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16.6.12

स्वतन्त्र देवता

जीवन की प्राथमिकतायें संस्कृतियों के निर्माण में अहम योगदान देती हैं। जब धन की प्राथमिकता होती है, सारे तन्त्र बाजार का रूप धर लेते हैं, यहाँ तक कि मन्दिर भी बाजार की प्रवृत्ति से प्रभावित दिखते हैं। जब विकास प्राथमिकता होती है, हर घर कारखानों का एक उपभाग सा लगने लगता है, दिनचर्या मशीनों से कदमताल करने लगती है। जब स्वतन्त्रता शापित होती है, हर शब्द क्रांति का स्वर बन जाता है, हर युवा मर मिटने को तैयार घूमता है। और जब देश की पुनर्रचना का समय होता है, हर व्यक्ति मजदूर बन जाता है। हर दिन ईंट, हर रात गारा और निर्मित होती जाती है एक सुदृढ़ और स्थायी संरचना।

संस्कृति का रूप बड़ा ही धीरे प्रभाव डालता है, बहुत समय तो पता ही नहीं चलता है कि क्या परिवर्तन हो रहा है। जब वह प्रभाव स्थूल रूप से परिलक्षित होता है तब तक वह हमारे गुणसूत्रों में आ चुका होता है। तब पीढ़ियों का अन्तर संस्कृतियों के अन्तर में परिलक्षित होने लगता है। एक साथ ही कई पीढ़ियाँ, कई सामाजिक समूह, कई संस्कृतियाँ, हमारे देश में ही साथ साथ बसी हुयी हैं, कभी कभी तो शहर के अन्दर ही आपको इस विविधता के दर्शन हो जाते हैं।

पिछले दो वर्षों में प्राप्त अनुभव के आधार कह सकता हूँ कि एक नया सांस्कृतिक झोंका आ रहा है। जो परिवेश के बदलाव पर सतत ध्यान रखते हैं, उन्हें भी इसकी आहट आने लगी होगी। इस बदलाव में बहुत कुछ न केवल बदला बदला सा दिखने वाला है वरन खटकने भी वाला है, विशेषकर तब तक, जब तक उसके अभ्यस्त न हो जायें हम। जितनी बार भी मॉल जाता हूँ, यह विश्वास और भी दृढ़ होता जाता है। भविष्य का जो खाका समझ में आता है, हर बार की मॉल यात्रा उसी भविष्य-दिशा को स्थापित करती हुयी सी प्रतीत होती है।

जब कभी भी आप मॉल में जाते हैं, धीरे धीरे वहाँ का वातावरण आप पर प्रभाव डालने लगता है, आप शारीरिक रूप से सहज हो जाते हैं, शीतलता अस्तित्व में बसने लगती है। चारों ओर चमकती दुकानों के प्रकाश में आपका चेहरा और दमकने लगता है, लगता है जैसे तेज अन्दर से फूट रहा हो। धीरे धीरे आप भूलने लगते हैं कि आप किस देश में जी रहे हैं, वहाँ की क्या समस्यायें हैं? आपके सामने ऐश्वर्य, प्रसन्नता, उत्सव का वातावरण होता है, सब के सब अपना श्रेष्ठ समय बिताने आये होते हैं वहाँ। आप जिस दुकान में जाते हैं, सारे के सारे सेल्समानव आदर के साथ आपके स्वागत में लग जाते हैं, आपके सारे प्रश्नों के उत्तर देने में तत्पर। आप 'स्वतन्त्र देवता' जैसा अनुभव करने लगते हैं।

आप लोग खाते पीते हैं, खरीददारी करते हैं और फिल्में आदि देखकर वापस आ जाते हैं, एक पिकनिक सा मना कर। बच्चे भी प्रसन्न हो जाते हैं, आपको भी परिवार के मुखिया के रूप में लगता है कि आपने अपना पारिवारिक कर्तव्य अच्छे से निभा दिया। कभी कभी आप मॉल-भ्रमण को एक हथियार के रूप में प्रयोग करते हैं, बच्चों से कोई कार्य करवाने के लिये।

यहाँ तक तो सब कुछ अच्छा लगता है, साथ ही लगता है कि देश बढ़ रहा है, अच्छे परिवेश में सामान को कम मूल्य में उपलब्ध कराने का प्रयास सबको भा भी रहा है। खुदरा व्यापारी और साम्यवादी इसे अर्थव्यवस्था में आ रहा अनचाहा बदलाव भी मानते हैं। संभवतः वे नहीं चाहते कि आप स्वतन्त्र देवता जैसा अनुभव करें। जैसा भी हो, यह उत्तरोत्तर बढ़ता ही जा रहा है, बंगलोर में ही हर वर्ष पाँच-छह बड़े मॉल तैयार हो रहे हैं, लोगों के लिये भी एक अलग और सुखद अनुभव है इस तरह सामान खरीदना, और वह भी लगभग किसी भी खुदरा बाजार के समकक्ष मूल्यों पर।

यहाँ आर्थिक धारायें अपना मार्ग बदल रही हैं, छोटी छोटी नहरों का स्थान एक विशाल नदी ले रही है, जैसे भी हो, जल बह रहा है। पर एक बात है जो हर बार खटकती है, और जो संस्कृति को प्रभावित करने की क्षमता भी रखती है। वह है, इन मॉलों में हो रहे व्यवहार की कृत्रिमता। वहाँ जाकर जो आदर आपको मिलने लगता है, वह बहुत ही कृत्रिम सा लगता है। बाज़ार व्यवस्था का इसमें बहुत बड़ा योगदान है, धन का मान है। कोई गरीब हैं तो उसका अपमान अत्यन्त प्राकृतिक है। किसी के हाथ में पैसा है तो उसका सम्मान कृत्रिम है, उसे समाज में कोई आदर दे न दे, बाज़ार में उसे शत प्रतिशत मान मिलता है।

ध्यान से देखा जाये तो मॉलों में कार्य करने वालों में यह व्यवहार कूट कूट कर भरा जाता है, बस कुछ ही नये कर्मचारियों में एक हिचक दिखायी पड़ जाती है। २०-२१ साल के युवा लड़के जो नयी संस्कृति के प्रभाव में घर में अपने बड़ों का आदर करना भूल गये हैं, उन्हें भी प्रारम्भ में हिचक होती है, कालान्तर में घर के बड़ों का आदर करना आये न आये, मॉल में आये धनाड्य का आदर करना आ ही जाता है। जो लड़के भले और संस्कारी परिवारों से भी आते हैं, उन्हें भी प्रारम्भ में हिचक होती है, उन्हें गुणों को छोड़ धन को आदर देने में हिचक होती है, धीरे धीरे उन्हें भी यह छद्म गुण सीखना पड़ता है। कृत्रिमता का आवरण दोनों को ही खटकता है और खटकता है उन सबको भी, जिनको इस प्रकार की कृत्रिमता में घुटन सी होती है। स्वतन्त्र देवता का भाव स्थायी नहीं है, कुछ ही बार सुहाता है, बाद में आपकी विचारशीलता आपको कचोटने लगती है।

मानसिकता क्या है, यदि सामान की गुणवत्ता अच्छी है तो कृत्रिम आचरण की आवश्यकता कहाँ है? यदि सामान की गुणवत्ता अच्छी नहीं है तो इस तरह का आचरण विश्वास-हरण की श्रेणी में आता है। मुझे लगता है कि यह किसी सत्य पर पर्दा डालने जैसा है, यह संदेश पर कोलाहल डालने है। लगता है कि पहाड़ों को काट कर और गढ्ढों को पाट कर सारे विश्व को समतल बनाने की संस्कृति आ रही है। वह संस्कृति, जहाँ सबको लगता है कि वे स्वतन्त्र देवता हैं, जबकि उसका पूरा आधार धन की दासता का है।

अब तो जब भी मॉल जाता हूँ, थोड़ा सहमा रहता हूँ, कहीं कोई कृत्रिमता प्रभाव न छोड़ जाये मानसिकता पर।

28.1.12

सुकरात संग, मॉल में

अपने अनुशासन से बुरी तरह पीड़ित हो गया तो आवारगी का लबादा ओढ़ कर निकल भागा। कहाँ जायें, सड़कों पर यातायात बहुत है, एक दशक पहले बंगलुरु की जिन सड़कों पर बिना किसी प्रायोजन के ४-५ किमी टहलना हो जाया करता था, वही सड़कें आज धुँये की बहती धारा अपनी चौड़ाई में समेटे हुये हैं, रही सही कसर वाहनों के कर्कशीय कोलाहल ने व उनके उन्मत्त चालकों ने पूरी कर दी है। सड़कों पर निष्प्रायोजनीय भ्रमण एक रोमांचपूर्ण खेल खेलने जैसा है और उसके बाद सकुशल घर पहुँचना उस दिन की एक विशेष उपलब्धि।

सड़कों पर टहलने का विचार शीघ्र ही छोड़ मॉल में चला गया, न समर्थक के रूप में, न विरोधी के रूप में, बस एक दृष्टा के रूप में, दृष्टि बाहर नहीं, दृष्टि अन्दर भी नहीं, बस कहीं भी और हर जगह, आवारगी और वह भी विशुद्ध अपनी ही तरह की। मॉल को बहुत लोग विलासिता को प्रतीक मानते हैं, मैं नहीं मान पाता। जितनी बार भी जाता हूँ, तन से थका हुआ और मन से सजग हो वापस आता हूँ, विलासिता से बिल्कुल विपरीत। वातानुकूलित वातावरण में घन्टे भर टहलने भर से ही शरीर का समुचित व्यायाम हो जाता है। दृष्टि दौड़ाने पर दिखते हैं, उत्सुक और पीड़ित चेहरे, संतुष्ट और असंतुष्ट चेहरे, निर्भर करता है कि कौन खरीदने आया है और कौन खरीदवाने। थोड़ा सा ध्यान स्थिर रखिये किसी एक दिशा में, बस दस मिनट, किसी की निजता का हनन तो होगा पर लिखने के लिये न जाने कितने रोचक सूत्र मिल जायेंगे।

आगे बढ़ा, एक स्टोर में खड़ा सामान देख रहा था, वहाँ पर एक और व्यक्ति भी थे, लम्बी दाढ़ी, बाल घुँघराले और चेहरे पर आनन्द, ध्यान से देखते ही यह विश्वास हो गया कि ये सुकरात ही हैं। बड़े दार्शनिक थे, नये विचारों के प्रणेता, अपने समय में उपेक्षित, फिर भी अपना ज्ञान बाटते रहे, शासक वर्ग भी जितना झेल सकता था, झेलता रहा, पर जब पक गया तो जहर पिला कर जग से प्रयाण करने को कह दिया। बड़ा आश्चर्य हुआ उन्हें देखकर, सोचा कि दार्शनिकों के देश में भला सुकरात क्या ज्ञान बाटेंगे, जहाँ हर व्यक्ति दार्शनिक है वहाँ सुकरात को क्यों कोई सुनेगा? ईश्वर को यदि किसी को भेजना था तो निर्जीव देश में किसी साहस जगाने वाले को भेज देते।

बात बढ़ी तो उन्होने स्वयं ही बता दिया कि मॉल इत्यादि घूमना तो उनका बड़ा पुराना व्यसन रहा है, मुझे भी निशान्तजी और रवि रतलामीजी के लिखे लेख याद आ गये। सुकरात बोले, पहले तो मैं बस यही सोचकर प्रसन्न हो लेता था कि बिना इन सब सामानों के भी उनका जीवन कितनी प्रसन्नता से बीत रहा है। धीरे धीरे और बार बार वही प्रसन्नता अनुभव करने की आवश्यकता व्यसन बन गयी। पहले तो बाजार आदि छोटे छोटे होते थे, धूल और गन्दगी रहती थी, कई दुकानों में जाना पड़ता था, पास से देखने की स्वतन्त्रता भी नहीं थी, अब बड़ा अच्छा हो गया है, मॉल में ढेरों सामान भी रहता है, समय बड़े आराम से कट जाता है।


उनके आनन्द के सहभागी बनने का लोभ तो सदा ही था, मैं भी साथ हो लिया। उनके साथ मॉल का सामान देखने में उतना ही आनन्द आने लगा जितना उन्हें आया करता था। उनके लिये जो कारण होता था बाजार घूमने का, वही कारण लगभग मेरा भी आंशिक सत्य था, दार्शनिक भी, बौद्धिक भी। मैं और भी ध्यान से देखने लगा कि किन किन सामानों के न होने पर भी जीवन कितने आनन्द से बिताया जा सकता है, न जाने कितना ही सामान हमारी आवश्यकताओं की दृष्टि से व्यर्थ था। न जाने कितने ही सामानों से हमने अपनी माँग हटानी प्रारम्भ कर दी। माँग कम होने से मूल्य कम हो जाता है, इस तरह हमारे दो घंटे के भ्रमण ने न जाने कितने सामानों के मूल्य को कम कर दिया होगा। हर भ्रमण के साथ पूँजीवादी की हानि और शोषित वर्ग का लाभ। मॉल को समर्थक की दृष्टि से देखकर, उसके विरोधियों का ही हित करते थे सुकरात, हम दोनों बस वही करते रहे, आज मॉल में संग संग टहलते हुये।

आज किसी मँहगे सामान को अधिक देखकर उसके प्रति सुकरातीय निस्पृहीय निरादर का भाव तो नहीं जगा सका, पर अपने लिये आवश्यक न जान, उसके लिये चाह जगाते विज्ञापनीय सौन्दर्य से प्रभावित भी नहीं हुआ। आभूषणों की दुकानें भावनात्मक लूटशालायें लगने लगीं, सलाह, जब तक विवश न हों तब तक बचे रहना चाहिये। कपड़ों की दुकानें, जूतियों की कतारें, पर्स और न जाने क्या क्या? मन किया कि हर्षवर्धन बन वर्ष में एक बार एक मॉल खरीद गरीबों में बाट दूँ।

भारतीय नारी तो फिर भी सब देख समझ कर व्यय करती हैं श्रंगार पर, बस यही भाव बना रहे, सुकरात का साथ देने के लिये तो हम हैं ही। अब लगता है कि कितना अच्छा हुआ कि इमेल्दा मारकोस भारत में पैदा नहीं हुयीं, कहीं उनके ऊपर लिखा अध्याय हमारी भावी पत्नियों को पढ़ने को मिल जाता तब तो निश्चय ही मॉल देश के आधुनिक उपासनास्थल बन गये होते।