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11.9.21

जीवन-प्रश्न


भवन, भव्यता, निद्रासुख में,

व्यञ्जन का हो स्वादातुर मैं,

और मदों से पूर्ण जीवनी,

कामातुर यदि बहलाऊँगा ।

लज्जित खुद के न्याय क्षेत्र में,

पशु-विकसित मैं कहलाऊँगा ।।

 

देखो सब उस पथ जाते हैं ।

जाते हैं, सब खो जाते हैं ।।

 

अपनी जीवन-धारा को मैं,

सबके संग में क्यों बहने दूँ ।

व्यर्थ करूँ जीवन विशिष्ट क्यों ?

 

और जागरण के नादों में,

मूल्य कहाँ इन स्वप्नों का है ।

निश्चय मानो जीवन अपना,

उत्तर गहरे प्रश्नों का है ।।

29.7.21

निर्णयों के वैकल्पिक विश्व


निर्णय के क्षण इतिहास रचने की सामर्थ्य रखते हैं। यदि कोई निर्णय विशेष नहीं होता तो इतिहास का स्वरूप क्या होता, इस बात पर चर्चा बहुत होती है और वह चर्चा अत्यन्त रोचक भी होती है। ऐसी ही एक चर्चा में हमारे पुत्र पृथु ने तीन वेब सीरीज़ के बारे में बताया, जो केवल इस तथ्य पर आधारित हैं कि इतिहास की कोई एक महत्वपूर्ण घटना नहीं हुयी होती या विपरीत हुयी होती, तो विश्व का स्वरूप क्या होता? किसी एक में सोवियत पहले चन्द्रमा में पहुँच जाते हैं, किसी दूसरे में रूज़वेल्ट के स्थान पर कोई और १९४० का चुनाव जीत जाता है। किसी एक अन्य में रूज़वेल्ट की हत्या हो जाती है, अमेरिका का विकास अवरोधित हो जाता है और जर्मनी पहले परमाणु बम बना लेता है। बड़ा ही रोचक लगता है, इतिहास के घटनाक्रम को इस प्रकार पलटते हुये देखना। उस बिन्दु तक सब कुछ पूर्ववत चलता है और सहसा उस बिन्दु के बाद सब घटनाक्रम बदल जाता है, आमूलचूल परिवर्तन। जानकार इसे “वैकल्पिक इतिहास” कहते हैं।


वैकल्पिक इतिहास पर आधारित श्रृंखलायें लोगों को कपोल कल्पनायें लग सकती हैं पर इसके लेखक, निर्माता और निर्देशक इस पर बहुत अधिक शोध करते हैं। सामाजिक परिस्थितियाँ, आर्थिक उतार चढ़ाव, शक्ति संतुलन और न जाने कितनी विमायें। कौन सी घटनायें नहीं हुयी होतीं, कौन सी अन्य संभावित घटनाओं के होने की प्रायिकता अधिक होती, ऐसे न जाने कितने विषयों पर शोध होता है। जब वैकल्पिक संभावित भविष्य बनाया जाता है तो स्वाभाविक ही है कि भूत भी खंगाला ही जाता होगा। एक एक वे विचार जो बल पाते, एक एक वे तथ्य जो महत्वपूर्ण हो जाते, इन सब विषयों पर गहन शोध होता है। कहने को तो आप उनको गपोड़ी कह सकते हैं, पर उनका शोध वर्तमान से भी अधिक रोमांचक और व्यवहारिक लगता है। 


जहाँ एक ओर कथाकार अपने कल्पना के घोड़े इतनी दूर तक दौड़ाते हैं वहीं कुछ यह मान कर बैठे रहते हैं कि जो हुआ, वह तो होना ही था। दूसरे समूह के पुरोधाओं से किसी तर्क में जीतना संभव ही नहीं है। “कोई घटना क्यों हुयी”, जब इसका उत्तर यह हो कि “यह तो होनी ही थी, दैवयोग था”, तब कोई संवाद नहीं सूझता है। क्या कहें? न आप भूत पर चर्चा कर सकते हैं और न भविष्य पर। न आप कारकों पर चर्चा कर सकते हैं, न व्यक्ति या परिस्थिति विशेष पर। न आप किसी के निर्णयों की प्रशंसा कर सकते हैं, न किसी की निंदा। सब कुछ पूर्णता से नियत मान बैठे ऐसे नियतिवादियों के लिये कोई विकल्प है ही नहीं, जो हुआ वही होना था। कहा जाये और उनके जीवन में देखा जाये तो आलस्य का अंतहीन प्रमाद।


एक स्थान पर कई मार्गों से जाया जा सकता है। एक ही निष्कर्ष के लिये कई घटनायें कारण हो सकती हैं। विकल्प की अनुपस्थिति हमारे इतिहास में कहीं नहीं रही है। किसी को यह कहने का अवसर नहीं दिया है इतिहास ने कि इसके अतिरिक्त क्या किया जा सकता था? भीष्म के प्रकरण में भी यही बात मुखर हुयी कि कृष्ण के विराटस्वरूप वाले मुख में जब सब हत ही देखे गये तो भीष्म क्या कर सकते थे? उन्होंने वही किया जो विधि ने या दैव ने उनसे करा लिया। इस प्रकार की विचारधारा अपनायी तो कैसे आप किसी के निर्णयों का मूल्यांकन कर सकेंगे? कोई उहापोह कैसे हो पायेगी तब? निर्णयों की गुणवत्ता कैसे जानी जायेगी तब। नियतिवादी तो सारी उत्सुकता पर ठंडा पानी डाल देते हैं। कोई वैकल्पिक इतिहास को तो छोड़िये, वे तो नियत इतिहास को भी भिगो भिगो कर धो डालते हैं। कोई प्रश्न नहीं, कोई उत्तर नहीं, होना था, हो गया। जिसने जो किया, उसको वैसा ही करना था, कोई कर्म नहीं, कोई विकर्म नहीं, सब अकर्म।


कर्मफल का सिद्धान्त तार्किक है, न्यायदर्शन में विस्तृत रूप से सिद्ध है और मुझे स्वीकार भी है। पर सबकुछ ही पहले से नियत है इस सिद्धान्त को मैं स्वीकार नहीं कर सकता। यदि माने कि सब दैव का किया धरा है और बस भोगना ही है तो भोग लेने के बाद मुक्ति तो स्वतः ही मिल जानी चाहिये। तब किस बात के प्रयत्न और कौन से कर्तव्य? एक परिस्थिति में लाने का कार्य दैव कर सकता है पर उस परिस्थिति में क्या निर्णय लेना है इसकी पूरी छूट हमें सदा ही रही है, हमारे सामने विकल्प सदा ही उपस्थित रहे हैं। निर्णय की इस जागृत प्रक्रिया के बाद जो भी विकल्प हम चुनते हैं, उसी के आधार पर हमारे अगले संस्कार, कर्माशय, विपाक आदि तैयार होते हैं। यही न्यायसंगत, तार्किक और व्यवहारिक भी है।


निर्णयों में विकल्प पर आधारित कई वैज्ञानिक उपन्यास भी पढ़े हैं जो मुख्यतः समय में यात्रा करने के बारे में थे, कभी भूतकाल में तो कभी भविष्य में जाने वाले। हमारी विवशता ही है कि समय सदा ही हमको एक नोंक पर आगे ढकेलता रहता है कभी अपने पीछे या आगे नहीं जाने देता। यदि ऐसा हो सकता तो समय में यात्रायें संभव होती। तब एक नहीं अनेक विश्व होते, हर विश्व में हर पात्र, हर विश्व के समान्तर अनेक अन्य विश्व। कल्पना करते जायें पर शीघ्र ही आप माथा पकड़ कर बैठ जायेंगे क्योंकि सब गड्डमड्ड होने लगेगा आपके अनगिनत विश्वों में तब। अच्छा हुआ यह सब नहीं हुआ, कितना भी हो पर इस प्रकार की जटिलताओं के कष्ट सहने का प्रारब्ध नहीं हो सकता है हमारा।


समय में जाना, वैकल्पिक विश्व की कल्पना करना केवल कथाकारों और विज्ञान के ही विषय नहीं हैं। धर्म और भारतीय दर्शन में भी इनकी महती उपस्थिति है। मेरी भाभीजी ने पिछले वर्ष मुझे दो छोटी पुस्तकें दी थी। “शून्य” द्वारा लिखित “इम्मोर्टल टाक्स”, दो भागों में। अत्यन्त रोचक, पढ़ने बैठा तो कल्पनाओं के भँवर में ही उतरता चला गया। उसमें भी एक दो प्रसंग समानान्तर विश्व और वैकल्पिक भविष्य के आते हैं।


मैं वैकल्पिक विश्व में भले ही न जाऊँ पर नियतिवाद को भी स्वीकार नहीं कर सकता। भले ही उस पर कुछ कर न पाऊँ पर अपने निर्णयों पर प्रश्न उठाता ही रहता हूँ। अपने ही क्यों, उन सभी निर्णयों पर प्रश्न उठाता रहता हूँ जो मुझे प्रभावित करते हैं और जहाँ मुझे लगता है कि यदि वैकल्पिक निर्णय होता तो कहीं अच्छा होता। बड़ा ही सरल होता है किसी महापुरुष को पूजायोग्य बनाकर उनके सारे निर्णयों को उनके ही महापुरुषत्व में तिरोहित कर देना, पर बहुत कठिन होता है उन्हें मानवरूप में स्वीकार करना और उनके द्वारा लिये गये निर्णयों की परिस्थिति और प्रक्रिया को यथारूप समझना। निर्णयों पर चर्चा आवश्यक है क्योंकि उससे ही निर्णयों के लेने के आधार स्पष्ट होते हैं। तब तो और भी चर्चा करना बनता है जब पात्र ने उस पर स्वयं ही संवाद किया हो या स्पष्टीकरण दिया हो।

किस पथ जायें हम (चित्र साभार https://blogs.cfainstitute.org/)


24.7.21

भीष्म उठ निर्णय सुनाओ


द्रौपदी के चीर की तुम चीख सुनते क्यों नहीं,

विदुर की तुम न्यायसंगत सीख सुनते क्यों नहीं,

पाण्डवों का धर्मसंकट, जब मुखर होकर बह रहा,

यह तुम्हारा कुल कराहे, घाव गहरे सह रहा,

धर्म की कोई अघोषित व्यंजना मत बुदबुदाओ,

भीष्म उठ निर्णय सुनाओ ।

 

राज्य पर निष्ठा तुम्हारी, ध्येय दुर्योधन नहीं,

सत्य का उद्घोष ही व्रत, और प्रायोजन नहीं,

राज्य से बढ़ व्यक्ति रक्षा, कौन तुमसे क्या कहे,

अंध बन क्यों बुद्धि बैठी, संग अंधों यदि रहे,

व्यर्थ की अनुशीलना में आत्म अपना मत तपाओ,

भीष्म उठ निर्णय सुनाओ ।

 

हर समय खटका सभी को, यूँ तुम्हारा मौन रहना,

वेदना की पूर्णता हो और तुम्हारा कुछ न कहना,

कौन सा तुम लौह पाले इस हृदय में जी रहे,

किस विरह का विष निरन्तर साधनारत पी रहे,

मर्म जो कौरव न समझे, मानसिक क्रन्दन बताओ,

भीष्म उठ निर्णय सुनाओ ।

 

महाभारत के समर का आदि तुम आरोह तुम,

और अपनी ही बतायी मृत्यु के अवरोह तुम,

भीष्म ली तुमने प्रतिज्ञा, भीष्मसम मरना चुना,

व्यक्तिगत कुछ भी नहीं तो क्यों जटिल जीवन बुना,

चुप रहे क्यों, चाहते जब लोग भीषणता दिखाओ,

भीष्म उठ निर्णय सुनाओ ।

 

ध्वंस की रचना समेटे तुम प्रथम सेनाप्रमुख,

कृष्ण को भी शस्त्र धर लेने का तुमने दिया दुख,

कौन तुमको टाल सकता, थे तुम्हीं सबसे बड़े,

ईर्ष्यायें रुद्ध होती, बीच यदि रहते खड़े,

सृजन हो फिर नया भारत, व्यास को फिर से बुलाओ,

भीष्म उठ निर्णय सुनाओ ।


(बहुत पहले मानसिक हलचल पर लिखी थी। भीष्म के प्रसंग पर पुनः प्रस्तुत कर रहा हूँ)

भीष्म प्रतिज्ञा करते हुये देवव्रत  (चित्र साभार - https://ritsin.com/ )


22.7.21

भीष्म के प्रश्न

 

महाभारत के पात्रों में संभवतः भीष्म का चरित्र सर्वाधिक जटिल रहा होगा। जिस तरह की घटनायें उनकी चार पीढ़ियों लम्बे और पूरे जीवन काल में आयीं, उतना वैविध्य और वैचित्र्य कहीं और देखने को नहीं मिलेगा। वैसे तो महाभारत का पूरा कथाखण्ड अत्यधिक रोचक और प्रवाहपूर्ण है, पर उस पर भी शिलाखण्ड से खड़े और सब देख रहे भीष्म विशिष्ट हो जाते हैं।


हमारा जीवन यदि सामान्य भी हो, तो भी कई ऐसे प्रश्न रहते हैं जिनका उत्तर हमें जीवन भर कचोटता है। स्वाभाविक है कि भीष्म के इतने दीर्घजीवन में भी प्रश्न होंगे जिनके उत्तर उन्होंने स्वयं ही ढूढ़े होंगे और उन पर लिये निर्णयों पर मनन किया भी होगा। फिर भीष्म से प्रश्न क्यों?


महाभारत के जानकारों का भीष्म से सबसे बड़ा प्रश्न यह रहता है कि यदि वह ठान लेते तो महाभारत टाला जा सकता था।


गुरुचरणदास की पुस्तक “डिफिकल्टी आफ बीइंग गुड” में पढ़ा था कि महाभारत के तीन कारण हैं। शान्तनु का काम, दुर्योधन की ईर्ष्या और द्रौपदी का क्रोध। शान्तनु का काम भीष्म-प्रतिज्ञा का कारण बना। दुर्योधन की ईर्ष्या पाण्डवों को पाँच गाँव भी न दे सकी। द्रौपदी का क्रोध विनाश पत्र के ऊपर अन्तिम हस्ताक्षर था।


यदि ऐसा था तो सारे प्रश्न भीष्म से क्यों? मेरा फिर भी यह मानना है कि भीष्म युद्ध रोक सकते थे।


आठ वसुओं में बड़े, पत्नियों के मनोविनोद में वशिष्ठ की गाय नन्दिनी की चोरी, मनुष्य योनि में जन्म लेने के लिये वशिष्ठ का श्राप, अनुनय विनय और पश्चाताप, शेष सात को शीघ्र ही मुक्ति पर भीष्म को पूर्ण जीवन के भोग का आदेश। इस पूर्वकथा के बाद प्रारम्भ हुआ शेष महाभारत और भीष्म का वृत्तान्त। माँ गंगा ७ पूर्वपुत्रों को जन्म लेते ही गंगा में प्रवाहित कर मुक्त कर देती है। आठवें में शान्तनु से रहा नहीं जाता, भीष्म बच जाते हैं पर माँ चली जाती है।


एक दुर्धर्ष योद्धा और धर्म के विशेषज्ञ के रूप भीष्म बड़े होते हैं। सारे राज्य को यह आस रहती है कि अगले महाराज अपने प्रताप से राज्य विस्तारित करेंगे और धर्मध्वजा फहरायेंगे। यहाँ तक की यात्रा को यदि प्रारब्ध मान लें तो इसके बाद प्रारम्भ होती है भीष्म की निर्णय यात्रा। प्रश्न इस पर उठते हैं। अधिक चर्चा न कर बस प्रश्न लक्षित करूँगा।


  1. पिता शान्तनु का विवाह नियत करने भीष्म सत्यवती के यहाँ जाते हैं। सत्यवती के पिता की आशंका के लिये पहले राज्य न लेने का प्रण लिया और आगामी पीढ़ी में कोई संघर्ष न हो, इसके लिये विवाह न करने की भीष्म प्रतिज्ञा भी ले डाली। भला कौन पिता अपने समर्थवान पुत्र से अपने काम के लिये इस प्रकार के त्याग की अपेक्षा करता है? पूर्व में दशरथ मात्र ऐसे पिता हुये जिनके ऊपर अयोध्यावासी, लक्ष्मण और एक स्थान पर राम द्वारा भी यह आक्षेप लगा कि उन्होंने अपने काम के लिये अपने सर्वसमर्थ, आज्ञाकारी और योग्य पुत्र की तिलांजलि दे दी।
  2. अपने सौतेले भाईयों के विवाह के लिये काशी नरेश की तीन पुत्रियों का अपहरण किया जबकि अम्बा ने कह दिया था कि वह शाल्व को पति मान चुकी है। अपना जीवन त्याग कर वही अगले जन्म में शिखण्डी बनी और भीष्म की पराजय और मृत्यु का कारण भी।
  3. जब विचित्रवीर्य सन्तान उत्पन्न न कर सके तो नियोग के लिये सबसे पहले भीष्म को कहा गया। तब भी भीष्म ने मना कर दिया। अन्ततः माँ सत्यवती ने अपनी पूर्वप्रसंग से उत्पन्न पराशर के पुत्र वेदव्यास को इस कार्य के लिये आदेशित किया। कुरूप और कृष्ण वर्ण के व्यास के सामने एक रानी अपनी आँख भी न खोल सकी और अंधे पुत्र धृतराष्ट्र को जन्म देती है। दूसरी भय से पीली पड़ जाती है और नपुंसक पुत्र पांडु की माँ बनती है।
  4. धृतराष्ट्र के लिये गांधारी का चयन किया पर उसे पति के अंधेपन के तथ्य से अनिभिज्ञ रखा। जिससे विक्षुब्ध हो उसने जीवन भर के लिये अपनी आँखों पर पट्टी बाँध ली। नपुंसकता के तथ्य को जानते हुये भी पांडु से कुंती और माद्री का विवाह कराया। पांडव तो नियोग से उत्पन्न हो गये पर पांडु के प्राण माद्री के कारण चले गये।
  5. द्रौपदी के चीरहरण के समय शान्त रहे। विदुर के द्वारा कठोर स्वर उठाने के बाद भी धर्म के बारे में कोई भीरु सा ज्ञान उड़ेल कर सर झुकाये बैठे रहे। क्या उस समय भीष्म की एक हुंकार सारा दुष्कृत्य रोक न देती?
  6. महाभारत होने दिया। कृष्ण के पाँच गाँव के प्रस्ताव पर भी दुर्योधन की हठधर्मिता को सहन कर लिया। न्याय, धर्म और नीति के किस पड़ले पर यह प्रस्ताव अनुचित था?
  7. प्रथम सेनापति बन गये। यद्यपि दुर्योधन कर्ण को सेनापति बनाना चाहता था पर वृद्ध होने के कारण इनसे पूछने गया। वय ९० के ऊपर होने पर भी अपने पौत्रों से युद्ध को तत्पर हो गये। चाहते तो अपने आप को निवृत्त भी कर सकते थे।
  8. अपने प्रिय पाण्डवों से लड़े पर अर्धमना हो। दुर्योधन सदा ही यह कह कर उकसाता रहा कि आप अर्जुन को अधिक चाहते हैं। अर्जुन भी अपने पितामह पर प्रहार न कर सका। दस दिन तक युद्ध खिंचा। भीष्म और अर्जुन, दोनों ही ने अपना क्रोध और क्षोभ शेष शत्रु सेना पर निकाला।
  9. महाभारत के कई पात्र समय आने पर मुख्य मंच से निकल कर नेपथ्य पर चले गये पर भीष्म टिके रहे। अपनी प्रतिज्ञा का दंश झेलते रहे, अपने प्रथम निर्णय का भार उठाये जीते रहे।


यद्यपि मूल महाभारत नहीं पढ़ी है पर नरेन्द्र कोहली की श्रृंखला और अन्य लेखकों के कई पात्रों पर लिखी हुयी पुस्तकें पढ़ी हैं। भीष्म को मानवीय दृष्टिकोण से समझना दुरूह है। पता नहीं कौन सा लौह भरा था उस हृदय में? भीष्म कुरुवृद्ध थे और एक परिवार में एक वृद्ध की इच्छा रहती है कि सब मिल जुल कर रहें। अन्य वृद्ध तो विवशता में या संतानों के हठ में निराश हो जाते हैं पर भीष्म में कौन सी विवशता और कौन सा नैराश्य?


आजकल समाज के वृद्ध तो समाज जोड़ने के स्थान पर स्वार्थ के लिये समाज को तोड़ने में तत्पर हैं। अंग्रेजों से हम कुछ सीखे न सीखे, यह घृणित और कुटिल चाल अवश्य सीख चुके है। पर भीष्म तो कुल का, समाज का, राज्य का, धर्म का, सबका ही हित चाहते थे, तब उनके सामने कौन सी विवशता थी जिसने महाभारत सा सर्वविनाशक युद्ध हो जाने दिया?


प्रश्न अनुत्तरित हैं।




29.11.15

क्यों

सकल, नित, नूतन विधा में,
दोष प्रस्तुत हो रहे क्यों
क्यों विचारों में उमड़ता,
रोष जो एकत्र बरसों ।।१।।

क्यों प्रदूषित भावना-नद,
तीक्ष्ण होकर उमड़ती है
ईर्ष्या क्यों मूर्त बनकर,
मन-पटल पर उभरती हैं ।।२।।

क्यों अभी निष्काम आशा,
लोभ निर्मित कुण्ड बनती
मोह में क्यों बुद्धि निर्मम,
सत्य-पथ से दूर हटती ।।३।।

और अब क्यों काम का,
उन्माद मन को भा रहा है
कौन है, क्यों जीवनी को,
राह से भटका रहा है ।।४।।

11.10.15

संवाद

पूछती थी प्रश्न यदि, उत्तर नहीं मैं दे सका तो,
भूलती थी प्रश्न दुष्कर, नयी बातें बोलती थी ।
किन्तु अब तुम पूछती हो प्रश्न जो उत्तर रहित हैं,
शान्त हूँ मैं और तुमको उत्तरों की है प्रतीक्षा ।
राह जिसमें चल रहा मैं, नहीं दर्शन दे सकेगी,
तुम्हे पर राहें अनेकों, आत्म के आलोक से रत ।
किन्तु हृद के स्वार्थ से उपजी हुयी एक प्रार्थना है,
नहीं उत्तर दे सकूँ पर, पूछती तुम प्रश्न रहना ।
कृपा करना, प्रेम का संवाद न अवसान पाये,
रहे उत्तर की प्रतीक्षा, जीवनी यदि बीत जाये ।

12.7.15

कैसे कह दूँ ?

कैसे कह दूँ, यह जीवन, निर्झर, निर्मल बहता पानी है ।
कैसे कह दूँ, है खुशी बड़ी, जब सब राहें अनजानी हैं ।।

कैसे जीवन को सिंचित, शस्यित उपवन की उपमा दे दूँ ।
कैसे कह दूँ, अब शान्ति-चैन में सारी रैन बितानी है ।।

कैसे कह दूँ, कि जीवन में जो चाहा था, हर बार मिला ।
कैसे हो जाये चित्त शान्त, जब हर गुत्थी सुलझानी है ।।

निर्विकार यदि जीना हो,
निर्भय यथार्थ स्वीकार करो ।

कैसे कह दूँ, कि आज व्यवस्थित, मन का ताना बाना है ।
कैसे भी हो, पर जीवन का चिन्तन यथार्थ पर लाना है ।।

26.4.15

आस कैसी

सोचता हूँ सहज होकर,
भावना से रहित होकर,
अपेक्षित संसार से क्या ?
हेतु किस मैं जी रहा हूँ ?

भले ही समझाऊँ कितना,
पर हृदय में प्रश्न उठता,
किन सुखों की आस में फिर,
वेदना-विष पी रहा हूँ ?

31.5.14

प्रश्नोत्तर

प्रश्नचिन्ह मन-अध्यायों में,
उत्तर मिलने की अभिलाषा ।
जीवन को हूँ ताक रहा पर,
समय लगा पख उड़ा जा रहा ।।१।।

ढूढ़ रहा हूँ, ढूढ़ रहा था,
और प्रक्रिया फिर दोहराता ।
उत्तर अभिलाषित हैं लेकिन,
हर मोड़ों पर प्रश्न आ रहा ।।२।।

काल थपेड़े बिखरा देंगे,
प्रश्नों से घर नहीं सजाना ।
दर्शन की दृढ़ नींव अपेक्षित,
किन्तु व्यथा की रेत पा रहा ।।३।।

पूर्व-प्रतिष्ठित झूठे उत्तर,
मन में बढ़ती और हताशा ।
अनचाहा एक झूठा उत्तर,
मन में सौ सौ प्रश्न ला रहा ।।४।।

संग समय का जीवन में हो,
नभ को छू जाये मन-आशा ।
उलझा हूँ सब कहाँ समेटूँ,
जीवन मुझसे दूर जा रहा ।।५।।

प्रश्न निरर्थक हो जाता है,
बढ़ता यदि परिमाण दुखों का ।
निरुद्देश्य पर उठते ऐसे,
प्रश्नों का जंजाल भा रहा ।।६।।

जीवन छोटा, लक्ष्य हर्ष का,
छोटी हो जीवन-परिभाषा ।
शेष प्रश्न सब त्याज्य,निरर्थक,
जो मन कर्कश राग गा रहा ।।७।।

प्रश्न लिये आनन्द-कल्पना,
प्रश्न हर्ष की आस बढ़ाता ।
प्रश्न लक्ष्य से सम्बन्धित यदि,
उत्तर मन-अह्लाद ला रहा ।।८।।

3.5.14

तुम्हीं पर

प्रश्न कुछ भी पूछता हूँ,
उत्तरों की विविध नदियाँ,
ज्ञान का विस्तार तज कर,
मात्र तुझमें सिमटती हैं ।

नेत्र से कुछ ढूँढ़ता हूँ,
दृष्टियों की तीक्ष्ण धारें,
अन्य सब आसार तजकर,
तुम्हीं पर कब से टिकी हैं ।

जब कभी कुछ सोचता हूँ,
विचारों की दिशा सारी,
व्यर्थ का संसार तजकर,
तुम्हीं पर आ अटकती हैं ।

नहीं खुद को रोकता हूँ,
हृदय के खाली भवन में,
जब तुम्हारी ही तरंगें,
अनवरत ही भटकती हैं ।

www.astrodynamics.net

12.4.14

लोकपथ

अनवरत सुख की पिपासा,
प्रकृति में उन्मुक्तता है ।
शान्ति को मन ढूढ़ता है,
प्रेम को मन मचलता है ।।

है विडम्बना मनुज की पर,
विचारों के समन्वय सुर,
क्यों नही मिल पा रहे हैं ?
स्वार्थरत हो चीखते हैं,
मदित होकर मनुज सारे,
बेसुरे हो गा रहे हैं ।

जीतने की कोशिशों में,
दास होते जा रहे हैं ।
कहाँ प्रभुता पा रहे है ?
तथ्यभेदी प्रचुरता है,
जागरण के आवरण में,
अन्त्य सोते जा रहे हैं ।

आगामी आशा भरमाती,
शंका शंकित होती जाती,
लोग किस पथ जा रहे हैं,
लोकपथ क्या आ रहे हैं?

6.11.13

खोया चन्द्रगुप्त

एक वर्ष पहले तक मुझे भी यह तथ्य पता नहीं था, हो सकता है आप में से बहुतों को भी यह तथ्य पता न हो। कारण हमारी जिज्ञासा में नहीं होगा, कारण इतिहास के प्रारूप में है। इतिहास सम्राटों के उत्कर्ष तो बताता है, उनका संक्रमण काल भी लिख देता है, हो सके तो स्थायित्व काल में हुये सांस्कृतिक और सामाजिक उन्नति को स्थान भी दे देता है, पर शिखर पर बैठे व्यक्तित्व के मन में क्या चल रहा है इतिहास कहाँ जान पाता है उस बारे में? इतिहास तथ्यों और तिथियों में इतना उलझ जाता है कि उसे सम्राटों के निर्णयों के अतिरिक्त कुछ सोचने की सुध ही नहीं रहती है। उन निर्णयों के पीछे क्या चिन्तन प्रक्रिया रही होगी, क्या मानसिकता रही होगी, इसका पता इतिहास के अध्ययनकर्ताओं को नहीं चल पाता है।

ऐसा ही एक अनुभव मुझे एक वर्ष पहले हुआ, जब मैं श्रवणबेलागोला गया। श्रवणबेलागोला गोमतेश्वर की विशाल प्रतिमा के लिये प्रसिद्ध है और जैन मतावलम्बियों के लिये अत्यन्त पवित्र तीर्थ स्थान है। बंगलोर से लगभग डेढ़ सौ किलोमीटर स्थित यह स्थान अपने अन्दर इतिहास का एक और तथ्य छिपाये है जो गोमतेश्वर के सामने वाली पहाड़ी पर स्थित है। यहाँ पर चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपने प्राण त्यागे थे।

सम्राटों की मृत्यु उनकी सन्ततियों के लिये राज्यारोहण का समय होता है। अतः स्वाभाविक ही है कि उस समय इतिहास का सारा ध्यान नये राजाओं पर ही रहता है। मृत्यु वैसे भी इतिहास के लिये महत्वपूर्ण या आकर्षक घटना नहीं होती है, यदि वह अत्यन्त अस्वाभाविक न हो। चन्द्रगुप्त की मृत्यु भी इतिहास का ऐसा ही बिसराया अध्याय है। संभवतः मेरे लिये भी सामान्य ज्ञान बन कर रह जाता, इतिहास का यह बिसराया तथ्य यदि उसमें तीन रोचक विमायें न जुड़ी होतीं।

पहली, चन्द्रगुप्त की मृत्यु मात्र ४२ वर्ष में हुयी। दूसरी, मृत्यु के समय वह एक जैन सन्त हो चुके थे। तीसरी, उनकी मृत्यु स्वैच्छिक थी और आहार त्याग देने के कारण हुयी थी।

सम्राट चन्द्रगुप्त
ये तथ्य जितने रोचक हैं, उससे भी अधिक आश्चर्य उत्पन्न करने वाले भी। ये तथ्य जब चन्द्रगुप्त के शेष जीवन से जुड़ जाते हैं तो चन्द्रगुप्त के जीवन में कुछ भी सामान्य शेष रहता ही नहीं है। बचपन में चरवाहा, यौवन में सम्राट और मृत्यु जैन सन्तों सी। जन्म पाटलिपुत्र में, अध्ययन व कार्यक्षेत्र गान्धार में, सम्राट देश भर के और मृत्यु कर्नाटक के श्रवणबेलागोला में। चन्द्रगुप्त का आरोह, विस्तार और अवरोह, सभी आश्चर्य के विषय हैं। यह सत्य है कि उन्हें गढ़ने में चाणक्य का वृहद योगदान रहा, पर उस उत्तरदायित्व का निर्वहन कभी भी सामान्य नहीं रहा होगा।

जब मैं सामने की पहाड़ी में चन्द्रगुप्त के समाधिस्थल को देख रहा था, मेरे मन में तिथियों की गणना चल रही थी। चन्द्रगुप्त २० वर्ष की आयु में भारत का सम्राट बन गया था, २२ वर्षों के शासनकाल में प्रारम्भिक ५ वर्ष विस्तार और स्थायित्व के प्रयासों में बीते होंगे। १५-१६ वर्ष का ही स्थिर शासन रहा होगा। तब क्या हुआ होगा कि चन्द्रगुप्त सारा राज्य अपने पुत्र बिन्दुसार को सौंप कर ४२ वर्ष की आयु में न केवल जैन सन्त बन गये वरन निराहार कर स्वैच्छिक मृत्यु का वरण कर लिये। इतिहास के अध्याय इस विषय पर मुख्यतः मौन ही दिखे। जिसने सारा जीवन संघर्षों में काटा हो, जो उत्कर्षों को उसके निष्कर्षों तक छूकर आया हो, जिसने विस्तारों को उनकी सीमाओं तक पहुँचा कर आया हो, उसका असमय अवसान इतिहास की उत्सुकता का विषय ही नहीं?

मैं भी अगले वर्ष ४२ का हो जाऊँगा। एक ४२ वर्ष के वयस्क के रूप में चन्द्रगुप्त को स्वेच्छा से मृत्यु वरण करते देखता हूँ तो चिन्तनमग्न हो जाता हूँ। चिन्तन इस बात का नहीं था कि चन्द्रगुप्त कि मृत्यु किस प्रकार हुयी, चिन्तन इस बात का था कि ४२ वर्ष की आयु में ऐसा क्या हो गया कि चन्द्रगुप्त जैसा सम्राट अवसानोन्मुख हो गया। न कोई नैराश्य था, न पुत्रों में शासन पाने की व्यग्रता, न कहीं गृहयुद्ध, न कहीं कोई व्यवधान, तब क्या कारण रहा इस निर्णय का? आजकल की राजनीति देखता हूँ तो ४२ वर्ष तो प्रारम्भ की आयु मानी जाती है। ५० वर्ष के पहले तो वानप्रस्थ आश्रम का भी प्रावधान नहीं रहा है, उसके बाद सन्यास आश्रम, तब कहीं जाकर मृत्यु और वह भी स्वाभाविक।

शान्तचित्त वह चन्द्रगिरि में
इतिहासविदों ने भले ही चन्द्रगुप्त पर कितना ही लिखा हो पर इन तथ्यों पर जैसे ही विचार करना प्रारम्भ करता हूँ, चन्द्रगुप्त कहीं खोया हुआ सा लगता है। ऐसा लगता ही नहीं कि हम चन्द्रगुप्त के सारे पक्षों को समझ पाये हैं, ऐसा लगता ही नहीं कि सम्राट के मन में चल रहे विचारक्रम को हम समझ पाये हैं, ऐसा लगता ही नहीं कि हम इतिहास के इस महत्वपूर्ण कालखण्ड को समझ पाये। इतिहास तो सदा ही हड़बड़ी में रहता है, उसे न जाने कितने और कालखण्ड समेटने होते हैं, पर चन्द्रगुप्त हमारे गौरव का प्रतीक रहा है, हमें यह अधिकार है कि हम उसके बारे में और अधिक जाने।

चन्द्रगुप्त के व्यक्तित्व ने सदा मुझे व्यक्तिगत रूप से प्रभावित किया है। जीवन यात्रा कितनी उपलब्धिपूर्ण हो सकती है, कितनी सार्थक हो सकती है, कितने आयाम माप सकती है, यह चन्द्रगुप्त का जीवन बता जाता है। श्रवणबेलागोला में शिला सा शान्त बैठा चन्द्रगुप्त पर मेरी समझ को भ्रमित कर देता है। वहाँ से आये लगभग एक वर्ष हो गया, मेरे प्रश्न को न ही कोई ऐतिहासिक उत्तर मिल पाया है और न ही कोई आध्यात्मिक उत्तर मिल पाया है। ४२ वर्ष की आयु में भला जीवन का कितना गाढ़ापन जी लिया कि चन्द्रगुप्त विरक्तिमना हो गये।

जहाँ कुछ राजकुलों का जीवन लोभ और लोलुपता से सना दिखता है, भाईयों के रक्त से सना दिखता है, पिताओं के अपमान से दग्ध दिखता है, चन्द्रगुप्त का न केवल जीवन अभिभूत करता है, वरन उसकी मृत्यु भी आश्चर्यकृत कर जाती है।

मेरे प्रश्न आज भी अनुत्तरित हैं, मुझे प्रभावित करने वाले व्यक्तित्व का जीवनक्रम आज भी मेरी बुद्धि के क्षमताओं की परिधि तोड़कर गोमतेश्वर की महान प्रतिमा के सम्मुख शिला रूप धर शान्त बैठा है। वह अब कुछ भी बताने से रहा। मैं भी ४२ वर्ष का हो जाऊँगा, मुझे भी अनुभवजन्य उत्तर नहीं सूझते हैं। मेरा आदर्श मुझे अपने हाथ से छूटता हुआ सा प्रतीत होता है, चन्द्रगुप्त इतिहास के पन्नों से सरकता हुआ सा लगता है, सम्राट की व्यक्तिगत चिन्तन प्रक्रिया खोयी सी लगती है।

मुझे मेरा खोया चन्द्रगुप्त चाहिये।

7.8.13

सोचने वाली भाषा

फेसबुक पर ज्ञानदत्तजी की एक पोस्ट पर ध्यान गया। उनका कहना था कि जब वह भावुक होते हैं तो हिन्दी में सोचते हैं, जब अच्छे निर्णय लेने होते हैं तो चिन्तन अंग्रेजी में हो जाता है।

यह एक ऐसा विषय है जिस पर बहुत शोध, सुशोध, प्रतिशोध और महाशोध हो चुका है। प्राचीन भारतीय शास्त्रों में तो नहीं पर कहते हैं कि बाइबिल में एक उद्धरण हैं कि सबसे पहले एक ही भाषा थी, उसका आधार पा सब जन संगठित भी थे। अब सब अपनी संगठित शक्ति में मदांध हो स्वर्ग के लिये एक सीढ़ी बनाने लगे। यह देवों को कहाँ स्वीकार था, उन्होंने मानवता को श्राप दे दिया और श्राप स्वरूप इतनी अधिक भाषायें दे दीं कि मानवता कभी संगठित ही न रह पाये। लगता है कि सीढ़ी बनाने वालों में सर्वाधिक उत्साही जन भारत के ही होंगे, तभी भारत को सर्वाधिक भाषाओं का श्राप मिला।

ज्ञानदत्तजी उन वृहदचेतनमना जनों की श्रेणी में आते हैं जिन्हें दो भाषाओं पर पूर्ण नियन्त्रण है, यहाँ तक, कि भाषा चिन्तन प्रक्रिया में धँस चुकी है। वैसे देखा जाये तो देशवासी बहुधा अपनी मातृभाषा ही जान पाते हैं, दूसरी भाषा तो काम चला लेने के भाव से सीखी जाती हैं। थोड़ी बहुत अंग्रेजी सीख जाने पर भौकाल उत्पन्न करने की पूरी संभावना रहती है, विशेषकर उन पर जो उसे अत्यन्त प्रभावकारी भाषा मानते हैं। उस जनमानस के लिये अंग्रेजी मुख या आँख की सीमाओं के अन्दर नहीं जा पाती है। एक सरल प्रयोग किया जा सकता है कि अंग्रेजी जानने का दंभ भरने वालों को एक अंग्रेजी पुस्तक पढ़ने को दी जाये और देखा जाये कि १५ मिनट तक कितने लोग उसका प्रकोप झेल पाते हैं। जो १५ मिनट से अधिक जगे रह पाये तो समझ लीजिये कि उनके अन्दर अंग्रेजी में चिन्तन करने के लक्षण जाग रहे हैं। सारी संभावनायें जोड़ ली जायें तो भी उनकी संख्या १५ प्रतिशत से अधिक नहीं होगी।

विश्व में अधिकता एक भाषा बोलने वालों की ही है। जहाँ पर वैश्वीकरण के संपर्कक्षेत्र हैं, बस वहीं पर दो या दो से अधिक भाषा बोलने वालों की संख्या पनप रही है। अब भारत में इतनी भाषायें हैं कि एक भाषा समाप्त होते ही दूसरी प्रारम्भ हो जाती है, यहाँ पर दो भाषायें बोलने वालों की संख्या अन्य देशों की तुलना में कहीं अधिक होगी। यदि भारतीय भाषाओं के शब्दकोश पर दृष्टि डाली जाये और संस्कृत शब्दावली से उसका मिलान किया जाये तो दो पड़ोसी भाषाओं में भिन्नता का प्रतिशत १५ प्रतिशत से अधिक नहीं आयेगा।

विश्व में कितने प्रतिशत लोग दो या अधिक भाषा जानते हैं, इस बारे में कोई आधिकारिक आँकड़े नहीं मिले। अनुमान यही है कि २५-३० प्रतिशत ही ऐसे हैं जो दो या अधिक भाषा बोल पाते हैं। अब उनमें से ऐसे कितने हैं जिनका दो भाषाओं पर इतना सम अधिकार हो कि वे चिन्तन पटल पर अधिकार जमा लें, तो प्रतिशत सिकुड़ कर दशमलव के कुछ स्थान अन्दर चला जायेगा। ऐसे जनों को वृहदचेतनमना ही कहा जा सकता है, ऐसे लोग ही उत्कृष्ट अनुवादक हो सकते हैं, ऐसे लोग ही दो संस्कृतियों के बीच सेतुबन्ध हो सकते हैं, ऐसे लोग ही विश्व एकीकरण के प्रबल कारक हो सकते हैं।

दो या अधिक भाषा जानने वालों की यह संख्या देख सर्वाधिक निराश वे होंगे जिन्हें भाषायी विविधता विघटनकारी लगती है। उन्हें लगता है कि एकीकरण का एकमेव मार्ग भाषायी एकरूपता है, सांस्कृतिक एकरूपता है, धार्मिक एकरूपता है। इस एकरूपता के बिना कोई समरसता, सौहार्द या सहजीवन संभव नहीं है। विविधता में भी जीवन पल्लवित होता है, इस पर ध्यान देने की न ही उनकी मानसिकता है, न ही समय है और न ही मंशा है। शोध भी यही बताते हैं कि हमारा मन, हमारे भाव, हमारा चिन्तन किसी भाषा, संस्कृति, धर्म आदि से प्रभावित तो हो सकते हैं पर उनका अपना एक स्वतन्त्र अस्तित्व है। यही कारण है कि सर्वथा भिन्न जन भी एक दूसरे के साथ प्रेमपूर्वक रह लेते हैं, समाज में व्याप्त विघटनकारी विष नित फैलने के बाद भी।

क्या हम किसी भाषा में चिन्तन करते हैं या चिन्तन की कोई अपनी ही भाषा होती है जो ईश्वर ने हमारे अस्तित्व में पूर्वबद्ध कर के भेजी है। पशु तो कभी कोई भाषा सीखते नहीं तो क्या वे सोचते भी नहीं हैं? एक बधिर व्यक्ति तो कभी कोई भाषा सीख ही नहीं पाता है तो क्या वह कभी सोचता ही नहीं? एक बच्चा जो अपनी माँ पर आँखें स्थिर कर उसे पहचान लेता है, क्या वह कुछ सोचता ही नहीं? यही प्रश्न चिन्तन की भाषा सम्बन्धी शोध के आधारभूत प्रश्न बने होंगे।

हम सबके अन्दर चिन्तन की एक भाषा पहले से ही विद्यमान है। भले ही उस भाषा को हम न समझ पायें और न ही उसे व्यक्त कर पायें, पर जब भी हम स्वयं से संवाद करते हैं, हम उसी भाषा का सहारा लेते हैं। विचार एक के बाद एक उसी भाषा में आते हैं। शरीर को संकेत भी उसी भाषा में मिलते हैं। प्यास लगती है, भूख लगती है, पीड़ा होती है, आनन्द होता है, संवेदना जागती है, क्रोध भड़कता है, दया उमड़ती है, सब का सब कार्य हमारी मूल भाषा में ही तो होता है। शिशु, बधिर, पशु आदि सभी तो स्वयं से बात करते ही होंगे, कुछ न कुछ तो संवाद अन्तरमन में चलता ही होगा। जिन्होंने कभी कोई भाषा ही नहीं सीखी, यदि उनकी बात भी छोड़ दें तो सिद्ध संगीतज्ञ, चित्रकार आदि किस भाषा में अपना मन रचते हैं, संभवतः वे विचारों की उस भाषा को समझने का प्रयास करते हों जो हमने कभी सुनी ही नहीं, उस समय के बाद, जब से हमने दूसरी भाषा का सहारा ले लिया।

इसका अर्थ यह हुआ कि जो भाषा हम सर्वप्रथम सीखते हैं, वह हमारी द्वितीय भाषा है, पर उस भाषा से हमारी आन्तरिक भाषा का प्राथमिक सम्बन्ध है। उसके माध्यम से हम जगत के साथ संवाद स्थापित करते हैं। सीखी हुयी भाषा सामाजिकता में सहयोगी भी है, उसके माध्यम से हम एक दूसरे को समझ पाते हैं, स्वयं को व्यक्त कर पाते हैं, सहजीवन का और ज्ञानवर्धन का एक माध्यम स्थापित कर पाते हैं। उसके बाद की जितनी भाषायें सीखी जाती हैं, वे एक दूसरे पर आरोपित होती रहती है। ज्ञान की कुछ छिटकन एक भाषा में, दूसरी छिटकन दूसरी भाषा में, एक सुभाषित एक भाषा में, दूसरा उद्धरण दूसरी भाषा में।

ज्ञान तो मस्तिष्क की परतों में अपनी जगह जाकर स्थापित होता रहता है, पर इन सीखी हुयी भाषाओं का क्या संघर्ष चलता होगा? कौन सी भाषा ऐसी होती होगी जो चिन्तन प्रकोष्ठ में जाकर अपना अधिकार जमा लेती होगी? कौन सी भाषा जाकर चिन्तन की मौलिक अदृश्य भाषा को विस्थापित कर चिन्तन की भाषा बन जाती हो? कौन किस भाषा में सोचता है, यदि एक से अधिक भाषा में सोचता हो तो कौन सी भाषा किन परिस्थितियों में प्रधान हो जाती हो? इन प्रश्नों का उत्तर बहुत कठिन है, क्योंकि इन पर कोई विधिवत शोध हुआ ही नहीं। जो भी आँकड़ा उपस्थित है, अनुभवजन्य है।

यह भी हो सकता है कि हम अपनी मौलिक भाषा में ही सोचते हों, पर जो ज्ञान हमने एकत्र कर रखा होता है, वह किसी विशेष भाषा में रहा होगा, अतः हमें उस भाषा विशेष में सोचने की अनुभूति होती होगी। उदाहरणार्थ यदि अध्यात्म के बारे में सोच रहे हों तो विचार संस्कृत में प्रवाहित होते प्रतीत होंगे। भौतिक विज्ञान के बारे में सोचेंगे तो अंग्रेजी में प्रवाह होता हुआ प्रतीत होगा। इन विषयों पर भी शोध होना शेष है कि यदि हम अध्यात्म और विज्ञान के सम्बन्धों के बारे में सोचेंगे तो विचारों का प्रवाह किस भाषा में होता हुआ लगेगा? संस्कृत में, अंग्रेजी में या मन की मौलिक भाषा में। एक बात और स्पष्ट होना आवश्यक है कि रटा रटाया कह देना चिन्तन नहीं है, मौलिक कहना चिन्तन है, तो वह मौलिक किस भाषा में सोचा जायेगा?

यह भी संभव है कि जब भी निर्णय लेने की बात होगी, ज्ञानदत्तजी को अंग्रेजी उद्धरण अधिक याद आते होंगे, प्रबन्धन के सूत्र अधिक याद आते होंगे, इसीलिये उन्हें लगता होगा कि वह अंग्रेजी में सोच रहे हैं। भावनात्मक विषयों पर अंग्रेजी कभी अपना स्थान बना नहीं पायी होगी, अतः उस विषय में हिन्दी में विचारशीलता प्रतीत होती होगी।

कल एक कार्यक्रम देख रहा था, कॉमेडी नाइट्स विद कपिल, उसमें किसी ने कहा था कि जिस भाषा में गाली निकलती है, वही आपकी असली भाषा है, वही आपकी चिन्तन की भाषा है। इसी तर्क को और बढ़ा दिया जाये तो जिस भाषा में आपके भाव बह निकलें वही आपकी चिन्तन की भाषा है।

यक्ष प्रश्न तो फिर भी रहा, कि चिन्तन की भाषा क्या है, मौलिक अदृश्य वाली या सीखी हुयी प्रथम भाषा या विषयगत ज्ञान देने वाली भाषा? आपके क्या विचार हैं, अपनी मौलिक भाषा में ही सोचकर बताइयेगा?

27.4.13

और कब तक

लम्बी कितनी राह चलेंगे,
कब घर का आराम मिलेगा?
कब तक सूखे चित्र बनेंगे,
रंग कब चित्रों में उतरेगा?
कब विरोध के मेघ छटेंगे,
कब भ्रम का अनुराग तजेगा?
स्वप्नों में कब तक जागेंगे,
कब सच को आकार मिलेगा?

आचरण की रूपरेखा,
मात्र वाक्यों में सजाकर,
कर्म की कमजोरियों को,
भ्रंश तर्कों में छिपाकर ।
बोल दे निश्चित स्वरों में,
स्वयं को कब तक छलेंगे?
जीवनी से विमुख होकर,
और कितना हम चलेंगे?

7.12.11

ब्लॉग लेखन की बाध्यतायें

स्वयं पर प्रश्न करने वाला ही अपना जीवन सुलझा सकता है। जिसे इस प्रक्रिया से परहेज है उसे अपने बोझ सहित रसातल में डूब जाने के अतिरिक्त कोई राह नहीं है। प्रश्न करना ही पर्याप्त नहीं है, निष्कर्षों को स्वीकार कर जीवन की धूल धूसरित अवस्था से पुनः खड़े हो जीवन स्थापित करना पुरुषार्थ है। इस गतिशीलता को आप चाहें बुद्ध के चार सत्यों से ऊर्जस्वित माने या अज्ञेय की ‘आँधी सा और उमड़ता हूँ’ वाली उद्घोषणा से प्रभावित, पर स्वयं से प्रश्न पूछने वाले समाज ही अन्तर्द्वन्द्व की भँवर से बाहर निकल पाते हैं।

ब्लॉग लेखन भी कई प्रश्नों के घेरों में है, स्वाभाविक ही है, बचपन में प्रश्न अधिक होते हैं। इन प्रश्नों को उठाने वाली पोस्टें विचलित कर जाती हैं, पर ये पोस्टें आवश्यक भी हैं, सकारात्मक मनःस्थिति ही तो पनप रहे संशयों का निराकरण करने में सक्षम नहीं। और प्रश्न जब वह व्यक्ति उठाता है जो अनुभवों के न जाने कितने मोड़ों से गुजरा हो, तो प्रश्न अनसुने नहीं किये जा सकते हैं। अन्य वरिष्ठ ब्लॉगरों की तरह ज्ञानदत्तजी ने हिन्दी ब्लॉगिंग के उतार चढ़ाव देखे हैं, सृजनात्मकता को संख्याओं से जूझते देखा है, खुलेपन को बद्ध नियमों में घुटते देखा है, आधुनिकता को परम्पराओं से लड़ते देखा है, प्रयोगों के आरोह देखे हैं, निष्क्रियता का सन्नाटा और प्रतिक्रिया का उमड़ता गुबार देखा है।

प्रतिभा को सही मान न मिले तो वह पलायन कर जाना चाहती है, अमेरिका भागते युवाओं का यही सारांश है। स्थापित तन्त्रों में मान के मानक भी होते हैं, बड़ा पद रहता है, सत्ता का मद रहता है, और कुछ नहीं तो वाहनों और भवनों की लम्बाई चौड़ाई ही मानक का कार्य करते हुये दीखते हैं। समाज में बुजुर्गों का मान उनकी कही बातों को मानने से होता है। भौतिक हो या मानसिक, स्थापित तन्त्रों में मान के मानक दिख ही जाते हैं। ब्लॉग जगत में मान के मानक न भौतिक हैं और न ही मानसिक, ये तो टिप्पणी के रूप में संख्यात्मक हैं और स्वान्तः सुखाय के रूप में आध्यात्मिक। ज्ञानदत्तजी यहाँ पर अनुपात के अनुसार प्रतिफल न मिलने की बात उठाते हैं जो कि एक सत्य भी है और एक संकेत भी। ब्लॉग से मन हटाकर फेसबुक पर और हिन्दी ब्लॉगिंग से अंग्रेजी ब्लॉगिंग में अपनी साहित्यिक गतिविधियाँ प्रारम्भ करने वाले कई ब्लॉगरों के मन में यही कारण सर्वोपरि रहा होगा।

ब्लॉग पर बिताये समय को तीन भागों में बाँटा जा सकता है, लेखन, पठन और प्रतिक्रिया। प्रतिक्रिया का प्रकटीकरण टिप्पणियों के रूप में होता है। प्रशंसा, प्रोत्साहन, उपस्थिति, आलोचना, कटाक्ष, विवाद, संवाद और प्रमाद जैसे कितने भावों को समेटे रहती हैं टिप्पणियाँ। ज्ञानदत्तजी के प्रश्नों ने इस विषय पर चिंतन को कुरेदा है, मैं जिस प्रकार इन तीनों को समझ पाता हूँ और स्वीकार करता हूँ, उसे आपके समक्ष रख सकता हूँ। संभव है कि आपका दृष्टिकोण सर्वथा भिन्न हो, प्रश्नों के कई सही उत्तर संभव जो हैं इस जगत में।

लेखन, पठन और प्रतिक्रिया पर बिताया गया कुल समय नियत है, एक पर बढ़ाने से दूसरे पर कम होने लगता है। अपनी टिप्पणियों को संरक्षित करने की आदत है क्योंकि उन्हें भी मैं सृजन और साहित्य की श्रेणी में लाता हूँ, कई बार टिप्पणियों को आधार बना कई अच्छे लेख लिखे हैं। इस प्रकार मेरे लिये उपरिलिखित तीनों अवयव अन्तर्सम्बद्ध हैं। केवल की गयी टिप्पणियों को ही पोस्ट बनाऊँ तो अगले एक वर्ष नया लेखन नहीं करना पड़ेगा। मुझे यह स्वीकार करना चाहिये कि मेरी टिप्पणियों की संख्या बहुत बढ़ गयी है, आकार कम हो गया है, गुणवत्ता भगवान जाने।

टिप्पणी देने की प्रक्रिया की यदि किसी ज्ञात से तुलना करनी हो तो इस प्रकार करूँगा। जब परीक्षा के पहले किसी विषय का पाठ्यक्रम अधिक होता था तो बड़े बड़े भागों को संक्षिप्त कर छोटे नोट्स बना लेता था, जो परीक्षा के एक दिन पहले दुहराने के काम आते थे। किसी का ब्लॉग पढ़ते समय उसका सारांश मन में तैयार करने लगता हूँ, वही लिख देता हूँ टिप्पणी के रूप में और संरक्षित भी कर लेता हूँ भविष्य के लिये भी। कभी उस विषय पर पोस्ट लिखी तो उस विषय पर की सारी टिप्पणियाँ खोज कर उनका आधार बनाता हूँ। अच्छी और सार्थक पोस्टें अधिक समय और चिन्तन चाहती हैं, लिखने में भी और पढ़ने में भी।

मुझपर आदर्शवाद का दोष भले ही लगाया जाये पर हर पोस्ट को कुछ न कुछ सीखने की आशा से पढ़ता हूँ। यदि कोरी तुकबन्दी ही हो किसी कविता में पर वह भी मुझे मेरी कोई न कोई पुरानी कविता याद दिला देती है, जब मैं स्वयं भी तुकबन्दी ही कर पाता था।

प्रकृति का नियम बड़ा विचित्र होता है, श्रम और फल के बीच समय का लम्बा अन्तराल, कम श्रम में अधिक फल या अधिक श्रम में कम फल, कोई स्केलेबिलटी नहीं। पोस्ट भी उसी श्रेणी में आती हैं, गुणवत्ता, उत्पादकता व टिप्पणियों में कोई तारतम्यता नहीं। इस क्रूर से दिखने वाले नियम से बिना व्यथित हुये तुलसीबाबा का स्वान्तःसुखाय लिये चलते रहते हैं। किसी को अच्छी लगे न लगे, पर स्वयं की अच्छी लगनी चाहिये, लिखते समय भी और भविष्य में पुनः पढ़ते समय भी।

भले ही लोग सुख के संख्यात्मक मानक चाहें पर यह निर्विवाद है कि सुख और गुणवत्ता मापी नहीं जा सकती है। प्रोत्साहन की एक टिप्पणी मुझे उत्साह के आकाश में दिन भर उड़ाती रहती है। सुख को अपनी शर्तों पर जीना ही फन्नेखाँ बनायेगा, ब्लॉगिंग में भी। बहुतों को जानता हूँ जो अपने हृदय से लिखते हैं, उनके लिये भी बाध्यतायें बनी रहेंगी ब्लॉगिंग में, साथ साथ चलती भी रहेंगी कई दिनों तक, पर उनका लेखन रुकने वाला नहीं।

प्रश्न निश्चय ही बिखरे हैं राह में, आगे राह में ही कहीं उत्तर भी मिलेंगे, प्रश्न भी स्वीकार हैं, उत्तर भी स्वीकार होंगे।

14.9.11

पूर्वपक्ष, प्रतिपक्ष और संश्लेषण

पढ़ा था, यदि घर्षण नहीं होता तो आगे बढ़ना असंभव होता, पुस्तक में उदाहरण बर्फ में चलने का दिया गया था, बर्फीले स्थानों पर नहीं गया अतः घर में ही साबुन के घोल को जमीन पर फैला कर प्रयोग कर लिया। स्थूल वस्तुओं पर किया प्रयोग तो एक बार में सिद्ध हो गया था, पर वही सिद्धान्त बौद्धिकता के विकास में भी समुचित लागू होता है, यह समझने में दो दशक और लग गये।

विचारों के क्षेत्र में प्रयोग करने की सबसे बड़ी बाधा है, दृष्टा और दृश्य का एक हो जाना। जब विचार स्वयं ही प्रयोग में उलझे हों तो यह कौन देखेगा कि बौद्धिकता बढ़ रही है, कि नहीं। इस विलम्ब के लिये दोषी वर्तमान शिक्षापद्धति भी है, जहाँ पर तथ्यों का प्रवाह एक ही दिशा में होता, आप याद करते जाईये, कोई प्रश्न नहीं, कोई घर्षण नहीं। यह सत्य तभी उद्घाटित होगा जब आप स्वतन्त्र चिन्तन प्रारम्भ करेंगे, तथ्यों को मौलिक सत्यों से तौलना प्रारम्भ करेंगे, मौलिक सत्यों को अनुभव से जीना प्रारम्भ करेंगे। बहुधा परम्पराओं में भी कोई न कोई ज्ञान तत्व छिपा होता है, उसका ज्ञान आपके जीवन में उन परम्पराओं को स्थायी कर देता है, पर उसके लिये प्रश्न आवश्यक है।

स्वस्थ लोकतन्त्र में विचारों का प्रवाह स्वतन्त्र होता है और वह समाज की समग्र बौद्धिकता के विकास में सहायक भी होता है। ठीक उसी प्रकार किसी भी सभ्यता में लोकतन्त्र की मात्रा कितनी रही, इसका ज्ञान वहाँ की बौद्धिक सम्पदा से पता चल जाता है। जीवन तो निरंकुश साम्राज्यों में भी रहा है पर इतिहास ने सदा उन्हें अंधयुगों की संज्ञा दी है।

बौद्धिकता के क्षेत्र में घर्षण का अर्थ है कि जो विचार प्रचलन में है, उसमें असंगतता का उद्भव। प्रचलित विचार पूर्वपक्ष कहलाता है, असंगति प्रतिपक्ष कहलाती है, विवेचना तब आवश्यक हो जाती है और जो निष्कर्ष निकलता है वह संश्लेषण कहलाता है। संश्लेषित विचार कालान्तर में प्रचलित हो जाता है और आगामी घर्षण के लिये पूर्वपक्ष बन जाता है। यह प्रक्रिया चलती रहती है, ज्ञान आगे बढ़ता रहता है, ठीक वैसे ही जैसे आप पैदल आगे बढ़ते हैं जहाँ घर्षण आपके पैरों और जमीन के बीच होता है।

समाज में जड़ता तब आ जाती है जब पूर्वपक्ष और प्रतिपक्ष को स्थायी मानने का हठ होने लगता है, लोग इसे अपनी अपनी परम्पराओं पर आक्षेप के रूप में लेने लगते हैं। जब तक पूर्वपक्ष और प्रतिपक्ष का संश्लेषण नहीं होगा, अंधयुग बना रहेगा, लोग प्रतीकों पर लड़ते रहेंगे, सत्य अपनी प्यास लिये तड़पता रहेगा। साम्य स्थायी नहीं है, साम्य को जड़ न माना जाये, चरैवेति का उद्घोष शास्त्रों ने पैदल चलने या जीवन जीने के लिये तो नहीं ही किया होगा, संभवतः वह ज्ञान के बढ़ने का उद्घोष हो।

उपनिषद पहले पढ़े नहीं थे, सामर्थ्य के परे लगते थे, थोड़ा साहस हुआ तो देखा, सुखद आश्चर्य हुआ। उपनिषदों का प्रारूप ज्ञान के उद्भव का प्रारूप है, पूर्वपक्ष, प्रतिपक्ष और संश्लेषण।

शंकालु दृष्टि प्रश्न उठाने तक ही सीमित है, ज्ञान का प्रकाश संश्लेषण में है।