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3.4.16

संस्कृति

गूँजतीं हैं प्रतिध्वनियाँ,
वेद की शाश्वत ऋचायें,
अनवरत बहती रहेंगी,
वृहद संस्कृति की विधायें ।।

आज कुछ राक्षस घिनौने,
भ्रमों के आधार लेकर,
युगों के निर्मित भवन को,
ध्वस्त करना चाहते हैं ।।

यदि विचारा, यह धरातल तोड़ दोगे,
सत्य मानो कल्पना छलती तुम्हें है ।
ध्वंस का विश्वास मरकर ही रहा है,
वह जिया यदि, मात्र स्वप्नों के भवन में ।।

व्यर्थ की हठधर्मिता को,
कहीं जीवन में उतारा,
लिये हमने मातृ रक्षा के वचन हैं,
रही संचित वीरता की पूर्व गरिमा ।

रक्त का आवेश अन्दर से उठेगा,
और फूटेगा हृदय से अनल जीवट,
प्रबल विष में उफनते आघात होंगे,
जो करेंगे भस्म अनुचित गर्व तेरा ।

काल के विस्तृत पटल पर,
हैं विजय के शब्द अंकित ।

10.6.14

पहचाना पथ

पिछले माह जब बंगलोर से अपना सामान लाने के लिये गया तो पुराने कई पर्यवेक्षकों से बातचीत हुयी। जब उन्हें यह ज्ञात हुआ कि हम बनारस पहुँच चुके हैं तो उनकी प्रसन्नता और बढ़ गयी, ऐसा लगा मानो बनारस उनका प्रिय और जाना पहचाना स्थान है। यहाँ के बारे में अधिक बताना भी नहीं पड़ा, उन्हें सब पहले से ही ज्ञात था। बड़ा ही आश्चर्य का विषय था क्योंकि उत्तर भारत में किसी से दक्षिण भारतीय नगरों के बारे मे प्रश्न पूछें तो उत्तर में शून्यवाद टपकता है। बनारस को छोड़, अन्य उत्तर भारतीय नगरों के बारे में उनका ज्ञान सामान्य से भी कम था। चर्चा अन्य विषयों पर मुड़ गयी, पर मेरे विचारों की सुई इस रहस्य पर अटकी रही कि कर्नाटक के जनमानस में बनारस के विशिष्ट परिचय का क्या कारण है? मेरे पास बनारस के बारे में बताने के लिये अधिक न था, क्योंकि यहाँ आने के बाद मैं व्यस्तताओं में सिकुड़ा रहा, बनारस की जीवन्तता से परिचय नहीं कर सका। बनारस के बारे में उनके प्रश्नों में उनकी जिज्ञासा कम, मेरी परीक्षा अधिक परिलक्षित थी।

सांस्कृतिक निकटता भौगोलिक निकटताओं से अधिक मुखर होती हैं। कहने को मैं भले ही बनारस के निकट रहा, पला, बढ़ा और अब यहाँ रह भी रहा हूँ, पर मेरी सांस्कृतिक निकटता कर्नाटक में रहने वाले और अभी तक बनारस न आये हुये बहुत लोगों से पर्याप्त मात्रा में कम है।

इसी बीच मेरे साथ बंगलोर में कार्य करने वाले और आन्ध्रप्रदेश के निवासी एक सहयोगी अधिकारी ने बताया कि वह बनारस आ रहे हैं। पहले लगा कि वह यहाँ किसी प्रशासनिक कारण से आ रहे होंगे, पर जब उन्होंने अपनी यात्रा को पूर्णतया व्यक्तिगत कारण बताया तो बंगलोर में पर्यवेक्षकों से वार्ता के समय उपजा रहस्य और गहरा गया। सहयोगी अधिकारी ने बताया कि उनके माता पिता ६ माह के लिये बनारस में रहने आये हैं, एक अस्थायी निवास लेकर रह रहे हैं और ६ माह बाद वापस अपने गृहनगर चले जायेंगे। उनके आने का कारण अपने माता पिता का कुशल मंगल देखना और संबंधित व्यवस्थाओं को देखना है। उनकी यात्रा तो दो दिन की थी, पर मेरे विचारों में दक्षिण की उत्तरापथ यात्रा अभी तक चल रही है।

शंकराचार्य के द्वारा चारों पीठों में स्थापित व्यवस्था ने देश के विस्तृत भूभाग को सांस्कृतिक सूत्र से जोड़े रखा है, उस व्यवस्था के बारे में बहुतों को ज्ञात भी होगा, पर बनारस के जुड़े दक्षिण भारत के इस लगाव की जानकारी मुझे इसके पहले नहीं थी। यद्यपि यह अवश्य ज्ञात है कि बनारस से ही शंकराचार्य का कीर्तिचक्र प्रारम्भ हुआ था, यहाँ पर उनके जीवन के विस्तृत प्रयासों के बीज पर्याप्त मात्रा में दिखते हैं। 

बनारस में दक्षिण भारतीयों के क्षेत्र स्थायी हैं, आवागमन निरन्तर है, संबंध सतत है, आस्था में सांस्कृतिक अटूटता है। पता किया तो, यहाँ पर केदार घाट का निर्माण विजयनगर के महाराज ने करवाया था और संभव है कि वहाँ घंटे भर पर बैठे भर रहने से ही दक्षिण की चारों भाषाओं में हो रहे संवाद आपको सुनने को मिल जायें। इसके अतिरिक्त आन्ध्र आश्रम दक्षिण से अल्प प्रवास में आने वालों के लिये चहल पहल भरा स्थान है। उत्सुकता बढ़ी, नेट पर और खोजा तो पाया कि दक्षिण भारत से ही नहीं वरन जो दक्षिण भारतीय अन्य देशों में जाकर बस गये हैं, उनके मन में भी बनारस आकर अपनी पूर्व परम्पराओं को बनाये रखने की तड़प होती है।

इतना सब जानने के बाद हमें लगा कि हम बंगलोर से बनारस तक जिस पथ से आये हैं, वह शताब्दियों से जाना पहचाना है। हमारे बंगलोर के पर्यवेक्षकों के लिये भी हमारा यहाँ आना एक परम्परा के अन्तर्गत ही हुआ, कहीं कोई पृथकता का भाव नहीं रहा। मेरे लिये भी उन्हें यहाँ आमन्त्रित करने में अत्यन्त सहजता का अनुभव हुआ और अच्छा लगा कि उनके साथ संबंध इस सदियों पुराने सांस्कृतिक सेतु के माध्यम से बना रहेगा। साथ ही साथ उनके यहाँ आने पर उनके लिये व्यवस्थायें करने का सुख जो मुझे मिलेगा, वह पाँच वर्षों के परिचय स्नेह सूत्र बनाये रखेगा। उनसे दूर आने के बाद भी हम उन्हीं के परिचित मार्ग पर खड़े हैं, विपथ नहीं हुये हैं।

पर्यवेक्षकों ने बताया कि कर्नाटक में एक व्यवस्था सदियों से चली आ रही है। पारम्परिक परिवेश में, प्राथमिक शिक्षा के लिये बच्चों को कुंभकोणम भेजा जाता है। कुंभकोणम तमिलनाडु में हैं पर वहाँ पर सारे शिक्षक कर्नाटक से हैं। माध्यमिक शिक्षा के लिये महाकोटा भेजा जाता है। महाकोटा कर्नाटक में है पर वहाँ सारे शिक्षक उत्तर भारत से हैं। उच्च शिक्षा के लिये बनारस की मान्यता है। बनारस उत्तर भारत में है पर यहाँ पर सारे शिक्षक दक्षिण कर्नाटक से आते हैं। स्व रामकृष्ण हेगड़े, यू आर राव आदि प्रसिद्ध नाम हैं जो इस परम्परा से होकर आये हैं। कर्नाटक में जितने भी स्वामी हैं, उसमें अधिकतर इसी परम्परा से आबद्ध हैं। दक्षिण भारत के शतप्रतिशत ख्यातिलब्ध ज्योतिषी बनारस से अपनी शिक्षा प्राप्त करके गये हैं।

मात्र कल्पना करके आनन्द का अतिरेक हो जाता है। वृहदता का उद्भव संकीर्णताओं से उत्पन्न समस्याओं को एक क्षण में बहा ले जाने में सक्षम है। हमें तो आभास भी नहीं है कि भाषाओं के आधार लेकर अपनी क्षुद्रताओं को महिमामंडित करने का जो प्रयास हम अब तक करते आये हैं, वह अत्यन्त लघुता और अल्पता लिये हुये सिद्ध होने वाला है। संस्कृति के अविरल प्रवाह में उभय दिशाओं में धारायें बह रही हैं। वे कुछ समय के लिये अवरुद्ध भले ही हो जायें पर अन्ततोगत्वा वे समस्त दुर्बुद्धि-मल को बहा ले जाने में सक्षम होंगी, यह मेरा प्रबल विश्वास है।

2.11.13

भाषायी संबंध

न जाने कितना कुछ कहती यह भाषा
भाषा संबंधी अध्ययन के समय में एक विशेष प्रश्न आया था, कि किस प्रकार भाषा संस्कृतियों के पक्षों को अपने में समा कर रखती है और किस प्रकार वह चिन्तन को प्रभावित करती है। छोटा सा एक तुलनात्मक उदाहरण लें, वैज्ञानिक भाषा का और आदिवासी क्षेत्र में बोली जाने वाली भाषाओं का। वैज्ञानिक भाषा में प्रयुक्त शब्द जैसे एन्ट्रॉपी अपने आप में न जाने कितने सिद्धान्त समाहित किये बैठा है। जब भी वह बोला जायेगा, ऊष्मागतिकी के द्वितीय सिद्धांत तक प्रयुक्त सारा ज्ञान उस शब्द में व्याख्या सहित समाया मिलेगा। इसी प्रकार आदिवासीय क्षेत्र में बोली जाने वाली भाषा में प्रकृति की उपासना की प्रमुखता होगी, उन्नत शब्द प्रकृति की किसी शक्ति का वर्णन करते हुये ही दिखेंगे। ज्ञान के विकास में शब्द सामर्थ्यशाली होते चले जाते हैं और आने वाली पीढ़ियों की चिन्तन प्रक्रिया को सुदृढ़ बनाते रहते हैं।

गहरे सिद्धान्तों को वहन कर सकने के लिये भाषा का स्वरूप और बनावट भी गहरी होनी चाहिये। रोमन अंक किसी भी स्थिति में गणित के अग्रतम सिद्धान्तों को व्यक्त नहीं कर पायेंगे। कल्पना कीजिये कि यदि रोमन अंकों में आपको गुणा करने का भी कार्य दिया जाता तो गणित के प्रति आपका क्या रुझान होता? इसी प्रकार देखिये तो कम्प्यूटर को अंग्रेजी सीधे समझ नहीं आती, अतः उससे कार्य निकालने के लिये जावा या सी प्लस आदि कम्प्यूटर भाषाओं का उपयोग किया जा रहा है। एस क्यू एल(Structured Query Language, SQL) के नाम से नयी कम्प्यूटर भाषा विकसित हो रही है, जिसमें एक व्यवस्थित क्रम हो और कम्प्यूटर को उस भाषा को समझने में कोई भी भ्रम न रहे, हर बार शब्द और निर्देश वही अर्थ बता सकें।

जहाँ तक देखा गया है, कोई एक संस्कृति या तन्त्र एक दिशा में बहुत आगे तक चली जाती है और उस संस्कृति को व्यक्त करने वाली भाषा संस्कृति के सशक्त पक्षों को अपने में समेट लेती है। कल्पना कीजिये कि भाषा की विकास प्रक्रिया तब कैसी होती होगी, जब किसी संस्कृति में दो पक्ष सशक्त होते होंगे। भाषा का आकार और शब्दकोश तब कैसे विकसित होता होगा? क्या होता होगा, जब संस्कृति का भौतिक पक्ष, मानसिक पक्ष, बौद्धिक पक्ष या आध्यात्मिक पक्ष संतुलित रहता होगा, भाषा तब कैसे अपना मार्ग ढूंढ़ती होगी, कैसे अपना समन्वय बिठाती होगी?

भाषा के शब्दों में कितना अर्थ छिपा है और वे एक वाक्य के रूप में कितना भ्रमरहित संप्रेषण करते हैं, यह किसी भी भाषा के सामर्थ्य को दिखाते हैं। यहाँ पर एक बात समझनी आवश्यक हो जाती है जो भाषा के अनुवादकों के कठिन श्रम को समझने में सहायक है। किसी एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद की प्रक्रिया केवल दोनों भाषाओं के शब्दकोश से होकर नहीं जाती है, वरन अनुवाद से न्याय करने के लिये शब्दों द्वारा व्यक्त संास्कृतिक अनुगूँज और उस भाषा में छिपे व्याकरणीय भ्रमतन्तु समझने आवश्यक हैं। सफल अनुवाद इन दोनों को पूरी तरह से समझे बिना संभव ही नहीं है। अनुवादकों का कार्य सृजनशीलता में लेखकों से भले ही कम हो, पर संप्रेषण में लगे श्रम और समझ की दृष्टि से बहुत अधिक है, दो भाषाओं की संस्कृति और भाषायी शैली समझने की दृष्टि से बहुत अधिक है।

अनुवादकों का कार्य तब कठिन हो जाता है जब संस्कृतियाँ सर्वथा भिन्न हो। गणित और विज्ञान ने पूरे विश्व में अपनी भाषा एक सी बना ली है अतः एक देश में हुये विकास को दूसरे देश में सरलता से पढ़ा जा सकता है, बिना अनुवादकों की सहायता के। वहीं दूसरी ओर एक संस्कृति में ही पोषित दो पड़ोसी भाषाओं के बीच भी अनुवाद बड़ी समस्या नहीं है। कई शब्दों की समानता और व्याकरण की समरूपता इस कार्य को उतना कठिन नहीं रहने देती है। भिन्न संस्कृतियों की भाषा के बीच सेतु का कार्य करने के लिये मन में SQL जैसी ही किसी भाषा का निर्माण करना पड़ता है, या कहें सेतुबन्ध बनाने के लिये अनुवादक को अलिखित तीसरी भाषा गढ़नी पड़ती है।

जब दो भाषायें संपर्क में आती हैं, उन दोनों के बीच शब्दों और सिद्धान्तों के बीच सांस्कृतिक आदान प्रदान की प्रक्रिया चलती है। जानकर कोई आश्चर्य नहीं होगा कि जहाँ वैज्ञानिक शब्दकोश अंग्रेजी से भारतीय भाषाओं में आया है, भारतीय भाषाओं के आध्यात्मिक शब्दकोश से अंग्रेजी सम्पन्न हुयी है। कारण स्पष्ट है जब सारी वैज्ञानिक प्रगति अंग्रेजी में हो रही थी, भारतीय भाषाओं के अधिनायक अपनी स्वतन्त्रता के संघर्ष में डूबे थे। इसी प्रकार जब भारत में मनीषी अध्यात्म के उन्नत ग्रन्थ लिख रहे थे, यूरोप व अरब के देश अपने अंधे युग में थे।

हमको अपने सूत्र साधने
भारतीय भाषाओं में उपस्थित समानता और व्याकरण भारतीय भाषाओं के एक स्रोत की ओर इंगित करता है। यदि संस्कृत को केन्द्र में रखकर देखें तो तमिल को छोड़कर शेष सभी भारतीय भाषाओं की समरूपता का प्रतिशत ६५ से ऊपर है, कुछ में यह प्रतिशत ८५ तक भी पहुँच जाता है। व्याकरण और वर्णमाला के अतिरिक्त संस्कृति की समानता इसका प्रमुख कारण है। तमिल के साथ जहाँ सांस्कृतिक समैक्य है, व्याकरण और वर्णमाला थोड़ी भिन्न होने पर भी समानता का प्रतिशत ४५ के आसपास आता है। भाषाओं में बटे भारत में इस प्रकार की समानता ढूँढ निकालने का कार्य गम्भीरता से नहीं लिया गया है, एक भाषा को थोपे जाने के भावनात्मक भय ने एकता पाने की संभावनाओं पर भी कुठाराघात किया है। ६५ प्रतिशत की शाब्दिक समानता क्या पर्याप्त नहीं थी, हम लोगों को एक दूसरे के हृदय में पहुँच पाने के लिये?

देश के भाषायी प्रश्न को भावनात्मकता से विलग कर तथ्यात्मक आधार पर देखा जाये तो भाषायें न केवल एक दूसरे पर अपना प्रभाव डालती रहती हैं, वरन औरों के प्रभाव से स्वयं को बचाती रहती हैं। दूसरी भाषा के शब्दों को अपनी भाषा में लेने से भाषा के समृद्धिकरण के लाभ भी हैं और स्वयं के निगले जाने का भय भी। दो भाषाओं के जन के बीच संपर्क किसी एक भाषा में ही होता है। आवश्यकतानुसार लोग एक दूसरे की भाषा बोल भी लेते हैं, पर यह बात मानकर चलिये कि आवश्यकता कितनी भी गहरी हो, अपनी भाषा के मोहतन्तु इतनी सरलता से जाते नहीं हैं। बाह्य परिवेश में विवशतावश कोई भी भाषा बोले, पर घर आकर लोग अपनी मातृभाषा ही बोलते हैं। अपनी भाषा को, अपनी संस्कृति को बचाये रखने का मोह सबको होता है।

कभी सोचा है कि किसी एक बांग्लाभाषी का बंगलोर में क्या भाषायी आधार रहता होगा? मैं बताता हूँ क्योंकि मैं ऐसे कई परिवारों को जानता हूँ। घर में बांग्ला, बाहर कन्नड़, कार्यालय में अंग्रेजी और मेरे साथ हिन्दी। प्रश्न और जटिल कर देते हैं, पति पत्नी दोनों ही अलग भाषा बोलते हैं, बच्चा कौन सी भाषा सीखेगा? अंग्रेजी विश्व से जुड़ने की भाषा है, परिवेश की भाषा कुछ और हो सकती है? ऐसी भाषायी संबंधों में वह क्या ग्रहण करता होगा, किस भाषा में कितनी गहराई तक जा पाता होगा? या भ्रम में कुछ भी नहीं सीख पाता होगा? एक से अधिक भाषा जानने के लिये तब अधिक समस्या नहीं रहती होगी जब दोनों भाषाओं में सांस्कृतिक समानता हो। तब संभव है कि शब्द भी उभयनिष्ठ हों। समस्या तब आती है जब भाषाओं से संबद्ध संस्कृतियाँ भिन्न होती हैं, उनके भौतिक, मानसिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक विमायें भिन्न होती हैं। अनुवादक का कार्य भी इसी आधार पर अपनी सरलता या जटिलता ढूँढता होगा।

जिस तरह से विश्व में भौगोलिकता के पार पारस्परिक संपर्कबिन्दु बढ़ रहे हैं, जिस तरह भाषाओं का आवागमन हो रहा है, जिस प्रकार बहुभाषी जन तैयार हो रहे हैं, उससे यह तो निश्चित है कि सभी भाषाओं में सतत परिवर्धन होगा। संस्कृतियों के इस वृहद मेले में भाषायें किस तरह प्रभावित होगीं, उनके आपसी संबंध किस तरह के होंगे, उनके संमिश्रण से शब्दकोश क्या आकार धरेंगे, यह शोध का विषय है। अंग्रेजी संस्कृति हर ओर फैली और निष्कर्ष स्वरूप शब्दकोश का आकार ३ हजार शब्दों से ३ लाख शब्दों तक हो गया है। अन्य भाषायें अंग्रेजी के इस ऐश्वर्य से प्रभावित होंगी कि अपनी राह स्वयं गढ़ेंगी? भारतीय भाषायें किस ओर बढ़ेंगी?

भाषाओं का प्रश्न जितना सरल लोग बनाने का प्रयास करते हैं, उतना सरल वह होता नहीं। मानव संबंधों से भी अधिक दुलार पाती हैं भाषाओं की भावनायें। जो हमको हमारे भाव समझाने का प्रयत्न अपने हर शब्द से करती हैं, हम भी उसके भाव समझ सकें, हम भी नित एक होते विश्व में भाषायी संबंध समझ सकें।

5.12.12

संस्कृति बुलाती है

मानव अपनी जड़ों से जुड़ना चाहता है, उसे अच्छा लगता है कि वह अपने इतिहास को जाने, उसे अच्छा लगता है यह जानना कि अपने पूर्वजों की तुलना में उनका जीवन कैसे बीत रहा है। हो सकता है कि इतिहास का कोई प्रायोगिक उपयोग न हो, हो सकता है कि इतिहास केवल तथ्यात्मक हो और उससे भविष्य में कोई लाभ न मिले। जो भी हो हमें फिर भी उनके बारे में जानना अच्छा लगता है, रोचकता भी रहती है।

बड़ा स्वाभाविक भी है यह व्यवहार, हम सब कुछ ऐसा करना चाहते हैं कि हमारे न रहने पर भी हमारा नाम यहाँ बना रहे। यह चाह न केवल हमें कुछ विशिष्ट करने को उकसाती है, वरन अपनी गतिविधियों को लिपिबद्ध करने को प्रेरित करती है। हम अपने बारे में सूचनायें न केवल लिखित रूप में संरक्षित करते हैं, वरन भवनों, किलों, सिक्कों आदि के रूप में भी छोड़ जाते हैं। घटनायें होती हैं, उनके कारण होते हैं, कहानियाँ बनती हैं, उनके कई पक्ष उद्धाटित होते हैं। इन सबका सम्मिलित स्वरूप इतिहास का निर्माण करते हैं। विशिष्ट लोग या विशिष्ट घटनायें या विशिष्ट शिक्षा, बस यही शेष रह जाता है, अन्यथा सारे जनों की सारी घटनायें कौन लिखेगा और कौन पढ़ेगा?

जहाँ एक ओर इतिहास गढ़ने की स्वाभाविक इच्छा हमारे अन्दर है, वहीं दूसरी ओर इतिहास पढ़ने की भी इच्छा सतत बनी रहती है। इतिहास के माध्यम से हम उन स्वाभाविक समानताओं को ढूढ़ने का प्रयास करते हैं जो हमें अपने पूर्वजों से जोड़े रहती है। यही वो सूत्र हैं जो संस्कृति का निर्माण करते हैं। ये सूत्र आचार, विचार, प्रतीकों के रूप में हो सकते हैं। ये सूत्र जितने गाढ़े होते हैं हम अपने आधार से उतना ही जुड़ा पाते हैं, अपने जीवन को उतना ही सार्थक मानते हैं।

हम भारतीय बहुत भाग्यवान है कि हमारे पीछे संस्कृति के इतने विशाल आधार हैं, ज्ञात इतिहास की पचासों शताब्दियाँ हैं। इतिहास की सत्यता पर भले ही संशय के कितने ही बादल छाये हों पर फिर भी एक वृहद इतिहास उपस्थित तो है। देर सबेर संशय के बादल छट जायेंगे और हम सत्य स्पष्ट देख पायेंगे। तब तक विशाल संस्कृति की उपस्थिति ही हमारे लिये गर्व का विषय है।

प्राचीन इतिहास को समझने में अभी और समय लगेगा, अभी और प्रयास लगेंगे, पर यह एक स्थापित सत्य है कि अंग्रेजों ने भारतीयों पर अपना शासन अधिक समय तक बनाये रखने के लिये बहुत ही कुटिल नीति के अन्तर्गत कार्य किया। सामरिक श्रेष्ठता ही पर्याप्त नहीं होती है शासन के लिये, उसमें सदा ही विद्रोह की संभावना बनी रहती है। सांस्कृतिक श्रेष्ठता ही लम्बे शासन का आधार हो सकती है। अंग्रेजों ने यहाँ की जीवनशैली देखकर यह तो बहुत शीघ्र ही समझ लिया था कि स्वयं को सांस्कृतिक रूप से श्रेष्ठ सिद्ध कर पाना उनकी रचनात्मक क्षमताओं के बस की बात नहीं थी। तब केवल एक ही हल था, विध्वंसात्मक, वह भी शासित की संस्कृति के लिये।

फिर क्या था, शासित और शापित भारतीय समाज की संस्कृति पर चौतरफा प्रहार प्रारम्भ हो गये। इतिहास को हर ओर से कुतरा गया, राम और कृष्ण के चरित्रों को कपोल कल्पना बताना प्रारम्भ किया गया और वेद आदि ग्रन्थों को चरवाहों का गाना। अपने आक्रमण को सही ठहराने के लिये आर्यों के आक्रमण के सिद्धान्त को प्रतिपादित किया गया। आर्य और द्रविड के दो रूप दिखा भिन्नताओं को भारतीय समाज को छिन्न करने का आधार बनाये जाना लगा। जो भी कारक हो सकते थे फूट डालने के, भिन्नतायें उजागर करने के, सबको बढ़ा चढ़ा कर प्रस्तुत किया गया। पर्याप्त सफल भी रहे अंग्रेज, अपने अन्धभक्त तैयार करने में, अंग्रेजों के द्वारा रचित इतिहास हम भारतीय बहुत दिनों तक सच मानते भी रहे।

स्वतन्त्रता मिलने के पश्चात हम अपने उस अस्तित्व को स्वस्थ करने में व्यस्त हो गये जो अंग्रेजों की अधाधुंध लूट और फूट के कारण खोखला हो चुका था। संस्कृति के विषय पर बहुत अधिक मनन करने का अवसर ही नहीं मिला हमें। संस्कृति के बीज भले ही कुछ समय के लिये दबा दिये जायें पर उनके स्वयं पनप उठने की अपार शक्ति होती है। जिन सूत्रों ने पचासों शताब्दियों का इतिहास देखा हो, न जाने कितनी सभ्यताओं को अपने में समाहित होते देखा हो, वे स्वयं को सुस्थापित करने की क्षमता भी रखते हैं।

पिछले दो वर्षों से मुझे भारतीय बौद्धिकता इस दिशा में जाती हुयी दिखायी भी पड़ रही है। पाश्चात्य की चकाचौंध तो सबके जीवन में आती है, प्रभावित करती है पर बहुत अधिक दिनों तक टिक नहीं पाती है, अन्ततः व्यक्ति अपनी जड़ों की ओर लौट कर आता है। हिन्दी के बारे में तो ठीक से नहीं कह सकता हूँ पर पिछले दो वर्षों में न जाने कितनी ही अंग्रेजी पुस्तकें देख रहा हूँ, जो भारतीय लेखकों ने लिखी हैं और सब की सब अपनी जड़ों को खोजने का प्रयास करती हुयी। न केवल वे मौलिक शोध कर रहे हैं, वरन यथासंभव वैज्ञानिक विधियों का आधार भी ले रहे हैं।

मैं पुस्तकें देखने नियमित जाता हूँ, वहीं से मुझे बौद्धिकता की दिशा समझने में सरलता भी होती है, हर सप्ताह कौन सी नयी पुस्तकें आयी हैं, यह जानने की उत्सुकता बनी रहती है। चाहे अश्विन सांघी की 'चाणक्या चैंट' या 'कृष्णा की' हो, अमीष त्रिपाठी की 'इम्मोर्टल ऑफ मेलुहा' या 'सीक्रेट ऑफ नागाज़' हो, रजत पिल्लई की 'चन्द्रगुप्त' हो, नीलान्जन चौधरी की 'बाली एण्ड द ओसियन ऑफ मिल्क' हो, अशोक बन्कर की 'सन्स ऑफ सीता' हो, आनन्द नीलकण्ठन की 'असुरा' हो, स्टीफेन नैप की 'सीक्रेट टीचिंग ऑफ वेदा' हो, सारी की सारी पुस्तकें संस्कृति के किसी न किसी पक्ष को खोजती है।

ये सारी पुस्तकें पढ़ने की प्रक्रिया में हूँ, ये रोचक भी हैं और तथ्यात्मक भी। आप भी पढ़िये, तनिक ध्यान से सुनिये भी, संस्कृति बुलाती है।

6.10.12

बच्चों की संस्कृति

अपनी संस्कृति पर गर्व होना स्वाभाविक है, पर सारा जीवन अपनी संस्कृति के एकान्त में नहीं जिया जा सकता है, अन्य संस्कृतियाँ प्रभावित करती हैं। पहले का समय था, संस्कृतियों के बीच का संवाद सीमित था, परस्पर प्रभाव सीमित था, जो बाहर जाते थे वे ही बाहर की संस्कृति के कुछ अंश ले आते थे, पर दूसरी संस्कृति में जीवन निभा पाने के समुचित श्रम के पश्चात। आज न जाने कितनी फुहारें बरसती हैं, बड़ा ही कठिन होता है, भीग न पाना। हर संस्कृति की एक जीवनशैली है, अपने सिद्धान्त हैं और उसमें पगी दिनचर्या। औरों की संस्कृति पहले तो रोचक लगती है, पर धीरे धीरे रोचकता हृदय बसने लगती है, हम औरों की संस्कृति के पक्ष अपना लेते हैं, अपनी सुविधानुसार, अपनी इच्छानुसार।

मुझे भी अपनी संस्कृति पर गर्व है, खोल पर नहीं, उसकी आत्मा पर है। कई कारण हैं उसके, वर्षों की समझ के बाद निर्मित हुये हैं वे कारण। बहुत कारण ऐसे हैं, जो सिद्ध न कर पाऊँ, समझा न पाऊँ, भावानात्मक हैं, बौद्धिक हैं, आध्यात्मिक हैं। आवश्यकता भी नहीं है कि उनके लिये तर्कों से श्रेष्ठता के महल निर्माण करूँ, अनुभवजन्य तथ्य तर्कों की वैशाखियाँ पर निर्भर भी नहीं रहते हैं। यह भी नहीं है कि मुझे अन्य संस्कृतियों से कोई अरुचि हो, जब खोल अनावश्यक हो जाते हैं तो तुलना करने के लिये बहुत कम बिन्दु ही रह जाते हैं। सिद्धान्तों की मौलिकता में किसी भी संस्कृति को समझना कितना सरल हो जाता है, कम समझना होता है तब, गहरा समझना होता है तब। कबिरा की 'मरम न कोउ जाना', यही पंक्ति पथप्रदर्शन करने लगती है। किसी संस्कृति का श्रेष्ठ स्वीकार करना ही उस संस्कृति का समुचित आदर है। खोल का ढोल पीटने वाले, न अपनी संस्कृति को समझ पाते हैं, न औरों की।

आज आधुनिक एक आभूषण बन गया है, पुरातन एक अभिशाप। भविष्य सदा ही अधिक संभावनायें लिये होता है, भूतकाल से कहीं अधिक मात्रा में, कहीं अधिक स्पष्टता में। पुरातन को अपने दोषों का कारण मान, सब कुछ उसी पर मढ़ हम हल्के हो लेते हैं, कोई भार नहीं, कोई अनुशासन नहीं, कोई नियम नहीं, उन्मुक्त पंछी से। यदि यही आधुनिकता के रूप में परिभाषित होना है, तब तो हम स्वयं को संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में कभी समझे ही नहीं। आधुनिकता और खुले विचार वालों ने अपनी स्वच्छन्दता के सीमित आकाश में संस्कृति की उस असीमित आकाशगंगा को तज दिया है, जिसमें हम सब सदियों से निर्बाध और आनन्दित हो विचरण करते रहे हैं।

संस्कृति की हमारी संकर समझ उस समय उभर कर सामने आ जाती है, जब हम चाहते हैं कि हमारे बच्चे पाश्चात्य संस्कृति सीखें, उनकी तरह विकसित हों, उनकी तरह आत्मविश्वास से पूर्ण दिखें, पर घर की मान्यताओं, परम्पराओं और संस्कारों को अक्षुण्ण रखे। जो भी कारण रहा हो, भारतीय संस्कृति शापित रही हो या शासित रही हो, आधुनिक परिवेश में श्रमशीलता, अनुशासन और कर्मप्रवृत्तता भारतीय संस्कृति के अनुपस्थित शब्द रहे हैं। वानप्रस्थ और सन्यास वर्षों में अध्यात्म का संतोष और जीवन समेटने की चेष्टाओं को ब्रह्मचर्य और गृहस्थ में ही स्वीकार कर लेने से जो अकर्मण्यता हमारी जीवनशैली में समा गयी है, उसकी भी उत्तरदायी है संस्कृति के बारे में हमारी संकर समझ।

क्या करें, संस्कृति का सही अर्थ बच्चों को समझाने बैठें या उन्हें स्वयं ही समझने दें? कपाट बन्द करने से उसके कूप मण्डूक हो जाने का भय है, कपाट खोल देने से वाह्य संस्कृतियों के दुर्गुण स्वीकारने का भय? जब हमें चकाचौंध भाती है तो उन्हें भला क्यों न अच्छी लगेगी, क्या तब बच्चे लोभ संवरण कर पायेंगे? बहुत से ऐसे ही प्रश्न उठ खड़े होते हैं जब बच्चों का परिचय हम अन्य संस्कृतियों से करवाते हैं। क्या उपाय है, संस्कृति की आत्मा सिखायें, या खोल चढ़ा दें, या उसे स्वयं ही समझने दें? उत्तर तो पाने ही हैं, अनभिज्ञता हर दृष्टि से घातक है। बहुत बार बस यही लगता है कि जो भी सिखाना हो, जो भी श्रेष्ठ हो, उसे स्वयं के जीवन में उतार लीजिये, बच्चे समझदार होते हैं, सब देख देखकर ही समझ लेते हैं।

एक मित्र के बारे में कहना चाहूँगा, वह पूर्ण नास्तिक, कारण बड़ा रोचक है पर। बचपन में अपने पिता को देखता था, बहुत अधिक पूजा पाठ करते थे, धार्मिक थे। भ्रष्टाचार का धन और परिवारजनों, विशेषकर पत्नी के प्रति अप्रिय व्यवहार। यह विरोधाभास उसको कभी समझ न आया, उसे लगा कि इस विरोधाभास का स्रोत धर्म ही हो, किसी से कभी कुछ नहीं कहा, बस वह ईश्वर से रूठ गया, जीवन भर के लिये नास्तिक हो गया। देखा जाये तो हमारा जीवन ही बच्चों के लिये हमारी संस्कृति का जीवन्त उदाहरण है, वही पर्याप्त होता है बस, प्रभावित करने में शब्द आदि निष्प्राण हो जाते हैं, अन्त में व्यवहार ही अनुसरणीय हो जाता है।

पाश्चात्य समाज में बच्चे अधिक स्वतन्त्र होते हैं, विकास के लिये एक आवश्यक गुण है यह। अपने जीवन के दो महत्वपूर्ण निर्णय स्वयं करते हैं वे, जीवन यापन कैसे करना है और जीवन यापन किसके साथ करना है? हम अपनी संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में देखेंगे तो संभवतः हजम न कर पायें, पर उनके लिये यह स्वाभाविक व्यवहार है। यदि आप चाहेंगे कि आपके बच्चे भी उनकी तरह स्वतन्त्र बने या स्मार्ट बने, तो उन्हें बचपन से ही अपने निर्णय लेने के लिये उकसाना होगा। तब निर्णयों में मतभेद भी होंगे, कई बार मर्यादा दरकती हुयी सी लगेगी। जो बच्चे आपके निर्णयों से सहमत न हो अपना पंथ सोचने लगते हैं, उन्हें बागियों की उपाधि मिल जाती है। जो बच्चे आपके निर्णयों से असहमत होकर कार्यों में रुचि खो देते हैं और अनमने हो जाते हैं, उन्हें आप नकारा की संज्ञा से सुशोभित कर देते हैं। स्वतन्त्र दोनों ही होते हैं, जीवन अपना दोनों ही जीते हैं, बहुधा अपने कार्य में अत्यधिक सफल भी रहते हैं, पर समाज की दृष्टिकोण से आदर्श बच्चे नहीं कहे जाते हैं।

माना कि पाश्चात्य दृष्टिकोण में बहुत दोष हैं, आध्यात्मिक आधार पर भारतीय संस्कृति कहीं उन्नत है, सामाजिक संरचना और संबंधों के निर्वाह में हमारा समाज अधिक स्थायी है, एक कष्ट पर दसियों हाथ सहायता करने को तत्पर रहते हैं। तो क्या हम भौतिकता की आधारभूत आवश्यकताओं पर भी ध्यान न दें, सन्तोष की चादर ओढ़ अपने सांस्कृतिक वर्चस्व के स्वप्न देखें? पृथु के पास एक मोटी पुस्तक है, टॉप टेन ऑफ ऐवरीथिंग, उसमें वह देखता है कि अपना देश विकास के मानकों के आधार पर पाश्चात्य देशों के सामने कहीं नहीं टिकता है, पूछता है कि हम सबमें पीछे क्यों हैं? क्या उसको यह बताना ठीक रहेगा कि विवाह तक तो यहाँ का युवा अपने हर निर्णय के लिये अपने बड़ों का मुँह ताकता रहता है, यौवन भर औरों के द्वारा प्रायोजित और संरक्षित जीवन जीता है, प्रौढ़ होते ही असहाय हो अन्त ताकने लगता है और आध्यात्मिक हो जाता है। कब उसे समय मिलता है अपने स्वप्न देखने का, उन्हें साकार करने का? संभावित ऊर्जा सदा ही संभावना बनी रहती है, कोई आकार नहीं ले पाती है।

हम इस भय में जीते रहते हैं कि हमें अपने बच्चों और आने वाली पीढ़ी के लिये सुविधामयी जीवन संजो के जाना है, वही भय हमारे बच्चों में मूर्तरूप ले जी रहा है। सब के सब सधे भविष्य की ओर भागे जा रहे हैं, स्थापित तन्त्रों के सेवार्थ, उन तन्त्रों में जुत जाना चाहते हैं जो विश्व में बहुत नीचे हैं। हजारों की एक ऐसी सेना तैयार हो जिनके मन में दिवा स्वप्न हों, श्रेष्ठतम और उत्कृष्टतम पा जाने की उद्दाम ललक हो, हर ऐसे क्षेत्र में देश को स्थापित करने का विश्वास हो जिनके लिये हम जीभ लपलपाते रहते हैं। इस तरह की शक्ति तो एक दिन में चमत्कारस्वरूप मिलने से रही, बच्चे रोजगार ढूढ़ने में लगे रहे तो रोजगार के अतिरिक्त कुछ पा भी नहीं पायेंगे, देश में नहीं मिलेगा तो विदेश सरक जायेंगे।

हमारा देश सर्वाधिक युवा देश है, कारण है कि बच्चे अधिक हैं। अब दो विकल्प हैं, या तो बच्चों को अतिसंरक्षित जीवन जिलाते रहें और भविष्य में जब प्रतियोगिता की मारकाट अपने चरम पर होगी, उन्हें उन पर ही छोड़ दिया जाय, भाग्य के भरोसे। एक पतले रास्ते पर भला कितने लोग चल पायेंगे? दूसरा विकल्प यह है कि अपने बच्चों को दृढ़ और सशक्त बनायें जिससे न केवल वे अपनी राह गढ़ेंगे वरन न जाने कितनों को अपने साथ लेकर चलेंगे।

निर्णय आपको करना है कि बच्चों के निर्णय कौन लेगा? निर्णय आपको करना है कि बच्चों की संस्कृति क्या हो? निर्णय आपको करना है कि संस्कृतियों के बन्द किलों में ही बच्चे रहें या सबके ऊपर उड़ें, आसमान में? निर्णय आपको करना है कि संस्कृति को बचाये रखने वाले बचे रहें और संस्कृति को बचाये रखे या संस्कृति में सिमटे हुये विश्वपटल से अवसान कर जायें? भविष्य के निर्णय तो आज के बच्चे लेंगे, पर उन्हें इस योग्य बनाने के निर्णय आपको लेने हैं, आज ही।

16.6.12

स्वतन्त्र देवता

जीवन की प्राथमिकतायें संस्कृतियों के निर्माण में अहम योगदान देती हैं। जब धन की प्राथमिकता होती है, सारे तन्त्र बाजार का रूप धर लेते हैं, यहाँ तक कि मन्दिर भी बाजार की प्रवृत्ति से प्रभावित दिखते हैं। जब विकास प्राथमिकता होती है, हर घर कारखानों का एक उपभाग सा लगने लगता है, दिनचर्या मशीनों से कदमताल करने लगती है। जब स्वतन्त्रता शापित होती है, हर शब्द क्रांति का स्वर बन जाता है, हर युवा मर मिटने को तैयार घूमता है। और जब देश की पुनर्रचना का समय होता है, हर व्यक्ति मजदूर बन जाता है। हर दिन ईंट, हर रात गारा और निर्मित होती जाती है एक सुदृढ़ और स्थायी संरचना।

संस्कृति का रूप बड़ा ही धीरे प्रभाव डालता है, बहुत समय तो पता ही नहीं चलता है कि क्या परिवर्तन हो रहा है। जब वह प्रभाव स्थूल रूप से परिलक्षित होता है तब तक वह हमारे गुणसूत्रों में आ चुका होता है। तब पीढ़ियों का अन्तर संस्कृतियों के अन्तर में परिलक्षित होने लगता है। एक साथ ही कई पीढ़ियाँ, कई सामाजिक समूह, कई संस्कृतियाँ, हमारे देश में ही साथ साथ बसी हुयी हैं, कभी कभी तो शहर के अन्दर ही आपको इस विविधता के दर्शन हो जाते हैं।

पिछले दो वर्षों में प्राप्त अनुभव के आधार कह सकता हूँ कि एक नया सांस्कृतिक झोंका आ रहा है। जो परिवेश के बदलाव पर सतत ध्यान रखते हैं, उन्हें भी इसकी आहट आने लगी होगी। इस बदलाव में बहुत कुछ न केवल बदला बदला सा दिखने वाला है वरन खटकने भी वाला है, विशेषकर तब तक, जब तक उसके अभ्यस्त न हो जायें हम। जितनी बार भी मॉल जाता हूँ, यह विश्वास और भी दृढ़ होता जाता है। भविष्य का जो खाका समझ में आता है, हर बार की मॉल यात्रा उसी भविष्य-दिशा को स्थापित करती हुयी सी प्रतीत होती है।

जब कभी भी आप मॉल में जाते हैं, धीरे धीरे वहाँ का वातावरण आप पर प्रभाव डालने लगता है, आप शारीरिक रूप से सहज हो जाते हैं, शीतलता अस्तित्व में बसने लगती है। चारों ओर चमकती दुकानों के प्रकाश में आपका चेहरा और दमकने लगता है, लगता है जैसे तेज अन्दर से फूट रहा हो। धीरे धीरे आप भूलने लगते हैं कि आप किस देश में जी रहे हैं, वहाँ की क्या समस्यायें हैं? आपके सामने ऐश्वर्य, प्रसन्नता, उत्सव का वातावरण होता है, सब के सब अपना श्रेष्ठ समय बिताने आये होते हैं वहाँ। आप जिस दुकान में जाते हैं, सारे के सारे सेल्समानव आदर के साथ आपके स्वागत में लग जाते हैं, आपके सारे प्रश्नों के उत्तर देने में तत्पर। आप 'स्वतन्त्र देवता' जैसा अनुभव करने लगते हैं।

आप लोग खाते पीते हैं, खरीददारी करते हैं और फिल्में आदि देखकर वापस आ जाते हैं, एक पिकनिक सा मना कर। बच्चे भी प्रसन्न हो जाते हैं, आपको भी परिवार के मुखिया के रूप में लगता है कि आपने अपना पारिवारिक कर्तव्य अच्छे से निभा दिया। कभी कभी आप मॉल-भ्रमण को एक हथियार के रूप में प्रयोग करते हैं, बच्चों से कोई कार्य करवाने के लिये।

यहाँ तक तो सब कुछ अच्छा लगता है, साथ ही लगता है कि देश बढ़ रहा है, अच्छे परिवेश में सामान को कम मूल्य में उपलब्ध कराने का प्रयास सबको भा भी रहा है। खुदरा व्यापारी और साम्यवादी इसे अर्थव्यवस्था में आ रहा अनचाहा बदलाव भी मानते हैं। संभवतः वे नहीं चाहते कि आप स्वतन्त्र देवता जैसा अनुभव करें। जैसा भी हो, यह उत्तरोत्तर बढ़ता ही जा रहा है, बंगलोर में ही हर वर्ष पाँच-छह बड़े मॉल तैयार हो रहे हैं, लोगों के लिये भी एक अलग और सुखद अनुभव है इस तरह सामान खरीदना, और वह भी लगभग किसी भी खुदरा बाजार के समकक्ष मूल्यों पर।

यहाँ आर्थिक धारायें अपना मार्ग बदल रही हैं, छोटी छोटी नहरों का स्थान एक विशाल नदी ले रही है, जैसे भी हो, जल बह रहा है। पर एक बात है जो हर बार खटकती है, और जो संस्कृति को प्रभावित करने की क्षमता भी रखती है। वह है, इन मॉलों में हो रहे व्यवहार की कृत्रिमता। वहाँ जाकर जो आदर आपको मिलने लगता है, वह बहुत ही कृत्रिम सा लगता है। बाज़ार व्यवस्था का इसमें बहुत बड़ा योगदान है, धन का मान है। कोई गरीब हैं तो उसका अपमान अत्यन्त प्राकृतिक है। किसी के हाथ में पैसा है तो उसका सम्मान कृत्रिम है, उसे समाज में कोई आदर दे न दे, बाज़ार में उसे शत प्रतिशत मान मिलता है।

ध्यान से देखा जाये तो मॉलों में कार्य करने वालों में यह व्यवहार कूट कूट कर भरा जाता है, बस कुछ ही नये कर्मचारियों में एक हिचक दिखायी पड़ जाती है। २०-२१ साल के युवा लड़के जो नयी संस्कृति के प्रभाव में घर में अपने बड़ों का आदर करना भूल गये हैं, उन्हें भी प्रारम्भ में हिचक होती है, कालान्तर में घर के बड़ों का आदर करना आये न आये, मॉल में आये धनाड्य का आदर करना आ ही जाता है। जो लड़के भले और संस्कारी परिवारों से भी आते हैं, उन्हें भी प्रारम्भ में हिचक होती है, उन्हें गुणों को छोड़ धन को आदर देने में हिचक होती है, धीरे धीरे उन्हें भी यह छद्म गुण सीखना पड़ता है। कृत्रिमता का आवरण दोनों को ही खटकता है और खटकता है उन सबको भी, जिनको इस प्रकार की कृत्रिमता में घुटन सी होती है। स्वतन्त्र देवता का भाव स्थायी नहीं है, कुछ ही बार सुहाता है, बाद में आपकी विचारशीलता आपको कचोटने लगती है।

मानसिकता क्या है, यदि सामान की गुणवत्ता अच्छी है तो कृत्रिम आचरण की आवश्यकता कहाँ है? यदि सामान की गुणवत्ता अच्छी नहीं है तो इस तरह का आचरण विश्वास-हरण की श्रेणी में आता है। मुझे लगता है कि यह किसी सत्य पर पर्दा डालने जैसा है, यह संदेश पर कोलाहल डालने है। लगता है कि पहाड़ों को काट कर और गढ्ढों को पाट कर सारे विश्व को समतल बनाने की संस्कृति आ रही है। वह संस्कृति, जहाँ सबको लगता है कि वे स्वतन्त्र देवता हैं, जबकि उसका पूरा आधार धन की दासता का है।

अब तो जब भी मॉल जाता हूँ, थोड़ा सहमा रहता हूँ, कहीं कोई कृत्रिमता प्रभाव न छोड़ जाये मानसिकता पर।

9.2.11

जियो, ऑर्नब और मित्रों

भूल हो गयी मुझसे, जो कबाड़खाने की यह पोस्ट सुन ली। पिछले पाँच दिनों से उसका मूल्य चुका रहा हूँ, 'ओरे नील दोरिया' न जाने कितनी बार सुन चुका हूँ, सम्मोहन है कि बढ़ता ही जा रहा है। शान्त, मधुर स्वर लहरी जब गायिका के कण्ठ से गूँजती है, हृदय की धड़कन उसकी गति में अनुनादित होने लगती है, शरीर प्रयास करना बन्द कर देता है, आँखें बन्द हो जाती हैं, पूरा अस्तित्व डूब जाता है, बस डूब जाता है, न जाने कहाँ, किस विश्व में।

सचेत स्थिति में वापस आता हूँ तो रोचकता बढ़ती है, इण्टरनेट टटोलता हूँ, ऑर्नब और मित्रों से पहचान होती है, तीस-चालीस गाने सुन जाता हूँ, कर्णप्रिय, मधुर, एक विशेष सुखद अनुभव। जीवन के कुछ वर्ष बांग्लाभाषियों के बीच बिताने के कारण, उन गीतों का हल्का हल्का सा अर्थ मन में उतरता है और शेष भर जाता है संगीत, ऊपर तक। संगीत की भाषा शब्दों की भाषा को अपनी गोद में छिपा लेती है, कोमल ममत्वपूर्ण परिवेश, आपका मानसिक स्तर उठता जाता है भाषा, राज्य, देश, विश्व की कृत्रिम परिधियों से परे, जहाँ कोई आवश्यकता नहीं किसी भी माध्यम की, तदात्म्य स्थापित हो जाता है ईश्वर की मौलिक कृतियों से।

ऑर्नब और मित्रों की सांस्कृतिक शिक्षा शान्तिनिकेतन में हुयी, रबीन्द्र संगीत का स्पष्ट और व्यापक प्रभाव उनके गीतों में व्याप्त है। बांग्ला सामाजिक परिवेश का संगीत प्रेम और संगीत शिक्षा के लिये शान्तिनिकेतन का परिवेश। मैकाले की शिक्षा पद्धति से मन उचटना और शान्तिनिकेतन की स्थापना। गुरुदेव का प्रयोग देश, संस्कृति और समाज के प्रति। साहित्य, संगीत, कला की उन्नत साधना और तीनों में एकल सिद्धहस्तता, शैलीगत। गुरुदेव की तीनों विधाओं में उपस्थिति, जहाँ एक ओर वहाँ की सांस्कृतिक विरासत का अभिन्न अंग है, वहीं दूसरी ओर विश्व-पटल पर बांग्ला-गौरव का सशक्त हस्ताक्षर भी है।

कई वर्ष पहले जब रबीन्द्र संगीत से साक्षात्कार हुआ, बिना प्रश्नोत्तरी के डूब गया स्वरों के मधुर सागर में। लोकसंगीत, बाउल परम्परा, वैष्णव संगीत और शास्त्रीय संगीत के अतिरिक्त विशेषज्ञों का मत है कि कार्नटिक संगीत के स्वर दिख जाते हैं रबीन्द्र संगीत में। संगीत की एक अलग विधा का जन्म किसी सरस्वती-पुत्र, प्रयोगवादी और सृजनशील का ही कार्य हो सकता है। गुरुदेव के 150वें जन्मवर्ष के उपलक्ष्य में भारतीय रेलवे ने इस वर्ष संस्कृति एक्सप्रेस चलाकर कला के प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित की है।

वैसे तो संगीत का यह उत्कृष्ट निरूपण सकल विश्व की धरोहर है पर एक भारतीय का सीना और चौड़ा हो जाता, विशेषकर उस समय जब हमारी शिक्षा पद्धति हमारी सांस्कृतिक और बौद्धिक उपलब्धियों को हीन मानने लगी है। मुझे तो रह रह कर यह संगीत श्रेष्ठतम लग रहा है, वर्तमान में, भले ही इसे पूर्वनियत पश्चिमी मानकों पर विशेष न पाया जाये, ग्रैमी व ऑस्कर के लिये।

आप भी डूबिये, पर जब बाहर निकलियेगा, अवश्य बतायें कि हृदय के किन किन कक्षों को अनुनादित कर गया यह गीत?


पुनः सुन लें, नीली नदी के प्रति व्यक्त भाव


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