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11.9.21

जीवन-प्रश्न


भवन, भव्यता, निद्रासुख में,

व्यञ्जन का हो स्वादातुर मैं,

और मदों से पूर्ण जीवनी,

कामातुर यदि बहलाऊँगा ।

लज्जित खुद के न्याय क्षेत्र में,

पशु-विकसित मैं कहलाऊँगा ।।

 

देखो सब उस पथ जाते हैं ।

जाते हैं, सब खो जाते हैं ।।

 

अपनी जीवन-धारा को मैं,

सबके संग में क्यों बहने दूँ ।

व्यर्थ करूँ जीवन विशिष्ट क्यों ?

 

और जागरण के नादों में,

मूल्य कहाँ इन स्वप्नों का है ।

निश्चय मानो जीवन अपना,

उत्तर गहरे प्रश्नों का है ।।

24.1.16

ध्येय और प्रेम

आज फिर क्यों याद आयी,
नाव फिर से डगमगाई ।

ध्येय में क्या आज, अपने भी पराये हो चुके हैं,
ध्येय ही जीवन है, क्या और अब कुछ भी नहीं है ।
ध्येय की वीरानियों में, एक स्वर देता सुनाई ।
आज फिर क्यों याद आयी ।।१।।

शुष्क धरती पर कोई, मृदुफल कभी बोता नहीं है,
साथ जल का न मिले, तो फल कोई होता नहीं है ।
प्रेम जल है, ध्येय फल है, यह सनातन रीति भाई ।
आज फिर क्यों याद आयी ।।२।।

आज जब आराध्य को कुछ फूल अर्पित हो रहे हैं,
क्यों समुन्दर भ्रान्तियों के फिर हिलोरें ले रहे हैं ।
नयन में क्यों ध्येय-ज्योति, अश्रु बनकर डबडबाई ।
आज फिर क्यों याद आयी ।।३।।

आज जब दिन का परिश्रम, रात्रि का सुख चाहता है,
शान्ति में यादों का झोंका, ध्यान सारा बाँटता है ।
रागिनी फिर आज अपने, स्वर में क्यों संताप लायी ।
आज फिर क्यों याद आयी ।।४।।

ध्येय पथ में प्रेम का व्यवधान तो चिर काल से है,
किन्तु मानव की प्रतिष्ठा आज शर-सन्धान से है ।
फिर भी मैनें ध्येय-प्रतिमा प्रेम के जल से बनायी ।
आज फिर क्यों याद आयी ।।५।।


28.5.14

स्मृति

कहीं शीर्ष पर स्थिर जो है,
संकल्पों की प्रखर ज्योत्सना ।
बिना ध्येय का दीप जलाये,
अंधकूप में उतर न जाये ।।१।।

कहीं समय की भगदड़ में मैं,
जीवन का पथ भूल न जाऊँ ।
रुको ध्येय की वेदी पर मैं,
स्मृति के कुछ पुष्प चढ़ा दूँ ।।२।।

7.1.12

स्नेह से ध्येय तक

छात्रावास में आज अनुराग का दूसरा दिन है। कल जब पिता जी उसे यहाँ छोड़कर गये थे, तब से अनुराग को अजीब सी बेचैनी हो रही थी। अपने दस वर्ष के जीवन में अनुराग ने घर ही तो देखा था, अनुराग को लगातार उसी घर की याद आ रही थी।

दो महीने पहले पाँचवी कक्षा में उसके अच्छे अंक आये थे। उसके पिता जी अपने शहर के एक प्रबुद्ध व्यक्ति से मिलने गये थे जहाँ पर अनुराग के भविष्य के बारे में भी बातें हुयी थीं। वहाँ से आने के बाद अनुराग के पिता जी ने उसके बाहर जाकर पढ़ने के लिये भूमिका बांधनी चालू कर दी थी। अनुराग ने पिता जी को कई बार माँ से कहते सुना था "अपने शहर में कोई अच्छा विद्यालय नहीं है, अनुराग का भविष्य यहाँ बिगड़ जायेगा। अपने यहाँ लोग बनते ही क्या हैं, कुछ गुण्डे बनते हैं, कुछ चोर बनते हैं। अगर हमको अनुराग का भविष्य बनाना है तो उसे यहाँ से निकाल कर बाहर पढ़ाना पड़ेगा।"

इस तरह धीरे धीरे प्रस्तावना बनने लगी। माँ का विरोध भी भविष्य की उज्जवल आशा के सामने फीका पड़ने लगा, लेकिन माँ का प्यार अनुराग के प्रति और भी बढ़ने लगा। अनुराग के सामने छात्रावास के अच्छे अच्छे खाके खींचे जाने लगे, नया शहर घूमने को मिलेगा, ढेर सारे मित्र मिलेंगे, घूमने इत्यादि की स्वतन्त्रता रहेगी और न जाने क्या क्या बताया गया अनुराग को मानसिक रूप से तैयार करने के लिये।

लेकिन आज अनुराग दुःखी था। उसे घर की बहुत याद आ रही थी, किसी से बात करने की इच्छा नहीं हो रही थी। कल की रात पहली बार अनुराग अपने घर के बाहर सोया था और जागते ही अपने घर की छवि न पाकर अनुराग का मन भारी हो गया। कभी-कभी उसे अपने माता पिता पर क्रोध आता था, प्यारे प्यारे छोटे भाई बहनों का चेहरा रह रह कर आँखों के सामने घूम जाता था। अभी अनुराग के अन्दर वह क्षमता नहीं आयी थी कि वह अपने आप को समझा सके। बुद्धि इतनी विकसित नहीं हुयी थी कि भविष्य के आँगन में वर्तमान की छवि देख पाता। विचारों का आयाम केवल घर की चहारदीवारी तक ही सीमित था, घर के सामने सारी दुनिया का विस्तार नगण्य था।

ऐसी मानसिक उथल पुथल में घंटों निकल गये। अनुराग उठा, तैयार हुआ, विद्यालय गया। कक्षा में अध्यापक उसे मुँह हिलाते हुये गूँगे से प्रतीत हो रहे थे। साथ में बैठा हुआ छात्र अपने मामा की कार के बारे में बता रहा था लेकिन अनुराग से उचित मान न पाकर वह दूसरी तरफ मुड़ गया। मध्यान्तर में अनुराग भोजनालय में खाना खाने गया और फिर अनमना सा विद्यालय के सामने वाले प्रांगण में आकर चुपचाप बैठ गया। "क्या नाम है तुम्हारा, बच्चे?" आवाज सुनकर अनुराग चौंका। "अनुराग.....शर्मा" मुड़कर देखा तो एक दाढ़ी वाले सज्जन खड़े थे। वेशभूषा से विद्यालय के अध्यापक प्रतीत हो रहे थे।

"क्यों, घर की याद आ रही है ना?" प्रश्न सुनकर अनुराग सकते में आ गया। "हाँ...नहीं नहीं" अनुराग हकलाते हुये बोला। अनुराग खड़ा हो गया और अब वह अध्यापक के साथ खड़े एक और छात्र को देख सकता था, जिसके सर पर हाथ रखकर अध्यापक बोले "इसका नाम रोहित है। यह भी तुम्हारी तरह कल ही आया है, यह भी रो रहा था, तुम भी रो रहे थे। सोचा कि तुम दोनों को मिला देते हैं। दोनों मिलकर आँसू बहाना।"

अनुराग का दुःख कम हुआ और यह बात सुनकर अनुराग की अध्यापक के प्रति आत्मीयता भी बढ़ी।

"नमस्ते" गलती याद आते ही अनुराग बोला।

"नमस्ते" फिर तीनों किंकर्तव्यविमूढ़ से खड़े थे।

अनुराग बचपन से ही शर्मीली प्रवृत्ति का था। कक्षा में उत्तर देने के अलावा उसे इधर उधर की बातें बनाना नहीं आता था। उसे अब समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या बोले? अध्यापक वहीं बैठ गये, अभी मध्यान्तर समाप्त होने में पर्याप्त समय था, वह दोनों भी सामने बैठ गये।

"तुम्हारे माता पिता अच्छे नहीं हैं, देखो तुम लोगों को अकेले ही छोड़ दिया। तुमसे प्यार नहीं करते।" अध्यापक धीरे से मुस्कराते हुये बोले।

आश्चर्य हो रहा था अनुराग को। इन अध्यापक को उसके मन की बात कैसे पता चली? कुछ उत्तर नहीं सूझा अनुराग को। नहीं भी नहीं कर सकता था क्योंकि सचमुच यही सोच रहा था। हाँ कह कर वह अपने माता पिता के प्यार को झुठलाना नहीं चाहता था।

रोहित बोल पड़ा "नहीं नहीं, हमारे मम्मी पापा तो हमें बहुत चाहते हैं, उन्होने तो हमें बड़ा बनने के लिये यहाँ भेजा है।"

अनुराग ने सोचा, अरे, यही तो उसको भी बताया गया है।

"बड़ा बनने के लिये क्या करना पड़ता है?" अध्यापक बोले।

"पढ़ना पड़ता है" अनुराग बोल उठा।

उसके बाद अध्यापक ने दोनों के घरों के बारे में पूछा, तभी मध्यान्तर की घंटी बज गयी। सब लोग अपनी अपनी कक्षा में चले गये। रोहित और अनुराग अलग अलग वर्गों में थे।

"पढ़ना पड़ता है।" यह वाक्य अनुराग के दिमाग में गूंज रहा था। "तो घर में ही पढ़ लेते" प्रश्नोत्तर अनुराग के मन में पूछे जाने लगे। "नहीं नहीं अपने शहर में पढ़ाई अच्छी नहीं है" पिता जी ने कहा था। "माँ मुझे चाहती है तो भेज क्यों दिया" प्रश्न कौंधा। "नहीं नहीं, माँ तो दुखी थी, जब मैं छात्रावास आ रहा था" अनुराग नें मन को फिर समझाया।

अनुराग न अपने दुःख को कम कर सकता था और न ही दुःख का भार अपने घर वालों पर डाल सकता था। उसे जो ध्येय की प्रतिमा दिखायी गयी है उस पर उसको अपना जीवन खड़ा करना था। लेकिन प्रेम का उमड़ता हुआ बवंडर उसे बार बार दुःखी कर देता था। इस ध्येय और प्रेम के विरोधाभास ने अनुराग के मस्तिष्क को अचानक काफी परिपक्व कर दिया था। अब अनुराग यह जानता था कि अभी तक जो पारिवारिक स्नेह की नींव पर उसके जीवन का भवन निर्मित था उस भवन को ध्येय की ऊँचाईयों तक पहुँचाना ही उसका परम कर्तव्य है।