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21.8.22

सज्जन-मन


सब सहसा एकान्त लग रहा,

ठहरा रुद्ध नितान्त लग रहा,

बने हुये आकार ढह रहे,

सिमटा सब कुछ शान्त लग रहा।


मन का चिन्तन नहीं व्यग्रवत,

शुष्क हुआ सब, अग्नि तीक्ष्ण तप,

टूटन के बिखराव बिछे हैं,

स्थिर आत्म निहारे विक्षत।


सज्जन-मन निर्जन-वन भटके,

पूछे जग से, प्रश्न सहज थे,

कपटपूर्ण उत्तर पाये नित,

हर उत्तर, हर भाव पृथक थे।


सज्जन-मन बस निर्मल, निश्छल

नहीं समझता कोई अन्य बल,

सब कुछ अपने जैसा लगता,

नहीं ज्ञात जग, कितना मल, छल।

 

साधारण मन और जटिल जन,

सम्यक चिन्तन और विकट क्रम,

बाहर भीतर साम्य नहीं जब,

क्या कर लेगा, बन सज्जन-मन।

18.9.21

विकल्प तोड़ता है

 

अन्दर से उठता हुआ धूम्र, घुटता मन, बढ़ती शेष आस,

नवशमित भ्रमितवत अर्धचित्त, अन्तरमन की उन्मुक्त प्यास ।

इंगित करती जीवन रेखा, क्रमरहित, रुद्ध, हत वाणी को,

कुंठित मन से अभिशप्त रहे जीवन की करुण कहानी को ।।१।।

 

मनतंतु तभी से व्यथित हुये, जब आदर्शों की मार हुयी,

एक शांत मंद स्थिर मन में, संयम वीणा झंकार हुयी ।

पाने अपनाने नवजीवन, सारा संचितक्रम टूट गया,

इन नदियों में बहते बहते, जीवन मुझसे ही छूट गया ।।२।।

 

दो पक्ष बना अपने मन में, शंकाओं से संग्राम किया,

अपने तर्कों से लड़ लड़कर, अपना जीवन क्षयमान किया ।

दिनकर सी दिव्य ज्योति चाही, पर प्राप्त रहा एक हृदय दग्ध,

था अभिलासित नभ का विचरण, बैठा शापित बन विहग बद्ध ।।३।।


21.8.21

व्यक्त कर उद्गार मन के


व्यक्त कर उद्गार मन के,

क्यों खड़ा है मूक बन के ।

 

व्यथा के आगार हों जब,

सुखों के आलाप क्यों तब,

नहीं जीवन की मधुरता को विकट विषधर बना ले ।

व्यक्त कर उद्गार मन के ।।१।।

 

चलो कुछ पल चल सको पर,

घिसटना तुम नहीं पल भर,

समय की स्पष्ट थापों को अमिट दर्शन बना ले ।

व्यक्त कर उद्गार मन के ।।२।।

 

तोड़ दे तू बन्धनों को,

छोड़ दे आश्रित क्षणों को,

खींचने से टूटते हैं तार, उनको टूटने दे ।

व्यक्त कर उद्गार मन के ।।३।।

 

यहाँ दुविधा जी रही है,

व्यर्थ की ऊष्मा भरी है,

अगर अन्तः चाहता है, उसे खुल कर चीखने दे ।

व्यक्त कर उद्गार मन के ।।४।।

14.8.21

मन मेरा फिर डोल रहा है

  

शान्ति धरो स्थान, व्यक्त जीवन में तेरा मोल रहा है ।

देखो अभी कहीं मत जाना, मन मेरा फिर डोल रहा है ।।

 

शान्ति, सुधा का रस बरसाती,

जीवन के मनभावों में ।

नयन ज्योत्सना, धैर्य दिलाती,

अति से अधिक विषादों में ।।

शान्ति, क्रिया का अन्त शब्द, 

पर मन कर्कशता बोल रहा है ।

मन मेरा फिर डोल रहा है ।।१।।

 

क्यों अशान्ति अपनायी मैंने,

सुख-निकेत से किया प्रयाण ।

कालचक्र के दूतों से,

मिल गया मुझे साक्षात प्रमाण ।।

क्यों अशान्ति का शब्द हृदय में, 

गरल भयंकर घोल रहा है ।

मन मेरा फिर डोल रहा है ।।२।।


कर्म विरत हो नहीं सहज,

मन घोर मचाये हाहाकार,

कैसे जीवन तब तटस्थ,

मन चाह रहा उद्धत व्यापार,

त्यक्त रहूँ या व्यक्त करूँ,

मन असमंजस नित खोल रहा है,

मन मेरा फिर डोल रहा है ।।३।।


बढ़ता जीवन का कर्मचक्र,

बढ़ता जाता है नवल नाद,

है नहीं अपेक्षित, आवश्यक, 

बिन चाहे बढ़ जाता विषाद,

क्या प्राप्त रहे, क्या छोड़ सकूँ,

सब लाभहानि में तोल रहा है,

मन मेरा फिर डोल रहा है ।।४।।


नहीं कभी भी मुुड़ पाता मन,

एक विशिष्ट आकर्ष भरा,

रागयुक्त यह कोलाहल है,

जो जीवन बनकर पसरा।

कितना चाहूँ, उसी परिधि पर,

घूम रहा मन, गोल रहा है,

मन मेरा फिर डोल रहा है ।।५।।

6.7.21

सात चक्र - स्थिति

 

सात चक्रों की अवधारणा संभवतः भारतीय सिद्धान्त पक्ष का सर्वाधिक चर्चित तत्व है। शरीर में स्थित ऊर्जा के ये चक्र न केवल शरीर को अध्यात्म से जोड़ते हैं वरन भूत, भविष्य और वर्तमान से होते हुये कालातीत अवस्था तक पहुँच जाते हैं। शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा की भिन्न अवस्थाओं को भी ये चक्र विश्लेषित करते हैं। योग हो, तन्त्र साधना हो, बौद्धपंथ हो, आधुनिक मनोविज्ञान हो, प्राच्य और पाश्चात्य के सभी मत मानसिक संरचना को इसी सिद्धान्त से समझने का प्रयत्न करते हैं। समझ में थोड़ा बहुत अन्तर काल और विकास के कारण है। साथ ही अपने पंथ के अन्य सिद्धान्तों से संयोजन के प्रयास में इसके मूलभूत स्वरूप में न्यूनतम छेड़छाड़ दृष्टव्य है।


संलग्न चित्र में चक्र, उनके स्थान, सम्बद्ध काल, शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक लक्षण दिखाये गये हैं। इन्हें पूरा समझ पाना किसी योगी के लिये ही संभव है पर कुछ आधारभूत तथ्य इसे क्रमशः खोलने में सहायक होंगे।


प्रथम दो चक्र समझ आते हैं, वे क्रमशः भूत और भविष्य से सम्बद्ध हैं। अन्तिम दो भी स्पष्ट हैं, वे वर्तमान और कालातीत अवस्था को व्यक्त करते हैं। मध्य में स्थित शेष तीन काल की व्यापित अवस्थाओं के परिचायक हैं। व्यापित काल अवस्थायें बन्धनकारी लग सकती है। प्रारम्भिक स्थितियों में ऐसा होता भी है, ऊर्जा बट जाती है। कालान्तर में इनमें साम्य आवश्यक है। यदि ऐसा नहीं होगा तो हमारा विकास नहीं होगा, हम उसी चक्र में अटके रहेंगे। विकास से हम ऊपरी चक्रों में क्रमशः बढ़ते जाते हैं और पहले अपने अन्दर, फिर परिवार में, फिर समाज में और अन्ततः सकल विश्व में एक संतुलित स्वरूप देख पाते हैं। ऊर्जा, साम्य, विकास और संतुलन को यह क्रम लगभग हर विषय में प्रयुक्त होता है।


मध्य के ये तीन चक्र बद्धता और उन्मुक्तता के बीच के संक्रमण की स्थिति है, बद्धता भूत और भविष्य की, उन्मुक्तता वर्तमान की। बद्धता सब कुछ अपने में समेट लेने की, उन्मुक्तता सब में व्याप्त हो जाने की। स्वाभाविक है कि इस यात्रा में परिश्रम अधिक करना पड़ता है, समय अधिक लगता है। जहाँ होड़ लगी थी, प्रतियोगी मानसिकता थी, वहाँ साम्य बिठाना पड़ता है। बन्धन से बाहर आने के क्रम में चित्र में इंगित गुण विकसित होते हैं। बन्धन से बाहर आने का प्रयास ही उन गुणों को जीवन में परिवर्धित करते हैं जो विस्तारमना होते हैं। यह तब तक संभव नहीं है जब तक हम भूत और भविष्य को संतुलित रूप में वर्तमान के साथ नहीं रखते हैं। एकता, समग्रता में विस्तार की आवश्यकता है। विस्तार तीनों कालों का, विस्तार तीनों कालों के परस्पर प्रभाव का।


अन्ततः वर्तमान ही सब कुछ है। यदि वर्तमान को जी लिया और बिना कुछ बोझ लिये आगे बढ़ गये तो काल की बन्धनकारी प्रवृत्ति भी कम रहेगी। यदि वर्तमान को पूर्णता से नहीं जिया, निष्कर्ष तक नहीं पहुँचाया तो वह अतृप्त रहेगा और आगत काल में अपना भाग माँगेगा। यही संभवतः कर्मफल का सिद्धान्त है। बिना क्लेष के जी पाना, बिना अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश के जी पाना।


आपका जीवन ऊर्जा के इन सात चक्रों में कहीं न कहीं रहेगा ही। मन में उत्पन्न विचार किसी न किसी चक्र का भाग रहेगा ही। निम्न चक्र प्रारम्भ में जागृत रहते हैं पर बिना उनको पार किये, बिना उन पर ध्यान दिये, बिना उनको निष्कर्ष पर पहुँचाये विकास संभव भी नहीं है। विकास के प्रारम्भिक चरणों में प्राथमिकता वही है। बिना उन आवश्यकताओं को पूर्ण किये हुये संतुलन और एकाग्रता की बात करना हास्यास्पद है। पर उन आवश्कताओं में कितना समय दें, यह प्रश्न सदा ही बना रहता है। उनको यथोचित समय और ऊर्जा देकर ही आगे बढ़ा जा सकता है, नहीं तो अवसर पाकर वे पुनः भड़केंगी। इन आवश्यकताओं का एक मूलभूत नियत स्तर बनाकर रखना ही होता है। शरीर और परिवेश की सुरक्षा, खाने को भोजन, रहने को घर, जीवकोपार्जन, भविष्य का चिन्तन, सन्तति का क्रम, आधार का निर्माण करना ही पड़ता है।


यदि प्रथम चक्र में ही अटक गये, उसी में सारा समय व्यतीत कर दिया, उसी में निमग्न हो गये, उसी में सुख ढूढ़ने लगे तो मान लीजिये कि आपने सारी संभावनाओं को नकार दिया है। एक दिन मन भर जायेगा, काल में सबका अवरोह आता है, सुख के अनुभव का भी। बार बार एक ही विषय सुख देना बन्द कर देता है। तब कहाँ जायेंगे, तब ऊपर के चक्रों में जाने का मन तो करेगा पर आपके पास न ऊर्जा रहेगी और न ही समय। निःशब्द, निर्व्यक्त, निरुपाय आप जीवन से प्रयाण कर जायेंगे। काल की कला से बाहर आना है तो कालातीत तो होना ही पड़ेगा।


धर्म रक्षित अर्थ और काम के प्रयास मोक्ष तक ले जाने की सामर्थ्य रखते हैं। धर्मविहित अर्थ समाज के द्वेष का कारण बनता है और धर्मविहित काम समाज की निन्दा का। वाल्मीकि रामायण में राम के मुख से निकले ये शब्द असमञ्जस की किसी भी स्थिति से बाहर निकाल लाते हैं और एक सहज सा साम्य प्रकट कर देते हैं। वैशेषिक भी जीवन के दो ध्येय कहता है, एक अभ्युदय औऱ दूसरा निःश्रेयस। एक भौतिक श्रेष्ठता तो दूसरा सर्वोत्तम तक की यात्रा, एक के बाद एक चक्रों से होते हुये, ऊर्ध्वमना हो।


सात जन्म, मन की सात अवस्थायें, काल की सात कलायें, सात चक्र, ये सब अन्ततः एक बिन्दु पर अपनी निष्पत्ति पा जाते हैं। इन सात चरणों की यात्रा के व्यवहारिक पक्ष अगले ब्लाग में।

1.7.21

सात जन्म - क्रम


ऊर्जा, साम्य, विकास और एकता की विमाओं में भूत, भविष्य और वर्तमान को कैसे साधा जाये, यह जीवन का मूल प्रश्न हो जाता है। साथ ही ढेर सारे और भी अनुप्रश्न उठते हैं, जिनका निवारण आवश्यक हो जाता है। जो प्रश्न हमारे हैं वही प्रश्न हमारे पूर्वजों के भी थे। जब जीवन की आपाधापी से कुछ समय निकाल कर अपने पूर्वजों के साथ बैठता हूँ तो दो भाव उमड़ते हैं। एक भाव होता है अगाध आदर का। अद्भुत मेधा, अद्भुत चिन्तन, अद्भुत उहा और विचारों का एक व्यवस्थित क्रम। दूसरा भाव होता है, आनन्द के अतिरेक में उनसे लिपट जाने का। गर्व होता है, मन करता है कि साँस रोके रहूँ और उस गर्वानुभूति को जाने ही न दूँ। प्रश्न घुमड़ते हैं, जब तक उत्तर नहीं पा जाता मन, अतृप्ति बनी रहती है। उत्तर पाते ही आनन्द की रेख पूरे अस्तित्व में तड़ित तरंगा सी समा जाती है।


उनके लिखे हुये में और हमारे समझे हुये में बस प्रत्यक्ष का अन्तर होता है। उन्होंने समस्त ज्ञान का प्रत्यक्ष किया होता है, एक प्रक्रिया में उतर कर। योग के सम्यक अनुपालन से और ध्यान, धारणा और समाधि से होते हुये जब तथ्य उद्भाषित होते हैं तब व्यक्त शब्द आप्त द्वारा प्रत्यक्ष किये गये ज्ञान की सामर्थ्य पा जाते हैं। हमें वही ज्ञान अनुमान से प्राप्त होता है और शब्द रूप में सहज उपलब्ध है। यही कारण है कि शाब्दिक ज्ञान जानने के बाद भी उसका मर्म समझने में हमें वर्षों लग जाते हैं। अनुभव बहुत कुछ सिखाता है, शब्दों में पड़ा ज्ञान, श्लोकों में निहित शिक्षा, सूत्रों में क्रमबद्ध पिरोया ज्ञान अपने आप को धीरे धीरे व्यक्त करने लगता है।


जीवन को जानने और समुचित निभाने के लिये ऊर्जा, साम्य, विकास और एकता की विमाओं को समझना आवश्यक है। किस प्राथमिकता और क्रम में ऊर्जा लगायी जाये, किस प्रकार विपरीतता में साम्य स्थापित किया जाये, किस प्रकार आवश्यक विकास लब्ध हो और अन्ततः किस प्रकार समग्रता से आन्तरिक और वाह्य विश्व में एकत्व संस्थापित किया जाये? पिछले ब्लाग में देखा कि भूत, भविष्य और वर्तमान में भटकता मन ऊर्जा खींचता है, पहले क्या कर्म निष्पादित हों? क्या धरें और क्या तजें? धरना भविष्य का द्योतक है, तजना भूत का, यथास्थिति वर्तमान की। किसको कितना महत्व दिया जाये कि सब संतुलित चले? तब संतुलन की स्थिति में किस प्रकार गति हो? तब किस प्रकार गतिमय जीवन के सम्बन्धों में तदात्म्य स्थापित हो, अन्य जीवों के साथ, प्रकृति के साथ, स्वयं की इन्द्रिय, मन, बुद्धि और आत्मा के साथ।


जब क्रिया का एक मात्र अवसर वर्तमान ही है, जो भी करना होगा वर्तमान में ही करना होगा। स्मृति भी वर्तमान के क्षण में आयेगी, कल्पना भी वर्तमान के क्षण ही आयेगी, ज्ञान भी वर्तमान में प्राप्त होगा और कर्म भी वर्तमान में ही सम्पादित होंगे। स्मृति और कल्पना के साथ न्याय करने के लिये ज्ञान आवश्यक है, आगे बढ़ने के लिये कर्म आवश्यक है। वर्तमान को सही प्रकार से निभाना जिसे आ गया, उसे जीवन जीने की कला का मर्म भी आ गया।


विकास क्रमिक है। समग्र में क्रमशः शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक विकास। हर अंग का अपना क्रमिक विकास। स्थूल से सूक्ष्म की ओर बढ़ें, नीचे से ऊपर बढ़ें, वाह्य से अन्दर बढ़ें तो शारीरिक स्तर पर ही, सुरक्षा, प्रजनन, पाचन, संचालन, संप्रेषण, संतुलन से होते हुये स्थैर्य आता है। मानसिक स्तर पर इन्द्रिय सुख, प्रसन्नता, व्यापकता, समर्पित प्रेम, स्वतन्त्रता, शुद्धता होते हुये अस्तित्व की अनुभूति होती है। बौद्धिक स्तर पर स्थायित्व, रचनात्मकता, मौलिकता, सहृदयता, उन्मुक्त विचार, दृश्य चेतना से होते हुये एकता स्थापित होती है। इसी प्रकार आध्यात्मिक स्तर पर अस्मिता, उत्सुकता, विकास, समर्पण, विशिष्टता, प्रज्ञा के मार्ग से ऋतम्भरा प्रतिष्ठित होती है।


आपको यह तथ्य निश्चय ही रोचक लगेगा कि प्रत्येक अंगों के विकासक्रम में सात ही चरण दिये गये हैं। सात की यह अवधारणा जिसे मैंने सात जन्मों के प्रश्न से ढूढ़ने का प्रयास किया था और क्रमशः काल और मन की गति से सम्बद्ध करने का प्रयास किया था, वह अवधारणा सात ऊर्जा चक्रों में अपनी निष्पत्ति पा जाती है।


शरीर में सात ऊर्जा चक्र माने गये हैं। मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, विशुद्ध, आज्ञा और सहस्रार। नाड़ियों की संरचना में तन्त्रिका तन्तुओं के संगमस्थल ऊर्जा के केन्द्र माने गये हैं। समग्रता और निर्बाध रूप से जीने के लिये आवश्यक है कि इनमें ऊर्जा प्रवाहित होनी चाहिये। जहाँ पर यह प्रवाह बाधित हो जाता है, हम अस्तित्व के उसी बिन्दु पर अटक जाते हैं, ऊपर नहीं बढ़ पाते हैं। न केवल ये चक्र हमारी मानसिक गति से सम्बद्ध हैं वरन काल से भी जुड़े हैं। किस समय किसको प्राथमिकता देनी है, साम्य का स्तर क्या हो, ऊपर कैसे बढ़े और अन्ततः एकत्व कैसे आये, इसका एक अद्भुत विवरण इस प्रकरण में मिलता है।


ऊर्जा, साम्य, विकास और एकता की यात्रा है, इन चक्रों में क्रमशः ऊपर बढ़ना। जानेंगे इसके विश्लेषित रहस्य अगले ब्लाग में।

29.6.21

सात जन्म - मन

 

मन है तो गति करेगा, स्वाभाविक है। कहाँ तक गति करेगा? जहाँ तक उसकी सामर्थ्य है। कब किस काल में रहेगा, क्या पता? क्यों नहीं हमें सारी स्मृतियाँ एक साथ याद आती हैं? क्यों नहीं हमारा सारा जीवनकृत्य स्मृतियों में परिणित हो जाता है? क्या वह कारण है जो स्मृति विशेष को आकर्षित करता है? क्या कुछ होता है उन घटनाओं में जो वे स्मृति बन इतने गहरे चिपक जाती हैं? और क्या होता है उन घटनाओं में जो होती तो विशेष हैं पर स्मृति में नहीं आती हैं या कहें कि काल में कवलित हो जाती हैं।


मन की गति विशिष्ट है। वह एक पल स्मृतियों में जीता है, दूसरे पल कल्पना में, तीसरे पल वर्तमान को समझता है और चौथे पल कर्म में ध्यानस्थ हो जाता है। विश्लेषण करें कि कितने समय किस काल में रहा मन? और जिस काल में भी रहा, अन्य कालों से कितना प्रभावित रहा मन? जब सुख और दुख उसी मन की अनुकूलता और प्रतिकूलता से व्यक्त हों, जब मन की गति जीवन के दिशा और दशा बदलने में सक्षम हो, जब भविष्य अनिश्चित हो और निर्णय अंधकूप के निष्कर्षसम हों, तो मन की गति के आधारभूत नियम जानना आवश्यक हो जाता है। यदि हम दृष्टा हैं तो कौन मन की यह गति नियन्त्रित कर रहा है? यदि कोई और नियन्त्रण में है तो सुख और दुख हमारे भाग में क्यों?


बड़ा असहाय सा लगता है जब दृष्टा मन के आन्दोलनों को झेल रहा होता है। तब मन न जाने कौन सी स्मृति सामने लाकर रख दे और आपको पुनः भयग्रस्त कर दे। सफलता की निर्मल आस को पुरानी असफलता की निर्मम स्मृतियों से ध्वस्त कर दे। एक पुरानी चोट की स्मृति आपके वर्तमान को अतिसावधान कर जाये। स्मृति में पड़ा एक छल का प्रकरण स्वस्थ परिवेश के प्रति भी अविश्वास उत्पन्न कर दे।


यदि हम अपनी स्मृतियों से इतने बद्ध हैं, या इतने प्रभावित हैं, या इतने प्रताड़ित हैं, तो हम क्या वह हो पा रहे हैं जो हमें उस परिस्थिति में होना चाहिये? वर्तमान की स्मृतियों पर अतिनिर्भरता निश्चय ही भविष्य के लिये भी उचित नहीं है। यदि ऐसा है तो निश्चय ही हम एक पूर्वनिर्धारित जीवन जी रहे हैं। तब वह कल्पनाशीलता कहाँ से आयेगी। सृजन के साथ यह अन्याय होगा कि कल्पनाशीलता सुप्तप्राय हो जाये। तब क्या हम पशुवत नहीं हो जायेंगे?


कल्पनाशीलता के लिये आवश्यक है कि स्मृतियाँ बाधक न हों, अपितु साधक हों। स्मृतियों की अधिकता और प्रबलता दोनों ही बाधक होने की संभावना रखती हैं। साधक स्मृतियाँ प्रबल हों और बाधक निर्बल, तभी कल्पना प्रखर हो सकेगी। कल्पनाशीलता ही क्यों, वर्तमान में सामान्य रूप से कार्य करने के लिये भी स्मृतियों के उछाह का समुचित निस्तारण आवश्यक है।


तब एक सहज सा प्रश्न उठ सकता है कि अच्छा जीवन तो वह होता है जिसमें ढेर सी स्मृतियाँ हों। इसी मानसिकता में हम स्मृतियाँ बनाते रहते हैं, समेटते रहते हैं, इस तथ्य से सर्वथा अनभिज्ञ कि यही एक दिन बोझ बन जायेंगी, एक पग भी आगे नहीं बढ़ने देंगी, बद्ध कर लेंगी।


कभी कभी स्मृतियों की इस आधिपत्य से हम विद्रोह कर बैठते हैं। कष्टमय भूत को भुलाकर, मार्ग के विरुद्ध एक नये मार्ग पर हठ करके बढ़ जाते हैं। भूत से यह बलात विलगता आपको स्वतन्त्र करने के स्थान पर और भी क्षीण कर देती है। पहली इसलिये कि आप अपनी गति और मति के विरुद्ध जाते हैं जिससे आपको सामान्य से कहीं अधिक ऊर्जा लगती है, साथ ही आपका निर्मित आधार आपके काम नहीं आता है। दूसरी इसलिये कि भूत से बलात विलगता आपको अपने भूत से और भी बद्ध कर देती है।


जहाँ स्मृति का तांडव भय उत्पन्न करता है, आपको आवश्यकता से अधिक सावधान, संचय और उपक्रम एकत्र करने में लगा देता है, कल्पना का भी विषादपूर्ण योगदान कम नहीं है। कल्पना के द्वारा निर्मित आगत की आकृति और उसे पूर्ण करने की चिंता। भविष्य की चिंता में डूबा अस्तित्व व्यर्थ ही ऊर्जाहीन हो जाता है। आश्चर्य है कि यह दुख भूत के भय की तुलना में कई गुना होता है। जहाँ भूत में घटित घटना एक ही होती हैं, कल्पनाजनित संभावित भविष्य कई प्रकार के हो सकते हैं। हर संभावित भविष्य में जाकर उसे पूर्ण करने या न कर पाने की चिंता में हमारे द्वारा प्राप्त मानसिक दुख कई गुना बढ़ जाता है, शारीरिक पीड़ा के तुलना में तो सैकड़ों गुना। क्योंकि बहुत कुछ संभव है कि असफलता की संभावित परिस्थितियाँ आयें ही नहीं। 


भूत के भय और भविष्य की चिंता, दोनों ही मिलकर वर्तमान को अस्तव्यस्त करने की क्षमता रखते हैं। बहुधा हम जीवन इसी उठापटक में निकाल देते हैं और वर्तमान पर तनिक भी ध्यान नहीं देते हैं। वर्तमान पर क्षिप्त विक्षिप्त सी प्रतिक्रिया परिस्थितियों को और भी प्रतिकूल कर देती है और तब लगता है कि जीवन में सब कुछ हमारे नियन्त्रण से बाहर चला गया।


वर्तमान हमारे लिये अत्यन्त महत्वपूर्ण है। स्मृति में कोई घटना जायेगी कि नहीं इसका निर्धारण वर्तमान से ही होगा। भविष्य पीड़ासित होगा कि नहीं, इसका भी निर्धारण वर्तमान से होगा। इस तथ्य के विपरीत हम वर्तमान को दोनों ही ओर से खो देते हैं। संभवतः यही हमारे जीवन की सबसे बड़ी विडम्बना है।


भूत, भविष्य और वर्तमान को साधने का क्रम अत्यन्त रोचक है। ऊर्जा, साम्य और एकता के पथ पर सध कर जाना पड़ता है। जानेंगे अगले ब्लाग में। 

24.6.21

सात जन्म - एक उत्तर

 

मन चमत्कृत करता है। विचारशील होना गति का द्योतक है, पर यदि विचारों पर ही विचार न किया तो कुछ अधूरा अतृप्त सा लगता है। एक स्वाभाविक प्रवृत्ति हो जाती है उस पर मनन करने की जिसे हम मन कहते हैं। जगत में एक अद्भुत सा निर्माण लगता है मन। जिस तरह घटनायें संचित रहती हैं, जिस तरह याद आती हैं और जिस तरह भविष्य की संभावना में बनी रहती हैं।


ज्ञान के लिये पाँच इन्द्रियों का होना, एक बार में एक से ही ज्ञान होना और यहाँ तक कि सम्मुख उपस्थित कई दृश्यों में उसी का ज्ञान होना जिस पर मन रुके। कुछ जानना और यह जानना कि हम कुछ जान रहे हैं, ज्ञान के भिन्न स्तरों का होना। विचार करते समय लगना कि हम विचार कर रहे हैं। मन के बारे में ऐसे न जाने कितने प्रत्यक्ष हैं जो हमें आश्चर्यचकित कर जाते हैं।


मन व्यस्त रहता है तो हमें अपना अस्तित्व समझ आता है, काल का बोध होता है। मन स्तब्ध होता है तो काल रुक सा जाता है। मन न रहे तो क्या समझें, क्या जाने, क्या याद करें, क्या बतायें, कैसे व्यवहार करें? देखने में तो बड़ा ही सरल लगता है पर गहरे उतरने पर मन का यह वैचित्र्य उत्कृष्ट मेधाओं को भी दिग्भ्रमित कर देता है।


न्यायशास्त्र में बड़े ही व्यवस्थित क्रम से इन्द्रिय, मन और आत्मा की भिन्नता को सिद्ध किया है। सारे के सारे तर्क, उहा, अनुमान अन्ततः प्रत्यक्ष पर ही आकर टिकते हैं। पूर्वपक्षी यथासंभव विकल्प रखता है कि यह मान लिया जाये या वह मान लिया जाये। कई अध्यायों की प्रश्नोत्तरी के बाद शेष सभी अन्यथा विकल्प अवसान पा जाते हैं और सिद्धान्ती का मत बना रहता है। एक एक तत्व की विधिवत परीक्षा और उसका यथावत निराकरण।


जहाँ आत्मा दृष्टा है और इन्द्रियाँ यन्त्रवत, वहाँ मन ही सारी व्यवस्थायें देखता है। मन की कई अवस्थायें हैं, कभी स्मृति में, कभी कल्पना में, कभी स्वप्न में, कभी ज्ञानार्जन में और कभी कर्म में ध्यानस्थ। मन गतिशील न हो, यह केवल दो ही स्थितियों में होता है, या तो सुसुप्त अवस्था में या समाधि में। एक अवस्था मन की वृत्तियों का अभाव है और दूसरी मन की वृत्तियों का निरुद्ध होना। एक अनियन्त्रित है और दूसरी नियन्त्रित।


इस दृष्टि से विश्लेषित करें तो मन अपनी अवस्थायें बदलता रहता है। मन की अवस्थाओं का उद्भव ही जन्म है और इन्हें सात विभागों में बाट देने से सारी संभावित अवस्थायें व्याख्यायित की जा सकती हैं। काल की दृष्टि से ये सात विभाग इस प्रकार हैं।


  1. मन गतिशील नहीं होता है। इस समय दृष्टा अपने स्वरूप में रहता है। समाधि में उसे अपने स्वरूप में बारे में निश्चयत्मकता से ज्ञात होता है, वह स्थितिप्रज्ञ होता है। जबकि सुसुप्तावस्था में अपने स्वरूप की जानकारी का अभाव होता है, वह अवस्था अस्थिर होती है।
  2. मन विशुद्ध वर्तमान में रहता है। जिस कर्म में निरत है, जिस ज्ञान को प्राप्त कर रहा है, उसमें शत प्रतिशत लगा हुआ। भूत या भविष्य का कोई प्रभाव नहीं, स्मृति या कल्पना से परे। तब ज्ञान निर्बाध आता है, कर्म कुशलता पूर्वक सम्पन्न होता है। कर्म और ज्ञान की पराकाष्ठा तक पहुँचा देती है यह अवस्था।
  3. मन विशुद्ध भूत में रहता है। स्मृति आती है, अपना पूर्ववत प्रभाव छोड़ जाती हैं. ठीक वैसा ही, जैसा पहली बार हुआ था। उस समय प्राप्त अनुभूति किसी अन्य कारण से प्रभावित नहीं होती। जितना महत्वपूर्ण वह तब था, उतना ही आज भी है। बहुधा भूत के कई अनुभव अन्य अनुभवों से मिलकर गड्डमड्ड हो जाते हैं, विकृत हो जाते हैं। कुछ अन्य अनुभव अतिविशिष्ट हो जाते हैं। इस सब विकारों से परे भूत की यथारूप अनुभूति।
  4. मन विशुद्ध भविष्य में रहता है। कल्पना की शक्ति भविष्य का सृजन करने में सक्षम है। आगामी परिस्थिति में स्वयं को स्थित कर परिमाणों की कल्पना करना। कौन कैसे बोलेगा, क्या उत्तर देना ठीक रहेगा, सभी संभावित स्थितियों का सामर्थ्यपूर्ण चित्रण। बहुत कुछ वैसे, जैसे घटना सामने घट रही है। भय, राग, द्वेष आदि से परे।
  5. मन वर्तमान में रहता है पर भूत और भविष्य से आन्दोलित रहता है। भूत का भय या भविष्य की चिन्तायें वर्तमान को झकझोर कर रख देती हैं। किसी को देखकर सामान्य भावों के अतिरिक्त यदि वे सारे प्रकरण याद आने लगे जिसमें उसका व्यवहार अनुचित था या भविष्य में किस तरह उसको पाठ पढ़ाया जायेगा इसका षड़यन्त्र मन में बनने लगे तो मानकर चलिये कि आपका मन तो वर्तमान में है पर भूत और भविष्य से पीड़ित है, आन्दोलित है। इसमें न तो आप वर्तमान के रहते हैं, न भूत के और न ही भविष्य के, आप कालसंकर हो जाते हो, क्षिप्त विक्षिप्त से, बद्ध से, बिद्ध से।
  6. मन भविष्य में रहता है पर भूत से प्रभावित रहता है। भूत में घटी घटनायें मन को अवरूद्ध कर देती हैं। कल्पनाशीलता अपने पूरे स्वरूप में नहीं निकल पाती है। बहुधा आप अपना अवमूल्यन कर बैठते हैं। परिस्थितियों की समझ विकारयुक्त हो जाती है, निर्णय अनुचित हो जाते हैं। जीवन पर भूत का इतना प्रभाव उस बोझे को ढोने जैसा है जो आपको शीघ्र ही थका डालता है। आपकी क्षमतायें क्षीण हो जाती है। अगले क्षण को सम्हालने में जो ऊर्जा आवश्यक होती है, उसे आपका अनसुलझा भूत लील जाता है।
  7. मन भूत में रहता है पर भविष्य से प्रभावित रहता है। बचपन में हमें खिलौने भी उतने प्रिय थे जितनी कि रोचक पुस्तकें। मित्रों के साथ एक छलरहित, उदारमना व्यवहार था। जब भविष्य में हम एक विशेष छवि को जड़ देते हैं तो स्मृति के वे अनमोल अभेद प्राथमिकतायें पाने लगते हैं। भविष्य में सफलता के प्रति आपका महत्व भूत में आपके द्वार की गयी पढ़ाई को अधिक मान देने लगती है, आपका सफल और धनाड़्य मित्र आपका अधिक ध्यान पाने लगता है। स्मृतियाँ तब विशुद्ध नहीं रह पाती, विकारयुक्त हो जाती है।     


मुझे तो अस्तित्व के यही सात जन्म समझ आते हैं। प्रथम अवस्था सर्वोत्तम है और मुक्तिकारक भी। अगली तीन भी उत्तम हैं यदि ये राग द्वेष को क्षीण करें। अन्तिम तीन बन्धनकारी हैं पर साथ ही एक अवसर भी देती हैं कि हम अपने बद्ध संस्कारों को शिथिल कर सकें और अधिकतम समय प्रथम चार अवस्थाओं में बितायें।


यदि यही सात जन्म के साथ का संभावित उत्तर है जो मन की सभी अवस्थाओं सें सामञ्जस्य बैठाने को प्रेरित करता है तो एक प्रश्न पुनः उपस्थित हो जाता है। यदि अन्तिम तीन अवस्थायें बन्धनकारी हैं तो क्यों नवयुगल को उनसे बाहर निकलने की प्रेरणा नहीं दी जाती है?


छोड़िये, कारण और निवारण से परे वर्तमान में ही जीते हैं, जितने भी जन्म साथ मिले? बस वर्तमान सध जाये तो सब सध जाये। 

22.6.21

सात जन्म - एक प्रश्न

 

शीर्षक पढ़ते ही स्वाभाविक विचार आता है कि संभवतः चर्चा विवाह सम्बन्धों के कालखण्ड की होगी, एक के बाद एक, जीवनोत्तर। बहुधा इसी संदर्भ में सात जन्मों को अभिव्यक्त भी किया जाता है। तब विनोदवश प्रश्न यह भी उठता है कि सात जन्म ही क्यों? जब प्रेम इतना अधिक है तो सदा के लिये क्यों नहीं? जिनके लिये यह सम्बन्ध कठिन होने लगता है, उस क्षुब्धमना के लिये प्रश्न उठ सकता है कि जब एक नहीं सम्हाला जा रहा तो सात जन्म कैसे निभाये जायेंगे? जिज्ञासुमना को यह जानने की चाह हो सकती है कि अभी उनका कौन सा जन्म चल रहा है? प्रयोगधर्मियों के लिये हर बार नये प्रयोग करने के स्थान पर सात बार एक ही प्रयोग की बाध्यता क्यों? क्यों न ऐसा हो कि जब तक सामञ्जस्य की श्रेष्ठतम सीमा नहीं मिलती, प्रयोग चलते रहें और उसके बाद वही सम्बन्ध जन्मजन्मान्तर बने रहें।


यद्यपि यह देखा गया है कि लोग एक चित परिचित समूह में ही जन्म लेते हैं, जन्म जन्मान्तरों तक। ब्रायन वीज़ अपनी पुस्तकों में इस तथ्य को प्रयोगों द्वारा स्थापित करते हैं। “रिग्रेसन” पद्धति पर आधारित उनके प्रयोग व्यक्तियों को उनके पूर्वजन्मों में ले जाते हैं, जहाँ पर वे अपने वर्तमान सम्बन्धियों को पहचानते हैं पर किसी अन्य सम्बन्धी के रूप में। कभी कोई मित्र भाई के रूप में आता है, पिता पुत्र के रूप में आता है, शत्रु बान्धव बन कर आता है, परिचित पति बनकर आ धमकता है, सब गड्डमड्ड। कई बार पुराने सम्बन्ध उनके वर्तमान व्यवहार को भी समझने में सहायक होते हैं और केवल यह रहस्य जानकर ही उससे सम्बन्धित सारे अवसाद तिरोहित हो जाते हैं। आधुनिक वैज्ञानिक समाज भले ही अपनी परिधि से बाहर होने पर स्वीकार न करे पर पुनर्जन्म पर विश्वास रखने वालों के लिये और उसे दर्शन का स्थायी आधार मानने वाले हम भारतीयों के लिये यह सहज सा निष्कर्ष है।


पतंजलि के योगसूत्र में अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश, ये पाँच क्लेश कहे गये हैं। जब तक ये शेष रहते हैं, जन्म मिलता रहता है। साथ में रहने वालों के प्रति राग और द्वेष तो स्वाभाविक ही हैं। उन भावों की जब तक पूर्ण निष्पत्ति नहीं हो जाती, भोगक्रम चलता रहेगा। जिनके प्रति निष्पत्ति होनी है, उनके साथ जन्मक्रम चलता रहेगा। यद्यपि परम ध्येय इस चक्र से मुक्ति है, पर कर्मफल का सिद्धान्त समझना जीवन का एक अत्यन्त व्यवहारिक अंग है। देहान्तर के बाद भी चित्त में कर्मजनित संस्कार बने रहते हैं और वही कारण बनते हैं अगले जन्म का। स्मृतियों के रूप में जब यह संस्कार किसी तकनीक से कुरेदे जाते हैं तो वह पुनः संज्ञान में आ जाते हैं। पिछले जन्म की बातों को “रिग्रेसन” की पद्धति से याद कर पाना भी तभी संभव हो सकता है जब वे स्मृतियाँ चित्तपटल पर शेष हैं। योगसूत्र ही बताता है कि स्मृतियों के वे संस्कार कई परतों में ढके रहते हैं और सामान्यतः स्वतः बाहर नहीं आते हैं। अपरिग्रह विधि से जब वे सारी परतें धीरे धीरे हटती हैं तो सारे जन्मों के कृतान्त और वृत्तान्त स्पष्ट दीखते हैं।


जब कालखण्ड की परिकल्पना इतनी विस्तृत हो, जब कालचक्र से बाहर निकल आने वाली मुक्ति को श्रेयस्कर माना जाता हो, तब सात जन्म को इतना महत्व क्यों? क्या सम्बन्धों की मधुरता सात जन्म तक ही सीमित रहे? क्या सात जन्म तक इतनी मधुरता से साथ रहने के बाद राग नहीं रहेंगे? यदि किसी और से राग नहीं है तो वह कैसे अगली बार सम्बन्ध में आ बसेगा? यदि कोई राग में इतना ही अवलेहित है तो हमारे यहाँ पर तो चौरासी लाख का विधान है, उसे तो हर एक में भोगना पड़ेगा। प्रेमराग रहे भी और वह भी केवल सात जन्म, यह तथ्य सिद्धान्तसम्मत नहीं जान पड़ता है। यदि मुक्ति ही परम साध्य है तो क्यों न इसी जन्म में मुक्ति मिल जाये? यदि ऐसा है तो सांसारिक प्रेम का निरूपण मुक्ति से कैसे व्याख्यायित हो? यदि शास्त्रों पर विहंगम दृष्टि डालें तो एक सफल वैवाहिक सम्बन्ध को मुक्ति में सहायक माना गया है। पति और पत्नी एक दूसरे के पूरक और प्रेरक बने हुये मुक्ति को ओर संयुक्त रूप से बढ़ते हैं।


इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो “सात जन्म” का आशीर्वादात्मक उच्चार समझ नहीं आता है। यदि व्यवहारिकता के भाव में जायें तो “सात जन्म का साथ” वाक्य का प्रयोग उस पूर्णता के लिये किया जाता है जो सम्बन्धों से अपेक्षित है। यह शुभकामना का वह स्वरूप है जो सम्बन्धों में प्रगाढ़ता की आशा करता है। तब यह समझ नहीं आता है कि पूर्णता का निरुपण “सात” सी संख्या से क्यों? कहीं ऐसा तो नहीं कि इसके पीछे कोई और तर्क, भाव या अर्थ छिपे हों जो कालान्तर में शब्द से विलग हो गये हों? यह शास्त्र सम्मत है, वैज्ञानिक है, परिपाटी है या किसी अन्य भाव का अवशेष?


इस बारे में पहले तो उन लोगों से पूछा जो विवाह और सम्बन्धों में सिद्धहस्तता रखते हैं। क्योंकि इस प्रश्न के उत्तर उनके लिये भी उतने महत्वपूर्ण होने चाहिये जितने मुझे लग रहे हैं। एक अच्छा जन्म निकालना तो ठीक है पर शेष छह में भी वही मिलेंगे, इस बात की पुष्टि कर लेनी चाहिये। किसी भी शास्त्र में इसका कोई प्रमाण नहीं मिला है। यद्यपि सात संख्या से सम्बन्धित कई रोचक तथ्य पता चले पर उनमें से कोई भी तार्किक रूप से सम्बद्ध नहीं था। निकटतम संदर्भ सात फेरे और हर फेरे से जुड़े एक वचन का मिलता है पर उससे सात जन्मों की सहयात्रा न तो सिद्ध होती है और न ही अपेक्षित। अग्नि को साक्षी मानकर सात वचन लेना, सात जन्म तक साथ रहने से सम्बद्ध नहीं किया जा सकता है।


एक संभावित कारण समझ में आता है, उसकी चर्चा अगले ब्लाग में।

21.12.16

मित्र हो मन

कब बनोगे मित्र, कह दो, शत्रुवत हो आज मन,
काम का अनुराग तजकर, क्रोध को कर त्याग मन,
दूर कब तक कर सकोगे, लोभ-अर्जित पाप मन,
और कब दोगे तिलांजलि, मोह-ऊर्जित ताप मन,
अभी भी निष्कंट घूमो, भाग्य, यश विकराल-मद में,
प्रेमजल कब लुटाओगे, तोड़ ईर्ष्या-श्राप मन ।

कब तृषा के पन्थ में विश्राम होगा,
कब हृदय की टीस का क्रम शान्त होगा,
कब रुकेंगी स्वप्न की अविराम लहरें,
और कब यह दूर मिथ्या-मान होगा ।

शत्रुवत उन्मत्त मन की, यातना न सही जाती ।
आँख में छलकी, करुण सी याचना है, बही जाती ।।

10.4.16

मन-राक्षस

दुनिया,
कुछ अधखुली मस्तिष्क-पटल पर,
करती है हर काम अपनी धुन पर ।
कुछ भी हो,
मैं भी हूँ दुनिया,
और प्राप्त हैं सारे अधिकार,
मानवीय, दैवीय, राक्षसीय आदि ।
आखिर हों भी क्यों न,
मैं भी उस धरती का पुत्र,
जिसने जन्म दिया कुछ राक्षसों को,
उनके लिये अवतरित किया,
भगवान को ।
लड़ाई हुयी और विजय मिली,
सत्य को ।

शायद कभी कभी ऐसा ही युद्ध होता है,
मेरे मन की पर्तों में ।
शायद बाहरी राक्षस,
विजय पाना चाहते हों,
मन के देवता पर,
क्योंकि मन तो निर्मल है ।
और यदि होती है हार,
तो विजय पाकर राक्षस,
मन को करता दूषित, बेकार,
और इस तरह,
निर्माण होता है, एक नये राक्षस का ।
वह भी अपनी धुन में सवार,
आक्रमण हेतु खोजता है शिकार ।

21.2.16

मन मेरा तू

कभी सुखों की आस दिखायी,
कभी प्रलोभन से बहलाया
मन मेरा तू शत्रु निरन्तर,
मुझको अब तक छलता आया ।।

प्रभुता का आभास दिलाकर,
सेवक जग का मुझे बनाया
और दुखों के परिलक्षण को,
तूने सुख का द्वार बताया
मन मेरा तू शत्रु निरन्तर,
मुझको अब तक छलता आया ।।१।।

इन्द्रिय को सुख अर्पित करने,
तूने साधन मुझे बनाया
इसी हेतु ही मैं शरीर हूँ,
तूने भ्रम का जाल बिछाया
मन मेरा तू शत्रु निरन्तर
मुझको अब तक छलता आया ।।२।।

और सुखों के छद्म रूप में,
कलुषित जग का पंक पिलाया
इस शरीर के क्षुद्र सुखों हित,
मुझसे मेरा रूप छिपाया
मन मेरा तू शत्रु निरन्तर
मुझको अब तक छलता आया ।।३।।

मुक्त गगन मैं कैसे जाऊँ,
मेरी कारागृह यह काया
हा हा मैं भी मूढ़ बुद्धि हूँ,
कारागृह को लक्ष्य बनाया
मन मेरा तू शत्रु निरन्तर
मुझको अब तक छलता आया ।।४।।

कैसे अपनी भूल सुधारूँ,
बिता दिया जो जीवन पाया
तेरे कारण, अवसर दुर्लभ,
प्राप्त हुआ था, उसे गँवाया
मन मेरा तू शत्रु निरन्तर
मुझको अब तक छलता आया ।।५।।

ज्योति अन्दर भी जगी थी,
और जब यह जान पाया
सत्य कहता, तभी मुझको,
स्वयं पर विश्वास आया
मन मेरा तू शत्रु निरन्तर
मुझको अब तक छलता आया ।।६।।