5.10.21

राम का निर्णय (संबल)


यद्यपि सीता वन में निवास को सहज बता रही थी, राम का मन उसे स्वीकार नहीं कर पा रहा था। राम को लग रहा था कि देवी सीता को या तो उन कठिनाइयों का आभास नहीं है या उनका वनसम्बन्धी ज्ञान मात्र मौखिक ही है। फिर भी सीता हर प्रकार से राम को आश्वस्त करने का प्रयास कर रही थी।


मैं जैसे अपने पिता के घर निवास करती थी, वैसे ही वन में निवास कर लूँगी। पतिव्रतधर्म का पालन और आपकी सेवा का अवसर वन में रहने के पर्याप्त कारण हैं, मेरे लिये। हे वीर, आप सबकी रक्षा करने वाले हैं, तब मेरी रक्षा करना आपके लिये कौन सी बड़ी बात है? मुझे वन जाने से कोई रोक नहीं सकता है। मैं आपको कोई कष्ट नहीं दूँगी और आपकी जीवनचर्या में रम जाऊँगी। मैं स्वयं ही सुन्दर वनों, सरोवरों, पर्वतों और पक्षियों को आपके साथ देखना चाहती हूँ। इस प्रकार सहस्रों वर्षों तक आपके साथ रहना मुझे स्वर्गादि से अधिक प्रिय है, पर आपसे वियोग में मेरी मृत्यु निश्चित है।


सीता के वचनों में दृढ़ता थी, नयनों में अश्रु और स्वर में साथ ले चलने की याचना। राम सीता की दृढ़ता को कम नहीं आँकना चाहते थे पर मात्र सौन्दर्य पक्ष के विवरण से वनों की भीषणता कम नहीं हो जाती है। राम को आवश्यक लगा कि वनों के कष्टों का सही चित्रण सीता के समक्ष कहा जाये।


सीते, आप अत्यन्त उत्तम कुल में उत्पन्न हुयी हो। मेरे मन को संतोष होगा यदि आप यहीं रह कर धर्म का पालन करोगी। यह आपके हित में है और आपका कर्तव्य भी है। वन दुर्गम हैं और हर प्रकार के कष्टों से भरे भी हैं, वे सदा सुख नहीं देते। सिंहों की गर्जना, गजों का मदत्त हो विचरना, हिंसक पशुओं द्वारा अकारण आक्रमण कर देना, नदियों में ग्राहों का निवास और पार करने में कठिनाई, काँटो से भरे बीहड़ मार्ग, पत्तों के बिछौनों पर शयन, जल की कमी, आँधी पानी में आश्रयहीनता, फलाहार पर ही संतोष, विषाक्त कीट पतंग और न जाने कितनी अघोषित अनिश्चिततायें। हे सीते, वन में दुख ही दुख है।


राम के वचनों से सीता के आँखों में अश्रु डबडबा आये और मन दुखी हो चला। सीता को यह तथ्य भी ज्ञात थे पर आज इन तथ्यों को इतना महत्व देना अनावश्यक था। दुखी पर निश्चयात्मक स्वर में सीता धीरे धीरे बोलती हैं।


हे वीर राम, आपने जो वन के बारे में दोष बताये हैं वे सब आपका स्नेह पाकर मेरे लिये गुणरूप हो जायेंगे। आपसे तो सभी डरते हैं तो ये सब पशु आपको देखकर ही भाग जायेंगे। वन्यजीव तो क्या, आपके सानिध्य में तो स्वयं इन्द्र भी मेरा तिरस्कार नहीं कर सकते। किन्तु आपके वियोग में मेरे प्राण जाना निश्चित हैं क्योंकि आपने ही बताया है कि पतिव्रता स्त्री पति के वियोग में जीवित नहीं रह सकती। वन जाने के लिये मैं स्वयं को बाल्यकाल से ही तैयार कर रही हूँ क्योंकि कई मूर्धन्य ऋषियों से मैंने यह सत्य सुना है। पिता के साथ हुयी चर्चा में उन्होंने उद्घाटित किया था कि मेरे भाग्य में वन जाने का योग है। इसी कारण आज से पहले मैंने आपसे कई बार वनविहार के लिये प्रार्थना भी की थी जो आपने स्वीकार भी की थी, तो आज यह बाध्यता क्यों?


प्रार्थना, तर्क, अश्रु, धर्म, ओज आदि आग्रहों से राम को अप्रभावित देखकर सीता और भी दुखी हो चलीं। राम उनको बार बार समझा रहे थे पर सीता का मन बिछोह के भाव से व्याकुल हो चला था। उससे भी अधिक उनको राम की चिन्ता थी। वन के एकान्त में और क्षात्रकर्म से वंचित राम नैराश्य के किस समुन्दर समा जायेंगे। राम मूलतः सात्विक प्रकृति के थे। एकान्त, ऋषियों का संग, आगत की अनिश्चितता, भोजन का व्यतिक्रम, आवासीय व्यवस्थाओं का श्रम, राम का मन हर प्रकार उलझ जायेगा। इस स्थिति में चौदह वर्ष रहने के बाद राम क्या से क्या हो जायेंगे? राम को निश्चय ही व्यवस्थाओं का आधारतन्त्र आवश्यक होगा। पत्नी से अधिक व्यवस्थित आधार भला पति को कौन दे सकता है। प्रिय राम की संभावित स्थिति की कल्पना कर सीता का विरही मन और भी व्याकुल हो चला। मेरे राम को वन में कौन सम्हालेगा? जो कठिनाई मुझे लक्ष्य कर बतलायी जा रही हैं, वे सब राम पर भी तो प्रयुक्त होती हैं। माना मेरे राम उनका निर्वहन कर सकेंगे पर अन्ततः उसी में उलझ कर रह जायेंगे।


राम मेरे जिस योगक्षेम के लिये वन नहीं ले जाना चाह रहे हैं, उनके योगक्षेम का ध्यान वन में कौन रखेगा? न वानप्रस्थ सा जीवन बिताने में सक्षम हैं प्रिय राम और न ही ऋषियों सा। तब राम को वन में किसका साथ मिलेगा? एक युवा हाथ में धनुषबाण लिये वन वन भटकेगा, यह दृश्य तो विचित्र सा ही होगा? सीता की व्याकुलता द्विगुणित हो जाती है। अपनी तनिक भी चिन्ता न करते हुये और सबकी सुविधा के हित तर्क प्रस्तुत करते हुये राम जो सहनशीलता का उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं, वह अब सीता को अनुचित लगने लगा। राम का संबल सीता है, राम का संबल लक्ष्मण हैं। क्या लक्ष्मण भी साथ नहीं जा रहे हैं, सीता को सहसा याद आया। जिस निराशा और शोक में लक्ष्मण खड़े हैं, लगता है कि इस सम्बन्ध में बात अभी तक हुयी नहीं है।


सीता पर्याप्त प्रार्थना कर चुकी थी, राम मान नहीं रहे थे। राम व्यहारिकता के परिप्रेक्ष्य में अपना हित नहीं सोच रहे थे केवल धर्म पर अपना कर्म निश्चित कर रहे थे। वनगमन की अकारण शीघ्रता में अपनी निर्णय प्रक्रिया को सरलतम करने के प्रयास में राम के निर्णय दोषपूर्ण थे। सीता यह नहीं होने देगी। वह राम की अर्धांगिनी है, उनका भी राम पर समानता का अधिकार है। सीता ने निश्चय किया कि उन्हें भी अपना मन कठोर करना होगा और जिस सत्य को राम सुनना नहीं चाहते हैं, उसे भी व्यक्त करना होगा। सीता पर इस समय तर्क नहीं करना चाहती थी वरन पत्नी के रूप में अपने अधिकार को सरोष व्यक्त करना चाहती थी। सीता व्यंगपूर्ण पर कठोर स्वर में बोलीं। सीता राम पर वनगमन की व्याकुलता में अपना धर्म न निभाने का आक्षेप लगाने जा रही थी।


हे नाथ, पता नहीं विवाह करते समय मेरे पिता को यह ज्ञात था कि नहीं कि जिस पुरुषविग्रह से वह मेरा विवाह कर रहे हैं, वह हृदय से स्त्री है। सीता का यह वाक्य पूरे कक्ष को स्तब्ध कर गया। जो साहस, जो स्पष्टवादिता न कैकेयी में थी और न ही कौशल्या में, वह सीता के मुख से सुनकर लक्ष्मण अचम्भित थे। उनका क्रोध सबको निगलने में सक्षम था पर जहाँ बात राम पर आती थी वहाँ वह निःशब्द हो जाते थे। यह वाक्य मात्र पत्नी के अधिकारक्षेत्र से ही निकल सकता था। राम अब तक सीता को हितपूर्वक अधिकारमना हो उपदेश दे रहे थे। इस वाक्य ने वह बन्धन सहसा तोड़ दिये। राम को केवल इस वाक्य से ही सीता का निश्चय समझ आ गया था। राम भी मन में एक निश्चय कर चुके थे पर वह सीता को सुनना चाहते थे। राम सीता को अपने पति पर पूर्ण अधिकार व्यक्त करने का समय देना चाहते थे। वह चाहते थे कि यदि सीता चलें तो वह उनका अपना निर्णय हो, न कि पति द्वारा आदेशित या आरोपित निर्णय। सीता के आक्षेप ने राम की किंकर्तव्यविमूढ़ता की मनःस्थिति सहसा भंग कर दी थी।


आपके इस तरह छोड़कर जाने में सब यही कहेंगे कि सूर्यवंशी राम में पराक्रम का अभाव है। यह सुनना मेरे लिये अपार दुःख का कारण होगा। ऐसा क्या विषाद या भय है आपको कि केवल आप पर ही आश्रय रखने वाली सीता का परित्याग करना चाहते हैं। जिस प्रकार सावित्री सत्यवान की अनुगामिनी थी मैं भी आपके पीछे वैसे ही चलूँगी। मैं आप पर निर्भर हूँ और आप द्वारा अर्जित आहार पर ही जीवन निर्वाह करूँगी। जिस भरत के कारण आपको वन जाना पड़ रहा है, उसकी राजाज्ञों के पालन का कर्तव्य आप निभाइये, मुझे विवश मत कीजिये। आप तपस्या कीजिये, वन में रहिये या स्वर्ग में, सभी जगह मैं आपके साथ रहना चाहती हूँ। आपके साथ वन की कठिन जीवनशैली मुझे स्वीकार है पर आपके बिना मुझे स्वर्ग भी स्वीकार नहीं हैं। आपका विरह मैं दो घड़ी के लिये सहन नहीं कर सकती, चौदह वर्ष को सहन करने का प्रश्न ही नहीं है। यदि आप फिर भी नहीं माने तो मैं विष पीकर प्राण त्याग दूँगी।


सीता का शोक मुखर हो बह रहा था, अश्रु अब तक बँधे थे। जब सीता के शब्द रुके, अश्रुओं ने संवाद प्रारम्भ कर दिया। अपनी पूरी शक्ति से पति से लिपटकर, करुणाजनित विलाप करती हुयी सीता शिथिल हो गयी थी। अपने आश्रय पर आधार ले स्वयं को व्यक्त कर चुकी सीता ने निर्णय पति पर छोड़ दिया था। राम के कंधे पर गिर रहे सीता अश्रुओं ने पूरे वातावरण को आर्द्र कर दिया था। अश्रु संवाद की अधिकारपूर्ण पराकाष्ठा हैं। जिस पर गिरते हैं, उसको ही द्रवित कर जाते हैं। राम का हृदय जिस अकस्मात शोक ने वज्रवत कर दिया था, सीता के अश्रुओं ने उसे पुनर्जीवित हो संवेदनापूर्ण कर दिया था।


राम सीता को दोनों हाथों से सम्हालते हैं और हृदय से लगा लेते हैं। राम अपना निर्णय परिवर्धित कर चुके थे।

1 comment: