द्रौपदी के चीर की तुम चीख सुनते क्यों नहीं,
विदुर की तुम न्यायसंगत सीख सुनते क्यों नहीं,
पाण्डवों का धर्मसंकट, जब मुखर होकर बह रहा,
यह तुम्हारा कुल कराहे, घाव गहरे सह रहा,
धर्म की कोई अघोषित व्यंजना मत बुदबुदाओ,
भीष्म उठ निर्णय सुनाओ ।
राज्य पर निष्ठा तुम्हारी, ध्येय दुर्योधन नहीं,
सत्य का उद्घोष ही व्रत, और प्रायोजन नहीं,
राज्य से बढ़ व्यक्ति रक्षा, कौन तुमसे क्या कहे,
अंध बन क्यों बुद्धि बैठी, संग अंधों यदि रहे,
व्यर्थ की अनुशीलना में आत्म अपना मत तपाओ,
भीष्म उठ निर्णय सुनाओ ।
हर समय खटका सभी को, यूँ तुम्हारा मौन रहना,
वेदना की पूर्णता हो और तुम्हारा कुछ न कहना,
कौन सा तुम लौह पाले इस हृदय में जी रहे,
किस विरह का विष निरन्तर साधनारत पी रहे,
मर्म जो कौरव न समझे, मानसिक क्रन्दन बताओ,
भीष्म उठ निर्णय सुनाओ ।
महाभारत के समर का आदि तुम आरोह तुम,
और अपनी ही बतायी मृत्यु के अवरोह तुम,
भीष्म ली तुमने प्रतिज्ञा, भीष्मसम मरना चुना,
व्यक्तिगत कुछ भी नहीं तो क्यों जटिल जीवन बुना,
चुप रहे क्यों, चाहते जब लोग भीषणता दिखाओ,
भीष्म उठ निर्णय सुनाओ ।
ध्वंस की रचना समेटे तुम प्रथम सेनाप्रमुख,
कृष्ण को भी शस्त्र धर लेने का तुमने दिया दुख,
कौन तुमको टाल सकता, थे तुम्हीं सबसे बड़े,
ईर्ष्यायें रुद्ध होती, बीच यदि रहते खड़े,
सृजन हो फिर नया भारत, व्यास को फिर से बुलाओ,
भीष्म उठ निर्णय सुनाओ ।
(बहुत पहले मानसिक हलचल पर लिखी थी। भीष्म के प्रसंग पर पुनः प्रस्तुत कर रहा हूँ)
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भीष्म प्रतिज्ञा करते हुये देवव्रत (चित्र साभार - https://ritsin.com/ ) |