7.10.21

राम का निर्णय (प्रस्तुत)

 

राम शान्त थे और संतुष्ट भी। सीता के आक्षेपपूर्ण शब्दों ने राम को आहत नहीं किया था वरन मन का यह विश्वास दृढ़ किया था कि वनगमन का निर्णय सीता का अपना होना चाहिये। निर्णय परिस्थितियों की दैन्यता पर आधारित नहीं वरन व्यक्तित्व की दृढ़ता पर केन्द्रित होना चाहिये। सीता की सामर्थ्य के बारे में राम को कभी कोई संशय नहीं रहा है। धरती से उत्पन्न कन्या को जब धरा से मातृत्व मिलता हो तो उसे आधारों की क्या कमी? शिवधनुष को कौतुकवश उठा लेने वाली शक्ति को भला कौन सा भय? आज के भीषण घटनाक्रम में, दैव की मदत्त उठापटक में, शोकाकुल वेदना में, कातरता के विलाप में और क्रोध भरे प्रश्नोत्तरों में यदि कोई राम को निष्प्रभ होने से रोक रहा था तो वह था प्रियतमा सीता का दृढ़ चरित्र। कृतज्ञ राम सीता के हृदयस्पंदों से बल पा रहे थे और चाह रहे थे कि वह क्षण, वह अनुभूति, वह विश्वास, वह आधार वहीं स्थिर रहे, कहीं विलग न हो। यह आलिङ्गन परस्पर आश्रयता का प्रतीक था। प्रकृति का पुरुष पर, पुरुष का प्रकृति पर।


गहरी श्वास भर कर, प्रिय सीता के कन्धों को दोनों हाथों से सम्हाले और उनके अश्रु पोंछते हुये राम बड़े ही सहज, स्नेहपूर्ण और सान्त्वना के स्वर में सीता से कहते हैं।


देवि, तुम्हें दुख देकर मैं स्वर्ग को भी नहीं लेना चाहूँगा क्योंकि तुम्हारे बिना मुझे स्वर्ग भी अच्छा नहीं लगेगा। मुझे किसी का भय नहीं है। मैं वन में तुम्हारी रक्षा करने में पूर्णतया सर्वसमर्थ हूँ। पर बिना तुम्हारा अभिप्राय जाने मैं तुम्हें वन जाने के लिये प्रेरित नहीं करना चाहता था। जब तुम मेरे साथ वन जाने को प्रस्तुत हो, मैं तुम्हें साथ चलने की अनुमति देता हूँ। तुम्हारा यह निर्णय धर्मानुकूल और कुल के गौरव को बढ़ाने वाला है। सुन्दरी, वनगमन की तैयारी करो। वनवास के अनुसार अपना धन रत्नादि ब्राह्मणों, भिक्षुओं और सेवकों को दान करने का प्रबन्ध करो। पति की अनुकूलता पर सीता प्रमुदित हो गयीं और उनकी आज्ञानुसार दानकर्म में प्रवृत्त हो गयीं।


लक्ष्मण सारा संवाद सुन रहे थे। हर शब्द, हर क्षण उनका मुख भिगो रहा था। सहसा भाई का विरह का भाव लक्ष्मण के लिये असहनीय हो गया। उन्होंने शीघ्रता से और जकड़कर राम के पैर पकड़ लिये और सीता सहित राम से कहा। आर्य, आप दोनों ने वन जाने का निश्चय कर लिया है तो मैं भी धनुष बाण लेकर आपके साथ वन चलूँगा। राम ने अयोध्या की व्यवस्थाओं और माता पिता के हित का विचार कर लक्ष्मण को मना कर दिया। अधीरता के स्वर में लक्ष्मण ने पुनः राम से कहा कि जब आप मुझे सदा साथ रहने की आज्ञा दे चुके हैं तो वन जाने से क्यों रोक रहे हैं। भरत अपने पिता और माताओं की समुचित सेवा करेंगे और यदि वह इससे विमुख होते हैं तो मैं यहाँ आकर उन्हें उनका कर्तव्य करने पर विवश कर दूँगा। मातायें भी समर्थ हैं उनको सहस्र गाँव मिले हुये हैं। उस पर से राजमहल की व्यवस्थायें भी सक्षम हैं। पर भैया आप माँ सीता के साथ वन में कैसे रहेंगे? आप जब विश्राम करेंगे तो आप दोनों की रक्षा कौन करेगा? पर्णकुटी और आवासीय व्यवस्थायें, भोजन का प्रबन्ध, यज्ञसामग्री का संग्रहण आदि कौन करेगा? 


राम एक क्षण विचार करते हैं और लक्ष्मण के प्रबल आग्रह को स्वीकार कर लेते हैं। ठीक है अनुज, अपनी माता और सुहृदों से इस बारे में अनुमति लेकर आ जाओ। साथ में सारे दिव्य आयुध, बाण, कवच, खड्ग और तरकस आदि गुरु वशिष्ठ के आवास से ले आओ। उसके बाद मेरे पास जो धन है, उसे वशिष्ठपुत्र सखा सुयज्ञ और अन्य ब्राह्मणों में दान करने में मेरा सहयोग करो। शीघ्रता करो, हमें आज ही वन के लिये प्रस्थान करना है।


सीता और लक्ष्मण राम द्वारा निर्देशित कार्यों को यथाशक्ति गति देने में लग जाते हैं। सखा सुयज्ञ और उनकी भार्या को राम और सीता अपने वस्त्राभूषण, पलंग, हाथी, गौ, रथ और धनादि देकर प्रसन्नचित्त विदा करते हैं। अगस्त्य, विश्वामित्र, मुनि त्रिजट और अन्य वैदिक परम्परा के ब्राह्मणों को उनके उपयोग की सामग्री, गौवें व अन्य धन देने का निर्देश लक्ष्मण को देते हैं। चित्ररथ सूत, अन्य परिचितों और व्यक्तिगत सेवकों को अपने उपयोग की सामग्री और चौदह वर्ष जीविका चलाने के लिये धन देकर यह सुनिश्चित करते हैं कि उनकी अनुपस्थिति में सेवकों को कोई असुविधा न हो। जिसकी भी आवश्यकता को जो स्मरण आया और सम्मुख जो भी दान करने योग्य वस्तु दिखायी दी या याद आयी, उसका समुचित निर्देश देकर राम ने वनगमन से पूर्व अपने भौतिक संग्रहण को न्यूनतम कर लिया, साथ ही सीता और लक्ष्मण को इसकी प्रेरणा भी दी। आयुधों का विधिपूर्वक पूजन व ससम्मान धारण कर तथा ऐश्वर्य के समस्त साधनों का दान कर राम भार्या सीता और अनुज लक्ष्मण के साथ पिता को सूचित करने माँ कैकेयी के महल की ओर पैदल चले।


तब तक राम के वनगमन की सूचना सारे नगर में प्रसारित हो चुकी थी। राम को नगर की वीथियों में चलता देख नगरवासियों का हृदय विदीर्ण हो उठा। जिसने भी सुना, सब दौड़े आये। जो राज्याभिषेक देखने के लिये पहले से उपस्थित थे, वे आश्चर्यवत विलाप कर रहे थे। नगरपथ पर अपार जनसमूह और अट्टालिकाओं पर कुलवधुओं को अश्रु में आर्द्र देखकर राम का मन विकल हो उठा। जिसको सदा ही सौन्दर्य और ऐश्वर्य के रूप में रथारूढ़ नगरवासियों ने देखा था उस सीता को पैदल ही अनुगामी बना देख नगरवासियों के दुख का बन्ध टूट गया। यह करुण दृश्य देखकर सबका मन व्याकुल और अस्तित्व शोकाकुल हो गया। जनसमूह में उठे स्वर सप्रयास न सुनते हुये और भूमि पर दृष्टि टिकाये अपना पथ देखते हुये राम अधिक गति से नहीं बढ़ पा रहे थे। आदरवश नगरवासी चलने का पथ दे रहे थे पर हाथ जोड़कर और सम्मुख लेटकर रुक जाने की प्रार्थना भी कर रहे थे। दिनभर का पूर्वप्रारुप बनाये राम को इस दृश्य की किञ्चित भी कल्पना नहीं थी।


जिस पिता के सत्य का मान रखने के लिये राम वन जा रहे हैं, वह पिता निश्चय ही पिशाच से ग्रसित हो अनुचित कार्य कर रहा है। पिता तो अपने गुणहीन पुत्र को भी घर से निकालने का साहस नहीं कर सकता। जिस पिता का राम जैसा गुणवान पुत्र वन जाये उस राजा द्वारा पालित अयोध्या रहने योग्य नहीं है। चलो हम सब भी राम के साथ ही वन जायेंगे। जहाँ राम जायेंगे वही नगर हो जायेगा और जिस अयोध्या को राम छोड़ेंगे, वह दुर्भाग्य से ग्रसित हो वन हो जायेगी। माँ कैकेयी की आलोचना, पिता दशरथ की कामप्रियता, इन आक्षेपों से अवलेहित नगरवासियों का संवाद राम को अशान्त कर रहा था। फिर भी बिना कोई विकार व्यक्त किये राम माँ कैकेयी के महल में प्रवेश करते हैं।


जनकोलाहल से राम के आने की आहट पाकर सुमन्त्र राम की प्रतीक्षा में अन्तःपुर के बाहर ही खड़े थे। सुमन्त्र के जीवन में भी यह क्षण अपार शोक लेकर आया। आज प्रातः से पूरे राजपरिवार को बिखरते देख रहे थे सुमन्त्र। उस पर राम को पैदल आता देखना, धैर्य की सारी सीमायें पार कर गया। शान्तस्वर में राम ने कहा “आप पिताजी को मेरे आगमन की सूचना दे दीजिये।” 


सुमन्त्र भारी हृदय से दशरथ के समक्ष जाते हैं और शोकनिमग्न राजा को राम के आगमन का समाचार सुनाते हैं। “हे पृथ्वीनाथ, आपके पुत्र राम अपना सारा धन ब्राह्मणों व आश्रित सेवकों में दान कर और समस्त सुहृदों से मिलकर वनगमन के पूर्व आपके दर्शन के लिये द्वार पर खड़े हैं।” दशरथ को लगा कि वह उस क्षण को सह पाने की क्षमता में नहीं हैं। राम वनगमन का निश्चय कर सम्बन्धित शेष प्रबन्ध व्यवस्थित कर चुके हैं। संभवतः यह उनकी विदाई का अवसर होगा। एक क्षण सोचकर उन्होंने सुमन्त्र को राम के पहले शेष रानियों को भी बुला लाने का निर्देश दिया।


कक्ष भरा था, मध्य में राजा, एक ओर माँ कैकेयी, दूसरी ओर माँ कौशल्या और माँ सुमित्रा, उनके पीछे राजपरिवार से सम्बन्धित समाज और कुलस्त्रियाँ। कुलगुरु वशिष्ठ और सुमन्त्र राजा से कुछ दूर खड़े थे। आर्त भाव से संघनित कक्ष में राम सीता और लक्ष्मण के साथ प्रवेश करते हैं।

2 comments:

  1. 🙏
    चलचित्र की भाँति दिख रहा है सब पढ़ते हुये।

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  2. बहुत ही लाजवाब रामकथा...सचमें चलचित्र सा दिखने योग्य...
    लाजवाब ।

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