21.10.21

मित्र - ३३(शनिवार की फिल्म)

छात्रावास परिसर में कुछ ४ टीवी थे। यद्यपि कुछ की पहुँच छात्रावास के बाहर उन घरों में थी जहाँ पर टीवी होते थे, पर ऐसी संख्या बहुत कम थी और उन प्रयासों में दुगुना दुस्साहस था। एक तो बाहर निकल कर जाना, तीन घंटे के लिये और दूरदर्शन पर आने वाली फिल्म देखकर आना। इसमें पकड़े जाने की संभावना बहुत अधिक थी। साथ ही इस बात का भी भय था कि उनका छात्रावास अधीक्षक आचार्यजी से भी परिचय था। इस स्थिति में हमारे प्रयास और भेद कब तक गुप्त रखे जा सकेंगे, इस बात पर भी संशय था। यदि तीन घंटे को बाहर जाने का साहस करने का अवसर ही रहा है, तो टाकीज में जाकर नयी फिल्म देखने का आनन्द क्यों न लिया जाये। संभवतः इन्हीं कारणों से यह प्रवृत्ति छात्रावासियों के मानस में अत्यन्त विरल मात्रा में थी।

एक टीवी छात्रावास में, एक प्रमुख छात्रावास अधीक्षक के घर में, एक छात्रावास अधीक्षक के घर में और एक छात्रावास सहायक के घर में था। यद्यपि बाद में कई अन्य सहायकों के घर में भी टीवी आ गये थे। प्रमुख छात्रावास अधीक्षक गृहस्थ थे अतः उनका टीवी प्रयोग की परिधि से बाहर था। रुचियाँ मिलने के कारण छात्रावास अधीक्षक का टीवी मुख्यतः क्रिकेट के लिये प्रयोग में आता था। छात्रावास का टीवी बिना अनुमति के अपना मुखमंडल नहीं खोलता था। शेष एक टीवी जो सहायक के यहाँ था उसी पर सभी की आशायें टिकी रहती थी।


पता नहीं कैसे प्रारम्भ हुआ पर कुछ अति उत्साही छात्रावासी शनिवार या रविवार की अनुमति न मिलने वाली एक फिल्म को वहाँ देखने जाने लगे। सहायकों का घर छात्रावास अधीक्षकों और प्रधानाचार्य के घरों से विपरीत दिशा में था। वहाँ पहुँचने के लिये छात्रावास के बीच से होकर जाना होता था। वह स्थान स्नानागार के पास भी था। वहाँ पहुँचने के लिये अधिक प्रयत्न की आवश्यकता नहीं थी और साथ ही पकड़े जाने की संभावना भी कम थी। कोई छात्रावास अधीक्षक यदि उस क्षेत्र के आसपास होता था तो वह सूचना त्वरित गति से वहाँ पहुँच जाती थी और सभी छात्रावासी विसर्जित होकर निर्विकार रूप कोई अन्य कार्य करते हुये प्रतीत होते थे।


सहायक नवगृहस्थ थे और टीवी भी उनके यहाँ नया ही आया था, बच्चों को आया देखकर वात्सल्यवश मना नहीं कर पाये होंगे। वैसे भी वह समय ऐसा था कि टीवी देखने आये आगन्तुक को मना नहीं किया जाता था। घर के टीवी को औरों के समक्ष प्रस्तुत करना ऐश्वर्य और औदार्य, दोनों के ही लक्षणों में गिना जाता था। रामायण और महाभारत के आने के बाद आगन्तुकों को बैठाकर टीवी दिखाना एक धार्मिक और पुण्य का कार्य भी समझा जाता था। हरि की अनंत कथा को प्रसारित होने में सहायक होने के कारण भक्त जैसा अनुभव होता था। कई गृहस्थ उस समय बालिका भोज या प्रसाद वितरण कर पुण्य को कई गुना बढ़ा लेते थे।


समस्या यह थी कि वह सहायक प्रधानाचार्यजी के अत्यन्त निकट थे, उनके व्यक्तिगत सहायक के रूप में। इस बात का भय रहना स्वाभाविक ही था कि कहीं उनके माध्यम से बात प्रधानाचार्यजी तक न पहुँच जाये। केवल वात्सल्य भाव ही था या नियम तोड़ने में सहभागिता का दोष या टीवी बन्द हो जाने का भय या कोई अन्य कारण, उन सहायक ने कभी भी यह बात प्रधानाचार्यजी को नहीं बतायी। यह बात अलग थी कि छात्रावास अधीक्षक को यह बात पता लगी पर उसका दण्ड छात्रावासियों की उद्दण्डता को ही मिला, सहायकों को विवशता का लाभ देकर प्रताड़ित नहीं किया गया।


आगे सहायकों के प्रकरण में यह उल्लेख रहेगा कि किस प्रकार सहायकगण हम लोगों की वेदना के प्रति मन ही मन अधिक संवेदी थे। यद्यपि सत्ता के प्रति प्रत्यक्ष रूप से निष्ठावान रहना उनके कर्तव्यों का अभिन्न अंग था पर परोक्ष रूप से और व्यवहारिकता के धरातल पर हमसे उनकी संवेदनायें अनुनादित थीं। हम छात्रावासियों ने सदैव ही सहायकों को अपने अनुकूल ही पाया था और कई स्वप्नों को जीवटता से जीने में अत्यन्त उपयोगी भी। आज भी छात्रावासियों की प्रफुल्लित यादों में सहायकों का आना जाना निर्बाध होता है, एक आवश्यक अंग की तरह।


छात्रावास के टीवी पर चित्रहार, रविवार पूर्वाह्न के कार्यक्रम और एक फिल्म देखते थे। क्रिकेट मैच बहुधा छात्रावास अधीक्षक के घर में देखने को मिल जाता था। छूट गयी दो फिल्मों में एक फिल्म छात्रावास सहायक के घर में देखना हो जाता था। इस सबके बाद भी कुछ छात्रावासियों का मन नहीं भरता था, उन्हें लगता था कि कोई भी मनोरंजन बिना मन को रंजित किये निकल न जाये, व्यर्थ न हो जाये। उनके महास्वप्नों का उत्कर्ष बिन्दु उन प्रयत्नों में परिलक्षित था जो शुक्रवार रात्रि की फिल्म देखने के लिये किये गये।


सब जानेंगे अगले ब्लाग में।

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