-जयकिशन और मुकेश।

फिल्मों के माध्यम से साहित्य संवर्धन का प्रवाह वही कालजयी गीत बहायेंगे।

"किसी की मुस्कराहटों पे हो निसार" जैसा कोई गीत।

गाता हूँ, खो जाता हूँ, आप खोना चाहेंगे इसमें?