30.10.21

मित्र - ३७(भेदी मनःस्थिति)

आपके साथ रहने वालों का भेदी बन जाना, यह सहजीविता का सामान्य लक्षण नहीं है। यह समाज के वे स्खलनक हैं जिन्हें आभास नहीं होता है कि जब समाज का ढाँचा ढहता है तो साथ में उनका भी पतन होता है। दृढ़ समाज में औरों की उपलब्धियों तो एक बार स्वीकार्य भी हो जाये पर भेदिये तो अपने समाज को संकट में डाल कर स्वयं को गौरवान्वित अनुभव करते हैं। जब समाज ही ढह जायेगा तो आपकी जय बोलने वाला कौन रहेगा, जब समाज ही ढह जायेगा तो किसके कन्धे पर खड़े होकर आप स्वयं को यशदीप घोषित करेंगे।

संस्कारवश स्पष्टवादी रहा हूँ अतः मन में जो बात होती है व्यक्ति के समक्ष कह देता हूँ। सामनेवाले में सुधरने की संभावना रहती है तो उस दृष्टि से, नहीं तो औरों का अहित न हो इसलिये चेतावनी की दृष्टि से व्यक्त कर देता हूँ। मेरे मन में कभी किसी का भेद किसी को बताने का विचार ही नहीं आया। यदि किसी व्यक्ति की अनुपस्थिति में उसके बारे में बात होती भी है तो भी परोक्ष आलोचना से बचता हूँ और प्रत्यक्ष कहना श्रेयस्कर समझता हूँ। यदि लगता है कि मेरे संज्ञान में आयी कोई बात किसी का कोई अहित कर सकती है और वह उसको ज्ञात होनी चाहिये तो मैं सीधा या संकेतों में कह देता हूँ। किसी कनिष्ठ के बारे में प्रशासन की धारणा उस तक पहुँचा देना मुझे इसलिये आवश्यक लगता है कि कनिष्ठ को एक अवसर मिल जायेगा सुधरने का, अपने आप को व्यक्त करने का, तथ्यों को यथारूप प्रस्तुत करने का। सामान्य परिस्थितियों में सामने वाले को एक अवसर देना सहजीविता का आवश्यक अंग है।


इस परिप्रेक्ष्य में मुझे कभी समझ ही नहीं आया कि लोग भेदी क्यों बन जाते हैं? इस बारे में अपने मित्रों के विचार जाने किन्तु फिर भी मन को संतुष्ट न कर सका कि चाहे जो कारण रहे पर भेद खुल जाने के बाद जो तनाव उत्पन्न होता होगा उसका निराकरण कैसे किया जाता होगा? भेद खुल जाने के बाद जो वैमनस्यता होगी उसका पूर्वाभास ही अपने आप में सशक्त निषेधक है कि भेदी न बना जाये।


लम्बे समय तक भेदी बने रहना भी संभव नहीं है। कृत्रिम आचरण, अति सतर्कता और अटपटा व्यवहार आज नहीं तो कल भेदी का भेद खोल ही देते हैं। तब जो निष्कर्ष आते हैं, यदि वही स्वीकार्य थे तो पहले ही उनको व्यक्त करने में क्या हानि थी? अपना वास्तविक परिचय छिपाकर कुछ कालखण्ड जी लेने में भला कौन सा बड़ा लाभ मिलता होगा? भेदी को किसी भी समाज में सम्मान के साथ नहीं देखा जाता है। अपमान की दृष्टियों से तो भला यही होगा कि स्पष्टवादी होकर अपना मन्तव्य व्यक्त किया जाये। आपका मत सामने वाले को स्वीकार्य हो या आपकी उपेक्षा हो या आपका उपहास उड़े पर ये सब अपमान सहने के पहले तो प्रयोग में लाये ही जा सकते हैं।


भेदी जिस स्वामी को जाकर सारी बात बताता है, उसके मन में भेदी के बारे में कैसे विचार रहते होंगे? महान तो कदापि नहीं क्योंकि जो अपनों से विश्वासघात कर सकता है वह अपने नवस्वीकार्य स्वामी से भी कर सकता है। इतिहास इस बात का साक्षी है कि भेदियों को कभी भी कोई महत्वपूर्ण और विश्वासयोग्य पुरस्कार स्वामी ने नहीं दिया होगा। यथासंभव पीछा छुड़ाने की घटनायें अवश्य होती हैं भेदियों के साथ। क्रूर स्वामी तो कार्य सम्पन्न हो जाने के बाद भेदिये को मरवा तक डालते थे।


भेदी स्वयं में शक्तिशाली हो न हों पर जिस मात्रा में वे शक्तिसंतुलन अस्थिर करते हैं, उससे उनकी ध्वंसकता नापी जा सकती है। चर्चित कहावत है, “घर का भेदी लंका ढहाये”। इस प्रकार में रावण को तो फिर भी ज्ञात था कि विभीषण अपमानित होकर गया है, सब के सब ज्ञात रहस्य बता देगा। कम से कम रावण को विभीषण के मन्तव्य के बारे में कोई संदेह नहीं था। विभीषण रावण को समझाकर गया था, अपना स्पष्ट मत प्रकट कर के गया था। अपने युद्ध की तैयारी रावण यह तथ्य जानते हुये कर रहा था और इस संभावित संकट को जानते हुये रणनीति बना रहा था। हमारी स्थिति में तो परिमाम और भी भयानक थे क्योंकि हमको तो यह ज्ञात ही नहीं था कि हमारी कौन सी सूचना दूसरे पक्ष तक जा रही है या कौन उस सूचना को पहुँचा रहा है?


हमें तो भेदी के बारे में तब ज्ञात होता था जब हम पकड़े जा चुके होते थे, जब हम रण हार चुके होते थे। उस समय भी यह सुनिश्चित नहीं हो पाता था कि भेदी कौन है, यद्यपि ५-६ लोगों पर संशय अवश्य होता था। ५-६ लोगों पर संशय कोई ऐसी अनुकूल स्थिति नहीं होती जो कि भविष्य में आपका संकट कम कर सके। जब तक पूरी तरह से ज्ञात न हो कि भेदी कौन है आप निष्कंटक अपनी योजनायें क्रियान्वित नहीं कर सकते। योजनाओं में सूचनाओं की गोपनीयता का बड़ा ही महत्वपूर्ण स्थान है। बिना गोपनीयता के किसी काण्ड को निष्पादित करने का प्रयास आँख पर पट्टी बाँध कर सड़क पर चलने जैसा है।


योजना तो तब और रोचक हो जाती है जब आपको भेदी के बारे में ज्ञात हो और भेदी को यह तथ्य ज्ञात न हो। तब आप भ्रामक सूचना पहुँचाकर न केवल आप अपना कार्य पूरा ककरते हैं वरन भेदी को उसके स्वामी के सामने विश्वासहीन, स्तरहीन और अनुपयोगी सिद्ध कर देते हैं। उस तरह के भी कई प्रकरण आये पर मुख्यतः हम भेदियों के हाथों छले जाते रहे।


भेदी को क्या मिलता था हमारी सूचनायें अपने स्वामी तक पहुँचा कर। जानेंगे अगले ब्लाग में।

2 comments:

  1. लोग भेदी क्यों बन जाते हैं? इस बारे में अपने मित्रों के विचार जाने किन्तु फिर भी मन को संतुष्ट न कर सका कि चाहे जो कारण रहे पर भेद खुल जाने के बाद जो तनाव उत्पन्न होता होगा उसका निराकरण कैसे किया जाता होगा?...सार्थक प्रश्न ,ये विचार तो मेरे भी मन में आता है, परंतु हंसी में टल जाता है, पर है गंभीर विषय ।

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  2. Anonymous9/9/22 22:04

    बहुत नेक और उत्तम ख्याल

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