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21.4.12

एक लड़के की व्यथा

एक लड़का था, बचपन में देखता था कि सबकी माँ तो घर में ही रहती हैं, घर का काम करती हैं, बच्चों को सम्हालती हैं, पर उसकी माँ इन सब कार्यों के अतिरिक्त एक विद्यालय में पढ़ाने भी जाती है। दोपहर में जब सब बच्चे अपने विद्यालयों से घर आते थे, वे सब कितना कुछ बताते थे अपनी माँओं को, आज यह किया, आज वह किया, किसको अध्यापक ने दण्ड दिया, किसे सराहा गया। वह लड़का चुपचाप अकेले घर आता, सोचता काश उसकी भी माँ को पढ़ाने न जाना पड़ता, उसके पास भी अपनी माँ को बताने के लिये कितना कुछ था, विशेषकर उन दिनों में जब उसे किसी विषय में पूरे अंक मिलते थे, विशेषकर उन दिनों में जब अध्यापक सबके सामने उसकी पीठ ठोंक उसकी तरह बनने का उदाहरण औरों को देते थे।

माँ के जिस समय पर उसका अधिकार था, उसको किसी नौकरी में लगता देखता तो उसे लगता कि उसका विश्व कोई छीने ले रहा है। माँ की नौकरी से एक अजब सी स्पर्धा हो गयी थी, उसे पछाड़ने का विचार हर दिन उसे कचोटता। बचपन के अनुभवों से उत्पन्न दृढ़निश्चय बड़ा ही गाढ़ा होता है जो समय के कठिन प्रवाह में भी अपनी सांध्रता नहीं खोता है। निश्चय मन में घर कर गया कि जब वह नौकरी करने लगेगा तो माँ को नौकरी नहीं करने देगा।

समय आगे बढ़ता है, परिवार के जिस भविष्य के लिये माँ ने नौकरी की, उन्हीं उद्देश्यों के लिये उस लड़के को बाहर पढ़ने जाना पड़ता है, छात्रावास में रहना, छठवीं कक्षा से ही। भाग्य न जाने कौन सी परीक्षा लेने पर तुला हुआ था। कहाँ तो उसे दिन में माँ का आठ-दस घंटे नौकरी पर रहना क्षुब्ध करता था, कहाँ महीनों तक घर न जा पाने की असहनीय स्थिति। पहले भाग्य को जिसके लिये कोसता था, वही स्थिति अब घनीभूत होकर उपहार में मिली। दृढ़निश्चय और गहराया और बालमन यह निश्चय कर बैठा कि वह माँ को नौकरी न कर देने के अतिरिक्त उन्हें अपने साथ रख बचपन के अभाव की पूर्ति भी करेगा।

समय और आगे बढ़ता है, उस लड़के की नौकरी लग जाती है। बचपन से ही समय और भाग्य के साथ मची स्पर्धा में लड़के को पहली बार विजय निकट दीखती है, लगता है कि उन दो दृढ़निश्चयों को पूरा करने का समय आ गया है। माँ की १५ वर्ष की नौकरी तब भी शेष होती है। लड़का अपनी माँ से साधिकार कहता है कि अब आप नौकरी छोड़ दीजिये, साथ में रहिये, अब शेष उत्तरदायित्व उसका। शारीरिक सक्षमता और कर्मनिरत रहने का तर्क माँ से सुन लड़का स्तब्ध रह जाता है, कोई विरोध नहीं कर पाता है, विवशता १५ साल और खिंच जाती है। नौकरी, विवाह और परिवार के भरण पोषण का दायित्व समयचक्र गतिशीलता से घुमाने लगता है, पता ही नहीं चलता कि १५ वर्ष कब निकल गये।

सेवानिवृत्ति का समय, माँ से पुनः साथ चलने का आग्रह, पर छोटे भाई के विवाह आदि के उत्तरदायित्व में फँसी माँ की विवशता, दो वर्ष और निकल जाते हैं। पुनः आग्रह, पर माँ को अपना घर छोड़कर और कहीं रहने की इच्छा ही नहीं रही है, उस घर में स्मृतियों के न जाने कितने सुखद क्षण बसे हुये हैं, उस घर में एक आधी सदी बसी हुयी है। जीवन का उत्तरार्ध उस घर से कहीं दूर न बिताने का मन बना चुकी है उस लड़के की माँ।

उस लड़के की व्यग्रता उफान पर आने लगती है, एक पीढ़ी का चक्र पूरा होने को है। जिस उम्र में उसका दृढ़निश्चय हृदय में स्थापित हुआ था, उस उम्र के उसके अपने बच्चे हैं। स्वयं को दोनों के स्थान पर रख वह अपने बचपन का चीत्कार भलीभाँति समझ सकता है, पर वह अब भी क्यों वंचितमना है, इसका उत्तर उसके पास नहीं है। जीवन भागा जा रहा है, ईश्वर निष्ठुर खड़ा न जाने कौन से चक्रव्यूह रचने में व्यस्त है अब तक। ईश्वर संभवतः इस हठ पर अड़ा है कि उस लड़के ने अधिक कैसे माँग लिया, कैसे इतना बड़ा दृढ़संकल्प इतनी छोटी अवस्था में ले लिया। कहाँ तो सागर की अथाह जलराशि में उतराने का स्वप्न था, और कहाँ एक मरुथल में पानी की बूँद बूँद के लिये तरस रहा है उस लड़के का अस्तित्व।

वर्ष में एक माह के लिये माँ पिता उसके घर आते हैं, साथ रहने के लिये। उस लड़के को भी वर्ष में दस दिन का समय मिल पाता है, जब वह सारा काम छोड़ अपने पैतृक घर में अपने माँ पिता के साथ रहने चला जाता है। लड़का और अधिक कर भी क्या सकता है, ईश्वर यदि एक बालमन के दृढ़निश्चय के यही निष्कर्ष देने पर तुला हुआ है तो इसे उस लड़के की व्यथा ही कही जायेगी।