28.10.21

मित्र - ३६(विघ्नमना भेदिये)

हम अपने बुद्धिबल और साहस से जिस स्तर तक पहुँच रहे थे, वहाँ पर बहुत अधिक दिनों तक बने रहना संभव नहीं हो रहा था। जिस दिन काण्डस्थल पर साक्षात छात्रावास अधीक्षक प्रकट हो जाते, उसी दिन हमारे श्रमशील पुरुषार्थों का पटाक्षेप हो जाता था। आलोक के मत में कोई एक भेदी नहीं, वरन स्वनामधन्य दुष्टों की पूरी श्रृंखला थी। तुलसीदासजी ने उनके महत्व को पहचाना है और रामचरितमानस के प्रथम काण्ड में देवताओं के बाद उनकी ही वन्दना की है। अपने उत्थान में न्यूनतम व्यय करने वाले और दूसरों का अहित करने में अपना सर्वस्व झोंकने को तत्पर उन भेदियों के बिना हमारी छात्रावास की कथा अपूर्ण है।

पतंजलि योगसूत्र में समुचित सामाजिक गतिमयता की बड़ी ही गंभीर और लाभदायक सलाह दी गयी है। सुखी के साथ मित्रता का भाव, दुखी के साथ करुणा का भाव, पुण्यात्मा के साथ मुदिता का भाव और पापात्मा के साथ उपेक्षा का भाव रखना चाहिये। भेदियों की दृष्टि में हम सुखी थे क्योंकि बिना अनुमति के टीवी पर फिल्म देख रहे थे, बाहर के व्यंजन, मिठाईयाँ आदि मँगा कर खा रहे थे, समय समय पर फिल्म देखने भी जा रहे थे। अच्छा तो यह होता कि हमें सुखी देखकर और पतंजलि की सलाह को ध्यान में रख हम सबसे मित्रता की जाती और सुविधाओं का लाभ उठाया जाता। प्रत्यक्ष रूप से साथ आने में यदि बुद्धिहीनता या लघुता सिद्ध हो रही थी तो हमारे प्रयोगों के तत्वसार को अपनाकर बिना श्रेय दिये ही सुविधा उठायी जा सकती थी।


यदि भेदियों की दृष्टि में हम पापात्मा थे तो भी हम उपेक्षा के पात्र थे। यद्यपि इस पर एक विस्तारित चर्चा हो सकती है कि नियम के विरुद्ध जाना क्या पाप की श्रेणी में माना जायेगा? पाप तो तब होता जब किसी का कोई अहित होता, किसी को कोई पीड़ा पहुँचती। “परहित सरिस धरम नहिं भाई, परपीड़ा सम नहिं अधमाई”। हमारे परिप्रेक्ष्य में नियम के विरुद्ध जाने का अर्थ था, बाहर का कुछ खाना या बाहर जाकर कोई फिल्म देखना। इससे भला किसी का क्या अहित? और जब अहित नहीं तो पाप कैसा? यदि विस्तृत दृष्टिकोण से भी देखा जाये तो कोई कह सकता है कि इसको “अनुशासन” और “स्वयं के भविष्य” के अहित की श्रेणी में लाया जा सकता है। ये दोनों ही इतने मूर्त रूप तो नहीं जिनको पीड़ा पहुँचे। यदि अनुशासनहीनता के कारण व्यवस्था को ठेस पहुँचती भी है तो भी वह पापतुल्य नहीं हो सकता है।


नियमों के पालक और उनसे पालित अपनी अपनी समझ का युद्ध लड़ते हैं। एक की समझ में वह ठीक है, दूसरे की समझ में वह आधारहीन और विचारहीन। पहले की समझ में उससे दूसरे का विकास होगा, दूसरे की समझ में वह पहले का अहं है। कालान्तर में बात हित की रह ही नहीं जाती है। पहला कहता है कि हम तो मनवा के रहेंगे, तो दूसरा कहता है कि “ई चोलबे ना”। अन्ततः नियम तार तार हो असमय निस्तार पा जाता है। अतः नियमों की व्यवस्था के लिये यह बहुत ही आवश्यक है कि पालक और पालित अपनी अपनी समझ दूसरों को समझा सकें और एक साझा निष्कर्ष पर पहुँच सकें, एक समझौता सा कर सकें। समझौता जो शब्दों से अधिक भावों पर आश्रित हो, कुछ कुछ अमेरिका के संविधान जैसा क्योंकि बहुधा शब्द तो सबके अर्थों में प्रयुक्त हो जाते हैं, अर्थ में भी और अनर्थ में भी।


यदि मान भी लिया जाये नियमों का उल्लंघन पापकर्म की श्रेणी में आता है, तो उसकी उपेक्षा कर देना चाहिये था। प्रेम और द्वेष दोनों ही सापेक्षिक होते हैं। दोनों में ही आप सामने वाले को महत्व देते हैं। उपेक्षा में उस पापकर्म को महत्व नहीं मिलता है जिससे वह निष्प्राण और निर्बल हो जाता है। उस स्थिति में शमन और दमन दोनों ही सरल हो जाता है। द्वेष में आप पापी के बारे में सोचते हैं, क्रोधित होते हैं, दुखी होते हैं। इससे पापकर्म को और प्रेरणा मिलती है, बल मिलता है। 


यदि भेदी के मन में उपेक्षा के भाव नहीं भी आये तो पहले किसी हितैषी की भाँति प्रत्यक्ष कहना था या किसी वीर की भाँति चुनौती देना था। दोनों ही नहीं किया और साथ में पता भी चलने दिया कि मन में क्या चल रहा है? यदि हम सबको भेदियों के मन में घटित विचारक्रम का पता चल जाता तो हम सजग हो उनसे दूरी बना लेते। यह तो लगभग निश्चित ही था कि कुटिलता और हानि पहुँचाने के भाव से भेदकर्म किया गया था।


इस क्रिया को और ऐसे व्यक्तियों को गु्प्तचर न कह कर भेदी की संज्ञा पर आपत्ति हो सकती है क्योंकि भेदी एक नकारात्मक शब्द है जबकि गुप्तचर एक निश्चित व्यवस्था के प्रति इंगित करता है। गुप्तचर बहुधा आपके बीच का नहीं होता, वह आपका मित्र नहीं होता है, उसकी निष्ठा आपके प्रति नहीं होकर अपने स्वामी के प्रति होती है। अपने गुप्तचर कर्म को करने के क्रम में वह आपसे मित्रता का अभिनय करता है, आपका विश्वास जीतता है, आपके प्रति निष्ठा व्यक्त करता है। वहीं दूसरी ओर भेदी पहले आपका मित्र होता है, आपके साथ रहता हो पर कालान्तर में किसी प्रलोभन में आकर या किसी स्वार्थ के वशीभूत हो अपने नये स्वामी के लिये कार्य करने लगता है। अपने पाले बदलने की कुटिलता को भेदी कहना ही उपयुक्त कहा जायेगा।


कारण क्या रहा होगा कि अपने मित्रों से छल कर कुछ छात्रावासी भेदी बन गये। जानेंगे अगले ब्लाग में।

2 comments:

  1. भेदी महान हैं. उनके बिना इतिहास नहीं बनता. उनके बिना शायद कोई सभ्यता उत्कर्ष पर नहीं पहुंचती. भेदी इतिहास में पतित (या विदूषक) बनने का जोखिम ले कर भी उस की धारा मोड़ते हैं. भेदीभ्यो नमः! 😁

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  2. पतंजलि की सलाह को ध्यान में रख हम सबसे मित्रता की जाती और सुविधाओं का लाभ उठाया जाता। प्रत्यक्ष रूप से साथ आने में यदि बुद्धिहीनता या लघुता सिद्ध हो रही थी तो हमारे प्रयोगों के तत्वसार को अपनाकर बिना श्रेय दिये ही सुविधा उठायी जा सकती थी।...हर वक्त ऐसे भेदिए मिलते रहेंगे । बहुत सुंदर सार्थक सटीक अभिव्यक्ति 😀👍

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